Sutra Navigation: Mahanishith ( महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र )

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Sr No : 1017192
Scripture Name( English ): Mahanishith Translated Scripture Name : महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र
Mool Language : Ardha-Magadhi Translated Language : Hindi
Chapter :

अध्ययन-३ कुशील लक्षण

Translated Chapter :

अध्ययन-३ कुशील लक्षण

Section : Translated Section :
Sutra Number : 492 Category : Chheda-06
Gatha or Sutra : Sutra Sutra Anuyog :
Author : Deepratnasagar Original Author : Gandhar
 
Century : Sect : Svetambara1
Source :
 
Mool Sutra : [सूत्र] (१) से भयवं जइ एवं ता किं पंच-मंगलस्स णं उवहाणं कायव्वं (२) गोयमा पढमं नाणं तओ दया, दयाए य सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं अत्तसम-दरिसित्तं (३) सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं-अत्तसम-दंसणाओ य तेसिं चेव संघट्टण-परियावण-किलावणोद्दावणाइ-दुक्खु-पायण-भय-विवज्जणं, (४) तओ अणासवो, अणासवाओ य संवुडासवदारत्तं, संवुडासव-दारत्तेणं च दमो पसमो (५) तओ य सम-सत्तु-मित्त-पक्खया, सम-सत्तु-मित्त-पक्खयाए य अराग-दोसत्तं, तओ य अकोहया अमाणया अमायया अलोभया, अकोह-माण-माया-लोभयाए य अकसायत्तं (६) तओ य सम्मत्तं, समत्ताओ य जीवाइ-पयत्थ-परिन्नाणं, तओ य सव्वत्थ-अपडिबद्धत्तं, सव्वत्थापडिबद्धत्तेण य अन्नाण-मोह-मिच्छत्तक्खयं (७) तओ विवेगो, विवागाओ य हेय-उवाएय-वत्थु-वियालेणे-गंत-बद्ध-लक्खत्तं, तओ य अहिय-परिच्चाओ हियायरणे य अच्चंतमब्भुज्जमो; (८) तओ य परमपवि-त्तुत्तम-खंतादिदसविह-अहिंसा-लक्खण-धम्माणुट्ठाणेक्क-करण-कारवणासत्त-चित्तया, (९) तओ य खंतादिदसविहअहिंसा लक्खण-धम्माणुट्ठाणिक्क-करण-कारावणा-सत्त-चित्तयाए य। सव्वुत्तमां खंती, सव्वुत्तमं मिउत्तं, सव्वुत्तमं अज्जव-भावत्तं, सव्वुत्तमं सबज्झब्भं-तरं, सव्व-संग-परिच्चागं, सव्वुत्तमं सबज्झब्भंतर-दुवालसविह-अच्चंत-घोर-वीरुग्ग-कट्ठ-तव-चरणानु-ट्ठाणाभिरमणं, सव्वुत्तमं सत्तर-सविह-कसिणसंजमाणुट्ठाणपरिपालणेक्क-बद्ध-लक्खत्तं सव्वुत्तमं सच्चगिरणं छक्काय-हियं अनिगूहिय-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कम-परितोलणं च। सव्वुत्तम-सज्झायझाण-सलिलेणं पावकम्म-मल-लेव-पक्खालणं ति। सव्वुत्तमुत्तमं आकिंचणं सव्वुत्तमुत्तमं परम-पवित्तुत्तम-सव्व-भाव-भावंतरेहि णं सुविसुद्ध-सव्वदोस विप्पमुक्क-णवगुत्ती-सणाह-अट्ठारस-परिहारट्ठाण-परिवेढिय-सुद्धुद्धर-घोर-बंभ वय-धारणं ति। (१०) तओ एएसिं चेव सव्वुत्तम-खंती-मद्दव-अज्जव-मुत्ती-तव-संजम-सच्च-सोय-आकिं-चन-सुदुद्धर-बंभवय-धारण समुट्ठाणेणं च सव्व-समारंभ-विवज्जणं। (११) तओ य–पुढवि दगागनि-वाऊ-वणप्फई-बि-ति-चउ-पंचिंदियाणं तहेव, अजीव-काय संरंभं-समारंभारंभाणं च मनो-वइ-काय-तिएणं तिविहं तिविहेणं सोइंदियादि-संवरण-आहारादि-सण्णा विप्पजढत्ताए वोसिरणं; (१२) तओ य अट्ठारस-सीलंग-सहस्स-धारित्तं, अमलिय-अट्ठारस-सीलंग-सहस्स-धारणेणं च अखलिय-अखंडिय-अमलिय अविरा-हिय-सुट्ठुग्गुग्गयर-विचित्ताभिग्गह-निव्वाहणं; । (१३) तओ य सुर-मनुय-तिरिच्छोईरिय-घोर परिसहोवसग्गाहियासणं समकरणेणं, तओ य अहोरायाइ-पडिमासुं महा-पयत्तं; (१४) तओ निप्पडिकम्म-सरीरया, निप्पडिकम्म-सरीरत्ताए य सुक्कज्झाणे निप्पकंपत्तं, तओ य अनाइ-भव-परंपर-संचिय-असेस-कम्मट्ठ-रासि-खयं अनंत-नाण-दंसण-धारित्तं च, चउगइ-भव-चारगाओ निप्फेडं सव्व-दुक्ख-विमोक्खं मोक्ख-गमनं च; (१५) तत्थ अदिट्ठ-जम्म-जरा-मरणाणिट्ठ-संपओगिट्ठ-वियोय-संतावुव्वेवग-अयसब्भक्खाणं मह-वाहि-वेयणा-रोग-सोग-दारिद्द-दुक्ख-भय-वेमणस्सत्तं, (१६) तओ य एगंतियं अच्चंतियं सिव-मयलमक्खयं धुवं परम-सासयं निरं-तरं सव्वुत्तमं सोक्खं ति, (१७) ता सव्वमेवेयं नाणाओ पवत्तेज्जा। (१) ता गोयमा एगंतिय-अच्चंतिय-परम-सासय-धुव-निरंतर-सव्वुत्तम-सोक्ख-कंखुणा पढम -यरमेव तावायरेणं सामइयमाइयं लोग-बिंदुसार-पज्जवसाणं दुवालसंगं सुयनाणं, (२) कालंबिलादि-जहुत्त-विहिणोवहाणेणं हिंसादीयं च तिविहं तिविहेणं पडिक्कंतेण य, (३) सर-वंजन-मत्ता-बिंदुपयक्खरानूनगं पय-च्छेद-घोस-बद्धयाणुपुव्वि-पुव्वानुपुव्वी अनानु-पुव्वीए सुविसुद्धं अचोरिक्कायएण एगत्तणेणं सुविन्नेयं। (४) तं च गोयमा अनिहणोरपार-सुविच्छिन्न-चरमोयहि मियसुदुरवगाहं सयल-सोक्ख-परम-हेउ-भूयं च (५) तस्स य सयल-सोक्ख-हेउ-भूयाओ न इट्ठ-देवया-नमोक्कारविरहिए केई पारं गच्छेज्जा। (६) इट्ठ-देवयाणं च णमोक्कारं पंचमंगलमेव गोयमा नो न मन्नंति। (७) ता नियमओ पंचमंगलस्सेव पढमं ताव विणओवहाणं कायव्वं ति॥
Sutra Meaning : हे भगवंत ! यदि ऐसा है तो क्या पंच मंगल के उपधान करने चाहिए ? हे गौतम ! प्रथम ज्ञान और उसके बाद दया यानि संयम यानि ज्ञान से चारित्र – दया पालन होता है। दया से सर्व जगत के सारे जीव – प्राणी – भूत – सत्त्व को अपनी तरह देखनेवाला होता है। जगत के सर्व जीव, प्राणी, भूत सत्त्व को अपनी तरह सुख – दुःख होता है, ऐसा देखनेवाला होने से वो दूसरे जीव के संघट्ट करने के लिए परिताप या कीलामणा – उपद्रव आदि दुःख उत्पन्न करना, भयभीत करना, त्रास देना इत्यादिक से दूर रहता है। ऐसा करने से कर्म का आश्रव नहीं होता। कर्म का आश्रव बन्द होने से कर्म आने के कारण समान आश्रव द्वार बन्द होते हैं। आश्रव के द्वार बन्द होने से इन्द्रिय का दमन और आत्मा में उपशम होता है। इसलिए शत्रु और मित्र के प्रति समान भाव सहितपन होता है। शत्रु मित्र के प्रति समान भाव सहितपन से रागद्वेष रहितपन उससे क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता होने से कषाय रहितपन प्राप्त होता है। कषाय रहितपन होने से सम्यक्‌त्व उत्पन्न होता है। सम्यक्‌त्व होने से जीवादिक चीज का ज्ञान होता है। वो होने से सर्व ममता – रहितपन होता है। सभी चीजों में ममता न रहने से अज्ञान मोह और मिथ्यात्व का क्षय होता है। यानि विवेक आता है। विवेक होने से हेय और उपादेय चीज की यथार्थ सोच और एकान्त मोक्ष पाने के लिए दृढ़ निश्चय होता है इससे अहित का परित्याग और हित का आचरण हो वैसे कार्य में अति उद्यम करनेवाला बने। उसके बाद उत्तरोत्तर परमार्थ स्वरूप पवित्र उत्तम क्षमा आदि दश तरह के, अहिंसा लक्षणवाले धर्म का अनुष्ठान करने और करवाने में एकाग्र और आसक्त चित्रवाला होता है। उसके बाद यानि कि