Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Devendrastava | દેવેન્દ્રસ્તવ | Ardha-Magadhi |
इसिप्रभापृथ्वि एवं सिद्धाधिकार |
Gujarati | 303 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुरगणइड्ढि समग्गा सव्वद्धापिंडिया अनंतगुणा ।
न वि पावे जिनइड्ढिं नंतेहिं वि वग्गवग्गूहिं ॥ Translated Sutra: સમગ્ર દેવોની અને તેના સમગ્ર કાળની જે ઋદ્ધિ છે, તેનું અનંતગણુ કરીએ તો પણ જિનેશ્વર પરમાત્માની ઋદ્ધિના અનંતાનંત ભાગ બરાબર ન થાય. સંપૂર્ણ વૈભવ અને ઋદ્ધિયુક્ત ભવનપતિ, વાણવ્યંતર, જ્યોતિષ્ક અને વિમાનવાસી દેવ પણ અરહંતોને વંદન કરે છે. ભવનપતિ, વાણવ્યંતર, વિમાનવાસી દેવો અને ઋષિપાલિત પોતપોતાની બુદ્ધિથી જિન – મહિમા | |||||||||
Devendrastava | દેવેન્દ્રસ્તવ | Ardha-Magadhi |
इसिप्रभापृथ्वि एवं सिद्धाधिकार |
Gujarati | 305 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भवनवइ वाणमंतर जोइसवासी विमानवासी य ।
इसिवालियमइमहिया करेंति महिमं जिनवराणं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૩૦૩ | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 25 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाहए ।
सो धन्नो, सो य पुण्णो य, स बंधू मोक्खदायगो ॥ Translated Sutra: जो आचार्य शिष्यसमूह को करने लायक कार्य में प्रेरणा करते हैं और सूत्र एवं अर्थ पढ़ाते हैं, वह आचार्य धन्य है, पवित्र है, बन्धु है और मोक्षदायक है। वही आचार्य भव्यजीव के लिए चक्षु समान कहे हैं कि जो जिनेश्वर के बताए हुए अनुष्ठान यथार्थ रूप से बताते हैं। सूत्र – २५, २६ | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 27 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थयरसमो सूरी सम्मं जो जिनमयं पयासेइ ।
आणं अइक्कमंतो सो काउरिसो, न सप्पुरिसो ॥ Translated Sutra: जो आचार्य सम्यक् तरह से जिनमत प्रकाशते हैं वो तीर्थंकर समान हैं और जो उनकी आज्ञा का उल्लंघन करते हैं वो कापुरुष हैं, सत्पुरुष नहीं। | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 33 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जइ वि न सक्कं काउं सम्मं जिनभासियं अनुट्ठाणं ।
तो सम्मं भासिज्जा जह भणियं खीणरागेहिं ॥ Translated Sutra: अपनी कमझोरी के कारण से शायद त्रिकरणशुद्ध से जिनभाषित अनुष्ठान न कर सके, तो भी जैसे श्री वीतरागदेव न कहा है, वैसे यथार्थ सम्यक् तरह से तत्त्व प्ररूपे। | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 36 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूए अत्थि भविस्संति केइ तेलोक्कनमंसणीयकमजुयले ।
जेसिं परहियकरणेक्कबद्धलक्खाण वोलिही कालो ॥ Translated Sutra: त्रिलोकवर्ती जीव ने जिसके चरणयुगल को नमस्कार किया है ऐसे कुछ जीव ही भूतकाल में थे, अभी हैं और भावि में होंगे कि जिनका काल मात्र भी दूसरों का हित करने के ही एक लक्षपूर्वक बीतता है। | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 37 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तीयानागयकाले केई होहिंति गोयमा! सूरी ।
जेसिं नामग्गहणे वि होज्ज नियमेण पच्छित्तं । Translated Sutra: गौतम ! भूत, भावि और वर्तमान काल में भी कुछ ऐसे आचार्य हैं, कि जिनका केवल नाम ही ग्रहण किया जाए, तो भी यकीनन प्रायश्चित्त लगता है। जैसे लोक में नौकर और वाहन शिक्षा बिना स्वेच्छाचारी होता है, वैसे शिष्य भी स्वेच्छाचारी होता है। इसलिए गुरु ने प्रतिपृच्छा और प्रेरणादि द्वारा शिष्य वर्ग को हंमेशा शिक्षा देनी चाहिए। सूत्र | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 39 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो उ प्पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव य ।
सीसवग्गं न चोएइ, तेण आणा विराहिया ॥ Translated Sutra: जो आचार्य आदि उपाध्याय प्रमाद से या आलस से शिष्यवर्ग को मोक्षानुष्ठान के लिए प्रेरणा नहीं करते, उन्होंने जिनेश्वर की आज्ञा का खंड़न किया है यह समझना चाहिए। | |||||||||
Gacchachar | ગચ્છાચાર | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Gujarati | 27 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थयरसमो सूरी सम्मं जो जिनमयं पयासेइ ।
आणं अइक्कमंतो सो काउरिसो, न सप्पुरिसो ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૫ | |||||||||
Gacchachar | ગચ્છાચાર | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Gujarati | 33 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जइ वि न सक्कं काउं सम्मं जिनभासियं अनुट्ठाणं ।
तो सम्मं भासिज्जा जह भणियं खीणरागेहिं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૩. જો જિનભાષિત અનુષ્ઠાન કદાચ સમ્યક્પણે ન કરી(આચરી) શકે તો પણ વિતરાગ – જિનેશ્વરે કહેલ છે, તેને સમ્યક્ રીતે પ્રરૂપે. ... સૂત્ર– ૩૪. મુનિચર્યામાં શિથિલ હોવાછતાં પણ વિશુદ્ધ ચરણસિત્તરી અને કરણસિત્તરીની પ્રશંસા કરી પ્રરૂપણા કરનાર સુલભબોધી જીવ પોતાના કર્મોને શિથિલ કરે છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૩૩, ૩૪ | |||||||||
Ganividya | गणिविद्या | Ardha-Magadhi |
प्रथमद्वारं दिवसं |
Hindi | 1 | Gatha | Painna-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वोच्छं बलाऽबलविहिं नवबलविहिमुत्तमं विउपसत्थं ।
जिनवयणभासियमिणं पवयणसत्थम्मि जह दिट्ठं ॥ Translated Sutra: प्रवचन शास्त्र में जिस तरह से दिखाया गया है, वैसा यह जिनभाषित वचन है और विद्वान् ने प्रशंसा की है वैसी उत्तम नव बल विधि मैं कहूँगा। | |||||||||
Ganividya | गणिविद्या | Ardha-Magadhi |
अष्टमंद्वारं लग्न |
Hindi | 69 | Gatha | Painna-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोमग्गहविलग्गेसु सेहनिक्खमणं करे ।
कूरग्गहविलग्गेसु उत्तमट्ठं तु कारए ॥ Translated Sutra: सौम्यग्रह लग्न में हो तब शिष्यदीक्षा करना, क्रूरग्रह लग्न में हो तब उत्तमार्थ साधना करनी। राहु या केतु लग्न में सर्वकर्म वर्जन करने, प्रशस्त लग्न में प्रशस्त कार्य करे। अप्रशस्त लग्न में सर्व कार्य वर्जन करने। जिनेश्वर भाषित् ऐसे ग्रह के लग्न को जानने चाहिए। सूत्र – ६९–७१ | |||||||||
Ganividya | गणिविद्या | Ardha-Magadhi |
अष्टमंद्वारं लग्न |
Hindi | 71 | Gatha | Painna-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पसत्थेसु लग्गेसु सव्वकम्माणि वज्जए ।
एवं लग्गाणि जाणिज्जा गहाण जिनभासिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६९ | |||||||||
Ganividya | ગણિવિદ્યા | Ardha-Magadhi |
प्रथमद्वारं दिवसं |
Gujarati | 1 | Gatha | Painna-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वोच्छं बलाऽबलविहिं नवबलविहिमुत्तमं विउपसत्थं ।
जिनवयणभासियमिणं पवयणसत्थम्मि जह दिट्ठं ॥ Translated Sutra: પ્રવચન શાસ્ત્રમાં જે રીતે દેખાડેલ છે, એવું આ જિનભાષિત વચન છે, વિદ્વાનોએ પ્રશંસેલ છે, તેવી ઉત્તમ નવ બલ વિધિની બળાબળ વિધિ હું કહીશ – | |||||||||
Ganividya | ગણિવિદ્યા | Ardha-Magadhi |
अष्टमंद्वारं लग्न |
Gujarati | 71 | Gatha | Painna-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पसत्थेसु लग्गेसु सव्वकम्माणि वज्जए ।
एवं लग्गाणि जाणिज्जा गहाण जिनभासिए ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૬૯ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 12 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी अन्नदा कदाइ तंसि तारिसगंसि–छक्कट्ठग-लट्ठमट्ठ-संठिय-खंभुग्गय-पवरवर-सालभंजिय-उज्जलमणिकनगरयणथूभियविडंकजालद्ध चंदनिज्जूहंतरकणयालिचंदसालियावि-भत्तिकलिए सरसच्छधाऊबलवण्णरइए बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे अब्भिंतरओ पसत्त-सुविलिहिय-चित्तकम्मे नानाविह-पंचवण्ण-मणिरयण-कोट्ठिमतले पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुप्फजाइ-उल्लोय-चित्तिय-तले वंदन-वरकनगकलससुणिम्मिय-पडिपूजिय-सरसपउम-सोहंतदारभाए पयरग-लंबंत-मणिमुत्त-दाम-सुविरइयदारसोहे सुगंध-वरकुसुम-मउय-पम्हलसयणोवयार-मणहिययनिव्वुइयरे कप्पूर-लवंग- मलय-चंदन- कालागरु-पवर- कुंदुरुक्क-तुरुक्क- धूव-डज्झंत- सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धुयाभिरामे Translated Sutra: वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी। वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य आलन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुंदर आकार वाले और ऊंचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हुई थीं। उज्ज्वल मणियों, कनक और कर्केतन आदि रत्नों के शिखर, कपोच – पारी, गवाक्ष, अर्ध – चंद्राकार सोपान, निर्यूहक करकाली तथा चन्द्रमालिका | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 15 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्त-सुइय-सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण-सरससुरभि-मुक्क-पुप्फपुं-जोवयारकलियं कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डज्झंत-सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर गंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरि-सवस-विसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से सेणिए राया कल्लं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा – हे देवानुप्रिय ! आज बाहर की उपस्थानशाला को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफ – सूथरी, लीपी हुई, पाँच वर्णों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुंदुरुक्क, तुरुष्क | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 18 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीइक्कंतेसु तइए मासे वट्टमाणे तस्स गब्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भवित्था– धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं मानुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ णं मेहेसु अब्भुग्गएसु अब्भुज्जएसु अब्भुण्णएसु अब्भुट्ठिएसु सगज्जिएसु सविज्जएसु सफुसिएसु सथणिएसु धंतधोय-रुप्पपट्ट-अंक-संख-चंद-कुंद-सालिपिट्ठरासिसमप्पभेसु चिकुर-हरियाल-भेय-चंपग-सण-कोरंट-सरिसव-पउमरयसमप्पभेसु लक्खा-रस-सरस- रत्त-किंसुय- Translated Sutra: तत्पश्चात् दो मास व्यतीत हो जाने पर जब तीसरा मास चल रहा था तब उस गर्भ के दोहदकाल के अवसर पर धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल – मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ – जो माताएं अपने अकाल – मेघ के दोहद को पूर्ण करती हैं, वे माताएं धन्य हैं, वे पुण्यवती हैं, वे कृतार्थ हैं। उन्होंने पूर्वजन्म में पुण्य का उपार्जन किया है, वे कृतलक्षण | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 25 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपायं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया।
तए णं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणिं देविं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयायं पासंति, पासित्ता सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया। तं णं अम्हे Translated Sutra: तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि – दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ – पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, मान – उन्मान – प्रमाण से युक्त एवं सर्वांगसुन्दर शिशु का प्रसव किया। तत्पश्चात् दासियों ने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 40 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे अनगारे तेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महानुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे किडि-किडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था–जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा तिलंडासगडिया इ वा एरंडसगडिया इ वा उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, एवामेव मेहे अनगारे ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, उवचिए Translated Sutra: तत्पश्चात् मेघ अनगार उस उराल, विपुल, सश्रीक – प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी – शिव – धन्य, मांगल्य – उदग्र, उदार, उत्तम महान प्रभाव वाले तपःकर्म से शुष्क – नीरस शरीर वाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए। उठते – उठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गई। शरीर कृश | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 53 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा जाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगि-ण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
परिसा निग्गया धम्मो कहिओ।
तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स बहुजनस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा इहमागया इहसंपत्ता। तं गच्छामि? णं थेरे भगवंते वंदामि नमंसामि एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर भगवंत जाति से उत्पन्न, कुल से सम्पन्न, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे – रहे। उनका आगमन जानकर परिषद नीकली। धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना दी। तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 55 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स नायाधम्मकहाणं अयमट्ठे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे– सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे सुरम्मे नंदनवणे इव सुह-सुरभि-सीयलच्छायाए समनुबद्धे।
तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं एगा वनमयूरी दो पुट्ठे परियागए पिट्टुंडी-पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पसवइ, पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वीतिय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो तीसरे अध्ययन का क्या फरमाया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। (वर्णन) उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के फूलों – फलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था। नन्दन | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 61 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि निस्संकिए [निक्कंखिए निव्वितिगिंछे?] सुव्वत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मयूरीपोयए भविस्सइ त्ति कट्टु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइ नो संसारेइ नो चालेइ नो फंदेइ नो घट्टेइ नो खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्टियावेइ।
तए णं से मयूरी-अंडए अनुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उब्भिन्ने मयूरी-पोयए एत्थ जाए।
तए णं से जिनदत्तपुत्ते तं मयूरी-पोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठे मयूर-पोसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं Translated Sutra: जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ आया। आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक रहा। ‘मेरे इस अंडे में से क्रड़ा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरी – बालक होगा’ इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार – बार उलटा – पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं आदि। इस कारण उलट – पलट न करने से और न बजाने से उस काल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ तुंब |
Hindi | 74 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव सुक्कज्झाणोवगए विहरइ।
तए णं से इंदभूई नामं अनगारे जायसड्ढे जाव एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कतुंब निच्छिद्दं निरुवहयं दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, Translated Sutra: भगवन् ! श्रमण यावत् सिद्धि को प्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। उस राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् जहाँ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 98 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहि-लाए रायहाणीए कुंभगस्स रयणी धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेइ जाव इंदा दलयंति अरहाणं। तं गच्छह णं देवानुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं कुंभगस्स रन्नो भवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।
तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तहत्ति Translated Sutra: शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया। विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलाकर कहा – ‘देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् तीन सौ अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है। सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो – इतना | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 105 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी ।
देविंददाणविंदा, वहंति सीयं जिणिंदस्स ॥ Translated Sutra: चलायमान चपल कुण्डलों को धारण करनेवाले तथा अपनी ईच्छा अनुसार विक्रिया से बनाये हुए आभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र देव की शिबिका वहन की। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 110 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी। पुण्णभद्दे चेइए।
तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे। तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाह-दारया होत्था, तं जहा–जिनपालिए य जिनरक्खिए य।
तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अम्हे लवणसमुद्दं पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा। सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुनरवि Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान महावीर ने नौवें ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। कोणिक राजा था। चम्पानगरी के बाहर ईशान – दिक्कोण में पूर्णभद्र चैत्य था। चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह निवास करता था। वह समृद्धिशाली था। भद्रा उसकी भार्या | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 125 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुद्दं तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टइ, जं तत्थ तणं वा जाव एगंते एडेइ, जेणेव पासा-यवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदिय-दारए पासायवडेंसए अपासमाणी जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवाग-च्छइ जाव सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, करेत्ता तेसिं मागंदिय-दारगाणं कत्थइ सुइं वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले, एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, ते मागंदिय-दारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झं-मज्झेणं वीईवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठ तलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढं वेहासं उप्पयइ, Translated Sutra: तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया। दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई। आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देखकर पूर्व दिशा के वनखण्ड में गई। वहाँ सब जगह उसने मार्गणा की। पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 126 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा जिनरक्खियस्स नाऊण ।
वघनिमित्तं उवरिं मागंदिय-दारगाण दोण्हंपि ॥ Translated Sutra: तत्पश्चात् – उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर दोनों माकन्दीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त बोली। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 129 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] होल वसुल गोल नाह दइत पिय रमण कंत सामिय निग्घिण नित्थक्क ।
थिण्ण निक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख
अकलुण जिनरक्खिय मज्झं हिययरक्खगा ॥ Translated Sutra: ‘हे होल ! वसुल, गोल हे नाथ ! हे दयित हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निर्घुण ! हे नित्थक्क ! हे कठोर हृदय ! हे दयाहीन ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव ! हे निर्लज्ज ! हे रूक्ष ! हे अकरूण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 134 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य सप्पणय-सरल-महुर-भणिएहिं संजाय-विउणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव-जोवण्णसिरिं च दिव्वं सरभस-उवगूहियाइं विब्बोय-विलसियाणि य विहसिय-सकडक्खदिट्ठि-निस्ससिय-मलिय-उवललिय-थिय-गमण-पणयखिज्जिय-पसाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गतो सविलियं।
तए णं जिनरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्लणोल्लियमइं अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं उव्विहइ नियगपट्ठाहि विगयसद्धे।
तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिनरक्खियं सकलुसा सेलगपट्ठाहि Translated Sutra: कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे उस पर दुगुना राग उत्पन्न हो गया। वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप की और यौवन की लक्ष्मी को स्मरण करने लगा। उसके द्वारा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 135 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे पुनरवि मानुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य हीलणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो-भुज्जो अनुपरियट्टिस्सइ–जहा व से जिनरक्खिए। Translated Sutra: इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य – उपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की ईच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत – से साधुओं, बहुत – सी साध्वीयों, बहुत – से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 136 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] छलिओ अवयक्खंतो, निरवयक्खो गओ अविग्घेणं ।
तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण भवियव्वं ॥ Translated Sutra: पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया। अत एव प्रवचन सार में आसक्ति रहित होना चाहिए। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 138 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिनपालिए तेणेव उवागच्छइ, बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरएहि य मउएहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संता तंता परितंता निव्विण्णा समाणा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
तए णं से सेलए जक्खे जिनपालिएण सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चंपाए नयरीए अग्गुज्जाणंसि जिनपालियं पट्ठाओ ओयारेइ, ओयारेत्ता एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! चंपा नयरी दीसइ त्ति कट्टु जिनपालियं पुच्छइ, जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव Translated Sutra: तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई। आकर बहुत – से अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, शृंगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और अतिशय खिन्न हो गई। तब वह जिस दिशा से आई थी, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 139 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनपालिए चंपं नयरिं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे तिप्पमाणे विलवमाणे जिनरक्खियं-वावत्तिं निवेदेइ।
