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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-२ वस्त्र धारण विधि | Hindi | 483 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाइं वत्थाइं जाएज्जा, अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं धारेज्जा, नो धोएज्जा नो रएज्जा, नो घोयरत्ताइं वत्थाइं धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए। एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं।
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए निक्खमेज्ज वा, पविसेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहिया वियार-भूमिं वा, विहार-भूमिं वा निक्खममाणे वा, पविसमाणे वा सव्वं चीव-रमायाए बहिया वियार-भूमिं वा विहार-भूमिं वा निक्खमेज्ज वा, पविसेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे Translated Sutra: साधु या साध्वी वस्त्रैषणा समिति के अनुसार एषणीय वस्त्रों की याचना करे, और जैसे भी वस्त्र मिले और लिए हों, वैसे ही वस्त्रों को धारण करे, परन्तु न उन्हें धोए, न रंगे और न ही धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्रों को पहने। उन साधारण – से वस्त्रों को न छिपाते हुए ग्राम – ग्रामान्तर में समतापूर्वक विचरण करे। यही वस्त्रधारी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-२ वस्त्र धारण विधि | Hindi | 484 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ एयप्पगारं निग्घोसं सोच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि ‘मुहुत्तगं-मुहुत्तगं’ जाइत्ता एगाहेण वा, दुयाहेण वा, तियाहेण वा, चउयाहेण वा, पंचाहेण वा विप्पवसिय-विप्पवसिय उवागच्छंति, तहप्पगाराणि वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति, नो अन्नमन्नस्स अणुवयंति, नो पामिच्चं करेंति, नो वत्थेण वत्थपरिणामं करेंति, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेंति– ‘आउसंतो! समणा! अभिकंखसि वत्थं धारेत्तए वा, परिहरेत्तए वा? ’थिरं वा णं संतं नो पलिच्छिंदिय-पलिच्छिंदिय परिट्ठवेंति। तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि तस्स चेव निसिरेंति, नो णं सातिज्जंति, ‘से हंता’ अहमवि मुहुत्तगं Translated Sutra: कोई साधु मुहूर्त्त आदि नियतकाल के लिए किसी दूसरे साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करता है और फिर किसी दूसरे ग्राम आदि में एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन अथवा पाँच दिन तक निवास करके वापस आता है। इस बीच यह वस्त्र उपहत हो जाता है। लौटाने पर वस्त्र का स्वामी उसे वापिस लेना स्वीकार नहीं करे, लेकर दूसरे साधु को | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-२ वस्त्र धारण विधि | Hindi | 485 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा नो वण्णमंताइं वत्थाइं विवण्णाइं करेज्जा, विवण्णाइं नो वण्णमंताइं करेज्जा, ‘अन्नं वा वत्थं लभिस्सामि’ त्ति कट्टु नो अन्नमन्नस्स देज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थ-परिणामं करेज्जा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेज्जा– ‘आउसंतो! समणा! अभिकंखसि मे वत्थं धारेत्तए वा, परिहरेत्तए वा? ’थिरं वा णं संतं नो पलिच्छिंदिय-पलिच्छिंदिय परिट्ठवेज्जा, जहा चेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ।
परं च णं अदत्तहारिं पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स णिदाणाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा, नो मग्गाओ मग्गं संकमेज्जा नो गहणं वा, वणं वा, दुग्गं वा अणुपविसेज्जा, नो रुक्खंसि Translated Sutra: साधु या साध्वी सुन्दर वर्ण वाले वस्त्रों को विवर्ण न करे, तथा विवर्ण वस्त्रों को सुन्दर वर्ण वाले न करे। ‘मैं दूसरा नया वस्त्र प्राप्त कर लूँगा’, इस अभिप्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र ले, और न ही वस्त्र की परस्पर अदलाबदली करे। दूसरे साधु के पास जाकर ऐसा न कहे – आयुष्मन् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 486 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, सेज्जं पुण पाय जाणेज्जा, तं जहा–अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा– तहप्पगारं पायं–
जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, नो बीयं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए पाय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं Translated Sutra: संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो जिन पात्रों को जाने वे इस प्रकार हैं – तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र। इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है। जो निर्ग्रन्थ तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और स्थिर – सहन वाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं। वह साधु, साध्वी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 488 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सिया से परो आहट्टु अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाएत्ता नीहट्टु दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा, परपायंसि वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से य आहच्च पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरेज्जा, सपडिग्गहमायाए पाणं परिट्ठवेज्जा, ससणिद्धाए ‘वा णं’ भूमीए नियमेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा, ससणिद्धं वा पडिग्गहं नो आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, संलिहेज्ज वा, निल्लिहेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा, उवट्टेज्ज वा, आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा।