क्षमा आदि दश तरह के और अहिंसा लक्षण युक्त धर्म का अनुष्ठान का सेवन करना और करवाना उसमें एकाग्रता और आसक्त चित्तवाले आत्मा को सर्वोत्तम क्षमा, सर्वोत्तम मृदुता, सर्वोत्तम सरलता, सर्वोत्तम बाह्य धन, सुवर्ण आदि परिग्रह और काम क्रोधादिक अभ्यंतर परिग्रह स्वरूप सर्व संग का परित्याग होता है। और सर्वोत्तम बाह्य अभ्यन्तर ऐसे बारह तरह के अति घोर वीर उग्र कष्टवाले तप और चरण के अनुष्ठान में आत्मरमणता और परमानन्द प्रकट होता है। आगे सर्वोत्तम सत्तरह प्रकार के समग्र संयम अनुष्ठान परिपालन करने के लिए बद्धलक्षपन प्राप्त होता है। सर्वोत्तम सत्य भाषा बोलना, छ काय जीव का हीत, अपना बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम छिपाए बिना मोक्ष मार्ग की साधना करने में कटिबद्ध हुए सर्वोत्तम स्वाध्याय ध्यान समान जल द्वारा पापकर्म समान मल के लेप को प्रक्षाल करनेवाला – धोनेवाला होता है। और फिर सर्वोत्तम अकिंचनता, सर्वोत्तम परमपवित्रता सहित, सर्व भावयुक्त सुविशुद्ध सर्व दोष रहित, नव गुप्ति सहित, १८ परिहार स्थानक से विरमित यानि १८ तरह के अब्रह्म का त्याग करनेवाला होता है। उसके बाद यह सर्वोत्तम क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शोच, आकिंचन्य, अतिदुर्धर, ब्रह्मवत्‌ धारण करना इत्यादिक शुभ अनुष्ठान से सर्व समारम्भ का त्याग करनेवाला होता है। फिर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप स्थावर जीव दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले जीव का और अजीव काय का सरंभ, समारम्भ, आरम्भ को मन, वचन, काया के त्रिक से त्रिविध त्रिविध से श्रोत्रादि इन्द्रिय के विषय के संवरपूर्वक आहारादि चार संज्ञा का त्याग करके पाप को वोसिराता है। फिर निर्मल अठ्ठारह हजार शीलांग धारण करनेवाला होने से अस्खलित, अखंड़ित, अमलिन, अविराधित, सुन्दर, उग्र, उग्रतर, विचित्र, आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला अभिग्रह का निर्वाह करनेवाला होता है। फिर देवता, मनुष्य, तिर्यंच के किए हुए घोर परिषह उपसर्ग को समता रखकर सहनेवाले होते हैं। उसके बाद अहोरात्र आदि प्रतिमा के लिए महा कोशीश करनेवाला होता है। फिर शरीर की – टापटीप रहित ममतारहित होता है। शरीर निष्प्रतिक्रमण – वाला होने से शुक्ल ध्यान में अड़ोलपन पाता है। फिर अनादि भव परम्परा से इकट्ठे किए समग्र आठ तरह के कर्म राशि का क्षय करनेवाला होता है। चार गति रूप भव के कैदखाने में से बाहर नीकलकर सर्व दुःख से विमुक्त होकर मोक्ष में गमन करनेवाला होता है। मोक्ष के भीतर सदा के लिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, अनिष्ट का मिलन, इष्ट का वियोग, संताप, उद्वेग, अपयश, झूठा आरोप लगाना, बड़ी व्याधि की वेदना, रोग, शोक, दारिद्र, दुःख, भय, वैमनस्य आदि दुःख नहीं होते, फिर वहाँ एकान्तिक आत्यन्तिक निरुपद्रवतावाला, मिला हुआ वापस न चला जाए ऐसा, अक्षय, ध्रुव, शाश्वत हंमेशा रहनेवाला सर्वोत्तम सुख मोक्ष में होता है। यह सर्व सुख का मूल कारण ज्ञान है। ज्ञान से ही यह प्रवृत्ति शुरु होती है इसलिए हे गौतम ! एकान्तिक आत्यन्तिक, परम शाश्वत, ध्रुव, निरन्तर, सर्वोत्तम