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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 514 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासे चेइए–वण्णओ जाव पुढविसि-लापट्टओ। तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसइ–अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे ण्हाए कय बलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं पायविहारचारेणं महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियग्गामं Translated Sutra: उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। यावत् उसमें एक पृथ्वीशिलापट्ट था। उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी रहता था। वह आढ्य यावत् अपरिभूत था। वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक होकर यावत् विचरण करता था। महावीर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 515 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पमाणकाले?
पमाणकाले दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–दिवसप्पमाणकाले, राइप्पमाणकाले य। चउपोरिसिए दिवसे, चउपोरिसिया राई भवइ। उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ।
जदा णं भंते! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी-परिहायमाणी जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ? जदा णं जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभाग-मुहुत्तभागेणं परिवड्ढमाणी-परिवड्ढमाणी उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए Translated Sutra: भगवन् ! जब दिवस की या रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त्त की होती है, तब उस मुहूर्त्त का कितना भाग घटते – घटते जघन्य तीन मुहूर्त्त की दिवस और रात्रि की पौरुषी होती है ? और जब दिवस और रात्रि की पौरुषी जघन्य तीन मुहूर्त्त की होती है, तब मुहूर्त्त का कितना भाग बढ़ते – बढ़ते उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त्त की पौरुषी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 516 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अहाउनिव्वत्तिकाले?
अहाउनिव्वत्तिकाले–जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मनुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं। सेत्तं अहाउ-निव्वत्तिकाले।
से किं तं मरणकाले?
मरणकाले–जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं मरणकाले।
से किं तं अद्धाकाले?
अद्धाकाले–से णं समयट्ठयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्ठयाए। एस णं सुदंसणा! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्ठयाए। असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवु-च्चइ। संखेज्जाओ आवलियाओ उस्साओ जहा सालिउद्देसए जाव–
एएसि णं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया Translated Sutra: भगवन् ! वह यथार्निवृत्तिकाल क्या है ? (सुदर्शन !) जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव ने स्वयं जिस गति का और जैसा भी आयुष्य बाँधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना – भोगना, ‘यथायुर्निवृ – त्तिकाल’ कहलाता है। भगवन् ! मरणकाल क्या है ? सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 517 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?
एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहन्नमणुक्कोसेनं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की है ? सुदर्शन ! स्थितिपद सम्पूर्ण कहना, यावत् – अजघन्य – अनुत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 518 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ।
तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 519 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गय उसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं ज्झयं कुंभं ।
पउमसर सागर विमानभवन रयणुच्चय सिहिं च ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१८ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 520 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु सत्त महा-
सुविणे पासित्ता णं पडिबु-ज्झंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति। इमे य णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए Translated Sutra: ‘हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत् आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।’ अतः हे देवानुप्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 521 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुम्माणवड्ढणं करेह, करेत्ता हत्थिणापुरं नगरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-संमज्जिओवलित्तं जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसंजुत्तं उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममे-तमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्ख-मइ, Translated Sutra: इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिना – पुर नगर में शीघ्र ही चारक – शोधन अर्थात् – बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लीप – पोत कर शुद्धि (यावत्) करो – कराओ। तत्पश्चात् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 522 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुत्तंसि ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणग-ण्हाण-गीय-वाइय-पसाहण-अट्ठंगतिलग-कंकण-अविहवबहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउय-मंगलोवयार-कयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरियत्ताणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिंतो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेनं पाणिं गिण्हाविंसु।
तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति, तं जहा–अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ, Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी समय शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त्त में महाबल कुमार ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक – मंगल प्रायश्चित्त किया। उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया गया। फिर सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, गीत, वादित, मण्डन, आठ अंगों पर तिलक, लाल डोरे के रूप में कंकण तथा दही, अक्षत आदि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 523 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अनगारे जाइसंपन्ने वण्णओ जहा केसि-सामिस्स जाव पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिणापुरे नगरे, जेणेव सहसंबवने उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जणवूहं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पास-माणस्स वा एवं Translated Sutra: उस काल और उस समय में तेरहवे तीर्थंकर अरहंत विमलनाथ के धर्मघोष अनगार थे। वे जातिसम्पन्न इत्यादि केशी स्वामी के समान थे, यावत् पाँच सौ अनगारों के परिवार के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए हस्ति – नापुर नगर में सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 524 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुमे सुदंसणा! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णय-परिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपन्नत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तं सुट्ठु णं तुमं सुदंसणा! इदाणिं पि करेंसि। से तेणट्ठेणं सुदंसणा! एवं वुच्चइ– अत्थि णं एतेसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा।
तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठं सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णी पुव्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एयमट्ठं Translated Sutra: तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने यथारूप स्थविरों से केवलि – प्ररूपित धर्म सूना। वह धर्म तुम्हें ईच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 525 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। संखवने चेइए–वण्णओ। तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया अभिगयजीवा-जीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयाइ एगयओ समुवागयाणं सहियाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–देवलोगेसु णं अज्जो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवट्ठिती-गहियट्ठे ते समणोवासए एवं वयासी–देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं Translated Sutra: उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। इस आलभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण करते थे। उस समय एक दिन एक स्थान पर आकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में परस्पर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 526 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ। तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा, हट्ठतुट्ठा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! समणे भगवं महावीरे जाव आलभियाए नगरीए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो देवानुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन-वंदन-नमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणाए? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमगं पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवानुप्पिया! समणं भगवं महावीरं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् (आलभिका नगरी में) पधारे, यावत् परीषद् ने उनकी पर्युपासना की। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान आलभिका नगरी के वे श्रमणोपासक इस बात को सूनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 527 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–पभू णं भंते! इसिभ-द्दपुत्ते समणोवासए देवानुप्पियाणं अंतियं मुंडे भावित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइत्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे गोयमा! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेहिति, ज्झूसेत्ता सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेहिति, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाने देवत्ताए Translated Sutra: तदनन्तर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! क्या ऋषि – भद्रपुत्र श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगारवास से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ हैं? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत – से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 528 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। तत्थ णं संखवने नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नामं परिव्वायए–रिउव्वेद-जजुव्वेद जाव बंभण्णएसु परिव्वायएसु य नएसु सुपरिनिट्ठिए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ
तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे Translated Sutra: पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उस शंखवन उद्यान के न अति दूर और न अति निकट मुद्गल परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत – से ब्राह्मण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 530 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नगरी होत्था–वण्णओ। कोट्ठए चेइए–वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवो-कम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्था–सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा, समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खली नामं समणोवासए परिवसइ–अड्ढे, अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रावस्ती नगरी थी। कोष्ठक उद्यान था, उस श्रावस्ती नगरी में शंख आदि बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। (वे) आढ्य यावत् अपरिभूत थे; तथा जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता थे, यावत् विचरते थे। उस ‘शंख’ श्रमणोपासक की भार्या ‘उत्पला’ थी। उसके हाथ – पैर अत्यन्त कोमल थे, यावत् वह रूपवती एवं श्रमणोपासिका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 531 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह। तए णं अम्हे तं विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो।
तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमट्ठं विनएणं पडिसुणेंति।
तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु मे सेयं तं विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं Translated Sutra: उस शंख श्रमणोपासक ने दूसरे श्रमणोपासकों से कहा – देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराओ। फिर हम उस प्रचुर अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हुए, विस्वादन करते हुए, एक दूसरे को देते हुए भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध का अनुपालन करते हुए अहोरात्र – यापन करेंगे। इस पर उन श्रमणोपासकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 533 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
कोहवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
संखा! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनियबंधनबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिइयाओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदानुभावाओ तिव्वानुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, अनाइयं च णं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरियट्टइ।
मानवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ? Translated Sutra: इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार किया और पूछा – ‘भगवन्! क्रोध के वश – आर्त्त बना हुआ जीव कौन – से कर्म बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? शंख ! क्रोधवश – आर्त्त बना हुआ जीव आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धन से बंधी हुई प्रकृतियों को | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 534 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी नामं नगरी होत्था–वण्णओ। चंदोतरणे चेइए–वण्णओ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो पोत्ते, सयाणीस्स रन्नो पुत्ते, चेडगस्स रन्नो नत्तुए, मिगावतीए देवीए अत्तए, जयंतीए समणोवासि-याए भत्तिज्जए उदयने नामं राया होत्था–वण्णओ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो सुण्हा, सयाणीस्स रन्नो भज्जा, चेडगस्स रन्नो धूया, उदयनस्स रन्नो माया, जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणो विहरइ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में कौशाम्बी नगरी थी। चन्द्रवतरण उद्यान था। उस कौशाम्बी नगरी में सहस्त्रा – नीक राजा का पौत्र, शतानीक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती देवी का आत्मज और जयन्ती श्रमणोपासिका का भतीजा ‘उदयन’ नामक राजा था। उसी कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा की पुत्रवधू, शतानीक राजा की पत्नी, चेटक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 535 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं से उदयणे राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! कोसंबिं नगरिं सब्भिंतर-बाहिरियं आसित्त-सम्मज्जिओवलित्तं करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह एवं जहा कूणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ।
तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ठतुट्ठा जेणेव मिगावती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिगावतिं देविं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिए! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगा-सगएणं चक्केणं Translated Sutra: उस काल उस समय में महावीर स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस समय उदायन राजा को जब यह पता लगा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को भीतर और बाहर से शीघ्र ही साफ करवाओ; इत्यादि सब वर्णन कोणिक राजा के समान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 536 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
कहन्नं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति?