तए णं जिनपालिए अम्मापियरो मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि परियणेणं सद्धिं रोयमाणा कंदमाणा सोयमाणा तिप्पमाणा विलवमाणा बहूइं लोइयाइं मयकिच्चाइं करेंति, करेत्ता कालेणं विगयसोया जाया।
तए णं जिनपालियं अन्नया कयाइं सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी–कहण्णं पुत्ता! जिनरक्खिए कालगए?
तए णं से जिनपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवाय-संमुच्छणं च पोयवहण-विवत्तिं Translated Sutra: तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा माता – पिता थे वहाँ पहुँचा। उसने रोते – रोते और विलाप करते – करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सूनाया। तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता – पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के साथ रोते – रोते बहुत – से लौकिक मृतककृत्य करके वे कुछ समय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 140 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। जिनपालिए धम्मं सोच्चा पव्वइए। एगारसंगवी। मासियाए संलेहणाए अप्पाणं ज्झोसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसणाए छेएत्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने। दो सागरोवमाइं ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे मानुस्सए कामभोगे नो पुनरवि आसयइ पत्थयइ पीहेइ, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्सइ–जहा Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे। भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। कूणिक राजा भी नीकला। जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की। क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१२ उदक |
Hindi | 144 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे Translated Sutra: वह जितशत्रु राजा एक बार – किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ – मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 145 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तेरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। समोसरणं। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे दद्दुरवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए दद्दुरंसि सीहासनंसि दद्दुरे देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सूरियाभे जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए, जहा–सूरियाभे।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने बारहवें ज्ञात – अध्ययन का अर्थ यह कहा है तो तेरहवे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर चौदह | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१५ नंदीफळ |
Hindi | 157 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पन्नरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं चंपाए नयरीए धने नामं सत्थवाहे होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था–रिद्धत्थिमिय-समिद्धा वण्णओ।
तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कनगकेऊ नामं राया होत्था–महया वण्णओ।
तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था। जितशत्रु राजा था। धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था। उस | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 162 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए जिनदत्ते नामं सत्थवाहे–अड्ढे।
तस्स णं जिनदत्तस्स भद्दा भारिया–सूमाला इट्ठा मानुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरइ।
तस्स णं जिनदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए–सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे।
तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ। इमं च णं सूमालिया दारिया ण्हाया चेडिया-चक्कवाल-संपरिवुडा उप्पिं आगासतलगंसि कनग-तिंदूसएणं कीलमाणी-कीलमाणी विहरइ।
तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे सुमालियं दारियं पासइ, पासित्ता सुमालियाए दारियाए रूवे य जोव्वणे Translated Sutra: चम्पा नगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था। उस जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुकुमारी थी, जिनदत्त को प्रिय थी यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आस्वादन करती हुई रहती थी। उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था। वह भी सुकुमार एक सुन्दर रूप में सम्पन्न | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 164 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमनुरत्ता पइं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणं-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासधरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी– गए णं से सागरए त्ति कट्टु ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ।
तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहिं।
तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं Translated Sutra: सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी। वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्त थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी। उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते – करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा – ‘सागर तो चल दिया!’ उसके मन का संकल्प मारा गया, अत एव वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान – चिन्ता करने लगी। तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 171 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता ण्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाइं मंगल्लाइं वत्थाइं पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जिनपडिमाणं अच्चणं करेइ, करेत्ता जिनघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ। Translated Sutra: उधर वह राजवरकन्या द्रौपदी प्रभात काल होने पर स्नानगृह की ओर गई। वहाँ जाकर स्नानगृह में प्रविष्ट होकर उसने स्नान किया यावत् शुद्ध और सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र धारण किए। जिन प्रतिमाओं का पूजन किया। पूजन करके अन्तःपुर में चली गई। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 178 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं वीईवयमाणे-वीईवयमाणे गंगं उवागए उवागम्म ते पंच पंडवे एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवइं पासामि।