सुख की ईच्छा वाले को सबसे पहले आदर सहित सामायिक सूत्र से लेकर लोकबिन्दुसार तक बारह अंग स्वरूप श्रुतज्ञान कालग्रहण विधि सहित आयंबिल आदि तप और शास्त्र में बताई विधिवाले उपधान वहन करने पूर्वक, हिंसादिक पाँच को त्रिविध त्रिविध से त्याग करके उसके पाप का प्रतिक्रमण करके सूत्र के स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु पद, अक्षर, कम ज्यादा न बोल सके वैसे पदच्छेद दोष, गाथाबद्ध, क्रमसर, पूर्वानुपूर्वी, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी सहित सुविशुद्ध गुरु के मुख से विधिवत्‌ विनय सहित ग्रहण किया हो ऐसा ज्ञान एकांते सुंदर समझना। हे गौतम ! आदि और बिना अन्त के किनारा रहित अति विशाल ऐसे स्वयंभूरमण समुद्र की तरह जिसमें दुःख से करके अवगाहन कर सकते हैं। समग्र सुख की परम कारण समान ही तो वो श्रुतज्ञान है। ऐसे ज्ञान सागर को पार करने के लिए इष्ट देवता को नमस्कार करना चाहिए। इष्ट देवता को नमस्कार किए बिना कोई उसको पार नहीं कर सकते इसलिए हे गौतम ! यदि कोई इष्ट देव हो तो नवकार। यानि कि पंचमंगल ही है। उसके अलावा दूसरे किसी इष्टदेव मंगल समान नहीं है। इसलिए प्रथम पंच मंगल का ही विनय उपधान करना जरुरी है।
Mool Sutra Transliteration : [sutra] (1) se bhayavam jai evam ta kim pamcha-mamgalassa nam uvahanam kayavvam (2) goyama padhamam nanam tao daya, dayae ya savva-jaga-jiva-pana-bhuya-sattanam attasama-darisittam (3) savva-jaga-jiva-pana-bhuya-sattanam-attasama-damsanao ya tesim cheva samghattana-pariyavana-kilavanoddavanai-dukkhu-payana-bhaya-vivajjanam, (4) tao anasavo, anasavao ya samvudasavadarattam, samvudasava-darattenam cha damo pasamo (5) tao ya sama-sattu-mitta-pakkhaya, sama-sattu-mitta-pakkhayae ya araga-dosattam, tao ya akohaya amanaya amayaya alobhaya, akoha-mana-maya-lobhayae ya akasayattam (6) tao ya sammattam, samattao ya jivai-payattha-parinnanam, tao ya savvattha-apadibaddhattam, savvatthapadibaddhattena ya annana-moha-michchhattakkhayam (7) tao vivego, vivagao ya heya-uvaeya-vatthu-viyalene-gamta-baddha-lakkhattam, tao ya ahiya-parichchao hiyayarane ya achchamtamabbhujjamo; (8) tao ya paramapavi-ttuttama-khamtadidasaviha-ahimsa-lakkhana-dhammanutthanekka-karana-karavanasatta-chittaya, (9) tao ya khamtadidasavihaahimsa lakkhana-dhammanutthanikka-karana-karavana-satta-chittayae ya. Savvuttamam khamti, savvuttamam miuttam, savvuttamam ajjava-bhavattam, savvuttamam sabajjhabbham-taram, savva-samga-parichchagam, savvuttamam sabajjhabbhamtara-duvalasaviha-achchamta-ghora-virugga-kattha-tava-charananu-tthanabhiramanam, savvuttamam sattara-saviha-kasinasamjamanutthanaparipalanekka-baddha-lakkhattam savvuttamam sachchagiranam chhakkaya-hiyam aniguhiya-bala-viriya-purisakkara-parakkama-paritolanam cha. Savvuttama-sajjhayajhana-salilenam pavakamma-mala-leva-pakkhalanam