जयंती! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्नादानेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरतिरति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्लेणं–एवं खलु जयंती! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति।
कहन्नं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति?
जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिन्नादानवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गह-वेरमणेणं कोह-मान-माया-लोभ- पेज्ज-दोस- Translated Sutra: वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्र गुरुत्व | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 539 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं साहणणा-भेदानुवाएणं अनंतानंता पोग्गलपरियट्टा समनुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया?
हंता गोयमा! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा भेदाणुवाएणं अनंतानंता पोग्गलपरियट्टा समनुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया।
कइविहे णं भंते! पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते, तं जहा– ओरालियपोग्गलपरियट्टे, वेउव्वियपोग्गल-परियट्टे, तेयापोग्गलपरियट्टे, कम्मापोग्गलपरियट्टे, मणपोग्गलपरियट्टे, वइपोग्गलपरियट्टे, आणापाणु-पोग्गल-परियट्टे।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते, तं Translated Sutra: भगवन् ! इन परमाणु – पुद्गलों के संघात और भेद के सम्बन्ध से होने वाले अनन्तानन्त पुद्गल – परिवर्त्त जानने योग्य हैं, (क्या) इसीलिए इनका कथन किया है ? हाँ, गौतम ! ये जानने योग्य हैं, इसीलिए ये कहे गए हैं। भगवन् ! पुद्गल – परिवर्त्त कितने प्रकार का है ? गौतम ! सात प्रकार का, यथा – औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, वैक्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 540 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे?
गोयमा! जण्णं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाइं दव्वाइं ओरालिय -सरीरत्ताए गहियाइं बद्धाइं पुट्ठाइं कडाइं पट्ठवियाइं निविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं परियादियाइं परिणामियाइं निज्जिण्णाइं निसिरियाइं निसिट्ठाइं भवंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे।
एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्टेवि, नवरं–वेउव्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउव्वियसरीरप्पायोग्गाइं दव्वाइं वेउव्वियसरीरत्ताए गहियाइं, सेसं तं चेव सव्वं, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, Translated Sutra: भगवन् ! यह औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? गौतम ! औदारिकशरीर में रहते हुए जीव ने औदारिकशरीर योग्य द्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण किए हैं, बद्ध किए हैं, स्पृष्ट किए हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है; उन्हें प्रस्थापित किया है; स्थापित किए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 543 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवायवेरमणे, जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
अह भंते! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! ओग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे–एस णं कतिवण्णे जाव कति फासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे कतिवण्णे Translated Sutra: भगवन् ! प्राणातिपात – विरमण यावत् परिग्रह – विरमण तथा क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ? गौतम ! (ये सभी) वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित कहे हैं। भगवन् ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 546 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–बहुजण णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु राहू चंदं गेण्हति, एवं खलु राहू चंदं गेण्हति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि–एवं खलु राहू देवे महिड्ढीए जाव महेसक्खे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी।
राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पन्नत्ता, तं जहा–सिंघाडए जडिलए खत्तए खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे।
राहुस्स णं देवस्स विमाना पंचवण्णा पन्नत्ता, तं जहा–किण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने प्रश्न किया – भगवन् ! बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि निश्चित ही राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, तो हे भगवन् ! क्या यह ऐसा ही है? गौतम ! यह जो बहुत – से लोग परस्पर इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 547 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–चंदे ससी, चंदे ससी?
