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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 628 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा?
गोयमा! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविड्ढिं, दिव्वं देवज्जुतिं, दिव्वं देवानुभागं, दिव्वं बत्तीसतिविहं नट्ठविहिं उवदंसेत्तए, नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेइ, एसुहुमं च णं उवदंसेज्जा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा। Translated Sutra: भगवन् ! किसी को बाधा – पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले अव्याबाध देव हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! अव्या – बाध देव, अव्याबाध देव किस कारण से कहे जाते हैं ? गौतम ! प्रत्येक अव्याबाध देव, प्रत्येक पुरुष की, प्रत्येक आँख की पलक पर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि दिखलाने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 629 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं सपाणिणा असिणा छिंदित्ता कमंडलुंसि पक्खिवित्तए?
हंता पभू।
से कहमिदाणिं पकरेति?
गोयमा! छिंदिया-छिंदिया च णं पक्खिवेज्जा, भिंदिया-भिंदिया च णं पक्खिवेज्जा, कोट्टिया-कोट्टिया च णं पक्खिवेज्जा, चुण्णिया-चुण्णिया च णं पक्खिवेज्जा, तओ पच्छा खिप्पामेव पडिसंघाएज्जा, नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएज्जा, छविच्छेयं पुण करेइ, एसुहुमं च णं पक्खिवेज्जा। Translated Sutra: भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ में ग्रहण की हुई तलवार से, किसी पुरुष का मस्तक काट कर कमण्डलू में डालने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! वह किस प्रकार डालता है ? गौतम ! शक्रेन्द्र उस पुरुष के मस्तक को छिन्न – भिन्न करके डालता है। या भिन्न – भिन्न करके डालता है। अथवा वह कूट – कूट कर डालता है। या | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१० केवली | Hindi | 636 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] केवली णं भंते! छउमत्थं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
जहा णं भंते! केवली छउमत्थं जाणइ-पासइ, तहा णं सिद्धे वि छउमत्थं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
केवली णं भंते! आहोहियं जाणइ-पासइ? एवं चेव। एवं परमाहोहियं, एवं केवलिं, एवं सिद्धं जाव–
जहा णं भंते! केवली सिद्धं जाणइ-पासइ, तहा णं सिद्धे वि सिद्धं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
केवली णं भंते! भासेज्ज वा? वागरेज्जा वा?
हंता भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा।
जहा णं भंते! केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि भासेज्ज वा वागोज्ज वा?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज Translated Sutra: भगवन् ! क्या केवलज्ञानी छद्मस्थ को जानते – देखते हैं ? हाँ (गौतम !) जानते – देखते हैं। भगवन् ! केवल – ज्ञानी, छद्मस्थ के समान सिद्ध भगवन् भी छद्मस्थ को जानते – देखते हैं ? हाँ, (गौतम !) जानते – देखते हैं। भगवन् ! क्या केवलज्ञानी, आधोवधिक को जानते – देखते हैं ? हाँ, गौतम ! जानते – देखते हैं। इसी प्रकार परमावधिज्ञानी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 639 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! तीसं वासाइं अगारवासमज्झावसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं समत्तपइण्णे एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए।
तए णं अहं गोयमा! पढमं वासं अद्धमासं अद्धमासेनं खममाणे अट्ठियगामं निस्साए पढमं अंतरवासं वासावासं उवागए। दोच्चं वासं मासं मासेनं खममाणे पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हामि, ओगिण्हित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए।
तए णं अहं गोयमा! पढमं Translated Sutra: उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर, माता – पिता के दिवंगत हो जाने पर भावना नामक अध्ययन के अनुसार यावत् एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करके मुण्डित हुआ और गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हुआ। हे गौतम ! मैं प्रथम वर्ष में अर्द्धमास – अर्द्धमास क्षमण करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 652 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अज्जोति! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी–अज्जो! से जहानामए तणरासी इ वा कट्ठरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा अगनिज्झामिए अगनिज्झूसिए अगनिपरिणामिए हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरित्ता हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, तं छंदेणं अज्जो! तुब्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, अट्ठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने कहा – ‘हे आर्यो ! जिस प्रकार तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, त्वचा राशि, तुष – राशि, भूसे की राशि, गोमय की राशि और अवकर राशि को अग्नि से थोड़ा – सा जल जाने पर, आग में झोंक देने पर एवं अग्नि से परिणामान्तर होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है, उसका तेज | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 659 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंज्झगिरिपायमूले बेभेले सन्निवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चायाहिति।
तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कवालभावं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विनएणं, पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलइस्सति। सा णं तस्स भारिया भविस्सति–इट्ठा कंता जाव अणुमया, भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, रयणकरंडओ विव सुसारक्खिया, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं जाव परिसहो-वसग्गा फुसंतु। तए णं सा दारिया अन्नदा कदायि गुव्विणी ससुरकुलाओ कुलघरं निज्जमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया काल-मासे कालं Translated Sutra: वहाँ भी शस्त्र से वध होने पर यावत् काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विन्ध्य – पर्वत के पादमूल में बेभेल सन्निवेश में ब्राह्मणकुल में बालिका के रूप में उत्पन्न होगा। वह कन्या जब बाल्यावस्था का त्याग करके यौवनवय को प्राप्त होगी, तब उसके माता – पिता उचित शुल्क और उचित विनय द्वारा पति को भार्या के रूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-१ अधिकरण | Hindi | 663 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! अयं अयकोट्ठंसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहमाणे वा पव्विहमाणे वा कतिकिरिए?
गोयमा! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोट्ठंसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहति वा पव्विहति वा, तावं च णं से पुरिसे काइ-याए जाव पाणाइवायकिरियाए–पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे, जेसिं पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो अए निव्वत्तिए, अयकोट्ठे निव्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, इंगाला निव्वत्तिया, इंगालकड्ढणी निव्वत्तिया, भत्था निव्वत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए –पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा।
पुरिसे णं भंते! अयं अयकोट्ठाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिंसि उक्खिव्वमाणे वा निक्खिव्वमाणे वा Translated Sutra: भगवन् ! लोहा तपाने की भट्ठी में तपे हुए लोहे का लोहे की संडासी से ऊंचा – नीचा करने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्ठी में लोहे की संडासी से लोहे को ऊंचा या नीचा करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी क्रिया तक पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है तथा जिन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-४ जावंतिय | Hindi | 672 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–
जावतियं णं भंते! अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा खवयंति? नो इणट्ठे समट्ठे।
जावतियं णं भंते! चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससएण वा वाससएहिं वा वाससहस्सेण वा खवयंति? नो इणट्ठे समट्ठे।
जावतियं णं भंते! छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससहस्सेण वा वाससहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेण वा खवयंति? नो इणट्ठे समट्ठे।
जावतिय णं भंते! अट्ठमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससयसहस्सेण Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। भगवन् ! चतुर्थ भक्त करने वाले श्रमण – निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-५ गंगदत्त | Hindi | 676 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवानुभावे कहिं गते? कहिं अनुप्पविट्ठे?
गोयमा! सरीरं गए, सरीरं अनुप्पविट्ठे, कूडागारसालादिट्ठंतो जाव सरीरं अनुप्पविट्ठे। अहो णं भंते! गंगदत्ते देवे महिड्ढिए महज्जुइए महब्बले महायसे महेसक्खे।
गंगदत्तेणं भंते! देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी सा दिव्वा देवज्जुती से दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? किण्णा पत्ते? किण्णा अभिसमन्नागए? पुव्वभवे के आसी? किं नामए वा? किं वा गोत्तेणं?
कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा Translated Sutra: भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् पूछा – ‘भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?’ गौतम ! यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई। यहाँ कूटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत् वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (तक समझना चाहिए।) | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-६ स्वप्न | Hindi | 680 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं हयपंतिं वा गयपंतिं वा नरपंतिं वा किन्नरपंतिं वा किंपुरिसपंतिं वा महोरग-पंतिं वा गंधव्वपंतिं वा वसभपंतिं वा पासमाणे पासति, द्रुहमाणे द्रुहति, द्रूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति।
इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं दामिणिं पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे पुट्ठं पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति।
इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं रज्जुं पाईणपडिणायतं Translated Sutra: कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में एक महान् अश्वपंक्ति, गजपंक्ति अथवा यावत् वृषभ – पंक्ति का अवलोकन करता हुआ देखे, और उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता हुआ चढ़े तथा अपने आपको उस पर चढ़ा हुआ माने ऐसा स्वप्न देखकर तुरन्त जागृत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। कोई स्त्री या पुरुष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-८ लोक | Hindi | 685 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे वा कतिकिरिए?
गोयमा! जावं च णं से पुरिसे वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वा वाहं वा ऊरुं वा आउंटावेति वा पसारेति वा, तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए पारितावणियाए पाणातिवायकिरियाए–पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे। Translated Sutra: भगवन् ! वर्षा बरस रही है अथवा नहीं बरस रही है ? – यह जानने के लिए कोई पुरुष अपने हाथ, पैर, बाहु या ऊरु को सिकोड़े या फैलाए तो उसे कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! उसे कायिकी आदि पाँचों क्रियाएं लगती हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१७ |
उद्देशक-१ कुंजर | Hindi | 696 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! तलमारुहइ, आरुहित्ता तलाओ तलफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए?
गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तलमारुहइ, आरुहित्ता तलाओ तलफलं पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे। जेसिं पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए, तलफले निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा।
अहे णं भंते! से तलफले अप्पणो गरुयत्ताए भारियत्ताए गरुयसंभारियत्ताए अहे वीससाए पच्चोवयमाणे जाइं तत्थ पाणाइं जाव जीवियाओ ववरोवेति, तए णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! जावं च णं से तलफले अप्पणो गरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं Translated Sutra: भगवन् ! कोई पुरुष, ताड़ के वृक्ष पर चढ़े और फिर उस ताड़ से ताड़ के फल को हिलाए अथवा गिराए तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! उस पुरुष को कायिकी आदि पाँचों क्रियाएं लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष और ताड़ का फल उत्पन्न हुआ है, उन जीवों को भी कायिकी आदि पाँचों क्रियाएं लगती हैं। भगवन् ! यदि वह ताड़फल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-२ विशाखा | Hindi | 727 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा नामं नगरी होत्था–वण्णओ। बहुपुत्तिए चेइए–वण्णओ। सामी समोसढे जाव पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे–एवं जहा सोलसमसए बितियउद्देसए तहेव दिव्वेणं जाणविमानेणं आगओ, नवरं–एत्थं आभियोगा वि अत्थि जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगए।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–जहा तइयसए ईसानस्स तहेव कूडागारदिट्ठंतो, तहेव पुव्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागए?
गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे Translated Sutra: उस काल एवं उस समय में विशाखा नामकी नगरी थी। वहाँ बहुपुत्रिक नामक चैत्य था। (वर्णन) एक बार वहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में देवेन्द्र देवराज शक्र, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के द्वीतिय उद्देशक में शक्रेन्द्र का जैसा वर्णन है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-३ माकंदी पुत्र | Hindi | 731 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवाणं भंते! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ, अत्थि याइ तस्स केइ नाणत्ते?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ, अत्थि याइ तस्स नाणत्ते?
मागंदियपुत्ता! से जहानामए–केइ पुरिसे धणुं परामुसइ, परामुसित्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता आययक-ण्णायतं उसुं करेति, करेत्ता उड्ढं वेहासं उव्विहइ, से नूनं मागंदियपुत्ता! तस्स उसुस्स उड्ढं वेहासं उव्वीढस्स समाणस्स एयति वि नाणत्तं, वेयति वि नाणत्तं, चलति वि नाणत्तं, फंदइ वि नाणत्तं, घट्टइ वि नाणत्तं, खुब्भइ वि नाणत्तं, उदीरइ वि नाणत्तं तं तं भावं Translated Sutra: भगवन् ! जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा क्या उनमें परस्पर कुछ भेद है ? हाँ, माकन्दिपुत्र ! है। भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? माकन्दिपुत्र ! जैसे कोई पुरुष धनुष को ग्रहण करे, फिर वह बाण को ग्रहण करे और अमुक प्रकार की स्थिति में खड़ा रहे, तत्पश्चात् बाण को कान तक खींचे और अन्त में, उस बाण को आकाश में ऊंचा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-५ असुरकुमार | Hindi | 736 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना, तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे, एगे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए नो दरिसणिज्जे नो अभिरूवे नो पडिरूवे, से कह-मेयं भंते! एवं?
गोयमा! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–वेउव्वियसरीरा य, अवेउव्वियसरीरा य। तत्थ णं जे से वेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिरूवे। तत्थ णं जे से अवेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए जाव नो पडिरूवे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तत्थ णं जे से वेउव्वियसरीरे तं चेव जाव नो पडिरूवे?
गोयमा! से जहानामए–इह Translated Sutra: भगवन् ! दो असुरकुमार देव, एक ही असुरकुमारावास में असुरकुमारदेवरूप में उत्पन्न हुए। उनमें से एक असुरकुमारदेव प्रासादीय, दर्शनीय, सुन्दर और मनोरम होता है, जबकि दूसरा असुरकुमारदेव न तो प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला होता है, न दर्शनीय, सुन्दर और मनोरम होता है, भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? गौतम ! असुरकुमारदेव दो प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-७ केवली | Hindi | 745 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] देवे णं भंते! महिड्ढिए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता पभू अन्नमन्नेणं सद्धिं संगामं संगामित्तए?
हंता पभू।
ताओ णं भंते! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ? अनेगजीवफुडाओ?
गोयमा! एगजीवफुडाओ, नो अनेगजीवफुडाओ।
ते णं भंते! तासिं बोंदीणं अंतरा किं एगजीवफुडा? अनेगजीवफुडा?
गोयमा! एगजीवफुडा, नो अनेगजीवफुडा।
पुरिसे णं भंते! अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्ठेण वा किलिंचेण वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा, अन्नयरेसु ण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिंदमाणे वा विछिंदमाणे वा, अगनिका-एण वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा विबाहं वा उप्पाएइ? Translated Sutra: भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव, हजार रूपों की विकुर्वणा करके परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! समर्थ है। भगवन् ! वैक्रियकृत वे शरीर, एक ही जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, या अनेक जीवों के साथ सम्बद्ध ? गौतम ! एक ही जीव से सम्बद्ध होते हैं, अनेक जीवों के साथ नहीं। भगवन् उन शरीरों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-७ बंध | Hindi | 792 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! बंधे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा–जीवप्पयोगबंधे, अनंतरबंधे, परंपरबंधे।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे बंधे पन्नत्ते? एवं चेव। एवं जाव वेमाणियाणं।
नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स कतिविहे बंधे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा–जीवप्पयोगबंधे, अनंतरबंधे, परंपरबंधे।
नेरइयाणं भंते! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कतिविहे बंधे पन्नत्ते? एवं चेव। एवं जाव वेमाणियाणं। एवं जाव अंतराइयस्स।
नाणावरणिज्जोदयस्स णं भंते! कम्मस कतिविहे बंधे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे बंधे पन्नत्ते एवं चेव। एवं नेरइयाण वि। एवं जाव वेमाणियाणं। एवं जाव अंतराइओदयस्स।
इत्थीवेदस्स Translated Sutra: भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का, यथा – जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तर – बन्ध और परम्परबन्ध। भगवन् ! नैरयिक जीवों के बन्ध कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पूर्ववत्। इसी प्रकार वैमानिकों तक भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का। यथा जीवप्रयोगबन्ध अनन्तरबन्ध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२४ |
उद्देशक-१ नैरयिक | Hindi | 838 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–नेरइया णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो वि उववज्जंति, नो देवेहिंतो उववज्जंति।
जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति–किं एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिए-हिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, नो बेंदिय, नो तेइंदिय, नो चउरिंदिय, पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति।
जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति–किं Translated Sutra: राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! नैरयिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते, तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं, देवों में आकर उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२४ |
उद्देशक-२ परिमाण | Hindi | 843 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–असुरकुमारा णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्ख-जोणिय-मनुस्स-देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति, नो देवेहिंतो उववज्जंति। एवं जहेव नेरइयउद्देसए जाव–
पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवत्तिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सट्ठितीएसु, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभाग-ट्ठितीएसु उववज्जेज्जा।
ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जंति? एवं रयणप्पभागमगसरिसा Translated Sutra: राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! असुरकुमार कहाँ से – किस गति से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं। यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते, तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु देवों से आकर उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२४ |
उद्देशक-१२ थी १६ पृथ्व्यादि | Hindi | 848 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ मनुस्सेहिंतो उववज्जंति– किं सण्णिमनुस्सेहिंतो उववज्जंति? असण्णिमनुस्सेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! सण्णिमनुस्सेहिंतो उववज्जंति, असण्णिमनुस्सेहिंतो वि उववज्जंति।
असण्णिमनुस्से णं भंते! जे भविए पुढविक्काइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवतिकाल-ट्ठितीएसु उववज्जेज्जा? एवं जहा असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जहन्नकालट्ठितीयस्स तिन्नि गमगा तहा एयस्स वि ओहिया तिन्नि गमगा भाणियव्वा तहेव निरवसेसं। सेसा छ न भण्णंति।
जइ सण्णिमनुस्सेहिंतो उववज्जंति–किं संखेज्जवासाउय? असंखेज्जवासाउय?
गोयमा! संखेज्जवासाउय, नो असंखेज्जवासाउय।
जइ संखेज्जवासाउय किं पज्जत्तासंखेज्जवासाउय? Translated Sutra: (भगवन् !) यदि वे (पृथ्वीकायिक) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? गौतम ! वे दोनों प्रकार के मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? जघन्य काल की स्थिति वाले | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२४ |
उद्देशक-२० तिर्यंच पंचेन्द्रिय | Hindi | 856 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति– किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्ख-जोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो, मनुस्सेहिंतो वि, देवेहिंतो वि उववज्जंति।
जइ नेरइएहिंतो उववज्जंति– किं रयणप्पभपुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति जाव अहेसत्तमपुढवि-नेरइएहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! रयणप्पभपुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति जाव अहेसत्तमपुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति।
रयणप्पभपुढविनेरइए णं भंते! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवतिकालट्ठि-तीएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा! जहन्नेणं Translated Sutra: भगवन् ! पंचेन्द्रिय – तिर्यंचयोनिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों से यावत् देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! यदि वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ | Hindi | 901 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! नियंठा पन्नत्ता?
गोयमा! पंच नियंठा पन्नत्ता, तं जहा–पुलाए, बउसे, कुसीले, नियंठे, सिणाए।
पुलाए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–नाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुम-पुलाए नाम पंचमे।
बउसे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभोगबउसे, अनाभोगबउस, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहा-सुहुमबउसे नामं पंचमे।
कुसीले णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–पडिसेवणाकुसीले य, कसायकुसीले य।
पडिसेवणाकुसीले णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा– नाणपडिसेवणाकुसीले, Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। भगवन् ! पुलाक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – ज्ञानपुलाक, दर्शनपुलाक, चारित्र – पुलाक, लिंगपुलाक, यथासूक्ष्मपुलाक। भगवन् ! बकुश कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-८ ओघ | Hindi | 970 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–नेरइया णं भंते! कहं उववज्जंति?
गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे अज्झवसाणनिव्वत्तिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं ठाणं विप्पजहित्ता पुरिमं ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, एवामेव एए वि जीवा पवओ विव पवमाणा अज्झवसाणनिव्वत्तिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं भवं विप्पजहित्ता पुरिमं भवं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति।
तेसि णं भंते! जीवाणं कहं सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं एवं जहा चोद्दसमसए पढमुद्देसए जाव तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जंति। तेसि णं जीवाणं तहा सीहा गई, तहा सीहे गतिविसए पन्नत्ते।
ते णं भंते! जीवा कहं परभवियाउयं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! नैरयिक जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ अध्यवसायनिर्वर्तित क्रियासाधन द्वारा उस स्थान को छोड़कर भविष्यत्काल में अगले स्थान को प्राप्त होता है, वैसे ही जीव भी अध्यवसायनिर्वर्तित क्रियासाधन द्वारा अर्थात् कर्मों द्वारा पूर्वभव | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-९ भवसिद्धिक | Hindi | 971 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवसिद्धियनेरइया णं भंते! कहं उववज्जंति?
गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव जाव वेमाणिए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! भवसिद्धिक नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ इत्यादि पूर्ववत् यावत् वैमानिक पर्यन्त (कहना)। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-१० अभवसिद्धिक | Hindi | 972 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अभवसिद्धियनेरइया णं भंते! कहं उववज्जंति?
गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव। एवं जाव वेमाणिए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! अभवसिद्धिक नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ, इत्यादि पूर्ववत् यावत् वैमानिक पर्यन्त (कहना)। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-११,१२ सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि | Hindi | 973 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सम्मदिट्ठिनेरइया णं भंते! कहं उववज्जंति?
गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव। एवं एगिंदियवज्जं जाव वेमाणिए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ इत्यादि, एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त कहना। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-११,१२ सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि | Hindi | 974 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मिच्छदिट्ठिनेरइया णं भंते! कहं उववज्जंति?
गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे, अवसेसं तं चेव। एवं जाव वेमाणिए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! मिथ्यादृष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ इत्यादि पूर्ववत्। वैमानिक तक (कहना)। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३३ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ थी ११ | Hindi | 1018 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! एगिंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा–पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया।
पुढविक्काइया णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सुहुमपुढविक्काइया य, बादरपुढविक्काइया य।
सुहुमपुढविक्काइया णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइया य, अप्पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइया य।
बादरपुढविक्काइया णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता? एवं चेव। एवं आउक्काइया वि चउक्कएणं भेदेणं भाणियव्वा, एवं जाव वणस्सइकाइया।
अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइयाणं भंते! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ कम्मप्पगडीओ Translated Sutra: भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पति – कायिक। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के – सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक। भगवन् ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के – पर्याप्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३३ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ थी ११ | Hindi | 1019 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! अनंतरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा अनंतरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा–पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया।
अनंतरोववन्नगा णं भंते! पुढविक्काइया कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सुहुमपुढविक्काइया य, बादरपुढविक्काइया य। एवं दुपएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया।
अनंतरोववन्नगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं।
अनंतरोववन्नगबादरपुढविक्काइयाणं भंते! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–नाणावरणिज्जं Translated Sutra: भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के – पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक। भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! दो प्रकार के – सूक्ष्म अनन्तरोपपन्नक पृथ्वीकायिक और बादर अनन्तरोपपन्नक पृथ्वीकायिक। इसी प्रकार दो – दो भेद वनस्पतिकायिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३४ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ | Hindi | 1034 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते! अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा?
गोयमा! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा?
गोयमा! अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए एयपयरंसि अणुसेढिं उववज्जित्तए, से Translated Sutra: भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोक क्षेत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरण – समुद्घात करके ऊर्ध्वलोक की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक – रूप से उत्पन्न होने योग्य है तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम ! तीन समय या चार समय की। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३५ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ | Hindi | 1045 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो? जहा उप्पलुद्देसए तहा उववाओ
ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति।
ते णं भंते! जीवा समए समए–पुच्छा।
गोयमा! ते णं अनंता समए समए अवहीरमाणा-अवहीरमाणा अनंताहिं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए।
ते णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा? अबंधगा?
