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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 67 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीविए इह जे पमत्ता।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: जो इस जीवन के प्रति प्रमत्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। ‘अकृत काम मैं करूँगा’ इस प्रकार मनोरथ करता रहता है। जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी उसका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह – सम्बन्ध होने पर भी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 68 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाणं भोयणाए।
तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया नियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित – संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है। उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग के लिए उपयोग में लेता है। (प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। जिन स्वजन – स्नेहीयों के साथ वह रहता आया है, वे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 69 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं। Translated Sutra: प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख। अपना – अपना है, यह जानकर (आत्मद्रष्टा बने)। सूत्र – ६९, ७० | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 70 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए। Translated Sutra: देखो सूत्र ६९ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 71 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] खणं जाणाहि पंडिए। Translated Sutra: जो अवस्था (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसे देखकर, हे पण्डित ! क्षण (समय) को/अवसर को जान। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 72 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जाव- सोय-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव नेत्त-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव घाण-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव जीह-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव फास-पण्णाणा अपरिहीणा।
इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयट्ठं सम्मं समणुवासिज्जासि। Translated Sutra: जब तक श्रोत्र – प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र – प्रज्ञान, घ्राण – प्रज्ञान, रसना – प्रज्ञान और स्पर्श – प्रज्ञान परिपूर्ण हैं, तब तक – इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्महित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Hindi | 73 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अरइं आउट्टे से मेहावी।
खणंसि मुक्के। Translated Sutra: जो अरति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान है। वह बुद्धिमान विषय – तृष्णा से क्षणभर में ही मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Hindi | 74 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अणाणाए पुट्ठा ‘वि एगे’ नियट्टंति।
मंदा मोहेण पाउडा।
‘अपरिग्गहा भविस्सामो’ समुट्ठाए, लद्धे कामेहिगाहंति।
अणाणाए मुनिनो पडिलेहंति।
एत्थ मोहे पुनो पुनो सण्णा।
नो हव्वाए नो पाराए। Translated Sutra: अनाज्ञा में – (वीतराग विहित – विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोई – कोई संयम – जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं। वे मंदबुद्धि – अज्ञानी मोह से आवृत्त रहते हैं। कुछ व्यक्ति – ‘हम अपरिग्रही होंगे’ – ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम – सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग उपस्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Hindi | 75 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विमुक्का हु ते जना, जे जना पारगामिणो।
लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। Translated Sutra: जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं। अलोभ (संतोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम – भोग प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता (लोभ – विजय ही पार पहुँचने का मार्ग है) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Hindi | 76 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति-पासति।
पडिलेहाए नावकंखति।
एस अनगारेत्ति पवुच्चति।
अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विनिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो
से आय-बले, से नाइ-बले, से मित्त-बले, से पेच्च-बले, से देव-बले, से राय-बले, से चोर-बले, से अतिहि-बले, से किवण-बले, से समण-बले।
इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समायाणं।
सपेहाए भया कज्जति।
पाव-मोक्खोत्ति मन्नमाणे।
अदुवा आसंसाए। Translated Sutra: जो लोभ से निवृत्त होकर प्रव्रज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण से मुक्त होकर) सब कुछ जानता है, देखता है। जो प्रतिलेखना कर, विषय – कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है। (जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात – दिन परितप्त रहता है। काल या अकाल में सतत प्रयत्न करता रहता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Hindi | 77 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, नेवण्णं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभावेज्जा, नेवण्णं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतं समणुजाणेज्जा।
एस मग्गे आरिएहिं पवेइए।
जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि। Translated Sutra: यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताए गए प्रयोजनों के लिए स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करवाए तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करे। यह मार्ग आर्य पुरुषों ने बताया है। कुशलपुरुष इन विषयों में लिप्त न हों ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 78 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से असइं उच्चागोए, असइं नीयागोए। नो हीणे, नो अइरित्ते, नो पीहए’।
इति संखाय के गोयावादी? के मानावादी? कंसि वा एगे गिज्झे?
तम्हा पंडिए नो हरिसे, नो कुज्झे।
भूएहिं जाण पडिलेह सातं। Translated Sutra: यह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेकबार नीच गोत्र को प्राप्त हो चूका हो। इसलिए यहाँ न तो कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त है। यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे। यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा ? और कौन किस एक गोत्र में आसक्त होगा ? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो और | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 79 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समिते एयाणुपस्सी।
तं जहा–अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं।
सहपमाएणं अनेगरूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ। Translated Sutra: यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर। जो समित है वह इसको देखता है। जैसे – अन्धापन, बहरा – पन, गूँगापन, कानापन, लूला – लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों – दुखों का अनुभव | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 80 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से अबुज्झमाणे ‘हतोवहते जाइ-मरणं अणुपरियट्टमाणे’।
जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं, खेत्त-वत्थ ममायमाणाणं।
आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण, इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता।
न एत्थ तवो वा, दमो वा, नियमो वा दिस्सति।
संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासुवेइ। Translated Sutra: वह प्रमादी पुरुष कर्म – सिद्धान्त को नहीं समझाता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत – पुनः पुनः पीड़ित होता हुआ जन्म – मरण के चक्र में बार – बार भटकता है। जो मनुष्य, क्षेत्र – खुली भूमि तथा वास्तु – भवन – मकान आदि में ममत्व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है। वे रंग – बिरंगे मणि, कुण्डल, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 81 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इणमेव नावकंखंति, जे जना धुवचारिनो । जाती-मरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे ॥ Translated Sutra: जो पुरुष ध्रुवचारी होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते। वे जन्म – मरण के चक्र को जानकर द्रढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर बढ़ते रहें। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 82 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नत्थि कालस्स नागमो।
सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविनो जीविउकामा।
सव्वेसिं जीवियं पियं।
तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजियाणं संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ– अप्पा वा बहुगा वा।
से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए।
तओ से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवइ।
तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, नस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ।
इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ।
मुनिणा हु एयं पवेइयं।
अनोहंतरा एते, नोय ओहं तरित्तए ।
अतीरंगमा Translated Sutra: काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी क्षण आ सकती है। सब को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते हैं। दुःख से धबराते हैं। वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं। सब को जीवन प्रिय है। वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद और चतुष्पद का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनको कार्य में नियुक्त करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 83 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उद्देसो पासगस्स नत्थि।
बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुपरियट्टइ। Translated Sutra: जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम – सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में बार – बार भटकता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 84 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियया पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा।
जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं।
भोगामेव अणुसोयंति। इहमेगेसिं माणवाणं। Translated Sutra: तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ – संग्रही मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग – उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व – जन एकदा उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 85 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइ–अप्पा वा बहुगा वा।
से तत्थ गढिए चिट्ठति, भोयणाए।
ततो से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवति।
तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा डज्झइ।
इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ। Translated Sutra: यहाँ पर कुछ मनुष्यों को अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ – मात्रा हो जाती है। वह फिर उस अर्थ – मात्रा में आसक्त होता है। भोग के लिए उसकी रक्षा करता है। भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान् वैभव वाला बन जाता है। फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 86 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसं च छंदं च विगिंच धीरे।
तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु।
जेण सिया तेण णोसिया।
इणमेव नावबुज्झंति, जेजना मोहपाउडा।
थीभि लोए पव्वहिए।
ते भो वयंति–एयाइं आयतणाइं।
से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरग-तिरिक्खाए।
उदाहु वीरे– अप्पमादो महामोहे।
अलं कुसलस्स पमाएणं।
संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए।
नालं पास।
अलं ते एएहिं। Translated Sutra: हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता त्याग दे। उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जिस भोगसामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है। जो मनुष्य मोहकी सघनतासे आवृत हैं, ढ़ंके हैं, वे इस तथ्य को कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षण – भंगुर हैं, तथा वे ही शल्य नहीं जानते यह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 87 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयं पास मुनि! महब्भयं।
नाइवाएज्ज कंचणं।
एस वीरे पसंसिए, जे न निविज्जति आदाणाए।
‘न मे देति’ न कुप्पिज्जा, थोवं लद्धुं न खिंसए।
‘पडिसेहिओ परिणमिज्जा’।
एयं मोणं समणुवासेज्जासि। Translated Sutra: हे मुनि ! यह देख, ये भोग महान भयरूप हैं। भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर। वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता। ‘यह मुझे भिक्षा नहीं देता’ ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करनी चाहिए। गृहस्वामी दाता द्वारा प्रतिबंध करने पर शान्त भाव से वापस लौट | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 88 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जमिणं विरूवरूवेहिं ‘सत्थेहिं लोगस्स कम्म-समारंभा’ कज्जंति, तं जहा–अप्पनो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायरासाए।
सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए। Translated Sutra: असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए कर्म समारंभ करते हैं। जैसे – अपने लिए, पुत्र, पुत्री, पुत्र – वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास – दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रातःकालीन भोजन के लिए। इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 89 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समुट्ठिए अनगारे आरिए आरियपण्णे आरियदंसी ‘अयं संधीति अदक्खु’।
से नाइए, नाइआवए, न समणुजाणइ।
सव्वामगंधं परिण्णाय, निरामगंधो परिव्वए। Translated Sutra: संयम – साधना में तत्पर हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है। वह ‘यह शिक्षा का समय – संधि है’ यह देखकर (भिक्षा के लिए जाए)। वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन नहीं करे। वह (अनगार) सब प्रकार के आमगंध (आधाकर्मादि दोषयुक्त | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 90 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अदिस्समाणे कय-विक्कएसु। से न किणे, न किनावए, किणंतं न समणुजाणइ।
से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खेयण्णे खणयण्णे विणयण्णे समयण्णे भावण्णे, परिग्गहं अममायमाणे, कालेणुट्ठाइ, अपडिण्णे। Translated Sutra: वह वस्तु के क्रय – विक्रय में संलग्न न हो। न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे। वह भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 91 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुहओ छेत्ता नियाइ।
वत्थं पडिग्गहं, कंबलं पायपुछणं, उग्गहं च कडासणं। एतेसु चेव जाएज्जा। Translated Sutra: वह राग और द्वेष – दोनों का छेदन कर नियम तथा अनासक्तिपूर्वक जीवन यात्रा करता है। वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन, अवग्रह और कटासन आदि (जो गृहस्थ के लिए निर्मित हों) उनकी याचना करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 92 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लद्धे आहारे अनगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं।
लाभो त्ति न मज्जेज्जा।
अलाभो त्ति न सोयए।
बहुं पि लद्धुं न णिहे।
परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा। Translated Sutra: आहार प्राप्त होने पर, आगम</em> के अनुसार, अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए। ईच्छित आहार आदि प्राप्त होने पर उसका मद नहीं करे। यदि प्राप्त न हो तो शोक न करे। यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो, तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 93 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘अन्नहा णं पासए परिहरेज्जा’।
एस मग्गे आरिएहिं पवेइए।
जहेत्थ कुसले णोवलिंपिज्जासि Translated Sutra: जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं, उस प्रकार न देखे – अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन करे। यह मार्ग आर्यो ने प्रतिपादित किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो। ऐसा मैं कहता हूँ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 94 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कामा दुरतिक्कमा।
जीवियं दुप्पडिवूहणं।
कामकामी खलु अयं पुरिसे।
से सोयति जूरति तिप्पति पिड्डति परितप्पति। Translated Sutra: ये काम दुर्लघ्य है। जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता, यह पुरुष कामभोग की कामना रखता है (किन्तु यह परितृप्त नहीं होती, इसलिए) वह शोक करता है फिर वह शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और परिताप से दुःखी होता रहता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 95 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ।
गढिए अणुपरियट्टमाणे।
संधिं विदित्ता इह मच्चिएहिं।
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।
अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि, पासति पुढोवि सवंताइं।
पंडिए पडिलेहाए। Translated Sutra: वह आयतचक्षु – दीर्घदर्शी लोकदर्शी होता है। यह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तीरछे भाग को जानता है। (कामभोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में अनुपरिवर्तन करता रहता है। यहाँ (संसार में) मनुष्यों के, (मरणधर्माशरीर की) संधि को जानकर (विरक्त हो)। वह वीर प्रशंसा के योग्य है जो (कामभोग में) बद्ध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 96 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी।
मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए।
कासकंसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई, कडेण मूढे पुनो तं करेइ लोभं।
वेरं वड्ढेति अप्पणो।
जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवूहणयाए।
अमरायइ महासड्ढी।
अट्ठमेतं पेहाए।
अपरिण्णाए कंदति। Translated Sutra: वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्यागकर लार को न चाटे। अपने को तिर्यक्मार्ग में, (कामभोग के बीच में) न फँसाए। यह पुरुष सोचता है – मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूँगा (इस प्रकार) वह दूसरों को ठगता है, माया – कपट रचता है, और फिर अपने रचे मायाजाल में स्वयं फँसकर मूढ़ बन जाता है। वह मूढ़भाव से ग्रस्त फिर लोभ करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 97 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से तं जाणह जमहं बेमि’।
‘तेइच्छं पंडिते’ पवयमाणे।
से हंता ‘छेत्ता भेत्ता’ ‘लुंपइत्ता विलुंपइत्ता’ उद्दवइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जस्स वि य णं करेइ।
अलं बालस्स संगेणं।
जे वा से कारेइ बाले।
‘न एवं’ अणगारस्स जायति। Translated Sutra: तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा – पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा में प्रवृत्त होते हैं। वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण – वध करता है। ‘जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूँगा,’ यह मानता हुआ (जीव – वध करता है)। जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव – वध में सहभागी होता है)। (इस | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 98 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए।
तम्हा पावं कम्मं, ने व कुज्जा न कारवे। Translated Sutra: वह उसको सम्यक् प्रकार से जानकर संयम साधना से समुद्यत होता है। इसलिए वह स्वयं पापकर्म न करे, दूसरों से न करवाए (अनुमोदन भी न करे)। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 99 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सिया से एगयरं विप्परामुसइ, छसु अन्नयरंसि कप्पति।
सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति।
सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति।
जंसिमे पाणा पव्वहिया। पडिलेहाए णोणिकरणाए।
एस परिण्णा पवुच्चइ।
कम्मोवसंती। Translated Sutra: कदाचित् किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छहों जीव – कायों में (सभी का) समारंभ कर सकता है। वह सुख का अभिलाषी, बार – बार सुख की ईच्छा करता है, (किन्तु) स्व – कृत कर्मों के कारण, मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 100 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे ममाइय-मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं।
से हु दिट्ठपहे मुनी, जस्स नत्थि ममाइयं।
तं परिण्णाय मेहावी।
विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, ‘से मतिमं’ परक्कमेज्जासि Translated Sutra: जो ममत्व – बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग करता है। वही द्रष्ट – पथ मुनि है, जीसने ममत्व का त्याग कर दिया है। यह जानकर मेधावी लोकस्वरूप को जाने। लोक – संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे। वास्तव में उसे ही मतिमान् कहा गया है – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 101 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नारतिं सहते वीरे, वीरे नो सहते रतिं ।
जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे न रज्जति ॥ Translated Sutra: वीर साधक अरति को सहन नहीं करता, और रति को भी सहन नहीं करता। इसलिए वह वीर इन दोनों में ही अविमनस्क रहकर रति – अरति में आसक्त नहीं होता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 102 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दे य फासे अहियासमाणे। निव्विंव नंदिं इह जीवियस्स।
मुनी मोनं समादाय, धुणे कम्म-सरीरगं॥ Translated Sutra: मुनि (मधुर एवं कटु) शब्द (रूप, रस, गन्ध) और स्पर्श को सहन करता है। इस असंयम जीवन में होने वाले आमोद आदि से विरत होता है। मुनि मौन (संयम) को ग्रहण करके कर्म – शरीर को धुन डालता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 103 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओघंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरत्ते, वियाहिते Translated Sutra: वे समत्वदर्शी वीर साधक रूखे – सूखे का समभाव पूर्वक सेवन करते हैं। वह मुनि, जन्म – मरणरूप संसार प्रवाह को तैर चूका है, वह वास्तव में मुक्त, विरत कहा जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 104 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुव्वसु मुनी अणाणाए। तुच्छए गिलाइ वत्तए। एस वीरे पसंसिए।
अच्चेइ लोयसंजोयं। एस णाए पवुच्चइ। Translated Sutra: जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम – धन से रहित है। वह धर्म का कथन करने में ग्लानि का अनुभव करता है, (क्योंकि) वह चारित्र की द्रष्टि से तुच्छ जो है। वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक – संयोग से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है। यही न्याय्य (तीर्थंकरों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 105 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो।
जे अनन्नदंसी, से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे, से अनन्नदंसी॥
जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ॥ Translated Sutra: यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख बताए हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा – विवेक बताते हैं। इस प्रकार कर्मों को जानकर सर्व प्रकार से (निवृत्ति करे)। जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। (आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान व्यक्ति को धर्म – उपदेश करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 106 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अवि य हणे अनादियमाणे। एत्थंपि जाण, सेयंति नत्थि।
के यं पुरिसे? कं च नए?
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिण्णचारी।
न लिप्पई छणपएण वीरे।
से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमन्नेसि।
कुसले पुण नोबद्धे, नोमुक्के। Translated Sutra: कभी अनादर होने पर वह (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है। अतः यहाँ यह भी जाने धर्मकथा करना श्रेय नहीं है। पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए की यह पुरुष कौन है ? किस देवता को मानता है ? वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है। वह ऊंची, नीची और तीरछी दिशाओं में, सब प्रकार से समग्र परिज्ञा/विवेकज्ञान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 107 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जं च आरभे, जं च नारभे, अणारद्धं च नारभे।
छणं छणं परिण्णाय, लोगसण्णं च सव्वसो। Translated Sutra: उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। हिंसा को जानकर उसका त्याग कर दे। लोक – संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 108 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उद्देसो पासगस्स नत्थि।
बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुपरियट्टइ। Translated Sutra: द्रष्टा के लिए कोई उद्देश (अथवा उपदेश) नहीं है। बाल बार – बार विषयों में स्नेह करता है। काम – ईच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (सेवन करता है) इसीलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन – २ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 109 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सुत्ता अमुनी सया, मुनिनो सया जागरंति। Translated Sutra: अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदैव जागते रहते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 110 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं।
समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए।
जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति... Translated Sutra: इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे। जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् प्रकार से परिज्ञात किया है – (जो उनमें रागद्वेष न करता हो)। वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। जो पुरुष | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 111 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से ‘आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं’।
पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं, ‘मुनीति वच्चे’, धम्मविउत्ति अंजू।
आवट्टसोए संगमभिजाणति। Translated Sutra: देखो सूत्र ११० | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 112 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सीओसिनच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णोवेदेति।
जागर-वेरोवरए वीरे।
एवं दुक्खा पमोक्खसि।
जरामच्चुवसोवणीए नरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति। Translated Sutra: वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है तथा स्पर्शजन्य सुख – दुःख का वेदन नहीं करता। जागृत और वैर से उपरत वीर ! तू इस प्रकार दुःखों से मुक्ति पा जाएगा। बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य सतत मूढ़ बना रहता है। वह धर्म को नहीं जान पाता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 113 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए।
मंता एयं मइमं! पास।
आरंभजं दुक्खमिणं ति नच्चा।
माई पमाई पुनरेइ गब्भं।
उवेहमानो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति।
अप्पमत्तो कामेहिं, उवरतो पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते ‘जे खेयण्णे’।
जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे।
अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
कम्मुणा उवाही जायइ। कम्मं च पडिलेहाए। Translated Sutra: (सुप्त) मनुष्यों को दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे। हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (दुखियों) को देख। यह दुःख आरम्भज है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से आत्महित में प्रवृत्त रह)। मया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य बार – बार जन्म लेता है। शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है, वह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 114 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘कम्ममूलं च’ जं छणं।
पडिलेहिय सव्वं समायाय।
दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे।
तं परिण्णाय मेहावी।
विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं से मइमं परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: कर्म का मूल जो क्षण – हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे)। इन सबका सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेष) अन्तों से अद्रश्य होकर रहे। मेधावी साधक उसे (राग – द्वेषादि को) ज्ञात करके (ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े।) वह मतिमान् साधक (रागादि से मूढ़) लोक को जानकर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 115 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जातिं च वुड्ढिं च इहज्ज! पासे। भूतेहिं जाणे पडिलेह सातं।
तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा, समत्तदंसी न करेति पावं॥ Translated Sutra: हे आर्य ! तू इस संसार में जन्म और बुद्धि को देख। तू प्राणियों को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर। इससे त्रैविद्य या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है)। समत्वदर्शी पाप नहीं करता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 116 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं। आरंभजीवी ‘उ भयाणुपस्सी’।
कामेसु गिद्धा निचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरेंति गब्भं॥ Translated Sutra: इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश है, उसे तोड़ ड़ाल; क्योंकि ऐसे लोग हिंसादि पापरूप आरंभ करके जीते हैं और आरंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक में शारीरिक, मानसिक कामभोगों को ही देखते रहते हैं, अथवा आरंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन करते हैं। ऐसे कामभोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं। (कर्मों की |