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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 67 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीविए इह जे पमत्ता।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: जो इस जीवन के प्रति प्रमत्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। ‘अकृत काम मैं करूँगा’ इस प्रकार मनोरथ करता रहता है। जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी उसका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह – सम्बन्ध होने पर भी | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-३ अनीयश अदि अध्ययन-८ गजसुकुमाल |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ उक्खेवओ अट्ठमस्स एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए नयरीए, जहा पढमे जाव अरहा अरिट्ठनेमी समोसढे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी छ अनगारा भायरो सहोदरा होत्था–सरिसया सरित्तया सरिव्वया नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासा सिरिवच्छंकिय-वच्छा कुसुम -कुंडलभद्दलया नलकूबरसमाणा।
तए णं ते छ अनगारा जं चेव दिवसं मुंडा भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइया, तं चेव दिवसं अरहं अरिट्ठनेमिं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामो णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा जावज्जीवाए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं Translated Sutra: भगवन् ! तृतीय वर्ग के आठवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जंबू ! उस काल, उस समय में द्वारका नगरीमें प्रथम अध्ययनमें किये गये वर्णन के अनुसार यावत् अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान पधारे। उस काल, उस समय भगवान नेमिनाथ के अंतेवासी – शिष्य छ मुनि सहोदर भाई थे। वे समान आकार, त्वचा और समान अवस्थावाले प्रतीत होते | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 32 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कूणियस्स रन्नो चंपाए नयरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स बहवे अत्थत्थिया कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किव्विसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया वद्धमाणा पूसमाणया खंडियगणा ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहिं हिययमणिज्जाहिं वग्गूहिं जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभि-णंदंता य अभित्थुणंता य एवं वयासी–जयजय णंदा! जयजय भद्दा! भद्दं ते, अजियं जिणाहि जियं पालयाहि, जियमज्झे वसाहि।
इंदो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चंदो इव ताराणं भरहो इव मणुयाणं बहूइं वासाइं बहूइं वाससयाइं बहूइं वाससहस्साइं Translated Sutra: जब राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीच से गुजर रहा था, बहुत से अभ्यर्थी, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, किल्बिषिक, कापालिक, करबाधित, शांखिक, चाक्रिक, लांगलिक, मुखमांगलिक, वर्धमान, पूष्यमानव, खंडिक – गण, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, मनोभिराम, हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाली वाणी से एवं जय विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 20 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडिचारियाणं अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं ज्झि-यायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया ज्झियायसि?
तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ।
तए णं से सेणिए राया धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया ज्झियायसि?
तए Translated Sutra: तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सूनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारिणी देवी थी, वहाँ आता है। आकर धारिणी देवी को जीर्ण – जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त – देखता है। इस प्रकार कहता है – ‘देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 21 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से अभए कुमारे सक्कारिए सम्मानिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सए भवणेने, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासने निसण्णे।
तए णं तस्स अभयस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु सक्का मानुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालदोहलमनोरहसंपत्तिं करित्तए, नन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं। अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगइए देवे महिड्ढीए महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महानुभावे महासोक्खे।
तं सेयं खलु ममं पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स Translated Sutra: तब (श्रेणिक राजा द्वारा) सत्कारित एवं सन्मानित होकर बिदा किया हुआ अभयकुमार श्रेणिक राजा के पास से नीकलता है। नीकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है। आकर वह सिंहासन पर बैठ गया। तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ – दिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 41 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नामं अनगारे से णं भंते! मेहे अनगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी मेहे नामं अनगारे पगइभद्दए जाव विनीए, से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता, बारस भिक्खुपडिमाओ गुण-रयण-संवच्छरं तवोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव किट्टेत्ता, मए अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेत्ता, तहारूवेहिं कडादीहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहित्ता, Translated Sutra: ‘भगवन् !’ इस प्रकार कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे। भगवन् ! यह मेघ अनगार काल – मास में काल करके किस गति में गए ? और किस जगह उत्पन्न हुए ? ‘हे गौतम !’ इस प्रकार कहकर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 46 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहं धनेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूणि वासाणि सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाणि मानुस्सगाइं कामभोगाइं पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि।
तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं मानुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासिं मन्ने नियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्ध-लुद्धयाइं Translated Sutra: धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ। बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ, शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पाँचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 60 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए से णं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव से वनमयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि संकिए कंखिए वितिगिंछस-मावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे किण्णं ममं एत्थ कीलावणए मयूरीपोयए भविस्सइ उदाहु नो भविस्सइ? त्ति कट्टु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तेइ परियत्तेइ आसारेइ संसारेइ चालेइ फंदेइ घट्टेइ खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेइ।
तए णं से मयूरी-अंडए अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे परियत्तिज्जमाणे आसारि-ज्जमाणे संसारिज्जमाणे Translated Sutra: तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह दारक था, वह कल सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वन – मयूरी का अंडा था, वहाँ आया। आकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी ? विचिकित्सा को प्राप्त हुआ, भेद को प्राप्त हुआ, कलुषता को प्राप्त हुआ। अत एव वह विचार | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 111 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं लवणसमुद्दं अनेगाइं जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं अनेगाइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भूयाइं, तं जहा–अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे कालिय-वाए जाव समुट्ठिए।
तए णं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्जमाणी-आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी-संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी-संखोभिज्जमाणी सलिल-तिक्ख-वेगेहिं अइअट्टिज्जमाणी-अइअट्टिज्जमाणी कोट्टिमंसि करतलाहते विव तिंदूसए तत्थेव-तत्थेव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणी विव वरणीयलाओ सिद्धविज्जा विज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणी विव गगनतलाओ भट्ठविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणी विव महागरुल-वेग-वित्तासिय Translated Sutra: तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए। वे उत्पात इस प्रकार थे – अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे। प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी। तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार – बार काँपने लगी, बार – बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 150 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा पोट्टिला अन्नया कयाइ तेयलिपुत्तस्स अनिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया यावि होत्था–नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा?
तए णं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं तेयलिस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नाम गोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? [ति कट्टु?] ओहयमन-संकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ।
तए Translated Sutra: किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई। तेतलिपुत्र उसका नाम – गोत्र भी सूनना पसंद नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या ! तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार आया – ‘तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु आजकल अप्रिय हो गई हूँ। अत एव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सूनना चाहते, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 154 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अभिक्खणं-अभिक्खणं केवलिपन्नत्ते धम्मे संबोहेइ, नो चेव णं से तेयलिपुत्तं संबुज्झइ।
तए णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु कनगज्झए राया तेयलिपुत्तं आढाइ जाव भोगं च से अनुवड्ढेइ, तए णं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं-अभिक्खणं संबोहिज्जमाणे वि धम्मे नो संबुज्झइ। तं सेयं खलु ममं कनगज्झयं तेयलिपुत्ताओ विप्परिणामित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कनगज्झयं तेयलिपुत्तओ विप्परिणामेइ।
तए णं तेयलिपुत्ते कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे Translated Sutra: उधर पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को बार – बार केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं। तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ – ‘कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार – बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 164 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमनुरत्ता पइं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणं-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासधरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी– गए णं से सागरए त्ति कट्टु ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ।
तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहिं।
तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं Translated Sutra: सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी। वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्त थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी। उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते – करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा – ‘सागर तो चल दिया!’ उसके मन का संकल्प मारा गया, अत एव वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान – चिन्ता करने लगी। तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 165 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा भद्दा कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि।
तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता मुहधोवणियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव वासधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं ओहयमनसंकप्पं करतलपल्हत्थमुहिं अट्टज्झाणोवगयं ज्झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियाहि?
