Sutra Navigation: Gyatadharmakatha ( धर्मकथांग सूत्र )
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Mool File Details |
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Anuvad File Details |
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Sr No : | 1004918 | ||
Scripture Name( English ): | Gyatadharmakatha | Translated Scripture Name : | धर्मकथांग सूत्र |
Mool Language : | Ardha-Magadhi | Translated Language : | Hindi |
Chapter : |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Translated Chapter : |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Section : | Translated Section : | ||
Sutra Number : | 218 | Category : | Ang-06 |
Gatha or Sutra : | Sutra | Sutra Anuyog : | |
Author : | Deepratnasagar | Original Author : | Gandhar |
Century : | Sect : | Svetambara1 | |
Source : | |||
Mool Sutra : | [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं तं फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं सरीरकोट्ठगंसि पक्खिवइ। तए णं तस्स पुंडरीयस्स अनगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसं विरसं सीयलुक्खं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे नो सम्मं परिणमइ। तए णं तस्स पुंडरीयस्स अनगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया–उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जर-परिगय-सरीरे दाहवक्कंतीए विहरइ। तए णं से पुंडरीए अनगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी– नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइणामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं। नमोत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं। पुव्विं पि य णं मए थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव बहिद्धादाणे पच्चक्खाए, इयाणिं पि णं अहं तेसिं चेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव बहिद्धादाणं पच्चक्खामि। सव्वं असन-पान-खाइम-साइमं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जंपि य इमं सरीरं इट्ठं कंतं तं पि य णं चरिमेहिं उस्सास-नीसासेहिं वोसिरामि त्ति कट्टु आलोइय-पडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा सव्वट्ठसिद्धे उववन्ने। तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता महावि-देहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ० सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ। एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए समाणे मानुस्सएहिं कामभोगेहिं नो सज्जइ नो रज्जइ नो गिज्झइ नो मुज्झइ नो सज्झोवज्झइ नो विप्पडिधायमावज्जइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमंसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विनएणं पज्जुवासणिज्जे भवइ, परलोए वि य णं नो आगच्छइ बहूणि दंडगाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य तालणाणि य जाव चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्सइ–जहा व से पुंडरीए अनगारे। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयखंधस्स अयमट्ठे पन्नत्ते। | ||
Sutra Meaning : | पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् भिक्षा के लिए अटन करते हुए ठंडा और रूखा भोजन – पान ग्रहण किया। ग्रहण करके यह मेरे लिए पर्याप्त है, ऐसा सोच कर लौट आए। स्थविर भगवान के पास आए। भोजन – पानी दिखलाया। स्थविर भगवान की आज्ञा होने पर मूर्च्छाहीन होकर तथा गृद्धि, आसक्ति एवं तल्लीनता से रहित होकर, जैसे सर्प बिल में सीधा चला जाता है, उसी प्रकार उस प्रासुक तथा एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को उन्होंने शरीर रूपी कोठे में डाल दिया। पुंडरीक अनगार उस कालातिक्रान्त रसहीन; खराब रस वाले तथा ठंडे और रूखे भोजन पानी का आहार करके मध्य रात्रि के समय धर्मजागरण कर रहे थे। तब वह आहार उन्हें सम्यक् रूप से परिणत न हुआ। उस समय पुंडरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रचण्ड एवं दुःखरूप, दुस्सह वेदना उत्पन्न हो गई। शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह होने लगा। तत्पश्चात् पुंडरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, वीर्यहीन और पुरुषकार – पराक्रमहीन हो