Sutra Navigation: Sutrakrutang ( सूत्रकृतांग सूत्र )

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Sr No : 1001670
Scripture Name( English ): Sutrakrutang Translated Scripture Name : सूत्रकृतांग सूत्र
Mool Language : Ardha-Magadhi Translated Language : Hindi
Chapter :

श्रुतस्कंध-२

अध्ययन-२ क्रियास्थान

Translated Chapter :

श्रुतस्कंध-२

अध्ययन-२ क्रियास्थान

Section : Translated Section :
Sutra Number : 670 Category : Ang-02
Gatha or Sutra : Sutra Sutra Anuyog :
Author : Deepratnasagar Original Author : Gandhar
 
Century : Sect : Svetambara1
Source :
 
Mool Sutra : [सूत्र] अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–जइ खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्म-समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वाओ पानाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए,सव्वाओ अदिन्नादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसणसल्लाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ ण्हाणुम्मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्लालंकाराओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सिय-संदमाणिया-सयणासण-जाण-वाहण-भोग-भोयण-पवित्थरविहीओ पडिविरया जावज्जीजाए, सव्वाओ कय-विक्कय-मासद्ध-मास-रूवग-संववहाराओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ हिरण्ण-सुवण्ण-धण-धण्ण-मणि -मोत्तिय-संख-सिल-प्पवालाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कूडतुल-कूडमाणाओ पडि-विरया जावज्जीवाए, सव्वाओ आरंभ-समारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ करण-कारावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ पयण-पयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कुट्टण-पिट्टण-तज्जण-ताडण-वह-बंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जंति, तओ वि पडिवरिया जावज्जीवाए। से जहानामए अणगारा भगवंतो ‘इरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमिया मणसमिया वइ-समिया कायसमिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबंभयारी अकोहा अमाणा अमाया अलोभा संता पसंता उवसंता परिणिव्वुडा अणासवा अग्गंथा छिन्नसोया णिरुवलेवा, कंसपाई व मुक्कतोया, संखो इव णिरंजणा, जीव इव अप्पडिहयगई, गगणतलं पिव णिरालंबणा, वायुरिव अप्पडिबद्धा, सारदसलिलं व सुद्धहियया, पुक्खरपत्तं व णिरुवलेवा, कुम्मो इव गुत्तिंदिया, विहग इव विप्पमुक्का, खग्गविसाणं व एगजाया, भारुंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जायथामा, सोहो इव दुद्धरिसा, मंदरो इव अप्पकंपा, सागरो इव गंभीरा, चंदो इव सोमलेसा, सुरो इव दित्ततेया, जच्चकणगं व जायरूवा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुयहुयासणो विव तेयसा जलंता। नत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थ वि पडिबंधे भवइ। [से पडिबंधे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–अडए इ वा पोयए इ वा उग्गहे इ वा पग्गहे इ वा] जण्णं-जण्णं दिसं इच्छंति तण्णं-तण्णं दिसं अप्पडिबद्धा सुइभूया लहुभूया अप्पग्गंथा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तेसिं णं भगवंताणं इमा एयारूवा जायामायावित्ती होत्था, तं जहा–चउत्थे भत्ते छट्ठे भत्त अट्ठमे भत्ते दसमे भत्ते दुवालसमे भत्ते चउदसमे भत्ते अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए भत्ते तिमासिए भत्ते चउम्मासिए भत्ते पंचमासिए भत्ते छम्मासिए भत्ते। अदुत्तरं च णं उक्खित्तचरगा णिक्खित्तचरगा उक्खित्तणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लूहचरगा समुदाणचरगा संसट्ठचरगा असंसट्ठचरगा तज्जायसंसट्ठचरगा दिट्ठलाभिया अदिट्ठलाभिया पुट्ठ-लाभिया अपुट्ठलाभिया भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया अण्णातचरगा उवणिहिया संखादत्तिया परिमिय-पिंडवाइया सुद्धेसणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लूहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी पुरिमड्ढिया आयंबिलिया णिव्विगइया अमज्जमंसासिणो नो णियामरसभोई ठानाइया पडिमट्ठाइया णेसज्जिया वीरासणिया दंडायतिया लगंडसाइणो अवाउडा अगत्तया अकंडुया अणिट्ठहा धुतकेसमंसुरोमणहा सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्का चिट्ठंति। ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहंसि उप्पण्णंमि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूइं भत्ताइं पच्चक्खंति, पच्चक्खित्ता ‘बहूइं भत्ताइं अणसणाए छेदेंति, छेदित्ता’ जस्सट्ठाए कीरइ णग्गभावे मुंड-भावे अण्हाणगे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्धं माणावमाणणाओ हीलणाओ णिंदणाओ खिंसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोव-सग्गा अहियासिज्जंति, तमट्ठं आराहेंति, तमट्ठं आराहेत्ता चरमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं अणंतं अनुत्तरंणिव्वाघायं णिरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेंति, तओ पच्छा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। ‘एगच्चाए पुन एगे भयंतारो भवंति’। अवरे पुन पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा–महड्ढिएसु महज्जुइएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महब्बलेसु महानुभावेसु महासोक्खेसु। ते णं तत्थ देवा भवंति महड्ढिया महज्जुइया महापरक्कमा महाजसा महब्बला महाणुभावा महा-सोक्खा हार-विराइय-वच्छा-कडग-तुडिय-थंभिय-भुया अंगय-कुंडल-मट्ठगंडयल-कण्ण-पीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउलि-मउडा कल्लाणग-पवर-वत्थपरिहिया कल्लाणग-पवर-मल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं रूवेणं दिव्वेन वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए दिव्वाए जुत्तीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभद्दया यावि भवंति। एस ठाणे आरिए केवले पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निव्वाणमग्गे णिज्जाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू। दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए।
Sutra Meaning : पश्चात्‌ दूसरे धर्मपक्ष का विवरण है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ, अपरिग्रह होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म को ही देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मशील तथा धर्मचारपरायण होते हैं, यहाँ तक कि वे धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवन यापन करते हैं, जो सुशील, सुव्रती, शीघ्रसुप्रसन्न होने वाले और उत्तम सुपुरुष होते हैं। जो समस्त प्राणाति – पात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक जीवनभर विरत रहते हैं। जो स्नानादि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, समस्त गाड़ी, घोड़ा, रथ आदि वाहनों से आजीवन विरत रहते हैं, क्रय – विक्रय, पचन, पाचन सावद्यकर्म करने – कराने, आरम्भ – समारम्भ आदि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, सर्वपरिग्रह से निवृत्त रहते हैं, यहाँ तक कि वे परपीड़ाकारी समस्त सावद्य अनार्य कर्मों से यावज्जीवन विरत रहते हैं। वे धार्मिक पुरुष अनगार भाग्यवान होते हैं। वे ईर्यासमिति, यावत्‌ उच्चार – प्रस्रवण – खेल – जल्ल – सिधाण – परिष्ठापनिका समिति, इन पाँच समितियों से युक्त होते हैं, तथा मनःसमिति, वचनसमिति, कायसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से भी युक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को पापों से गुप्त रखते हैं, अपनी इन्द्रियों को विषयभोगों से गुप्त रखते हैं, और ब्रह्मचर्य का पालन नौ गुप्तियों सहित करते हैं। वे क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित होते हैं। वे शान्ति तथा उत्कृष्ट शान्ति से युक्त और उपशान्त होते हैं। वे समस्त संतापों से रहित, आश्रवों से रहित, बाह्य – आभ्यन्तर – परिग्रह से रहित होते हैं, इन महात्माओं ने संसार के स्रोत का छेदन कर दिया है, ये कर्ममलके लेप से रहित होते हैं। वे जलके लेप से रहित कांसे की पात्री की तरह कर्मजलके लेप से रहित होते हैं। जैसे शंख कालिमा से रहित होता है, वैसे ही ये महात्मा रागादि के कालुष्य से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति कहीं नहीं रुकती, वैसे ही उन महात्माओं