ti. Savvuttamuttamam akimchanam savvuttamuttamam parama-pavittuttama-savva-bhava-bhavamtarehi nam suvisuddha-savvadosa vippamukka-navagutti-sanaha-attharasa-pariharatthana-parivedhiya-suddhuddhara-ghora-bambha vaya-dharanam ti. (10) tao eesim cheva savvuttama-khamti-maddava-ajjava-mutti-tava-samjama-sachcha-soya-akim-chana-sududdhara-bambhavaya-dharana samutthanenam cha savva-samarambha-vivajjanam. (11) tao ya–pudhavi dagagani-vau-vanapphai-bi-ti-chau-pamchimdiyanam taheva, ajiva-kaya samrambham-samarambharambhanam cha mano-vai-kaya-tienam tiviham tivihenam soimdiyadi-samvarana-aharadi-sanna vippajadhattae vosiranam; (12) tao ya attharasa-silamga-sahassa-dharittam, amaliya-attharasa-silamga-sahassa-dharanenam cha akhaliya-akhamdiya-amaliya avira-hiya-sutthugguggayara-vichittabhiggaha-nivvahanam;. (13) tao ya sura-manuya-tirichchhoiriya-ghora parisahovasaggahiyasanam samakaranenam, tao ya ahorayai-padimasum maha-payattam; (14) tao nippadikamma-sariraya, nippadikamma-sarirattae ya sukkajjhane nippakampattam, tao ya anai-bhava-parampara-samchiya-asesa-kammattha-rasi-khayam anamta-nana-damsana-dharittam cha, chaugai-bhava-charagao nipphedam savva-dukkha-vimokkham mokkha-gamanam cha; (15) tattha adittha-jamma-jara-marananittha-sampaogittha-viyoya-samtavuvvevaga-ayasabbhakkhanam maha-vahi-veyana-roga-soga-daridda-dukkha-bhaya-vemanassattam, (16) tao ya egamtiyam achchamtiyam siva-mayalamakkhayam dhuvam parama-sasayam niram-taram savvuttamam sokkham ti, (17) ta savvameveyam nanao pavattejja. (1) ta goyama egamtiya-achchamtiya-parama-sasaya-dhuva-niramtara-savvuttama-sokkha-kamkhuna padhama -yarameva tavayarenam samaiyamaiyam loga-bimdusara-pajjavasanam duvalasamgam suyananam, (2) kalambiladi-jahutta-vihinovahanenam himsadiyam cha tiviham tivihenam padikkamtena ya, (3) sara-vamjana-matta-bimdupayakkharanunagam paya-chchheda-ghosa-baddhayanupuvvi-puvvanupuvvi ananu-puvvie suvisuddham achorikkayaena egattanenam suvinneyam. (4) tam cha goyama anihanorapara-suvichchhinna-charamoyahi miyasuduravagaham sayala-sokkha-parama-heu-bhuyam cha (5) tassa ya sayala-sokkha-heu-bhuyao na ittha-devaya-namokkaravirahie kei param gachchhejja. (6) ittha-devayanam cha namokkaram pamchamamgalameva goyama no na mannamti. (7) ta niyamao pamchamamgalasseva padhamam tava vinaovahanam kayavvam ti.