गए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा – ‘यावत् सिद्धिप्राप्त अरिहंतों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य और धर्मोप – देशक स्थविर भगवान को नमस्कार हो। स्थविर के निकट पहले भी मैंने समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग किया था’ इत्यादि कहकर यावत् शरीर का भी त्याग करके आलोचना प्रतिक्रमण करके, कालमास में काल करके सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में उत्पन्न हुए। वहाँ से अनन्तर च्यवन करके, सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेंगे। यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो हमारा साधु या साध्वी दीक्षित होकर मनुष्य – सम्बन्धी कामभोगों में आसक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं होता, यावत् प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता, वह इसी भव व बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणरूप, मंगलकारक, देव और चैत्य समान उपासना करने योग्य होता है। इसके अतिरिक्त वह परलोक में भी राजदण्ड, राजनिग्रह, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता, यावत् चतुर्गति रूप संसार – कान्तार को पार कर जाता है, जैसे पुंडरीक अनगार। जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् सिद्धि नामक स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात – अध्ययन के उन्नीसवे अध्ययन का यह अर्थ कहा है। ‘इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त जिनेश्वर देव ने इस छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कंध का यह अर्थ कहा है। | ||
Mool Sutra Transliteration : | [sutra] tae nam se pumdarie anagare jeneva thera bhagavamto teneva uvagachchhai, uvagachchhitta there bhagavamte vamdai namamsai, vamditta namamsitta theranam amtie dochchampi chaujjamam dhammam padivajjai, chhatthakkhamanaparanagamsi padhamae porisie sajjhayam karei, biyae porisie jjhana jjhiyai, taiyae porisie java uchcha-niya-majjhimaim kulaim gharasamudanassa bhikkhayariyam adamane siyalukkha pana bhoyanam padigahei, padigahetta ahapajjattamiti kattu padiniyattei, jeneva thera bhagavamto teneva uvagachchhai, uvagachchhitta bhattapanam padidamsei, padidamsetta therehim bhagavamtehim abbhanunnae samane amuchchhie agiddhe agadhie anajjhovavanne bilamiva pannagabhuenam appanenam tam phasu-esanijjam asana-pana-khaima-saimam sarirakotthagamsi pakkhivai. Tae nam tassa pumdariyassa anagarassa tam kalaikkamtam arasam virasam siyalukkham panabhoyanam ahariyassa samanassa puvvarattavarattakalasamayamsi dhammajagariyam jagaramanassa se ahare no sammam parinamai. Tae nam tassa pumdariyassa anagarassa sariragamsi veyana paubbhuya–ujjala viula kakkhada pagadha chamda dukkha durahiyasa. Pittajjara-parigaya-sarire dahavakkamtie viharai. Tae nam se pumdarie anagare atthame abale avirie apurisakkaraparakkame karayala pariggahiyam dasanaham sirasavattam matthae amjalim kattu evam vayasi– Namotthu nam arahamtanam bhagavamtanam java siddhigainamadhejjam thanam sampattanam. Namotthu nam theranam bhagavamtanam mama dhammayariyanam dhammovaesayanam. Puvvim pi ya nam mae theranam amtie savve panaivae pachchakkhae java bahiddhadane pachchakkhae, iyanim pi nam aham tesim cheva amtie savvam panaivayam pachchakkhami java bahiddhadanam pachchakkhami. Savvam asana-pana-khaima-saimam pachchakkhami chauvviham pi aharam pachchakkhami javajjivae. Jampi ya imam sariram ittham kamtam tam pi ya nam charimehim ussasa-nisasehim vosirami tti kattu aloiya-padikkamte kalamase kalam kichcha savvatthasiddhe uvavanne. Tao anamtaram uvvattitta mahavi-dehe vase sijjhihii bujjhihii muchchihii parinivvahii0 savvadukkhanamamtam kahii. Evameva samanauso! Jo amham niggamtho va niggamthi va ayariya-uvajjhayanam amtie mumde bhavitta agarao anagariyam pavvaie samane manussaehim kamabhogehim no sajjai no rajjai no gijjhai no mujjhai no sajjhovajjhai no vippadidhayamavajjai, se nam ihabhave cheva bahunam samananam bahunam samaninam bahunam savaganam bahunam saviyana ya achchanijje vamdanijje namamsanijje puyanijje sakkaranijje sammananijje kallanam mamgalam devayam cheiyam vinaenam pajjuvasanijje bhavai, Paraloe vi ya nam no agachchhai bahuni damdagani ya mumdanani ya tajjanani ya talanani ya java chauramtam samsarakamtaram viivaissai–jaha va se pumdarie anagare. Evam khalu jambu! Samanenam bhagavaya mahavirenam aigarenam titthagarenam sayamsambuddhenam java siddhigainamadhejjam thanam sampattenam egunavisaimassa nayajjhayanassa ayamatthe pannatte. Evam khalu jambu! Samanenam bhagavaya mahavirenam java sampattenam chhatthassa amgassa padhamassa suyakhamdhassa ayamatthe pannatte. | ||
Sutra Meaning Transliteration : | Pumdarikini nagari se ravana hone ke pashchat pumdarika anagara vaham pahumche jaham sthavira bhagavana the. Unhomne sthavira bhagavana ko vandana ki, namaskara kiya. Sthavira ke nikata dusari bara chaturyama dharma amgikara kiya. Phira shashthabhakta ke paranaka mem, prathama prahara mem svadhyaya kiya, (dusare prahara mem dhyana kiya), tisare prahara mem yavat bhiksha ke lie atana karate hue thamda aura rukha bhojana – pana grahana kiya. Grahana karake yaha mere lie paryapta hai, aisa socha kara lauta ae. Sthavira bhagavana ke pasa ae. Bhojana – pani dikhalaya. Sthavira bhagavana ki ajnya hone para murchchhahina hokara tatha griddhi, asakti evam tallinata se rahita hokara, jaise sarpa bila mem sidha chala jata hai, usi prakara usa prasuka tatha eshaniya ashana, pana, khadima aura svadima ahara ko unhomne sharira rupi kothe mem dala diya. Pumdarika anagara usa kalatikranta rasahina; kharaba rasa vale tatha thamde aura rukhe bhojana pani ka ahara karake madhya ratri ke samaya dharmajagarana kara rahe the. Taba vaha ahara unhem samyak rupa se parinata na hua. Usa samaya pumdarika anagara ke sharira mem ujjvala, vipula, karkasha, prachanda evam duhkharupa, dussaha vedana utpanna ho gai. Sharira pittajvara se vyapta ho gaya aura sharira mem daha hone laga. Tatpashchat pumdarika anagara nisteja, nirbala, viryahina aura purushakara – parakramahina ho gae. Unhomne donom hatha jorakara yavat isa prakara kaha – ‘yavat siddhiprapta arihamtom ko namaskara ho. Mere dharmacharya aura dharmopa – deshaka sthavira bhagavana ko namaskara ho. Sthavira ke nikata pahale bhi maimne samasta pranatipata ka pratyakhyana kiya, yavat mithyadarshana shalya ka tyaga kiya tha’ ityadi kahakara yavat sharira ka bhi tyaga karake alochana pratikramana karake, kalamasa mem kala karake sarvarthasiddha namaka anuttara vimana mem devaparyaya mem utpanna hue. Vaham se anantara chyavana karake, sidhe mahavideha kshetra mem utpanna hokara siddhi prapta karemge. Yavat sarva duhkhom ka anta karemge. Isi prakara he ayushman shramanom ! Jo hamara sadhu ya sadhvi dikshita hokara manushya – sambandhi kamabhogom mem asakta nahim hota, anurakta nahim hota, yavat pratighata ko prapta nahim hota, vaha isi bhava va bahuta shramanom, bahuta shramaniyom, bahuta shravakom aura bahuta shravikaom dvara archaniya, vandaniya, pujaniya, satkaraniya, sammananiya, kalyanarupa, mamgalakaraka, deva aura chaitya samana upasana karane yogya hota hai. Isake atirikta vaha paraloka mem bhi rajadanda, rajanigraha, tarjana aura tarana ko prapta nahim hota, yavat chaturgati rupa samsara – kantara ko para kara jata hai, jaise pumdarika anagara. Jambu ! Dharma ki adi karane vale, tirtha ki sthapana karane vale, yavat siddhi namaka sthana ko prapta shramana bhagavana mahavira ne jnyata – adhyayana ke unnisave adhyayana ka yaha artha kaha hai. ‘isa prakara he jambu ! Shramana bhagavana mahavira ne yavat siddhigati namaka sthana ko prapta jineshvara deva ne isa chhathe amga ke prathama shrutaskamdha ka yaha artha kaha hai. |