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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 752 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आगंतगारे आरामगारे समणे उ भीते न उवेइ वासं ।
दुक्खा हु संती बहवे मणुस्सा ऊनातिरित्ता य लवालवा य ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૫૨. ગોશાલકે કહ્યું – તમારા શ્રમણ ડરપોક છે, તેથી પથિકગૃહ, આરામગૃહમાં વસતા નથી. ત્યાં ઘણા મનુષ્યો ન્યૂનાધિક વાચાળ કે મૌની હોય છે. ... સૂત્ર– ૭૫૩. કોઈ મેઘાવી, શિક્ષિત, બુદ્ધિમાન, સૂત્ર – અર્થ વડે નિશ્ચયજ્ઞ હોય છે, તેઓ મને કંઈ પૂછશે એવી શંકાથી ત્યાં જતા નથી. ... સૂત્ર– ૭૫૪. આર્દ્રકમુનિએ કહ્યું – તેઓ અકામકારી નથી | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 754 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाकामकिच्चा न य बालकिच्चा रायाभियोगेन कुओ भएणं? ।
वियागरेज्जा पसिणं न वा वि सकामकिच्चेणिह आरियाणं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૫૨ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 768 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु विण्णाय लिंगं तसथावराणं ।
भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणे वदे करेज्जा वा कुओ विहऽत्थि? ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૬૬ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 770 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वायाभिओगेन जमावहेज्जा नो तारिसं वायमुदाहरेज्जा ।
अट्ठाणमेयं वयणं गुणाणं नो दिक्खिए बूय सुरालमेयं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૬૬ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 774 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] थूलं उरब्भं इह मारियाणं उद्दिट्ठभत्तं च पगप्पएत्ता ।
तं लोणतेल्लेन उवक्खडेत्ता सपिप्पलीयं पगरंति मंसं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૭૪. બુદ્ધ મતાનુયાયી પુરુષ મોટા સ્થૂળ ઘેટાને મારીને બૌદ્ધ ભિક્ષુઓના ભોજનના ઉદ્દેશ્યથી વિચારીને તેને મીઠુ અને તેલ સાથે પકાવે, પછી પીપળ આદિ મસાલાથી વઘારે છે. ... સૂત્ર– ૭૭૫. અનાર્ય, અજ્ઞાની, રસગૃદ્ધ બૌદ્ધભિક્ષુ ઘણુ માંસ ખાવા છતાં કહે છે કે અમે પાપકર્મથી લેપાતા નથી. સૂત્ર– ૭૭૬. જેઓ આ રીતે માંસનું સેવન કરે | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 778 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा सव्वेसि पाणान णिहाय दंडं ।
तम्हा न भुंजंति तहप्पगारं एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૭૪ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 781 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिणायगाणं तु दुवे सहस्से जे भोयए नितिए कुलालयाणं ।
से गच्छई लोलुवसंपगाढे ‘तिव्वाभितावी णरगाभिसेवी’ ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૮૦ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 786 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोगं अयाणित्तिह केवलेणं कहिंति जे धम्ममजाणमाणा ।
णासेंति अप्पाणं परं च णट्ठा संसार घोरम्मि अणोरपारे ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૮૬. આ લોકને કેવલજ્ઞાન દ્વારા ન જાણીને જે અનભિજ્ઞ પુરુષ ધર્મનું કથન કરે છે તે આ અનાદિ – અપાર ઘોર સંસારમાં સ્વયં નાશ પામે છે અને બીજાનો પણ નાશ કરે છે. ... સૂત્ર– ૭૮૭. પણ જે સમાધિયુક્ત છે, કેવળજ્ઞાન દ્વારા પૂર્ણ લોકને જાણે છે તે સમસ્ત ધર્મને કહે છે, પોતે તરે છે અને બીજાને પણ તારે છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૭૮૬, ૭૮૭ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Gujarati | 793 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं णयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे जाव पडिरूवे।
तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं नालंदा नामं बाहिरिया होत्था–अणेगभवण-सयसण्णिविट्ठा पासादीया दरिसनिया अभिरूवा पडिरूवा। Translated Sutra: વર્ણન સૂત્ર સંદર્ભ: (અપૂર્ણ) તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે ઋદ્ધ – સ્તિમિત – સમૃદ્ધ – યાવત્ – પ્રતિરૂપ હતું. તે રાજગૃહ નગરની બહાર ઈશાન ખૂણામાં નાલંદા નામની બાહિરિકા – ઉપનગરી હતી. તે અનેકશત ભવનોથી રચાયેલી યાવત્ પ્રતિરૂપ હતી. તે નાલંદા બાહિરિકામાં લેપ નામે ગાથાપતિ હતો. તે ધનીક, દિપ્ત, પ્રસિદ્ધ હતો. વિસ્તીર્ણ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Gujarati | 806 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु–आउसंतो! उदगा! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता नाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए?], से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ।
जे खलु समणं वा माहणं वा नो परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता पाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए?], से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ।
तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए।
भगवं च णं उदाहु–आउसंतो! उदगा! जे खलु तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म अप्पणो Translated Sutra: ભગવાન ગૌતમે કહ્યું – હે આયુષ્યમાન્ ઉદક ! જે શ્રમણ કે માહણની નિંદા કરે છે તે સાધુ સાથે ભલે મૈત્રી રાખતો હોય, તે જ્ઞાન – દર્શન – ચારિત્રને પામીને પાપકર્મ ન કરવાને માટે પ્રવૃત્ત હોય, પણ તે પરલોકનો વિઘાત કરતો રહે છે. જે શ્રમણ કે માહણની નિંદા નથી કરતા પણ મૈત્રી સાધે છે તથા જ્ઞાન – દર્શન – ચારિત્રને પામીને કર્મોના | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 9 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आउसो! –इत्थीए नाभिहेट्ठा सिरादुगं पुप्फनालियागारं ।
तस्स य हेट्ठा जोणी अहोमुहा संठिया कोसा ॥ Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! स्त्री की नाभि के नीचे पुष्पडंठल जैसी दो सिरा होती है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 21 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जीवे णं गब्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए?
