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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२७ खलुंकीय |
Hindi | 1069 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सो वि अंतरभासिल्लो दोसमेव पकुव्वई ।
आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०६६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1079 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभिनिबोहियं ।
ओहीनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ॥ Translated Sutra: उन में ज्ञान पाँच प्रकार का है – श्रुत ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनो ज्ञान और केवल ज्ञान। यह पाँच प्रकार का ज्ञान सब द्रव्य, गुण और पर्यायों का ज्ञान है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। सूत्र – १०७९, १०८० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1084 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणो ।
भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं ॥ Translated Sutra: गति धर्म का लक्षण है, स्थिति अधर्म का लक्षण है, सभी द्रव्यों का भाजन अवगाहलक्षण आकाश है। वर्तना काल का लक्षण है। उपयोग जीव का लक्षण है, जो ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से पहचाना जाता है। सूत्र – १०८४, १०८५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1098 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जेण अत्थओ दिट्ठं ।
एक्कारस अंगाइं पइण्णगं दिट्ठिवाओ य ॥ Translated Sutra: जिसने ग्यारह अंग, प्रकीर्णक, दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ – सहित प्राप्त किया है, वह ‘अभिगमरुचि’ है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1099 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा ।
सव्वाहि नयविहीहि य वित्थाररुइ त्ति नायव्वो ॥ Translated Sutra: समग्र प्रमाणों और नयों से जो द्रव्यों के सभी भावों को जानता है, वह ‘विस्ताररुचि’ है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1101 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो ।
अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥ Translated Sutra: जो निर्ग्रन्थ – प्रवचन में अकुशल है, साथ ही मिथ्या प्रवचनों से भी अनभिज्ञ है, किन्तु कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण अल्प – बोध से ही जो तत्त्व श्रद्धा वाला है, वह ‘संक्षेपरुचि’ है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1102 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो अत्थिकायधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च ।
सद्दहइ जिनाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥ Translated Sutra: जिन – कथित अस्तिकाय धर्म में, श्रुत – धर्म में और चारित्र – धर्म में श्रद्धा करता है, वह ‘धर्मरुचि’ वाला है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1130 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] खमावणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्व पाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काऊण निब्भए भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! क्षामणा करने से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्षमापना करने से जीव प्रह्लाद भाव को प्राप्त होता है। प्रह्लाद भाव सम्पन्न साधक सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्रीभाव को प्राप्त होता है। मैत्रीभाव को प्राप्त जीव भाव – विशुद्धि कर निर्भय होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1146 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] संभोगपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाइं खवेइ। निरालंबणस्स य आययट्ठिया जोगा भवंति। सएणं लाभेण संतुस्सइ, परलाभं नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो अभिलसइ। परलाभं अना-सायमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अनभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। Translated Sutra: भन्ते ! सम्भोग के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सम्भोग (एक – दूसरे के साथ सहभोजन आदि के संपर्क) के प्रत्याख्यान से परावलम्बन से निरालम्ब होता है। निरालम्ब होने से उसके सारे प्रयत्न आयतार्थ हो जाते हैं। स्वयं के उपार्जित लाभ से सन्तुष्ट होता है। दूसरों के लाभ का आस्वादन नहीं करता है। उसकी कल्पना, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1187 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ ओरालियकम्माइं च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढं एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्व-दुक्खाणमंतं करेइ। Translated Sutra: उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए पूर्णरूप से छोड़ता है। फिर ऋजु श्रेणि को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए सीधे लोकाग्र में जाकर साकारोपयुक्त – ज्ञानोपयोगी सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है। सभी दुःखों का अन्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1190 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पाणवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ ।