अह पुण एवं जाणेज्जा–विगतोदए Translated Sutra: साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहार – पानी के लिए गये हों और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में सचित्त जल लाकर साधु को देने लगे, तो साधु उस प्रकार के पर – हस्तगत एवं पर – पात्रगत शीतल जल को अप्रासुक और अनैषणीय जानकर अपने पात्र में ग्रहण न करे। कदाचित् असावधानी से वह जल ले लिया हो तो शीघ्र दाता के जल पात्र में उड़ेल | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-१ | Hindi | 492 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण ओग्गहं जाणिज्जा–अनंतरहियाए पुढवीए, ससणिद्धाए पुढवीए, ससरक्खाए पुढवीए, चित्तमंताए सिलाए, चित्तमंताए लेलुए, कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सउसे सउदए सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणए, तहप्पगारं ओग्गहं नो ओगिण्हेज्ज वा, पगिण्हेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण ओग्गहं जाणिज्जा–थूणंसि वा, गिहेलुगंसि वा, उसुयालंसि वा, कामजलंसि वा, अन्नयरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे दुन्निक्खित्ते अनिकंपे चलाचले नो ओग्गहं ओगिण्हेज्ज वा, पगिण्हेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण ओग्गहं जाणेज्जा– Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह को जाने, जो सचित्त, स्निग्ध पृथ्वी यावत्, जीव – जन्तु आदि से युक्त हो, तो इस प्रकार के स्थान की अवग्रह – अनुज्ञा एक बार या अनेक बार ग्रहण न करे। साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह को जाने, जो भूमि से बहुत ऊंचा हो, ठूँठ, देहली, खूँटी, ऊखल, मूसल आदि पर टिकाया हुआ एवं ठीक तरह से बंधा हुआ या गड़ा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-२ | Hindi | 494 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा अंबवणं उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए, ते ओग्गहं अणुजाणावेज्जा। कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउसो, जाव आउसंतस्स ओग्गहो, जाव साहम्मिया एत्ता, ताव ओग्गहं ओगिण्हिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो।
से किं पुण तत्थ ओग्गहंसि एवोग्गहियंसि? अह भिक्खू इच्छेज्जा अंबं भोत्तए वा, [पायए वा?]
सेज्जं पुण अंबं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, तहप्पगारं अंबं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण अंबं जाणेज्जा–अप्पंडं Translated Sutra: वह साधु या साध्वी आम के वन में ठहरना चाहे तो उस आम्रवन का जो स्वामी या अधिष्ठाता हो, उससे अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करे उतने समय तक, उतने नियत क्षेत्र में आम्रवन में ठहरेंगे, इसी बीच हमारे समागत साधर्मिक भी इसी का अनुसरण करेंगे। अवधि पूर्ण होने के पश्चात् यहाँ से विहार कर जाएंगे। उस आम्रवन में अवग्रहानुज्ञा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-२ | Hindi | 495 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा अणुवीइ ओग्गहं जाणेज्जा–जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए, ते ओग्गहं अणुण्णविज्जा। कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउसा, आउसंतस्स आग्गहो, जाव साहम्मिया एत्ता, ताव ओग्गहं ओगिण्हिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो।
से किं पुण तत्थ ओग्गहंसि एवोग्गहियंसि? जे तत्थ गाहावईण वा, गाहावइ-पुत्ताण वा इच्चेयाइं आयत्तणाइं उवाइकम्म। अह भिक्खू जाणेज्जा इमाहिं सत्तहिं पडिमाहिं ओग्गहं ओगिण्हित्तए।
तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा–से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु Translated Sutra: साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे। पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे। अव – गृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित स्थानदोषों का परित्याग करके निवास | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-२ | Hindi | 496 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! ते णं भगवया एवमक्खायं–इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तंजहा–देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ-ओग्गहे, सागारिय-ओग्गहे, साहम्मिय-ओग्गहे।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जएज्जासि। Translated Sutra: हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान से इस प्रकार कहते हुए सूना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवंतों ने पाँच प्रकार का अवग्रह बताया है, देवेन्द्र – अवग्रह, राजावग्रह, गृहपति – अवग्रह, सागारिक – अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है, जिसके लिए वह अपने सभी ज्ञानादि आचारों एवं समितियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-८ [१] स्थान विषयक |
Hindi | 497 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसेज्जा ‘गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा’, से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वा, सेज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं, तं तहप्प-गारं ठाणं–अफासुयं अणेस-णिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे ठाणे पडिलेहित्ता Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि किसी स्थान में ठहरना चाहे तो तो वह पहले ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर वह जिस स्थान को जाने कि यह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थान को अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। इसी प्रकार यहाँ से उदकप्रसूत कंदादि तक का स्थानैषणा सम्बन्धी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-९ [२] निषिधिका विषयक |
Hindi | 498 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं निसीहियं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो चेतिस्सामि [चेएज्जा?]