तए णं सा सूमालिया दारिया Translated Sutra: तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया। पूर्ववत् कहा – तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में आया। सुकुमालिका को गोद में बिठाकर कहने लगा – ‘हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किए हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है। अत एव बेटी ! भग्नमनोरथ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 175 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्ठेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्घाए उद्धुयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था।
तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध-दाहिणड्ढ-भरहवासे Translated Sutra: तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो! यह द्रौपदी अपने रूप, यौवन, लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अत एव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरी उपासना नहीं करती। अत एव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।’ इस प्रकार नारद ने विचार करके | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 184 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था।
तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था। (वर्णन) उस नगर में कनककेतु नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत – से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 215 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कंडरीयस्स अनगारस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालाइक्कंतेहि य पमाणाइक्कंतेहि य निच्चं पानभोयणेहि य पयइ-सुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया–उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जर-परिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ।
तए णं थेरा अन्नया कयाइ जेणेव पोंडरीगिणी नयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता नलिनीवने समोसढा। पुंडरीए निग्गए। धम्मं सुणेइ।
तए णं पुंडरीए राया धम्मं सोच्चा जेणेव कंडरीए अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त – प्रान्त अर्थात् रूखे – सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के समान यावत् दाह – ज्वर उत्पन्न हो गया। वे रुग्ण होकर रहने लगे। तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे। तब पुंडरीक राजमहल से नीकला और उसने धर्म – देशना | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 77 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया अन्नया कयाइ सुसेणं सेनावइं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी– गच्छ णं खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि, विहाडेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।
तए णं से सुसेने सेनावई भरहेणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामी! तहत्ति आणाए विनएणं वयणं पडिसुनेइ, पडिसुणेत्ता भरहस्स रन्नो अंतियाओ पडिनि-क्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, Translated Sutra: राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाकर कहा – जाओ, शीघ्र ही तमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वार के दोनों कपाट उद्घाटित करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर सेनापति सुषेण अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ। उसने अपने दोनों हाथ जोड़े। विनयपूर्वक राजा का वचन स्वीकार किया। पौषधशाला में आया। डाभ का बिछौना | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 121 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया अज्जियरज्जो निज्जियसत्तू उप्पन्नसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे नवनिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुयायमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहिं केवलकप्पं भरहं वासं ओयवेइ, ओयवेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी– खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय गय रह पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेन्नं सण्णा हेह, एतमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुंबिय पुरिसा जाव पच्चप्पिणंति।
तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे तहेव जाव धवलमहामेह निग्गए Translated Sutra: राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अर्जित किया – । शत्रुओं को जीता। उसके यहाँ समग्र रत्न उद्भूत हुए। नौ निधियाँ प्राप्त हुईं। खजाना समृद्ध था – । बत्तीस हजार राजाओं से अनुगत था। साठ हजार वर्षों में समस्त भरतक्षेत्र को साध लिया। तदनन्तर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा – ‘देवानुप्रियों ! शीघ्र | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 124 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया चउदसण्हं रयणाणं नवण्हं महानिहीणं सोलसण्हं देवसाहस्सीणं बत्तीसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडुकल्लाणियासहस्साणं बत्तीसाए जनवयकल्लाणियासहस्साणं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धाणं नाडगसहस्साणं तिण्हं सट्ठीणं सूयसयाणं अट्ठारसण्हं सेणिप्पसेणीणं चउरासीए आससयसहस्साणं चउरासीए दंतिसयसहस्साणं चउरासीए रहसयसहस्साणं छन्नउइए मनुस्स-कोडीणं बावत्तरीए पुरवरसहस्साणं बत्तीसाए जनवयसहस्साणं छन्नउइए गामकोडीणं नवनउइए दोणमुहसहस्साणं अडयालीसाए पट्टणसहस्साणं चउव्वीसाए कब्बडसहस्साणं चउव्वीसाए मडंब-सहस्साणं वीसाए आगरसहस्साणं सोलसण्हं खेडसहस्साणं चउदसण्हं Translated Sutra: राजा भरत चौदह रत्नों, नौ महानिधियों, १६००० देवताओं, ३२००० राजाओं, ३२००० ऋतुकल्याणि – काओं, ३२००० जनपदकल्याणिकाओं, बत्तीस – बत्तीस पात्रों, अभिनेतव्य क्रमोपक्रमों से अनुबद्ध, ३२००० नाटकों, ३६० सूपकारों, अठारह श्रेणी – प्रश्रेणीजनों, चौरासी लाख घोड़ों, चौरासी लाख हाथियों, चौरासी लाख रथों, छियानवै करोड़ मनुष्यों, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 655 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह अन्नया अचलंतेसुं अतिहि-सक्कारेसुं अपूरिज्जमाणेसुं पणइयण-मनोरहेसुं, विहडंतेसु य सुहि-सयणमित्त बंधव-कलत्त-पुत्त-नत्तुयगणेसुं, विसायमुवगएहिं गोयमा चिंतियं तेहिं सड्ढगेहिं तं जहा– Translated Sutra: अब किसी समय घर में महमान आते तो उसका सत्कार नहीं किया जा सकता। स्नेहीवर्ग के मनोरथ पूरे नहीं कर सकते, अपने मित्र, स्वजन, परिवार – जन, बन्धु, स्त्री, पुत्र, भतीजे, रिश्ते भूलकर दूर हट गए तब विषाद पानेवाले उस श्रावकों ने हे गौतम ! सोचा की, ‘‘पुरुष के पास वैभव होता है तो वो लोग उसकी आज्ञा स्वीकारते हैं। जल रहित मेघ को | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 661 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह एवमवरोप्परं संजोज्जेऊण गोयमा कयं देसपरिच्चाय-निच्छयं तेहिं ति। जहा वच्चामो देसंतरं ति। तत्थ णं कयाई पुज्जंति चिर-चिंतिए मणोरहे हवइ य पव्वज्जाए सह संजोगो जइ दिव्वो बहुमन्नेज्जा जाव णं उज्झिऊणं तं कमागयं कुसत्थलं। पडिवन्नं विदेसगमणं। Translated Sutra: इस प्रकार वो आपस में एकमत हुए और वैसे होकर हे गौतम ! उन्होंने देशत्याग करने का तय किया कि – हम किसी अनजान देश में चले जाए। वहाँ जाने के बाद भी दीर्घकाल से चिन्तवन किए मनोरथ पूर्ण न हो तो और देव अनुकूल हो तो दीक्षा अंगीकार करे। उसके बाद कुशस्थल नगर का त्याग करके विदेश गमन करने का तय किया। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 693 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किमेस वासेज्जा गोयमा अत्थेगे जे णं वासेज्जा, अत्थेगे जे णं नो वासेज्जा से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अत्थेगे जे णं वासेज्जा अत्थेगे जे णं नो वासेज्जा।
गोयमा अत्थेगे जे णं आणाए ठिए अत्थेगे जे णं आणा विराहगे। जे णं आणा ठिए से णं सम्मद्दंसण नाण चरित्ताराहगे। जे णं सम्मद्दंसण नाण चरित्ताराहगे से णं गोयमा अच्चंत विऊ सुपवरकम्मुज्जए मोक्खमग्गे। जे य उ णं आणा विराहगे से णं अनंताणुबंधी कोहे, से णं अनंतानुबंधी माने, से णं अनंतानुबंधी कइयवे, से णं अनंताणुबंधी लोभे, जे णं अनंतानुबंधी कोहाइकसाय चउक्के से णं घन राग दोस मोह मिच्छत्त पुंजे।
जे णं घन राग Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या उसमें रहकर इस गुरुवास का सेवन होता है ? हे गौतम ! हा, किसी साधु यकीनन उसमें रहकर गुरुकुल वास सेवन करते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं कि जो वैसे गच्छ में वास न करे। हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि – कोई वास करे और कोई वास नहीं करते ? हे गौतम ! एक आत्मा आज्ञा का आराधक है और एक आज्ञा का विराधक है। जो गुरु | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1279 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धाविउं गुप्पिउं सुइरं, खिज्जिऊण अहन्निसं।