Sutra Meaning Transliteration : He bhagavamta ! Yadi aisa hai to kya pamcha mamgala ke upadhana karane chahie\? He gautama ! Prathama jnyana aura usake bada daya yani samyama yani jnyana se charitra – daya palana hota hai. Daya se sarva jagata ke sare jiva – prani – bhuta – sattva ko apani taraha dekhanevala hota hai. Jagata ke sarva jiva, prani, bhuta sattva ko apani taraha sukha – duhkha hota hai, aisa dekhanevala hone se vo dusare jiva ke samghatta karane ke lie paritapa ya kilamana – upadrava adi duhkha utpanna karana, bhayabhita karana, trasa dena ityadika se dura rahata hai. Aisa karane se karma ka ashrava nahim hota. Karma ka ashrava banda hone se karma ane ke karana samana ashrava dvara banda hote haim. Ashrava ke dvara banda hone se indriya ka damana aura atma mem upashama hota hai. Isalie shatru aura mitra ke prati samana bhava sahitapana hota hai. Shatru mitra ke prati samana bhava sahitapana se ragadvesha rahitapana usase kshama, namrata, saralata, nirlobhata hone se kashaya rahitapana prapta hota hai. Kashaya rahitapana hone se samyaktva utpanna hota hai. Samyaktva hone se jivadika chija ka jnyana hota hai. Vo hone se sarva mamata – rahitapana hota hai. Sabhi chijom mem mamata na rahane se ajnyana moha aura mithyatva ka kshaya hota hai. Yani viveka ata hai. Viveka hone se heya aura upadeya chija ki yathartha socha aura ekanta moksha pane ke lie drirha nishchaya hota hai Isase ahita ka parityaga aura hita ka acharana ho vaise karya mem ati udyama karanevala bane. Usake bada uttarottara paramartha svarupa pavitra uttama kshama adi dasha taraha ke, ahimsa lakshanavale dharma ka anushthana karane aura karavane mem ekagra aura asakta chitravala hota hai. Usake bada yani ki kshama adi dasha taraha ke aura ahimsa lakshana yukta dharma ka anushthana ka sevana karana aura karavana usamem ekagrata aura asakta chittavale atma ko sarvottama kshama, sarvottama mriduta, sarvottama saralata, sarvottama bahya dhana, suvarna adi parigraha aura kama krodhadika abhyamtara parigraha svarupa sarva samga ka parityaga hota hai. Aura sarvottama bahya abhyantara aise baraha taraha ke ati ghora vira ugra kashtavale tapa aura charana ke anushthana mem atmaramanata aura paramananda prakata hota hai. Age sarvottama sattaraha prakara ke samagra samyama anushthana paripalana karane ke lie baddhalakshapana prapta hota hai. Sarvottama satya bhasha bolana, chha kaya jiva ka hita, apana bala, virya, purushartha, parakrama chhipae bina moksha marga ki sadhana karane mem katibaddha hue sarvottama svadhyaya dhyana samana jala dvara papakarma samana mala ke lepa ko prakshala karanevala – dhonevala hota hai. Aura phira sarvottama akimchanata, sarvottama paramapavitrata sahita, sarva bhavayukta suvishuddha sarva dosha rahita, nava gupti sahita, 18 parihara sthanaka se viramita yani 18 taraha ke abrahma ka tyaga karanevala hota hai. Usake bada yaha sarvottama kshama, namrata, saralata, nirlobhata, tapa, samyama, satya, shocha, akimchanya, atidurdhara, brahmavat