गोयमा! बंधगा, नो अबंधगा। एवं सव्वेसिं आउयवज्जाणं। आउयस्स बंधगा वा अबंधगा वा।
ते णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स–पुच्छा।
गोयमा! वेदगा, नो अवेदगा। Translated Sutra: भगवन् ! कृतयुग्म – कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! उत्पलोद्देशक के उपपात समान उपपात कहना चाहिए। भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे सोलह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त। भगवन् ! वे अनन्त जीव समय – समय में एक – एक अपहृत किये जाएं तो कितने काल में अपहृत होते | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४० संज्ञीपञ्चेन्द्रिय शतक-शतक-१ थी २१ उद्देशको सहित |
Hindi | 1064 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति? उववाओ वा चउसु वि गईसु। संखेज्जवासाउय-असंखेज्जवासाउय-पज्जत्ता-अपज्जत्तएसु य न कओ वि पडिसेहो जाव अनुत्तरविमानत्ति। परिमाणं अवहारो ओगाहणा य जहा असण्णिपंचिंदियाणं। वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा वा, वेयणिज्जस्स बंधगा, नो अबंधगा। मोहणिज्जस्स वेदगा वा अवेदगा वा, सेसाणं सत्तण्ह वि वेदगा, नो अवेदगा। सायावेदगा वा असायावेदगा वा। मोहणिज्जस्स उदई वा अणुदई वा, सेसाणं सत्तण्ह वि उदई, नो अणुदई। नामस्स गोयस्स य उदीरगा, नो अनुदीरगा, सेसाणं छण्ह वि उदीरगा वा अनुदीरगा वा। कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा Translated Sutra: भगवन् ! कृतयुग्म – कृतयुग्मराशि रूप संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात चारों गतियों से होता है। ये संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों से आते हैं। यावत् अनुत्तरविमान तक किसी भी गति से आने का निषेध नहीं है। इनका परिमाण, अपहार और अवगाहना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४० संज्ञीपञ्चेन्द्रिय शतक-शतक-१ थी २१ उद्देशको सहित |
Hindi | 1065 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति? उववाओ, परिमाणं आहारो जहा एएसिं चेव पढमोद्देसए। ओगाहणा बंधो वेदो वेदना उदयी उदीरगा य जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं, तहेव कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। सेसं जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं जाव अनंतखुत्तो, नवरं–इत्थिवेदगा वा पुरिसवेदगा वा नपुंसगवेदगा वा, सण्णिणो नो असण्णिणो, सेसं तहेव। एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सव्वं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेव, पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अट्ठ वि सरिसगमा। चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु नत्थि विसेसो कायव्वो।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! प्रथम समय के कृतयुग्म – कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात, परिमाण, अपहार प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना। अवगाहना, बन्ध, वेद, वेदना, उदयी और उदीरक द्वीन्द्रिय जीवों के समान समझना। कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं। शेष प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपसंहार |
Hindi | 1080 | Gatha | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चुलसीतिसयसहस्सा पयाण पवरवरणाण-दंसीहिं।
भावाभावमणंता पन्नत्ता एत्थमंगम्मि ॥ Translated Sutra: सम्पूर्ण भगवती सूत्र के कुल १३८ शतक हैं और १९२५ उद्देशक हैं। प्रवर (सर्वश्रेष्ठ) ज्ञान और दर्शन के धारक महापुरुषों ने इस अंगसूत्र में ८४ लाख पद कहे हैं तथा विधि – निषेधरूप भाव तो अनन्त कहे हैं। | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Gujarati | 87 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा नमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दाति, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय तिकिरिए? सिय चउकिरिए? सिय पंचकिरिए?
गोयमा! जे भविए उद्दवणयाए–नो बंधनयाए, नो मारणयाए–तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए –तिहिं किरियाहिं पुट्ठे।
जे भविए उद्दवणताए वि, बंधनताए Translated Sutra: સૂત્ર– ૮૭. ભગવન્ ! મૃગવૃત્તિક – (મૃગ વડે આજીવિકા ચલાવનાર), મૃગોનો શિકારી, મૃગોના શિકારમાં તલ્લીન એવો કોઈ પુરુષ મૃગ – (હરણ)ને મારવા માટે કચ્છ(નદીથી ઘેરાયેલા ઝાડીવાળા સ્થાન)માં, દ્રહ(જળાશય)માં, ઉદકમાં, ઘાસાદિના સમૂહમાં, વલય(ગોળાકાર નદીના જળથી યુક્ત સ્થાન)માં, અંધકારયુક્ત પ્રદેશમાં, ગહન વનમાં, ગહન – વિદુર્ગમાં, | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
Gujarati | 6 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोगपदीवे लोगपज्जोयगरे अभयदए चक्खु- दए मग्गदए सरणदए धम्मदेसए धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरनाणदंसणधरे वियट्टछउमे जिने जाणए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयए सव्वण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुयमणंतमक्खय- मव्वाबाहं सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामे…
…जाव पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं Translated Sutra: તે કાળે, તે સમયે આદિકર, તીર્થંકર, સ્વયંસંબુદ્ધ, પુરુષોત્તમ, પુરુષસિંહ, પુરુષવરપુંડરીક, પુરુષવરગંધહસ્તિ, લોકમાં ઉત્તમ, લોકનાં નાથ, લોકપ્રદીપ, લોકપ્રદ્યોતકર, અભયદાતા, ચક્ષુદાતા, માર્ગદાતા, શરણદાતા, ધર્મ ઉપદેશક, ધર્મસારથી, ધર્મવરચાતુરંત ચક્રવર્તી, અપ્રતિહત શ્રેષ્ઠ જ્ઞાનદર્શનના ધારક, છદ્મતા(ઘાતિકર્મના આવરણ) | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Gujarati | 42 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधंति?
