Sutra Navigation: Bhagavati ( भगवती सूत्र )
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Mool File Details |
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Anuvad File Details |
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Sr No : | 1004227 | ||
Scripture Name( English ): | Bhagavati | Translated Scripture Name : | भगवती सूत्र |
Mool Language : | Ardha-Magadhi | Translated Language : | Hindi |
Chapter : |
शतक-१८ |
Translated Chapter : |
शतक-१८ |
Section : | उद्देशक-२ विशाखा | Translated Section : | उद्देशक-२ विशाखा |
Sutra Number : | 727 | Category : | Ang-05 |
Gatha or Sutra : | Sutra | Sutra Anuyog : | |
Author : | Deepratnasagar | Original Author : | Gandhar |
Century : | Sect : | Svetambara1 | |
Source : | |||
Mool Sutra : | [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा नामं नगरी होत्था–वण्णओ। बहुपुत्तिए चेइए–वण्णओ। सामी समोसढे जाव पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे–एवं जहा सोलसमसए बितियउद्देसए तहेव दिव्वेणं जाणविमानेणं आगओ, नवरं–एत्थं आभियोगा वि अत्थि जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगए। भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–जहा तइयसए ईसानस्स तहेव कूडागारदिट्ठंतो, तहेव पुव्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागए? गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाणे–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणाउरे नगरे कत्तिए नामं सेट्ठी परिवसति अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए, नेगमपढमासणिए, नेगमट्ठसहस्सस्स बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कोडुंबेसु य मंतेसु य रहस्सेसु य गुज्झेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढिभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए, नेगमट्ठसहस्सस्स सयस्स य कुडुंबस्स आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं आणा ईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे, समणोवासए, अहिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा आदिगरे जहा सोलसमसए तहेव जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ। तए णं से कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे एवं जहा एक्कारसमसए सुदंसणे तहेव निग्गओ जाव पज्जुवासति। तए णं मुनिसुव्वए अरहा कत्तियस्स सेट्ठिस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ जाव परिसा पडिगया। तए णं से कत्तिए सेट्ठी मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठेत्ता मुणिसु-व्वयं अरहं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–एवमेयं भंते! जाव–से जहेयं तुब्भे वदह जं, नवरं–देवानुप्पिया! नेगमट्ठसहस्सं आपुच्छामि, जेट्ठपुत्तं च कुडुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवानुप्पियाणं अंतियं पव्वयामि। अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं। तए णं से कत्तिए सेट्ठी जाव पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गेहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नेगमट्ठसहस्सं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! मए मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तए णं अहं देवानुप्पिया! संसारभयुव्विग्गे जाव पव्वयामि, तं तुब्भे णं देवानुप्पिया! किं करेह, किं ववसह, किं भे हियइच्छिए, किं भे सामत्थे? तए णं तं नेगमट्ठसहस्सं पि कत्तियं सेट्ठिं एवं वयासी–जइ णं तुब्भे देवानुप्पिया! संसारभयुव्विग्गा जाव पव्वयह, अम्हं देवानुप्पिया! के अन्ने आलंबे वा, आहारे वा, पडिबंधे वा? अम्हे वि णं देवानुप्पिया! संसारभयुव्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं देवानुप्पिएहिं सद्धिं मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वयामो। तए णं से कत्तिए सेट्ठी तं नेगमट्ठसहस्सं एवं वयासी–जदि णं देवानुप्पिया! संसारभयुव्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं मए सद्धिं मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वयह, तं गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! सएसु गिहेसु, विपुलं असनं पानं खाइमं साइमं उवक्खडावेह, मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं आमंतेह, तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं विउलेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालं-कारेण य सक्कारेह सम्माणेह, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स पुरओ जेट्ठपुत्ते कुडुंबे ठावेह, ठावेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं जेट्ठपुत्ते आपुच्छह, आपुच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ द्रुहह, द्रुहित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेण जेट्ठपुत्तेहिं य समणुगम्ममणमाग्गा सव्विड्ढीए जाव दुंदुहि-निग्घोसनादियरवेणं अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पाउब्भवह। तए णं तं नेगमट्ठसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एयमट्ठं विनएणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव साइं-साइं गिहाइं तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता विपुलं असनं पानं खाइमं साइमं उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं विउलेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेइ सम्माणेइ, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ जेट्ठपुत्ते कुडुंबे ठावेति, ठावेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं जेट्ठपुत्ते य आपुच्छइ, आपुच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ द्रुहति, द्रुहित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि परिजणेणं जेट्ठपुत्तेहिं य समणुगम्ममाणमग्गा सव्विड्ढीए जाव दुंदुहि-निग्घोस-नादियरवेणं अकालपरिहीणं चेव कत्तियस्स सेट्ठिस्स अंतियं पाउब्भवति। तए णं से कत्तिए सेट्ठी विपुलं असनं पानं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ति जहा गंगदत्तो जाव सीयं द्रुहति, द्रुहित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं जेट्ठपुत्तेणं नेगमट्ठसहस्सेण य समणुगम्ममाणमग्गे सव्विड्ढीए जाव दुंदुहिनिग्घोसनादिय-रवेणं हत्थिणापुरं नगरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, जहा गंगदत्तो जाव आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, आलित्त-पलित्ते णं भंते! लोए जाव आनुगामियत्ताए भविस्सति, तं इच्छामि णं भंते! नेगमट्ठसहस्सेण सद्धिं सयमेव पव्वावियं जाव धम्म-माइक्खियं। तए णं मुनिसुव्वए अरहा कत्तियं सेट्ठिं नेगमट्ठसहस्सेणं सद्धिं सयमेव पव्वावेति जाव धम्ममाइक्खइ–एवं देवानुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं जाव संजमियव्वं। तए णं से कत्तिए सेट्ठी नेगमट्ठसहस्सेण सद्धिं मुनिसुव्वयस्स अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं पडिवज्जइ तमाणाए तहा गच्छति जाव संजमेति। तए णं से कत्तिए सेट्ठि नेगमट्ठसहस्सेणं सद्धिं अनगारे जाए–ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। तए णं से कत्तिए अनगारे मुनिसुव्वयस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाइं चोद्दस पुव्वाइं अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहिं चउत्थ छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं, मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं दुवालस वासाइं सामण्णपरियायं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झोसेइ, ज्झोसेत्ता सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेति, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाने उववाय-सभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्के देविंदत्ताए उववन्ने। तए णं से सक्के देविंदे देवराया अहुणोववण्णमेत्तए सेसं जहा गंगदत्तस्स जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति, नवरं–ठिती दो सागरोवमाइं, सेसं तं चेव। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। | ||
