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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1154 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सब्भावपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
सब्भावच्चक्खाणेणं अनियट्टिं जणयइ। अनियट्टिपडिवन्ने य अनगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तं जहा–वेयणिज्जं आउयं नामं गोयं। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। Translated Sutra: भन्ते ! सद्भाव प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सद्भाव प्रत्याख्यान से जीव अनिवृत्ति को प्राप्त होता है। अनिवृत्ति को प्राप्त अनगार केवली के शेष रहे हुए वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र – इन चार भवोपग्राही कर्मों का क्षय करता है। वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1155 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिरूवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ। लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! प्रतिरूपता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिरूपता से – जिनकल्प जैसे आचार के पालन से जीव उपकरणों की लघुता को प्राप्त होता है। लघुभूत होकर जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंगवाला, प्रशस्त लिंगवाला, विशुद्ध सम्यक्त्व से सम्पन्न, सत्त्व और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय, अल्प | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1156 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वेयावच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ। Translated Sutra: भन्ते ! वैयावृत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वैयावृत्य से जीव तीर्थंकर नाम – गोत्र को उपार्जता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1157 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावत्तिं जणयइ। अपुणरावत्तिं पत्तए य णं जीवे सारीरमानसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! सर्वगुणसंपन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सर्वगुणसंपन्नता से जीव अपुनरावृत्ति को प्राप्त होता है। वह जीव शारीरिक और मानसिक दुःखों का भागी नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1158 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वीयरागयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
वीयरागयाए णं नेहानुबंधनानि तण्हानुबंधनानि य वोच्छिंदइ मनुस्सेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ। Translated Sutra: भन्ते ! वीतरागता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वीतरागता से जीव स्नेह और तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता है। मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से विरक्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1159 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] खंतीए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
खंतीए णं परीसहे जिणइ। Translated Sutra: भन्ते ! क्षान्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्षान्ति से जीव परीषहों पर विजय प्राप्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1160 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मुत्तीए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। अकिंचणे य जीवे अत्थलोलाणं अपत्थणिज्जो भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! मुक्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मुक्ति से जीव अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन जीव अर्थ के लोभी जनों से अप्रार्थनीय हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1161 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अज्जवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायण-संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! ऋजुता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? ऋजुता से जीव काय, भाव, भाषा की सरलता और अविसंवाद को प्राप्त होता है। अविसंवाद – सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1162 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मद्दवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
मद्दवयाए णं अनुस्सियत्तं जणयइ। अनुस्सियत्ते णं जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाइं निट्ठवेइ। Translated Sutra: भन्ते ! मृदुता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मृदुता से जीव अनुद्धत भाव को प्राप्त होता है। अनुद्धत जीव मृदु – मार्दवभाव से सम्पन्न होता है। आठ मद – स्थानों को विनष्ट करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1163 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भावसच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ। भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्ठेइ, अरहंतपन्नतस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्ठित्ता परलोगधम्मस्स आराहए हवइ। Translated Sutra: भन्ते ! भाव – सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? भाव – सत्य से जीव भाव – विशुद्धि को प्राप्त होता है। भाव – विशुद्धि में वर्तमान जीव अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत होता है। अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत होकर परलोक में भी धर्म का आराधक होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1164 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] करणसच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ। करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! करण सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? करण सत्य से जीव करणशक्ति को प्राप्त होता है। करणसत्य में वर्तमान जीव ‘यथावादी तथाकारी’ होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1175 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चरित्तसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणयइ। सेलेसिं पडिवन्ने य अनगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। Translated Sutra: भन्ते ! चारित्र – सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? चारित्र – सम्पन्नता से जीव शैलेशीभाव को प्राप्त होता है। शैलेशी भाव को प्राप्त अनगार चार केवलि – सत्क कर्मों का क्षय करता है। तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1176 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सोइंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
सोइंदियनिग्गहेणं मणुन्नामनुन्नेसु सद्देसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। फिर शब्दनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1177 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चक्खिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
चक्खिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामनुन्नेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइय कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! चक्षुष् – इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? चक्षुष् – इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। फिर रूपनिमित्तक कर्म का बंध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1178 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] घाणिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
घाणिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामनुन्नेसु गंधेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! घ्राण – इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? घ्राण – इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। फिर गन्धनिमित्तक कर्म का बंध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1179 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जिब्भिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
जिब्भिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामनुन्नेसु रसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! जिह्वा – इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? जिह्वा – इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। फिर रसनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1180 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] फासिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
फासिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामनुन्नेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! स्पर्शन – इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्पर्शन – इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में होने वाले राग – द्वेष का निग्रह करता है। फिर स्पर्श – निमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1181 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कोहविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
कोहविजएणं खंतिं जणयइ, कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! क्रोध – विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्रोध – विजय से जीव क्षान्ति को प्राप्त होता है। क्रोध – वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्व – बद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1182 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मानविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
मानविजएणं मद्दवं जणयइ, मानवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! मान – विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मान – विजय से जीव मृदुता को प्राप्त होता है। मान – वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1183 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मायाविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! माया – विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मायाविजय से ऋजुता को प्राप्त होता है। माया – वेदनीय कर्म का बंध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1184 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] लोभविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
लोभविजएणं संतोसीभावं जनयइ, लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! लोभ – विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? लोभ – विजय से जीव सन्तोष – भाव को प्राप्त होता है। लोभ – वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1185 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पेज्जदोसमिच्छादंसणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
पेज्जदोसमिच्छादंसणविजएणं नाणदंसणचरित्ताराहणयाए अब्भुट्ठेइ। अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्विं अट्ठवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दंसणावरणिज्जं पंचविहं अंतरायं एए तिन्नि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ।
तओ पच्छा अनुत्तरं अनंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ। जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं।
तं पढमसमए बद्धं बिइयसमए वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं तं बद्धं पुट्ठं उदीरियं Translated Sutra: भन्ते ! राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? राग, द्वेष और मिथ्या – दर्शन के विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है। आठ प्रकार की कर्म – ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्व प्रथम मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्रमशः क्षय करता है। अनन्तर ज्ञानावरणीय कर्म | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1186 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ सुक्कज्झाणं ज्झायमाणे तप्पढमयाए मनजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता वइजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता आनापाननिरोहं करेइ, करेत्ता ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारद्धाए य णं अनगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुक्कज्झाणं ज्झियायमाणे वेयणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ। Translated Sutra: केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्त्तपरिणाम आयु शेष रहती है, तब वह योग निरोध में प्रवृत्त होता है। तब ‘सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति’ नामक शुक्ल – ध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, अनन्तर वचनयोग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान का निरोध करता है। श्वासोच्छ्वास | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1187 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ ओरालियकम्माइं च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढं एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्व-दुक्खाणमंतं करेइ। Translated Sutra: उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए पूर्णरूप से छोड़ता है। फिर ऋजु श्रेणि को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए सीधे लोकाग्र में जाकर साकारोपयुक्त – ज्ञानोपयोगी सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है। सभी दुःखों का अन्त करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1188 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स अज्झयणस्स अट्ठे समणेणं भगवया महावीरेणं आघविए पन्नविए परूविए दंसिए उवदंसिए।
Translated Sutra: श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सम्यक्त्व – पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ आख्यात है, प्रज्ञापित है, प्ररूपित है, दर्शित है और उपदर्शित है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1189 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा उ पावगं कम्मं रागदोससमज्जियं ।
खवेइ तवसा भिक्खू तमेगग्गमणो सुण ॥ Translated Sutra: भिक्षु राग और द्वेष से अर्जित पाप – कर्म का तप के द्वारा जिस पद्धति से क्षय करता है, उस पद्धति को तुम एकाग्र मन से सुनो। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1190 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पाणवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ ।
राईभोयणविरओ जीवो भवइ अनासवो ॥ Translated Sutra: प्राण – वध, मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन की विरति से एवं पाँच समिति और तीन गुप्ति से – सहित, कषाय से रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी, निःशल्य जीव अनाश्रव होता है। सूत्र – ११९०, ११९१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1191 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइंदिओ ।
अगारवो य निस्सल्लो जीवो होइ अनासवो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११९० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1192 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं तु विवच्चासे रागद्दोससमज्जियं ।
जहा खवयइ भिक्खू तं मे एगमणो सुण ॥ Translated Sutra: उक्त धर्म – साधना से विपरीत आचरण करने पर राग – द्वेष से अर्जित कर्मों को भिक्षु किस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र मन से सुनो। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1193 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे ।