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा–अप्पडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं निसीहियं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते चेतिस्सामि [चेएज्जा?]
सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं Translated Sutra: जो साधु या साध्वी प्रासुक – निर्दोष स्वाध्याय – भूमि में जाना चाहे, वह यदि ऐसी स्वाध्याय – भूमि को जाने, जो अण्डों, जीव – जन्तुओं यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो तो उस प्रकार की निषीधिका को अप्रासुक एवं अनैषणीय समझकर मिलने पर कहे कि मैं इसका उपयोग नहीं करूँगा। जो साधु या साध्वी यदि ऐसी स्वाध्याय – भूमि को जाने, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१० [३] उच्चार प्रश्नवण विषयक |
Hindi | 499 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवण-किरियाए उव्वाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाएज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीअं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग -दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए Translated Sutra: साधु या साध्वी को मल – मूत्र की प्रबल बाधा होने पर अपने पादपुञ्छनक के अभाव में साधर्मिक साधु से उसकी याचना करे। साधु या साध्वी ऐसी स्थण्डिल भूमि को जाने, जो कि अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर मल – मूत्र विसर्जन न करे। साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो प्राणी, बीज, यावत् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-११ [४] शब्द विषयक |
Hindi | 502 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा [अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेइ, तं जहा?] मुइंग-सद्दाणि वा, ‘नंदीमुइंगसद्दाणि वा’, ज्झल्लरीसद्दाणि वा, अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि विरूवरूवाणि वितताइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेइ, तं जहा–वीणा-सद्दाणि वा, विपंची-सद्दाणि वा, बद्धीसग-सद्दाणि वा, तुणय-सद्दाणि वा, पणव-सद्दाणि वा, तुंबवीणिय-सद्दाणि वा, ढंकुण-सद्दाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूव-रूवाइं सद्दाइं तताइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–ताल-सद्दाणि Translated Sutra: साधु या साध्वी मृदंगशब्द, नंदीशब्द या झलरी के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य वितत शब्दों को कानों से सूनने के उद्देश्य से कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। साधु या साध्वी कईं शब्दों को सूनते हैं, जैसे कि वीणा के शब्द, विपंची के शब्द, बद्धीसक के शब्द, तूनक के शब्द या ढोल के शब्द, तुम्बवीणा के शब्द, ढंकुण के शब्द, या | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-११ [४] शब्द विषयक |
Hindi | 503 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, उप्पलाणि वा, पल्ललाणि वा, उज्झराणि वा, निज्झराणि वा, वावीणि वा, पोक्खराणि वा, दीहियाणि वा, गुंजालियाणि वा, सराणि वा, सागराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरसरपंतियाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–कच्छाणि वा, णूमाणि वा, गहणाणि वा, वनानि वा, वनदुग्गाणि वा, पव्वयाणि वा, पव्वयदुग्गाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से Translated Sutra: वह साधु या साध्वी कईं प्रकार के शब्द श्रवण करते हैं, जैसे कि – खेत की क्यारियों में तथा खाईयों में होने वाले शब्द यावत् सरोवरों में, समुद्रों में, सरोवर की पंक्तियों या सरोवर के बाद सरोवर की पंक्तियों के शब्द, अन्य इसी प्रकार के विविध शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के लिए जाने के लिए मन में संकल्प न करे। साधु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-११ [४] शब्द विषयक |
Hindi | 504 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–अक्खाइय-ट्ठाणाणि वा, माणुम्माणिय-ट्ठाणाणि वा, महयाहय-णट्ट-गीय-वाइय-तंति-तल-ताल-तुडिय-पडुप्पवाइय-ट्ठाणाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–कलहाणि वा, डिंबाणि वा, डमराणि वा, दोरज्जाणि वा, वेरज्जाणि वा, विरुद्धरज्जाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए णोअभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–खुड्डियं वारियं परिवुतं Translated Sutra: साधु या साध्वी कईं प्रकार के शब्द – श्रवण करते हैं, जैसे कि कथा करने के स्थानों में, तोल – माप करने के स्थानों में या घुड़ – दौड़, कुश्ती प्रतियोगिता आदि के स्थानों में, महोत्सव स्थलों में, या जहाँ बड़े – बड़े नृत्य, नाट्य, गीत, वाद्य, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, वादिंत्र, ढोल बजाने आदि के आयोजन होते हैं, ऐसे स्थानों में तथा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१२ [५] रुप विषयक |
Hindi | 505 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं रूवाइं पासइ, तं जहा–गंथिमाणि वा, वेढिमाणि वा, पूरिमाणि वा, संघाइमाणि वा, कट्ठकम्माणि वा, पोत्थकम्माणि वा, चित्तकम्माणि वा, मणिकम्माणि वा, दंतकम्माणि वा, पत्तच्छेज्जकम्माणि वा, ‘विहाणि वा, वेहिमाणि वा’, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं [रूवाइं?] चक्खुदंसण-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं रूवाइं पासाइ, तं जहा–वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, उप्पलाणि वा, पल्ललाणि वा, उज्झराणि वा, निज्झराणि वा, वावीणि वा, पोक्खराणि वा, दीहियाणि वा, गुंजालियाणि वा, सराणि वा, सागराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरसरपंतियाणि वा, Translated Sutra: साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं, जैसे – गूँथे हुए पुष्पों से निष्पन्न, वस्त्रादि से वेष्टित या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से आकृति बन जाती हो, उन्हें, संघात से निर्मित चोलका – दिकों, काष्ठ कर्म से निर्मित, पुस्तकर्म से निर्मित, चित्रकर्म से निर्मित, विविध मणिकर्म से निर्मित, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 510 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए-सुसमसुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमाए समाए वीतिक्कंताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिक्कंताए, दुसमसुसमाए समाए बहु वीतिक्कंताए–पण्णहत्तरीए वासेहिं, मासेहिं य अद्धणवमेहिं सेसेहिं, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे–आसाढसुद्धे, तस्सणं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, महावि-जय-सिद्धत्थ-पुप्फुत्तर-पवर-पुंडरीय-दिसासोवत्थिय-वद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता इह खलु जबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्ढभरहे दाहिणमाहणकुंडपुर-सन्निवेसंसि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम – सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम – दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम – सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल ७५ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवे पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 513 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे नाते नायपुत्ते नायकुल-विणिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसुमाले तीसं वासाइं विदेहत्ति कट्टु अगारमज्झे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा बलं, चिच्चा वाहणं, चिच्चा धण-धण्ण-कणय-रयण-संत-सार-सावदेज्जं, विच्छड्डेत्ता विगोवित्ता विस्साणित्ता, दायारे सु णं ‘दायं पज्जभाएत्ता’, संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमेमासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं अभिणिक्खमनाभिप्पाए यावि Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चूके थे, ज्ञात कुल से विनिवृत्त थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय थे, विदेहदत्ता के पुत्र थे, सुकुमार थे। भगवान महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता – पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 514 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संवच्छरेण होहिति, अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स ।
तो अत्थ-संपदाणं, पव्वत्तई पुव्वसूराओ ॥ Translated Sutra: श्री जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवान का अभिनिष्क्रमण एक वर्ष पूर्ण होते ही होगा, अतः वे दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक – वर्षी दान प्रारम्भ कर देते हैं। प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक प्रहर दिन चढ़ने तक उनके द्वारा अर्थ का दान होता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 520 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमनाभिप्पायं जानेत्ता भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि-सएहिं रूवेहिं, सएहिं-सएहिं नेवत्थेहिं, सएहिं-सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्ढीए सव्वजुतीए सव्वबल-समुदएणं सयाइं-सयाइं जाण विमाणाइं दुरुहंति, सयाइं-सयाइं जाणविमाणाइं दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाइं परिसाडेति, अहा-बादराइं पोग्गलाइं परिसाडेत्ता अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइंति, अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइत्ता उड्ढं उप्पयंति, उड्ढं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाइं Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने – अपने रूप से, अपने – अपने वस्त्रों में और अपने – अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी – अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति और समस्त बल – समुदाय सहित अपने – अपने यान – विमानों पर चढ़ते हैं फिर सब | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 532 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, ‘हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं’ जोगोवगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, छट्ठेण भत्तेणं