गोयमा! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरन्नो मियंके विमाने कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताइं आसन-सयन-खंभ-भंडम-त्तोवगरणाइं, अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–चंदे ससी, चंदे ससी। Translated Sutra: भगवन् ! चन्द्रमा को ‘चन्द्र शशी है’, ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र का विमान मृगांक है, उसमें कान्त देव तथा कान्ता देवियाँ हैं और आसन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (भी) कान्त हैं। स्वयं ज्योतिष्कों का इन्द्र, ज्योतिष्कों का राजा चन्द्र भी सौम्य, कान्त, सुभग, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 549 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? जहा दसमसए जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं। सूरस्स वि तहेव।
चंदिम-सूरिया णं भंते! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकज्जे अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ लद्धट्ठे कयकज्जे अणहसमग्गे पुनरवि नियगं गिहं हव्वमागए, ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुण्णं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भूत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि Translated Sutra: भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? गौतम ! दशवें शतक अनुसार राजधानी में सिंहासन पर मैथुन – निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है, यहाँ तक कहना। सूर्य के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना। भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र और सूर्य किस प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-६ राहु;उद्देशक-७ लोक | Hindi | 550 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी–केमहालए णं भंते! लोए पन्नत्ते?
गोयमा! महतिमहालए लोए पन्नत्ते–पुरत्थिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडा-कोडीओ, एवं पच्चत्थिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्ढं पि, अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं।
एयंसि णं भंते! एमहालगंसि लोगंसि अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–एयंसि णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे अया-सयस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न किया – भगवन् ! लोक कितना बड़ा है ? गौतम ! लोक महातिमहान है। पूर्वदिशा में असंख्येय कोटा – कोटि योजन है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर एवं ऊर्ध्व तथा अधोदिशा में भी असंख्येय कोटा – कोटि योजन – आयाम – विष्कम्भ वाला है। भगवन् ! इतने बड़े लोक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-८ नाग | Hindi | 552 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी–देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा?
हंता उववज्जेज्जा।
से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहिय-पाडिहेरे यावि भवेज्जा?
हंता भवेज्जा।
से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा?
हंता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा।
देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा?
हंता उववज्जेज्जा। एवं चेव जहा नागाणं।
देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में गौतम स्वामी ने यावत् पूछा – भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव च्यव कर क्या द्विशरीरी नागों में उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! होता है। भगवन् ! वह वहाँ नाग के भव में अर्चित, वन्दित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, प्रधान, सत्य, सत्यावपातरूप अथवा सन्निहित प्रतिहारक भी होता है? हाँ, गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-८ नाग | Hindi | 553 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! गोनंगूलवसभे, कुक्कुडवसभे, मंडुक्कवसभे–एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खाण-पोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्ठितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा?
समणे भगवं महावीरे वागरेइ–उववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया।
अह भंते! सीहे वग्घे, वगे, दीविए अच्छे, तरच्छे, परस्सरे–एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्प-च्चक्खाण-पोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्ठितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा?
समणे भगवं महावीरे वागरेइ–उववज्जमाणे उववन्ने त्ति Translated Sutra: भगवन् ! यदि वानरवृषभ, बड़ा मूर्गा एवं मण्डूकवृषभ, बड़ा मेंढक ये सभी निःशील, व्रतरहित, गुणरहित, मर्यादा – रहित तथा प्रत्याख्यान – पौषधोपवासरहित हों, तो मृत्यु को प्राप्त हो (क्या) इस रत्नप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होते हैं ? (हाँ, गौतम ! होते हैं;) क्योंकि उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 556 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं।
नरदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं सत्त वाससयाइं, उक्कोसेणं चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं।
धम्मदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी।
देवातिदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं बावत्तरिं वासाइं, उक्कोसेणं चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं।
भावदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। Translated Sutra: भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवों की स्थिति कितने काल की कही है ? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। भगवन् ! नरदेवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य ७०० वर्ष, उत्कृष्ट ८४लाख पूर्व है। भगवन् ! धर्मदेवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्त – मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट देशोन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 558 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति? कहिं उवज्जंति–किं नेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, देवेसु उववज्जंति।
जइ देवेसु उववज्जंति? सव्वदेवेसु उववज्जंति जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति।
नरदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता–पुच्छा।
गोयमा! नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, नो देवेसु उववज्जंति।
जइ नेरइएसु उववज्जंति? सत्तसु वि पुढवीसु उववज्जंति।
धम्मदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता–पुच्छा।
गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, देवेसु उववज्जंति।
जइ Translated Sutra: भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव मरकर तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत् अथवा देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! न तो नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, न तिर्यञ्चों में और न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु (एकमात्र) देवों में उत्पन्न होते हैं। यदि (वे) देवों में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-१ पृथ्वी | Hindi | 564 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा?
गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु १. एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जंति? २. केवतिया काउलेस्सा उववज्जंति? ३. केवतिया कण्हपक्खिया उववज्जंति? ४. केवतिया सुक्कपक्खिया उववज्जंति? ५. केवतिया सण्णी उववज्जंति? Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! (नरक – ) पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात, यथा – रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नारकावास हैं ? गौतम ! तीस लाख। भगवन् ! वे नारकावास संख्येय (योजन) विस्तृत हैं या असंख्येय (योजन) विस्तृत हैं ? गौतम ! वे संख्येय (योजन) विस्तृत भी हैं और असंख्येय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 569 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा।
अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए पंच अनुत्तरा महतिमहालया महानिरया पन्नत्ता, तं जहा–काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे। ते णं नरगा छट्ठीए तमाए पुढवीए नरएहिंतो महत्तरा चेव, महावित्थिण्णतरा चेव, महोगासतरा चेव, महापइरिक्कतरा चेव, नो तहा महप्पवेसणतरा चेव, आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, अनोमानतरा चेव। तेसु णं नरएसु नेरइया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियत्तरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, नो तहा अप्पक-म्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा Translated Sutra: भगवन् ! नरकपृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात, यथा – रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी। अधःसप्तमा पृथ्वी में पाँच अनुत्तर और महातिमहान् नरकावास यावत् अप्रतिष्ठान तक हैं। वे नरकावास छठी तमःप्रभापृथ्वी के नरकावासों से महत्तर हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महान अवकाश वाले हैं, बहुत रिक्त स्थान वाले हैं; किन्तु | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 578 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे?
गोयमा! जहन्नपदे तिहिं, उक्कोसपदे छहिं। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? सत्तहिं। केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायप-देसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुट्ठे? सिय पुट्ठे सिय नो पुट्ठे, जइ पुट्ठे नियमं अनंतेहिं।
एगे भंते! अधम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे?
गोयमा! जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सतहिं। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वह जघन्य पद में तीन प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? (गौतम ! वह) जघन्य पद में चार प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सात अधर्मास्तिकाय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 579 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! जीवत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे?
जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? सत्तहिं। केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स।
एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे?
एवं जहेव जीवत्थिकायस्स।
दो भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा?
गोयमा! जहन्नपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहिं। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा? बारसहिं। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स।
तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वह जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से और उत्कृष्टपद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। (भगवन् !) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह स्पृष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 580 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जत्थ णं भंते! एगे धम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे, तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा?
नत्थि एक्को वि। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया आगासत्थिकाय-पदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ओगाढा? अनंता। केवतिया पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा? अनंता। केवतिया अद्धासमय ओगाढा? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अनंता।
जत्थ णं भंते! एगे अधम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा?
एक्को। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? नत्थि एक्को वि। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स।
जत्थ णं भंते! एगे आगासत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा Translated Sutra: भगवन् ! जहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ है, वहाँ धर्मास्तिकाय के दूसरे कितने प्रदेश अवगाढ़ है? गौतम ! दूसरा एक भी प्रदेश अवगाढ़ नहीं है। भगवन् ! वहाँ अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ हैं ? (गौतम !) वहाँ एक प्रदेश अववाढ़ होता है। (भगवन् ! वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? (गौतम !) एक प्रदेश | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 587 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए–वण्णओ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदाइ पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर किसी अन्य दिन राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से यावत् विहार कर देते हैं। उस काल, उस समय में चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामका चैत्य था। किसी दिन श्रमण भगवान महावीर पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए यावत् विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 588 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं उद्दायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उद्दायने राया ममं अवहाय नियगं भाइणेज्जं केसिं कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए– इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मनोमानसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी दिन रात्रि के पीछले प्रहर में कुटुम्ब – जागरण करते हुए अभीचिकुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ – ‘मैं उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ। फिर भी उदायन राजा ने मुझे छोड़कर अपने भानजे केशी कुमार को राजसिंहासन पर स्थापित करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-७ भाषा | Hindi | 592 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! काये पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तं जहा–ओरालिए, ओरालियमीसए, वेउव्विए, वेउव्विय-मीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए।
कतिविहे णं भंते! मरणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे मरणे पन्नत्ते, तं जहा–आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आतियंतियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे।
आवीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे।
दव्वावीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा– नेरइयदव्वावीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदव्वावीचिय-मरणे, मनुस्सदव्वावीचियमरणे, Translated Sutra: भगवन् ! मरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आवीचिकमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिक – मरण, बालमरण और पण्डितमरण। भगवन् ! आवीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का। द्रव्यावीचिकमरण, क्षेत्रावीचिकमरण, कालावीचिकमरण, भवावीचिकमरण और भावावीचिकमरण। भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-९ अनगारवैक्रिय | Hindi | 594 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अनगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा?
हंता उप्पएज्जा।
अनगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाइं पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाइं रूवाइं विउव्वित्तए?
गोयमा! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अनगारे वि भावि-अप्पा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा! अनगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। एस णं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! जैसे कोई पुरुष रस्सी से बंधी हुई घटिका लेकर चलता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी रस्सी से बंधी हुई घटिका स्वयं हाथ में लेकर ऊंचे आकाश में उड़ सकता है ? हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। भगवन् ! भावितात्मा अनगार रस्सी से बंधी हुई घटिका हाथ में ग्रहण करने रूप कितने रूपों की विकुर्वणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१ चरम | Hindi | 597 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–अनगारे णं भंते! भावियप्पा चरमं देवावासं वीतिक्कंते, परमं देवावासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! कहिं गती? कहिं उववाए पन्नत्ते?
गोयमा! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा देवावासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स उववाए पन्नत्ते। से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, (जिसने) चरम देवलोक का उल्लंघन कर लिया हो, किन्तु परम को प्राप्त न हुआ हो, यदि वह इस मध्य में ही काल कर जाए तो भन्ते ! उसकी कौन – सी गति होती है, कहाँ उपपात होता है ? गौतम ! जो वहाँ परिपार्श्व में उस लेश्या वाले देवावास होते हैं, वही उसकी गति होती है और वहीं उसका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१ चरम | Hindi | 598 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कंते, परमं असुरकुमारावासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! कहिं गती? कहिं उववाए पन्नत्ते?
गोयमा! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा असुरकुमारावासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स उववाए पन्नत्ते। से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एवं जाव थणियकुमा-रावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ।
नेरइयाणं भंते! कहं सीहा गती? कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते?
गोयमा! से जहानामए–केइपुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे दढपाणि-पाय-पास-पिट्ठंतरोरुपरिणते Translated Sutra: भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, जो चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन कर गया और परम असुर – कुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ, यदि बीच में ही वह काल कर जाए तो उसकी कौन – सी गति होती है, उसका कहाँ उपपात होता है? गौतम ! पूर्ववत्। इसी प्रकार स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्कावास और वैमानिकावास पर्यन्त जानना भगवन् ! नैरयिक जीवों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-२ उन्माद | Hindi | 601 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! पज्जण्णे कालवासी वुट्ठिकायं पकरेंति?
हंता अत्थि।
जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया वुट्ठिकायं काउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति?
गोयमा! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अब्भिंतरपरिसए देवे सद्दावेइ। तए णं ते अब्भिंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सद्दावेंति।
तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति। तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा वुट्ठिकाइए Translated Sutra: भगवन् ! कालवर्षी मेघ वृष्टिकाय बरसाता है ? हाँ, गौतम ! वह बरसाता है। भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करने की ईच्छा करता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परीषद् के देवों को बुलाता है। वे आभ्यन्तर परीषद् के देव मध्यम परीषद् के देवों को बुलाते हैं। वे मध्यम परीषद् के देव, बाह्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 607 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! पोग्गले तीतमनंतं सासयं समयं लुक्खी? समयं अलुक्खी? समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा? पुव्विं च णं करणेणं अनेगवण्णं अनेगरूवं परिणाम परिणमइ? अहे से परिणामे निज्जिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे सिया?
हंता गोयमा! एस णं पोग्गले तीतमनंतं सासयं समयं तं चेव जाव एगरूवे सिया।
एस णं भंते! पोग्गले पडुप्पन्नं सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव।
एस णं भंते! पोग्गले अनागय सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव।
एस णं भंते! खंधे तीतमनंतं सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव खंधे वि जहा पोग्गले। Translated Sutra: भगवन् ! क्या यह पुद्गल अनन्त, अपरिमित और शाश्वत अतीतकाल में एक समय तक रूक्ष स्पर्श वाला रहा, एक समय तक अरूक्ष स्पर्श वाला और एक समय तक रूक्ष और स्निग्ध दोनों प्रकार के स्पर्श वाला रहा ? (तथा) पहले करण के द्वारा अनेक वर्ण और अनेक रूप वाले परिणाम से परिणत हुआ और उसके बाद उस अनेक वर्णादि परिणाम के क्षीण होने पर वह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 608 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! जीवे तीतमनंतं सासयं समयं दुक्खी? समयं अदुक्खी? समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा? पुव्विं च णं करणेणं अनेगभावं अनेगभूयं परिणामं परिणमइ? अहे से वेयणिज्जे निजिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूए सिया?
हंता गोयमा! एस णं जीवे तीतमनंतं सासयं समयं जाव एगभूए सिया। एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं, एवं अनागयमनंतं सासयं समयं। Translated Sutra: भगवन् ! क्या यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदुःखी – तथा एक समय में दुःखी और अदुःखी था ? तथा पहले करण द्वारा अनेक भाव वाले अनेकभूत परिणाम से परिणत हुआ था ? और इसके बाद वेदनीयकर्म की निर्जरा होने पर जीव एकभाव वाला और एकरूप वाला था ? हाँ, गौतम ! यह जीव यावत् एकरूप वाला था। इसी प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 610 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! किं चरिमे? अचरिमे?
गोयमा! दव्वादेसेणं नो चरिमे, अचरिमे। खेत्तादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। भावादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। Translated Sutra: भगवन् ! परमाणु – पुद्गल चरम है, या अचरम है ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा चरम नहीं, अचरम हैं; क्षेत्र की अपेक्षा कथंचित् चरम हैं और कथंचित् अचरम हैं; काल की अपेक्षा कदाचित् चरम हैं और कदाचित् अचरम हैं तथा भावादेश से भी कथंचित् चरम हैं और कथंचित् अचरम हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 618 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव परिसा पडिगया। गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी चिर संसिट्ठोसि मे गोयमा! चिरसंथुओसि मे गोयमा! चिरपरिचिओसि मे गोयमा! चिरजुसिओसि मे गोयमा! चिरानुगओसि मे गोयमा! चिरानुवत्तीसि मे गोयमा! अनंतरं देवलोए अनंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इओ चुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् परीषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई। श्रमण भगवान महावीर ने कहा – गौतम ! तू मेरे साथ चिर – संश्लिष्ट है, हे गौतम ! तू मेरा चिर – संस्तृत है, तू मेरा चिर – परिचित भी है। गौतम ! तू मेरे साथ चिर – सेवित या चिरप्रीत है। चिरकाल से हे गौतम ! तू मेरा अनुगामी है। तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है, गौतम ! इससे पूर्व | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 620 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! तुल्लए पन्नत्ते?
गोयमा! छव्विहे तुल्लए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वतुल्लए, खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भावतुल्लए, संठाणतुल्लए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–दव्वतुल्लए-दव्वतुल्लए?
गोयमा! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गल-वइरित्तस्स दव्वओ नो तुल्ले। दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले। एवं जाव दसपएसिए। तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसिय- वइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ Translated Sutra: भगवन् ! तुल्य कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम छह प्रकार का यथा – द्रव्यतुल्य, क्षेत्रतुल्य, काल – तुल्य, भवतुल्य, भावतुल्य और संस्थानतुल्य। भगवन् ! ‘द्रव्यतुल्य’ द्रव्यतुल्य क्यों कहलाता है ? गौतम ! एक परमाणु – पुद्गल, दूसरे परमाणु – पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य है, किन्तु परमाणु – पुद्गल से भिन्न दूसरे पदार्थों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 621 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भत्तपच्चक्खायए णं भंते! अनगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति?
हंता गोयमा! भत्तपच्चक्खायए णं अनगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–भत्तपच्चक्खायए णं अनगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति?
गोयमा! भत्तपच्चक्खायए णं अनगारे मुच्छिए Translated Sutra: भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार क्या (पहले) मूर्च्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार ग्रहण करता है, इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है और तदनन्तर अमूर्च्छित, अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार पूर्वोक्त रूप से आहार करता है। भगवन् ! किस कारण |