Sutra Meaning : | उस काल एवं उस समय में विशाखा नामकी नगरी थी। वहाँ बहुपुत्रिक नामक चैत्य था। (वर्णन) एक बार वहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में देवेन्द्र देवराज शक्र, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के द्वीतिय उद्देशक में शक्रेन्द्र का जैसा वर्णन है, उस प्रकार से यावत् वह दिव्य यानविमान में बैठकर वहाँ आया। विशेष बात यह भी, यहाँ आभियोगिक देव भी साथ थे; यावत् शक्रेन्द्र ने बत्तीस प्रकार की नाट्य – विधि प्रदर्शित की। तत्पश्चात् वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। भगवान् गौतम ने, श्रमण भगवान महावीर से पूछा – जिस प्रकार तृतीय शतक में ईशानेन्द्र के वर्णन में कूटागारशाला के दृष्टान्त के विषय में तथा पूर्वभव के सम्बन्ध में प्रश्न किया है, उसी प्रकार यहाँ भी; यावत् ‘यह ऋद्धि कैसे सम्प्राप्त हुई’, – तक (प्रश्न करना चाहिए)। श्रमण भगवान महावीर ने कहा – हे गौतम ! ऐसा है कि उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। (वर्णन) उस हस्तिनापुर नगर में कार्तिक नामका एक श्रेष्ठी रहता था। जो धनाढ्य यावत् किसी से पराभव न पाने वाला था। उसे वणिकों में अग्रस्थान प्राप्त था। वह उन एक हजार आठ व्यापारियों के बहुत से कार्यों में, कारणों में और कौटुम्बिक व्यवहारों में पूछने योग्य था, जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत् चक्षुभूत था, यहाँ तक जानना चाहिए। वह कार्तिक श्रेष्ठी, एक हजार आठ व्यापारियों का आधिपत्य करता हुआ, यावत् पालन करता हुआ रहता था। वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता – यावत् श्रमणोपासक था। उस काल उस समय धर्म की आदि करने वाले अर्हत् श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर वहाँ पधारे; यावत् समवसरण लगा। यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उसके पश्चात् वह कार्तिक श्रेष्ठी भगवान के पदार्पण का वृत्तान्त सूनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ; इत्यादि। जिस प्रकार ग्यारहवें शतक में सुदर्शन – श्रेष्ठी का वन्दनार्थ निर्गमन का वर्णन है, उसी प्रकार वह भी वन्दन के लिए नीकला, यावत् पर्युपासना करने लगा। तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रत अर्हन्त ने कार्तिक सेठ को धर्मकथा कही; यावत् परीषद् लौट गई। कार्तिक सेठ, भगवान मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सूनकर यावत् अवधारण करके अत्यन्त हृष्ट – तुष्ट हुआ, फिर उसने खड़े होकर यावत् सविनय इस प्रकार कहा – ‘भगवन् ! जैसा आपने कहा वैसा ही यावत् है। हे देवानुप्रिय प्रभो ! विशेष यह कहना है, मैं एक हजार आठ व्यापारी मित्रों से पूछूँगा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौपूँगा और तब में आप देवानुप्रिय के पास प्रव्रजित होऊंगा। (भगवान – ) देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो। तदनन्तर वह कार्तिक श्रेष्ठी यावत् नीकला और वहाँ से हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था वहाँ आया। फिर उसने उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों को बुलाकर इस प्रकार कहा – ‘हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि मैंने अर्हन्त भगवान मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सूना है। वह धर्म मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा। हे देवानुप्रियो ! उस धर्म को सूनने के पश्चात् मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गया हूँ और यावत् मैं तीर्थंकर के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। तो हे देवानुप्रियो ! तुम सब क्या करोगे ? क्या प्रवृत्ति करने का विचार है ? तुम्हारे हृदय में क्या इष्ट है ? और तुम्हारी क्या करने की क्षमता (शक्ति) है ?’ यह सूनकर उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों ने कार्तिक सेठ से इस प्रकार कहा – यदि आप संसारभय से उद्विग्न होकर गृहत्याग कर यावत् प्रव्रजित होंगे, तो फिर, देवानुप्रिय ! हमारे लिए दूसरा कौन – सा आलम्बन है ? या कौन – सा आधार है ? अथवा कौन – सी प्रतिबद्धता रह जाती है ? अतएव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं, तथा जन्ममरण के चक्र से भयभीत हो चूके हैं। हम भी आप देवानुप्रिय के साथ अगारवास का त्याग कर अर्हन्त मुनिसुव्रत स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार – दीक्षा ग्रहण करेंगे। व्यापारी – मित्रों का अभिमत जानकर कार्तिक श्रेष्ठी ने उन १००८ व्यापारी – मित्रों को इस प्रकार कहा – यावत् अपने – अपने घर जाओ, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दो। तब एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिबिका में बैठकर कालक्षेप किये बिना मेरे पास आओ।’ कार्तिक सेठ का यह कथन उन्होंने विनय – पूर्वक स्वीकार किया और अपने – अपने घर आए। फिर उन्होंने विपुल अशनादि तैयार करवाया और अपने मित्र – ज्ञातिजन आदि को आमन्त्रित किया। यावत् उन मित्र – ज्ञातिजनादि के समक्ष अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा। फिर उन मित्र – ज्ञाति – स्वजन यावत् ज्येष्ठपुत्र से अनुमति प्राप्त की। फिर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिबिका में बैठे। मार्ग में मित्र, ज्ञाति, यावत् ज्येष्ठपुत्र के द्वारा अनुगमन किये जाते हुए यावत् वाद्यों के निनादपूर्वक अविलम्ब कार्तिक सेठ के समीप उपस्थित हुए। तदनन्तर कार्तिक श्रेष्ठी ने गंगदत्त के समान विपुल अशनादि आहार तैयार करवाया, यावत् मित्र ज्ञाति यावत् परिवार, ज्येष्ठपुत्र एवं एक हजार आठ व्यापारीगण के साथ उनके आगे – आगे समग्र ऋद्धिसहित यावत् वाद्य – निनाद – पूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ, गंगदत्त के समान गृहत्याग करके वह भगवान मुनि – सुव्रत स्वामी के पास पहुँचा यावत् इस प्रकार बोला – भगवन् ! यह लोक चारों ओर से जल रहा हे, भन्ते ! यह संसार अतीव प्रज्वलित हो रहा है; यावत् परलोक में अनुगामी होगा। अतः मैं एक हजार आठ वणिकों सहित आप स्वयं के द्वारा प्रव्रजित होना और यावत् आप से धर्म का उपदेश – निर्देश प्राप्त करना चाहता हूँ। इस पर श्री मुनि – सुव्रत तीर्थंकर ने एक हजार आठ वणिक् – मित्रों सहित कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रज्या प्रदान की और यावत् धर्म का उपदेश – निर्देश किया कि – देवानुप्रियो ! अब तुम्हें इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार खड़े रहना चाहिए आदि, यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिए। एक हजार आठ व्यापारी मित्रों सहित कार्तिक सेठ ने भगवान मुनिसुव्रत अर्हन्त के इस धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया तथा उनकी आज्ञा के अनुसार सम्यक् रूप से चलने लगा, यावत् संयम का पालन करने लगा। इस प्रकार एक हजार आठ वणिकों के साथ वह कार्तिक सेठ अनगार बना, तथा ईयासमिति आदि समितियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना। इसके पश्चात् उस कार्तिक अनगार ने तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर चौदह पूर्वों तक का अध्ययन किया। साथ ही बहुत से चतुर्थ, छट्ठ, अट्ठम आदि तपश्चरण से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रामण्य – पर्याय का पालन किया। अन्त में, उसने एक मास की संलेखना द्वारा अपने शरीर को झूषित किया, अनशन से साठ भक्त का छेदन किया और आलोचना प्रतिक्रमण आदि करके आत्मशुद्धि की, यावत् काल के समय कालधर्म को प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प देवलोक में, सौधर्मावतंसक विमान में रही हुई उपपात सभा में देव – शय्या में यावत् शक्र देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। इसी से कहा गया था – ‘शक्र देवेन्द्र देवराज अभी – अभी उत्पन्न हुआ है।’ शेष वर्णन गंगदत्त के समान यावत् – ‘वह सभी दुःखों का अन्त करेगा,’ (तक) विशेष यह है कि उसकी स्थिति दो सागरोपम की है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | ||
Mool Sutra Transliteration : | [sutra] tenam kalenam tenam samaenam visaha namam nagari hottha–vannao. Bahuputtie cheie–vannao. Sami samosadhe java pajjuvasai. Tenam kalenam tenam samaenam sakke devimde devaraya vajjapani puramdare–evam jaha solasamasae bitiyauddesae taheva divvenam janavimanenam agao, navaram–ettham abhiyoga vi atthi java battisativiham nattavihim uvadamsetta java padigae. Bhamteti! Bhagavam goyame samanam bhagavam mahaviram vamdai namamsai, vamditta namamsitta evam vayasi–jaha taiyasae isanassa taheva kudagaraditthamto, taheva puvvabhavapuchchha java abhisamannagae? Goyamadi! Samane bhagavam mahavire bhagavam goyamam evam vayasi–evam khalu goyama! Tenam kalenam tenam samaenam iheva jambuddive dive bharahe vase hatthinapure namam nagare hottha–vannao. Sahasambavane ujjane–vannao. Tattha nam hatthinaure nagare kattie namam setthi parivasati addhe java bahujanassa aparibhue, negamapadhamasanie, negamatthasahassassa bahusu kajjesu ya karanesu ya kodumbesu ya mamtesu ya rahassesu ya gujjhesu ya nichchhaesu ya vavaharesu ya apuchchhanijje padipuchchhanijje medhi pamanam ahare alambanam chakkhu, medhibhue pamanabhue aharabhue alambanabhue chakkhubhue, negamatthasahassassa sayassa ya kudumbassa ahevachcham porevachcham samittam bhattittam ana isara-senavachcham karemane palemane, samanovasae, ahigayajivajive java ahapariggahiehim tavokammehim appanam bhavemane viharai. Tenam kalenam tenam samaenam munisuvvae araha adigare jaha solasamasae taheva java samosadhe java parisa pajjuvasai. Tae nam se kattie setthi imise kahae laddhatthe samane hatthatutthe evam jaha ekkarasamasae sudamsane taheva niggao java pajjuvasati. Tae nam munisuvvae araha kattiyassa setthissa tise ya mahatimahaliyae parisae dhammam parikahei java parisa padigaya. Tae nam se kattie setthi munisuvvayassa arahao amtiyam dhammam sochcha nisamma hatthatutthe utthae uttheti, utthetta munisu-vvayam araham vamdai namamsai, vamditta namamsitta evam vayasi–evameyam bhamte! Java–se jaheyam tubbhe vadaha jam, navaram–devanuppiya! Negamatthasahassam apuchchhami, jetthaputtam cha kudumbe thavemi, tae nam aham devanuppiyanam amtiyam pavvayami. Ahasuham devanuppiya! Ma padibamdham. Tae nam se kattie setthi java padinikkhamai, padinikkhamitta jeneva hatthinapure nagare jeneva sae gehe, teneva uvagachchhai, uvagachchhitta negamatthasahassam saddavei, saddavetta evam vayasi–evam khalu devanuppiya! Mae munisuvvayassa arahao amtiyam dhamme nisamte, se vi ya me dhamme ichchhie, padichchhie, abhiruie. Tae nam aham devanuppiya! Samsarabhayuvvigge java pavvayami, tam tubbhe nam devanuppiya! Kim kareha, kim vavasaha, kim bhe hiyaichchhie, kim bhe samatthe? Tae nam tam negamatthasahassam pi kattiyam setthim evam vayasi–jai nam tubbhe devanuppiya! Samsarabhayuvvigga java pavvayaha, amham devanuppiya! Ke anne alambe va, ahare va, padibamdhe va? Amhe vi nam devanuppiya! Samsarabhayuvvigga bhiya jammanamarananam devanuppiehim saddhim munisuvvayassa arahao amtiyam mumda bhavitta agarao anagariya pavvayamo. Tae nam se kattie setthi tam negamatthasahassam evam vayasi–jadi nam devanuppiya! Samsarabhayuvvigga bhiya jammanamarananam mae saddhim munisuvvayassa arahao amtiyam mumda bhavitta agarao anagariyam pavvayaha, tam gachchhaha nam tubbhe devanuppiya! Saesu gihesu, vipulam asanam panam khaimam saimam uvakkhadaveha, mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-pariyanam amamteha, tam mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-pariyanam viulenam asana-pana-khaima-saimenam vattha-gamdha-mallalam-karena ya sakkareha sammaneha, tasseva mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-parijanassa purao jetthaputte kudumbe thaveha, thavetta