हंता बंधंति।
कहन्नं भंते! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधंति?
गोयमा! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च।
से णं भंते! पमादे किंपवहे?
गोयमा! जोगप्पवहे।
से णं भंते! जीए किंपवहे?
गोयमा! वीरियप्पवहे।
से णं भंते! वीरिए किंपवहे?
गोयमा! सरीरप्पवहे।
से णं भंते! सरीरे किंपवहे?
गोयमा! जीवप्पवहे।
एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। Translated Sutra: ભગવન્ ! જીવો કાંક્ષા મોહનીય કર્મ બાંધે ? હા, બાંધે. ભગવન્ ! જીવો કાંક્ષા મોહનીય કર્મ કઈ રીતે બાંધે ? ગૌતમ ! પ્રમાદરૂપ હેતુ અને યોગરૂપ નિમિત્તથી બાંધે. ભગવન્ ! તે પ્રમાદ શાથી થાય છે ? ગૌતમ ! યોગથી. ભગવન્ ! યોગ શાથી થાય છે ? ગૌતમ ! વીર્યથી. ભગવન્ ! વીર્ય, શાથી પેદા થાય ? ગૌતમ ! શરીરથી. ભગવન્ ! શરીર શાથી પેદા થાય ? ગૌતમ ! જીવથી | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Gujarati | 43 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! अप्पणा चेव उदीरेति? अप्पणा चेव गरहति? अप्पणा चेव संवरेति?
हंता गोयमा! अप्पणा चेव उदीरेति। अप्पणा चेव गरहति। अप्पणा चेव संवरेति।
जं णं भंते! अप्पणा चेव उदीरेति, अप्पणा चेव गरहति, अप्पणा चेव संवरेति, तं किं–१. उदिण्णं उदीरेति? २. अनुदिण्णं उदीरेति? ३. अनुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति? ४. उदयानंतर-पच्छाकडं कम्मं उदीरेति?
गोयमा! १. नो उदिण्णं उदीरेति। २. नो अनुदिण्णं उदीरेति। ३. अनुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति। ४. नो उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं उदीरेति।
जं णं भंते! अनुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति, तं किं उट्ठाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कारपरक्कमेणं Translated Sutra: ભગવન્ ! શું જીવ પોતાની મેળે જ કાંક્ષા મોહનીય કર્મને ઉદીરે છે ? આપમેળે જ ગર્હે છે ? આપમેળે જ સંવરે છે ? હા, ગૌતમ ! જીવ સ્વયં તેની ઉદીરણા, ગર્હા અને સંવર કરે છે. ભગવન્ ! જે તે આપમેળે જ ઉદીરે છે, ગર્હે છે અને સંવરે છે, તો શું ઉદીર્ણ(ઉદયમાં આવેલા)ને ઉદીરે છે? અનુદીર્ણ(ઉદયમાં ન આવેલા)ને ઉદીરે છે ? અનુદીર્ણ અને ઉદીરણા યોગ્યને | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Gujarati | 44 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति?
जहा ओहिया जीवा तहा नेरइया जाव थणियकुमारा।
पुढविक्काइया णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति?
हंता वेदेंति।
कहन्नं भंते! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति?
गोयमा! तेसि णं जीवाणं नो एवं तक्का इ वा, सण्णा इ वा, पण्णा इ वा, मने इ वा, वई ति वा– अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेमो, वेदेंति पुण ते।
से नूनं भंते! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं?
हंता गोयमा! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं।
सेसं तं चेव जाव अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा।
एवं जाव चउरिंदिया।
पंचिंदियतिरिक्खजोणिया Translated Sutra: ભગવન્ ! શું નૈરયિકો કાંક્ષા મોહનીય કર્મ વેદે છે ? હા, ગૌતમ! વેડે છે. જેમ સામાન્ય જીવો કહ્યા, તેમ નૈરયિક યાવત્ સ્તનિતકુમારો કહેવા. ભગવન્ ! પૃથ્વીકાયિકો કાંક્ષા મોહનીય કર્મ વેદે છે ? હા, વેદે છે. ભગવન્ ! પૃથ્વીકાયિકો કાંક્ષા મોહનીય કર્મ કઈ રીતે વેદે છે ? ગૌતમ ! તે જીવોને એવો તર્ક – સંજ્ઞા – પ્રજ્ઞા – મન – વચન હોતા | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Gujarati | 45 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: अत्थि णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेएंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति?
गोयमा! तेहिं तेहिं नाणंतरेहिं, दंसणंतरेहिं, चरित्तंतरेहिं, लिंगंतरेहिं, पवयणंतरेहिं, पावयणंतरेहिं, कप्पंतरेहिं, मग्गंतरेहिं, मतंतरेहिं, भगंतरेहिं, नयतरेहिं, नियमंतरेहिं, पमाणंतरेहिं संकिता कंखिता वितिकिच्छता भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना– एवं खलु समणा निग्गंथा कंखा-मोहणिज्जं कम्मं वेदेंति।
से नूनं भंते! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेदितं?
हंता गोयमा! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेदितं।
एवं जाव अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ Translated Sutra: હે ભગવન્ ! શ્રમણ નિર્ગ્રન્થો કાંક્ષા મોહનીય કર્મને વેદે છે ? હા, વેદે છે. શ્રમણ નિર્ગ્રન્થો કાંક્ષા મોહનીય કર્મને કઈ રીતે વેદે છે? ગૌતમ ! તે તે જ્ઞાનાંતર, દર્શનાંતર, ચારિત્રાંતર, લિંગાંતર, પ્રવચનાંતર, પ્રાવચનિકાંતર, કલ્પાંતર, માર્ગાંતર, મતાંતર, ભંગાંતર, નયાંતર, નિયમાંતર, પ્રમાણાંતર વડે શંકિત, કાંક્ષિત, વિચિકિત્સિત, | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Gujarati | 72 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी रोहे नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमानमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्डंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तते णं से रोहे अनगारे जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी–
पुव्विं भंते! लोए, पच्छा अलोए? पुव्विं अलोए, पच्छा लोए?
रोहा! लोए य अलोए य पुव्विं पेते, पच्छा पेते–दो वेते सासया भावा, अनानुपुव्वी एसा रोहा।
पुव्विं भंते! जीवा, पच्छा अजीवा? पुव्विं अजीवा, पच्छा जीवा?
रोहा! जीवा य अजीवा य पुव्विं पेते, पच्छा पेते–दो वेते Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૨. તે કાળે, તે સમયે શ્રમણ ભગવંત મહાવીરના શિષ્ય ‘રોહ’ નામક અણગાર હતા, જેઓ સ્વભાવથી ભદ્રક, સ્વભાવથી મૃદુ, સ્વભાવથી વિનીત, સ્વભાવથી ઉપશાંત, અલ્પ ક્રોધ – માન – માયા – લોભવાળા, નિરહંકારતા સંપન્ન, ગુરુઆશ્રિત(ગુરુભક્તિમાં લીન), કોઈને ન સંતાપનાર, વિનયી હતા. તેઓ ભગવંત મહાવીરની અતિ દૂર નહીં – અતિસમીપ નહીં એ રીતે | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Gujarati | 77 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अन्नमन्नबद्धा, अन्नमन्नपुट्ठा, अन्नमन्नमोगाढा, अन्नमन्नसिनेह-पडिबद्धा, अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठंति?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं जीवा य पोग्गला य अन्नमन्नबद्धा, अन्नमन्नपुट्ठा, अन्नमन्नमोगाढा, अन्नमन्नसिनेहपडिबद्धा, अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठंति?
गोयमा! से जहानामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठइ
अहे ण केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नावं सयासवं सयछिद्दं ओगाहेज्जा। से नूनं गोयमा! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी-आपूरमाणी पुण्णा पुन्नप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा Translated Sutra: ભગવન્ ! જીવો અને પુદ્ગલો પરસ્પર બદ્ધ છે ? સ્પૃષ્ટ છે ? અવગાઢ છે ? – સ્નેહ પ્રતિબદ્ધ છે ? – ઘટ્ટ થઈને રહે છે ? હા, ગૌતમ ! જીવ અને પુદ્ગલ પરસ્પર એ રીતે રહે છે. ભગવન્ ! એમ કેમ કહો છો કે જીવ અને પુદ્ગલ પરસ્પર એ રીતે રહે છે ? ગૌતમ ! જેમ કોઈ એક દ્રહ છે, તે પાણીથી ભરેલો છે, છલોછલ ભરેલો, છલકાતો, પાણીથી વધતો, ભરેલા ઘડા માફક રહે છે. કોઈ | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Gujarati | 92 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं संगामं संगामेंति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणति, एगे पुरिसे परायिज्जति। से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! सवीरिए परायिणति, अवीरिए परायिज्जति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सवीरिए परायिणति? अवीरिए परायिज्जति?
गोयमा! जस्स णं वीरियवज्झाइं कम्माइं नो बद्धाइं नो पुट्ठाइं नो निहत्ताइं नो कडाइं नो पट्ठवियाइं नो अभिनिविट्ठाइं नो अभिसमन्नागयाइं नो उदिण्णाइं–उवसंताइं भवंति से णं परायिणति।
जस्स णं वीरियवज्झाइं कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाइं निहत्ताइं कडाइं पट्ठवियाइं अभिनिविट्ठाइं अभि-समन्नागयाइं Translated Sutra: ભગવન્ ! સરખા, સરખી ત્વચાવાળા, સમાન ઉંમરવાળા, સરખા દ્રવ્ય તથા ઉપકરણવાળા કોઈ બે પુરુષ, પરસ્પર લડાઈ કરે તેમાં એક પુરુષ હારે અને એક પુરુષ જીતે. ભગવન્ ! આવું કઈ રીતે થાય? ગૌતમ ! જે પુરુષ સવીર્ય હોય તે જીતે છે અને જે અલ્પ વીર્ય હોય તે હારે છે. ભગવન્ ! એમ કેમ કહ્યું ? ગૌતમ ! જેણે વીર્યરહિત કર્મો બાંધ્યા નથી, સ્પર્શ્યા નથી | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Gujarati | 93 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! किं सवीरिया? अवीरिया?
गोयमा! सवीरिया वि, अवीरिया वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जीवा सवीरिया वि? अवीरिया वि?
गोयमा! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संसारसमावन्नगा य, असंसारसमावन्नगा य।
तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा। सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जे ते संसार-समावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सेलेसिपडिवन्नगा य, असेलेसिपडिवन्नगा य।
तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया।
तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि।
से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जीवा Translated Sutra: ભગવન્ ! જીવો વીર્યવાળા છે કે વીર્ય વિનાના ? ગૌતમ ! વીર્યવાળા પણ છે અને વીર્ય વિનાના પણ છે – ભગવન્ ! એમ કેમ કહ્યું ? ગૌતમ ! જીવો બે પ્રકારે – સંસાર સમાપન્નક અને અસંસાર સમાપન્નક. તેમાં જે અસંસાર સમાપન્નક છે, તે સિદ્ધ છે. સિદ્ધો અવીર્ય છે. સંસારસમાપન્ન છે તે બે પ્રકારે – શૈલેશી પ્રતિપન્ન અને અશૈલેશી પ્રતિપન્ન. જે | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Gujarati | 102 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति –
एवं खलु चलमाणे अचलिए। उदीरिज्जमाणे अनुदीरिए। वेदिज्जमाणे अवेदिए। पहिज्जमाणे अपहीने। छिज्जमाणे अच्छिन्ने भिज्जमाणे अभिन्ने। दज्झमाणे अदड्ढे। भिज्जमाणे अमए। निज्जरिज्जमाणे अनिज्जिण्णे।
दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति,
कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति?
दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिनेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति।
तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति,
कम्हा तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति?
तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिनेहकाए, तम्हा तिन्नि Translated Sutra: ભગવન્ ! અન્યતીર્થિકો આ પ્રમાણે કહે છે યાવત્ પ્રરૂપે છે કે, ૧. ચાલતું એ ચાલ્યુ યાવત્ નિર્જરાતુ એ નિર્જરાયુ ન કહેવાય. ૨. તે અન્યતીર્થિકો કહે છે – બે પરમાણુ પુદ્ગલો એકમેકને ચોંટતા નથી કેમ ચોંટતા નથી ? તેનું કારણ એ છે કે – બે પરમાણુ પુદ્ગલોમાં ચીકાશ નથી, માટે એકમેકને ચોંટતા નથી તેથી બે પરમાણુનો સ્કંધ થતો નથી. ૩. | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Gujarati | 115 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया।
तए णं तस्स खंदयस्स अनगारस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–
एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महानुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए। जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि, भासं भासित्ता वि गिलामि, भासं भासमाणे गिलामि, Translated Sutra: તે કાળે તે સમયે રાજગૃહનગરમાં સમવસરણ થયું (ભગવાન મહાવીર પધાર્યા), યાવત્ પર્ષદા પાછી ગઈ. ત્યારે તે સ્કંદક અણગાર અન્યદા ક્યારેક રાત્રિના પાછલા પ્રહરે ધર્મ જાગરિકાથી જાગતા હતા ત્યારે તેમના મનમા આવો સંકલ્પ યાવત્ થયો કે – હું આ ઉદાર તપકર્મથી શુષ્ક, રુક્ષ, કૃશ થયો છું, યાવત્ બધી નાડીઓ બહાર દેખાય છે, આત્મબળથી જ | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Gujarati | 123 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवेंति–
१. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अन्ने देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ आभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउ-व्विय परियारेइ।
२. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा–इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च।
जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ।
इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थिवेयं वेएइ।
एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा– इत्थिवेदं च, Translated Sutra: ભગવન્ ! અન્યતીર્થિકો આ પ્રમાણે કહે છે, ભાખે છે, જણાવે છે અને પ્રરૂપે છે કે – નિર્ગ્રન્થ, મર્યા પછી દેવ થાય અને તે ત્યાં બીજા દેવો કે બીજા દેવોની દેવી સાથે આલિંગન કરીને પરિચારણા(કામભોગ સેવન) કરતા નથી. પોતાની દેવીઓને વશ કરીને પરિચારણા કરતા નથી. પણ પોતે જ પોતાને વિકુર્વીને પરિચારણા કરે છે. એ રીતે એક જીવ એક જ સમયે | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Gujarati | 127 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगजीवे णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वामागच्छइ?
गोयमा! जहन्नेणं इक्कस्स वा दोण्ह वा तिण्ह वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૨૭. ભગવન્ ! એક જીવ, એક ભવની અપેક્ષાએ કેટલા જીવોનો પુત્ર થઇ શકે? ગૌતમ ! એક જીવ એક ભવમાં જઘન્યથી એક જીવનો,, બે કે ત્રણ જીવોનો અને ઉત્કૃષ્ટથી શત પૃથક્ત્વ જીવનો પુત્ર થાય. સૂત્ર– ૧૨૮. ભગવન્ ! એક જીવને એક ભવમાં કેટલા જીવ પુત્રરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે ? ગૌતમ ! જઘન્યથી એક, બે કે ત્રણ જીવ. ઉત્કૃષ્ટ થી લાખ પૃથક્ત્વ જીવો | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Gujarati | 130 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति– अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवन-सयनासन-जानवाहणाइण्णा बहुधन-बहुजायरूव-रयया आयोगपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुल-भत्तपाना बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध-पुण्ण-पावा-आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिकरणबंधपमोक्खकुसला असहेज्जा Translated Sutra: ત્યારે શ્રમણ ભગવંત મહાવીર રાજગૃહનગરના ગુણશીલ ચૈત્યથી નીકળ્યા, નીકળીને બહારના જનપદોમાં વિહાર કરતાં વિચરે છે. તે કાળ તે સમયે તુંગિકા નામે નગરી હતી. (વર્ણન). તે તુંગિકા નગરીની બહાર ઈશાન ખૂણામાં પુષ્પવતી નામે ચૈત્ય હતું. (વર્ણન)... બંને વર્ણન ઉવવાઈ સૂત્ર અનુસાર સમજી લેવું. તે તુંગિકા નગરીમાં ઘણા શ્રાવકો રહેતા હતા. | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Gujarati | 144 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावंउवदंसेतीति वत्तव्वं सिया।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! जीवे णं अनंताणं आभिनिबोहियनाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयनाणपज्जवाणं, अनंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मनपज्जवनाणपज्जवाणं, अनंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अणं-ताणं मइअन्नाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयअन्नाणपज्जवाणं, Translated Sutra: ભગવન્ ! ઉત્થાન – કર્મ – બળ – વીર્ય – પુરુષકાર પરાક્રમી જીવ આત્મભાવ(પોતાના ઉત્થાનાદિ પરિણામો) થી જીવ ભાવને દેખાડે છે એમ કહેવાય ? હે ગૌતમ ! હા, એમ કહેવાય. ભગવન્ ! એમ કેમ કહ્યું ? ગૌતમ ! જીવ અનંત આભિનિબોધિક જ્ઞાન પર્યાયોના, એ રીતે શ્રુત – અવધિ – મનઃપર્યવ – કેવળજ્ઞાનના અનંત પર્યાયોના, મતિ – શ્રુત અજ્ઞાન અને વિભંગજ્ઞાનના |