अपाणएणं, एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए सिवियाए सहस्सवाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे-समण्णिज्जमाणे उत्तरखत्तिय कुंडपुर-संणिवेसस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिंरयणिप्पमाणं अच्छुप्पेणं भूमिभागेणं सणियं-सणियं चंदप्पभं सिवियं सहस्सवाहिणिं ठवेइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत के विजय मुहूर्त्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्व गामिनी छाया होने पर, द्वीतिय पौरुषी प्रहर के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्त – प्रत्याख्यान के साथ एकमात्र | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 534 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडिवज्जित्तु चरित्तं, अहोणिसिं सव्वपाणभूतहितं ।
साहट्ठलोमपुलया, पयया देवा निसामिंति ॥ Translated Sutra: भगवान चारित्र अंगीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गए। सभी देवों ने यह सूना तो हर्ष से पुलकित हो उठे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन – सम्बन्धी वर्ग | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 536 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पढमं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं–से सुहुमं वा बायरं वा, तसं वा थावरं वा– नेव सयं पाणाइवायं करेज्जा, नेवन्नेहिं पाणाइवायं कारवेज्जा, नेवण्णं पाणाइवायं करंतं समणु-जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–इरियासमिए से निग्गंथे, नो इरियाअसमिए त्ति। केवली बूया– इरियाअसमिए से निग्गंथे, पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणेज्ज वा, वत्तेज्ज वा, परियावेज्ज वा, लेसेज्ज वा, उद्दवेज्ज वा। इरियासमिए से निग्गंथे, नो इरियाअसमिए त्ति Translated Sutra: ‘भन्ते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान – करता हूँ। मैं सूक्ष्म – स्थूल और त्रस – स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपात करूँगा, न दूसरों से कराऊंगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन – करूँगा; मैं यावज्जीवन तीन करण से एवं मन – वचन – काया से इस पाप से निवृत्त होता हूँ। हे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 537 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं दोच्चं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं वइदोसं–से कोहा वा, लोहा वा, भया वा, हासा वा, नेव सयं मुसं भासेज्जा, नेवन्नेणं मुसं भासावेज्जा, अन्नं पि मुसं भासंतं ण समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं– मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा– अणुवीइभासी से निग्गंथे, नो अणणुवीइभासी। केवली बूया– अणणुवीइभासी से निग्गंथे समावदेज्जा मोसं वयणाए। अणुवीइभासी से निग्गंथे, नो अणणुवीइभासित्ति पढमा भावणा।
अहावरा दोच्चा भावणा–कोहं परिजाणइ से निग्गंथे, णोकोहणे सिया। केवली बूया–कोहपत्ते Translated Sutra: इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वीतिय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं इस प्रकार से मृषावाद और सदोष – वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान करता हूँ। साधु क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा बोले, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण करो और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे। इस प्रकार तीन करणों से तथा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 538 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं तच्चं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं अदिन्नादानं–से गामे वा, नगरे वा, अरण्णे वा, अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गेण्हिज्जा, नेवन्नेहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा, अन्नंपि अदिन्नं गेण्हंतं न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–अणुवीइमिओग्गहजाई से निग्गंथे, णोअणणुवीइ-मिओग्गहजाई। केवली बूया–अणणुवीइमिओग्गहजाई से निग्गंथे, अदिन्नं गेण्हेज्जा। अणुवीइमिओग्गहजाई से निग्गंथे, णोअणणुवीइमिओग्गहजाई Translated Sutra: भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्ता – दान का प्रत्याख्यान करता हूँ। वह इस प्रकार – वह (ग्राह्य पदार्थ) चाहे गाँव में हो, नगर में हो या अरण्य में हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके स्वामी के बिना दिये न तो स्वयं ग्रहण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 539 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं चउत्थं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं–से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा, नेवन्नेहिं मेहुणं गच्छावेज्जा, अन्नंपि मेहुणं गच्छंतं न समणुज्जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया। केवली बूया–निग्गंथे णं अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहमाणे, संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेवली-पण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा। नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं Translated Sutra: इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, समस्त प्रकार के मैथुन – विषय सेवन का प्रत्या – ख्यान करता हूँ। देव – सम्बन्धी, मनुष्य – सम्बन्धी और तिर्यंच – सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से मैथुन – सेवन कराऊंगा और न ही मैथुनसेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 540 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पंचमं भंते! महव्वयं–सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं गिण्हेज्जा, नेवन्नेहिं परिग्गहं गिण्हावेज्जा, अन्नंपि परिग्गहं गिण्हंतं ण समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–सोयओ जीवे मणुण्णामणुण्णाइं सद्दाइं सुणेइ। मणुण्णामणुण्णेहिं सद्देहिं नो सज्जेज्जा, नो रज्जेज्जा, नो गिज्झेज्जा, नो मुज्झेज्जा, नो अज्झोववज्जेज्जा, नो विणिग्घाय-मावज्जेज्जा। केवली बूया– Translated Sutra: इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पाँचवे महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत के संदर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा, और न परिग्रहण करने वालों का अनुमोदन | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 541 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अणिच्चमावासमुवेंति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं ।
विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ॥ Translated Sutra: संसार के समस्त प्राणी जिन शरीर आदि में आत्माएं आवास प्राप्त करती हैं, वे सब स्थान अनित्य हैं। सर्वश्रेष्ठ मौनीन्द्र प्रवचन में कथित यह वचन सूनकर गहराई से पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष आगारिक बंधनों का व्युत्सर्ग कर दे, एवं आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर दे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 542 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहागअं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विण्णु चरंतमेसणं ।
तुदंति वायाहिं अभिद्दवं णरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं ॥ Translated Sutra: उस तथाभूत अनन्त (एकेन्द्रियादि जीवों) के प्रति सम्यक् यतनावान अनुपसंयमी आगमज्ञ विद्वान एवं आगमानुसार एषणा करने वाले भिक्षु को देखकर मिथ्यादृष्टि असभ्य वचनों के तथा पथ्थर आदि प्रहार से उसी तरह व्यथित कर देते हैं, जिस तरह संग्राम में वीर योद्धा, शत्रु के हाथी को बाणों की वर्षा से व्यथित कर देता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 544 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही ।
अलूसए सव्वसहे महामुनी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ॥ Translated Sutra: माध्यमस्थभाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि कुशल – गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है। अतः उन्हें दुःखी देखकर, किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भाँति सब प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि त्रिजगत् – स्वभाववेत्ता होता है। इसी कारण उसे सुश्रमण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 546 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपदा पवेदिता ।
महागुरू णिस्सयरा उदीरिया, तमं व तेजो तिदिसं पगासया ॥ Translated Sutra: षट्काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग – द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान से सभी एकेन्द्रियादि भाव – दिशाओं में रहने वाले जीवों के लिए क्षेम स्थान, कर्म – बन्धन से दूर करने में समर्थ महान गुरु – महाव्रतों का उनके लिए निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Gujarati | 17 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं सत्थेहिं’ पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमब्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमब्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमब्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमब्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, Translated Sutra: પૃથ્વીકાયનો સમારંભ અર્થાત્ હિંસા, તે હિંસા કરનાર જીવોને અહિતને માટે થાય છે, અબોધી અર્થાત્ બોધી બીજના નાશને માટે થાય છે. જે સાધુ આ વાતને સારી રીતે સમજે છે, તે સંયમ – સાધનામાં તત્પર થઈ જાય છે. ભગવંત અને શ્રમણના મુખેથી ધર્મશ્રવણ કરીને કેટલાક મનુષ્યો એવું જાણે છે કે – આ પૃથ્વીકાયની હિંસા ગ્રંથિ અર્થાત્ કર્મબંધનું | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-३ अप्काय | Gujarati | 22 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं। Translated Sutra: ભગવંતની આજ્ઞાથી અપ્કાયના જીવોને જાણીને તેઓને ભયરહિત કરે અર્થાત્ તે જીવોને કોઈ પ્રકારે પીડા ન પહોંચાડે, તેમના પ્રત્યે સંયમી રહે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 34 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वीरेहिं एयं अभिभूय दिट्ठं, संजतेहिं सया जतेहिं सया अप्पमत्तेहिं। Translated Sutra: સદા સંયત, સદા અપ્રમત્ત અને સદા યતનાવાન્ એવા વીરપુરૂષોએ પરિષહ આદિ જીતી, ઘનઘાતિકર્મોનો ક્ષય કરીને કેવળજ્ઞાન દ્વારા આ સંયમનું સ્વરૂપ જોયું છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 51 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं।