tam mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-pariyanam jetthaputte apuchchhaha, apuchchhitta purisasahassavahinio siyao druhaha, druhitta mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-parijanena jetthaputtehim ya samanugammamanamagga savviddhie java dumduhi-nigghosanadiyaravenam akalaparihinam cheva mama amtiyam paubbhavaha. Tae nam tam negamatthasahassam pi kattiyassa setthissa eyamattham vinaenam padisuneti, padisunetta jeneva saim-saim gihaim teneva uvagachchhati, uvagachchhitta vipulam asanam panam khaimam saimam uvakkhadaveti, uvakkhadavetta mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-pariyanam viulenam asana-pana-khaima-saimenam vattha-gamdha-mallalamkarena ya sakkarei sammanei, tasseva mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-pariyanassa purao jetthaputte kudumbe thaveti, thavetta tam mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-pariyanam jetthaputte ya apuchchhai, apuchchhitta purisasahassavahinio siyao druhati, druhitta mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi parijanenam jetthaputtehim ya samanugammamanamagga savviddhie java dumduhi-nigghosa-nadiyaravenam akalaparihinam cheva kattiyassa setthissa amtiyam paubbhavati. Tae nam se kattie setthi vipulam asanam panam khaimam saimam uvakkhadavetti jaha gamgadatto java siyam druhati, druhitta mitta-nai-niyaga-sayana-sambamdhi-parijanenam jetthaputtenam negamatthasahassena ya samanugammamanamagge savviddhie java dumduhinigghosanadiya-ravenam hatthinapuram nagaram majjhammajjhenam niggachchhai, jaha gamgadatto java alitte nam bhamte! Loe, palitte nam bhamte! Loe, alitta-palitte nam bhamte! Loe java anugamiyattae bhavissati, tam ichchhami nam bhamte! Negamatthasahassena saddhim sayameva pavvaviyam java dhamma-maikkhiyam. Tae nam munisuvvae araha kattiyam setthim negamatthasahassenam saddhim sayameva pavvaveti java dhammamaikkhai–evam devanuppiya! Gamtavvam, evam chitthiyavvam java samjamiyavvam. Tae nam se kattie setthi negamatthasahassena saddhim munisuvvayassa arahao imam eyaruvam dhammiyam uvadesam sammam padivajjai tamanae taha gachchhati java samjameti. Tae nam se kattie setthi negamatthasahassenam saddhim anagare jae–iriyasamie java guttabambhayari. Tae nam se kattie anagare munisuvvayassa arahao taharuvanam theranam amtiyam samaiyamaiyaim choddasa puvvaim ahijjai, ahijjita bahuhim chauttha chhatthatthama-dasama-duvalasehim, masaddhamasakhamanehim vichittehim tavokammehim appanam bhavemane bahupadipunnaim duvalasa vasaim samannapariyayam paunai, paunitta masiyae samlehanae attanam jjhosei, jjhosetta satthim bhattaim anasanae chhedeti, chhedetta aloiya-padikkamte samahipatte kalamase kalam kichcha sohamme kappe sohammavademsae vimane uvavaya-sabhae devasayanijjamsi devadusamtarie amgulassa asamkhejjaibhagamettie ogahanae sakke devimdattae uvavanne. Tae nam se sakke devimde devaraya ahunovavannamettae sesam jaha gamgadattassa java savvadukkhanam amtam kahiti, navaram–thiti do sagarovamaim, sesam tam cheva. Sevam bhamte! Sevam bhamte! Tti. | ||
Sutra Meaning Transliteration : | Usa kala evam usa samaya mem vishakha namaki nagari thi. Vaham bahuputrika namaka chaitya tha. (varnana) eka bara vaham shramana bhagavana mahavira svami ka padarpana hua, yavat parishad paryupasana karane lagi. Usa kala aura usa samaya mem devendra devaraja shakra, vajrapani, purandara ityadi solahavem shataka ke dvitiya uddeshaka mem shakrendra ka jaisa varnana hai, usa prakara se yavat vaha divya yanavimana mem baithakara vaham aya. Vishesha bata yaha bhi, yaham abhiyogika deva bhi satha the; yavat shakrendra ne battisa prakara ki natya – vidhi pradarshita ki. Tatpashchat vaha jisa disha se aya tha, usi disha mem lauta gaya. Bhagavan gautama ne, shramana bhagavana mahavira se puchha – jisa prakara tritiya shataka mem ishanendra ke varnana mem kutagarashala ke drishtanta ke vishaya mem tatha purvabhava ke sambandha mem prashna kiya hai, usi prakara yaham bhi; yavat ‘yaha riddhi kaise samprapta hui’, – taka (prashna karana chahie). Shramana bhagavana mahavira ne kaha – he gautama ! Aisa hai ki usa kala aura usa samaya isi jambudvipa ke bharatavarsha mem hastinapura namaka nagara tha. Vaham sahasramravana namaka udyana tha. (varnana) usa hastinapura nagara mem kartika namaka eka shreshthi rahata tha. Jo dhanadhya yavat kisi se parabhava na pane vala tha. Use vanikom mem agrasthana prapta tha. Vaha una eka hajara atha vyapariyom ke bahuta se karyom mem, karanom mem aura kautumbika vyavaharom mem puchhane yogya tha, jisa prakara rajaprashniya sutra mem chitta sarathi ka varnana hai, usi prakara yaham bhi, yavat chakshubhuta tha, yaham taka janana chahie. Vaha kartika shreshthi, eka hajara atha vyapariyom ka adhipatya karata hua, yavat palana karata hua rahata tha. Vaha jiva – ajiva adi tattvom ka jnyata – yavat shramanopasaka tha. Usa kala usa samaya dharma ki adi karane vale arhat shri munisuvrata tirthamkara vaham padhare; yavat samavasarana laga. Yavat parishad paryupasana karane lagi. Usake pashchat vaha kartika shreshthi bhagavana ke padarpana ka vrittanta sunakara harshita aura santushta hua; ityadi. Jisa prakara gyarahavem shataka mem sudarshana – shreshthi ka vandanartha nirgamana ka varnana hai, usi prakara vaha bhi vandana ke lie nikala, yavat paryupasana karane laga. Tadanantara tirthamkara munisuvrata arhanta ne kartika setha ko dharmakatha kahi; yavat parishad lauta gai. Kartika setha, bhagavana munisuvrata svami se dharma sunakara yavat avadharana karake atyanta hrishta – tushta hua, phira usane khare hokara yavat savinaya isa prakara kaha – ‘bhagavan ! Jaisa apane kaha vaisa hi yavat hai. He devanupriya prabho ! Vishesha yaha kahana hai, maim eka hajara atha vyapari mitrom se puchhumga aura apane jyeshtha putra ko kutumba ka bhara saupumga aura taba mem apa devanupriya ke pasa pravrajita houmga. (bhagavana – ) devanupriya ! Jisa prakara tumhem sukha ho, vaisa karo, kintu vilamba mata karo. Tadanantara vaha kartika shreshthi yavat nikala aura vaham se hastinapura nagara mem jaham apana ghara tha vaham aya. Phira usane una eka hajara atha vyapari mitrom ko bulakara isa prakara kaha – ‘he devanupriyo ! Bata aisi hai ki maimne arhanta bhagavana munisuvrata svami se dharma suna hai. Vaha dharma mujhe ishta, abhishta aura ruchikara laga. He devanupriyo ! Usa dharma ko sunane ke pashchat maim samsara ke bhaya se udvigna ho gaya hum aura yavat maim tirthamkara ke pasa pravrajya grahana karana chahata hum. To he devanupriyo ! Tuma saba kya karoge\? Kya pravritti karane ka vichara hai\? Tumhare hridaya mem kya ishta hai\? Aura tumhari kya karane ki kshamata (shakti) hai\?’ yaha sunakara una eka hajara atha vyapari mitrom ne kartika setha se isa prakara kaha – yadi apa samsarabhaya se udvigna hokara grihatyaga kara yavat pravrajita homge, to phira, devanupriya ! Hamare lie dusara kauna – sa alambana hai\? Ya kauna – sa adhara hai\? Athava kauna – si pratibaddhata raha jati hai\? Ataeva he devanupriya ! Hama bhi samsara ke bhaya se udvigna haim, tatha janmamarana ke chakra se bhayabhita ho chuke haim. Hama bhi apa devanupriya ke satha agaravasa ka tyaga kara arhanta munisuvrata svami ke pasa mundita hokara anagara – diksha grahana karemge. Vyapari – mitrom ka abhimata janakara kartika shreshthi ne una 1008 vyapari – mitrom ko isa prakara kaha – yavat apane – apane ghara jao, jyeshtha putra ko kutumba ka bhara saumpa do. Taba eka hajara purushom dvara uthane yogya shibika mem baithakara kalakshepa kiye bina mere pasa ao.’ kartika setha ka yaha kathana unhomne vinaya – purvaka svikara kiya aura apane – apane ghara ae. Phira unhomne vipula ashanadi taiyara karavaya aura apane mitra – jnyatijana adi ko amantrita kiya. Yavat una mitra – jnyatijanadi ke samaksha apane jyeshthaputra ko kutumba ka bhara saumpa. Phira una mitra – jnyati – svajana yavat jyeshthaputra se anumati prapta ki. Phira hajara purushom dvara uthane yogya shibika mem baithe. Marga mem mitra, jnyati, yavat jyeshthaputra ke dvara anugamana kiye jate hue yavat vadyom ke ninadapurvaka avilamba kartika setha ke samipa upasthita hue. Tadanantara kartika shreshthi ne gamgadatta ke samana vipula ashanadi ahara taiyara karavaya, yavat mitra jnyati yavat parivara, jyeshthaputra evam eka hajara atha vyaparigana ke satha unake age – age samagra riddhisahita yavat vadya – ninada – purvaka hastinapura nagara ke madhya mem se hota hua, gamgadatta ke samana grihatyaga karake vaha bhagavana muni – suvrata svami ke pasa pahumcha yavat isa prakara bola – bhagavan ! Yaha loka charom ora se jala raha he, bhante ! Yaha samsara ativa prajvalita ho raha hai; yavat paraloka mem anugami hoga. Atah maim eka hajara atha vanikom sahita apa svayam ke dvara pravrajita hona aura yavat apa se dharma ka upadesha – nirdesha prapta karana chahata hum. Isa para shri muni – suvrata tirthamkara ne eka hajara atha vanik – mitrom sahita kartika shreshthi ko svayam pravrajya pradana ki aura yavat dharma ka upadesha – nirdesha kiya ki – devanupriyo ! Aba tumhem isa prakara chalana chahie, isa prakara khare rahana chahie adi, yavat isa prakara samyama ka palana karana chahie. Eka hajara atha vyapari mitrom sahita kartika setha ne bhagavana munisuvrata arhanta ke isa dharmika upadesha ko samyak rupa se svikara kiya tatha unaki ajnya ke anusara samyak rupa se chalane laga, yavat samyama ka palana karane laga. Isa prakara eka hajara atha vanikom ke satha vaha kartika setha anagara bana, tatha iyasamiti adi samitiyom se yukta yavat gupta brahmachari bana. Isake pashchat usa kartika anagara ne tatharupa sthavirom ke pasa samayika se lekara chaudaha purvom taka ka adhyayana kiya. Satha hi bahuta se chaturtha, chhattha, atthama adi tapashcharana se atma ko bhavita karate hue pure baraha varsha taka shramanya – paryaya ka palana kiya. Anta mem, usane eka masa ki samlekhana dvara apane sharira ko jhushita kiya, anashana se satha bhakta ka chhedana kiya aura alochana pratikramana adi karake atmashuddhi ki, yavat kala ke samaya kaladharma ko prapta kara vaha saudharmakalpa devaloka mem, saudharmavatamsaka vimana mem rahi hui upapata sabha mem deva – shayya mem yavat shakra devendra ke rupa mem utpanna hua. Isi se kaha gaya tha – ‘shakra devendra devaraja abhi – abhi utpanna hua hai.’ shesha varnana gamgadatta ke samana yavat – ‘vaha sabhi duhkhom ka anta karega,’ (taka) vishesha yaha hai ki usaki sthiti do sagaropama ki hai. He bhagavan ! Yaha isi prakara hai, bhagavan ! Yaha isi prakara hai. |