Sutra Navigation: Prashnavyakaran ( प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र )

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Sr No : 1005438
Scripture Name( English ): Prashnavyakaran Translated Scripture Name : प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र
Mool Language : Ardha-Magadhi Translated Language : Hindi
Chapter :

संवर द्वार श्रुतस्कंध-२

अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा

Translated Chapter :

संवर द्वार श्रुतस्कंध-२

अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा

Section : Translated Section :
Sutra Number : 38 Category : Ang-10
Gatha or Sutra : Sutra Sutra Anuyog :
Author : Deepratnasagar Original Author : Gandhar
 
Century : Sect : Svetambara1
Source :
 
Mool Sutra : [सूत्र] जंबू! दत्ताणुण्णायसंवरो नाम होति ततियं–सुव्वतं महव्वतं गुणव्वतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणं-ततण्हामणुगय महिच्छ मणवयणकलुस आयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमण हत्थ पायनिहुयं निग्गंथं नेट्ठिकं निरुत्तं निरासवं निब्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभ पवरबलवग सुविहिय-जनसंमतं परमसाहुधम्मचरणं। जत्थ य गामागर नगर निगम खेड कब्बड मडंब दोणमुह संवाह पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि मुत्त सिल प्पवाल कंस दूस रयय वरकणग रयणमादिं पडियं पम्हुट्ठं विप्पणट्ठं न कप्पति कस्सति कहेउं वा गेण्हिउं वा। अहिरण्णसुवण्णिकेण समलेट्ठुकंचनेनं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं। जं पि य होज्जा हि दव्वजातंखलगतं खेत्तगतं रण्णमंतरगतं व किंचि पुप्फ फल तय प्पवाल कंद मूल तण कट्ठ सक्कराइं अप्पं व बहुं व अणुं व थूलगं वा न कप्पति ओग्गहे अदिन्नंमि गिण्हिउं जे। हणिहणि ओग्गहं अणुण्णविय गेण्हियव्वं। वज्जेयव्वो य सव्वकालं अचियत्तघरप्पवेसो, अचियत्तभत्तपाणं अचियत्त-पीढ फलग सेज्जा संथारग वत्थ पत्त कंबल दंडग रयहरण निसेज्ज चोलपट्टग मुहपोत्तिय पायपुंछणाइ भायण भंडोवहि उवकरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेणं जं च गेण्हइ, परस्स नासेइ जं च सुकयं, दाणस्स य अंतरातियं, दाणविप्पणासो, पेसुन्नं चेव मच्छरित्तं च। जे वि य पीढ फलग सेज्जा संथारग वत्थ पाय कंबल रओहरण निसेज्ज चोलपट्टग मुहपोत्तिय पायपुंछणादि भायण भंडोवहि उवकरणं असंविभागी, असंगहरुई, तव-वइतेणे य रूवतेणे य, आयारे चेव भावतेणे य, सद्दकरे ज्झंज्झकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकारके, सया अप्पमाणभोई सततं अनुबद्धवेरे य निच्चरोसी, से तारिसए नाराहए वयमिणं। अह केरिसए पुणाइं आराहए वयमिणं? जे से उवहि भत्तपाणदाण संगहण कुसले अच्चंतबाल दुब्बल गिलाण वुड्ढ खमके पवत्ति आयरिय उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सी कुल गण संघ चेइयट्ठे य निज्जरट्ठी वेयावच्चं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेति, न य अचियत्तस्स घरं पविसइ, न य अचियत्तस्सगेण्हइ भत्तपाणं, न य अचियत्तस्स सेवइ पीढ फलग सेज्जा संथारग वत्थ पाय कंबल दंडग रओहरण निसेज्ज चोल-पट्टय मुहपोत्तिय पायपुंछणाइ भायण भंडोवहि उवगरणं, न य परिवायं परस्स जंपति, ण यावि दोसे परस्स गेण्हति, परववएसेनवि न किंचि गेण्हति, न य विपरिणामेति कंचि जनं, न यावि नासेति दिन्न-सुकयं, दाऊण य काऊण य न होइ पच्छाताविए, संविभागसीले संगहोवग्गहकुसले, से तारिसए आराहए वयमिणं। इमं च परदव्वहरणवेरमण परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चा-भाविकं आगमेसिभद्दं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाण विओसमणं। तस्स इमा पंच भावणा ततियस्स वतस्स होंति परदव्वहरणवेरमण परिरक्खणट्ठयाए। पढमं–देवकुल सभा प्पवा आवसह रुक्खमूल आराम कंदरा आगर गिरिगुहकम्मंत उज्जान जाणसाल कुवितसाल मंडव सुन्नघर सुसाण लेण आवणे, अण्णंमि य एवमादियंमि दगमट्टिय बीज हरित तसपाण असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं। आहाकम्मं–बहुले य जे से आसित्त संमज्जिओसित्त सोहिय छायण दुमण लिंपण अनुलिंपण जलण भंडचालण, अंतो बहिं च असंजमो जत्थ वट्टती, संजयाण अट्ठावज्जेयव्वे हु उवस्सए से तारिसए सुत्तपडिकुट्ठे। एवं विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरण करण कारावण पावकम्मविरत्ते दत्ताणुण्णाय-ओग्गहरुई। बितियं–आरामुज्जाण काणण वणप्पदेसभागे जं किंचि