राईभोयणविरओ जीवो भवइ अनासवो ॥ Translated Sutra: प्राण – वध, मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन की विरति से एवं पाँच समिति और तीन गुप्ति से – सहित, कषाय से रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी, निःशल्य जीव अनाश्रव होता है। सूत्र – ११९०, ११९१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1213 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा ।
अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ॥ Translated Sutra: आठ प्रकार के गोचराग्र, सप्तविध एषणाऍं और अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रह – ‘भिक्षाचर्या’ तप है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1247 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्चंतकालस्स समूलगस्स सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो ।
तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ॥ Translated Sutra: अनन्त अनादि काल से सभी दुःखों और उनके मूल कारणों से मुक्ति का उपाय मैं कह रहा हूँ। उसे पूरे मन से सुनो। वह एकान्त हितरूप है, कल्याण के लिए है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1256 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसा पगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं ।
दित्तं च कामा समभिद्दवंति दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ Translated Sutra: रसों का उपयोग प्रकाम नहीं करना। रस प्रायः मनुष्य के लिए दृप्तिकर होते हैं। विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करते हैं, जैसे स्वादुफल वाले वृक्ष को पक्षी। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1257 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ ।
एविंदियग्गी वि पगामभोइणो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ Translated Sutra: जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है, उसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती। ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1263 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोक्खाभिकंखिस्स वि मानवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे ।
नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ बालमनोहराओ ॥ Translated Sutra: मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में ऐसा कुछ भी दुस्तर नहीं है, जैसे कि अज्ञानियों के मन को हरण करनेवाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1276 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: रूप और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1289 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: शब्द और परिग्रह में अतृप्त, तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1298 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि गंधे अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो सुरभि गन्ध में एकान्त आसक्त होता है, और दुर्गन्ध में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1302 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३०१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1315 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रसे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३१३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1328 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो फासे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1341 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो भावे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३४० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1346 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एविंदियत्था य मनस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मनुयस्स रागिणो ।
ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के जो विषय दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1361 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणावरणं पंचविहं सुयं आभिणिबोहियं ।
ओहिनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ॥ Translated Sutra: ज्ञानावरण कर्म पाँच प्रकार का है – श्रुत – ज्ञानावरण, आभिनिबोधिक – ज्ञानावरण, अवधि – ज्ञानावरण, मनो – ज्ञानावरण और केवल – ज्ञानावरण। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1374 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वेसिं चेव कम्माणं पएसग्गमणंतगं ।
गंठियसत्ताईयं अंतो सिद्धाण आहियं ॥ Translated Sutra: एक समय में बद्ध होने वाले सभी कर्मों का कर्मपुद्गलरूप द्रव्य अनन्त होता है। वह ग्रन्थिभेद न करनेवाले अनन्त अभव्य जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों के अन्तवे भाग जितना होता है। सभी जीवों के लिए संग्रह – कर्म – पुद्गल छहों दिशाओं में – आत्मा से स्पृष्ट सभी आकाश प्रदेशों में हैं। वे सभी कर्म – पुद्गल बन्ध | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1381 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धाणनंतभागो य अनुभागा हवंति उ ।
सव्वेसु वि पएसग्गं सव्वजीवेसुइच्छियं ॥ Translated Sutra: सिद्धों के अनन्तवें भाग जितने कर्मों के अनुभाग हैं। सभी अनुभागों का प्रदेश – परिमाण सभी भव्य और अभव्य जीवों से अतिक्रान्त है, अधिक है। इसलिए इन कर्मों के अनुभागों को जानकर बुद्धिमान साधक इनका संवर और क्षय करने का प्रयत्न करे। – ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र – १३८१, १३८२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1403 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचासवप्पवत्तो तीहिं अगुत्तो छसुं अविरओ य ।
तिव्वारंभपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य पाँच आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों में अगुप्त है, षट्काय में अविरत है, तीव्र आरम्भ में संलग्न है, क्षुद्र है, अविवेकी है – निःशंक परिणामवाला है, नृशंस है, अजितेन्द्रिय है – इन सभी योगों से युक्त, वह कृष्णलेश्या में परिणत होता है। सूत्र – १४०३, १४०४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1407 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए ।
पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य वक्र है, आचार से टेढ़ा है, कपट करता है, सरलता से रहित है, प्रति – कुञ्चक है – अपने दोषों को छुपाता है, औपधिक है – सर्वत्र छद्म का प्रयोग करता है। मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है – उत्प्रासक है – दुष्ट वचन बोलता है, चोर है, मत्सरी है, इन सभी योगों से युक्त वह कापोत लेश्या में परिणत होता है। सूत्र – १४०७, १४०८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1409 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नीयावित्ती अचवले अमाई अकुऊहले ।
विणीयविनए दंते जोगवं उवहाणवं ॥ Translated Sutra: जो नम्र है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहल है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, योगवान् है, उपधान करनेवाला है। प्रियधर्मी है, दृढधर्मी है, पाप – भीरु है, हितैषी है – इन सभी योगों से युक्त वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। सूत्र – १४०९, १४१० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1410 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पियधम्मे दढधम्मे वज्जभीरू हिएसए ।
एयजोगसमाउत्तो तेउलेसं तु परिणमे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४०९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1411 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पयणुक्कोहमाणे य मायालोभे य पयणुए ।
पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ॥ Translated Sutra: क्रोध, मान, माया और लोभ जिसके अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्तचित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, योगवान् है, उपधान करनेवाला है – जो मित – भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है – इन सभी योगों से युक्त वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। सूत्र – १४११, १४१२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1413 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता धम्मसुक्काणि ज्झायए ।
पसंतचित्ते दंतप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ॥ Translated Sutra: आर्त्त और रौद्र ध्यानों को छोड़कर जो धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, जो प्रशान्त – चित्त और दान्त है, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है – सराग हो या वीतराग, किन्तु जो उपशान्त है, जितेन्द्रिय है – इन सभी योगों से युक्त वह शुक्ल लेश्या में परिणत होता है। सूत्र – १४१३, १४१४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1440 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु ।
न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ Translated Sutra: प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तर् मुहूर्त्त व्यतीत हो जाता है और जब अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं। सूत्र – १४४०–१४४२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1449 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुसाने सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एक्कओ ।
पइरिक्के परकडे वा वासं तत्थभिरोयए ॥ Translated Sutra: अतः एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के नीचे तथा परकृत एकान्त स्थान में रहने की अभिरुचि रखे। परम संयत भिक्षु प्रासुक, अनावाध, स्त्रियों के उपद्रव से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे। सूत्र – १४४९, १४५० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1450 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासुयम्मि अनाबाहे इत्थीहिं अनभिद्दुए ।
तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४४९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1455 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विसप्पे सव्वओधारे बहुपाणविनासने ।
नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोइं न दीवए ॥ Translated Sutra: अग्नि के समान दूसरा शस्त्र नहीं है, वह सभी ओर से प्राणिनाशक तीक्ष्ण धार से युक्त है, बहुत अधिक प्राणियों की विनाशक है, अतः भिक्षु अग्नि न जलाए। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1481 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधओ परिणया जे उ दुविहा ते वियाहिया ।
सुब्भिगंधपरिणामा दुब्भिगंधा तहेव य ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल गन्ध से परिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं – सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1531 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसण्णिया ।
संसारपारनिच्छिन्ना सिद्धिं वरगइं गया ॥ Translated Sutra: ज्ञान – दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हुए, परम गति सिद्धि को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1680 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे परिकित्तिया ।
इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ॥ Translated Sutra: वे सभी लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इस निरूपण के बाद चार प्रकार से उनके काल – विभाग का कथन करूँगा। वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं। स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। सूत्र – १६८०, १६८१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1711 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संसारत्था य सिद्धा य इइ जीवा वियाहिया ।
रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा वि य ॥ Translated Sutra: इस प्रकार संसारी और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया। रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार के अजीवों का भी व्याख्यान हो गया। जीव और अजीव के व्याख्यान को सुनकर और उसमें श्रद्धा करके ज्ञान एवं क्रिया आदि सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे। सूत्र – १७११, १७१२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1719 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कंदप्पमाभिओगं किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च ।
एयाओ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होंति ॥ Translated Sutra: कांदर्पी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही और आसुरी भावनाऍं दुर्गति देनेवाली हैं। ये मृत्यु के समय में संयम की विराधना करती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1726 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कंदप्पकोक्कुइयाइं तह सीलसहावहासविगहाहिं ।
विम्हावेंतो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ Translated Sutra: जो कन्दर्प, कौत्कुच्य करता है, तथा शील, स्वभाव, हास्य और विकथा से दूसरों को हँसाता है, वह कांदर्पी भावना का आचरण करता है। जो सुख, घृतादि रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और भूति कर्म का प्रयोग करता है, वह अभियोगी भावना का आचरण करता है। जो ज्ञान की, केवल – ज्ञानी की, धर्माचार्य की, संघ की तथा साधुओं की निन्दा करता है, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1727 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति ।
सायरसइड्ढिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १७२६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1731 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए ।
छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंमए ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: इस प्रकार भव्य – जीवों को अभिप्रेत छत्तीस उत्तराध्ययनों को – उत्तम अध्यायों को प्रकट कर बुद्ध, ज्ञातवंशीय, भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Gujarati | 59 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुट्ठो य दंस-मसएहिं समरेव महामुनी ।
नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं ॥ Translated Sutra: મહામુનિ ડાંસ અને મચ્છરોનો ઉપદ્રવ થાય તો પણ સમભાવ રાખે. જેમ યુદ્ધના મોરચે હાથી બાણોની પરવા ન કરતો શત્રુનું હનન કરે છે તેમ મુનિ પરીષહની પરવા ન કરતા અંતરંગ શત્રુને હણે. દંશમશક પરીષહ, તેનાથી ત્રાસ ન પામે, તેને નિવારે નહીં, મનમાં પણ તેમના પ્રત્યે દ્વેષ ન કરે. માંસ અને લોહીને ભોગવે તો પણ દંશમશકની ઉપેક્ષા કરે, પણ તેમને | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१५ सभिक्षुक |
Gujarati | 509 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वादं विविहं समिच्च लोए सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा ।
पन्ने अभिभूय सव्वदंसी उवसंते अविहेडए स भिक्खू ॥ Translated Sutra: લોક પ્રચલિત વિવિધ ધર્મવિષયક વાદોને જાણીને પણ જે સ્વધર્મમાં સ્થિત રહે છે, કર્મો ક્ષીણ કરવામાં પ્રવૃત્ત છે, શાસ્ત્ર પરમાર્થ પ્રાપ્ત છે, પ્રાજ્ઞ છે. પરીષહોને જીતે છે, સર્વદર્શી અને ઉપશાંત છે, કોઈને અપમાનિત કરતા નથી, તે ભિક્ષુ છે. | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Gujarati | 674 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उण्हाभितत्तो संपत्तो असिपत्तं महावणं ।
असिपत्तेहिं पडंतेहिं छिन्नपुव्वो अनेगसो ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૬૫૮ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Gujarati | 978 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अग्गिहोत्तमुहा वेया जण्णट्ठी वेयसा मुहं ।
नक्खत्ताण मुहं चंदो धम्माणं कासवो मुहं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૯૭૮. વેદોનું મુખ અગ્નિહોત્ર છે, યજ્ઞોનું મુખ યજ્ઞાર્થી છે. નક્ષત્રોનું મુખ ચંદ્ર છે, ધર્મોનું મુખ કાશ્યપ – ઋષભદેવ છે. સૂત્ર– ૯૭૯. જેમ ઉત્તમ અને મનોહારી ગ્રહ આદિ હાથ જોડીને ચંદ્રની વંદના અને નમસ્કાર કરતા એવા સ્થિત છે. તે પ્રમાણે જ ઋષભદેવ છે. સૂત્ર– ૯૮૦. વિદ્યા બ્રાહ્મણની સંપત્તિ છે, યજ્ઞવાદી તેનાથી અનભિજ્ઞ | |||||||||
Uttaradhyayan | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Gujarati | 42 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहायरियं सया ।
तमायरंतो ववहारं गरहं नाभिगच्छई ॥ Translated Sutra: જે વ્યવહાર ધર્મથી અર્જિત છે, સદા પ્રબુદ્ધ આચાર્યો વડે આચરિત છે, તે વ્યવહારને આચરતો મુનિ કદી નિંદાને ન પામે. |