की गति कहीं नहीं रुकती। जैसे गगनतल बिना अवलम्बन के ही रहता है, वैसे ही ये महात्मा निरावलम्बी रहते हैं। जैसे वायु को कोई रोक नहीं सकता, वैसे ही, ये महात्मा भी द्रव्य – क्षेत्र – काल – भाव के प्रतिबन्ध से रहित होते हैं। शरद्‌काल के स्वच्छ पानी की तरह उनका हृदय भी शुद्ध और स्वच्छ होता है। कमल का पत्ता जैसे जल के लेप से रहित होता है, वैसे ही ये भी कर्म मल के लेप से दूर रहते हैं, वे कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त – सुरक्षित रखते हैं। जैसे आकाश में पक्षी स्वतन्त्र विहारी होता है, वैसे ही वे महात्मा समस्त ममत्वबन्धनों से रहित होकर आध्यात्मिक आकाश में स्वतन्त्रविहारी होते हैं। जैसे गेंड़े का एक ही सींग होता है, वैसे ही वे महात्मा भाव से राग – द्वेष रहित अकेले ही होते हैं। वे भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त होते हैं। जैसे हाथी वृक्ष को उखाड़ने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि कषायों को निर्मूल करने में शूरवीर एवं दक्ष होते हैं। जैसे बैल भारवहन में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि संयम भारवहन में समर्थ होते हैं। जैसे सिंह दूसरे पशुओं से दबता नहीं, वैसे ही वे महामुनि परीषहों और उपसर्गों से दबते नहीं। जैसे मन्दर पर्वत कम्पित नहीं होता वैसे ही वे महामुनि कष्टों, उपसर्गों और भयों से नहीं काँपते। वे समुद्र की तरह गम्भीर होते हैं, उनकी प्रकृति चन्द्रमा के समान सौम्य एवं शीतल होती है; उत्तम जाति के सोने में जैसे मल नहीं लगता, वैसे ही उन महात्माओं के कर्ममल नहीं लगता। वे पृथ्वी के समान सभी स्पर्श सहन करते हैं। अच्छी तरह होम की हुई अग्नि के समान वे अपने तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं। उन अनगार भगवंतों के लिए किसी भी जगह प्रतिबंध नहीं होता। प्रतिबंध चार प्रकार से होता है, जैसे कि – अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर आदि पक्षियों से, पोतज, अवग्रहिक तथा औपग्रहिक होता है। वे जिस – जिस दिशा में विचरण करना चाहते हैं, उस – उस दिशा में अप्रतिबद्ध, शुचिभूत, अपनी त्यागवृत्ति के अनुरूप अणु ग्रन्थ से भी दूर होकर संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। उन अनगार भगवंतों की इस प्रकार की संयम यात्रा के निर्वाहार्थ यह वृत्ति होती है, जैसे कि – वे चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, चतुर्दशभक्त अर्द्ध मासिक भक्त, मासिक भक्त, द्विमासिक, तप, त्रिमासिक तप, चातुर्मासिक तप, पंचमासिक तप, एवं षाण्मासिक तप, इसके अतिरिक्त भी कोई कोई निम्नोक्त अभिग्रहों के धारक भी होते हैं। जैसे कईं उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक होते हैं, कईं उत्क्षिप्त और निक्षिप्त दोनों प्रकार की चर्या वाले होते हैं, कोई अन्त, प्रान्त, रूक्ष, सामुदानिक, संसृष्ट, असंसृष्ट आहार लेते हैं, कोई जिस अन्न या शाक आदि से चम्मच या हाथ भरा हो, उसी हाथ या चम्मच से उसी वस्तु को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई देखे हुए आहार को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई पूछकर और कोई पूछे बिना आहार ग्रहण करते हैं। कोई तुच्छ और कोई अतुच्छ भिक्षा ग्रहण करते हैं। कोई अज्ञात घरों से आहार लेते हैं, कोई आहार के बिना ग्लान होने पर ही आहार ग्रहण करते हैं। कोई दाता के निकट रखा हुआ, कईं दत्ति की संख्या करके, कोई परिमित, और कोई शुद्ध आहार की गवेषणा करके आहार लेते हैं, वे अन्ताहारी, प्रान्ताहारी होते हैं, कईं अरसाहारी एवं कईं विरसाहारी होते हैं, कईं रूखा – सूखा आहार करने वाले तथा कईं तुच्छ आहार करने वाले होते हैं। कोई अन्त या प्रान्त आहार से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं। कोई पुरिमड्ढ तप करते हैं, कोई आयम्बिल तपश्चरण करते हैं, कोई निर्विगई तप करते हैं, वे अधिक मात्रा में सरस आहार का सेवन नहीं करते, कईं कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं, कईं प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्गस्थ रहते हैं, कईं उत्कट आसन से बैठते हैं, कईं आसनयुक्त भूमि पर ही बैठते हैं, कईं वीरासन लगाकर