इक्कडं व कढिणगं व जंतुगं वपरा-मेरा कुच्च कुस डब्भ पलाल मूयग वल्लय पुप्प फल तय प्पवाल कंद मूल तण कट्ठ सक्कराइं गेण्हइ सेज्जोवहिस्स अट्ठा, न कप्पए ओग्गहे अदिण्णंमि गेण्हिउं जे। हणिहणि ओग्गहं अणुण्णविय गेण्हियव्वं। एवं ओग्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरण करण कारावण पावकम्मविरते दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई। ततियं–पीढ फलग सेज्जा संथारगट्ठयाए रुक्खा न छिंदियव्वा, न य छेदणेण भेयणेण य सेज्जा कारेयव्वा। जस्सेव उवस्सए वसेज्ज सेज्जं तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसमं समं करेज्जा, न निवाय पवाय उस्सुकत्तं, न डंसमसगेसु खुभिय-व्वं अग्गी धूमो य न कायव्वो। एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्मं। एवं सेज्जासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरण करण कारावण पावकम्मविरते दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई। चउत्थं–साहारणपिंडपातलाभे भोत्तव्वं संजएण समियं, न सायसूयाहिकं, न खद्धं, न वेइयं, न तुरियं, न चवलं, न साहसं, न य परस्स पीलाकरं सावज्जं, तह भोत्तव्वं जह से ततियवयं न सीदति। साहारणपिंडवायलाभे सुहुमंअदिन्नादानवय नियम वेरमणं। एवं साहारणपिंडवायलाभ समितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरण करण कारावण पावकम्मविरत्ते दत्ताणु-ण्णाय ओग्गहरुती। पंचमगं–साहम्मिएसु विणओ पउंजियव्वो, उवकारण पारणासु विनओ पउंजियव्वो, वायण परियट्टणासु विनओ पउंजियव्वो, दाण गहण पुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो, निक्खमण पवेसणासु विणओ पउंजियव्वो, अण्णेसु य एवमाइएसु बहुसु कारणसएसु वणओ पउंजियव्वो। विनओ वि तवो तवो वि धम्मो, तम्हा विनओ पउंजियव्वो गुरूसु साहूसु तवस्सीसु य। एवं विनएण भाविओ भवति अंतरप्पा, णिच्चं अहिकरण करण कारावण पावकम्मविरत्ते दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई। एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुपणिहियंइमेहिं पंचहि वि कारणेहिं मण वयण काय परिरक्खिएहिं। निच्चं आमरणतं च एस जोगो णेयव्वो धितिमया मतिमया अनासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुन्नाओ। एवं ततियं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियंआराहियं आणाए अनुपालियं भवति। एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। ततियं संवरदारं समत्तं।
Sutra Meaning : हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार ‘दत्तानुज्ञात’ नामक है। यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है। यह परकीय द्रव्य – पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा – अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन इतना संयमशील बन जाता है कि हाथ और पैर परधन को ग्रहण करने से विरत हो जाते हैं। सर्वज्ञ भगवंतों ने इसे उपादेय कहा है। आस्रव का निरोध करने वाला है। निर्भय है – लोभ उसका स्पर्श भी नहीं करता। यह प्रधान बलशालियों तथा सुविहित साधुजनों द्वारा सम्मत है, श्रेष्ठ साधुओं का धर्माचरण है। इस अदत्तादानविरमण व्रत में ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, संबाध, पट्टन अथवा आश्रम में पड़ी हुई, उत्तम मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चाँदी, सोना, रत्न आदि कोई भी वस्तु पड़ी हो – गिरी हो, कोई उसे भूल गया हो, गुम हुई हो तो किसी को कहना अथवा स्वयं उठा लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि साधु को हिरण्य का त्यागी हो कर, पाषाण और स्वर्ण में समभाव रख कर, परिग्रह से सर्वथा रहित और सभी इन्द्रियों से संवृत होकर ही लोक में विचरना चाहिए। कोई भी वस्तु, जो खलिहान में, खेत में, या जंगल में पड़ी हो, जैसे कि फूल, फल, छाल, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ या कंकर आदि हो, वह थोड़ी हो या बहुत हो, छोटी हो या मोटी हो, स्वामी के दिए बिना या उसकी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता। घर और स्थंडिलभूमि भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना उचित नहीं है। तो फिर साधु को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? प्रतिदिन अवग्रह की आज्ञा लेकर ही उसे लेना चाहिए। तथा अप्रीतिकारक घर में प्रवेश वर्जित करना चाहिए। अप्रीतिकारक के घर से आहार – पानी तथा पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दण्ड और पादप्रोंछन एवं भाजन, भाण्ड तथा उपधि उपकरण भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। साधु को दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए, दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए, दूसरे के नाम से जो कोई वस्तु ग्रहण करता है तथा जो उपकरण को या किसी के सुकृत को छिपाता है, जो दान में अंतराय करता है, जो दान का विप्रणाश करता है, जो पैशुन्य करता है और मात्सर्य करता है। जो भी पीठ, पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका और पादप्रोञ्छन आदि, पात्र, मिट्टी के पात्र और अन्य उपकरणों का जो आचार्य आदि साधर्मिकों में संविभाग नहीं करता, वह अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता। जो असंग्रहरुचि है, जो तपस्तेन है, वचनस्तेन है, रूपस्तेन है, जो आचार का चोर है, भावस्तेन है, जो शब्दकर है, जो गच्छ में भेद उत्पन्न करने वाले कार्य करता है, कलहकारी, वैरकारी और असमाधिकारी है, जो शास्त्रोक्त प्रमाण से सदा अधिक भोजन करता है, जो सदा वैर बाँध रखने वाला है, सदा क्रोध करता रहता है, ऐसा पुरुष इस अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता है। किस प्रकार के मनुष्य इस व्रत के आराधक हो सकते हैं ? इस अस्तेयव्रत का आराधक वही पुरुष हो सकता है जो – वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार – पानी आदि का संग्रहण और संविभाग करने में कुशल हो। जो अत्यन्त बाल, दुर्बल, रुग्ण, वृद्ध और मासक्षपक आदि तपस्वी साधु की, प्रवर्त्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नव – दीक्षित साधु की तथा साधर्मिक, तपस्वी कुल, गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो। जो निर्जरा का अभिलाषी हो, जो अनिश्रित हो, वही दस प्रकार का वैयावृत्य, अन्नपान आदि अनेक प्रकार से करता है। वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न अप्रीतिकारक के घर का आहार – पानी ग्रहण करता है। अप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्ट, मुख – वस्त्रिका एवं पादप्रोंछन भी नहीं लेता है। वह दूसरों की निन्दा नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है। जो दूसरे के नाम से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है, दूसरे के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्त्य आदि करके पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने वाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का आराधक होता है। परकीय द्रव्य के हरण से विरमण रूप इस अस्तेयव्रत की परीक्षा के लिए भगवान तीर्थंकर देव ने यह प्रवचन समीचीन रूप से कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला और भविष्यत्‌ में कल्याणकारी है। यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय – युक्ति – तर्क से संगत है, अकुटिल – मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को निःशेष रूप से शान्त कर देने वाला है। परद्रव्यहरण – विरमण (अदत्तादानत्याग) व्रत की पूरी तरह रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएं हैं, जो आगे कही जा रही हैं। पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है – देवकुल, सभा, प्रपा, आवसथ, वृक्षमूल, आराम, कन्दरा, आकर, गिरिगुहा, कर्म, यानशाला, कुप्यशाला, मण्डप, शून्य घर, श्मशान, लयन तथा दुकान में और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो भी सचित्त जल, मृत्तिका, बीज, दूब आदि हरित और चींटी – मकोड़े आदि त्रस जीवों से रहित हो, जिसे गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, प्रासुक हो, जो स्त्री, पशु एवं नपुंसक के संसर्ग से रहित हो और इस कारण जो प्रशस्त हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को विहरना चाहिए – साधुओं के निमित्त जिसके लिए हिंसा की जाए, ऐसे आधाकर्म की बहुलता वाले, आसिक्त, संमार्जित, उत्सिक्त, शोभित, छादन, दूमन, लिम्पन, अनुलिंपन, ज्वलन, भाण्डों को इधर – उधर हटाए हुए स्थान – उपाश्रय साधुओं के लिए वर्जनीय है। ऐसा स्थान शास्त्र द्वारा निषिद्ध है। इस प्रकार विविक्त – स्थान में वसतिरूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि सदैव दुर्गति के कारण पापकर्म करने और करवाने से निवृत्त होता – बचता है तथा दत्त – अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। दूसरी भावना निर्दोष संस्तारकग्रहण संबंधी है। आराम, उद्यान, कानन और वन आदि स्थानों में जो कुछ भी इक्कड जाति का घास तथा कठिन, जन्तुक, परा, मेरा, कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्वज, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और शर्करा आदि द्रव्य संस्तारक रूप उपधि के लिए अथवा संस्तारक एवं उपधि के लिए ग्रहण करता है तो इन उपाश्रय के भीतर की ग्राह्य वस्तुओं को दाता द्वारा दिये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता। इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप – कर्म के करने और कराने से निवृत्त होता – बचता है और दत्त – अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। तीसरी भावना शय्या – परिकर्मवर्जन है। पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए। वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए। साधु जिस उपाश्रय में निवास करे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए। वहाँ की भूमि यदि विषम हो तो उसे सम न करे। पवनहीन स्थान को अधिक पवन वाला अथवा अधिक पवन वाले स्थान को पवनरहित बनाने के लिए उत्सुक न हो – ऐसा करने की अभिलाषा भी न करे, डाँस – मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होना चाहिए और उन्हें हटाने के लिए धूम आदि नहीं करना चाहिए। इस प्रकार संयम की, संवर की, कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह, अत एव समाधि की प्रधानता वाला धैर्यवान मुनि काय से इस व्रत का पालन करता हुआ निरन्तर आत्मा के ध्यान में निरत रहकर, समितियुक्त रहकर और एकाकी – रागद्वेष से रहित होकर धर्म का आचरण करे। इस प्रकार शय्यासमिति के योग से भावित अन्तरात्मा वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप – कर्म से विरत होता है और दत्त – अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है। सब साधुओं के लिए साधारण सम्मिलित आहार – पानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक्‌ प्रकार से – यतनापूर्वक खाना चाहिए। शाक और सूप की अधिकता वाला भोजन अधिक नहीं खाना चाहिए। तथा वेगपूर्वक, त्वरा के साथ, चंचलतापूर्वक और न विचारविहीन होकर खाना चाहिए। जो दूसरों को पीड़ाजनक हो ऐसा एवं सदोष नहीं खाना चाहिए। साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए, जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो। यह अदत्तादानविरमणव्रत का सूक्ष्म नियम है। इस प्रकार सम्मिलित भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। पाँचवीं भावना साधर्मिक – विनय है। साधर्मिक के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए। उपकार और तपस्या की पारणा में, वाचना और परिवर्तना में, भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे लेने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्बन्धी पृच्छा करने में, उपाश्रय से बाहर नीकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए। इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में विनय का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है। अत एव विनय का आचरण करना चाहिए। विनय किनका करना चाहिए ? गुरुजनों का, साधुओं का और तप करने वाले तपस्वियों का। इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधु अधिकरण से विरत तथा दत्त – अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। शेष पूर्ववत्‌। इस प्रकार (आचरण करने) से यह तीसरा संवरद्वार समीचीन रूप से पालित और सुरक्षित होता है। इस प्रकार यावत्‌ तीर्थंकर भगवान द्वारा कथित है, सम्यक्‌ प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है। शेष शब्दों का अर्थ पूर्ववत्‌ समझना चाहिए।
Mool Sutra Transliteration : [sutra] jambu! Dattanunnayasamvaro nama hoti tatiyam–suvvatam mahavvatam gunavvatam paradavvaharanapadiviraikaranajuttam aparimiyamanam-tatanhamanugaya mahichchha manavayanakalusa ayanasuniggahiyam susamjamiyamana hattha payanihuyam niggamtham netthikam niruttam nirasavam nibbhayam vimuttam uttamanaravasabha pavarabalavaga suvihiya-janasammatam paramasahudhammacharanam. Jattha ya gamagara nagara nigama kheda kabbada madamba donamuha samvaha pattanasamagayam cha kimchi davvam mani mutta sila ppavala kamsa dusa rayaya varakanaga rayanamadim padiyam pamhuttham vippanattham na kappati kassati kaheum va genhium va. Ahirannasuvannikena samaletthukamchanenam apariggahasamvudenam logammi vihariyavvam. Jam pi ya hojja hi davvajatamkhalagatam khettagatam rannamamtaragatam va kimchi puppha phala taya ppavala kamda mula tana kattha sakkaraim appam va bahum va anum va thulagam va na kappati oggahe adinnammi ginhium je. Hanihani oggaham anunnaviya genhiyavvam. Vajjeyavvo ya savvakalam achiyattagharappaveso, achiyattabhattapanam achiyatta-pidha phalaga sejja samtharaga vattha patta kambala damdaga rayaharana nisejja cholapattaga muhapottiya payapumchhanai bhayana bhamdovahi uvakaranam paraparivao parassa doso paravavaesenam jam cha genhai, parassa nasei jam cha sukayam, danassa ya amtaratiyam, danavippanaso, pesunnam cheva machchharittam cha. Je vi ya pidha phalaga sejja samtharaga vattha paya kambala raoharana nisejja cholapattaga muhapottiya payapumchhanadi bhayana bhamdovahi uvakaranam asamvibhagi, asamgaharui, Tava-vaitene ya ruvatene ya, ayare cheva bhavatene ya, Saddakare jjhamjjhakare kalahakare verakare vikahakare asamahikarake, saya appamanabhoi satatam anubaddhavere ya nichcharosi, se tarisae narahae vayaminam. Aha kerisae punaim arahae vayaminam? Je se uvahi bhattapanadana samgahana kusale achchamtabala dubbala gilana vuddha khamake pavatti ayariya uvajjhae sehe sahammie tavassi kula gana samgha cheiyatthe ya nijjaratthi veyavachcham anissiyam dasaviham bahuviham kareti, na ya achiyattassa gharam pavisai, na ya achiyattassagenhai bhattapanam, na ya achiyattassa sevai pidha phalaga sejja samtharaga vattha paya kambala damdaga raoharana nisejja chola-pattaya muhapottiya payapumchhanai bhayana bhamdovahi uvagaranam, na ya parivayam parassa jampati, na yavi dose parassa genhati, paravavaesenavi na kimchi genhati, na ya viparinameti kamchi janam, na yavi naseti dinna-sukayam, dauna ya kauna ya na hoi pachchhatavie, samvibhagasile samgahovaggahakusale, se tarisae arahae vayaminam. Imam cha paradavvaharanaveramana parirakkhanatthayae pavayanam bhagavaya sukahiyam attahiyam pechcha-bhavikam agamesibhaddam suddham neyauyam akudilam anuttaram savvadukkhapavana viosamanam. Tassa ima pamcha bhavana tatiyassa vatassa homti paradavvaharanaveramana parirakkhanatthayae. Padhamam–devakula sabha ppava avasaha rukkhamula arama kamdara agara giriguhakammamta ujjana janasala kuvitasala mamdava sunnaghara susana lena avane, annammi ya evamadiyammi dagamattiya bija harita tasapana asamsatte ahakade phasue vivitte pasatthe uvassae hoi vihariyavvam. Ahakammam–bahule ya je se asitta sammajjiositta sohiya chhayana dumana limpana anulimpana jalana bhamdachalana, amto bahim cha asamjamo jattha vattati, samjayana atthavajjeyavve hu uvassae se tarisae suttapadikutthe. Evam vivittavasavasahisamitijogena bhavito bhavati amtarappa, nichcham ahikarana karana karavana pavakammaviratte dattanunnaya-oggaharui. Bitiyam–aramujjana kanana vanappadesabhage jam kimchi ikkadam va kadhinagam va jamtugam vapara-mera kuchcha kusa dabbha palala muyaga vallaya puppa phala taya ppavala kamda mula tana kattha sakkaraim genhai sejjovahissa attha, na kappae oggahe adinnammi genhium je. Hanihani oggaham anunnaviya genhiyavvam. Evam oggahasamitijogena bhavito bhavati amtarappa, nichcham ahikarana karana karavana pavakammavirate dattanunnaya oggaharui. Tatiyam–pidha phalaga sejja samtharagatthayae rukkha na chhimdiyavva, na ya chhedanena bheyanena ya sejja kareyavva. Jasseva uvassae vasejja sejjam tattheva gavesejja, na ya visamam samam karejja, na nivaya pavaya ussukattam, na damsamasagesu khubhiya-vvam aggi dhumo ya na kayavvo. Evam samjamabahule samvarabahule samvudabahule samahibahule dhire kaena phasayamte sayayam ajjhappajjhanajutte samie ege charejja dhammam. Evam sejjasamitijogena bhavito bhavati amtarappa, nichcham ahikarana karana karavana pavakammavirate dattanunnaya oggaharui. Chauttham–saharanapimdapatalabhe bhottavvam samjaena samiyam, na sayasuyahikam, na khaddham, na veiyam, na turiyam, na chavalam, na sahasam, na ya parassa pilakaram savajjam, taha bhottavvam jaha se tatiyavayam na sidati. Saharanapimdavayalabhe suhumamadinnadanavaya niyama veramanam. Evam saharanapimdavayalabha samitijogena bhavito bhavati amtarappa, nichcham ahikarana karana karavana pavakammaviratte dattanu-nnaya oggaharuti. Pamchamagam–sahammiesu vinao paumjiyavvo, uvakarana paranasu vinao paumjiyavvo, vayana pariyattanasu vinao paumjiyavvo, dana gahana puchchhanasu vinao paumjiyavvo, nikkhamana pavesanasu vinao paumjiyavvo, annesu ya evamaiesu bahusu karanasaesu vanao paumjiyavvo. Vinao vi tavo tavo vi dhammo, tamha vinao paumjiyavvo gurusu sahusu tavassisu ya. Evam vinaena bhavio bhavati amtarappa, nichcham ahikarana karana karavana pavakammaviratte dattanunnaya oggaharui. Evaminam samvarassa daram sammam samvariyam hoi supanihiyamimehim pamchahi vi karanehim mana vayana kaya parirakkhiehim. Nichcham amaranatam cha esa jogo neyavvo dhitimaya matimaya anasavo akaluso achchhiddo aparissavi asamkilittho suddho savvajinamanunnao. Evam tatiyam samvaradaram phasiyam paliyam sohiyam tiriyam kittiyamarahiyam anae anupaliyam bhavati. Evam nayamunina bhagavaya pannaviyam paruviyam pasiddham siddhavarasasanaminam aghaviyam sudesiyam pasattham. Tatiyam samvaradaram samattam.
Sutra Meaning Transliteration : He jambu ! Tisara samvaradvara ‘dattanujnyata’ namaka hai. Yaha mahana vrata hai tatha yaha gunavrata bhi hai. Yaha parakiya dravya – padarthom ke harana se nivrittirupa kriya se yukta hai, vrata aparimita aura ananta trishna se anugata maha – abhilasha se yukta mana evam vachana dvara papamaya paradravyaharana ka bhalibhamti nigraha karata hai. Isa vrata ke prabhava se mana itana samyamashila bana jata hai ki hatha aura paira paradhana ko grahana karane se virata ho jate haim. Sarvajnya bhagavamtom ne ise upadeya kaha hai. Asrava ka nirodha karane vala hai. Nirbhaya hai – lobha usaka sparsha bhi nahim karata. Yaha pradhana balashaliyom tatha suvihita sadhujanom dvara sammata hai, shreshtha sadhuom ka dharmacharana hai. Isa adattadanaviramana vrata mem grama, akara, nagara, nigama, kheta, karbata, madamba, dronamukha, sambadha, pattana athava ashrama mem pari hui, uttama mani, moti, shila, pravala, kamsa, vastra, chamdi, sona, ratna adi koi bhi vastu pari ho – giri ho, koi use bhula gaya ho, guma hui ho to kisi ko kahana athava svayam utha lena nahim kalpata hai. Kyomki sadhu ko hiranya ka tyagi ho kara, pashana aura svarna mem samabhava rakha kara, parigraha se sarvatha rahita aura sabhi indriyom se samvrita hokara hi loka mem vicharana chahie. Koi bhi vastu, jo khalihana mem, kheta mem, ya jamgala mem pari ho, jaise ki phula, phala, chhala, pravala, kanda, mula, trina, kashtha ya kamkara adi ho, vaha thori ho ya bahuta ho, chhoti ho ya moti ho, svami ke die bina ya usaki ajnya prapta kiye bina grahana karana nahim kalpata. Ghara aura sthamdilabhumi bhi ajnya prapta kiye bina grahana karana uchita nahim hai. To phira sadhu ko kisa prakara grahana karana chahie\? Pratidina avagraha ki ajnya lekara hi use lena chahie. Tatha apritikaraka ghara mem pravesha varjita karana chahie. Apritikaraka ke ghara se ahara – pani tatha pitha, phalaka, shayya, samstaraka, vastra, patra, kambala, danda aura padapromchhana evam bhajana, bhanda tatha upadhi upakarana bhi grahana nahim karana chahie. Sadhu ko dusare ki ninda nahim karani chahie, dusare ko dosha nahim dena chahie, dusare ke nama se jo koi vastu grahana karata hai tatha jo upakarana ko ya kisi ke sukrita ko chhipata hai, jo dana mem amtaraya karata hai, jo dana ka vipranasha karata hai, jo paishunya karata hai aura matsarya karata hai. Jo bhi pitha, pata, shayya, samstaraka, vastra, patra, kambala, danda, rajoharana, asana, cholapattaka, mukhavastrika aura padapronchhana adi, patra, mitti ke patra aura anya upakaranom ka jo acharya adi sadharmikom mem samvibhaga nahim karata, vaha asteyavrata ka aradhaka nahim hota. Jo asamgraharuchi hai, jo tapastena hai, vachanastena hai, rupastena hai, jo achara ka chora hai, bhavastena hai, jo shabdakara hai, jo gachchha mem bheda utpanna karane vale karya karata hai, kalahakari, vairakari aura asamadhikari hai, jo shastrokta pramana se sada adhika bhojana karata hai, jo sada vaira bamdha rakhane vala hai, sada krodha karata rahata hai, aisa purusha isa asteyavrata ka aradhaka nahim hota hai. Kisa prakara ke manushya isa vrata ke aradhaka ho sakate haim\? Isa asteyavrata ka aradhaka vahi purusha ho sakata hai jo – vastra, patra adi dharmopakarana, ahara – pani adi ka samgrahana aura samvibhaga karane mem kushala ho. Jo atyanta bala, durbala, rugna, vriddha aura masakshapaka adi tapasvi sadhu ki, pravarttaka, acharya, upadhyaya ki, nava – dikshita sadhu ki tatha sadharmika, tapasvi kula, gana, samgha ke chitta ki prasannata ke lie seva karane vala ho. Jo nirjara ka abhilashi ho, jo anishrita ho, vahi dasa prakara ka vaiyavritya, annapana adi aneka prakara se karata hai. Vaha apritikaraka grihastha ke kula mem pravesha nahim karata aura na apritikaraka ke ghara ka ahara – pani grahana karata hai. Apritikaraka se pitha, phalaka, shayya, samstaraka, vastra, patra, kambala, danda, rajoharana, asana, cholapatta, mukha – vastrika evam padapromchhana bhi nahim leta hai. Vaha dusarom ki ninda nahim karata aura na dusare ke doshom ko grahana karata hai. Jo dusare ke nama se kuchha bhi grahana nahim karata aura na kisi ko danadi dharma se vimukha karata hai, dusare ke dana adi sukrita ka athava dharmacharana ka apalapa nahim karata hai, jo danadi dekara aura vaiyavrittya adi karake pashchattapa nahim karata hai, aisa acharya, upadhyaya adi ke lie samvibhaga karane vala, samgraha evam upakara karane mem kushala sadhaka hi isa asteyavrata ka aradhaka hota hai. Parakiya dravya ke harana se viramana rupa isa asteyavrata ki pariksha ke lie bhagavana tirthamkara deva ne yaha pravachana samichina rupa se kaha hai. Yaha pravachana atma ke lie hitakari hai, agami bhava mem shubha phala pradana karane vala aura bhavishyat mem kalyanakari hai. Yaha pravachana shuddha hai, nyaya – yukti – tarka se samgata hai, akutila – mukti ka sarala marga hai, sarvottama hai tatha samasta duhkhom aura papom ko nihshesha rupa se shanta kara dene vala hai. Paradravyaharana – viramana (adattadanatyaga) vrata ki puri taraha raksha karane ke lie pamcha bhavanaem haim, jo age kahi ja rahi haim. Pamcha bhavanaom mem se prathama bhavana isa prakara hai – devakula, sabha, prapa, avasatha, vrikshamula, arama, kandara, akara, giriguha, karma, yanashala, kupyashala, mandapa, shunya ghara, shmashana, layana tatha dukana mem aura isi prakara ke anya sthanom mem jo bhi sachitta jala, mrittika, bija, duba adi harita aura chimti – makore adi trasa jivom se rahita ho, jise grihastha ne apane lie banavaya ho, prasuka ho, jo stri, pashu evam napumsaka ke samsarga se rahita ho aura isa karana jo prashasta ho, aise upashraya mem sadhu ko viharana chahie – sadhuom ke nimitta jisake lie himsa ki jae, aise adhakarma ki bahulata vale, asikta, sammarjita, utsikta, shobhita, chhadana, dumana, limpana, anulimpana, jvalana, bhandom ko idhara – udhara hatae hue sthana – upashraya sadhuom ke lie varjaniya hai. Aisa sthana shastra dvara nishiddha hai. Isa prakara vivikta – sthana mem vasatirupa samiti ke yoga se bhavita antahkarana vala muni sadaiva durgati ke karana papakarma karane aura karavane se