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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-२ | Hindi | 114 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘सम अन्नयरम्मि संजमे’ संसुद्धे समणे परिव्वए ।
जा आवकहा समाहिए दविए कालमकासि पंडिए ॥ Translated Sutra: संशुद्ध – श्रमण संयम में स्थित रहकर अहङ्कार – शून्य होकर समता में परिव्रजन करता है। समाहित – पंडित मृत्युकाल तक संयमाराधन करता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-२ | Hindi | 121 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘महया पलिगोव जाणिया जा वि य वंदनपूयणा इहं ।
सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज्ज संथवं’ ॥ Translated Sutra: महान् परिगोप (कीचड़) को जानकर भी जो वंदन – पूजन से सूक्ष्म शल्य को नहीं नीकाल पाता है, उस ज्ञानी को संस्तव छोड़ देना चाहिए। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-२ | Hindi | 137 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मा पेह पुरा पनामए अभिकंखे उवहिं धुणित्तए ।
जे ‘दूवन न ते हि’ नो नया ते जाणंति समाहिमाहियं ॥ Translated Sutra: पूर्वकाल में भुक्त भोगों को मत देखो। उपधि को समाप्त करने की अभिकांक्षा करो। जो विषयों के प्रति नत नहीं है, वे समाधि को जानते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-३ | Hindi | 150 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इह जीवियमेव पासहा ‘तरुन एव वाससयस्स तुट्टई’ ।
‘इत्तरवासं व बुज्झहा’ गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया ॥ Translated Sutra: इस लोक में जीवन को देखे। सौ वर्षायु युवावस्था में ही टूट जाता है। अतः जीवन अल्पकालीन निवास समान समझो। गृद्ध मनुष्य काम – भोगों में मूर्च्छित है।जो आरम्भ – निश्रित, आत्मदंडी, एकान्त – लूटेरे हैं, वे पाप – लोक में जाते हुए आसुरी – दिशा में चिरकाल तक रहेंगे। सूत्र – १५०, १५१ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-३ उपसर्ग परिज्ञा |
उद्देशक-४ यथावस्थित अर्थ प्ररुपण | Hindi | 228 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एए पुव्वं महापुरिसा आहिया इह संमया ।
भोच्चा बीयोदगं सिद्धा इइ मेयमणुस्सुयं ॥ Translated Sutra: पूर्वकालिक ये महापुरुष इस समय भी मान्य एवं कथित हैं। इन्होंने बीज एवं जल का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की थी, ऐसा मैंने परम्परा से सूना है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-३ उपसर्ग परिज्ञा |
उद्देशक-४ यथावस्थित अर्थ प्ररुपण | Hindi | 239 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जेहिं काले परक्कंतं ‘न पच्छा परितप्पए’ ।
ते धीरा बंधणुम्मुक्का नावकंखंति जीवियं ॥ Translated Sutra: जिन्होंने समय रहते (धर्म) पराक्रम किया है, वे बाद में परितप्त नहीं होते। वे बन्धन – मुक्त धीर – पुरुष जीवन की आकांक्षा नहीं करते। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-१ | Hindi | 304 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पागब्भि पाणे बहुणं तिवाई अणिव्वुडे घायमुवेइ बाले ।
‘निहो निसं’ गच्छइ अंतकाले अहोसिरं कट्टु उवेइ दुग्गं ॥ Translated Sutra: प्रमादी अनेक प्राणियों का अतिपाती, अनिवृत्त एवं अज्ञानी आघात पाता है। अन्तकाल में निन्दने रात्रि की ओर जाता है और अधोशिर होकर नरक में उत्पन्न होता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-१ | Hindi | 305 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] हन ‘छिंदह भिंदह णं दहेह’ सद्दे सुणेत्ता परधम्मियाणं ।
ते नारगा ऊ भयभिण्णसण्णा कंखंति कं नाम दिसं वयामो? ॥ Translated Sutra: हनन करो, छेदन करो, भेदन करो, जलाओ – परमाधर्मियों के ऐसे शब्द सूनकर वे नैरयिक भय से असंज्ञी हो जाते हैं और आकांक्षा करते हैं कि हम किस दिशा में चलें। वे प्रज्वलित अङ्गार राशि के समान ज्योतिमान् भूमि पर चलते हैं, दह्यमान करुण क्रन्दन करते हैं। वहाँ चिरकाल तक रहते हैं। सूत्र – ३०५, ३०६ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-१ | Hindi | 321 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] छिंदंति बालस्स खुरेन णक्कं ओट्ठे वि छिंदंति दुवे वि कण्णे ।
जिब्भं विणिक्कस्स विहत्थिमेत्तं तिक्खाहि सूलाहि भितावयंति ॥ Translated Sutra: वे उस अज्ञानी के नाक, औठ और कान छूरे से काट देते हैं। जिह्वा को वित्त मात्रा में बाहर नीकाल कर तीक्ष्ण शूलों से अभिताप देते हैं। वे मूढ़ तल (ताड़ – पत्र) संपुट की तरह संपुटित कर देने पर रात – दिन क्रन्दन करते हैं। तप्त तथा क्षारप्रदिग्ध अङ्गों से मवाद, माँस और रक्त गिरता है। सूत्र – ३२१, ३२२ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-२ | Hindi | 351 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं ‘तिरिक्खमणुयामरेसु चउरंतणंतं तयणूविवागं’ ।
स सव्वमेयं इइ वेयइत्ता कंखेज्ज कालं धुयमायरंते ॥
Translated Sutra: इस तरह तिर्यंच, मनुष्य, देव एवं नारक इन चारों में अनन्त विपाक है। वह सभी को ऐसा समझकर धुत का आचरण करता संयम पालन करता हुआ काल की आकांक्षा करे। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-७ कुशील परिभाषित |
Hindi | 410 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ‘अवि हम्ममाणे’ फलगावतुट्ठी समागमं कंखइ अंतगस्स ।
णिद्धय कम्मं न पवंचुवेइ अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ॥ Translated Sutra: परीषहों से हन्यमान भिक्षु फलक की तरह शरीर कृश होने पर काल की आकांक्षा करता है। मैं ऐसा कहता हूँ कि वह कर्म – क्षय करने पर वैसे ही प्रपंच में/संसार में गति नहीं करता, जैसे धुरा टूटने पर गाड़ी नहीं चलती। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-११ मार्ग |
Hindi | 534 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संवुडे से महापण्णे धीरे ‘दत्तेसणं चरे’ ।
निव्वुडे कालमाकंखे एवं केवलिणो मतं ॥
Translated Sutra: संवृत, महाप्राज्ञ, धीर साधु दूसरों के दिए हुए आहार आदि की एषणा करे। निर्वृत काल की आकांक्षा करे। यही केवली – मत है। – ऐसा मै कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१२ समवसरण |
Hindi | 556 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्देसु रूवेसु असज्जमाणे ‘रसेसु गंधेसु’ अदुस्समाणे ।
णो जीवियं नो मरणाभिकंखे आयाणगुत्ते ‘वलया विमुक्के’ ॥
Translated Sutra: जो शब्दों, रूपों, रसों और गंधों में राग – द्वेष नहीं करता, जीवन और मरण की अभिकांक्षा नहीं करता, इन्द्रियों का संवर करता है वह इन्द्रियजयी परावर्तन से विमुक्त है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१३ यथातथ्य |
Hindi | 571 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पण्णामदं चेव तवोमदं च णिण्णामए गोयमदं च भिक्खू ।
आजीवगं चेव चउत्थमाहु से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥ Translated Sutra: वह भिक्षु पंडित और महात्मा है जो प्रज्ञा – मद, तपो – मद, गौत्र – मद और चतुर्थ आजीविका – मद मन से नीकाल देता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१३ यथातथ्य |
Hindi | 576 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] केसिंचि तक्काए अबुज्झ भावं खुद्दं पि गच्छेज्ज असद्दहाणे ।
आउस्स कालातियारं वघातं लद्धाणुमाणे य परेसु अट्ठे ॥ Translated Sutra: किसी के भाव को तर्क से न जानने वाला अश्रद्धालु क्षुद्रता को प्राप्त करता है। अतः साधक अनुमान से दूसरों के अभिप्राय को जानकर आयु का मरणातिचार और व्याघात करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१४ ग्रंथ |
Hindi | 594 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कालेन पुच्छे समियं पयासु आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं ।
तं सोयकारी य पुढो पवेसे संखाइमं केवलियं समाहिं ॥ Translated Sutra: प्रजा के मध्य द्रव्य एवं चित्त के व्याख्याकार से उचित समय पर समाधि के विषय में पूछे और कैवलिक – समाधि को जानकर उसे हृदय में स्थापित करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 634 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह पुरिसे पुरत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणिं, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासंति तं महं एगं पउमवर-पोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहमंसि पुरिसे ‘देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू। अहमेतं पउमवरपोंडरीयं ‘उण्णिक्खिस्सामि त्ति वच्चा’ से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणिं। जाव-जावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए ‘णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए Translated Sutra: अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस पुष्करिणी के तीर पर खड़ा होकर उस महान उत्तम एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमशः सुन्दर रचना से युक्त यावत् बड़ा ही मनोहर है। इसके पश्चात् उस श्वेतकमल को देखकर उस पुरुष ने इस प्रकार कहा – ‘‘मैं पुरुष हूँ, खेदज्ञ हूँ, कुशल हूँ, पण्डित, व्यक्त, मेघावी तथा अबाल हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 635 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चे पुरिसजाते–अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणिं, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
तं च एत्थ एगं पुरिसजाय पासइ पहीणतीरं, अपत्तपउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए ‘नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णं’।
तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसे ‘अदेसकालण्णे अखेत्तण्णे अकुसले अपंडिए अविअत्ते अमेधावी बाले नो मग्गण्णे नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णे नो परक्क-मण्णू’, जण्णं एस पुरिसे ‘अहं देसकालण्णे खेत्तण्णे Translated Sutra: अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है। दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर दक्षिण किनारे पर ठहर कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, यावत् अत्यन्त सुन्दर है। वहाँ वह उस पुरुष को देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चूका है, और उस प्रधान श्वेत – कमल तक पहुँच | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 636 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चे पुरिसजाते– अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ दोण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला नो मग्गण्णा नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णा नो परक्कमण्ण, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे– ‘अम्हे तं पउमवरपोंडरीयं Translated Sutra: दूसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उसके किनारे खड़ा हो कर उस एक महान श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो विशेष रचना से युक्त यावत् पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अत्यन्त मनोहर है। वह वहाँ उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से भ्रष्ट हो चूके और उस उत्तम श्वेत कमल को भी | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 637 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे चउत्थे पुरिसजाते–अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति ‘तं महं’ एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ तिण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला नो मग्गण्णा नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णा नो परक्कमण्णू, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे–’अम्हे एतं पउमवरपोंड-रीयं Translated Sutra: तीसरे पुरुष के पश्चात् चौथा पुरुष उत्तर दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर, किनारे खड़ा होकर उस एक महान श्वेत कमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त यावत् मनोहर है। तथा वह वहाँ उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से बहुत दूर हट चूके हैं और श्वेत कमल तक भी नहीं पहुँच सके हैं अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 638 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू लूहे तोरट्ठी देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू अन्नतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से भिक्खू एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला Translated Sutra: इसके पश्चात् राग – द्वेष रहित, संसार – सागर के तीर यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष भिक्षापात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उसके तट पर खड़ा होकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अत्यन्त विशाल यावत् मनोहर है। और वहाँ वह भिक्षु उन चारों | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 641 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अनुपुव्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा –आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राय भवति–महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति।
तस्स णं रण्णो परिसा भवति–उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, ‘नागा नागपुत्ता’, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसत्थारो पसत्थपुत्ता, सेणावई सेणावइपुत्ता।
तेसिं Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कईं प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे कि – उन मनुष्यों में कईं आर्य होते हैं अथवा कईं अनार्य होते हैं, कईं उच्चगोत्रीय होते हैं, कईं नीचगोत्रीय। उनमें से कोई भीमकाय होता है, कईं ठिगने कद के होते हैं। कोई सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बूरे वर्ण | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 644 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे चउत्थे पुरिसजाते नियतिवाइए त्ति आहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अनुपुव्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा– आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवति–महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति।
तस्स णं रण्णो परिसा भवति– उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, नागा नागपुत्ता, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, Translated Sutra: अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया गया है। इस मनुष्यलोक में पूर्वादि दिशाओं के वर्णन से यावत् प्रथम पुरुषोक्त पाठ के समान जानना। पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। उसे धर्मश्रद्धालु जान कर उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं। यावत् वे उसके | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 645 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: से बेमि–पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति, तं जहा–‘अप्पयरा वा भुज्जयरा’ वा। तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाइं भवंति, तं जहा–‘अप्पयरा वा भुज्जयरा’ वा। तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्ठिया। सतो वा वि एगे नायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया। असतो वा वि एगे नायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया।
जे ते सतो Translated Sutra: मैं ऐसा कहता हूँ कि पूर्व आदि चारों दिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, यावत् कोई कुरूप। उनके पास खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन तथा जनपद परिगृहीत होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक। इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 647 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहा–पुढवीकाए आउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए।
से जहानामए मम असायं दंडेन वा अट्ठीन वा मुट्ठीन वा लेलुणा वा कवालेन वा आउडिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा ‘किलामिज्जमाणस्स वा उद्दविज्जमाणस्स वा’ जाव लोमुक्खणणमा-यमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि– इच्चेवं जाण।
सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता दंडेन वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेन वा आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परिताविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा Translated Sutra: सर्वज्ञ भगवान तीर्थंकर देव ने षट्जीवनिकायों को कर्मबन्ध के हेतु बताए हैं। जैसे कि – पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक। जैसे कोई व्यक्ति मुझे डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले या पथ्थर से, अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखाकर धमकाता है, या डाँटता है, अथवा ताड़न करता | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 650 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ–
से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते नो अच्चाए नो अजिणाए नो मंसाए नो सोणियाए नो हिययाए नो पित्ताए नो वसाए नो पिच्छाए नो पुच्छाए नो बालाए नो सिंगाए नो विसाणाए ‘नो दंताए नो दाढाए’ नो णहाए नो ण्हारुणिए नो अट्ठीए नो अट्ठिमिंजाए,
‘नो हिंसिंसु मे त्ति, नो हिंसंति मे त्ति, नो हिंसिस्संति’ मे त्ति,
नो पुत्तपोसणाए नो पसुपोसणाए नो अगारपरिवूहणयाए नो समणमाहणवत्तणाहेउं नो तस्स सरीरगस्स ‘किंचि विपरिया-इत्ता’ भवति।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता ओदवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति–अणट्ठादंडे।
से Translated Sutra: इसके पश्चात् दूसरा दण्डसमादानरूप क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कोई पुरुष ऐसा होता है, जो इन त्रसप्राणियों को न तो अपने शरीर की अर्चा के लिए मारता है, न चमड़े के लिए, न ही माँस के लिए और न रक्त के लिए मारता है। एवं हृदय के लिए, पित्त के लिए, चर्बी के लिए, पिच्छ पूंछ, बाल, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 659 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति आहिज्जइ–जे इमे भवंति गूढायारा तमोकासिया उलूगपत्तलहुया पव्वयगुरुया, ते आरिया वि संता अनारियाओ भासाओ पउंजंति, अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मण्णंति, अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरेंति, अन्नं आइक्खियव्वं अन्नं आइक्खंति।
से जहानामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सल्लं नो सयं णीहरति, नो अन्नेन णीहरावेति, नो पडिविद्धंसेति, एवमेव णिण्हवेति, अविउट्टमाणे अंतो-अंतो रियाति, एवमेव माई मायं कट्टु नो आलोएइ, नो पडिक्कमेइ, नो णिंदइ, नो गरहइ, नो विउट्टइ, नो विसोहेइ, नो अकरणाए अब्भुट्ठेइ, नो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ।
माई अस्सिं लोए Translated Sutra: ग्यारहवाँ क्रियास्थान है, मायाप्रत्ययिक है। ऐसे व्यक्ति, जो किसी को पता न चल सके, ऐसे गूढ़ आचार वाले होते हैं, लोगों को अंधेरे में रखकर कायचेष्टा या क्रिया करते हैं, तथा उल्लू के पंख के समान हलके होते हुए भी अपने आपको पर्वत के समान बड़ा भारी समझते हैं, वे आर्य्य होते हुए भी अनार्यभाषाओं का प्रयोग करते हैं, वे अन्य | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 660 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे बारसमे किरियट्ठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिज्जइ–जे इमे भवंति आरण्णिया आवसहिया गामंतिया कण्हुई-रहस्सिया नो बहुसंजया, नो बहुपडिविरया सव्वपाणभूयजीवसत्तेहिं, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विउंजंति–अहं न हंतव्वो अन्ने हंतव्वा, अहं न अज्जावेयव्वो अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं न परिघेतव्वो अन्ने परिघेतव्वा, अहं न परितावेयव्वो अन्ने परितावेयव्वा अहं न उद्दवेयव्वो अन्ने उद्दवेयव्वा।
एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाइं चउपंचमाइं छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोगभोगाइं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किब्बिसिएसु Translated Sutra: इसके पश्चात् बारहवा क्रियास्थान लोभप्रत्ययिक है। वह इस प्रकार है – ये जो वन में निवास करने वाले हैं, जो कुटी बनाकर रहते हैं, जो ग्राम के निकट डेरा डाल कर रहते हैं, कईं एकान्त में निवास करते हैं, अथवा कोई रहस्यमयी गुप्त क्रिया करते हैं। ये आरण्यक आदि न तो सर्वथा संयत हैं और न ही विरत हैं, वे समस्त प्राणों, भूतों, | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 661 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिए त्ति आहिज्जइ–इह खलु अत्तत्ताए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंड-ऽमत्त-णिक्खेवणासमियस्स उच्चार-खेल-‘सिंघाण-जल्ल’–पारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबंभया आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स ‘आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स’ आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि, अत्थि विमाया सुहुमा किरिया इरियावहिया नाम Translated Sutra: पश्चात् तेरहवा क्रियास्थान ऐर्यापथिक है। इस जगत में या आर्हतप्रवचन में जो व्यक्ति अपने आत्मार्थ के लिए उपस्थित एवं समस्त परभावों या पापों से संवृत्त है तथा घरबार आदि छोड़कर अनगार हो गया है, जो ईर्या – समिति से युक्त है, जो भाषासमिति से युक्त है, जो एषणासमिति का पालन करता है, जो पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 662 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अदुत्तरं च णं पुरिस-विजय-विभंगमाइक्खिस्सामि– इह खलु नानापण्णाणं नानाछंदानं नानासीलाणं नानादिट्ठीणं नानारुईणं नानारंभाणं नानाज्झवसाणसंजुत्ताणं ‘इहलोगपडिबद्धाणं परलोगणिप्पि-वासाणं विसयतिसियाणं इणं’ नानाविहं ‘पावसुयज्झयणं भवइ’, तं जहा–
१. भोमं २. उप्पायं ३. सुविणं ४. अंतलिक्खं ५. अंगं ६. सरं ७. लक्खणं ८. वंजणं ९. इत्थिलक्खणं १. पुरिसलक्खणं ११. हय-लक्खणं १२. गय-लक्खणं १३. गोण-लक्खणं १४. मेंढ-लक्खणं १५. कुक्कुड-लक्खणं १६. तित्तिरलक्खणं १७. वट्टगलक्खणं १२. लावगलक्खणं
१९. चक्कलक्खणं २. छत्तलक्खणं २१. चम्म-लक्खणं २२. दंड-लक्खणं २३. असि-लक्खणं २४. मणिलक्खणं २५. कागणिलक्खणं Translated Sutra: इसके पश्चात् पुरुषविजय अथवा पुरुषविचय के विभंग का प्रतिपादन करूँगा। इस मनुष्यक्षेत्र में या प्रवचन में नाना प्रकार की प्रज्ञा, नाना अभिप्राय, नाना प्रकार के शील, विविध दृष्टियों, अनेक रुचियों, नाना प्रकार के आरम्भ तथा नाना प्रकार के अध्यवसायों से युक्त मनुष्यों द्वारा अनेकविध पापशास्त्रों का अध्ययन किया | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 663 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ आयहेउं वा ‘नाइहेउं वा’ अगारहेउं वा परिवारहेउं वा नायगं वा सहवासियं वा निस्साए–१. अदुवा अणुगामिए २.अदुवा उवचरए ३.अदुवा पाडिपहिए ४.अदुवा संधिच्छेयए ५.अदुवा गंठि-च्छेयए ६. अदुवा ओरब्भिए ७. अदुवा सोयरिए ८. अदुवा वागुरिए ९. अदुवा साउणिए १. अदुवा मच्छिए ११. अदुवा गोवालए १२. अदुवा गोघायए १३. अदुवा सोवणिए १४. अदुवा सोवणियंतिए
से एगइओ अणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगमिय हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति–इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति।
से एगइओ उवचरगभावं पडिसंधाय तमेव उवचरिय हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता Translated Sutra: कोई पापी मनुष्य अपने लिए अथवा अपने ज्ञातिजनों के लिए अथवा कोई अपना घर बनाने के लिए या अपने परिवार के भरण – पोषण के लिए अथवा अपने नायक या परिचित जन तथा सहवासी के लिए निम्नोक्त पापकर्म का आचरण करने वाले बनते हैं – अनुगामिक बनकर, उपचरक बनकर, प्रातिपथिक बनकर, सन्धिच्छेदक बनकर, ग्रन्थिच्छेदक बनकर, औरभ्रिक बनकर, शौकरिक | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 664 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ परिसामज्झाओ उट्ठेत्ता अहमेयं हणामि त्ति कट्टु तित्तिरं वा वट्टगं वा [चडगं वा?] लावगं वा कवोयगं वा [कविं वा?] कविंजलं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ–इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति।
से एगइओ केणइ आदाणेणं विरुद्धे समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्तान वा सयमेव अगनिकाएणं सस्साइं ज्झामेइ, अन्नेन वि अगनिकाएणं सस्साइं ज्झामावेइ, अगनिकाएणं सस्साइं ज्झामेंतं पि अन्नं समणुजाणइ–इति से महया पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति।