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति बेमि।
तसंति पाणा पदिसोदिसासु य। Translated Sutra: હું સારી રીતે ચિંતવીને અને જોઈને કહું છું – પ્રત્યેક પ્રાણી પોત – પોતાનું સુખ ભોગવે છે. બધાં પ્રાણી અર્થાત્ વિકલેન્દ્રિય, બધાં ભૂત અર્થાત્ વનસ્પતિ, બધાં જીવ અર્થાત્ પંચેન્દ્રિય, બધાં સત્ત્વ અર્થાત્ એકેન્દ્રિયને અશાતા અને અશાંતિ મહાભયંકર અને દુઃખદાયી છે. તેમ હું કહું છું. આ પ્રાણી દિશા – વિદિશાથી ભયભીત બની | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 52 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ-तत्थ पुढो पास, आउरा परितावेंति। Translated Sutra: તું જો, વિષય સુખના અભિલાષી મનુષ્ય અનેક સ્થાને આ જીવોને પરિતાપ – દુઃખ આપે છે. આ ત્રસકાયિક પ્રાણીઓ જુદા જુદા શરીરોને આશ્રીને સર્વત્ર રહેલા છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 63 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।
इति से गुणट्ठी महता परियावेणं वसे पमत्ते– माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयण-संगंथ-संथुया मे, विवित्तोवगरण-परियट्टण-भोयण-अच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए– वसे पमत्ते।
अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकाल-समुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विणि-विट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो।
अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं, तं जहा– Translated Sutra: જે શબ્દાદિ વિષય છે તે સંસારનું કારણ છે. અને જે સંસારના મૂળ કારણ છે, તે શબ્દાદિ વિષય છે, આ રીતે તે વિષય અભિલાષી પ્રાણી પ્રમાદી બની શારીરિક અને માનસિક પરિતાપ ભોગવે છે. તે આ પ્રમાણે માને છે કે – મારી માતા, મારા પિતા, મારો ભાઈ, મારી બહેન, પત્ની, પુત્ર, પુત્રી, પુત્રવધૂ, મિત્ર, સ્વજન, સંબંધી છે. મારા હાથી, ઘોડા, મકાન આદિ સાધન, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 70 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए। Translated Sutra: વીતી ગઈ નથી તેવી ઉંમરને જોઈને યુવાનીમાં તું આત્મહિત કર. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Gujarati | 75 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विमुक्का हु ते जना, जे जना पारगामिणो।
लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। Translated Sutra: જે મનુષ્ય જ્ઞાન – દર્શન – ચારિત્રનાં પારગામી’ છે તે જ ખરેખર પૂર્વ સંબંધોથી મુક્ત થાય છે. અલોભથી લોભને પરાજિત કરનારો કામભોગ પ્રાપ્ત થાય તો પણ ન સેવે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Gujarati | 78 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से असइं उच्चागोए, असइं नीयागोए। नो हीणे, नो अइरित्ते, नो पीहए’।
इति संखाय के गोयावादी? के मानावादी? कंसि वा एगे गिज्झे?
तम्हा पंडिए नो हरिसे, नो कुज्झे।
भूएहिं जाण पडिलेह सातं। Translated Sutra: આ આત્મા અનેકવાર ઉચ્ચગોત્ર અને નીચગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયો છે. તેથી કોઈ નીચ નથી કે કોઈ ઉચ્ચ નથી. એ જાણીને ઉચ્ચ ગોત્રની સ્પૃહા ન કરે. આ જાણીને કોણ ગોત્રનો ગર્વ કરશે? કોણ અભિમાન કરશે? કોણ કોઈ એક ગોત્રમાં આસક્ત થશે ? તેથી બુદ્ધિમાને ઉચ્ચ ગોત્ર મળતા હર્ષ ન કરે કે નીચ ગોત્ર મળે તો રોષ ન કરે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Gujarati | 82 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नत्थि कालस्स नागमो।
सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविनो जीविउकामा।
सव्वेसिं जीवियं पियं।
तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजियाणं संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ– अप्पा वा बहुगा वा।
से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए।
तओ से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवइ।
तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, नस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ।
इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ।
मुनिणा हु एयं पवेइयं।
अनोहंतरा एते, नोय ओहं तरित्तए ।
अतीरंगमा Translated Sutra: મૃત્યુ માટે કોઈ અકાળ નથી, સર્વે પ્રાણીને આયુષ્ય પ્રિય છે, સર્વેને સુખ ગમે છે, દુઃખ પ્રતિકૂળ લાગે છે, બધાને જીવન પ્રિય છે, સૌ જીવવા ઇચ્છે છે. પરિગ્રહમાં આસક્ત પ્રાણી દ્વિપદ, ચતુષ્પદને કામમાં જોડીને ધન સંચય કરે છે. પોતાના, બીજાના, ઉભયના માટે તેમાં મત્ત બની અલ્પ કે ઘણું ધન ભેગું કરી તેમાં આસક્ત થઈને રહે છે. વિવિધ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Gujarati | 110 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं।
समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए।
जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति... Translated Sutra: લોકમાં સર્વ પ્રાણીઓના વિષયમાં તું જાણ કે દુઃખ સર્વને માટે અહિતકર છે. લોકના આ હિંસામય આચારને જાણીને તું સર્વ જીવોની હિંસાનો ત્યાગ કર. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Gujarati | 111 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से ‘आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं’।
पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं, ‘मुनीति वच्चे’, धम्मविउत्ति अंजू।
आवट्टसोए संगमभिजाणति। Translated Sutra: જેણે આ શબ્દ, રૂપ, રસ, ગંધ, સ્પર્શને યથાર્થપણે જાણી લીધા છે. તે જ આત્મ સ્વરૂપનો જ્ઞાતા, જ્ઞાની, શાસ્ત્રવેત્તા, ધર્મવાન્, બ્રહ્મજ્ઞાની છે. તે પ્રજ્ઞા વડે સમગ્ર લોકને જાણે છે; તે મુનિ કહેવાય છે. તે ધર્મને જાણનાર, સરળ હૃદયી મુનિ સંસાર, આશ્રવ અને કર્મબંધનાં સ્વરૂપને જાણે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Gujarati | 112 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सीओसिनच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णोवेदेति।
जागर-वेरोवरए वीरे।
एवं दुक्खा पमोक्खसि।
जरामच्चुवसोवणीए नरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति। Translated Sutra: તે નિર્ગ્રન્થ – મુનિ સુખ – દુઃખના ત્યાગી છે, અરતિ – રતિ સહન કરે છે. તેઓ કષ્ટ અને દુઃખનું વેદન કરતા નથી. તેઓ સદા જાગૃત રહે છે, વૈરથી દૂર રહે છે. હે વીર ! એ રીતે સંસારરૂપ દુઃખથી મુક્તિ પામીશ. વૃદ્ધત્વ અને મૃત્યુને વશ થયેલ મનુષ્ય સતત મૂઢ રહે છે તે ધર્મને જાણી શકતો નથી. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Gujarati | 113 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए।
मंता एयं मइमं! पास।
आरंभजं दुक्खमिणं ति नच्चा।
माई पमाई पुनरेइ गब्भं।
उवेहमानो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति।
अप्पमत्तो कामेहिं, उवरतो पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते ‘जे खेयण्णे’।
जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे।
अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
कम्मुणा उवाही जायइ। कम्मं च पडिलेहाए। Translated Sutra: સંસારમાં મનુષ્યને દુઃખથી પીડાતા જોઈને સાધક સતત અપ્રમત્ત બની સંયમમાં વિચરે. હે મતિમાન્ ! મનન કરી તું આ દુઃખી પ્રાણીને જો. તેઓના આ બધાં દુઃખ આરંભ અર્થાત્ હિંસાજનિત છે. તે જાણી તું અનારંભી બન. માયાવી, પ્રમાદી કષાયી પ્રાણી વારંવાર જન્મ – મરણ કરે છે. પરંતુ જે શબ્દાદિ વિષયમાં રાગ – દ્વેષ કરતા નથી, ઋજુતા આર્જવતા આદિ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Gujarati | 121 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयण अरिहए पूरइत्तए।
से अन्नवहाए अन्नपरियावाए अन्नपरिग्गहाए, जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए। Translated Sutra: સંસારનાં સુખના અભિલાષી તે અસંયમી પુરુષ અનેક પ્રકારે સંકલ્પ – વિકલ્પો કરે છે. તે ચાળણી વડે સમુદ્રને ભરવા ઇચ્છે છે. તે બીજાના અને જનપદ અર્થાત્ દેશના વધ, પરિતાપ અને આધિન કરવા પ્રવૃત્તિ કરે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Gujarati | 123 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं ।
तम्हा हि वीरे विरते वहाओ, छिंदेज्ज सोयं लहुभूयगामी ॥ Translated Sutra: વીર પુરૂષ ક્રોધ અને માન આદિને મારે, લોભને દુઃખદાયી નરકરૂપે જુએ, લઘુભૂતગામી અર્થાત્ મોક્ષ કે સંયમનો અભિલાષી વીર, હિંસા આદિ પાપકર્મોથી વિરત થઈ વિષય વાસનાને છેદે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Gujarati | 131 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं ।
जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥
पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि।
पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि।
सच्चस्स आणाए ‘उवट्ठिए से’ मेहावी मारं तरति।
सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति। Translated Sutra: જે કર્મોને દૂર કરનાર છે તે મોક્ષને પ્રાપ્ત કરનાર છે અને જે મોક્ષને પ્રાપ્ત કરનાર છે તે કર્મોને દૂર કરનાર છે, એવું સમજીને હે પુરૂષ ! તું પોતાના આત્માનો નિગ્રહ કર, એમ કરવાથી તું દુઃખકર્મ) મુક્ત થઈશ. તું સત્યનું સેવન કર. કેમ કે સત્યની આજ્ઞામાં રહેનાર મેઘાવી સાધક સંસારને તરી જાય છે અને ધર્મનું યથાર્થ પાલન કરીને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Gujarati | 136 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं।
‘जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे’।
दुक्खं लोयस्स जाणित्ता।
वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं ।
परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं ॥ Translated Sutra: પ્રમાદી એવા સંસારીને બધી બાજુથી ભય હોય છે અપ્રમાદી એવા સંયમીને ક્યાયથી ભય હોતો નથી. જે એક મોહનીયકર્મને અથવા અનંતાનુબંધીક્રોધને ખપાવે છે), તે જ્ઞાનાવરણીય આદિ અનેક કર્મને અથવા માન આદિને) ખપાવે છે, જે જ્ઞાનાવરણીય આદિ અનેક કર્મને નમાવે તે એક મોહનીયકર્મને ને નમાવે છે. સંસારના દુઃખને જાણીને લોકસંયોગનો ત્યાગ કરી, |