गोयमा! जीवे णं गब्भगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ ऊससइ, सव्वओ नीससइ; अभिक्खणं आहारेइ, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं ऊससइ, अभिक्खणं नीससइ; आहच्च आहारेइ, आहच्च परिणामेइ, आहच्च ऊससइ, आहच्च नीससइ; से माउजीव-रसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजीवपडिबद्धा पुत्तजीवंफुडा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेइ, अवरा वि य णं माउजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ तम्हा उवचिणाइ,
से एएणं अट्ठेणं गोयमा! एवं Translated Sutra: हे भगवन् ! गर्भस्थ जीव मुख से कवल आहार करने के लिए समर्थ है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ उचित नहीं है। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हो ? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है। सभी ओर से परिणमित करता है। सभी ओर से साँस लेता है और छोड़ता है। निरन्तर आहार करता है और परिणमता है। हंमेशा साँस लेता है और बाहर नीकालता है। वो | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 22 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ?
गोयमा! जं से माया नाणाविहाओ रसविगईओ तित्त-कडुय-कसायंबिल-महुराइं दव्वाइं आहारेइ तओ एगदेसेणं ओयमाहारेइ।
तस्स फलबिंटसरिसा उप्पलनालोवमा भवइ नाभी ।
रसहरणी जननीए सयाइ नाभीए पडिबद्धा ॥
नाभीए ताओ गब्भो ओयं आइयइ अण्हयंतीए ।
ओयाए तीए गब्भो विवड्ढई जाव जाओ त्ति ॥ Translated Sutra: हे भगवन् ! गर्भस्थ जीव कौन – सा आहार करेगा ? हे गौतम ! उसकी माँ जो तरह – तरह की रसविगई – कडुआ, तीखा, खट्टा द्रव्य खाए उसके ही आंशिक रूप में ओजाहार करता है। उस जीव की फल के बिंट जैसी कमल की नाल जैसी नाभि होती है। वो रस ग्राहक नाड़ माता की नाभि के साथ जुड़ी होती है। वो नाड़ से गर्भस्थ जीव ओजाहार करता है और वृद्धि प्राप्त | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 24 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे नरएसु उववज्जिज्जा?
गोयमा! अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ जीवे णं गब्भगए समाणे नरएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा?
गोयमा! जे णं जीवे गब्भगए समाणे सन्नी पंचिंदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए वेउव्विअलद्धीए वेउव्वियलद्धिपत्ते पराणीअं आगयं सोच्चा निसम्म पएसे निच्छुहइ, २ त्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, २ त्ता चाउरंगिणिं सेन्नं सन्नाहेइ, सन्नाहित्ता पराणीएण सद्धिं संगामं संगामेइ, से णं जीवे अत्थकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए, अत्थकंखिए Translated Sutra: हे भगवन् ! क्या गर्भ में रहा जीव (गर्भ में ही मरके) नरकमें उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! कोई गर्भ में रहा संज्ञी पंचेन्द्रिय और सभी पर्याप्तिवाला जीव वीर्य – विभंगज्ञान – वैक्रिय लब्धि द्वारा शत्रुसेना को आई हुई सूनकर सोचे कि मैं आत्म प्रदेश बाहर नीकालता हूँ। फिर वैक्रिय समुद्घात करके चतुरंगिणी सेना की संरचना | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 25 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे देवलोएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा! अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा?
गोयमा! जे णं जीवे गब्भगए समाणे सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वेउव्वियलद्धीए वीरियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म तओ से भवइ तिव्वसंवेगसंजायसड्ढे तिव्वधम्मानुरायरत्ते, से णं जीवे धम्म कामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए, धम्मकंखिए पुन्नकंखिए सग्गकंखिए मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए पुन्नपिवासिए Translated Sutra: हे भगवन् ! क्या गर्भस्थ जीव देवलोकमें उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! कोई जीव उत्पन्न होता है और कोई जीव नहीं होता। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हो ? हे गौतम ! गर्भमें स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय और सभी पर्याप्तिवाला जीव वैक्रिय – वीर्य और अवधिज्ञान लब्धि द्वारा वैसे श्रमण या ब्राह्मण के पास एक भी आर्य और धार्मिक वचन सूनकर | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 49 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचमी उ दसं पत्तो आनुपुव्वीइ जो नरो ।
समत्थो अत्थं विचिंतेउं कुडुंबं चाभिगच्छई ५ ॥ Translated Sutra: पाँचवी अवस्था में वो धन की फीक्र के लिए समर्थ होता है और परिवार पाता है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
धर्मोपदेश एवं फलं |
Hindi | 63 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पुण्णाइं खलु आउसो! किच्चाइं करणिज्जाइं पीइकराइं वन्नकराइं धनकराइं कित्तिकराइं।
नो य खलु आउसो! एवं चिंतेयव्वं–एसिंति खलु बहवे समया आवलिया खणा आनापानू थोवा लवा मुहुत्ता दिवसा अहोरत्ता पक्खा मासा रिऊ अयणा संवच्छरा जुगा वाससया वाससहस्सा वाससयसहस्सा, वासकोडीओ वासकोडाकोडीओ, जत्थ णं अम्हे बहूइं सीलाइं वयाइं गुणाइं वेरमणाइं पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं पडिवज्जिस्सामो पट्ठविस्सामो करिस्सामो, ता किमत्थं आउसो! नो एवं चिंतेयव्वं भवइ?