उस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ॥ Translated Sutra: किसी बड़े तालाब का जल, जल आने के मार्ग को रोकने से, पहले के जल को उलीचने से और सूर्य के ताप से क्रमशः जैसे सूख जाता है – उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भवों के संचित कर्म, पाप कर्म के आने के मार्ग को रोकने पर तप से नष्ट होते हैं। सूत्र – ११९३, ११९४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1194 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे ।
भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११९३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1195 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भंतरो तहा ।
बाहिरो छव्विहो वुत्तो एवमब्भंतरो तवो ॥ Translated Sutra: वह तप दो प्रकार का है – बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप छह प्रकार का है। आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा है। अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस – परित्याग, काय – क्लेश और संलीनता – यह बाह्य तप है। सूत्र – ११९५, ११९६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1196 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनसनमूनोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ ।
कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होई ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११९५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1197 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इत्तिरिया मरणकाले दुविहा अनसना भवे ।
इत्तिरिया सावकंखा निरवकंखा बिइज्जिया ॥ Translated Sutra: अनशन तप के दो प्रकार हैं – इत्वरिक और मरणकाल। इत्वरिक सावकांक्ष होता है। मरणकाल निरवकांक्ष होता है।संक्षेप से इत्वरिक – तप छह प्रकार का है – श्रेणि, तप, धन – तप, वर्ग – तप – वर्ग – वर्ग तप और छठा प्रकीर्ण तप। इस प्रकार मनोवांछित नाना प्रकार के फल को देने वाला ‘इत्वरिक’ अनशन तप जानना। सूत्र – ११९७–११९९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1198 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो सो इत्तरियतवो सो समासेण छव्विहो ।
सेढितवो पयरतवो घनो य तह होइ वग्गो य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११९७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1199 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्तो य वग्गवग्गो उ पंचमो छट्ठओ पइण्णतवो ।
मनइच्छियचित्तत्थो नायव्वो होइ इत्तरिओ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११९७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1200 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जा सा अनसना मरणे दुविहा सा वियाहिया ।
सवियारअवियारा कायचिट्ठं पई भवे ॥ Translated Sutra: कायचेष्टा के आधार पर मरणकालसम्बन्धी अनशन के दो भेद हैं – सविचार और अविचार अथवा मरणकाल अनशन के सपरिकर्म और अपरिकर्म ये दो भेद हैं। अविचार अनशन के निर्हांही और अनिर्हारी – ये दो भेद भी होते हैं। दोनों में आहार का त्याग होता है। सूत्र – १२००, १२०१ | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1201 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहवा सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया ।
नीहारिमनीहारी आहारच्छेओ य दोसु वि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०० | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1202 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ओमोयरियं पंचहा समासेण वियाहियं ।
दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य ॥ Translated Sutra: संक्षेप में अवमौदर्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की अपेक्षा से पाँच प्रकार का हैं। | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1203 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे ।
जहन्नेणेगसित्थाई एवं दव्वेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम – से – कम एक सिक्थ तथा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना, द्रव्य से ‘ऊणोदरी’ तप है। | |||||||||
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Hindi | 1204 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गामे नगरे तह रायहानि-निगमे य आगरे पल्ली ।
खेडे कब्बडदोणमुह-पट्टणमडंबसंबाहे ॥ Translated Sutra: ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, संबाध – आश्रम – पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिबिर, सार्थ, संवर्त, कोट – पाडा, गली और घर – इन क्षेत्रों में तथा इसी प्रकार के दूसरे क्षेत्रों में निर्धारित क्षेत्र – प्रमाण के अनुसार भिक्षा के लिए जाना, क्षेत्र से ‘ऊणोदरी’ तप है। | |||||||||
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Hindi | 1205 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसमपए विहारे सन्निवेसे समायघोसे य ।
थलिसेणाखंधारे सत्थे संवट्टकोट्टे य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०४ | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1206 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं ।
कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०४ | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1207 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पेडा य अद्धपेडा गोमुत्तिपयंगवीहिया चेव ।
संबुक्कावट्टाययगंतु पच्चागया छट्ठा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०४ | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1208 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे काले ।
एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्वो ॥ Translated Sutra: दिवस के चार प्रहर होते हैं। उन चार प्रहरों में भिक्षा का जो नियत समय है, तदनुसार भिक्षा के लिए जाना, यह काल से ‘ऊणोदरी’ तप है। अथवा कुछ भागन्यून तृतीय प्रहर में भिक्षा की एषणा करना, काल की अपेक्षा से ‘ऊणोदरी’ तप है। सूत्र – १२०८, १२०९ | |||||||||
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Hindi | 1209 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसंतो ।
चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०८ | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1210 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इत्थी वा पुरिसो वा अलंकिओ वाणलंकिओ वा वि ।
अन्नयरवयत्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं ॥ Translated Sutra: स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत, विशिष्ट आयु और अमुक वर्ण के वस्त्र – अथवा अमुक विशिष्ट वर्ण एवं भाव से युक्त दाता से ही भिक्षा ग्रहण करना, अन्यथा नहीं – इस प्रकार की चर्या वाले मुनि को भाव से ‘ऊणोदरी’ तप है। सूत्र – १२१०, १२११ | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1211 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अन्नेणं विसेसेणं वन्नेणं भावमनुमुयंते उ ।
एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुनेयव्वो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२१० | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1212 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा ।
एएहिं ओमचरओ पज्जवचरओ भवे भिक्खू ॥ Translated Sutra: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो – जो पर्याय कथन किये हैं, उन सबसे ऊणोदरी तप करने वाला ‘पर्यवचरक’ होता है। | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1213 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा ।
अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ॥ Translated Sutra: आठ प्रकार के गोचराग्र, सप्तविध एषणाऍं और अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रह – ‘भिक्षाचर्या’ तप है। |