तए णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए मग्गण-गवेसणं करेंति, करेत्ता एगट्ठियाए गंगं महानइं उत्तरंति, उत्तरित्ता अन्नमन्नं एवं वयंति–पहू णं देवानुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गंगं महानइं बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहू नो पहू उत्तरित्तए? त्ति कट्टु एगट्ठियं णूमेंति, णूमेत्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा Translated Sutra: इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हुए गंगा नदी के पास आए। तब उन्होंने पाँच पाण्डवों से कहा – ‘देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ। जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ।’ तब वे पाँचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए। आकर एक नौका | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 184 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था।
तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था। (वर्णन) उस नगर में कनककेतु नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत – से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 218 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं Translated Sutra: पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Gujarati | 61 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि निस्संकिए [निक्कंखिए निव्वितिगिंछे?] सुव्वत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मयूरीपोयए भविस्सइ त्ति कट्टु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइ नो संसारेइ नो चालेइ नो फंदेइ नो घट्टेइ नो खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्टियावेइ।
तए णं से मयूरी-अंडए अनुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उब्भिन्ने मयूरी-पोयए एत्थ जाए।
तए णं से जिनदत्तपुत्ते तं मयूरी-पोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठे मयूर-पोसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૮ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Gujarati | 55 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स नायाधम्मकहाणं अयमट्ठे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे– सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे सुरम्मे नंदनवणे इव सुह-सुरभि-सीयलच्छायाए समनुबद्धे।
तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं एगा वनमयूरी दो पुट्ठे परियागए पिट्टुंडी-पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पसवइ, पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं Translated Sutra: ભગવન્ ! જો શ્રમણ ભગવંત મહાવીર સ્વામીએ જ્ઞાતાધર્મકથાના બીજા અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો, તો ત્રીજા અધ્યયનનો અર્થ શું છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે ચંપાનગરી હતી. તે ચંપાનગરીની બહાર ઈશાન દિશામાં સુભૂમિભાગ ઉદ્યાન હતું. તે સર્વઋતુના ફળ – ફૂલોથી સંપન્ન, સુરમ્ય હતું. નંદનવન સમાન સુખકારી, સુગંધયુક્ત, શીતલ છાયાથી વ્યાપ્ત | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 110 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी। पुण्णभद्दे चेइए।
तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे। तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाह-दारया होत्था, तं जहा–जिनपालिए य जिनरक्खिए य।
तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अम्हे लवणसमुद्दं पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा। सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुनरवि Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૧૦. ભગવન્ ! જો શ્રમણ યાવત્ નિર્વાણ પ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે આઠમા જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવંતે નવમા અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે ચંપાનગરી હતી. પૂર્ણભદ્ર ચૈત્ય હતું, ત્યાં માકંદી નામે સાર્થવાહ રહેતો હતો. તે ઋદ્ધિમાન હતો. તેને ભદ્રા નામે પત્ની હતી. તે ભદ્રાને | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 125 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुद्दं तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टइ, जं तत्थ तणं वा जाव एगंते एडेइ, जेणेव पासा-यवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदिय-दारए पासायवडेंसए अपासमाणी जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवाग-च्छइ जाव सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, करेत्ता तेसिं मागंदिय-दारगाणं कत्थइ सुइं वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले, एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, ते मागंदिय-दारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झं-मज्झेणं वीईवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठ तलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढं वेहासं उप्पयइ, Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 126 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा जिनरक्खियस्स नाऊण ।
वघनिमित्तं उवरिं मागंदिय-दारगाण दोण्हंपि ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ |