Sutra Navigation: Prashnavyakaran ( प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र )
Search Details
Mool File Details |
|
Anuvad File Details |
|
Sr No : | 1005436 | ||
Scripture Name( English ): | Prashnavyakaran | Translated Scripture Name : | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र |
Mool Language : | Ardha-Magadhi | Translated Language : | Hindi |
Chapter : |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ सत्य |
Translated Chapter : |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ सत्य |
Section : | Translated Section : | ||
Sutra Number : | 36 | Category : | Ang-10 |
Gatha or Sutra : | Sutra | Sutra Anuyog : | |
Author : | Deepratnasagar | Original Author : | Gandhar |
Century : | Sect : | Svetambara1 | |
Source : | |||
Mool Sutra : | [सूत्र] जंबू! बितियं च सच्चवयणं–सुद्धं सुइयं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिट्ठं सुपतिट्ठियं सुपतिट्ठियजसं सुसंजमियवयणबुइयं सुरवर नरवसभ पवर बलवग सुविहियजण बहुमयं परमसाहु-धम्मचरणं तव नियम परिग्गहियं सुगतिपहदेसगं च लोगुत्तमं वयमिणं विज्जाहरगगणगमणविज्जाण साहकं सग्गमग्गसिद्धिपहदेसकं अवितहं, तं सच्चं उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं, अत्थतो विसुद्धं उज्जोयकरं पभासकं भवति सव्वभावाण जीवलोगे अविसंवादि जहत्थमधुरं पच्चक्खं दइवयं व जं तं अच्छेरकारकं अवत्थंतरेसु बहुएसु माणुसाणं। सच्चेण महासमुद्दमज्झे चिट्ठंति, न निमज्जंति मूढाणिया वि पोया। सच्चेण य उदगसंभमंसि वि न बुज्झइ, न य मरंति, थाहं च ते लभंति। सच्चेण य अगनिसंभमंमि वि न डज्झंति उज्जुगा मनूसा। सच्चेण य तत्ततेल्ल-तउय-लोह-सीसकाइं छिवंति धरेंति, न य डज्झंति मणूसा। पव्वयकडकाहिं मुच्चंते, न य मरंति सच्चेण य परिग्गहिया। असिपंजरगया समराओ वि निइंति अणहा य सच्चवादी। वहबंधभियोगवेरघोरेहिं पमुच्चंति य, अमित्तमज्झाहिं निइंति अणहा य सच्चवादी। सादेव्वाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रताणं। तं सच्चं भगवं तित्थगरसुभासियं दसविहं चोद्दसपुव्वीहिं पाहुडत्थविदितंमहरिसीण य समयप्पदिन्नं देविंद-नरिंद -भासियत्थं वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविज्जसाहणट्ठं चारणगण समण सिद्धविज्जं मनुयगणाणं च वंदणिज्जंअमरगणाणं च अच्चणिज्जं असुरगणाणं च पूयणिज्जं, अनेगपासंड परिग्गहियं, जं तं लोकम्मि सारभूयं। गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतरगं मेरुपव्वयाओ। सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्तत्तरं सूरमंडलाओ। विमलतरं सरयनहयलाओ, सुरभितरं गंधमादणाओ। जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंता जोगा जवा य विज्जा य जंभका य अत्थाणि य सत्थाणि य सिक्खाओ य आगमा य सव्वाणि वि ताइं सच्चे पइट्ठियाइं। सच्चंपि य संजमस्स उवरोहकारकं किंचि न वत्तव्वं–हिंसा सावज्जसंपउत्तं भेय विकहकारकं अनत्थवाय कलहकारकं अणज्जं अववाय विवायसंपउत्तं वेलंबं ओजधेज्जबहुलं निल्लज्जं लोयगरहणिज्जं दुद्दिट्ठं दुस्सुयं दुम्मुणियं। अप्पणो थवणा, परेसु निंदा– नसि मेहावी, न तंसि धण्णो। नसि पियधम्मो, न तं कुलीणो। नसि दानपती, न तंसि सूरो। नसि पडिरूवो, न तंसि लट्ठो। न पंडिओ, न बहुस्सुओ, न वि य तं तवस्सी। न यावि परलोगणिच्छियमतीऽसि सव्वकालं, जाति कुल रूव वाहि रोगेण वा वि जं होइ वज्जणिज्जं दुहिलं उवयारमतिकंतं–एवंविहं सच्चंपि न वत्तव्वं। अह केरिसकं पुणाइं सच्चं तु भासियव्वं? जं तं दव्वेहिं पज्जवेहिं य गुणेहिं कम्मेहिं सिप्पेहिं आगमेहि य नामक्खाय निवाओवसग्ग तद्धिय समास संधि पद हेउ जोगिय उणादि किरियाविहाण धातु सर विभत्ति वण्णजुत्तं तिकल्लं दसविहं पि सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ। दुवालसविहा होइ भासा, वयणंपि य होइ सोलसविहं। एवं अरहंतमणुन्नायं समिक्खियं संजएणं कालम्मि य वत्तव्वं। | ||
Sutra Meaning : | हे जम्बू ! द्वितीय संवर सत्यवचन है। सत्य शुद्ध, शुचि, शिव, सुजात, सुभाषित होता है। यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक् विचारपूर्वक कहा गया है। इसे ज्ञानीजनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है। यह सुप्रतिष्ठित है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है। सत्य सुरवरों, नरवृषभों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित जनों द्वारा बहुमत है। श्रेष्ठ मुनियों का धार्मिक अनुष्ठान है। तप एवं नियम से स्वीकृत किया गया है। सद्गति के पथ का प्रदर्शक है और यह सत्यव्रत लोक में उत्तम है। सत्य विद्याधरों की आकाशगामिनी विद्याओं को सिद्ध करने वाला है। स्वर्ग तथा मुक्ति के मार्ग का प्रदर्शक है। यथातथ्य रहित है, ऋजुक है, कुटिलता रहित है। यथार्थ पदार्थ का ही प्रतिपादक है, सर्व प्रकार से शुद्ध है, विसंवाद रहित है। मधुर है और मनुष्यों का बहुत – सी विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं में आश्चर्यकारक कार्य करने वाले देवता के समान है। किसी महासमुद्र में, जिस में बैठे सैनिक मूढधी हो गए हों, दिशाभ्रम से ग्रस्त हो जाने के कारण जिनकी बुद्धि काम न कर रही हो, उनके जहाज भी सत्य के प्रभाव से ठहर जाते हैं, डूबते नहीं हैं। सत्य का ऐसा प्रभाव है कि भँवरों से युक्त जल के प्रवाह में भी मनुष्य बहते नहीं हैं, मरते नहीं हैं, किन्तु थाह पा लेते हैं। अग्नि से भयंकर घेरे में पड़े हुए मानव जलते नहीं हैं। उबलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं। मनुष्य पर्वत के शिखर से गिरा दिये जाते हैं – फिर भी मरते नहीं हैं। सत्य को धारण करने वाले मनुष्य चारों ओर से तलवारों के घेरे में भी अक्षत – शरीर संग्राम से बाहर नीकल आते हैं। सत्यवादी मानव वध, बन्धन सबल प्रहार और घोर वैर – विरोधियों के बीच में से मुक्त हो जाते हैं – बच नीकलते हैं। सत्यवादी शत्रुओं के घेरे में से बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर आ जाते हैं। देवता भी सान्निध्य करते हैं। तीर्थंकरों द्वारा भाषित सत्य दस प्रकार का है। इसे चौदह पूर्वों के ज्ञाता महामुनियों ने प्राभृतों से जाना है एवं महर्षियों को सिद्धान्त रूप में दिया गया है। देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका अर्थ कहा है, सत्य वैमानिक देवों द्वारा भी समर्थित है। महान् प्रयोजन वाला है। मंत्र औषधि और विद्याओं की सिद्धि का कारण है – चारण आदि मुनिगणों की विद्याओं को सिद्ध करने वाला है। मानवगणों द्वारा वंदनीय है – इतना ही नहीं, सत्यसेवी मनुष्य देवसमूहों के लिए भी अर्चनीय तथा असुरकुमार आदि भवनपति देवों द्वारा भी पूजनीय होता है। अनेक प्रकार के पाषंडी – व्रतधारी इसे धारण करते हैं। इस प्रकार की महिमा से मण्डित यह सत्य लोक में सारभूत है। महासागर से भी गम्भीर है। सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है। चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है। सूर्यमण्डल से भी अधिक देदीप्यमान है। शरत् – काल के आकाश तल से भी अधिक विमल है। गन्धमादन से भी अधिक सुरभिसम्पन्न है। लोक में जो भी समस्त मंत्र हैं, वशीकरण आदि योग है, जप है, प्रज्ञप्ति प्रभृति विद्याएं हैं, दस प्रकार के जृंभक देव हैं, धनुष आदि अस्त्र हैं, जो भी शस्त्र हैं, कलाएं हैं, आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु जो सत्य संयम में बाधक हो – वैसा सत्य तनिक भी नहीं बोलना चाहिए। जो वचन हिंसा रूप पाप से युक्त हो, जो भेद उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो, जो वचन अनार्य हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए। जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सूनी न हो, जिसे ठीक तरह जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए। इसी प्रकार अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी (नहीं करनी चाहिए), यथा – तू बुद्धिमान् नहीं है, तू दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक संबंधी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि। अथवा जो वचन सदा – सर्वदा जाति, कुल, रूप, व्याधि, रोग से सम्बन्धित हो, जो पीड़ाकारी या निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो, अथवा जो वचन द्रोहकारक हो – शिष्टाचार के अनुकूल न हो, इस प्रकार का तथ्य – सद्भूतार्थ वचन भी नहीं बोलना चाहिए। जो वचन द्रव्यों से, पर्यायों से तथा गुणों से युक्त हों तथा कर्मों से, क्रियाओं से, शिल्पों से और सिद्धान्त – सम्मत अर्थों से युक्त हों और जो संज्ञापद, आख्यात, क्रियापद, निपात, अव्यय, उपसर्ग, तद्धितपद, समास, सन्धि, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, पद, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण, इन से युक्त हो (ऐसा वचन बोलना चाहिए।) त्रिकालविषयक सत्य दस प्रकार का होता है। जैसा मुख से कहा जाता है, उसी प्रकार कर्म से अर्थात् लेखन क्रिया से तथा हाथ, पैर, आँख आदि की चेष्टा से, मुँह बनाना आदि आकृति से अथवा जैसा कहा जाए वैसी ही क्रिया करके बतलाने से सत्य होता है। बारह प्रकार की भाषा होती है। वचन सोलह प्रकार का होता है। इस प्रकार अरिहंत भगवान द्वारा अनुज्ञात तथा सम्यक् प्रकार से विचारित सत्यवचन यथावसर पर ही साधु को बोलना चाहिए | ||
Mool Sutra Transliteration : | [sutra] jambu! Bitiyam cha sachchavayanam–suddham suiyam sivam sujayam subhasiyam suvvayam sukahiyam sudittham supatitthiyam supatitthiyajasam susamjamiyavayanabuiyam suravara naravasabha pavara balavaga suvihiyajana bahumayam paramasahu-dhammacharanam tava niyama pariggahiyam sugatipahadesagam cha loguttamam vayaminam vijjaharagaganagamanavijjana sahakam saggamaggasiddhipahadesakam avitaham, tam sachcham ujjuyam akudilam bhuyattham, atthato visuddham ujjoyakaram pabhasakam bhavati savvabhavana jivaloge avisamvadi jahatthamadhuram pachchakkham daivayam va jam tam achchherakarakam avatthamtaresu bahuesu manusanam. Sachchena mahasamuddamajjhe chitthamti, na nimajjamti mudhaniya vi poya. Sachchena ya udagasambhamamsi vi na bujjhai, na ya maramti, thaham cha te labhamti. Sachchena ya aganisambhamammi vi na dajjhamti ujjuga manusa. Sachchena ya tattatella-tauya-loha-sisakaim chhivamti dharemti, na ya dajjhamti manusa. Pavvayakadakahim muchchamte, na ya maramti sachchena ya pariggahiya. Asipamjaragaya samarao vi niimti anaha ya sachchavadi. Vahabamdhabhiyogaveraghorehim pamuchchamti ya, amittamajjhahim niimti anaha ya sachchavadi. Sadevvani ya devayao karemti sachchavayane ratanam. Tam sachcham bhagavam titthagarasubhasiyam dasaviham choddasapuvvihim pahudatthaviditammaharisina ya samayappadinnam devimda-narimda -bhasiyattham vemaniyasahiyam mahattham mamtosahivijjasahanattham charanagana samana siddhavijjam manuyagananam cha vamdanijjamamaragananam cha achchanijjam asuragananam cha puyanijjam, Anegapasamda pariggahiyam, jam tam lokammi sarabhuyam. Gambhirataram mahasamuddao, thirataragam merupavvayao. Somataram chamdamamdalao, dittattaram suramamdalao. Vimalataram sarayanahayalao, surabhitaram gamdhamadanao. Je vi ya logammi aparisesa mamta joga java ya vijja ya jambhaka ya atthani ya satthani ya sikkhao ya agama ya savvani vi taim sachche paitthiyaim. Sachchampi ya samjamassa uvarohakarakam kimchi na vattavvam–himsa savajjasampauttam bheya vikahakarakam anatthavaya kalahakarakam anajjam avavaya vivayasampauttam velambam ojadhejjabahulam nillajjam loyagarahanijjam duddittham dussuyam dummuniyam. Appano thavana, paresu nimda– Nasi mehavi, na tamsi dhanno. Nasi piyadhammo, na tam kulino. Nasi danapati, na tamsi suro. Nasi padiruvo, na tamsi lattho. Na pamdio, na bahussuo, na vi ya tam tavassi. Na yavi paraloganichchhiyamatisi savvakalam, jati kula ruva vahi rogena va vi jam hoi vajjanijjam duhilam uvayaramatikamtam–evamviham sachchampi na vattavvam. Aha kerisakam punaim sachcham tu bhasiyavvam? Jam tam davvehim pajjavehim ya gunehim kammehim sippehim agamehi ya namakkhaya nivaovasagga taddhiya samasa samdhi pada heu jogiya unadi kiriyavihana dhatu sara vibhatti vannajuttam tikallam dasaviham pi sachcham jaha bhaniyam taha ya kammuna hoi. Duvalasaviha hoi bhasa, vayanampi ya hoi solasaviham. Evam arahamtamanunnayam samikkhiyam samjaenam kalammi ya vattavvam. | ||
Sutra Meaning Transliteration : | He jambu ! Dvitiya samvara satyavachana hai. Satya shuddha, shuchi, shiva, sujata, subhashita hota hai. Yaha uttama vratarupa hai aura samyak vicharapurvaka kaha gaya hai. Ise jnyanijanom ne kalyana ke samadhana ke rupa mem dekha hai. Yaha supratishthita hai, samichina rupa mem samyamayukta vani se kaha gaya hai. Satya suravarom, naravrishabhom, atishaya baladhariyom evam suvihita janom dvara bahumata hai. Shreshtha muniyom ka dharmika anushthana hai. Tapa evam niyama se svikrita kiya gaya hai. Sadgati ke patha ka pradarshaka hai aura yaha satyavrata loka mem uttama hai. Satya vidyadharom ki akashagamini vidyaom ko siddha karane vala hai. Svarga tatha mukti ke marga ka pradarshaka hai. Yathatathya rahita hai, rijuka hai, kutilata rahita hai. Yathartha padartha ka hi pratipadaka hai, sarva prakara se shuddha hai, visamvada rahita hai. Madhura hai aura manushyom ka bahuta – si vibhinna prakara ki avasthaom mem ashcharyakaraka karya karane vale devata ke samana hai. Kisi mahasamudra mem, jisa mem baithe sainika mudhadhi ho gae hom, dishabhrama se grasta ho jane ke karana jinaki buddhi kama na kara rahi ho, unake jahaja bhi satya ke prabhava se thahara jate haim, dubate nahim haim. Satya ka aisa prabhava hai ki bhamvarom se yukta jala ke pravaha mem bhi manushya bahate nahim haim, marate nahim haim, kintu thaha pa lete haim. Agni se bhayamkara ghere mem pare hue manava jalate nahim haim. Ubalate hue tela, ramge, lohe aura sise ko chhu lete haim, hatheli para rakha lete haim, phira bhi jalate nahim haim. Manushya parvata ke shikhara se gira diye jate haim – phira bhi marate nahim haim. Satya ko dharana karane vale manushya charom ora se talavarom ke ghere mem bhi akshata – sharira samgrama se bahara nikala ate haim. Satyavadi manava vadha, bandhana sabala prahara aura ghora vaira – virodhiyom ke bicha mem se mukta ho jate haim – bacha nikalate haim. Satyavadi shatruom ke ghere mem se bina kisi kshati ke sakushala bahara a jate haim. Devata bhi sannidhya karate haim. Tirthamkarom dvara bhashita satya dasa prakara ka hai. Ise chaudaha purvom ke jnyata mahamuniyom ne prabhritom se jana hai evam maharshiyom ko siddhanta rupa mem diya gaya hai. Devendrom aura narendrom ne isaka artha kaha hai, satya vaimanika devom dvara bhi samarthita hai. Mahan prayojana vala hai. Mamtra aushadhi aura vidyaom ki siddhi ka karana hai – charana adi muniganom ki vidyaom ko siddha karane vala hai. Manavaganom dvara vamdaniya hai – itana hi nahim, satyasevi manushya devasamuhom ke lie bhi archaniya tatha asurakumara adi bhavanapati devom dvara bhi pujaniya hota hai. Aneka prakara ke pashamdi – vratadhari ise dharana karate haim. Isa prakara ki mahima se mandita yaha satya loka mem sarabhuta hai. Mahasagara se bhi gambhira hai. Sumeru parvata se bhi adhika sthira hai. Chandramandala se bhi adhika saumya hai. Suryamandala se bhi adhika dedipyamana hai. Sharat – kala ke akasha tala se bhi adhika vimala hai. Gandhamadana se bhi adhika surabhisampanna hai. Loka mem jo bhi samasta mamtra haim, vashikarana adi yoga hai, japa hai, prajnyapti prabhriti vidyaem haim, dasa prakara ke jrimbhaka deva haim, dhanusha adi astra haim, jo bhi shastra haim, kalaem haim, agama haim, ve sabhi satya mem pratishthita haim. Kintu jo satya samyama mem badhaka ho – vaisa satya tanika bhi nahim bolana chahie. Jo vachana himsa rupa papa se yukta ho, jo bheda utpanna karane vala ho, jo vikathakaraka ho, jo nirarthaka vada ya kalahakaraka ho, jo vachana anarya ho, jo anya ke doshom ko prakashita karane vala ho, vivadayukta ho, dusarom ki vidambana karane vala ho, jo vivekashunya josha aura dhrishtata se paripurna ho, jo nirlajjata se bhara ho, jo loka ya satpurushom dvara nindaniya ho, aisa vachana nahim bolana chahie. Jo ghatana bhalibhamti svayam na dekhi ho, jo bata samyak prakara se suni na ho, jise thika taraha jana nahim liya ho, use ya usake vishaya mem bolana nahim chahie. Isi prakara apani prashamsa aura dusarom ki ninda bhi (nahim karani chahie), yatha – tu buddhiman nahim hai, tu daridra hai, tu dharmapriya nahim hai, tu kulina nahim hai, tu danapati nahim hai, tu shuravira nahim hai, tu sundara nahim hai, tu bhagyavana nahim hai, tu pandita nahim hai, tu bahushruta nahim hai, tu tapasvi bhi nahim hai, tujhamem paraloka sambamdhi nishchaya karane ki buddhi bhi nahim hai, adi. Athava jo vachana sada – sarvada jati, kula, rupa, vyadhi, roga se sambandhita ho, jo pirakari ya nindaniya hone ke karana varjaniya ho, athava jo vachana drohakaraka ho – shishtachara ke anukula na ho, isa prakara ka tathya – sadbhutartha vachana bhi nahim bolana chahie. Jo vachana dravyom se, paryayom se tatha gunom se yukta hom tatha karmom se, kriyaom se, shilpom se aura siddhanta – sammata arthom se yukta hom aura jo samjnyapada, akhyata, kriyapada, nipata, avyaya, upasarga, taddhitapada, samasa, sandhi, hetu, yaugika, unadi, kriyavidhana, pada, dhatu, svara, vibhakti, varna, ina se yukta ho (aisa vachana bolana chahie.) trikalavishayaka satya dasa prakara ka hota hai. Jaisa mukha se kaha jata hai, usi prakara karma se arthat lekhana kriya se tatha hatha, paira, amkha adi ki cheshta se, mumha banana adi akriti se athava jaisa kaha jae vaisi hi kriya karake batalane se satya hota hai. Baraha prakara ki bhasha hoti hai. Vachana solaha prakara ka hota hai. Isa prakara arihamta bhagavana dvara anujnyata tatha samyak prakara se vicharita satyavachana yathavasara para hi sadhu ko bolana chahie |