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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 638 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू लूहे तोरट्ठी देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू अन्नतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से भिक्खू एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला Translated Sutra: इसके पश्चात् राग – द्वेष रहित, संसार – सागर के तीर यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष भिक्षापात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उसके तट पर खड़ा होकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अत्यन्त विशाल यावत् मनोहर है। और वहाँ वह भिक्षु उन चारों | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 670 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–जइ खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्म-समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वाओ पानाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए,सव्वाओ अदिन्नादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ Translated Sutra: पश्चात् दूसरे धर्मपक्ष का विवरण है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ, अपरिग्रह होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 674 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: इच्चेतेहिं बारसहिं किरियाठाणेहिं वट्टमाणा जीवा नो सिज्झिंसु नो बुज्झिंसु नो मुच्चिंसु नो परिणिव्वाइंसु नो सव्व दुक्खाणं अंतं करेंसु वा नो करेंति वा नो करिस्संति वा।
एयंसि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिज्झिंसु बुज्झिंसु मुच्चिंसु परिणिव्वाइंसु सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा।
एवं से भिक्खू आयट्ठी आयहिए आयगुत्ते आयजोगी आयपरक्कमे आयरक्खिए आयाणुकंपए आयणिप्फेडए आया-णमेव पडिसाहरेज्जासि। Translated Sutra: इन बारह क्रियास्थानों में वर्तमान जीव अतीत में सिद्ध नहीं हुए, बुद्ध नहीं हुए, मुक्त नहीं हुए यावत् सर्व – दुःखों का अन्त न कर सके, वर्तमान में भी वे सिद्ध, यावत् सर्वदुःखान्तकारी नहीं होते और न भविष्य में सिद्ध यावत् सर्वदुःखान्तकारी होंगे। परन्तु इस तेरहवे क्रियास्थान में वर्तमान जीव अतीत, वर्तमान एवं | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 798 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: एवं ण्हं पच्चक्खंताणं सुपच्चक्खायं भवइ।
एवं ण्हं पच्चक्खावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ।
एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा नाइयरंति सयं पइण्णं– ‘ननत्थ अभिजोगेणं, गाहावइ-चोरग्गहण-विमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहिं णिहाय दंडं।’ एवं सइ ‘भासाए परिकम्मे’ विज्जमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पच्चक्खावेंति। अयं पि नो उवएसे किं नो नेयाउए भवइ? अवियाइं आउसो! गोयमा! तुब्भं पि एयं एवं रोयइ? Translated Sutra: किन्तु जो (गृहस्थ श्रमणोपासक) इस प्रकार प्रत्याख्यान करते हैं, उनका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है; तथा इस प्रकार से जो दूसरे को प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी अपनी प्रतिज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। वह प्रत्याख्यान इस प्रकार है – ‘राजा आदि के अभियोग को छोड़कर वर्तमान में त्रसभूत प्राणीयों को दण्ड देने | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 16 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए।
तए णं तस्स आनंदस्स समणोवासगस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म-जागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–
एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धम्मणिसंतए जाए।
तं अत्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा-धिइ-संवेगे, तं जावता Translated Sutra: श्रमणोपासक आनन्द ने तत्पश्चात् दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठी, सातवी, आठवी, नौवी, दसवी तथा ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। इस प्रकार श्रावक – प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, शरीर की यावत् उसके नाड़ियाँ दीखने लगीं। एक दिन आधी रात के बाद | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 25 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्गं अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभि त्तए वा विपरिणामेत्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता दिव्वं सप्परूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ–हार-विराइय-वच्छं कडग-तुडिय-थंभियभुयं अंगय-कुंडल-मट्ठ-गंड-कण्णपीढधारिं विचित्तहत्थाभरणं विचित्त-माला-मउलि-मउडं कल्लाणग-पवरवत्थपरिहियं कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणं Translated Sutra: सर्प रूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर सर्राटे के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया। पीछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए। लपेट लगाकर अपने तीखे, झहरीले दाँतों से उसकी छाती पर डंक मारा। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला। सर्प रूपधारी देव ने जब | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ कुंडकोलिक |
Hindi | 38 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए अन्नदा कदाइ पच्चावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया, जेणेव पुढविसिलापट्टए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपन्नत्ति उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।
तए णं तस्स कुंडकोलियस्स समणोवासयस्स एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
तए णं से देवे नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गेण्हित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे सखिंखिणियाइं पंचवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिए कुंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी–हंभो! कुंडकोलिया! समणोवासया! सुंदरी णं देवानुप्पिया! गोसालस्स Translated Sutra: एक दिन श्रमणोपासक कुंडकोलिक दोपहर के समय अशोक – वाटिका में गया। पृथ्वी – शिलापट्टक पहुँचा। अपने नाम से अंकित अंगूठी और दुपट्टा उतारा। उन्हें पृथ्वीशिलापट्टक पर रखा। श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति – अनुरूप उपासना – रत हुआ। श्रमणोपासक कुंडकोलिक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उस देव ने | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 44 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नदा कदाइ वाताहतयं कोलालभंडं अंतो सालाहिंतो बहिया नीणेइ, नीणेत्ता आयवंसि दलयइ।
तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी–सद्दालपुत्ता! एस णं कोलालभंडे कहं कतो?
तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी–एस णं भंते! पुव्विं मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं तिमिज्जइ, तिम्मिज्जित्ता छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ, मीसिज्जित्ता चक्के आरुभिज्जति, तओ बहवे करगा य वारगा य पिहडगा य घडगा य अद्धघडगा य कलसगा य अलिंजरगा य जंबूलगा य० उट्टियाओ य कज्जंति।
तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं Translated Sutra: एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा। भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडलापुत्र से कहा – सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने ? आजीविकोपासक सकडालपुत्र बोला – भगवन् ! पहले मिट्टी की पानी के साथ गूंथा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-११ बहुश्रुतपूज्य |
Hindi | 344 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहाइण्णसमारूढे सूरे दढपरक्कमे ।
उभओ नंदिघोसेणं एवं हवइ बहुस्सुए ॥ Translated Sutra: जैसे जातिमान् अश्व पर आरूढ दृढ पराक्रमी शूरवीर योद्धा दोनों तरफ होनेवाले नन्दी घोषों से – सुशोभित होता है, वैसे बहुश्रुत भी सुशोभित होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ औरभ्रीय |
Hindi | 198 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया ।
उवेंति मानुसं जोणिं कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य विविध परिमाणवाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मानुषी योनि में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं – जिनकी शिक्षा विविध परिमाण वाली व्यापक है, जो घर में रहते हुए भी शील से सम्पन्न एवं उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं, वे अदीन पुरुष मूलधनरूप मनुष्यत्व से आगे बढ़कर | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ नमिप्रवज्या |
Hindi | 247 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं निसामित्ता हेऊकारणचोइओ ।
तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी ॥ Translated Sutra: इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा – ‘‘श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा को मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से सुरक्षित, एवं अजेय मजबूत प्राकार बनाकर – पराक्रम को धनुष, ईर्या समिति को उसकी डोर, धृति को उसकी मूठ बनाकर, सत्य से उसे बांधकर – तप के बाणों से युक्त धनुष से कर्म – रूपी कवच को | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 380 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवाभिओगेण निओइएणं दिन्ना मु रन्ना मनसा न ज्झाया ।
नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं जेणम्हि वंता इसिणा स एसो ॥ Translated Sutra: भद्रा – देवता की बलवती प्रेरणा से राजा ने मुझे इस मुनि को दिया था, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा। मेरा परित्याग करने वाले यह ऋषि नरेन्द्रों और देवेन्द्रों से भी पूजित हैं। ये वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने स्वयं मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा मुझे दिये जाने | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 384 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ते घोररूवा ठिय अंतलिक्खे असुरा तहिं तं जणं तालयंति ।
ते भिन्नदेहे रुहिरं वमंते पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो ॥ Translated Sutra: आकाश में स्थित भयंकर रूप वाले असुरभावापन्न क्रुद्ध यक्ष उनको प्रताड़ित करने लगे। कुमारों को क्षत – विक्षत और खून की उल्टी करते देखकर भद्रा ने पुनः कहा – जो भिक्षु का अपमान करते हैं, वे नखों से पर्वत खोदते हैं, दातों से लोहा चबाते हैं और पैरों से अग्नि को कुचलते हैं।महर्षि आशीविष, घोर तपस्वी, घोर व्रती, घोर पराक्रमी | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 490 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चइत्ता विउलं रज्जं कामभोगे य दुच्चए ।
निव्विसया निरामिसा निन्नेहा निप्परिग्गहा ॥ Translated Sutra: विशाल राज्य को छोड़कर, दुस्त्यज कामभोगों का परित्याग कर, वे राजा और रानी भी निर्विषय, निरामिष, निःस्नेहैर निष्परिग्रह हो गए। धर्म को सम्यक् रूप से जानकर, फलतः उपलब्ध श्रेष्ठ कामगुणों को छोड़कर, दोनों ही यथोपदिष्ट घोर तप को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रमी बने। सूत्र – ४९०, ४९१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 582 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किरियं अकिरियं विनयं अन्नाणं च महामुनी ।
एएहिं चउहिं ठाणेहिं मेयन्ने किं पभासई? ॥ Translated Sutra: क्षत्रिय मुनि – हे महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान – इन चार स्थानों के द्वारा कुछ एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता असत्य तत्त्व की प्ररूपणा करते हैं। बुद्ध, उपशान्त, विद्या और चरण से संपन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने ऐसा प्रकट किया है। सूत्र – ५८२, ५८३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 607 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं मुनी चरे ।
उद्दायणो पव्वइओ पत्तो गइमनुत्तरं ॥ Translated Sutra: सौवीर राजाओं में वृषभ के समान महान् उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि – धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की। इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने काम – भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का नाश किया। अमरकीर्त्ति, महान् यशस्वी विजय राजा ने गुण – समृद्ध राज्य को छोड़कर | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 611 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कहं धीरो अहेऊहिं उम्मत्तो व्व महिं चरे? ।
एए विसेसमादाय सूरा दढपरक्कमा ॥ Translated Sutra: इन भरत आदि शूर और दृढ पराक्रमी राजाओं ने जिनशासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था। अतः अहेतुवादों से प्रेरित होकर अब कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे ? | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1113 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं अयमट्ठे एवमाहिज्जइ, तं जहा–
संवेगे १ निव्वेए २ धम्मसद्धा ३ गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया ४ आलोयणया ५ निंदणया ६ गरहणया ७ सामाइए ८ चउव्वीसत्थए ९ वंदणए १०
पडिक्कमणे ११ काउस्सग्गे १२ पच्चक्खाणे १३ थवथुइमंगले १४ कालपडिलेहणया १५ पायच्छित्तकरणे १६ खमावणया १७ सज्झाए १८ वायणया १९ पडिपुच्छणया २०
परियट्टणया २१ अणुप्पेहा २२ धम्मकहा २३ सुयस्स आराहणया २४ एगग्गमण-सन्निवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ वोदाणे २८ सुहसाए २९ अप्पडिबद्धया ३०
विवित्तसयणासणसेवणया ३१ विणियट्टणया ३२ संभोगपच्चक्खाणे ३३ उवहिपच्चक्खाणे ३४ आहारपच्चक्खाणे ३५ कसायपच्चक्खाणे ३६ जोगपच्चक्खाणे ३७ सरीरपच्चक्खाणे Translated Sutra: उसका यह अर्थ है, जो इस प्रकार कहा जाता है। जैसे कि – संवेग, निर्वेद, धर्म श्रद्धा, गुरु और साधर्मिक की शुश्रृषा, आलोचना, निन्दा, गर्हा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, स्तव – स्तुति – मंगल, कालप्रतिलेखना, प्रायश्चित्त, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिप्रच्छना, परावर्तना, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1114 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] संवेगेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
संवेगेणं अनुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ। अनुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अनंतानुबंधि कोहमानमायालोभे खवेइ, कम्मं न बंधइ, तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ। दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ। सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ। Translated Sutra: भन्ते ! संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है ? संवेग से जीव अनुत्तर – परम धर्म – श्रद्धा को प्राप्त होता है। परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है। नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है। मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन का आराधक होता है। दर्शनविशोधि के द्वारा कईं जीव | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1115 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] निव्वेएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
निव्वेएणं दिव्वमानुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ, सव्वविसएसु विरज्जइ। सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ। आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिंदइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! निर्वेद से जीव को क्या प्राप्त होता है ? निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यंच – सम्बन्धी काम – भोगों में शीघ्र निर्वेद को प्राप्त होता है। सभी विषयों में विरक्त होता है। आरम्भ का परित्याग करता है। आरम्भ का परित्याग कर संसार – मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि मार्ग को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1116 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मसद्धाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, आगारधम्मं च णं चयइ अनगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयणसंजोगाईणं वोच्छेयं करेइ अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्तेइ। Translated Sutra: भन्ते ! धर्म – श्रद्धा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? धर्मश्रद्धा से जीव सात – सुख कर्मजन्य वैषयिक सुखों की आसक्ति से विरक्त होता है। अगार – धर्म को छोड़ता है। अनगार होकर छेदन, भेदन आदि शारीरिक तथा संयोगादि मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है, अव्याबाध सुख को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1117 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं विनयपडिवत्तिं जणयइ। विनयपडिवन्ने य णं जीवे अनच्चा-सायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमनुस्सदेवदोग्गईओ निरुंभइ, वण्णसंजलणभत्तिबहुमानयाए मनुस्सदेवसोग्गईओ निबंधइ, सिद्धिं सोग्गइं च विसोहेइ। पसत्थाइं च णं विनयमूलाइं सव्वकज्जाइं साहेइ। अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय – प्रतिपत्ति को प्राप्त होता है। विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवादादिरूप आशातना नहीं करता। उससे वह नैरयिक, तिर्यग्, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1118 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आलोयणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादंसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अनंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च जणयइ। उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंधइ। पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! आलोचना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्न डालनेवाले और अनन्त संसार को बढ़ानेवाले माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप शल्यों को निकाल फेंकता है। ऋजुभाव को प्राप्त होता है। जीव माया – रहित होता है। अतः वह स्त्री – वेद, नपुंसक – वेद का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध की निर्जरा करता | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1119 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] निंदणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
निंदणयाए णं पच्छानुतावं जणयइ। पच्छानुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेढिं पडिवज्जइ। करणगुणसेढिं पडिवन्ने य णं अनगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ। Translated Sutra: भन्ते ! निन्दा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? निन्दा से पश्चात्ताप प्राप्त होता है। पश्चात्ताप से होने वाली विरक्ति से करण – गुण – श्रेणि प्राप्त होती है। अनगार मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 932 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे ।
अभिवंदित्ता सिरसा गोयमं तु महायसं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार संशय के दूर होने पर घोर पराक्रमी केशीकुमार, महान् यशस्वी गौतम को वन्दना कर – प्रथम और अन्तिम जिनों के द्वारा उपदिष्ट एवं सुखावह पंचमहाव्रतरूप धर्म के मार्ग में भाव से प्रविष्ट हुए। सूत्र – ९३२, ९३३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1165 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जोगसच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ। Translated Sutra: भन्ते ! योग – सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? योग सत्य से जीव योग को विशुद्ध करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1166 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मनगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
मनगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ। एगग्गचित्ते णं जीवे मनगुत्ते संजमाराहए भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! मनोगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है। एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ विकल्पों से मन की रक्षा करता है, और संयम का आराधक होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1167 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वइगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
वइगुत्तयाए णं निव्वियारं जणयइ। निव्वियारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि विहरइ। Translated Sutra: भन्ते ! वचनगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को प्राप्त होता है। निर्विकार जीव सर्वथा वागगुप्त तथा अध्यात्मयोग के साधनभूत ध्यान से युक्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1168 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ। Translated Sutra: भन्ते ! कायगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त होता है। संवर से काय गुप्त होकर फिर से होनेवाले पापाश्रव का निरोध करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1169 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मनसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
मनसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च निज्जरेइ। Translated Sutra: | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1170 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वइसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
वइसमाहारणयाए णं वइसाहारणददंसणपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! वाक् समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वाक् समाधारणा से जीव वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करता है। वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करके सुलभता से बोधि को प्राप्त करता है। बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1171 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कायसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। Translated Sutra: भन्ते ! काय समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काय समाधारणा से जीव चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करता है। चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करके यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करता है। यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करके केवलिसत्क वेदनीय आदि चार कर्मों का क्षय करता है। उसके बाद सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1172 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ। नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरंते संसारकंतारे न विणस्सइ। नाणविनयतवचरित्तजोगे संपाउणइ, ससमयपरसमयसंघायणिज्जे भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! ज्ञान – सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? ज्ञानसम्पन्नता से जीव सब भावों को जानता है। ज्ञान – सम्पन्न जीव चार गतिरूप अन्तों वाले संसार वन में नष्ट नहीं होता है। जिस प्रकार ससूत्र सुई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र जीव भी संसार में विनष्ट नहीं होता। ज्ञान, विनय, तप और चारित्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1173 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा सूई ससुत्ता पडिया वि न विनस्सइ ।
तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विनस्सइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ११७२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1174 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दंसणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
दंसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परं न विज्झायइ। परं अविज्झाएमाणे अनुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विरहइ। Translated Sutra: भन्ते ! दर्शन – सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? दर्शन सम्पन्नता से संसार के हेतु मिथ्यात्व का छेदन करता है, उसके बाद सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान – दर्शन से आत्मा को संयोजित कर उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विचरण करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1112 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए, जं सम्मं सद्दहित्ता पत्तियाइत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पालइत्ता तीरइत्ता किट्टइत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अनुपालइत्ता बहवे जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। Translated Sutra: आयुष्यमन् ! भगवान ने जो कहा है, वह मैंने सुना है। इस ‘सम्यक्त्व पराक्रम’ अध्ययन में काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने जो प्ररूपणा की है, उसकी सम्यक् श्रद्धा से, प्रतीति से, रुचि से, स्पर्श से, पालन करने से, गहराई पूर्वक जानने से, कीर्तन से, शुद्ध करने से, आराधना करने से, आज्ञानुसार अनुपालन करने से बहुत से | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1120 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] गरहणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ। अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहिंतो नियत्तेइ, पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अनगारे अनंतघाइपज्जवे खवेइ। Translated Sutra: भन्ते ! गर्हा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गर्हा से जीव को अपुरस्कार प्राप्त होता है। अपुरस्कृत होने से वह अप्रशस्त कार्यों से निवृत्त होता है। प्रशस्त कार्यों से युक्त होता है। ऐसा अनगार ज्ञान – दर्शनादि अनन्त गुणों का घात करनेवाले ज्ञानावरणादि कर्मों के पर्यायों का क्षय करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1121 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयइ। Translated Sutra: भन्ते! सामायिक से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सामायिक से जीव सावद्य योगों से – विरति पाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1122 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्वीसत्थएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ। Translated Sutra: भन्ते! चतुर्विंशति स्तव से जीव को क्या प्राप्त होता है ? चतुर्विंशति स्तव से जीव दर्शन – विशोधि पाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1123 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वंदनएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
वंदनएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ, उच्चगोयं निबंधइ। सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ। Translated Sutra: भन्ते ! वन्दना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वन्दना से जीव नीचगोत्र कर्म का क्षय करता है। उच्च गोत्र का बन्ध करता है। वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त कर सर्वजनप्रिय होता है। उसकी आज्ञा सर्वत्र मानी जाती है। वह जनता से दाक्षिण्य को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1124 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
पडिक्कमणेणं वयछिद्दाइं पिहेइ। पिहियवयछिद्दे पुन जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ। Translated Sutra: भन्ते ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिक्रमण से जीव स्वीकृत व्रतों के छिद्रों को बंद करता है। आश्रवों का निरोध करता है, शुद्ध चारित्र का पालन करता है, समिति – गुप्ति रूप आठ प्रवचनमाताओं के आराधन में सतत उपयुक्त रहता है, संयम – योग में अपृथक्त्व होता है और सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1125 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारो व्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ। Translated Sutra: भन्ते ! कायोत्सर्ग से जीव को क्या प्राप्त होता है ? कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्तयोग्य अतिचारों का विशोधन करता है। अपने भार को हटा देनेवाले भार – वाहक की तरह निर्वृतहृदय हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1126 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
पच्चक्खाणेणे आसवदाराइं निरुंभइ। पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं अणयइ इच्छानिरोहं गए य णं जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरई। Translated Sutra: भन्ते ! प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रत्याख्यान से जीव आश्रवद्वारों का निरोध करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1127 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] थवथुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
थवथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ। Translated Sutra: भन्ते ! स्तवस्तुतिमंगल से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्तव – स्तुति मंगल से जीव को ज्ञान – दर्शन – चारित्र स्वरूप बोधि का लाभ होता है। ज्ञान – दर्शन – चारित्र स्वरूप बोधि से संपन्न जीव अन्तक्रिया के योग्य अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1128 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कालपडिलेहणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ। Translated Sutra: भन्ते ! काल की प्रतिलेखना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काल की प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1129 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पायच्छित्तकरणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ, निरइयारे यावि भवइ। सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ आयारं च आयारफलं च आराहेइ। Translated Sutra: भन्ते ! प्रायश्चित्त से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रायश्चित्त से जीव पापकर्मों को दूर करता है और धर्म – साधना को निरतिचार बनता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला साधक मार्ग और मार्ग – फल को निर्मल करता है। आचार और आचारफल की आराधना करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1130 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] खमावणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्व पाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काऊण निब्भए भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! क्षामणा करने से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्षमापना करने से जीव प्रह्लाद भाव को प्राप्त होता है। प्रह्लाद भाव सम्पन्न साधक सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्रीभाव को प्राप्त होता है। मैत्रीभाव को प्राप्त जीव भाव – विशुद्धि कर निर्भय होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1131 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सज्झाएण भंते! जीवे किं जणयइ?
सज्झाएण नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ। Translated Sutra: भन्ते ! स्वाध्याय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1132 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वायणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
वायणाए णं निज्जरं जणयइ, सुयस्स य अणासायणाए वट्टए। सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलंबइ। तित्थधम्मं अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! वाचना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुत ज्ञान की आशातना के दोष से दूर रहता है। तीर्थ धर्म का अवलम्बन करता है – तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1133 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पडिपुच्छणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
पडिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थतदुभयाइं विसोहेइ। कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिंदइ। Translated Sutra: भन्ते ! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय – दोनों से सम्बन्धित काक्षामोहनीय का निराकरण करता है। |