बैठते हैं, कईं डंडे की तरह आयत – लम्बे होकर लेटते हैं, कईं लगंडशायी होते हैं। कईं बाह्य प्रावरण से रहित होकर रहते हैं, कईं कायोत्सर्ग में एक जगह स्थित होकर रहते हैं, कईं शरीर को नहीं खुजलाते, वे थूक को भी बाहर नहीं फैंकते। वे सिर के केश, मूँछ, दाढ़ी, रोम और नख की काँटछाँट नहीं करते, तथा अपने सारे शरीर का परिकर्म नहीं करते। वे महात्मा इस प्रकार उग्रविहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करते हैं। रोगादि अनेकानेक बाधाओं के उपस्थित होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग करते हैं। वे अनेक दिनों तक भक्त प्रत्याख्यान करके उसे पूर्ण करते हैं। अनशन को पूर्णतया सिद्ध करके जिस प्रयोजन से उन महात्माओं द्वारा नग्नभाव, मुण्डित भाव, अस्नान भाव, अदन्तधावन, छाते और जूते का उपयोग न करना, भूमिशयन, काष्ठ – फलकशयन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्य – वास, भिक्षार्थ परगृह – प्रवेश आदि कार्य किये जाते हैं, तथा जिसके लिए लाभ और अलाभ मान – अपमान, अवहेलना, निन्दा, फटकार, तर्जना, मार – पीट, धमकियाँ तथा ऊंची – नीची बातें, एवं कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन आदि बाईस प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहे जाते हैं, उस उद्देश्य की आराधना कर लेते हैं। उस उद्देश्य की आराधना करके अन्तिम श्वासोच्छ्‌वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान – केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं। केवलज्ञान – केवलदर्शन उपार्जित करने के पश्चात्‌ वे सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं; परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं। कईं महात्मा एक ही भव में संसार का अन्त कर लेते हैं। दूसरे कईं महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने के कारण मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। जैसे कि – महान्‌ ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त, महायशस्वी, महान्‌ बलशाली, महाप्रभावशाली और महासुखदायी जो देवलोक है, उनमें वे देवरूप में उत्पन्न होते हैं, वे देव महाऋद्धि सम्पन्न, महाद्युति सम्पन्न यावत्‌ महासुख सम्पन्न होते हैं। उनके वक्षः स्थल हारों से सुशोभित रहते हैं, उनकी भुजाओं में कड़े, बाजूबन्द आदि आभूषण पहने होते हैं, उनके कपोलों पर अंगद और कुण्डल लटकते रहते हैं। वे कानों में कर्णफूल धारण किये होते हैं। उनके हाथ विचित्र आभूषणों से युक्त रहते हैं। वे सिर पर विचित्र मालाओं से सुशोभित मुकुट धारण करते हैं। वे कल्याणकारी तथा सुगन्धित उत्तम वस्त्र पहनते हैं, तथा कल्याणमयी श्रेष्ठ माला और अंगलेपन धारण करते हैं। उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है। वे लम्बी वनमालाओं को धारण करने वाले देव होते हैं। वे अपने दिव्यरूप, दिव्यवर्ण, दिव्य – गन्ध, दिव्यस्पर्श, दिव्यसंहनन, दिव्य संस्थान तथा दिव्यऋद्धि, द्युति, प्रभा, छाया, अर्चा, तेज और लेश्या से दसों दिशाओं को आलोकित करते हुए, चमकाते हुए कल्याणमयी गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में भद्रक होने वाले देवता बनते हैं। यह (द्वितीय) स्थान आर्य है, यावत्‌ यह समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है। यह स्थान एकान्त सम्यक्‌ और बहुत अच्छा है।
Mool Sutra Transliteration : [sutra] ahavare dochchassa thanassa dhammapakkhassa vibhamge evamahijjai–jai khalu painam va padinam va udinam va dahinam va samtegaiya manussa bhavamti, tam jaha–anarambha apariggaha dhammiya dhammanuga dhammittha dhammakkhai dhammappaloi dhammapalajjana dhamma-samudayara dhammenam cheva vittim kappemana viharamti, susila suvvaya suppadiyanamda susahu savvao panaivayao padiviraya javajjivae, savvao musavayao padiviraya javajjivae,savvao adinnadanao padiviraya javajjivae, savvao mehunao padiviraya javajjivae, savvao pariggahao padiviraya javajjivae, savvao kohao manao mayao lobhao pejjao dosao kalahao abbhakkhanao pesunnao paraparivayao arairaio mayamosao