dharana karana ityadika shubha anushthana se sarva samarambha ka tyaga karanevala hota hai. Phira prithvi, pani, agni, vayu, vanaspati rupa sthavara jiva do, tina, chara, pamcha indriyavale jiva ka aura ajiva kaya ka sarambha, samarambha, arambha ko mana, vachana, kaya ke trika se trividha trividha se shrotradi indriya ke vishaya ke samvarapurvaka aharadi chara samjnya ka tyaga karake papa ko vosirata hai. Phira nirmala aththaraha hajara shilamga dharana karanevala hone se askhalita, akhamrita, amalina, aviradhita, sundara, ugra, ugratara, vichitra, ashcharya utpanna karanevala abhigraha ka nirvaha karanevala hota hai. Phira devata, manushya, tiryamcha ke kie hue ghora parishaha upasarga ko samata rakhakara sahanevale hote haim. Usake bada ahoratra adi pratima ke lie maha koshisha karanevala hota hai. Phira sharira ki – tapatipa rahita mamatarahita hota hai. Sharira nishpratikramana – vala hone se shukla dhyana mem arolapana pata hai. Phira anadi bhava parampara se ikatthe kie samagra atha taraha ke karma rashi ka kshaya karanevala hota hai. Chara gati rupa bhava ke kaidakhane mem se bahara nikalakara sarva duhkha se vimukta hokara moksha mem gamana karanevala hota hai. Moksha ke bhitara sada ke lie janma, burhapa, marana, anishta ka milana, ishta ka viyoga, samtapa, udvega, apayasha, jhutha aropa lagana, bari vyadhi ki vedana, roga, shoka, daridra, duhkha, bhaya, vaimanasya adi duhkha nahim hote, phira vaham ekantika atyantika nirupadravatavala, mila hua vapasa na chala jae aisa, akshaya, dhruva, shashvata hammesha rahanevala sarvottama sukha moksha mem hota hai. Yaha sarva sukha ka mula karana jnyana hai. Jnyana se hi yaha pravritti shuru hoti hai isalie he gautama ! Ekantika atyantika, parama shashvata, dhruva, nirantara, sarvottama sukha ki ichchha vale ko sabase pahale adara sahita samayika sutra se lekara lokabindusara taka baraha amga svarupa shrutajnyana kalagrahana vidhi sahita ayambila adi tapa aura shastra mem batai vidhivale upadhana vahana karane purvaka, himsadika pamcha ko trividha trividha se tyaga karake usake papa ka pratikramana karake sutra ke svara, vyamjana, matra, bindu pada, akshara, kama jyada na bola sake vaise padachchheda dosha, gathabaddha, kramasara, purvanupurvi, anupurvi, ananupurvi sahita suvishuddha guru ke mukha se vidhivat vinaya sahita grahana kiya ho aisa jnyana ekamte sumdara samajhana. He gautama ! Adi aura bina anta ke kinara rahita ati vishala aise svayambhuramana samudra ki taraha jisamem duhkha se karake avagahana kara sakate haim. Samagra sukha ki parama karana samana hi to vo shrutajnyana hai. 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