nivritta hota – bachata hai tatha datta – anujnyata avagraha mem ruchi vala hota hai. Dusari bhavana nirdosha samstarakagrahana sambamdhi hai. Arama, udyana, kanana aura vana adi sthanom mem jo kuchha bhi ikkada jati ka ghasa tatha kathina, jantuka, para, mera, kurcha, kusha, dabha, palala, muyaka, valvaja, pushpa, phala, tvacha, pravala, kanda, mula, trina, kashtha aura sharkara adi dravya samstaraka rupa upadhi ke lie athava samstaraka evam upadhi ke lie grahana karata hai to ina upashraya ke bhitara ki grahya vastuom ko data dvara diye bina grahana karana nahim kalpata. Isa prakara avagrahasamiti ke yoga se bhavita antahkarana vala sadhu sada durgati ke karanabhuta papa – karma ke karane aura karane se nivritta hota – bachata hai aura datta – anujnyata avagraha ki ruchi vala hota hai. Tisari bhavana shayya – parikarmavarjana hai. Pitha, phalaka, shayya aura samstaraka ke lie vrikshom ka chhedana nahim karana chahie. Vrikshom ke chhedana ya bhedana se shayya taiyara nahim karavani chahie. Sadhu jisa upashraya mem nivasa kare, vahim shayya ki gaveshana karani chahie. Vaham ki bhumi yadi vishama ho to use sama na kare. Pavanahina sthana ko adhika pavana vala athava adhika pavana vale sthana ko pavanarahita banane ke lie utsuka na ho – aisa karane ki abhilasha bhi na kare, damsa – machchhara adi ke vishaya mem kshubdha nahim hona chahie aura unhem hatane ke lie dhuma adi nahim karana chahie. Isa prakara samyama ki, samvara ki, kashaya evam indriyom ke nigraha, ata eva samadhi ki pradhanata vala dhairyavana muni kaya se isa vrata ka palana karata hua nirantara atma ke dhyana mem nirata rahakara, samitiyukta rahakara aura ekaki – ragadvesha se rahita hokara dharma ka acharana kare. Isa prakara shayyasamiti ke yoga se bhavita antaratma vala sadhu sada durgati ke karanabhuta papa – karma se virata hota hai aura datta – anujnyata avagraha ki ruchi vala hota hai. Chauthi bhavana anujnyatabhaktadi hai. Saba sadhuom ke lie sadharana sammilita ahara – pani adi milane para sadhu ko samyak prakara se – yatanapurvaka khana chahie. Shaka aura supa ki adhikata vala bhojana adhika nahim khana chahie. Tatha vegapurvaka, tvara ke satha, chamchalatapurvaka aura na vicharavihina hokara khana chahie. Jo dusarom ko pirajanaka ho aisa evam sadosha nahim khana chahie. Sadhu ko isa riti se bhojana karana chahie, jisase usake tisare vrata mem badha upasthita na ho. Yaha adattadanaviramanavrata ka sukshma niyama hai. Isa prakara sammilita bhojana ke labha mem samiti ke yoga se bhavita antahkarana vala sadhu sada durgatihetu papakarma se virata hota hai aura datta evam anujnyata avagraha ki ruchi vala hota hai. Pamchavim bhavana sadharmika – vinaya hai. Sadharmika ke prati vinaya ka prayoga karana chahie. Upakara aura tapasya ki parana mem, vachana aura parivartana mem, bhiksha mem prapta anna adi anya sadhuom ko dene mem tatha unase lene mem aura vismrita athava shamkita sutrartha sambandhi prichchha karane mem, upashraya se bahara nikalate aura usamem pravesha karate samaya vinaya ka prayoga karana chahie. Inake atirikta isi prakara ke anya saikarom karanom mem vinaya ka prayoga karana chahie. Kyomki vinaya bhi apane apa mem tapa hai aura tapa bhi dharma hai. Ata eva vinaya ka acharana karana chahie. Vinaya kinaka karana chahie\? Gurujanom ka, sadhuom ka aura tapa karane vale tapasviyom ka. Isa prakara vinaya se yukta antahkarana vala sadhu adhikarana se virata tatha datta – anujnyata avagraha mem ruchi vala hota hai. Shesha purvavat. Isa prakara (acharana karane) se yaha tisara samvaradvara samichina rupa se palita aura surakshita hota hai. Isa prakara yavat tirthamkara bhagavana dvara kathita hai, samyak prakara se upadishta hai aura prashasta hai. Shesha shabdom ka artha purvavat samajhana chahie.