michchhadamsanasallao padiviraya javajjivae, Savvao nhanummaddana-vannaga-vilevana-sadda-pharisa-rasa-ruva-gamdha-mallalamkarao padiviraya javajjivae, savvao sagada-raha-jana-jugga-gilli-thilli-siya-samdamaniya-sayanasana-jana-vahana-bhoga-bhoyana-pavittharavihio padiviraya javajjijae, savvao kaya-vikkaya-masaddha-masa-ruvaga-samvavaharao padiviraya javajjivae, savvao hiranna-suvanna-dhana-dhanna-mani -mottiya-samkha-sila-ppavalao padiviraya javajjivae, savvao kudatula-kudamanao padi-viraya javajjivae, savvao arambha-samarambhao padiviraya javajjivae, savvao karana-karavanao padiviraya javajjivae, savvao payana-payavanao padiviraya javajjivae, savvao kuttana-pittana-tajjana-tadana-vaha-bamdhaparikilesao padiviraya javajjivae, Je yavanne tahappagara savajja abohiya kammamta parapanapariyavanakara kajjamti, tao vi padivariya javajjivae. Se jahanamae anagara bhagavamto ‘iriyasamiya bhasasamiya esanasamiya ayana-bhamda-matta-nikkhevanasamiya uchchara-pasavana-khela-simghana-jalla-paritthavaniyasamiya manasamiya vai-samiya kayasamiya managutta vayagutta kayagutta gutta guttimdiya guttabambhayari akoha amana amaya alobha samta pasamta uvasamta parinivvuda anasava aggamtha chhinnasoya niruvaleva, kamsapai va mukkatoya, samkho iva niramjana, jiva iva appadihayagai, gaganatalam piva niralambana, vayuriva appadibaddha, saradasalilam va suddhahiyaya, pukkharapattam va niruvaleva, kummo iva guttimdiya, vihaga iva vippamukka, khaggavisanam va egajaya, bharumdapakkhi va appamatta, kumjaro iva somdira, vasabho iva jayathama, soho iva duddharisa, mamdaro iva appakampa, sagaro iva gambhira, chamdo iva somalesa, suro iva dittateya, jachchakanagam va jayaruva, vasumdhara iva savvaphasavisaha, suhuyahuyasano viva teyasa jalamta. Natthi nam tesim bhagavamtanam kattha vi padibamdhe bhavai. [se padibamdhe chauvvihe pannatte, tam jaha–adae i va poyae i va uggahe i va paggahe i va] jannam-jannam disam ichchhamti tannam-tannam disam appadibaddha suibhuya lahubhuya appaggamtha samjamenam tavasa appanam bhavemana viharamti. Tesim nam bhagavamtanam ima eyaruva jayamayavitti hottha, tam jaha–chautthe bhatte chhatthe bhatta atthame bhatte dasame bhatte duvalasame bhatte chaudasame bhatte addhamasie bhatte masie bhatte domasie bhatte timasie bhatte chaummasie bhatte pamchamasie bhatte chhammasie bhatte. Aduttaram cha nam ukkhittacharaga nikkhittacharaga ukkhittanikkhittacharaga amtacharaga pamtacharaga luhacharaga samudanacharaga samsatthacharaga asamsatthacharaga tajjayasamsatthacharaga ditthalabhiya aditthalabhiya puttha-labhiya aputthalabhiya bhikkhalabhiya abhikkhalabhiya annatacharaga uvanihiya samkhadattiya parimiya-pimdavaiya suddhesaniya amtahara pamtahara arasahara virasahara luhahara tuchchhahara amtajivi pamtajivi purimaddhiya ayambiliya nivvigaiya amajjamamsasino no niyamarasabhoi thanaiya padimatthaiya nesajjiya virasaniya damdayatiya lagamdasaino avauda agattaya akamduya anitthaha dhutakesamamsuromanaha savvagayapadikammavippamukka chitthamti. Te nam etenam viharenam viharamana bahuim vasaim samannapariyagam paunamti, paunitta abahamsi uppannammi va anuppannamsi va bahuim bhattaim pachchakkhamti, pachchakkhitta ‘bahuim bhattaim anasanae chhedemti, chheditta’ jassatthae kirai naggabhave mumda-bhave anhanage adamtavanage achhattae anovahanae bhumisejja phalagasejja katthasejja kesaloe bambhacheravase paragharapavese laddhavaladdham manavamananao hilanao nimdanao khimsanao garahanao tajjanao talanao uchchavaya gamakamtaga bavisam parisahova-sagga ahiyasijjamti, tamattham arahemti, tamattham