Sutra Navigation: Mahanishith ( महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र )

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Sr No : 1018225
Scripture Name( English ): Mahanishith Translated Scripture Name : महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र
Mool Language : Ardha-Magadhi Translated Language : Hindi
Chapter :

अध्ययन-८

चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा

Translated Chapter :

अध्ययन-८

चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा

Section : Translated Section :
Sutra Number : 1525 Category : Chheda-06
Gatha or Sutra : Gatha Sutra Anuyog :
Author : Deepratnasagar Original Author : Gandhar
 
Century : Sect : Svetambara1
Source :
 
Mool Sutra : [गाथा] आलोइय निंदियगरहिए णं कय पायच्छित्ते वि भवित्ताणं। जयणं अयाणमाणे भमिही सुइरं तु संसारे॥
Sutra Meaning : आलोचना, निन्दा, गर्हा, प्रायश्चित्त करने के बावजूद भी जयणा का अनजान होने से दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करेगा। हे भगवंत ! कौन – सी जयणा उसने न पहचानी कि जिससे उस प्रकार के दुष्कर काय – क्लेश करके भी उस प्रकार के लम्बे अरसे तक संसार में भ्रमण करेगा ? हे गौतम ! जयणा उसे कहते हैं कि अठ्ठारह हजार शील के सम्पूर्ण अंग अखंड़ित और अविराधित यावज्जीव रात – दिन हरएक समय धारण करे और समग्र संयम क्रिया का अच्छी तरह से सेवन करे। वो सात उस सुसढ़ने न समझी। उस कारण से वो निर्भागी दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा। हे भगवंत ! किस कारण से जयणा उस के ध्यान में न आई ? हे गौतम ! जितना उसने कायक्लेश सहा उस के आँठवे हिस्से का यदि सचित्त जल का त्याग किया होता तो वो सिद्धि में ही पहुँच गया होता। लेकिन वो सचित्त जल का उपयोग परिभोग करता था। सचित्त जल का परिभोग करनेवाले कैसा भी कायक्लेश करे तो भी निरर्थक हो जाता है। हे भगवंत ! अप्‌काय, अग्निकाय और मैथुन यह तीनों को महापाप के स्थानक बताए हैं। अबोधि देनेवाले हैं। उत्तम संयत साधु को उन तीनों का एकान्त में त्याग करना चाहिए। उसका सेवन न करना चाहिए। इस कारण से उसने उस जयणा को न समझा। हे भगवंत ! किस कारण से अप्‌काय, अग्निकाय, मैथुन अबोधि देनेवाले बताए हैं ? हे गौतम ! जो कि सर्व छह काय का समारम्भ महापाप स्थानक बताए हैं, लेकिन अप्‌काय अग्निकाय का समारम्भ अनन्त सत्त्व का उपघात करनेवाला है। मैथुन सेवन से संख्यात, असंख्यात जीव का विनाश होता है। सज्जड राग – द्वेष और मोह युक्त होने से एकान्त अप्रशस्त अध्यवसाय के आधीन होते हैं। जिस कारण से ऐसा होता है उस कारण से हे गौतम ! उन जीव का समारम्भ सेवन परिभोग करनेवाले ऐसे पाप में से व्यवहार करनेवाले जीव प्रथम महाव्रत को धारण करनेवाले न बने। उसकी कमी में बाकी के महाव्रत संयमानुष्ठान की कमी ही है, जिससे ऐसा है। इसलिए सर्वथा विराधित श्रमणपन माना जाता है। जिस कारण से इस प्रकार है इसलिए सम्यग्‌ मार्ग प्रवर्तता है। उसका विनाश करनेवाला होता है। उस कारण से जो कुछ भी कर्मबंधन करे उससे नरक तिर्यंच कुमानवपन में अनन्त बार उत्पन्न हो कि जहाँ बार – बार धर्म ऐसे अक्षर भी सपने में न सुने और धर्म प्राप्त न करते हुए संसार में भ्रमण करे। इस कारण से जल, अग्नि और मैथुन अबोधिदायक बताए हैं। हे भगवंत ! क्या छठ्ठ, अठ्ठम, चार, पाँच उपवास, अर्धमास, एक मास यावत्‌ छ मास तक हंमेशा के उपवास काफी घोर वीर उग्र कष्टकारी दुष्कर संयम जयणा रहित ऐसा अति महान कायक्लेश किया हो तो क्या निरर्थक हो ? हे गौतम ! हा, निरर्थक है। हे भगवंत ! किस कारण से ? हे गौतम ! गधे, ऊंट, बैल आदि प्राणी भी संयम जयणा रहितपन से ईच्छा बिना आए हुए ताप – गर्मी भार मार आदि पराधीनता से ईच्छा बिना दुःख सहकर अकाम निर्जरा करके सौधर्मकल्प आदि में जाते हैं। वहाँ भी भोगावली कर्म का क्षय होने से च्यवकर तिर्यंचादिक गति में जाकर संसार का अनुसरण करनेवाला या संसार में भ्रमण करनेवाला होता है। और अशुचि बदबूँ पीगले प्रवाही क्षार, पित्त, उल्टी श्लेष्म से पूर्ण चरबी शरीर पर लिपटे ओर परु, अंधेरा व्याप्त, लहूँ के कीचड़वाले, देख न सके ऐसी बिभत्स, अंधकार समूहयुक्त, गर्भवास में दर्द, गर्भप्रवेश, जन्म, जरा, मरणादिक और शारीरिक, मानसिक पैदा हुए घोर दारुण दुःख का भोगवटा करना भाजन होता है। संयम की जयणा रहित जन्म, जरा, मरणादिक के घोर, प्रचंड, महारौद्र, दारुण दुःख का नाश एकान्ते नहीं होता। इसीलिए जयणारहित संयम या अति महान कायक्लेश करे तो भी निरर्थक है। हे भगवंत ! क्या संयम की जयणा को अच्छी तरह से देखनेवाला पालन करनेवाला अच्छी तरह से उसका अनुष्ठान करनेवाला, जन्म – जरा, मरणादिक के दुःख से जल्द छूट जाता है। हे गौतम ! ऐसे भी कोई होते हैं कि जल्द ऐसे दुःख छूट न जाए और कुछ ऐसे होते हैं कि जल्द छूट जाए। हे भगवंत ! किस कारण से आप ऐसा कहते हो ? हे गौतम ! कोई ऐसा भी होते हैं कि जो सहज थोड़ा सा भी सभास्थान देखे बिना अपेक्षा रखे बिना राग सहित और शल्य सहित संयम की यातना करे। जो इस प्रकार के हो तो लम्बे अरसे तक जन्म, जरा, मरण आदि कईं सांसारिक दुःख से मुक्त बने। कुछ ऐसे आत्मा भी होते हैं कि जो सर्व शल्य को निर्मूल्य उखेड़कर आरम्भ और परिग्रह रहित होकर ममता और अहंकार रहित होकर रागद्वेष मोह मिथ्यात्व कषाय के मल कलंक जिनके चले गए हैं, सर्व भाव – भावान्तर से अति विशुद्ध आशयवाले, दीनता रहित मानसवाले एकान्त निर्जरा करने की अपेक्षावाला परम श्रद्धा, संवेग, वैरागी, समग्र भय गारव विचित्र कईं तरह के प्रमाद के आलम्बन से मुक्त, घोर परिषह उपसर्ग को जिसने जीता है, रौद्रध्यान जिसने दूर किया है, समग्र कर्म का क्षय करने के लिए यथोक्त जयणा का खप रखता हो, अच्छी तरह प्रेक्षा – नजर करता हो, पालन करता हो, विशेष तरीके से जयणा का पालन करता हो, यावत्‌ सम्यक्‌ तरह से उसका अनुष्ठान करता हो। जो उस तरह के संयम और जयणा के अर्थी हो वो जल्द जरा, मरण आदि कईं सांसारिक ऐसे दुःख की जाल से मुक्त हो जाते हैं। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि एक जल्द संसार से छूट जाता है और एक जल्द नहीं छूट सकता। हे भगवंत ! जन्म, जरा, मरण आदि कईं सांसारिक जाल से मुक्त होने के बाद जीव कहाँ वास करे ? हे गौतम ! जहाँ जरा नहीं, मौत नहीं, व्याधि नहीं, अपयश नहीं, झूठे आरोप नहीं लगते, संताप – उद्वेग कंकास, टंटा, क्लेश, दारिद्र, उपताप जहाँ नहीं होते। इष्ट का वियोग नहीं होता। ओर क्या कहना ? एकान्त अक्षय, ध्रुव, शाश्वत, निरूपम, अनन्त सुख जिसमें हैं ऐसे मोक्ष में वास करनेवाला होता है। इस अनुसार कहा। सूत्र – १५२५, १५२६
Mool Sutra Transliteration : [gatha] aloiya nimdiyagarahie nam kaya payachchhitte vi bhavittanam. Jayanam ayanamane bhamihi suiram tu samsare.
Sutra Meaning Transliteration : Alochana, ninda, garha, prayashchitta karane ke bavajuda bhi jayana ka anajana hone se dirghakala taka samsara mem bhramana karega. He bhagavamta ! Kauna – si jayana usane na pahachani ki jisase usa prakara ke dushkara kaya – klesha karake bhi usa prakara ke lambe arase taka samsara mem bhramana karega\? He gautama ! Jayana use kahate haim ki aththaraha hajara shila ke sampurna amga akhamrita aura aviradhita yavajjiva rata – dina haraeka samaya dharana kare aura samagra samyama kriya ka achchhi taraha se sevana kare. Vo sata usa susarhane na samajhi. Usa karana se vo nirbhagi dirghakala taka samsara mem paribhramana karega. He bhagavamta ! Kisa karana se jayana usa ke dhyana mem na ai\? He gautama ! Jitana usane kayaklesha saha usa ke amthave hisse ka yadi sachitta jala ka tyaga kiya hota to vo siddhi mem hi pahumcha gaya hota. Lekina vo sachitta jala ka upayoga paribhoga karata tha. Sachitta jala ka paribhoga karanevale kaisa bhi kayaklesha kare to bhi nirarthaka ho jata hai. He bhagavamta ! Apkaya, agnikaya aura maithuna yaha tinom ko mahapapa ke sthanaka batae haim. Abodhi denevale haim. Uttama samyata sadhu ko una tinom ka ekanta mem tyaga karana chahie. Usaka sevana na karana chahie. Isa karana se usane usa jayana ko na samajha. He bhagavamta ! Kisa karana se apkaya, agnikaya, maithuna abodhi denevale batae haim\? He gautama ! Jo ki sarva chhaha kaya ka samarambha mahapapa sthanaka batae haim, lekina apkaya agnikaya ka samarambha ananta sattva ka upaghata karanevala hai. Maithuna sevana se samkhyata, asamkhyata jiva ka vinasha hota hai. Sajjada raga – dvesha aura moha yukta hone se ekanta aprashasta adhyavasaya ke adhina hote haim. Jisa karana se aisa hota hai usa karana se he gautama ! Una jiva ka samarambha sevana paribhoga karanevale aise papa mem se vyavahara karanevale jiva prathama mahavrata ko dharana karanevale na bane. Usaki kami mem baki ke mahavrata samyamanushthana ki kami hi hai, jisase aisa hai. Isalie sarvatha viradhita shramanapana mana jata hai. Jisa karana se isa prakara hai isalie samyag marga pravartata hai. Usaka vinasha karanevala hota hai. Usa karana se jo kuchha bhi karmabamdhana kare usase naraka tiryamcha kumanavapana mem ananta bara utpanna ho ki jaham bara – bara dharma aise akshara bhi sapane mem na sune aura dharma prapta na karate hue samsara mem bhramana kare. Isa karana se jala, agni aura maithuna abodhidayaka batae haim. He bhagavamta ! Kya chhaththa, aththama, chara, pamcha upavasa, ardhamasa, eka masa yavat chha masa taka hammesha ke upavasa kaphi ghora vira ugra kashtakari dushkara samyama jayana rahita aisa ati mahana kayaklesha kiya ho to kya nirarthaka ho\? He gautama ! Ha, nirarthaka hai. He bhagavamta ! Kisa karana se\? He gautama ! Gadhe, umta, baila adi prani bhi samyama jayana rahitapana se ichchha bina ae hue tapa – garmi bhara mara adi paradhinata se ichchha bina duhkha sahakara akama nirjara karake saudharmakalpa adi mem jate haim. Vaham bhi bhogavali karma ka kshaya hone se chyavakara tiryamchadika gati mem jakara samsara ka anusarana karanevala ya samsara mem bhramana karanevala hota hai. Aura ashuchi badabum pigale pravahi kshara, pitta, ulti shleshma se purna charabi sharira para lipate ora paru, amdhera vyapta, lahum ke kicharavale, dekha na sake aisi bibhatsa, amdhakara samuhayukta, garbhavasa mem darda, garbhapravesha, janma, jara, maranadika aura sharirika, manasika paida hue ghora daruna duhkha ka bhogavata karana bhajana hota hai. Samyama ki jayana rahita janma, jara, maranadika ke ghora, prachamda, maharaudra, daruna duhkha ka nasha ekante nahim hota. Isilie jayanarahita samyama ya ati mahana kayaklesha kare to bhi nirarthaka hai. He bhagavamta ! Kya samyama ki jayana ko achchhi taraha se dekhanevala palana karanevala achchhi taraha se usaka anushthana karanevala, janma – jara, maranadika ke duhkha se jalda chhuta jata hai. He gautama ! Aise bhi koi hote haim ki jalda aise duhkha chhuta na jae aura kuchha aise hote haim ki jalda chhuta jae. He bhagavamta ! Kisa karana se apa aisa kahate ho\? He gautama ! Koi aisa bhi hote haim ki jo sahaja thora sa bhi sabhasthana dekhe bina apeksha rakhe bina raga sahita aura shalya sahita samyama ki yatana kare. Jo isa prakara ke ho to lambe arase taka janma, jara, marana adi kaim samsarika duhkha se mukta bane. Kuchha aise atma bhi hote haim ki jo sarva shalya ko nirmulya ukherakara arambha aura parigraha rahita hokara mamata aura ahamkara rahita hokara ragadvesha moha mithyatva kashaya ke mala kalamka jinake chale gae haim, sarva bhava – bhavantara se ati vishuddha ashayavale, dinata rahita manasavale ekanta nirjara karane ki apekshavala parama shraddha, samvega, vairagi, samagra bhaya garava vichitra kaim taraha ke pramada ke alambana se mukta, ghora parishaha upasarga ko jisane jita hai, raudradhyana jisane dura kiya hai, samagra karma ka kshaya karane ke lie yathokta jayana ka khapa rakhata ho, achchhi taraha preksha – najara karata ho, palana karata ho, vishesha tarike se jayana ka palana karata ho, yavat samyak taraha se usaka anushthana karata ho. Jo usa taraha ke samyama aura jayana ke arthi ho vo jalda jara, marana adi kaim samsarika aise duhkha ki jala se mukta ho jate haim. He gautama ! Isa karana se aisa kaha jata hai ki eka jalda samsara se chhuta jata hai aura eka jalda nahim chhuta sakata. He bhagavamta ! Janma, jara, marana adi kaim samsarika jala se mukta hone ke bada jiva kaham vasa kare\? He gautama ! Jaham jara nahim, mauta nahim, vyadhi nahim, apayasha nahim, jhuthe aropa nahim lagate, samtapa – udvega kamkasa, tamta, klesha, daridra, upatapa jaham nahim hote. Ishta ka viyoga nahim hota. Ora kya kahana\? Ekanta akshaya, dhruva, shashvata, nirupama, ananta sukha jisamem haim aise moksha mem vasa karanevala hota hai. Isa anusara kaha. Sutra – 1525, 1526