–अंतराइयबहुले खलु अयं जीविए, इमे य बहवे वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका फुसंति जीवियं। Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! पुण्य कृत्य करने से प्रीति में वृद्धि होती है। प्रशंसा, धन और यश में वृद्धि होती है। इसलिए हे आयुष्मान् ! ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि यहाँ काफी समय, आवलिका, क्षण, श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव, मुहूर्त्त, दिन, आहोरात्र, पक्ष, मास, अयन, संवत्सर, युग, शतवर्ष, सहस्र वर्ष, लाख करोड़ या क्रोड़ा क्रोड़ साल जीना | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
धर्मोपदेश एवं फलं |
Hindi | 64 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आसी य खलु आउसो! पुव्विं मनुया ववगयरोगाऽऽयंका बहुवाससयसहस्सजीविणो। तं जहा–जुयलधम्मिया अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विज्जाहरा।
ते णं मनुया अनतिवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तु-प्पल-पउमकर-चरण-कोमलंगुलितला नग नगर मगर सागर चक्कंक-धरंक-लक्खणंकियतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अनुपुव्विसुजाय पीवरं गुलिया उन्नय तनु तंब निद्धनहा संठिय सुसिलिट्ठ गूढगोप्फा एणी कुरुविंदवित्तवट्टाणुपुव्विजंघा सामुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम-विलासियगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइन्नहउ व्व Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! पूर्वकाल में युगलिक, अरिहंत चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव चारण और विद्याधर आदि मानव रोग रहित होने से लाखों साल तक जीवन जीते थे। वो काफी सौम्य, सुन्दर रूपवाले, उत्तम भोग – भुगतनेवाला, उत्तम लक्षणवाले, सर्वांग सुन्दर शरीरवाले थे। उन के हाथ और पाँव के तालवे लाल कमल पत्र जैसे और कोमल थे। अंगुलीयाँ भी | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
देहसंहननं आहारादि |
Hindi | 71 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आउसो! से जहानामए केइ पुरिसे ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छित्ते सिरंसिण्हाए कंठेमालकडे आविद्धमणि-सुवण्णे अहय सुमहग्घवत्थपरिहिए चंदनोक्किण्णगायसरीरे सरससुरहि-गंधगोसीसचंदनानुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे कप्पियहारऽद्धहार-तिसरय-पालंबपलंबमाण-कडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जगललियंगयललियकयाभरणे नाना-मणि कनग रयणकडग तुडियथंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारुच्छय सुकय रइयवच्छे पालंब-पलंबमाण सुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दियापिंगलंगुलिए नानामणि कनग रयणविमल महरिह निउणोविय मिसिमिसिंत विरइय सुसिलिट्ठ विसिट्ठ Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! जो किसी भी नाम का पुरुष स्नान कर के, देवपूजा कर के, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त करके, सिर पर स्नान कर के, गलेमें माला पहनकर, मणी और सोने के आभूषण धारण करके, नए और कींमती वस्त्र पहनकर, चन्दन के लेपवाले शरीर से, शुद्ध माला और विलेपन युक्त, सुन्दर हार, अर्द्धहार – त्रिसरोहार, कन्दोरे से शोभायमान होकर, | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
काल प्रमाणं |
Hindi | 79 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाइं तेवत्तरिं च ऊसासा ।
एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहिं अनंतनाणीहिं ॥ Translated Sutra: ३७७३ उच्छ्वास होते हैं। सभी अनन्तज्ञानीओने इसी मुहूर्त्त – परिमाण बताया है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Hindi | 96 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सी-उण्ह-पंथगमणे खुहा पिवासा भयं च सोगे य ।
नाणाविहा य रोगा हवंति तीसाइ पच्छद्धे ॥ Translated Sutra: बाकी के १५ साल शर्दी, गर्मी, मार्गगमन, भूख, प्यास, भय, शोक और विविध प्रकार की बीमारी होती है। ऐसे ८५ साल नष्ट होते हैं। जो सौ साल जीनेवाले होते हैं वो १५ साल जीते हैं और १०० साल जीनेवाले भी सभी नहीं होते। सूत्र – ९६, ९७ | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Hindi | 102 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आउसो! जं पि य इमं सरीरं इट्ठं पियं कंतं मणुन्नं मणामं मणाभिरामं थेज्जं वेसासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, रयणकरंडओ विव सुसंगोवियं, चेलपेडा विव सुसंपरिवुडं, तेल्लपेडा विव सुसंगोवियं ‘मा णं उण्हं मा णं सीयं मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका फुसंतु’ त्ति कट्टु। एवं पि याइं अधुवं अनिययं असासयं चओवचइयं विप्पणासधम्मं, पच्छा व पुरा व अवस्स विप्पचइयव्वं।
एयस्स वि याइं आउसो! अणुपुव्वेणं अट्ठारस य पिट्ठकरंडगसंधीओ, बारस पंसुलिकरंडया, छप्पंसुलिए कडाहे, बिहत्थिया कुच्छी, चउरंगुलिआ गीवा, Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! यह शरीर इष्ट, प्रिय, कांत, मनोज्ञ, मनोहर, मनाभिराम, दृढ, विश्वासनीय, संमत, अभीष्ट, प्रशंसनीय, आभूषण और रत्न करंडक समान अच्छी तरह से गोपनीय, कपड़े की पेटी और तेलपात्र की तरह अच्छी तरह से रक्षित, शर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, चोर, दंश, मशक, वात, पित्त, कफ, सन्निपात, आदि बीमारी के संस्पर्श से बचाने के योग्य माना | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Hindi | 105 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इमं चेव य सरीरं सीसघडीमेय मज्ज मंसऽट्ठिय मत्थुलिंग सोणिय वालुंडय चम्मकोस नासिय सिंघाणय धीमलालयं अमणुण्णगं सीसघडीभंजियं गलंतनयणकण्णोट्ठ गंड तालुयं अवालुया खिल्लचिक्कणं चिलिचिलियं दंतमलमइलं बीभच्छदरिसणिज्जं अंसलग बाहुलग अंगुली अंगुट्ठग नहसंधिसंघायसंधियमिणं बहुरसियागारं नाल खंधच्छिरा अनेगण्हारु बहुधमनि संधिनद्धं पागडउदर कवालं कक्खनिक्खुडं कक्खगकलियं दुरंतं अट्ठि धमनिसंताणसंतयं, सव्वओ समंता परिसवंतं च रोमकूवेहिं, सयं असुइं, सभावओ परमदुब्भिगंधि, कालिज्जय अंत पित्त जर हियय फोप्फस फेफस पिलिहोदर गुज्झ कुणिम नवछिड्ड थिविथिविथिविंतहिययं दुरहिपित्त Translated Sutra: यह शरीर, खोपरी, मज्जा, माँस, हड्डियाँ, मस्तुलिंग, लहू, वालुंडक, चर्मकोश, नाक का मैल और विष्ठा का घर है। यह खोपरी, नेत्र, कान, होठ, ललाट, तलवा आदि अमनोज्ञ मल वस्तु है। होठ का घेराव अति लार से चीकना, मुँह पसीनावाला, दाँत मल से मलिन, देखने में बिभत्स है। हाथ – अंगुली, अंगूठे, नाखून के सन्धि से जुड़े हुए हैं। यह कईं तरल – स्राव | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Hindi | 114 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] को सडण-पडण-विकिरण-विद्धंसण-चयण-मरणधम्मम्मि ।
देहम्मि अहीलासो कुहिय-कठिणकट्ठभूयम्मि? ॥ Translated Sutra: सड़न, गलन, विनाश, विध्वंसन दुःखक, मरणधर्मी, सड़े हुए लकड़े समान शरीरकी अभिलाषा कौन करे? | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
उपदेश, उपसंहार |
Hindi | 143 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अनेगेहिं कइवरसहस्सेहिं विविहपासपडिबद्धेहिं कामरागमोहिएहिं वन्नियाओ ताओ विय एरिसाओ, तं जहा–
पगइविसमाओ पियरूसणाओ कतियवचडुप्परून्नातो अथक्कहसिय-भासिय-विलास- वीसंभ-पचू(च्च) याओ अविनयवातोलीओ मोहमहावत्तणीओ विसमाओ पियवयणवल्लरीओ कइयवपेमगिरितडीओ अवराहसहस्सघरिणीओ ४, पभवो सोगस्स, विनासो बलस्स, सूणा पुरिसाणं, नासो लज्जाए, संकरो अविणयस्स, निलओ नियडीणं १० खाणी वइरस्स, सरीरं सोगस्स, भेओ मज्जायाणं, आसओ रागस्स, निलओ दुच्चरियाणं १५, माईए सम्मोहो, खलणा नाणस्स, चलणं सीलस्स, विग्घो धम्मस्स, अरी साहूण २०, दूसणं आयारपत्ताणं, आरामो कम्मरयस्स, फलिहो मुक्खमग्गस्स, Translated Sutra: काम, राग और मोह समान तरह – तरह की रस्सी से बँधे हजारों श्रेष्ठ कवि द्वारा इन स्त्रियों की तारीफ में काफी कुछ कहा गया है। वस्तुतः उनका स्वरूप इस प्रकार है। स्त्री स्वभाव से कुटील, प्रियवचन की लत्ता, प्रेम करने में पहाड़ की नदी की तरह कुटील, हजार अपराध की स्वामिनी, शोक उत्पन्न करवानेवाली, बाल का विनाश करनेवाली, मर्द | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Gujarati | 9 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आउसो! –इत्थीए नाभिहेट्ठा सिरादुगं पुप्फनालियागारं ।
तस्स य हेट्ठा जोणी अहोमुहा संठिया कोसा ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૯. હે આયુષ્યમાન્ ! સ્ત્રીની નાભિની નીચે પુષ્પડંઠલના આકારે બે સિરા હોય છે. સૂત્ર– ૧૦. તેની નીચે ઊલટા કરેલા કમળના આકારે યોનિ હોય છે, જે તલવારની મ્યાન જેવી હોય છે. તે યોનિ નીચે કેરીની પેશી જેવો માસપિંડ હોય છે, સૂત્ર– ૧૧. તે ઋતુ કાળમાં ફૂટીને લોહીના કણ છોડે છે, ઊલટા કરાયેલા કમળના આકારની યોનિ, જ્યારે શુક્રમિશ્રિત | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Gujarati | 21 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जीवे णं गब्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए?
गोयमा! जीवे णं गब्भगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ ऊससइ, सव्वओ नीससइ; अभिक्खणं आहारेइ, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं ऊससइ, अभिक्खणं नीससइ; आहच्च आहारेइ, आहच्च परिणामेइ, आहच्च ऊससइ, आहच्च नीससइ; से माउजीव-रसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजीवपडिबद्धा पुत्तजीवंफुडा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेइ, अवरा वि य णं माउजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ तम्हा उवचिणाइ,
से एएणं अट्ठेणं गोयमा! एवं Translated Sutra: ભગવન્ ! ગર્ભગત જીવ મુખેથી કવલ આહાર કરવા સમર્થ છે ? ગૌતમ ! ના, આ અર્થ સમર્થ નથી. ભગવન્ ! એમ કેમ કહો છો ? ગૌતમ! ગર્ભસ્થ જીવ ચોતરફથી આહાર કરે છે, ચોતરફ પરિણમાવે છે, ચોતરફથી શ્વાસ લે છે અને ચોતરફ શ્વાસ લે છે અને ચોતરફ મૂકે છે. વારંવાર આહાર લે છે અને પરિણમાવે છે, વારંવાર શ્વાસ લે છે અને મૂકે છે. જલદીથી આહાર લે છે અને મૂકે | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Gujarati | 22 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ?
गोयमा! जं से माया नाणाविहाओ रसविगईओ तित्त-कडुय-कसायंबिल-महुराइं दव्वाइं आहारेइ तओ एगदेसेणं ओयमाहारेइ।
तस्स फलबिंटसरिसा उप्पलनालोवमा भवइ नाभी ।
रसहरणी जननीए सयाइ नाभीए पडिबद्धा ॥
नाभीए ताओ गब्भो ओयं आइयइ अण्हयंतीए ।
ओयाए तीए गब्भो विवड्ढई जाव जाओ त्ति ॥ Translated Sutra: ગર્ભસ્થ જીવ કયો આહાર કરે ? ગૌતમ ! તેની માતા જે વિવિધ પ્રકારની નવ રસ વિગઈ, કડવું – તીખું – તુરુ – ખારુ – મીઠું દ્રવ્ય ખાય તેના જ આંશિકરૂપે ઓજાહાર કરે છે. તે જીવની ફળના બિંટ જેવી કમળની નાળના આકારની નાભિ હોય છે, તે રસ ગ્રાહક નાડી માતાની નાભિ સાથે જોડાયેલી હોય છે, તે નાડીથી ગર્ભસ્થજીવ ઓજાહાર કરે છે અને વૃદ્ધિ પામી યાવત્ | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Gujarati | 49 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचमी उ दसं पत्तो आनुपुव्वीइ जो नरो ।
समत्थो अत्थं विचिंतेउं कुडुंबं चाभिगच्छई ५ ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૩ | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
धर्मोपदेश एवं फलं |
Gujarati | 64 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आसी य खलु आउसो! पुव्विं मनुया ववगयरोगाऽऽयंका बहुवाससयसहस्सजीविणो। तं जहा–जुयलधम्मिया अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विज्जाहरा।
ते णं मनुया अनतिवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तु-प्पल-पउमकर-चरण-कोमलंगुलितला नग नगर मगर सागर चक्कंक-धरंक-लक्खणंकियतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अनुपुव्विसुजाय पीवरं गुलिया उन्नय तनु तंब निद्धनहा संठिय सुसिलिट्ठ गूढगोप्फा एणी कुरुविंदवित्तवट्टाणुपुव्विजंघा सामुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम-विलासियगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइन्नहउ व्व Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ ! પૂર્વકાળમાં યુગલિક, અરિહંત, ચક્રવર્તી, બળદેવ, વાસુદેવ, ચારણ અને વિદ્યાધર આદિ મનુષ્ય રોગરહિત હોવાથી લાખો વર્ષો સુધી જીવન જીવતા હતા. તેઓ અત્યંત સૌમ્ય, સુંદર રૂપવાળા, ઉત્તમ ભોગ ભોગવતા, ઉત્તમ લક્ષણધારી, સર્વાંગ સુંદર શરીરવાળા હતા. તેમના હાથ – પગના તળિયા લાલ કમળપત્ર જેવા, કોમળ હતા. આંગળીઓ પણ કોમળ | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
देहसंहननं आहारादि |
Gujarati | 71 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आउसो! से जहानामए केइ पुरिसे ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छित्ते सिरंसिण्हाए कंठेमालकडे आविद्धमणि-सुवण्णे अहय सुमहग्घवत्थपरिहिए चंदनोक्किण्णगायसरीरे सरससुरहि-गंधगोसीसचंदनानुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे कप्पियहारऽद्धहार-तिसरय-पालंबपलंबमाण-कडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जगललियंगयललियकयाभरणे नाना-मणि कनग रयणकडग तुडियथंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारुच्छय सुकय रइयवच्छे पालंब-पलंबमाण सुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दियापिंगलंगुलिए नानामणि कनग रयणविमल महरिह निउणोविय मिसिमिसिंत विरइय सुसिलिट्ठ विसिट्ठ Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૧. હે આયુષ્યમાન્ ! જેમ કોઈ પુરુષ સ્નાન કરી, બલિકર્મ કરી, કૌતુક – મંગલ – પ્રાયશ્ચિત્ત કરી, મસ્તકે ન્હાઈ, કંઠમાં માલા પહેરી, મણિ – સુવર્ણ પહેરી, અહત – સુમહાર્ધ વસ્ત્ર પહેરી, ચંદન વડે ઉત્કીર્ણ ગાત્ર શરીરી થઈ, સરસ સુરભિ ગંધ ગોશીર્ષ ચંદન વડે અનુલિપ્ત ગાત્રથી, શુચિમાલા વર્ણક વિલેપન, હાર – અર્ધહાર – ત્રિસરોહાર | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Gujarati | 102 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आउसो! जं पि य इमं सरीरं इट्ठं पियं कंतं मणुन्नं मणामं मणाभिरामं थेज्जं वेसासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, रयणकरंडओ विव सुसंगोवियं, चेलपेडा विव सुसंपरिवुडं, तेल्लपेडा विव सुसंगोवियं ‘मा णं उण्हं मा णं सीयं मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका फुसंतु’ त्ति कट्टु। एवं पि याइं अधुवं अनिययं असासयं चओवचइयं विप्पणासधम्मं, पच्छा व पुरा व अवस्स विप्पचइयव्वं।
एयस्स वि याइं आउसो! अणुपुव्वेणं अट्ठारस य पिट्ठकरंडगसंधीओ, बारस पंसुलिकरंडया, छप्पंसुलिए कडाहे, बिहत्थिया कुच्छी, चउरंगुलिआ गीवा, Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ ! આ શરીર ઇષ્ટ, પ્રિય, કાંત, મનોજ્ઞ, મનોહર, મનાભિરામ, દૃઢ, વિશ્વસનીય, સંમત, બહુમત, અનુમત, ભાંડ કરંડક સમાન, રત્નકરંડકવત્ સુસંગોપિત, વસ્ત્રની પેટી સમાન સુસંપરિવૃત્ત, તેલપાત્રની જેમ સારી રીતે રક્ષણીય, ઠંડી – ગરમી – ભૂખ – તરસ – ચોર – દંશ – મશક – વાત – પિત્ત – કફ – સંનિપાત આદિ રોગોના સંસ્પર્શથી બચાવવા યોગ્ય | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Gujarati | 109 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किह ताव घरकुडीरी कईसहस्सेहिं अपरितंतेहिं ।
वन्निज्जइ असुइबिलं जघणं ति सकज्जमूढेहिं? ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૦૯ થી ૧૧૨. અશુચિ યુક્ત સ્ત્રીના કટિભાગને હજારો કવિઓ દ્વારા અશ્રાંત ભાવથી વર્ણન કેમ કરાય છે ? તેઓ આ રીતે સ્વાર્થવશ મૂઢ બને છે, તેઓ બિચારા રાગને કારણે આ કટિભાગ અપવિત્ર મળની થેલી છે, તે જાણતા નથી. તેથી જ તેને વિકસિત નીલકમલનો સમૂહ માનીને તેનું વર્ણન કરે છે. વધારે કેટલું કહીએ ? પ્રચુર મેદયુક્ત, પરમ અપવિત્ર | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
उपदेश, उपसंहार |
Gujarati | 143 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अनेगेहिं कइवरसहस्सेहिं विविहपासपडिबद्धेहिं कामरागमोहिएहिं वन्नियाओ ताओ विय एरिसाओ, तं जहा–
पगइविसमाओ पियरूसणाओ कतियवचडुप्परून्नातो अथक्कहसिय-भासिय-विलास- वीसंभ-पचू(च्च) याओ अविनयवातोलीओ मोहमहावत्तणीओ विसमाओ पियवयणवल्लरीओ कइयवपेमगिरितडीओ अवराहसहस्सघरिणीओ ४, पभवो सोगस्स, विनासो बलस्स, सूणा पुरिसाणं, नासो लज्जाए, संकरो अविणयस्स, निलओ नियडीणं १० खाणी वइरस्स, सरीरं सोगस्स, भेओ मज्जायाणं, आसओ रागस्स, निलओ दुच्चरियाणं १५, माईए सम्मोहो, खलणा नाणस्स, चलणं सीलस्स, विग्घो धम्मस्स, अरी साहूण २०, दूसणं आयारपत्ताणं, आरामो कम्मरयस्स, फलिहो मुक्खमग्गस्स, Translated Sutra: કામરાગ અને મોહરૂપી વિવિધ દોરડાથી બંધાયેલ હજારો શ્રેષ્ઠ કવિઓ દ્વારા આ સ્ત્રીઓની પ્રશંસામાં ઘણું જ કહેવાયેલ છે. વસ્તુતઃ તેમનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે – સ્ત્રીઓ સ્વભાવથી કુટિલ, પ્રિયવચનોની લતા, પ્રેમ કરવામાં પહાડની નદીની જેમ કુટિલ, હજારો અપરાધોની સ્વામિની, શોક ઉત્પન્ન કરાવનારી, વાળનો વિનાશ કરનારી, પુરુષો માટે | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 2 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नामं थेरे जातिसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने रूवसंपन्ने विनयसंपन्ने नाणसंपन्ने दंसणसंपन्ने चरित्तसंपन्ने लज्जासंपन्ने लाघवसंपन्ने ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाने जियमाए जियलोहे जियनिद्दे जिइंदिए जियपरीसहे जीवियासमरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निग्गहप्पहाणे निच्छयप्पहाणे अज्जवप्पहाणे मद्दवप्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे गुत्तिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विज्जप्पहाणे मंतप्पहाणे बंभप्पहाणे वेयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सच्चप्पहाणे Translated Sutra: उस काल उस समय आर्यसुधर्मा समवसृत हुए। आर्य सुधर्मा के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार ने – पूछा छठे अंग नायाधम्मकहाओ का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सून चूका हूँ। भगवान ने सातवें अंग उपासकदशा का क्या अर्थ व्याख्यात किया ? जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवे अंग उपासकदशा के दस अध्ययन प्रज्ञप्त किये। – आनन्द, | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 5 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स वाणियगामस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं दूइपलासए नामं चेइए।
तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तू राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं वाणियगामे नयरे आनंदे नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिन्न-विउलभवन-सयनासन-जाण-वाहने बहुधन-जायरूव-रयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउर-भत्तपाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए बहुजनस्स अपरिभूए।
तस्स णं आनंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वड्ढिपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि Translated Sutra: जम्बू ! उस काल, उस समय, वाणिज्यग्राम नगर था। उस के बाहर – ईशान कोण में दूतीपलाश चैत्य था। जितशत्रु वहाँ का राजा था। वहाँ वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक गाथापति था जो धनाढ्य यावत् अपरिभूत था। आनन्द गाथापति का चार करोड़ स्वर्ण खजाने में, चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में, चार करोड़ स्वर्ण – धन, धान्य आदि में लगा था। उसके | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 7 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ठेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्ध मेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते! जहेयं तुब्भे वदह।
जहा णं देवानुप्पियाणं Translated Sutra: तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित व परितुष्ट होता हुआ यों बोला – भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है। निर्ग्रन्थ – प्रवचन मुझे रुचिकर है। वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित है, इच्छित – प्रतिच्छित है। यह वैसा ही है, जैसा आपने कहा। देवानुप्रिय | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 8 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलयं पाणाइवायं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं–न करेमि न कारवेमि, मनसा वयसा कायसा।
तयानंतरं च णं थूलयं मुसावायं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं–न करेमि न कारवेमि, मनसा वयसा कायसा।
तयानंतरं च णं थूलयं अदिण्णादाणं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं–न करेमि न कारवेमि, मनसा वयसा कायसा।
तयानंतरं च णं सदारसंतोसीए परिमाणं करेइ–नन्नत्थ एक्काए सिवनंदाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ।
तयानंतरं च णं इच्छापरिमाणं करेमाणे–
(१) हिरण्ण-सुवण्णविहिपरिमाणं करेइ–नन्नत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं Translated Sutra: तब आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान महावीर के पास प्रथम स्थूल प्राणातिपात – परित्याग किया। मैं जीवन पर्यन्त दो करण – करना, कराना तथा तीन योग – मन, वचन एवं काया से स्थूल हिंसा का परित्याग करता हूँ, तदनन्तर उसने स्थूल मृषावाद – का परित्याग किया, मैं जीवन भर के लिए दो कारण और तीन योग से स्थूल मृषावाद का परित्याग किया, | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 9 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इहखलु आनंदाइ! समणे भगवं महावीरे आनंदं समणोवासगं एवं वयासी–एवं खलु आनंदा! समणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं उवलद्धपुण्णपावेणं आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंधमोक्खकुसलेणं असहेज्जेणं, देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अनइक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पंच अति-यारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा–१. संका, २. कंखा, ३. वितिगिच्छा, ४. परपासंडपसंसा, ५. परपासंडसंथवो।
तयानंतरं च णं थूलयस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अतियारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा–१. बंधे २. वहे ३. छविच्छेदे ४. अतिभारे Translated Sutra: भगवान महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा – आनन्द ! जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् रूप में जाना है, उसको सम्यक्त्व के पाँच प्रधान अतिचार जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए। यथा – शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर – पाषंड – प्रशंसा तथा पर – पाषंड – संस्तव। इसके बाद श्रमणोपासक को स्थूल – प्राणातिपातविरमण | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं–दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जति, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–नो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिइं अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिय-देवयाणि वा अन्नउत्थिय-परिग्गहियाणि वा अरहंतचेइयाइं वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पुव्विं अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अनुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं।
कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं Translated Sutra: फिर आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार का श्रावक – धर्म स्वीकार किया। भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार कर वह भगवान से यों बोला – भगवन् आज से अन्य यूथिक – उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत – चैत्य – उन्हें वन्दना करना, नमस्कार करना, उनके पहले बोले बिना उनसे | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 11 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सिवानंदा भारिया आनंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामि! त्ति आनंदस्स समणोवासगस्स एयमट्ठं विनएणं पडिसुणेइ।
तए णं से आनंदे समणोवासए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो! देवानुप्पिया! लहुकरणजुत्त-जोइयं समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगएहिं जंबूणयामयकलावजुत्त-पइविसिट्ठएहिं रययामयघंट-सुत्तरज्जुगवरकंचण-खचियनत्थपग्गहोग्गहियएहिं नीलुप्पलकया-मेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नानामणिकनग-घंटियाजालपरिगयं सुजायजुगजुत्त-उज्जुग Translated Sutra: श्रमणोपासक आनन्द ने जब अपनी पत्नी शिवानन्दा से ऐसा कहा तो उसने हृष्ट – तुष्ट – अत्यन्त प्रसन्न होते हुए हाथ जोड़े, ‘स्वामी ऐसा है।’ तब श्रमणोपासक आनन्द ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा – तेज चलने वाले, यावत् श्रेष्ठ रथ शीघ्र ही उपस्थित करो, उपस्थित करके मेरी यह आज्ञा वापिस करो। तब शिवनन्दा वह धार्मिक उत्तम रथ | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे समणोवासए जाए–अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंधमोक्खकुसले असहेज्जे, देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्खंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धट्ठे गहियट्ठे पुच्छियट्ठे अभिगयट्ठे विनिच्छियट्ठे अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अणट्ठे ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चिय-तंतेउर-परघरदार-प्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अनुपालेत्ता समणे निग्गंथे Translated Sutra: तब आनन्द श्रमणोपासक हो गया। जीव – अजीव का ज्ञाता हो गया यावत् श्रमणनिर्ग्रन्थों का अशन आदि से सत्कार करता हुआ विचरण करने लगा। उसकी भार्या शिवानंदा भी श्रमणोपासिका होकर श्रमणनिर्ग्रन्थों का सत्कार करती हुई विचरण करने लगी। | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 14 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स आनंदस्स समणोवासगस्स उच्चावएहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वीइक्कंताइं। पन्नरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेनावइ-सत्थवाहाणं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, सयस्स वि य णं कुडुंबस्स मेढी पमाणं Translated Sutra: तदनन्तर श्रमणोपासक आनन्द को अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान – पोषधोपवास आदि द्वारा आत्म – भावित होते हुए – चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चूका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म – जागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव – चिन्तन, आन्तरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 17 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे समोसरिए।
परिसा निग्गया जाव पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे गोयमसगोत्ते णं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कनगपुलगनिघस- पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते Translated Sutra: उस काल वर्तमान – अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान महावीर समवसृत हुए। परिषद् जुड़ी, धर्म सूनकर वापिस लौट गई। उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्र – संस्थान – संस्थित थे – कसौटी पर खचित स्वर्ण – रेखा | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 18 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पादेसु वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–अत्थि णं भंते! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिनाणे समुप्पज्जइ?
हंता अत्थि।
जइ णं भंते! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिनाणे समुप्पज्जइ, एवं खलु भंते! मम वि गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहि नाणे समुप्पण्णे–पुरत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाइं खेत्तं जाणामि पासामि। दक्खिणे णं लवणसमुद्दे पंच जोयणसयाइं खेत्तं जाणामि पासामि। पच्चत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंच जोयणसयाइं खेत्तं जाणामि पासामि। उत्तरे णं जाव चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वयं जाणामि पासामि। उड्ढं जाव सोहम्मं कप्पं Translated Sutra: श्रमणोपासक आनन्त ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा। देखकर वह (यावत्) अत्यन्त प्रसन्न हुआ, भगवान गौतम को वन्दन – नमस्कार कर बोला – भगवन् ! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूँ कि नाड़ियाँ दीखने लगी हैं। इसलिए देवानुप्रिय के – आपके पास आने तथा चरणों में वन्दना करने में असमर्थ हूँ। अत एव प्रभो ! आप ही स्वेच्छापूर्वक, | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 20 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं चंपाए नयरीए कामदेवे नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे जाव बहुजनस्स अपरिभूए।
तस्स णं कामदेवस्स गाहावइस्स छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ हिरण्णकोडीओ वड्ढिपउत्ताओ, छ हिरण्ण-कोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, छ व्वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था।
से णं कामदेवे गाहावई बहूणं जाव आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, सयस्स वि य णं कुडुंबस्स मेढी Translated Sutra: हे भगवन् ! यावत् सिद्धि – प्राप्त भगवान महावीर ने सातवे अंग उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यदि यह अर्थ – आशय प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया है ? जम्बू ! उस काल – उस समय – चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। राजा जितशत्रु था। कामदेव गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 21 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे मायी मिच्छदिट्ठी अंतियं आउब्भूए।
तए णं से देवे एगं महं पिसायरूवं विउव्वइ। तस्स णं दिव्वस्स पिसायरूवस्स इमे एयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते–सीसं से गोकिलंज-संठाण-संठियं, सालिभसेल्ल-सरिसा से केसा कविलतेएणं दिप्पमाणा, उट्टिया-कभल्ल-संठाण-संठियं निडालं मुगुंसपुच्छं व तस्स भुमकाओ फुग्गफुग्गाओ विगय-बीभत्स-दंसणाओ, सीसघडिविणिग्गयाइं अच्छीणि विगय-बीभत्स-दंसणाइं, कण्णा जह सुप्प-कत्तरं चेव विगय-बीभत्स-दंसणिज्जा, उरब्भपुडसंनिभा से नासा, ज्झुसिरा जमल-चुल्ली-संठाण-संठिया दो वि तस्स नासापुडया, घोडयपुच्छं Translated Sutra: (तत्पश्चात् किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हुआ। उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है – उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की बाँस की टोकरी जैसा था। बाल – चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 22 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्गं अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चं पि तच्चं पि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी–हंभो! कामदेवा! समणोवासया! जाव जइ णं तुमं अज्ज सीलाइं वयाइं वेरमणाइं, पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं न छड्डेसि न भंजेसि, तो तं अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेण खुरधारेण असिणा खंडाखंडिं करेमि, जहा णं तुमं देवानुप्पिया! अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।
तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं दिव्वेणं पिसायरूवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे Translated Sutra: पिशाच का रूप धारण किये हुए देव ने श्रमणोपासक को यों निर्भय भाव से धर्म – ध्यान में निरत देखा। तब उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा – मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक कामदेव ! आज प्राणों से हाथ धौ बेठोगे। श्रमणोपासक कामदेव उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर भी अभीत रहा, अपने धर्मध्यान में उपगत रहा। | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 23 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्ग अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख-मित्ता दिव्वं पिसायरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ–सत्तंगपइट्ठियं सम्मं संठियं सुजातं पुरतो उदग्गं पिट्ठतो वराहं अयाकुच्छिं अलंबकुच्छिं पलंब-लंबोदराधरकरं अब्भुग्गय- मउल- मल्लिया- विमल- धवलदंतं Translated Sutra: जब पिशाच रूपधारी उस देव ने श्रमणोपासक को निर्भय भाव से उपासना – रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, उसके ललाट में त्रिबलिक – चढ़ी भृकुटि तन गई। उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़े – टुकड़े कर डाले। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता पूर्वक झेला। जब पिशाच रूपधारी देव ने देखा, श्रमणोपासक | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 24 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे हत्थिरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्गं अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडि-निक्खमित्ता दिव्वं हत्थिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं सप्परूवं विउव्वइ–उग्गविसं चंडविसं घोरविसं महाकायं मसी-मूसाकालगं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंज-निगरप्पगासं रत्तच्छं लोहियलोयणं जमलजुयल-चंचलचलंतजीहं धरणीयलवेणिभूयं Translated Sutra: हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था। पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा। हस्ती रूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना |