Sutra Navigation: Mahanishith ( महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र )
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Mool File Details |
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Anuvad File Details |
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Sr No : | 1017194 | ||
Scripture Name( English ): | Mahanishith | Translated Scripture Name : | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र |
Mool Language : | Ardha-Magadhi | Translated Language : | Hindi |
Chapter : |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Translated Chapter : |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Section : | Translated Section : | ||
Sutra Number : | 494 | Category : | Chheda-06 |
Gatha or Sutra : | Sutra | Sutra Anuyog : | |
Author : | Deepratnasagar | Original Author : | Gandhar |
Century : | Sect : | Svetambara1 | |
Source : | |||
Mool Sutra : | [सूत्र] (१) से भयवं किमेयस्स अचिंत-चिंतामणि-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं गोयमा (२) इयं एयस्स अचिंत-चिंतामणी-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स णं सुत्तत्थं-पन्नत्तं (३) तं जहा–जे णं एस पंचमं-गल-महासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरो ववत्ती तिल-तेल-कमल-मयरंदव्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव, (४) जहत्थ किरियाणुगय-सब्भूय-गुणुक्कित्तणे, जहिच्छिय-फल-पसाहगे चेव परम-थुइवाए (५) से य परमथुई केसिं कायव्वा सव्व-जगुत्तमाणं। (६) सव्व-जगुत्तमुत्तमे य जे केई भूए, जे केई भविंसु, जे केई भविस्संति, ते सव्वे चेव अरहंतादओ चेव नो नमन्ने ति। (७) ते य पंचहा १ अरहंते, २ सिद्धे, ३ आयरिए, ४ उवज्झाए, ५ साहवो य। (१) तत्थ एएसिं चेव गब्भत्थ-सब्भावो इमो। (२) तं जहा–स-नरामरासुरस्स णं सव्वस्सेव जगस्स अट्ठ-महा-पाडि-हेराइ-पूयाइसओव-लक्खियं, अनन्नं-सरिसमचिंतमप्पमेयं केवलाहिट्ठियं पवरुत्तमत्तं अरहंति त्ति अरहंता। (३) असेस-कम्म-क्खएणं निद्दड्ढ-भवंकुरत्ताओ न पुणेह भवंति जम्मं ति उववज्जंति वा अरुहंता वा, (४) निम्महिय निहय-निद्दलिय-विलूय-निट्ठविय-अभिभूय-सुदुज्जयासेस-अट्ठ-पयारकम्म-रिउत्ताओ वा अरिहंते इ वा। (५) एवमेते अनेगहा पन्नविज्जंति, परुविज्जंति, आघविज्जंति, पट्ठविज्जंति, दंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति। (६) तहा-सिद्धाणि परमानंद-महूसव महकल्लाण-निरूवम-सोक्खाणि, निप्पकंप-सुक्क ज्झाणाइ-अचिंत-सत्ति-सामत्थओ सजीववीरिएयं जोग-निरोहाइणा मह-पयत्तेणित्ति सिद्धा। (७) अट्ठ-प्पयार-कम्मक्ख-एण वा सिद्धं सज्झमेतेसिं ति सिद्धा। (८) सिय-माज्झायमेसिमिति वा सिद्धा, (९) सिद्धे निट्ठिए पहीणे सयल-पओयण-वाय-कयंबमेतेसिमिति वा सिद्धा। (१०) एवमेते इत्थी-पुरिस-नपुंस-सलिंग-अन्नलिंग-गिहिलिंग-पत्तेय-बुद्ध- [बुद्ध]-बोहिय-जाव णं कम्म-क्खय-सिद्धा य भेदेहि णं अनेगहा पन्नविज्जंति। (११) तहा-अट्ठारस-सीलंग-सहस्साहिट्ठिय-तनू छत्तीसइविहमायारं जहट्ठियमगिलाए-महन्नि-सानुसमयं आयरंति पवत्तयंति त्ति आयरिया। (१२) परमप्पणो य हियमायरंति त्ति आयरिया (१३) भव्व सत्त-सीस-गणाणं वा हियमायरंति आयरिया। (१४) पाण-परिच्चाए वि उ पुढवादीणं समारंभं नायरंति नायरंभंति, नानुजाणंति वा आयरिया (१५) सुमहावरद्धे वि न कस्सई मनसा वि पावमायरंति त्ति वा आयरिया। (१६) एवमेते नाम-ठवणादीहिं अनेगहा पन्नविज्जंति। (१७) तहा-सुसंवुडासव-दारे-मनो-वइ-काय-जोगत्त-उवउत्ते, विहिणा सर-वंजन-मत्ता-बिंदु-पयक्खर-विसुद्ध-दुवालसंग-सुय-नाणज्झयण-ज्झावणेणं परमप्पणो य मोक्खोवायं ज्झायंति त्ति उवज्झाए। (१८) थिर-परिचियमणंत-गम-पज्जव-त्थेहिं वा दुवालसंगं सुयणाणं चिंतंति नुसरंति, एगग्ग-माणसा झायंति त्ति वा उवज्झाए। (१९) एवमेते हि अनेगहा पन्नविज्जंति। (२०) तहा–अच्चंत-कट्ठ-उग्गुग्गयर-घोरतव-चरणाइ-अनेगवय-नियमोववास-नानाभिग्गह-विसेस-संजम-परिवालण-सम्मं-परिसहोवसग्गाहियासणेणं सव्व-दुक्ख-विमोक्खं मोक्खं साहयंति त्ति साहवो। (२१) इमाए चूलाए भाविज्जइ (२२) एतेसिं नमोक्कारो। (१) एसो पंच नमोक्कारो किं करेज्जा (२) सव्वं पावं नाणावरणीयादि-कम्म-विसेसं तं पयरिसेणं दिसोदिसं नास-यइ सव्व-पाव-प्पणासणो। (३) एस चूलाए पढमो उद्देसओ। एसो पंच नमोक्कारो सव्व-पाव-प्पणासणो। (४) किं विहेउ मंगो निव्वाण-सुह-साहणेक्क-खमो सम्म-द्दंसणाइ आराहओ अहिंसा-लक्खणो धम्मो, तं मे लाएज्ज त्ति मंगलं (६) ममं भवाओ संसाराओ गलेज्जा तारेज्जा वा मंगलं। (७) बद्ध-पुट्ठ-निकाइय-ट्ठप्पगार-कम्म-रासिं मे गालेज्जा विलेज्जे त्ति वा मंगलं (८) एएसिं मंगलाणं अन्नेसिं च मंगलाणं सव्वेसिं। (९) किं पढमं आदीए अरहंताईणं थुई चेव हवइ मंगलं ति। (१) एस समासत्थो वित्थरत्थं तु इमं। तं जहा– (२) ते णं काले णं ते णं समए णं गोयमा जे केइ पुव्विं वावण्णिय -सद्दत्थे अरहंते भगवंते धम्म-तित्थकरे भवेज्जा, से णं परमपुज्जाणं पि पुज्जयरे भवेज्जा, जओ णं ते सव्वे वि एयलक्खण-समण्णिए भवेज्जा। तं जहा– (३) अचिंत-अप्पमेय-निरुवमानन्न-सरिस-पवर-वरुत्तम-गुणोहाहिट्ठियत्तेणं तिण्हं पि लोगाणं संजणिय-गरुय-महंत-मानसानंदे। (४) तहा य जम्मंतर-संचिय-गरुय-पुन्न-पब्भार-संविढत्त-तित्थयर-नाम-कम्मोदएणं दीहर-गिम्हायव-संताव-किलंत-सिहि-उलाणं वा पढम-पाउस-धारा-भर-वरिसंत-घन-संघायमिव परम-हिओवएस-पयाणाइणा घन-राग-दोस-मोह-मिच्छ-त्ताविरति-पमाय-दुट्ठ-किलिट्ठज्झवसायाइस- मज्जियासुह-घोर-पावकम्मायव-संतावस्स निन्नासगे भव्व-सत्ताणं। (५) अनेग-जम्मंतर संविढत्त-गुरुय-पुन्न-पब्भाराइसय-बलेणं समज्जियाउल बल-वीरिए सरियं-सत्त-परक्कमाहिट्ठियतणू। (६) सुकंत-दित्त-चारु-पायंगु-ट्ठग्ग-रूवाइसएणं सयल-गह-नक्खत्त-चंदपंतीणं, सूरिए इव पयड पयाव-दस-दिसि-पयास-विप्फुरंत-किरण-पब्भारेण निय-तेयसा विच्छायगे सयल सविज्जा-हर-नरामराणं, सदेव-दानविंदाणं सुरलोगाणं। (७) सोहग्ग-कंति-दित्ति-लावन्न-रूव-समुदय-सिरिए, साहाविय-कम्मक्खय-जनिय-दिव्व-कय-पवर-निरुवमाणन्न-सरिस-विसेस साइसयाइ-सयसयल कला-कलाव-विच्छड्डपरिदंसणेणं। (८) भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणियाहमिंद- सइंदच्छरा- सकिन्नर- नर- विज्जाहरस्स ससुरासुरस्सा वि णं जगस्स। (९) अहो अहो अहो अज्ज अदिट्ठपुव्वं दिट्ठमम्हेहिं इणमो सविसेसाउल-महंताचिंत-परम-च्छेरय-संदोहं सम-गाल मेवेगट्ठसमुइयं दिट्ठं ति (१०) तक्खणुप्पन्न-घन-निरंतर-बहलमप्पमेयाचिंत-अंतोसहरिस-पीयाणुरायवस-पवियंभं- तानु समय-अहिनवा-हिनव-परिणाम-विसेसत्तेणं; (११) मह मह महं ति जंपिर-परोप्पराणं विसायमुवगयं, ह ह ह धी धिरत्थु अधन्ना अपुण्णा वयं इइ निंदिर-अत्तानगम (१२) नंतर-संखुहिय-हियय-मुच्छिर-सुलद्ध-चेयण सुन्न-वुन्न-सिढिलिय-सगत्त-आउंचण-पसारणा-उम्मेस-निमेसाइ-सारिरिय-वावार-मुक्क-केवलं (१३) अनोवलक्ख-खलंत-मंद-मंद-दीह-हूहुंकार-विमिस्स-मुक्क-दीहुण्ह-बहल-नीसासे-गत्तेणं अइअभिनिविट्ठ-बुद्धी-सुनिच्छिय-मनस्स णं (१४) जगस्स (१५) किं पुन तं तवमनुचेट्ठेमो जेणेरिसं पवररिद्धिं लभेज्ज त्ति तग्गय-मनस्स णं (१६) दंसणा चेव निय-निय-वच्छत्थल-निहिप्पंत-करयलुप्पाइय-महंत मानस-चमक्कारे। (१) ता गोयमा णं एवमाइ-अनंत-गुणगणाहिट्ठिय-सरीराणं तेसिं सुगहिय-नामधेज्जाणं अरहंताणं भगवंताणं धम्मतित्थगराणं संतिए गुण-गणोहरयण-संदोदोह-संघाए (२) अहन्निसाणुसमयं जीहा-सहस्सेणं पि वागरंतो सुरवई वि अन्नयरे वा केई चउनाणी महाइसईय-छउमत्थेणं सयंभुरमणोवहिस्स व वास-कोडीहिं पि नो पारं गच्छेज्जा (३) जओ णं अपरिमिय-गुण-रयणे गोयमा अरहंते भगवंते धम्मतित्थगरे भवंति (४) ता किमित्थं भन्नउ जत्थ य णं तिलोग-नाहाणं जग-गुरुणं भुवणेक्क-बंधूणं तेलोक्क-लग्गनखंभ-पवर-वर-धम्मतित्थंकराणं केइ सुरिंदाइ-पायंगुट्ठग्ग-एग-देसाओ अनेगगुणगणालंकरि-याओ भत्ति-भरणि-ब्भरिक्क-रसियाणं, (५) सव्वेसिं पि वा सुरीसाणं अनेग-भवंतर-संचिय-अनिट्ठ-दुट्ठ-ट्ठकम्म-रासी-जनिय-दोगच्च-दोमनसादि-दुक्ख-दारिद्द-किलेस-जम्म-जरा-मरण-रोग-सोग-संतावुव्वेग-वाहि-वेयणाईणं खयट्ठाए एग-गुणस्सानंत-भागमेगं भणमाणाणं जमग-सम-गमेव दिणयरकरे इ वाणेग-गुण-गणोहे जीहग्गे वि फुरंति, (६) ताइं च न सक्कासिंदा वि देवगणा समकालं भाणिऊणं, किं पुन अकेवली मंस-चक्खुणो (७) ता गोयमा णं एस एत्थं परमत्थे वियाणेयव्वं। जहा–णं जइ तित्थगराणं संतिए गुण-गणोहे तित्थयरे चेव वायरंति, न उण अन्ने, जओ णं सातिसया तेसिं भारती। (१) अहवा गोयमा किमेत्थ पभूय-वागरणेणं (२) सारत्थं भन्नए। तं जहा– | ||
Sutra Meaning : | हे भगवंत ! क्या यह चिन्तामणी कल्पवृक्ष समान पंच मंगल महाश्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ को प्ररूपे हैं ? हे गौतम ! यह अचिंत्य चिंतामणी कल्पवृक्ष समान मनोवांछित पूर्ण करनेवाला पंचमंगल महा श्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ प्ररूपेल हैं। वो इस प्रकार – जिस कारण के लिए तल में तैल, कमल में मकरन्द, सर्वलोक में पंचास्तिकाय फैले रहे हैं। उसी तरह यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध के लिए समग्र आगम के भीतर यथार्थ क्रिया व्यापी है। सर्वभूत के गुण स्वभाव का कथन किया है। तो परम स्तुति किसकी करे ? इस जगत में जो भूतकाल में हो उसकी। इस सर्व जगत में जो कुछ भूतकाल में या भावि में उत्तम हुए हो वो सब स्तुति करने लायक हैं वैसे सर्वोत्तम और गुणवाले हो वे केवल अरिहंतादिक पाँच ही हैं, उसके अलावा दूसरे कोई सर्वोत्तम नहीं है, वो पाँच प्रकार के हैं – अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। यह पाँच परमेष्ठि के गर्भार्थ – यथार्थ गुण सद्भाव हो तो वो इस प्रकार बताए हैं। मनुष्य, देव और असुरवाले इस सर्व जगत को आठ महाप्रातिहार्य आदि के पूजातिशय से पहचाननेवाले, असाधारण, अचिन्त्य प्रभाववाले, केवलज्ञान पानेवाले, श्रेष्ठ उत्तमता को वरे हुए होने से ‘अरहंत’, समग्र कर्मक्षय पाए हुए होने से जिसका भवांकुर समग्र तरीके से जल गया है, जिससे अब वो फिर से इस संसार में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए उन्हें अरूहंत भी कहते हैं। या फिर अति दुःख से करके जिन पर विजय पा सकते हैं वैसे समग्र आठ कर्मशत्रुओं को निमर्थन करके वध किया है। निर्दलन टुकड़े कर दिए हैं, पीगला दिए हैं। अंत किया है, परिभाव किया है, यानि कर्म समान शत्रुओं को जिन्होंने हंमेशा के लिए वध किया है। ऐसे ‘अरिहंत’ कहा है। इस प्रकार इस अरिहंत की कईं प्रकार से समज दी है, प्रज्ञापना की जाती है, प्ररूपणा की जाती है। कहलाते हैं। पढ़ाते हैं, बनाते हैं, उपदेश दिया जाता है। और सिद्ध भगवंत परमानन्द महोत्सव में महालते, महाकल्याण पानेवाले, निरूपम सुख भुगतनेवाले, निष्कंप शुक्लध्यान आदि के अचिंत्य सामर्थ्य से अपने जीववीर्य से योग निरोध करने समान महा कोशीश से जो सिद्ध हुए हैं। या तो आठ तरह के कर्म का क्षय होने से जिन्होंने सिद्धपन की साधना का सेवन किया है, इस तरह के सिद्ध भगवंत या शुक्लध्यान समान अग्नि से बंधे कर्म भस्मीभूत करके जो सिद्ध हुए हैं, वैसे सिद्ध भगवंत सिद्ध किए हैं, पूर्ण हुए हैं, रहित हुए हैं, समग्र प्रयोजन समूह जिनको ऐसे सिद्ध भगवंत ! यह सिद्ध भगवंत स्त्री – पुरुष, नपुंसक, अन्यलिंग गृहस्थलिंग, प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध यावत् कर्मक्षय करके सिद्ध हुए – ऐसे कईं तरह के सिद्ध की प्ररूपणा की है (और) अठ्ठारह हजार शीलांग के आश्रय किए देहवाले छत्तीस तरह के ज्ञानादिक आचार प्रमाद किए बिना हंमेशा जो आचरण करते हैं, इसलिए आचार्य, सर्व सत्य और शिष्य समुदाय का हित आचरण करनेवाले होने से आचार्य, प्राण के परित्याग वक्त में भी जो पृथ्वीकाय आदि जीव का समारम्भ, आचरण नहीं करते। या आरम्भ की अनुमोदना जो नहीं करते, वो आचार्य बड़ा अपराध करने के बावजूद भी जो किसी पर मन से भी पाप आचरण नहीं करते यों आचार्य कहलाते हैं। इस प्रकार नाम – स्थापना आदि कईं भेद से प्ररूपणा की जाती है। (और) जिन्हों ने अच्छी तरह से आश्रवद्वार बन्ध किए हैं, मन, वचन, काया के सुंदर योग में उपयोगवाले, विधिवत् स्वर – व्यंजन, मात्रा, बिन्दु, पद, अक्षर से विशुद्ध बारह अंग, श्रुतज्ञान पढ़नेवाले और पढ़ानेवाले एवं दूसरे और खुद के मोक्ष उपाय जो सोचते हैं – उसका ध्यान धरते हैं वो उपाध्याय। स्थिर परिचित किए अनन्तगम पर्याय चीज सहित द्वादशांगी और श्रुतज्ञान जो एकाग्र मन से चिन्तवन करते हैं, स्मरण करते हैं, ध्यान करते हैं, वो उपाध्याय। इस प्रकार कईं भेद से उसकी व्याख्या करते हैं। अति कष्टवाले उग्र उग्रतर घोर तप और चारित्रवाले, कईं व्रत – नियम उपवास विविध अभिग्रह विशेष, संयम पालन, समता रहित परिषह उपसर्ग सहनेवाले, सर्व दुःख रहित मोक्ष की साधना करनेवाले वो साधु भगवंत कहलाते हैं। यही बात चुलिका में सोचेंगे। एसो पंच नमोक्कारो – इन पाँच को किया गया नमस्कार क्या करेगा ? ज्ञानावरणीय आदि सर्व पापकर्म विशेष को हर एक दिशा में नष्ट करे वो सर्व पाप नष्ट करनेवाले। यह पद चुलिका के भीतर प्रथम उद्देशो कहलाए ‘एसो पंच नमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो’ यह उद्देशक इस तरह का है। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलं उसमें मंगल शब्द में रहे मंगल शब्द का निर्वाणसुख अर्थ होता है। वैसे मोक्ष सुख को साधने में समर्थ ऐसे सम्यग्दर्शनादि स्वरूपवाला, अहिंसा लक्षणवाला धर्म जो मुजे लाकर दे वो मंगल। और मुजे भव से – संसार से पार करे वो मंगल। या बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित ऐसे आठ तरह के मेरे कर्म समूह को जो छाँने, विलय, नष्ट करे वो मंगल। यह मंगल और दूसरे सर्व मंगल में क्या विशेषता है ? प्रथम आदि में अरिहंत की स्तुति यही मंगल है। यह संक्षेप से अर्थ बताया। अब विस्तार से नीचे मुताबिक अर्थ जान लो। उस काल उस वक्त हे गौतम ! जिसके शब्द का अर्थ आगे बताया गया है ऐसा जो कोई धर्म तीर्थंकर अरिहंत होते हैं, वो परम पूज्य से भी विशेष तरह से पूज्य होते हैं। क्योंकि वो सब यहाँ बताएंगे वैसे लक्षण युक्त होते हैं। अचिन्त्य, अप्रमेय, निरुपम जिसकी तुलना में दूसरा कोई न आ सके, श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर गुण समूह से अधिष्ठित होने के कारण से तीन लोक के अति महान, मन के आनन्द को उत्पन्न करनेवाले हैं। लम्बे ग्रीष्मकाल के ताप से संतप्त हुए, मयुर गण को जिस तरह प्रथम वर्षा की धारा का समूह शान्ति दे, उसी तरह कईं जन्मान्तर में उपार्जन करके इकट्ठे किए महा – पुण्य स्वरूप तीर्थंकर नामकर्म के उदय से अरिहंत भगवंत उत्तम हितोपदेश देना आदि के द्वारा सज्जड़ राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, दुष्ट – संक्लिष्ट ऐसा परिणाम आदि से बंधे अशुभ घोर पापकर्म से होनेवाले भव्य जीव के संताप को निर्मूल करते हैं। सबको जानते होने से सर्वज्ञ हैं। कईं जन्म से उपार्जन किए महापुण्य के समूह से जगत में किसी की तुलना में न आए ऐसे अखूट बल, वीर्य, ऐश्वर्य, सत्त्व, पराक्रमयुक्त देहवाले वो होते हैं। उनके मनोहर देदीप्यमान पाँव के अँगूठे के अग्र हिस्से का रूप इतना रूपातिशयवाला होता है कि जिसके आगे सूर्य जैसे दस दिशा में प्रकाश से (स्फुरायमान) प्रकट प्रतापी किरणों के समूह से सर्व ग्रह, नक्षत्र और चन्द्र की श्रेणी को तेजहीन बताते हैं, वैसे तीर्थंकर भगवंत के शरीर के तेज से सर्व विद्याधर, देवांगना, देवेन्द्र, असुरेन्द्र सहित देव का सौभाग्य, कान्ति, दीप्ति, लावण्य और रूप की समग्र शोभा फिखी – निस्तेज हो जाती है। स्वाभाविक ऐसे चार, कर्मक्षय होने से ग्यारह और देव के किए उन्नीस ऐसे चौंतीस अतिशय ऐसे श्रेष्ठ निरुपम और असामान्य होते हैं। जिसके दर्शन से भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक, अहमिन्द्र, इन्द्र अप्सरा, किन्नर, नर विद्याधर, सूर और असूर सहित जगत के जीव को आश्चर्य होता है। अरे ! हम आज तक किसी भी दिन न देखा हुआ आज देखा। एक साथ इकट्ठे हुए। अतुल महान अचिंत्य गुण परम आश्चर्य का समूह एक ही व्यक्ति में आज हमने देखा। ऐसे शुभ परिणाम से उस वक्त अति गहरा सतत उत्पन्न होनेवाले प्रमोदवाले हुए। हर्ष और अनुराग से स्फुरायमान होनेवाले नये परिणाम से आपस में हर्ष के वचन बोलने लगे और विहार कर के भगवंत आगे चले तब अपने आत्मा की निंदा करने लगे। आपस में कहने लगे की वाकई हम नफरत के लायक हैं, अधन्य हैं, पुण्यहीन हैं, भगवंत विहार करके चले गए फिर संक्षोभ पाए हुए हृदयवाले मूर्छित हुए, महा मुसीबत से होश आया। उनके गात्र खींचने से अति शिथिल हो गए। शरीर सिकुड़ना, हाथ – पाँव फैलाना, प्रसन्नता बतानी, आँख में पलकार होना, शरीर की क्रियाएं – बन्ध हो गई, न समझ सके वैसे स्खलनवाले मंद शब्द बोलने लगे, मंद लम्बे हुँकार के साथ लम्बे गर्म निसाँसे छोड़ने लगे। अति बुद्धिशाली पुरुष ही उनके मन का यथार्थ निर्णय कर सके जगत के जीव सोचने लगे कि किस तरह के तप के सेवन से ऐसी श्रेष्ठ ऋद्धि पा सकेंगे ? उनकी ऋद्धि – समृद्धि की सोच से और दर्शन से आश्चर्य पानेवाले अपने वक्षःस्थल पर हस्ततल स्थापन करके मन को चमत्कार देनेवाले बड़ा आश्चर्य उत्पन्न करते थे। इसलिए हे गौतम ! ऐसे अनन्त गुण समूह से युक्त शरीरवाले अच्छी तरह से सम्मानपूर्वक ग्रहण किए गए नामवाले धर्मतीर्थ को प्रवर्तानेवाले अरिहंत भगवंत के गुण – समूह समान रत्ननिधान का बयान इन्द्र महाराजा, अन्य किसी चार ज्ञानवाले या महा अतिशयवाले छद्मस्थ जीव भी रात दिन हर एक पल हजारों जबान से करोड़ों साल तक करे तो भी स्वयंभूरमण समुद्र समान अरिहंत के गुण को बयान नहीं कर सकते क्योंकि हे गौतम ! धर्मतीर्थ प्रवर्तानेवाले अरिहंत भगवंत अपरिमित गुणरत्नवाले होते हैं। इसलिए यहाँ उनके लिए क्या बताए ? जहाँ तीन लोक के नाथ जगत के गुरु, तीन भूवन के एक बन्धु, तीन लोक के वैसे – वैसे उत्तम गुण के आधार समान श्रेष्ठ धर्म तीर्थंकर के वरण का एक अँगूठे के अग्र हिस्सेका केवल एक हिस्सा कईं गुण के समूह से शोभायमान है। उसमें अनन्ता हिस्से का रूप इन्द्रादि वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं है। ये बात विशेष बताते हुए कहते हैं – देव और इन्द्र या वैसे किसी भक्ति में लीन हुए सर्व पुरुष कईं जन्मान्तर में उपार्जन किए गए अनिष्ट दुष्ट कर्मराशि जनित दुर्गति उद्वेग आदि दुःख दारिद्र्य, क्लेश, जन्म, जरा, मरण, रोग, संताप, खिन्नता, व्याधि, वेदना आदि के क्षय के लिए उनके अँगूठे के गुण का वर्णन करने लगे तो सूर्य के किरणों के समूह की तरह भगवान के जो कईं गुण का समूह एक साथ उनके जिह्वा के अग्र हिस्से पर स्फूरायमान होता है, उसे इन्द्र सहित देवगण एक साथ बोलने लगे तो भी जिसका वर्णन करनेके लिए शक्तिमान नहीं है, तो फिर चर्मचक्षुवाले अकेवली क्या बोलेंगे? इसलिए हे गौतम ! इस विषय में यहाँ यह परमार्थ समजे कि तीर्थंकर भगवंत के गुण सागर को अकेले केवलज्ञानी तीर्थंकर ही कहने के लिए शक्तिवर हैं। दूसरे किसी कहने के लिए समर्थ नहीं हो सकते। क्योंकि उनकी बोली सातिशय होती है। इसलिए वो कहने के लिए समर्थ है। या हे गौतम ! इस विषय में ज्यादा कहने से क्या ? सारभूत अर्थ बताता हूँ वो इस प्रकार है – | ||
Mool Sutra Transliteration : | [sutra] (1) se bhayavam kimeyassa achimta-chimtamani-kappa-bhuyassa nam pamchamamgala-mahasuyakkhamdhassa suttattham pannattam goyama (2) iyam eyassa achimta-chimtamani-kappa-bhuyassa nam pamchamamgala-mahasuyakkhamdhassa nam suttattham-pannattam (3) tam jaha–je nam esa pamchamam-gala-mahasuyakkhamdhe se nam sayalagamamtaro vavatti tila-tela-kamala-mayaramdavva savvaloe pamchatthikayamiva, (4) jahattha kiriyanugaya-sabbhuya-gunukkittane, jahichchhiya-phala-pasahage cheva parama-thuivae (5) se ya paramathui kesim kayavva savva-jaguttamanam. (6) savva-jaguttamuttame ya je kei bhue, je kei bhavimsu, je kei bhavissamti, te savve cheva arahamtadao cheva no namanne ti. (7) te ya pamchaha 1 arahamte, 2 siddhe, 3 ayarie, 4 uvajjhae, 5 sahavo ya. (1) tattha eesim cheva gabbhattha-sabbhavo imo. (2) tam jaha–sa-naramarasurassa nam savvasseva jagassa attha-maha-padi-herai-puyaisaova-lakkhiyam, anannam-sarisamachimtamappameyam kevalahitthiyam pavaruttamattam arahamti tti arahamta. (3) asesa-kamma-kkhaenam niddaddha-bhavamkurattao na puneha bhavamti jammam ti uvavajjamti va aruhamta va, (4) nimmahiya nihaya-niddaliya-viluya-nitthaviya-abhibhuya-sudujjayasesa-attha-payarakamma-riuttao va arihamte i va. (5) evamete anegaha pannavijjamti, paruvijjamti, aghavijjamti, patthavijjamti, damsijjamti, uvadamsijjamti. (6) taha-siddhani paramanamda-mahusava mahakallana-niruvama-sokkhani, nippakampa-sukka jjhanai-achimta-satti-samatthao sajivavirieyam joga-nirohaina maha-payattenitti siddha. (7) attha-ppayara-kammakkha-ena va siddham sajjhametesim ti siddha. (8) siya-majjhayamesimiti va siddha, (9) siddhe nitthie pahine sayala-paoyana-vaya-kayambametesimiti va siddha. (10) evamete itthi-purisa-napumsa-salimga-annalimga-gihilimga-patteya-buddha- [buddha]-bohiya-java nam kamma-kkhaya-siddha ya bhedehi nam anegaha pannavijjamti. (11) taha-attharasa-silamga-sahassahitthiya-tanu chhattisaivihamayaram jahatthiyamagilae-mahanni-sanusamayam ayaramti pavattayamti tti ayariya. (12) paramappano ya hiyamayaramti tti ayariya (13) bhavva satta-sisa-gananam va hiyamayaramti ayariya. (14) pana-parichchae vi u pudhavadinam samarambham nayaramti nayarambhamti, nanujanamti va ayariya (15) sumahavaraddhe vi na kassai manasa vi pavamayaramti tti va ayariya. (16) evamete nama-thavanadihim anegaha pannavijjamti. (17) taha-susamvudasava-dare-mano-vai-kaya-jogatta-uvautte, vihina sara-vamjana-matta-bimdu-payakkhara-visuddha-duvalasamga-suya-nanajjhayana-jjhavanenam paramappano ya mokkhovayam jjhayamti tti uvajjhae. (18) thira-parichiyamanamta-gama-pajjava-tthehim va duvalasamgam suyananam chimtamti nusaramti, egagga-manasa jhayamti tti va uvajjhae. (19) evamete hi anegaha pannavijjamti. (20) taha–achchamta-kattha-ugguggayara-ghoratava-charanai-anegavaya-niyamovavasa-nanabhiggaha-visesa-samjama-parivalana-sammam-parisahovasaggahiyasanenam savva-dukkha-vimokkham mokkham sahayamti tti sahavo. (21) imae chulae bhavijjai (22) etesim namokkaro. (1) eso pamcha namokkaro kim karejja (2) savvam pavam nanavaraniyadi-kamma-visesam tam payarisenam disodisam nasa-yai savva-pava-ppanasano. (3) esa chulae padhamo uddesao. Eso pamcha namokkaro savva-pava-ppanasano. (4) kim viheu mamgo nivvana-suha-sahanekka-khamo samma-ddamsanai arahao ahimsa-lakkhano dhammo, tam me laejja tti mamgalam (6) mamam bhavao samsarao galejja tarejja va mamgalam. (7) baddha-puttha-nikaiya-tthappagara-kamma-rasim me galejja vilejje tti va mamgalam (8) eesim mamgalanam annesim cha mamgalanam savvesim. (9) kim padhamam adie arahamtainam thui cheva havai mamgalam ti. (1) esa samasattho vittharattham tu imam. Tam jaha– (2) te nam kale nam te nam samae nam goyama je kei puvvim vavanniya -saddatthe arahamte bhagavamte dhamma-titthakare bhavejja, se nam paramapujjanam pi pujjayare bhavejja, jao nam te savve vi eyalakkhana-samannie bhavejja. Tam jaha– (3) achimta-appameya-niruvamananna-sarisa-pavara-varuttama-gunohahitthiyattenam tinham pi loganam samjaniya-garuya-mahamta-manasanamde. (4) taha ya jammamtara-samchiya-garuya-punna-pabbhara-samvidhatta-titthayara-nama-kammodaenam dihara-gimhayava-samtava-kilamta-sihi-ulanam va padhama-pausa-dhara-bhara-varisamta-ghana-samghayamiva parama-hiovaesa-payanaina ghana-raga-dosa-moha-michchha-ttavirati-pamaya-duttha-kilitthajjhavasayaisa- majjiyasuha-ghora-pavakammayava-samtavassa ninnasage bhavva-sattanam. (5) anega-jammamtara samvidhatta-guruya-punna-pabbharaisaya-balenam samajjiyaula bala-virie sariyam-satta-parakkamahitthiyatanu. (6) sukamta-ditta-charu-payamgu-tthagga-ruvaisaenam sayala-gaha-nakkhatta-chamdapamtinam, surie iva payada payava-dasa-disi-payasa-vipphuramta-kirana-pabbharena niya-teyasa vichchhayage sayala savijja-hara-naramaranam, sadeva-danavimdanam suraloganam. (7) sohagga-kamti-ditti-lavanna-ruva-samudaya-sirie, sahaviya-kammakkhaya-janiya-divva-kaya-pavara-niruvamananna-sarisa-visesa saisayai-sayasayala kala-kalava-vichchhaddaparidamsanenam. (8) bhavanavai-vanamamtara-joisa-vemaniyahamimda- saimdachchhara- sakinnara- nara- vijjaharassa sasurasurassa vi nam jagassa. (9) aho aho aho ajja aditthapuvvam ditthamamhehim inamo savisesaula-mahamtachimta-parama-chchheraya-samdoham sama-gala mevegatthasamuiyam dittham ti (10) takkhanuppanna-ghana-niramtara-bahalamappameyachimta-amtosaharisa-piyanurayavasa-paviyambham- tanu samaya-ahinava-hinava-parinama-visesattenam; (11) maha maha maham ti jampira-paropparanam visayamuvagayam, ha ha ha dhi dhiratthu adhanna apunna vayam ii nimdira-attanagama (12) namtara-samkhuhiya-hiyaya-muchchhira-suladdha-cheyana sunna-vunna-sidhiliya-sagatta-aumchana-pasarana-ummesa-nimesai-saririya-vavara-mukka-kevalam (13) anovalakkha-khalamta-mamda-mamda-diha-huhumkara-vimissa-mukka-dihunha-bahala-nisase-gattenam aiabhinivittha-buddhi-sunichchhiya-manassa nam (14) jagassa (15) kim puna tam tavamanuchetthemo jenerisam pavarariddhim labhejja tti taggaya-manassa nam (16) damsana cheva niya-niya-vachchhatthala-nihippamta-karayaluppaiya-mahamta manasa-chamakkare. (1) ta goyama nam evamai-anamta-gunaganahitthiya-sariranam tesim sugahiya-namadhejjanam arahamtanam bhagavamtanam dhammatitthagaranam samtie guna-ganoharayana-samdodoha-samghae (2) ahannisanusamayam jiha-sahassenam pi vagaramto suravai vi annayare va kei chaunani mahaisaiya-chhaumatthenam sayambhuramanovahissa va vasa-kodihim pi no param gachchhejja (3) jao nam aparimiya-guna-rayane goyama arahamte bhagavamte dhammatitthagare bhavamti (4) ta kimittham bhannau jattha ya nam tiloga-nahanam jaga-gurunam bhuvanekka-bamdhunam telokka-lagganakhambha-pavara-vara-dhammatitthamkaranam kei surimdai-payamgutthagga-ega-desao anegagunaganalamkari-yao bhatti-bharani-bbharikka-rasiyanam, (5) savvesim pi va surisanam anega-bhavamtara-samchiya-anittha-duttha-tthakamma-rasi-janiya-dogachcha-domanasadi-dukkha-daridda-kilesa-jamma-jara-marana-roga-soga-samtavuvvega-vahi-veyanainam khayatthae ega-gunassanamta-bhagamegam bhanamananam jamaga-sama-gameva dinayarakare i vanega-guna-ganohe jihagge vi phuramti, (6) taim cha na sakkasimda vi devagana samakalam bhaniunam, kim puna akevali mamsa-chakkhuno (7) ta goyama nam esa ettham paramatthe viyaneyavvam. Jaha–nam jai titthagaranam samtie guna-ganohe titthayare cheva vayaramti, na una anne, jao nam satisaya tesim bharati. (1) ahava goyama kimettha pabhuya-vagaranenam (2) sarattham bhannae. Tam jaha– | ||
Sutra Meaning Transliteration : | He bhagavamta ! Kya yaha chintamani kalpavriksha samana pamcha mamgala mahashrutaskamdha ke sutra aura artha ko prarupe haim\? He gautama ! Yaha achimtya chimtamani kalpavriksha samana manovamchhita purna karanevala pamchamamgala maha shrutaskamdha ke sutra aura artha prarupela haim. Vo isa prakara – Jisa karana ke lie tala mem taila, kamala mem makaranda, sarvaloka mem pamchastikaya phaile rahe haim. Usi taraha yaha pamchamamgala mahashrutaskamdha ke lie samagra agama ke bhitara yathartha kriya vyapi hai. Sarvabhuta ke guna svabhava ka kathana kiya hai. To parama stuti kisaki kare\? Isa jagata mem jo bhutakala mem ho usaki. Isa sarva jagata mem jo kuchha bhutakala mem ya bhavi mem uttama hue ho vo saba stuti karane layaka haim vaise sarvottama aura gunavale ho ve kevala arihamtadika pamcha hi haim, usake alava dusare koi sarvottama nahim hai, vo pamcha prakara ke haim – arihamta, siddha, acharya, upadhyaya aura sadhu. Yaha pamcha parameshthi ke garbhartha – yathartha guna sadbhava ho to vo isa prakara batae haim. Manushya, deva aura asuravale isa sarva jagata ko atha mahapratiharya adi ke pujatishaya se pahachananevale, asadharana, achintya prabhavavale, kevalajnyana panevale, shreshtha uttamata ko vare hue hone se ‘arahamta’, samagra karmakshaya pae hue hone se jisaka bhavamkura samagra tarike se jala gaya hai, jisase aba vo phira se isa samsara mem utpanna nahim hote. Isalie unhem aruhamta bhi kahate haim. Ya phira ati duhkha se karake jina para vijaya pa sakate haim vaise samagra atha karmashatruom ko nimarthana karake vadha kiya hai. Nirdalana tukare kara die haim, pigala die haim. Amta kiya hai, paribhava kiya hai, yani karma samana shatruom ko jinhomne hammesha ke lie vadha kiya hai. Aise ‘arihamta’ kaha hai. Isa prakara isa arihamta ki kaim prakara se samaja di hai, prajnyapana ki jati hai, prarupana ki jati hai. Kahalate haim. Parhate haim, banate haim, upadesha diya jata hai. Aura siddha bhagavamta paramananda mahotsava mem mahalate, mahakalyana panevale, nirupama sukha bhugatanevale, nishkampa shukladhyana adi ke achimtya samarthya se apane jivavirya se yoga nirodha karane samana maha koshisha se jo siddha hue haim. Ya to atha taraha ke karma ka kshaya hone se jinhomne siddhapana ki sadhana ka sevana kiya hai, isa taraha ke siddha bhagavamta ya shukladhyana samana agni se bamdhe karma bhasmibhuta karake jo siddha hue haim, vaise siddha bhagavamta siddha kie haim, purna hue haim, rahita hue haim, samagra prayojana samuha jinako aise siddha bhagavamta ! Yaha siddha bhagavamta stri – purusha, napumsaka, anyalimga grihasthalimga, pratyekabuddha, svayambuddha yavat karmakshaya karake siddha hue – aise kaim taraha ke siddha ki prarupana ki hai (aura) aththaraha hajara shilamga ke ashraya kie dehavale chhattisa taraha ke jnyanadika achara pramada kie bina hammesha jo acharana karate haim, isalie acharya, sarva satya aura shishya samudaya ka hita acharana karanevale hone se acharya, prana ke parityaga vakta mem bhi jo prithvikaya adi jiva ka samarambha, acharana nahim karate. Ya arambha ki anumodana jo nahim karate, vo acharya bara aparadha karane ke bavajuda bhi jo kisi para mana se bhi papa acharana nahim karate yom acharya kahalate haim. Isa prakara nama – sthapana adi kaim bheda se prarupana ki jati hai. (aura) jinhom ne achchhi taraha se ashravadvara bandha kie haim, mana, vachana, kaya ke sumdara yoga mem upayogavale, vidhivat svara – vyamjana, matra, bindu, pada, akshara se vishuddha baraha amga, shrutajnyana parhanevale aura parhanevale evam dusare aura khuda ke moksha upaya jo sochate haim – usaka dhyana dharate haim vo upadhyaya. Sthira parichita kie anantagama paryaya chija sahita dvadashamgi aura shrutajnyana jo ekagra mana se chintavana karate haim, smarana karate haim, dhyana karate haim, vo upadhyaya. Isa prakara kaim bheda se usaki vyakhya karate haim. Ati kashtavale ugra ugratara ghora tapa aura charitravale, kaim vrata – niyama upavasa vividha abhigraha vishesha, samyama palana, samata rahita parishaha upasarga sahanevale, sarva duhkha rahita moksha ki sadhana karanevale vo sadhu bhagavamta kahalate haim. Yahi bata chulika mem sochemge. Eso pamcha namokkaro – ina pamcha ko kiya gaya namaskara kya karega\? Jnyanavaraniya adi sarva papakarma vishesha ko hara eka disha mem nashta kare vo sarva papa nashta karanevale. Yaha pada chulika ke bhitara prathama uddesho kahalae ‘eso pamcha namokkaro savvapavappanasano’ yaha uddeshaka isa taraha ka hai. Mamgalanam cha savvesim, padhamam havai mamgalam usamem mamgala shabda mem rahe mamgala shabda ka nirvanasukha artha hota hai. Vaise moksha sukha ko sadhane mem samartha aise samyagdarshanadi svarupavala, ahimsa lakshanavala dharma jo muje lakara de vo mamgala. Aura muje bhava se – samsara se para kare vo mamgala. Ya baddha, sprishta, nikachita aise atha taraha ke mere karma samuha ko jo chhamne, vilaya, nashta kare vo mamgala. Yaha mamgala aura dusare sarva mamgala mem kya visheshata hai\? Prathama adi mem arihamta ki stuti yahi mamgala hai. Yaha samkshepa se artha bataya. Aba vistara se niche mutabika artha jana lo. Usa kala usa vakta he gautama ! Jisake shabda ka artha age bataya gaya hai aisa jo koi dharma tirthamkara arihamta hote haim, vo parama pujya se bhi vishesha taraha se pujya hote haim. Kyomki vo saba yaham bataemge vaise lakshana yukta hote haim. Achintya, aprameya, nirupama jisaki tulana mem dusara koi na a sake, shreshtha aura shreshthatara guna samuha se adhishthita hone ke karana se tina loka ke ati mahana, mana ke ananda ko utpanna karanevale haim. Lambe grishmakala ke tapa se samtapta hue, mayura gana ko jisa taraha prathama varsha ki dhara ka samuha shanti de, usi taraha kaim janmantara mem uparjana karake ikatthe kie maha – punya svarupa tirthamkara namakarma ke udaya se arihamta bhagavamta uttama hitopadesha dena adi ke dvara sajjara raga, dvesha, moha, mithyatva, avirati, pramada, dushta – samklishta aisa parinama adi se bamdhe ashubha ghora papakarma se honevale bhavya jiva ke samtapa ko nirmula karate haim. Sabako janate hone se sarvajnya haim. Kaim janma se uparjana kie mahapunya ke samuha se jagata mem kisi ki tulana mem na ae aise akhuta bala, virya, aishvarya, sattva, parakramayukta dehavale vo hote haim. Unake manohara dedipyamana pamva ke amguthe ke agra hisse ka rupa itana rupatishayavala hota hai ki jisake age surya jaise dasa disha mem prakasha se (sphurayamana) prakata pratapi kiranom ke samuha se sarva graha, nakshatra aura chandra ki shreni ko tejahina batate haim, vaise tirthamkara bhagavamta ke sharira ke teja se sarva vidyadhara, devamgana, devendra, asurendra sahita deva ka saubhagya, kanti, dipti, lavanya aura rupa ki samagra shobha phikhi – nisteja ho jati hai. Svabhavika aise chara, karmakshaya hone se gyaraha aura deva ke kie unnisa aise chaumtisa atishaya aise shreshtha nirupama aura asamanya hote haim. Jisake darshana se bhavanapati, vanavyamtara, jyotishka, vaimanika, ahamindra, indra apsara, kinnara, nara vidyadhara, sura aura asura sahita jagata ke jiva ko ashcharya hota hai. Are ! Hama aja taka kisi bhi dina na dekha hua aja dekha. Eka satha ikatthe hue. Atula mahana achimtya guna parama ashcharya ka samuha eka hi vyakti mem aja hamane dekha. Aise shubha parinama se usa vakta ati gahara satata utpanna honevale pramodavale hue. Harsha aura anuraga se sphurayamana honevale naye parinama se apasa mem harsha ke vachana bolane lage aura vihara kara ke bhagavamta age chale taba apane atma ki nimda karane lage. Apasa mem kahane lage ki vakai hama napharata ke layaka haim, adhanya haim, punyahina haim, bhagavamta vihara karake chale gae phira samkshobha pae hue hridayavale murchhita hue, maha musibata se hosha aya. Unake gatra khimchane se ati shithila ho gae. Sharira sikurana, hatha – pamva phailana, prasannata batani, amkha mem palakara hona, sharira ki kriyaem – bandha ho gai, na samajha sake vaise skhalanavale mamda shabda bolane lage, mamda lambe humkara ke satha lambe garma nisamse chhorane lage. Ati buddhishali purusha hi unake mana ka yathartha nirnaya kara sake Jagata ke jiva sochane lage ki kisa taraha ke tapa ke sevana se aisi shreshtha riddhi pa sakemge\? Unaki riddhi – samriddhi ki socha se aura darshana se ashcharya panevale apane vakshahsthala para hastatala sthapana karake mana ko chamatkara denevale bara ashcharya utpanna karate the. Isalie he gautama ! Aise ananta guna samuha se yukta shariravale achchhi taraha se sammanapurvaka grahana kie gae namavale dharmatirtha ko pravartanevale arihamta bhagavamta ke guna – samuha samana ratnanidhana ka bayana indra maharaja, anya kisi chara jnyanavale ya maha atishayavale chhadmastha jiva bhi rata dina hara eka pala hajarom jabana se karorom sala taka kare to bhi svayambhuramana samudra samana arihamta ke guna ko bayana nahim kara sakate Kyomki he gautama ! Dharmatirtha pravartanevale arihamta bhagavamta aparimita gunaratnavale hote haim. Isalie yaham unake lie kya batae\? Jaham tina loka ke natha jagata ke guru, tina bhuvana ke eka bandhu, tina loka ke vaise – vaise uttama guna ke adhara samana shreshtha dharma tirthamkara ke varana ka eka amguthe ke agra hisseka kevala eka hissa kaim guna ke samuha se shobhayamana hai. Usamem ananta hisse ka rupa indradi varnana karane ke lie samartha nahim hai. Ye bata vishesha batate hue kahate haim – Deva aura indra ya vaise kisi bhakti mem lina hue sarva purusha kaim janmantara mem uparjana kie gae anishta dushta karmarashi janita durgati udvega adi duhkha daridrya, klesha, janma, jara, marana, roga, samtapa, khinnata, vyadhi, vedana adi ke kshaya ke lie unake amguthe ke guna ka varnana karane lage to surya ke kiranom ke samuha ki taraha bhagavana ke jo kaim guna ka samuha eka satha unake jihva ke agra hisse para sphurayamana hota hai, use indra sahita devagana eka satha bolane lage to bhi jisaka varnana karaneke lie shaktimana nahim hai, to phira charmachakshuvale akevali kya bolemge? Isalie he gautama ! Isa vishaya mem yaham yaha paramartha samaje ki tirthamkara bhagavamta ke guna sagara ko akele kevalajnyani tirthamkara hi kahane ke lie shaktivara haim. Dusare kisi kahane ke lie samartha nahim ho sakate. Kyomki unaki boli satishaya hoti hai. Isalie vo kahane ke lie samartha hai. Ya he gautama ! Isa vishaya mem jyada kahane se kya\? Sarabhuta artha batata hum vo isa prakara hai – |