से एगइओ केणइ आदाणेणं Translated Sutra: (१) कोई व्यक्ति सभा में खड़ा होकर प्रतिज्ञा करता है – मैं इस प्राणी को मारूँगा।’ तत्पश्चात् वह तीतर, बतख, लावक, कबूतर, कपिंजल या अन्य किसी त्रसजीव को मारता है, छेदन – भेदन करता है, यहाँ तक कि उसे प्राणरहित कर डालता है। अपने इस महान पापकर्म के कारण वह स्वयं को महापापी नाम से प्रख्यात कर देता है (२) कोई पुरुष किसी कारण | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 665 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाइं भवंति, तं जहा–अप्पयरा वा भुज्जयरा वा। तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाइं भवंति,तं जहा–अप्पयरा वा भुज्जयरा वा। तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्ठिया। सतो वा वि एगे नायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया। असतो वा वि एगे नायओ य उवगरणं च Translated Sutra: इसके पश्चात् द्वितीय स्थान धर्मपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा जाता है – इस मनुष्यलोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में अनेक प्रकार के मनुष्य रहते हैं, जैसे कि – कईं आर्य होते हैं, कईं अनार्य अथवा कईं उच्चगोत्रीय होते हैं, कईं नीचगोत्रीय, कईं विशालकाय होते हैं, कईं ह्रस्वकाय, कईं अच्छे वर्ण के होते | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 666 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–जे इमे भवंति आरण्णिया आवसहिया गामंतिया कण्हुई-रहस्सिया नो बहुसंजया, नो बहुपडिविरया सव्वपाणभूयजीवसत्तेहिं, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विउंजंति–अहं न हंतव्वो अन्ने हंतव्वा, अहं न अज्जावेयव्वो अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं न परिघेतव्वो अन्ने परिघेतव्वा, अहं न परितावेयव्वो अन्ने परितावेयव्वा अहं न उद्दवेयव्वो अन्ने उद्दवेयव्वा। एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाइं चउपंचमाइं छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोगभोगाइं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किब्बिसिएसु Translated Sutra: इसके पश्चात् तीसरे स्थान मिश्रपक्ष का विकल्प इस प्रकार है – जो ये आरण्यक है, यह जो ग्राम के निकट झौंपड़ी या कुटिया बनाकर रहते हैं, अथवा किसी गुप्त क्रिया का अनुष्ठान करते हैं, या एकान्त में रहते हैं, यावत् फिर वहाँ से देह छोड़कर इस लोक में बकरे की तरह मूक के रूप में या जन्मान्ध के रूप में आते हैं। यह स्थान अनार्य | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 667 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति– महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया ‘अधम्माणुया अधम्मिट्ठा’ अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोइणो अधम्मपलज्जणा अधम्मसील-समुदाचारा अधम्मेन चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, ‘हण’ ‘छिंद’ ‘भिंद’ विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उक्कंचण-वंचण-माया-णियडि-कूड-कवड-साइ-संपओगबहुला दुस्सीला दुव्वया दुप्पडियाणंदा असाहू सव्वाओ पानाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ Translated Sutra: इसके पश्चात् प्रथम स्थान जो अधर्मपक्ष है, उसका विश्लेषणपूर्वक विचार किया जाता है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य ऐसे होते हैं, जो गृहस्थ होते हैं, जिनकी बड़ी – बड़ी इच्छाएं होती हैं, जो महारम्भी एवं महापरिग्रही होते हैं। वे अधार्मिक, अधर्म का अनुसरण करने या अधर्म की अनुज्ञा देने वाले, अधर्मिष्ठ, | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 668 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणंसंठिया णिच्चंधगारतमसा ववगय-गह-चंद-सूर-नक्खत्त-जोइसप्पहा मेद-वसा-मंस-रुहिर-पूय-पडल-चिक्खल्ल-लित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा कण्ह अगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा। असुभा णरएसु वेयणाओ। नो चेव णं णरएसु णेरइया णिद्दायंति वा पयलायंति वा सइं वा रइं वा धिइं वा मइं वा उवलभंते। ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिव्वं दुरहियासं णेरइय-वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति। Translated Sutra: वे नरक अंदर से गोल और बाहर से चौकोन होते हैं, तथा नीचे उस्तरे की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। उनमें सदा घोर अन्धकार रहता है। वे ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिष्कमण्डल की प्रभा से रहित हैं। उनका भूमितल भेद, चर्बी, माँस, रक्त, और मवाद की परतों से उत्पन्न कीचड़ से लिप्त है। वे नरक अपवित्र, सड़े हुए माँस से | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 670 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–जइ खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्म-समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वाओ पानाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए,सव्वाओ अदिन्नादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ Translated Sutra: पश्चात् दूसरे धर्मपक्ष का विवरण है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ, अपरिग्रह होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 671 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू, एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव-ज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। Translated Sutra: इसके पश्चात् तृतीय स्थान, जो मिश्रपक्ष है, उसका विभंग इस प्रकार है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य होते हैं, जैसे कि – वे अल्प ईच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं। वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, यहाँ तक कि धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हुए जीवनयापन करते | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 673 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: ते सव्वे पावादुया आइगरा धम्माणं, नानापण्णा नानाचंदा नानासीला नानादिट्ठी नानारुई नानारंभा नानाज्झवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगओ चिट्ठंति।
पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावादुए आइगरे धम्माणं, नानापण्णे नानाछंदे नानासीले नानादिट्ठी नानारुई नानारंभे नानाज्झ-वसाणसंजुत्ते एवं वयासी– हंभो पावादया! आइगरा! धम्माणं, नानापण्णा! नानाछंदा! नानासीला! नानादिट्ठी! नानारुई! नानारंभा! नानाज्झवसाणसंजुत्ता! इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुण्णं गहाय मुहुत्तगं-मुहुत्तगं पाणिणा धरेह। नो बहु संडासगं Translated Sutra: वे पूर्वोक्त प्रावादुक अपने – अपने धर्म के आदि – प्रवर्तक हैं। नाना प्रकार की बुद्धि, नाना अभिप्राय, विभिन्न शील, विविध दृष्टि, नानारुचि, विविध आरम्भ और विभिन्न निश्चय रखने वाले वे सभी प्रावादुक एक स्थान में मंडलीबद्ध होकर बैठे हों, वहाँ कोई पुरुष आग के अंगारों से भरी हुई किसी पात्री को लोहे की संडासी से पकड़ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ आचार श्रुत |
Hindi | 734 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असेसं अक्खयं वावि सव्वं दुक्खे ति वा पुणो ।
वज्झा पाणा ‘अवज्झ त्ति’ इति वायं न नीसिरे ॥ Translated Sutra: जगत के अशेष पदार्थ अक्षय हैं, अथवा एकान्त अनित्य हैं, तथा सारा जगत एकान्तरूप से दुःखमय है, एवं अमुक प्राणी वध्य हैं, अमुक अवध्य हैं, ऐसा वचन भी साधु को (मुँह से) नहीं नीकालना चाहिए। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 740 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतमेव अदुवा वि इण्हिं दोऽवण्णमण्णं न समेंति जम्हा ।
‘पुव्विं च इण्हिं च अणागयं च’ ‘एगंतमेव पडिसंधयाइ’ ॥ Translated Sutra: इस प्रकार या तो महावीरस्वामी का पहला व्यवहार एकान्त विचरण ही अच्छा हो सकता है, अथवा इस समय का अनेक लोगों के साथ रहने का व्यवहार ही अच्छा हो सकता है। किन्तु परस्पर विरुद्ध दोनों आचरण अच्छे नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है। (गोशालक के आक्षेप का आर्द्रकमुनि ने इस प्रकार समाधान किया – ) श्रमण भगवान | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 782 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दयावरं ‘धम्म दुगुंछमाणे’ वहावहं धम्म पसंसमाणे ।
एगं पि जे भोययई असीलं ‘णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले’ ॥ Translated Sutra: दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप एक भी कुशील ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह अन्धकारयुक्त नरक में जाता है, फिर देवों में जाने की तो बात ही क्या है ? | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 783 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुहओवि धम्मम्मि समुठियामो अस्सिं सुट्ठिच्चा तह एस कालं ।
आयारसीले बुइएह णाणे न संपरायम्मि विसेसमत्थि ॥ Translated Sutra: (सांख्यमतवादी एकदण्डीगण आर्द्रकमुनि से कहने लगे – ) आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं। तीनों कालों में धर्म में भलीभाँति स्थित हैं। (हम दोनों के मत में) आचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है। आपके और हमारे दर्शन में ‘संसार’ के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 793 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं णयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे जाव पडिरूवे।
तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं नालंदा नामं बाहिरिया होत्था–अणेगभवण-सयसण्णिविट्ठा पासादीया दरिसनिया अभिरूवा पडिरूवा। Translated Sutra: धर्मोपदेष्टा तीर्थंकर महावीर के उस काल में तथा उस समय में राजगृह नामका नगर था। वह ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध था, यावत् बहुत ही सुन्दर था। उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग में नालन्दा नामकी बाहिरिका – उपनगरी थी। वह अनेक – सैकड़ों भवनों से सुशोभित थी, यावत् प्रतिरूप थी। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 801 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तसा वि वुच्चंति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा, नामं च णं अब्भुवगयं भवइ। ‘तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवइ, तसकायट्ठिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, ते तओ आउयं विप्पजहित्ता थावरत्ताए पच्चायंति’। थावरा वि वुच्चंति थावरा थावर-संभारकडेणं कम्मुणा, नामं च णं अब्भुवगयं भवइ। ‘थावराउयं च णं पलिक्खीणं भवइ,’ थावरकायट्ठिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, ते तओ आउयं विप्पजहित्ता भुज्जो पारलोइयत्ताए पच्चायंति।
ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्ठिइया। Translated Sutra: त्रस जीव भी त्रस सम्भारकृत कर्म के कारण त्रस कहलाते हैं। और वे त्रसनामकर्म के कारण ही त्रसनाम धारण करते हैं। और जब उनकी त्रस की आयु परीक्षिण हो जाती है तथा त्रसकाय में स्थितिरूप कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं; और त्रस का आयुष्य छोड़कर वे स्थावरत्व को प्राप्त करते हैं। स्थावर जीव भी स्थावरसम्भारकृत | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 802 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी–आउसंतो! गोयमा! नत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणो-वासगस्स ‘एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते’। कस्स णं तं हेउं?
संसारिया खलु पाणा–थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति। तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति। थावरकायाओ विप्पमुच्च-माणा सव्वे तसकायंसि उववज्जंति। तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववज्जंति। तेसिं च णं थावरकायंसि उवव-ण्णाणं ठाणमेयं धत्तं।
सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी–नो खलु आउसो! अस्माकं वत्तव्वएणं तुब्भं चेव अणुप्पवाएणं अत्थि णं से परियाए जे णं समणोवासगस्स सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं Translated Sutra: (पुनः) उदक पेढ़ालपुत्र ने वादपूर्वक भगवान गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा – आयुष्मन् गौतम ! (मेरी समझ में) जीव की कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जिसे दण्ड न देकर श्रावक अपने एक भी प्राणी के प्राणातिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान को सफल कर सके ! उसका कारण क्या है ? (सूनिए) समस्त प्राणी परिवर्तनशील हैं, (इस कारण) कभी स्थावर प्राणी | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 804 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा–आउसंतो! नियंठा! इह खलु परिव्वायया वा परिव्वाइयाओ
वा अन्नयरेहिंतो तित्थायतणेहिंतो आगम्म धम्मस्सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा?
हंता उवसंकमेज्जा।
‘किं तेसिं’ तहप्पगाराणं धम्मे आइक्खियव्वे?
हंता आइक्खियव्वे।
किं ते तहप्पगारं धम्मं सोच्चा निसम्म एवं वएज्जा–इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अनुत्तरंकेवलियं पडिपुण्णं णेयाउयं संसुद्धं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहं असंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। एत्थ ठिया जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। इमाणाए Translated Sutra: भगवान श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा – मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है – आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस लोक में परिव्राजक अथवा परिव्राजिकाएं किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों से चलकर धर्मश्रवण के लिए क्या निर्ग्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ? निर्ग्रन्थ – हाँ, आ सकती हैं। श्री गौतमस्वामी – क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 805 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] १. तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्प जहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निक्खित्ते, तेसु पच्चायंति तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ।
ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्ठिइया। ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ। ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ। से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह– ‘नत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते।’ Translated Sutra: (१) ऐसी स्थिति में (श्रमणोपासक के व्रतग्रहण के समय) स्वीकृत मर्यादा के (अन्दर) रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, जिनका उसने अपने व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड देने का प्रत्याख्यान किया है, वे प्राणी अपनी आयु को छोड़कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्तर क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं, तब भी श्रमणोपासक | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-३ उपसर्ग परिज्ञा |
उद्देशक-२ अनुकूळ उपसर्ग | Gujarati | 190 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इच्चेव णं सुसेहंति कालुणीयउवट्ठिया ।
विबद्धो नाइसंगेहि तओऽगारं पहावइ ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૮૭ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-३ | Gujarati | 75 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] असंवुडा अणादीयं भमिहिंति पुणो-पुणो ।
कप्पकालमुवज्जंति ठाणा आसुरकिब्बिसिय ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૪ |