arahetta charamehim ussasanissasehim anamtam anuttaramnivvaghayam niravaranam kasinam padipunnam kevalavarananadamsanam samuppademti, tao pachchha sijjhamti bujjhamti muchchamti parinivvayamti savvadukkhanam amtam karemti. ‘egachchae puna ege bhayamtaro bhavamti’. Avare puna puvvakammavasesenam kalamase kalam kichcha annayaresu devaloesu devattae uvavattaro bhavamti, tam jaha–mahaddhiesu mahajjuiesu mahaparakkamesu mahajasesu mahabbalesu mahanubhavesu mahasokkhesu. Te nam tattha deva bhavamti mahaddhiya mahajjuiya mahaparakkama mahajasa mahabbala mahanubhava maha-sokkha hara-viraiya-vachchha-kadaga-tudiya-thambhiya-bhuya amgaya-kumdala-matthagamdayala-kanna-pidhadhari vichittahatthabharana vichittamala-mauli-mauda kallanaga-pavara-vatthaparihiya kallanaga-pavara-mallanulevanadhara bhasurabomdi palambavanamaladhara divvenam ruvenam divvena vannenam divvenam gamdhenam divvenam phasenam divvenam samghaenam divvenam samthanenam divvae iddhie divvae juttie divvae pabhae divvae chhayae divvae achchie divvenam teenam divvae lesae dasa disao ujjovemana pabhasemana gaikallana thiikallana agamesibhaddaya yavi bhavamti. Esa thane arie kevale padipunne neyaue samsuddhe sallagattane siddhimagge muttimagge nivvanamagge nijjanamagge savvadukkhappahinamagge egamtasamme sahu. Dochchassa thanassa dhammapakkhassa vibhamge evamahie.
Sutra Meaning Transliteration : Pashchat dusare dharmapaksha ka vivarana hai – isa manushyaloka mem purva adi dishaom mem kaim purusha aise hote haim, jo anarambha, aparigraha hote haim, jo dharmika hote haim, dharmanusara pravritti karate haim ya dharma ki anujnya dete haim, dharma ko hi apana ishta manate haim, ya dharmapradhana hote haim, dharma ki hi charcha karate haim, dharmamayajivi, dharma ko hi dekhane vale, dharma mem anurakta, dharmashila tatha dharmacharaparayana hote haim, yaham taka ki ve dharma se hi apani jivika uparjana karate hue jivana yapana karate haim, jo sushila, suvrati, shighrasuprasanna hone vale aura uttama supurusha hote haim. Jo samasta pranati – pata se lekara mithyadarshanashalya taka jivanabhara virata rahate haim. Jo snanadi se ajivana nivritta rahate haim, samasta gari, ghora, ratha adi vahanom se ajivana virata rahate haim, kraya – vikraya, pachana, pachana savadyakarma karane – karane, arambha – samarambha adi se ajivana nivritta rahate haim, sarvaparigraha se nivritta rahate haim, yaham taka ki ve parapirakari samasta savadya anarya karmom se yavajjivana virata rahate haim. Ve dharmika purusha anagara bhagyavana hote haim. Ve iryasamiti, yavat uchchara – prasravana – khela – jalla – sidhana – parishthapanika samiti, ina pamcha samitiyom se yukta hote haim, tatha manahsamiti, vachanasamiti, kayasamiti, manogupti, vachanagupti aura kayagupti se bhi yukta hote haim. Ve apani atma ko papom se gupta rakhate haim, apani indriyom ko vishayabhogom se gupta rakhate haim, aura brahmacharya ka palana nau guptiyom sahita karate haim. Ve krodha, mana, maya aura lobha se rahita hote haim. Ve shanti tatha utkrishta shanti se yukta aura upashanta hote haim. Ve samasta samtapom se rahita, ashravom se rahita, bahya – abhyantara – parigraha se rahita hote haim, ina mahatmaom ne samsara ke srota ka chhedana kara diya hai, ye karmamalake lepa se rahita hote haim. Ve jalake lepa se rahita kamse ki patri ki taraha karmajalake lepa se rahita hote haim. Jaise shamkha kalima se rahita hota hai, vaise hi ye mahatma ragadi ke kalushya se rahita hote haim. Jaise jiva ki gati kahim nahim rukati, vaise hi una mahatmaom ki gati kahim nahim rukati. Jaise gaganatala bina avalambana ke hi rahata hai, vaise hi ye mahatma niravalambi rahate haim. Jaise vayu ko koi roka nahim sakata, vaise hi, ye mahatma bhi dravya – kshetra – kala – bhava ke pratibandha se rahita hote haim. Sharadkala ke svachchha pani ki taraha unaka hridaya bhi shuddha aura svachchha hota hai. Kamala ka patta jaise jala ke lepa se rahita hota hai, vaise hi ye bhi karma mala ke lepa se dura rahate haim, ve kachhue ki taraha apani indriyom ko gupta – surakshita rakhate haim. Jaise akasha mem pakshi svatantra vihari hota hai, vaise hi ve mahatma samasta mamatvabandhanom se rahita hokara adhyatmika akasha mem svatantravihari hote haim. Jaise gemre ka eka hi simga hota hai, vaise hi ve mahatma bhava se raga – dvesha rahita akele hi hote haim. Ve bharandapakshi ki taraha apramatta hote haim. Jaise hathi vriksha ko ukharane mem samartha hota hai, vaise hi ve muni kashayom ko nirmula karane mem shuravira evam daksha hote haim. Jaise baila bharavahana mem samartha hota hai, vaise hi ve muni samyama bharavahana mem samartha hote haim. Jaise simha dusare pashuom se dabata nahim, vaise hi ve mahamuni parishahom aura upasargom se dabate nahim. Jaise mandara parvata kampita nahim hota vaise hi ve mahamuni kashtom, upasargom aura bhayom se nahim kampate. Ve samudra ki taraha gambhira hote haim, unaki prakriti chandrama ke samana saumya evam shitala hoti hai; uttama jati ke sone mem jaise mala nahim lagata, vaise hi una mahatmaom ke karmamala nahim lagata. Ve prithvi ke samana sabhi sparsha sahana karate haim. Achchhi taraha homa ki hui agni ke samana ve apane teja se jajvalyamana rahate haim. Una anagara bhagavamtom ke lie kisi bhi jagaha pratibamdha nahim hota. Pratibamdha chara prakara se hota hai, jaise ki – ande se utpanna hone vale hamsa, mora adi pakshiyom se, potaja, avagrahika tatha aupagrahika hota hai. Ve jisa – jisa disha mem vicharana karana chahate haim, usa – usa disha mem apratibaddha, shuchibhuta, apani tyagavritti ke anurupa anu grantha se bhi dura hokara samyama evam tapa se apani atma ko bhavita karate hue vicharana karate haim. Una anagara bhagavamtom ki isa prakara ki samyama yatra ke nirvahartha yaha vritti hoti hai, jaise ki – ve chaturthabhakta, shashthabhakta, ashtamabhakta, dashamabhakta, dvadashabhakta, chaturdashabhakta arddha masika bhakta, masika bhakta, dvimasika, tapa, trimasika tapa, chaturmasika tapa, pamchamasika tapa, evam shanmasika tapa, isake atirikta bhi koi koi nimnokta abhigrahom ke dharaka bhi hote haim. Jaise kaim utkshiptacharaka, nikshiptacharaka hote haim, kaim utkshipta aura nikshipta donom prakara ki charya vale hote haim, koi anta, pranta, ruksha, samudanika, samsrishta, asamsrishta ahara lete haim, koi jisa anna ya shaka adi se chammacha ya hatha bhara ho, usi hatha ya chammacha se usi vastu ko lene ka abhigraha karate haim, koi dekhe hue ahara ko lene ka abhigraha karate haim, koi puchhakara aura koi puchhe bina ahara grahana karate haim. Koi tuchchha aura koi atuchchha bhiksha grahana karate haim. Koi ajnyata gharom se ahara lete haim, koi ahara ke bina glana hone para hi ahara grahana karate haim. Koi data ke nikata rakha hua, kaim datti ki samkhya karake, koi parimita, aura koi shuddha ahara ki gaveshana karake ahara lete haim, ve antahari, prantahari hote haim, kaim arasahari evam kaim virasahari hote haim, kaim rukha – sukha ahara karane vale tatha kaim tuchchha ahara karane vale hote haim. Koi anta ya pranta ahara se hi apana jivana nirvaha karate haim. Koi purimaddha tapa karate haim, koi ayambila tapashcharana karate haim, koi nirvigai tapa karate haim, ve adhika matra mem sarasa ahara ka sevana nahim karate, kaim kayotsarga mem sthita rahate haim, kaim pratima dharana karake kayotsargastha rahate haim, kaim utkata asana se baithate haim, kaim asanayukta bhumi para hi baithate haim, kaim virasana lagakara baithate haim, kaim damde ki taraha ayata – lambe hokara letate haim, kaim lagamdashayi hote haim. Kaim bahya pravarana se rahita hokara rahate haim, kaim kayotsarga mem eka jagaha sthita hokara rahate haim, kaim sharira ko nahim khujalate, ve thuka ko bhi bahara nahim phaimkate. Ve sira ke kesha, mumchha, darhi, roma aura nakha ki kamtachhamta nahim karate, tatha apane sare sharira ka parikarma nahim karate. Ve mahatma isa prakara ugravihara karate hue bahuta varshom taka shramanaparyaya ka palana karate haim. Rogadi anekaneka badhaom ke upasthita hone ya na hone para ve chirakala taka ahara ka tyaga karate haim. Ve aneka dinom taka bhakta pratyakhyana karake use purna karate haim. Anashana ko purnataya siddha karake jisa prayojana se una mahatmaom dvara nagnabhava, mundita bhava, asnana bhava, adantadhavana, chhate aura jute ka upayoga na karana, bhumishayana, kashtha – phalakashayana, keshalumchana, brahmacharya – vasa, bhikshartha paragriha – pravesha adi karya kiye jate haim, tatha jisake lie labha aura alabha mana – apamana, avahelana, ninda, phatakara, tarjana, mara – pita, dhamakiyam tatha umchi – nichi batem, evam kanom ko apriya lagane vale aneka katuvachana adi baisa prakara ke parishaha evam upasarga samabhava se sahe jate haim, usa uddeshya ki aradhana kara lete haim. Usa uddeshya ki aradhana karake antima shvasochchhvasa mem ananta, anuttara, nirvyaghata, niravarana, sampurna aura pratipurna kevalajnyana – kevaladarshana prapta kara lete haim. Kevalajnyana – kevaladarshana uparjita karane ke pashchat ve siddha hote haim, buddha hote haim, sarva karmom se mukta hote haim; parinirvana ko prapta kara lete haim, aura samasta duhkhom ka anta kara dete haim. Kaim mahatma eka hi bhava mem samsara ka anta kara lete haim. Dusare kaim mahatma purvakarmom ke shesha raha jane ke karana mrityu prapta karake kisi devaloka mem devarupa mem utpanna hote haim. Jaise ki – mahan riddhi vale, mahadyuti vale, mahaparakramayukta, mahayashasvi, mahan balashali, mahaprabhavashali aura mahasukhadayi jo devaloka hai, unamem ve devarupa mem utpanna hote haim, ve deva mahariddhi sampanna, mahadyuti sampanna yavat mahasukha sampanna hote haim. Unake vakshah sthala harom se sushobhita rahate haim, unaki bhujaom mem kare, bajubanda adi abhushana pahane hote haim, unake kapolom para amgada aura kundala latakate rahate haim. Ve kanom mem karnaphula dharana kiye hote haim. Unake hatha vichitra abhushanom se yukta rahate haim. Ve sira para vichitra malaom se sushobhita mukuta dharana karate haim. Ve kalyanakari tatha sugandhita uttama vastra pahanate haim, tatha kalyanamayi shreshtha mala aura amgalepana dharana karate haim. Unaka sharira prakasha se jagamagata rahata hai. Ve lambi vanamalaom ko dharana karane vale deva hote haim. Ve apane divyarupa, divyavarna, divya – gandha, divyasparsha, divyasamhanana, divya samsthana tatha divyariddhi, dyuti, prabha, chhaya, archa, teja aura leshya se dasom dishaom ko alokita karate hue, chamakate hue kalyanamayi gati aura sthiti vale tatha bhavishya mem bhadraka hone vale devata banate haim. Yaha (dvitiya) sthana arya hai, yavat yaha samasta duhkhom ko nashta karane vala marga hai. Yaha sthana ekanta samyak aura bahuta achchha hai.