कागिणिं कागिणी-काउं अद्धं पायं विसोवगं॥ Translated Sutra: दौड़ादौड़ी करके छिपाकर बचाकर लम्बे अरसे तक रात दिन गुस्सा होकर, कागणी – अल्पप्रमाण धन इकट्ठा किया हो कागणी का अर्धभाग, चौथा हिस्सा, बीसवाँ हिस्सा भेजा। किसी तरह के कहीं से लम्बे अरसे से लाख या करोड़ प्रमाण धन इकट्ठा किया। जहाँ एक ईच्छा पूर्ण हुई कि तुरन्त दूसरी खड़ी होती है। लेकिन दूसरे मनोरथ पूर्ण नहीं होते। सूत्र | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1369 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं चिर-चिंतियाभिमुह-मणोरहोरु संपत्ति-हरिस-समुल्लसिओ।
भत्ति-भर-निब्भरोणय-रोमंच-उक्कंच-पुलय-अंगो॥ Translated Sutra: इस अनुसार बड़े अरसे से चिन्तवे हुए मनोरथ के सन्मुख होनेवाला उस रूप महासंपत्ति के हर्ष से उल्लासित होनेवाले, भक्ति के अनुग्रह से निर्भर होकर नमस्कार करके, रोमांच खड़ा होने से रोम – रोम व्याप्त आनन्द अंगवाला, १८ हजार शिलांग धारण करने के लिए उत्साहपूर्वक ऊंचे किए गए खंभेवाला, छत्तीस तरह के आचार पालन करने के लिए | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1484 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ ते णं काले णं ते णं समएणं सुसढणामधेज्जे अनगारे हभूयवं। तेणं च एगेगस्स णं पक्खस्संतो पभूय-ट्ठाणिओ आलोयणाओ विदिन्नाओ सुमहंताइं च। अच्चंत घोर सुदुक्कराइं पायच्छित्ताइं समनुचिन्नाइं। तहा वि तेणं विरएणं विसोहिपयं न समुवलद्धं ति एतेणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ।
से भयवं केरिसा उ णं तस्स सुसढस्स वत्तव्वया गोयमा अत्थि इहं चेव भारहेवासे, अवंती नाम जनवओ। तत्थ य संबुक्के नामं खेडगे। तम्मि य जम्मदरिद्दे निम्मेरे निक्किवे किविणे निरणुकंपे अइकूरे निक्कलुणे णित्तिंसे रोद्दे चंडरोद्दे पयंडदंडे पावे अभिग्गहिय मिच्छादिट्ठी अणुच्चरिय नामधेज्जे Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा ? उस समय में उस समय यहाँ सुसढ़ नाम का एक अनगार था। उसने एक – एक पक्ष के भीतर कईं असंयम स्थानक की आलोचना दी और काफी महान घोर दुष्कर प्रायश्चित्त का सेवन किया। तो भी उस बेचारे को विशुद्धि प्राप्त नहीं हुई। इस कारण से ऐसा कहा। हे भगवंत ! उस सुसढ़ की वक्तव्यता किस तरह की है ? हे गौतम ! इस भारत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: हे भगवंत ! उस ब्राह्मणीने ऐसा तो क्या किया कि जिससे इस प्रकार सुलभ बोधि पाकर सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक बनी और फिर उसके उपदेश से कईं भव्य जीव नर – नारी कि जो अनन्त संसार के घोर दुःख में सड़ रहे थे उन्हें सुन्दर धर्मदेश आदि के द्वारा शाश्वत सुख देकर उद्धार किया। हे गौतम ! उसने पूर्वभव में कईं सुन्दर भावना सहित | |||||||||
Nirayavalika | निरयावलिकादि सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ काल |
Hindi | 10 | Sutra | Upang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउब्भूए–धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं मानुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ णं सेणियस्स रन्नो उयरवलिमंसेहिं सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुंजेमाणीओ दोहलं विणेंति।
तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा Translated Sutra: तत्पश्चात् परिपूर्ण तीन मास बीतने पर चेलना देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ – वे माताएं धन्य हैं यावत् वे पुण्यशालिनी हैं, उन्होंने पूर्व में पुण्य उपार्जित किया है, उनका वैभव सफल है, मानवजन्म और जीवन का, सुफल प्राप्त किया है जो श्रेणिक राजा की उदरावली के शूल पर सेके हुए, तले हुए, भूने हुए मांस का तथा सूरा | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 16 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहेव केइ परस्स दव्वं गवेसमाणा गहिता य हया य बद्धरुद्धा य तरितं अतिधाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गाह चारभड चाडुकराण तेहि य कप्पडप्पहार निद्दय आरक्खिय खर फरुस वयण तज्जण गलत्थल्ल उत्थल्लणाहिं विमणा चारगवसहिं पवेसिया निरयवसहिसरिसं।
तत्थवि गोम्मिकप्पहार दूमण निब्भच्छण कडुयवयण भेसणग भयाभिभूया अक्खित्त नियंसणा मलिणदंडिखंडवसणा उक्कोडा लंच पास मग्गण परायणेहिं गोम्मिकभडेहिं विविहेहिं बंधणेहि, किं ते? हडि नियड बालरज्जुय कुदंडग वरत्त लोह-संकल हत्थंदुय वज्झपट्ट दामक णिक्कोडणेहिं, अन्नेहि य एवमादिएहिं गोम्मिक भंडोवकरणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं संकोडण मोड-णाहि Translated Sutra: इसी प्रकार परकीय धन द्रव्य की खोज में फिरते हुए कईं चोर पकड़े जाते हैं और उन्हें मारा – पीटा जाता है, बाँधा जाता है और कैद किया जाता है। उन्हें वेग के साथ घूमाया जाता है। तत्पश्चात् चोरों को पकड़ने वाले, चौकीदार, गुप्तचर उन्हें कारागार में ठूंस देते। कपड़े के चाबुकों के प्रहारों से, कठोर – हृदय सिपाहियों के तीक्ष्ण | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 664 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ परिसामज्झाओ उट्ठेत्ता अहमेयं हणामि त्ति कट्टु तित्तिरं वा वट्टगं वा [चडगं वा?] लावगं वा कवोयगं वा [कविं वा?] कविंजलं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ–इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति।
से एगइओ केणइ आदाणेणं विरुद्धे समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्तान वा सयमेव अगनिकाएणं सस्साइं ज्झामेइ, अन्नेन वि अगनिकाएणं सस्साइं ज्झामावेइ, अगनिकाएणं सस्साइं ज्झामेंतं पि अन्नं समणुजाणइ–इति से महया पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति।
से एगइओ केणइ आदाणेणं Translated Sutra: (१) कोई व्यक्ति सभा में खड़ा होकर प्रतिज्ञा करता है – मैं इस प्राणी को मारूँगा।’ तत्पश्चात् वह तीतर, बतख, लावक, कबूतर, कपिंजल या अन्य किसी त्रसजीव को मारता है, छेदन – भेदन करता है, यहाँ तक कि उसे प्राणरहित कर डालता है। अपने इस महान पापकर्म के कारण वह स्वयं को महापापी नाम से प्रख्यात कर देता है (२) कोई पुरुष किसी कारण | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 42 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नदा कदाइ पच्चावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोग-वणिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियं धम्मपन्नत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।
तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्के देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवण्णे सखिंखिणियाइं पंचवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिए सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी– एहिइ णं देवानुप्पिया! कल्लं इहं महामाहणे उप्पन्न-नाणदंसणधरे तीयप्पडुपन्नाणागयजाणए अरहा जिणे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी तेलोक्कचहिय-महिय-पूइए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे पूयणिज्जे Translated Sutra: एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशालक के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति – के अनुरूप वहाँ उपासना – रत हुआ। आजीविकोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। छोटी – छोटी घंटियों से युक्त उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव ने आजीविको – पासक सकडालपुत्र से | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 821 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइंदियं ।
इच्छियमनोरहे तुरियं पावेसू तं दमीसरा! ॥ Translated Sutra: वासुदेव कृष्ण ने लुप्तकेश एवं जितेन्द्रिय भगवान् को कहा – हे दमीश्वर ! आप अपने अभीष्ट मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो। आप ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति और मुक्ति के द्वारा आगे बढ़ो।इस प्रकार बलराम, केशव, दशार्ह यादव और अन्य बहुत से लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी को लौट आए। सूत्र – ८२१–८२३ | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-७ उदुंबरदत्त |
Hindi | 31 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
तए णं से सुहम्मे अनगारे जंबू अनगारं एवं वयासी–एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिसंडे नयरे। वणसंडे उज्जाने। उंबरदत्ते जक्खे।
तत्थ णं पाडलिसंडे नयरे सिद्धत्थे राया।
तत्थ णं पाडलिसंडे नयरे सागरदत्ते सत्थवाहे होत्था–अड्ढे। गंगदत्ता भारिया।
तस्स णं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ताए भारियाए अत्तए उंबरदत्ते नामं दारए होत्था–अहीन पडिपुण्ण पंचिंदियसरीरे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समोसरणं Translated Sutra: उत्क्षेप पूर्ववत्। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में पाटलिखंड नगर था। वहाँ वनखण्ड उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था। उस नगर में सिद्धार्थ राजा था। पाटलिखण्ड नगर में सागरदत्त नामक धनाढ्य सार्थवाह था। उसकी गङ्गदत्ता भार्या थी। उस सागरदत्त का पुत्र व गङ्गदत्ता भार्या का आत्मज उम्बरदत्त |