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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 337 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अनुगमे? अनुगमे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–सुत्तानुगमे य निज्जुत्तिअनुगमे य।
से किं तं निज्जुत्तिअनुगमे? निज्जुत्तिअनुगमे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–निक्खेवनिज्जुत्ति-अनुगमे उवग्घायनिज्जुत्तिअनुगमे सुत्तफासियनिज्जुत्तिअनुगमे।
से किं तं निक्खेवनिज्जुत्तिअनुगमे? निक्खेवनिज्जुत्तिअनुगमे अनुगए। से तं निक्खेव-निज्जुत्तिअनुगमे।
से किं तं उवग्घायनिज्जुत्तिअनुगमे? उवग्घायनिज्जुत्तिअनुगमे–इमाहिं दोहिं दारगाहाहिं अनुगंतव्वे, तं जहा– Translated Sutra: भगवन् ! अनुगम का क्या है ? अनुगम के दो भेद हैं। सूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम। निर्यक्त्यनुगम के तीन प्रकार हैं। यथा – निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम। (नाम स्थापना आदि रूप) निक्षेप की निर्युक्ति का अनुगम पूर्ववत् जानना। आयुष्मन् ! उपोद्घातनिर्युक्ति | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 518 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ।
तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ | Hindi | 900 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] २७. भव २८. आगरिसे, २९-३. कालंतरे य ३१. समुग्घाय ३२. खेत्त ३३. फुसणा य ।
३४. भावे ३५. परिमाणे खलु, ३६. अप्पाबहुयं नियंठाणं ॥ Translated Sutra: भव, आकर्ष, काल, अन्तर, समुद्घात, क्षेत्र, स्पर्शना, भाव, परिमाण और अल्पबहुत्व। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ | Hindi | 928 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुलागस्स णं भंते! एगभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं तिन्नि।
बउसस्स णं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं सतग्गसो। एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि।
नियंठस्स णं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं दोण्णि।
सिणायस्स णं–पुच्छा।
गोयमा! एक्को।
पुलागस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त।
बउसस्स–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो। एवं जाव कसायकुसीलस्स।
नियंठस्स णं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं दोण्णि, उक्कोसेणं पंच।
सिणायस्स–पुच्छा।
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! पुलाक के एकभव – ग्रहण – सम्बन्धी आकर्ष कितने कहे हैं ? गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन आकर्ष। भगवन् ! बकुश ? गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट सैकड़ों आकर्ष होते हैं। इसी प्रकार प्रतिसेवना और कषायकुशील को भी जानना। भगवन् ! निर्ग्रन्थ ? गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं। भगवन् ! स्नातक के ? गौतम ! उसको | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-७ संयत | Hindi | 952 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइयसंजयस्स णं भंते! एगभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं जहा बउसस्स।
छेदोवट्ठावणियस्स–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं वीसपुहत्तं।
परिहारविसुद्धियस्स–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं तिन्नि।
सुहुमसंपरायस्स–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि।
अहक्खायस्स–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं दोण्णि।
सामाइयसंजयस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता?
गोयमा! जहा बउसे।
छेदोवट्ठावणियस्स–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं दोण्णि, उक्कोसेणं उवरिं नवण्हं सयाणं अंतो सहस्सस्स। परिहारविसुद्धियस्स Translated Sutra: भगवन् ! सामायिकसंयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट शतपृथ – क्त्व। भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयत का एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट बीस – पृथक्त्व। भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत के ? गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन। भगवन् ! सूक्ष्म – सम्परायसंयत के ? गौतम ! जघन्य | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 151 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नामं अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंधाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमियाओ मणसमियाओ वइसमियाओ काय-समियाओ मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ गुत्ताओ गुत्तिंदियाओ गुत्तबंभचारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरंति।
तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए Translated Sutra: उस काल और उस समय में ईर्या – समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करती – करती तेतलिपुर नगर में आई। आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 349 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं।
परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि ।। Translated Sutra: [जैन-दर्शन-मान्य स्वभाववाद की इस प्रक्रिया में पुद्गल (जड़) तत्त्व भी बिना किसी चेतन की सहायता के स्वयं ही पृथिवी आदि महाभूतों के रूप में परिणमन कर जाता है। सो कैसे, वही प्रक्रिया इन गाथाओं द्वारा बतायी गयी है।] परमाणु के स्पर्श-गुण की दो प्रधान शक्तियाँ हैं - स्निग्धत्व व रूक्षत्व अर्थात् (Attractive force and Repulsive force)। ये दोनों | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 349 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्धत्वं च रूक्षत्वम्।
परिणामाद्भणितं यावदनन्तत्वमनुभवति ।। Translated Sutra: [जैन-दर्शन-मान्य स्वभाववाद की इस प्रक्रिया में पुद्गल (जड़) तत्त्व भी बिना किसी चेतन की सहायता के स्वयं ही पृथिवी आदि महाभूतों के रूप में परिणमन कर जाता है। सो कैसे, वही प्रक्रिया इन गाथाओं द्वारा बतायी गयी है।] परमाणु के स्पर्श-गुण की दो प्रधान शक्तियाँ हैं - स्निग्धत्व व रूक्षत्व अर्थात् (Attractive force and Repulsive force)। ये दोनों | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
द्वीप समुद्र | Hindi | 167 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नामं दारे पन्नत्ते? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साइं अबाधाए जंबुद्दीवे दीवे पुरच्छिमपेरंते लवणसमुद्द-पुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीताए महानदीए उप्पिं, एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नामं दारे पन्नत्ते–अट्ठ जोयणाइं उढ्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं, तावतियं चेव पवेसेणं, ...
...सेए वरकनगथूभियागे ईहामिय उसभ तुरग नर मगर विहग वालग किन्नर रुरु सरभ चमर कुंजर वनलय पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गतवइरवेदियापरिगताभिरामे विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिए Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप का विजयद्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर तथा जंबूद्वीप के पूर्वान्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जंबूद्वीप का विजयद्वार है। यह द्वार आठ योजन का ऊंचा, चार योजन का चौड़ा और इतना ही इसका | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 377 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ठियासणत्था सइया परंमुही, सुयलंकरिया वा अनलंकरिया वा।
निक्खमाणा पमया हि दुब्बलं, मनुस्समालेह-गया वि करिस्सई॥ Translated Sutra: अलग आसन पर बैठी हुई, शयन में सोती हुई, मुँह फिराकर, अलंकार पहने हो या न पहने हो, प्रत्यक्ष न हो लेकिन तसवीर में बताई हो उनको भी प्रमाद से देखे तो दुर्बल मानव को आकर्षण करते हैं। यानि देखकर राग हुए बिना नहीं रहता। इसलिए गर्मी वक्त के मध्याह्न के सूर्य को देखकर जिस तरह दृष्टिबंध हो जाए, वैसे स्त्री को चित्रामणवाली | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 402 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (२) एवं तु गोयमा जीए इत्थीए-ति कालं पुरिससंजोग-संपत्ती न संजाया। अहा णं पुरिस-संजोग-संपत्तीए वि साहीणाए जाव णं तेरसमे चोद्दसमे पन्नरसमे णं च समएणं पुरिसेणं सद्धिं न संजुत्ता नो वियम्मं समायरियं,
(३) से णं, जहा घन-कट्ठ-तण-दारु-समिद्धे केई गामे इ वा नगरे इ वा, रन्ने इ वा, संपलित्ते चंडानिल-संधुक्किए पयलित्ताणं पय-लित्ताणं णिडज्झिय निडज्झिय चिरेणं उवसमेज्जा
(४) एवं तु णं गोयमा से इत्थी कामग्गी संपलित्ता समाणी णिडज्झिय-निडज्झिय समय-चउक्केणं उवसमेज्जा
(५) एवं इगवीसमे वावीसमे जाव णं सत्ततीसइमे समए जहा णं पदीव-सिहा वावण्णा पुन-रवि सयं वा तहाविहेणं चुन्न-जोगेणं वा पयलिज्जा Translated Sutra: हे गौतम ! उसी तरह जिस स्त्री को तीन काल पुरुष संयोग की प्राप्ति नहीं हुई। पुरुष संयोग संप्राप्ति स्वाधीन होने के बावजूद भी तेरहवे – चौदहवे, पंद्रहवे समय में भी पुरुष के साथ मिलाप न हुआ। यानि संभोग कार्य आचरण न किया। तो जिस तरह कईं काष्ठ लकड़े, ईंधण से भरे किसी गाँव, नगर या अरण्य में अग्नि फैल उठा और उस वक्त प्रचंड़ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-४ | Hindi | 197 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू रायं अत्तीकरेति, अत्तीकरेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी राजा को वश करे, प्रशंसा करे, आकर्षित करे – करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र – १९७–१९९ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-४ | Hindi | 200 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू रायारक्खियं अत्तीकरेति, अत्तीकरेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी राजा के रक्षक को, नगर रक्षक को, निगम यानि कि व्यापार के स्थान के रक्षक को, देश रक्षक को, सर्व रक्षक को (इस पाँच में से किसी को भी) वश करे, प्रशंसा करे, आकर्षित करे, वैसा करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे। सूत्र – २००–२१४ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-४ | Hindi | 235 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू गामारक्खियं अत्तीकरेति, अत्तीकरेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी ग्रामारक्षक को, देशारक्षक को, सीमारक्षक को, अरण्यारक्षक को, सर्वरक्षक को (इन पाँच या उसमें से किसी को) वश करे, खुश करे, आकर्षित करे, करवाए या वैसा करनेवाले को अनुमोदे तो प्रायश्चित्त। सूत्र – २३५–२४९ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-५ | Hindi | 340 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू सचित्ताइं दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेति, करेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी सचित्त, रंगीन, कईं रंग से आकर्षक, ऐसे सीसम की लकड़ी का, वांसा का या नेतर का बनाए, धारण करे, उपभोग करे, यह कार्य करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र – ३४०–३४८ | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 512 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रायगिहे धम्मरुई असाढभूई य खुड्डओ तस्स ।
रायनडगेहपविसण संभोइय मोयए लंभो ॥ Translated Sutra: आहार पाने के लिए दूसरों को पता न चले उस प्रकार से मंत्र, योग, अभिनय आदि से अपने रूप में बदलाव लाकर आहार पाना। इस प्रकार से पाया हुआ आहार मायापिंड़ नाम के दोष से दूषित माना जाता है। राजगृही नगरी में सिंहस्थ नाम का राजा राज्य करता था। उस नगर में विश्वकर्मा नाम का जानामाना नट रहता था। उसको सभी कला में कुशल अति स्वरूपवान | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-६ व्युत्क्रान्ति |
Hindi | 326 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १ बारस २ चउवीसाइं, ३ सअंतरं ४ एगसमय ५ कत्तो य ।
६ उव्वट्टण ७ परभवियाउयं ८ च अट्ठेव आगरिसा ॥ Translated Sutra: द्वादश, चतुर्विशति, सान्तर, एकसमय, कहाँ से ? उद्वर्त्तना, परभव – सम्बन्धी आयुष्य और आकर्ष, ये आठ द्वार (इस व्युत्क्रान्तिपद में) हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-६ व्युत्क्रान्ति |
Hindi | 352 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविधे णं भंते! आउयबंधे पन्नत्ते? गोयमा! छव्विधे आउयबंधे पन्नत्ते, तं जहा–जातिनाम-निहत्ताउए, गइनामनिहत्ताउए, ठितीनामनिहत्ताउए, ओगाहणाणामनिहत्ताउए, पदेसणामनिहत्ताउए, अनुभावनामनिहत्ताउए।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे आउयबंधे पन्नत्ते? गोयमा! छव्विहे आउयबंधे पन्नत्ते, तं जहा–जातिनामनिहत्ताउए, गतिनामनिहत्ताउए, ठितीनामनिहत्ताउए, ओगाहणानामनिहत्ताउए, पदेसनाम-निहत्ताउए, अनुभावनामनिहत्ताउए। एवं जाव वेमानियाणं।
जीवा णं भंते! जातिणामणिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पकरेंति? गोयमा! जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं अट्ठहिं।
नेरइया णं भंते! जाइनामनिहत्ताउयं Translated Sutra: भगवन् ! आयुष्य का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! छह प्रकार का। जातिनामनिधत्तायु, गतिनाम – निधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु, अवगाहनानामनिधत्तायु, प्रदेशनामनिधत्तायु और अनुभावनामनिधत्तायु। भगवन् ! नैरयिकों का आयुष्यबन्ध कितने प्रकार का कहा है ? पूर्ववत् जानना। इसी प्रकार वैमानिकों तक समझ लेना। भगवन् | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 8 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कयरे? जे ते सोयरिया मच्छबंधा साउणिया वाहा कूरकम्मादीवित बंधप्पओग तप्प गल जाल वीरल्लग आयसीदब्भवग्गुरा कूडछेलिहत्था हरिएसा ऊणिया य वीदंसग पासहत्था वनचरगा लुद्धगा य महुघात-पोतघाया एणीयारा पएणीयारा सर दह दीहिअ तलाग पल्लल परिगालण मलण सोत्तबंधण सलिलासयसोसगा विसगरलस्स य दायगा उत्तण वल्लर दवग्गिणिद्दय पलीवका।
कूरकम्मकारी इमे य बहवे मिलक्खुया, के ते?
सक जवण सवर बब्बर कायमुरुंड उड्ड भडग निण्णग पक्काणिय कुलक्ख गोड सीहल पारस कोंच अंध दविल चिल्लल पुलिंद आरोस डोंब पोक्कण गंधहारग बहलीय जल्ल रोम मास बउस मलया य चुंचुया य चूलिय कोंकणगा मेद पल्हव मालव मग्गर आभासिया अणक्क Translated Sutra: वे हिंसक प्राणी कौन हैं ? शौकरिक, मत्स्यबन्धक, मृगों, हिरणों को फँसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा वागुरिक, चीता, बन्धनप्रयोग, छोटी नौका, गल, जाल, बाज पक्षी, लोहे का जाल, दर्भ, कूटपाश, इन सब साधनों को हाथ में लेकर फिरने वाले, चाण्डाल, चिड़ीमार, बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर, मधु – मक्खियों का घात करने वाले, पोतघातक, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ अपरिग्रह |
Hindi | 45 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जो सो वीरवरवयणविरतिपवित्थर-बहुविहप्पकारो सम्मत्तविसुद्धमूलो धितिकंदो विणयवेइओ निग्गततिलोक्कविपुल-जसनिचियपीणपीवरसुजातखंधो पंचमहव्वयविसालसालो भावणतयंत ज्झाण सुभजोग नाण पल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हयफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि सिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खर मोत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवर-वरपायवो। चरिमं संवरदारं।
जत्थ न कप्पइ गामागर नगर खेड कब्बड मडंब दोणमुह पट्टणासमगयं च किंचि अप्पं व बहुं व अणुं व थूलं व तस थावरकाय दव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं। न हिरण्ण सुवण्ण खेत्त वत्थुं, न दासी दास भयक पेस हय गय गवेलगं व, न जाण जुग्ग सयणासणाइं, Translated Sutra: श्रीवीरवर – महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर – पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है। विनय इसकी वेदिका है। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भावनाएं इस संवरवृक्ष | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 15 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आभिओगिए देवे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए पीइमने परमसोमनस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तहत्ति आणाए विनएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाइं दंडं निसिरति, तं जहा–रयनाणं वइराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलगाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजनाणं अंजनंपुलगाणं रययाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडित्ता Translated Sutra: तदनन्तर वह आभियोगिक देव सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार का आदेश दिये जाने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ यावत् प्रफुल्ल हृदय हो दोनों हाथ जोड़ यावत् आज्ञा को सूना यावत् उसे स्वीकार करके वह ईशानकोण में आया। वहाँ आकर वैक्रिय समुद्घात किया और संख्यात योजन ऊपर – नीचे लंबे दण्ड बनाया यावत् यथाबादर पुद्गलों को | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Hindi | 66 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेण पुण कारणेणं नो उवागच्छइ–एवं खलु भंते! मम अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्माणुया धम्मपलोई धम्मपलज्जणी धम्मसीलसमुयाचारा धम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगयजीवा जीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव संवर निज्जर किरिया-हिगरण बंधप्पमोक्खकुसला असहिज्जा देवासुर णाग सुवण्ण जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस गरुल गंधव्व महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा, निग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया निव्वितिगिच्छा लद्धट्ठा गहियट्ठा अभिगयट्ठा Translated Sutra: पश्चात् प्रदेशी राजा ने कहा – हे भदन्त ! मेरी दादी थीं। वह इसी सेयविया नगरी में धर्मपरायण यावत् धार्मिक आचार – विचार पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने वाली, जीव – अजीव आदि तत्त्वों की ज्ञाता श्रमणोपासिक यावत् तप से आत्मा को भावित करती हुई अपना समय व्यतीत करती थी इत्यादि और आपके कथनानुसार वे पुण्य का उपार्जन | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 252 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कइविहे णं भंते! आउगबंधे पन्नत्ते?
गोयमा! छव्विहे आउगबंधे पन्नत्ते, तं जहा– जाइनामनिधत्ताउके गतिनामनिधत्ताउके ठिइ-नामनिधत्ताउके पएसनामनिधत्ताउके अणुभागनामनिधत्ताउके ओगाहणानामनिधत्ताउके।
नेरइयाणं भंते! कइविहे आउगबंधे पन्नत्ते?
गोयमा! छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा– जातिनाम निधत्ताउके गइनामनिधत्ताउके ठिइनाम-निधत्ताउके पएसनामनिधत्ताउके अणुभागनामनिधत्ताउके ओगाहणानामनिधत्ताउके।
एवं जाव वेमाणियत्ति।
निरयगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं बारसमुहुत्ते।
एवं तिरियगई मनुस्सगई देवगई।
सिद्धिगई णं भंते! केवइयं Translated Sutra: भगवन् ! आयुकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आयुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है। जैसे – जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामनिधत्तायुष्क। भगवन् ! नारकों का आयुबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-३ | Hindi | 190 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए, तं जहा–
१.अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने, से णं मानुस्सए कामभोगे नो आढाति, नो परियाणाति, नो ‘अट्ठं बंधति’, नो नियाणं पगरेति, नो ठिइपकप्पं पगरेति।
२. अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने, तस्स णं मानुस्सए पेम्मे वोच्छिन्ने दिव्वे संकंते भवति।
३. अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने, तस्स णं एवं भवति– ‘इण्हिं गच्छं Translated Sutra: तीन कारणों से देवलोक में नवीन उत्पन्न देव मनुष्य – लोक में शीघ्र आने की ईच्छा करने पर भी शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता है, यथा – देवलोक में नवीन उत्पन्न देव दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित होने से, गृहयुद्ध होने से, स्नेहपाश में बंधा हुआ होने से, तन्मय होने से वह मनुष्य – सम्बन्धी कामभोगों को आदर नहीं देता है, अच्छा | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 370 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि करंडगा पन्नत्ता, तं जहा–सोवागकरंडए, वेसियाकरंडए, गाहावतिकरंडए, रायकरंडए।
एवामेव चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तं जहा– सोवागकरंडगसमाने, वेसियाकरंडगसमाने, गाहावति-करंडगसमाने, रायकरंडगसमाने। Translated Sutra: करंडक चार प्रकार के हैं। श्वपाक का करंडक, वेश्याओं का करंडक, समृद्ध गृहस्थ का करंडक, राजा का करंडक। इसी प्रकार आचार्य चार प्रकार के हैं। श्वपाक करंडक समान आचार्य केवल लोकरंजक ग्रन्थों का ज्ञाता होता है किन्तु श्रमणाचार का पालक नहीं होता। वेश्याकरंड समान आचार्य जिनागमों का सामान्य ज्ञाता होता है किन्तु | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-१ | Hindi | 105 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जइ कालुणियाणि कासिया जइ रोयंति य पुत्तकारणा ।
दवियं भिक्खुं समुट्ठियं नो ‘लब्भंति णं सण्णवेत्तए’ ॥ Translated Sutra: यदि वे उस श्रमण के समक्ष करुण विलाप कर आकर्षित करना चाहे, तो भी वे साधना में उद्यत उस भिक्षु को समझाकर गृहस्थ में नहीं ले जा सकते। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ आहार परिज्ञा |
Hindi | 675 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–इह खलु आहारपरिण्णा नामज्झयणे। तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा सव्वओ सव्वावंति च णं लोगंसि ‘चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जंति, तं जहा–अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया’।
तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, ‘तज्जोणिया तस्सं-भवा तव्वक्कमा’, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा नानाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउट्टंति।
ते जीवा तासिं नानाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?] Translated Sutra: आयुष्मन् ! मैंने सूना है, उन भगवान श्री महावीर स्वामी ने कहा था – इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में आहारपरिज्ञा अध्ययन है, जिसका अर्थ यह है – इस समग्र लोक में पूर्व आदि दिशाओं तथा ऊर्ध्व आदि विदिशाओं में सर्वत्र चार प्रकार के बीजकाय वाले जीव होते हैं, अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज एवं स्कन्धबीज। उन बीजकायिक जीवों में जो | |||||||||
Vanhidasha | वह्निदशा | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ निषध |
Hindi | 3 | Sutra | Upang-12 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पंचमस्स वग्गस्स वण्हिदसाणं दुवालस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स वण्हिदसाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नामं नयरी होत्था–दुवालसजोयणायामा नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं रेवतए नामं पव्वए होत्था–तुंगे गगनतलमनुलिहंत-सिहरे नानाविहरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लया-वल्ली-परिगयाभिरामे हंस-मिय-मयूर-कोंच-सारस-चक्कवाग-मदनसाला-कोइलकुलोववेए Translated Sutra: हे भदन्त ! श्रमण यावत् संप्राप्त भगवान ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती – नगरी थी। वह पूर्व – पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर – दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, उसका निर्माण स्वयं धनपति ने अपने मतिकौशल से किया था। स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ प्राकार और पंचरंगी मणियों के | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-२ उज्झितक |
Hindi | 11 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
तए णं से सुहम्मे अनगारे जंबू-अनगारं एवं वयासी–एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे।
तस्स णं वाणियगामस्स उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए दूइपलासे नामं उज्जाने होत्था।
तत्थ णं दूइपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था।
तत्थ णं वाणियगामे नयरे मित्ते नामं राया होत्था–वण्णओ।
तस्स णं मित्तस्स रन्नो सिरी नामं देवी होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं वाणियगामे कामज्झया Translated Sutra: हे भगवन् ! यदि मोक्ष – संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो – विपाकसूत्र के द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ? इसके उत्तर में श्रीसुधर्मा अनगार ने श्रीजम्बू अनगार को इस प्रकार कहा – हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नामक नगर था जो ऋद्धिस्तिमित | |||||||||
Virastava | Ardha-Magadhi | Hindi | 14 | Gatha | Painna-10B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] रागाइवेरिनिक्किंतणेण, दुहओ वि वयसमाहाणा ।
जयसत्तुक्करिसगुणाइएहिं, तेनं ‘जिनो’ देव! ॥ दारं ५ । Translated Sutra: राग आदि वैरी को दूर करके, दुःख और क्लेश का समाधान किया है यानि निवारण किया है। गुण आदि से शत्रु को आकर्षित करके जय किया है इसलिए हे जिनेश्वर ! तुम देव हो। |