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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

8. यज्ञ-सूत्र Hindi 266 View Detail
Mool Sutra: तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं। कम्ममेहा संजमजोग सन्ती, होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ।।

Translated Sutra: तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग स्रुवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्तिपाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से मैं अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) Hindi 268 View Detail
Mool Sutra: कोहेण जो ण तप्पदि, सुर णर तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि ।।

Translated Sutra: देव मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) Hindi 270 View Detail
Mool Sutra: कुलरूवजादिबूद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्मं हवे तस्स ।।

Translated Sutra: आठ प्रकार के मद लोक में प्रसिद्ध हैं-कुल रूप व जाति का मद, ज्ञान तप व चारित्र का मद, धन व बल का मद। जो श्रमण आठों ही प्रकार का किंचित् भी मद नहीं करता है, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

11. उत्तम आर्जव (सरलता) Hindi 273 View Detail
Mool Sutra: जो चिंतेइ ण वंकं, ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णियदोसं, अज्जवधम्मो हवे तस्स ।।

Translated Sutra: जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 275 View Detail
Mool Sutra: किं माहणा! जोइ समारभन्ता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा? जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुइट्ठं कुसला वयंति ।।

Translated Sutra: हे ब्राह्मणो! तुम लोग यज्ञ में अग्नि का आरम्भ तथा जल द्वारा बाह्य शुद्धि की गवेषणा क्यों करते हो? कुशल पुरुष केवल इस बाह्य शुद्धि को अच्छा नहीं समझता।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 276 View Detail
Mool Sutra: सम-संतोस-जलेण य, जो धोवदि तिण्णलोहमलपुंजं। भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ।।

Translated Sutra: जो मुनि समताभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पुंज को धोता है, तथा भोजन में गृद्ध नहीं होता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 277 View Detail
Mool Sutra: जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।।

Translated Sutra: ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) Hindi 285 View Detail
Mool Sutra: सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो णत्थि किंचण। मिहिलाए डज्झमाणीए, ण मे डज्झइ किंचण ।।

Translated Sutra: मैं सुखपूर्वक रहता हूँ और सुखपूर्वक जीता हूँ। मिथिला नगरी में मेरा कुछ भी नहीं है। इसलिए इन महलों के जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता है। (राजा जनक का यह भाव ही आकिंचन्य धर्म है।)
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

1. लोक सूत्र Hindi 287 View Detail
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।।

Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) Hindi 294 View Detail
Mool Sutra: भेदसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलना- त्मिकां क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः ।।

Translated Sutra: परस्पर में मिलकर स्कन्धों या भूतों को उत्पन्न करते हैं
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) Hindi 295 View Detail
Mool Sutra: खन्धा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य। परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउव्विहा ।।

Translated Sutra: रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

4. आकाश द्रव्य Hindi 301 View Detail
Mool Sutra: चेयण रहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं। लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ।।

Translated Sutra: आकाश द्रव्य अचेतन है, अमूर्तीक है, सर्वगत अर्थात् विभु है। सर्व द्रव्यों को अवगाह या अवकाश देना इसका लक्षण है। वह दो भागों में विभक्त है - लोकाकाश और अलोकाकाश।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

4. आकाश द्रव्य Hindi 302 View Detail
Mool Sutra: घम्माघर्म्मौ कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो, ततो परदो अलोगुत्तो ।।

Translated Sutra: (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षट्द्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित हैं, वह `लोक' है और शेष अनन्त आकाश `अलोक' कहलाता है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य Hindi 303 View Detail
Mool Sutra: उदयं जह मच्छाणं, गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए। तह जीवपुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाणेहिं ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार मछली के लिए जल उदासीन रूप से सहकारी है, उसी प्रकार जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्यों को धर्म द्रव्य गमन में उदासीन रूप से सहकारी है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य Hindi 304 View Detail
Mool Sutra: जह हवदि धम्मदव्वं, तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं, कारणभूदं तु पुढ़वीव ।।

Translated Sutra: धर्म द्रव्य की ही भाँति अधर्म द्रव्य को भी जानना चाहिए। क्रियायुक्त जीव व पुद्गल के ठहरने में यह उनके लिए उदासीन रूप से सहकारी होता है, जिस प्रकार स्वयं ठहरने में समर्थ होते हुए भी हम पृथिवी का आधार लिये बिना इस आकाश में कहीं ठहर नहीं सकते।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

6. काल द्रव्य Hindi 307 View Detail
Mool Sutra: सब्भावसभावाणं, जीवाणं तह य पोग्गलाणं य। परियट्टणसंभूदो, कालो णियमेण पण्णत्तो ।।

Translated Sutra: सत्तास्वभावी जीव व पुद्गलों की वर्तना व परिवर्तना में जो धर्म-द्रव्य की भाँति ही उदासीन निमित्त है, उसे ही निश्चय से काल द्रव्य कहा गया है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

1. तत्त्व-निर्देश Hindi 310 View Detail
Mool Sutra: जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ।।

Translated Sutra: तत्त्व नौ हैं-जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव संवर, निर्जरा व मोक्ष। (आगे क्रमशः इनका कथन किया गया है।)
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

4. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) Hindi 321 View Detail
Mool Sutra: पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निस्सल्लो, जोवो हवइ अणासओ ।।

Translated Sutra: पाँच समिति, तीन गुप्ति, कषायनिग्रह, इन्द्रिय-जय, निर्भयता, निश्शल्यता इत्यादि संवर के अंग हैं, क्योंकि इनसे जीव अनास्रव हो जाता है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) Hindi 334 View Detail
Mool Sutra: जहा महातलागस्स, सन्निरुद्धे जलागमे। उस्सिंचिणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार किसी बड़े भारी तालाब में जलागमन के द्वार को रोक कर उसका जल निकाल देने पर वह सूर्य ताप से शीघ्र ही सूख जाता है। उसी प्रकार संयमी साधु पाप-कर्मों के द्वार को अर्थात् राग-द्वेष को रोक कर तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। -[अज्ञानी जितने कर्म करोड़ों भवों में खपाता है, ज्ञानी
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) Hindi 335 View Detail
Mool Sutra: एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा णिज्जरिज्जई ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ३३४; संदर्भ ३३४-३३५
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14. सृष्टि-व्यवस्था

3. कर्म-कारणवाद Hindi 354 View Detail
Mool Sutra: चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं। कम्मप्पबीयो अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ।।

Translated Sutra: सुन्दर या असुन्दर जन्म धारण करते समय, अपने पूर्व-संचित कर्मों को साथ लेकर, प्राणी अकेला ही प्रयाण करता है। अपने सुख के लिए बड़े परिश्रम से पाले गये दास दासी तथा गाय घोड़ा आदि सब यहीं छूट जाते हैं।
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत)

1. द्रव्य-स्वरूप Hindi 362 View Detail
Mool Sutra: गुणाणामासओ दव्वं, एगदव्वासिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ।।

Translated Sutra: द्रव्य गुणों का आश्रय होता है। प्रत्येक द्रव्य के आश्रित अनेक गुण रहते हैं, जैसे कि एक आम्रफल में रूप रसादि अनेक गुण पाये जाते हैं। (द्रव्य से पृथक् गुण पाये नहीं जाते हैं।) पर्यायों का लक्षण उभयाश्रित है।
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 412 View Detail
Mool Sutra: एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं? धम्मे दुविहे मेहावि, कहं विप्पच्चओ न ते?

Translated Sutra: (भगवान् महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन्! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 413 View Detail
Mool Sutra: पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ ।।

Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह
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18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 414 View Detail
Mool Sutra: चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ बद्धमाणेणं, पासेण य महामुणी ।।

Translated Sutra: यही कारण है कि भगवान् पार्श्व के आम्नाय में जो चातुर्याम मार्ग प्रचलित था, उसी को भगवान् महावीर ने पंचशिक्षा रूप कर दिया।
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 419 View Detail
Mool Sutra: अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ बद्धमाणेणं, पासेण य महाजसा ।।

Translated Sutra: हे गौतम! यद्यपि भगवान् महावीर ने तो अचेलक धर्म का ही उपदेश दिया है, परन्तु उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व का मार्ग सचेल भी है।
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 421 View Detail
Mool Sutra: पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणविहविगप्पणं। जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगप्पओयणं ।।

Translated Sutra: इतना होने पर भी लोक-प्रतीति के अर्थ, हेमन्त व वर्षा आदि ऋतुओं में सुविधापूर्वक संयम का निर्वाह करने के लिए, तथा सम्यक्त्व व ज्ञानादि को ग्रहण व धारण करने के लिए लोक में बाह्य लिंग का भी अपना स्थान अवश्य है।
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 422 View Detail
Mool Sutra: इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य णवुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ।।

Translated Sutra: (सभी लिंगों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सिद्ध कई प्रकार के कहे गये हैं) यथा-स्त्रीलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, पुरुषलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, नपुंसक-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, जिन-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, आजीवक आदि अन्य लिंगों से मुक्त होने वाले सिद्ध, और गृहस्थलिंग से मुक्त होने वाले
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 425 View Detail
Mool Sutra: य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याज्जिन इव प्रभुः ।।

Translated Sutra: जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है (परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं।)
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

5. एक महान् आश्चर्य Hindi 10 View Detail
Mool Sutra: (क) दवाग्निना यथाऽरण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु। अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते, रागद्वेषवशंगताः ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार वन में अग्नि लग जाने पर उसमें जलते हुए जीवों को देखकर दूसरे जीव रागद्वेषवश प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार काम-भोगों में मूर्च्छित हम सब मूर्ख जन यह नहीं समझते कि (हम सहित) यह सारा संसार ही राग-द्वेषरूपी अग्नि में नित्य जला जा रहा है। संदर्भ १०-१०
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

5. एक महान् आश्चर्य Hindi 10 View Detail
Mool Sutra: (ख) एवमेव वयं मूढाः, कामभोगेषु मूर्च्छिताः। दह्यमानं न बुध्यामो, रागद्वेषाग्निना जगत् ।।

Translated Sutra: संदर्भ १०-१०
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

7. अपना शत्रु-मित्र स्वयं Hindi 12 View Detail
Mool Sutra: आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुधाधेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ।।

Translated Sutra: आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही शाल्मली वृक्ष। आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नन्दन-वन।
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

7. अपना शत्रु-मित्र स्वयं Hindi 13 View Detail
Mool Sutra: आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च। आत्मा मित्रममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः ।।

Translated Sutra: आत्मा ही अपने सुख व दुःख को सामान्य तथा विशेष रूप से करनेवाला है, और इसलिए वही अपना मित्र अथवा शत्रु है। सुकृत्यों में स्थित वह अपना मित्र है और दुष्कृत्यों में स्थित अपना शत्रु।
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) Hindi 14 View Detail
Mool Sutra: मिथ्यात्वं विदन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति। न च धर्मं रोचते हि, मधुरं रसं यथा ज्वरितः ।।

Translated Sutra: मिथ्यात्व या अज्ञाननामक कर्म का अनुभव करनेवाला जीव (स्वभाव से ही) विपरीत श्रद्धानी होता है। जिस प्रकार ज्वरयुक्त मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता, उसी प्रकार उसे कल्याणकर धर्म भी नहीं रुचता है।
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) Hindi 16 View Detail
Mool Sutra: हस्तागता इमे कामाः, कालिता ये अनागताः। को जानाति परं लोकं, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ।।

Translated Sutra: उसकी विषयासक्त बुद्धि के अनुसार वर्तमान के काम-भोग तो हस्तगत हैं और भूत व भविष्यत् के अत्यन्त परोक्ष। परलोक किसने देखा है? कौन जानता है कि वह है भी या नहीं?
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) Hindi 17 View Detail
Mool Sutra: इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम्। तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमाद्येत् ।।

Translated Sutra: `यह वस्तु तो मेरे पास है और यह नहीं है। यह काम तो मैंने कर लिया है और यह अभी करना शेष है।' इस प्रकार के विकल्पों से लालायित उसको काल हर लेता है। कौन कैसे प्रमाद करे?
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1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

9. लेने गये फूल, हाथ लगे शूल Hindi 18 View Detail
Mool Sutra: भोगामिषदोषविषण्णः हितनिःश्रेयसबुद्धित्यक्तार्थः। बालश्च मन्दकः मूढः, बध्यते मक्षिका इव श्लेष्मणि ।।

Translated Sutra: भोगरूपी दोष में लिप्त व आसक्त होने के कारण, हित व निःश्रेयस (मोक्ष) की बुद्धि का त्याग कर देनेवाला, आलसी, मूर्ख व मिथ्यादृष्टि ज्यों-ज्यों संसार से छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों कफ में पड़ी मक्खी की भाँति अधिकाधिक फँसता जाता है।
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2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग)

3. भेद-रत्नत्रय Hindi 22 View Detail
Mool Sutra: जीवादिश्रद्धानं, सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानं। रागादिपरिहरणं चरणं, एष तु मोक्षपथः ।।

Translated Sutra: जीवादि नव तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तथा उनका सामान्य-विशेष रूप से अवधारण करना सम्यग्ज्ञान है। राग-द्वेष आदि दोषों का परिहार करना सम्यक्चारित्र है और ये तीनों मिलकर समुचित रूप से एक अखंड मोक्षमार्ग है। (ये तीनों वास्तव में पृथक्-पृथक् कुछ नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक होने के कारण एक ही हैं।)
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2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग)

3. भेद-रत्नत्रय Hindi 26 View Detail
Mool Sutra: इति जीवान् अजीवाँश्च, श्रुत्वा श्रद्धाय च। सर्वनयानामनुमते, रमते संयमे मुनिः ।।

Translated Sutra: इस प्रकार जीव और अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप को सुनकर तथा परमार्थ तथा व्यवहार आदि सभी दृष्टियों के अनुसार उनकी हृदय से श्रद्धा करके भिक्षु संयम में रमण करे।
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3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग)

1. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय Hindi 27 View Detail
Mool Sutra: व्यवहारेणुपदिश्यते, ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्। नापि ज्ञानं न चरित्रं, न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।

Translated Sutra: अभेद-रत्नत्रय में स्थित ज्ञानी के चरित्र है, दर्शन है या ज्ञान है, यह बात भेदोपचार (विश्लेषण) सूचक व्यवहार से ही कही जाती है। वास्तव में उस अखण्ड तत्त्व में न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है। वह ज्ञानी तो ज्ञायक मात्र है। प्रश्न : विश्लेषणकारी इस व्यवहार का कथन करने की आवश्यकता ही क्या है?
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3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग)

4. परम्परा-मुक्ति Hindi 40 View Detail
Mool Sutra: विविग्धि कर्मणो हेतुं, यशः संचिनु क्षान्त्या। पार्थिवं शरीरं हित्वा, ऊर्ध्वां प्रक्रामति दिशम् ।।

Translated Sutra: धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु (मिथ्यात्व, अविरति) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। (काल पूर्ण होने पर वहाँ से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर
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3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग)

4. परम्परा-मुक्ति Hindi 41 View Detail
Mool Sutra: भुक्त्वा मानुष्कान्भोगान्, अप्रतिरूपाण्यथायुषम्। पूर्वं विशुद्धसद्धर्मा, केवलं बोधिं बुद्धवा ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ४०; संदर्भ ४०-४२
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3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग)

4. परम्परा-मुक्ति Hindi 42 View Detail
Mool Sutra: चतुरंगं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयमं प्रतिपद्य। तपसाधूतकर्मांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ४०; संदर्भ ४०-४२
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

1. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) Hindi 43 View Detail
Mool Sutra: भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च। आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ।।

Translated Sutra: भूतार्थनय से जाने गये जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध-मोक्ष ये नव तत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। (आत्मनिष्ठ सम्यग्दृष्टि है और पर्याय-निष्ठ मिथ्या-दृष्टि।)
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) Hindi 50 View Detail
Mool Sutra: निःशंकित निःकांक्षित, निर्विचिकित्स्यममूढदृष्टिश्च। उपवृंहास्थितिकरणे वात्सल्यप्रभावनेऽष्टौ ।।

Translated Sutra: सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण या अंग हैं-निःशंकित्त्व, निःकांक्षित्त्व, निर्विचिकित्त्सत्व, अमूढदृष्टित्त्व, उपवृंहणत्त्व (उपगूहनत्व), स्थितिकरणत्त्व, वात्सल्यत्त्व तथा प्रभावनाकरणत्त्व। (इन सबके लक्षण आगे क्रम से कहे जानेवाले हैं।)
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) Hindi 51 View Detail
Mool Sutra: संवेगो निर्वेदो, निन्दा गर्हा च उपशमो भक्तिः। वात्सल्यं अनुकम्पा, अष्ट गुणाः सम्यक्त्वयुक्तस्य ।।

Translated Sutra: संवेग, निर्वेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

6. निःकांक्षित्व (निष्कामता) Hindi 55 View Detail
Mool Sutra: त्रिविधा च भवति कांक्षा, इह परलोके तथा कुधर्मे च। त्रिविधमपि यः न कुर्यात्, दर्शनशुद्धिमुपगतः सः ।।

Translated Sutra: कामना तीन प्रकार की होती है-इह-लोक विषयक, परलोक विषयक तथा स्वधर्म को छोड़कर कुधर्म या परधर्म के ग्रहण विषयक। जो इनमें से किसी भी प्रकार की आकांक्षा या कामना नहीं करता, वह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त हो गया है, ऐसा समझो। (इसके अतिरिक्त उसे ख्याति-लाभ-प्रतिष्ठा की भी कामना नहीं होती।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

6. निःकांक्षित्व (निष्कामता) Hindi 57 View Detail
Mool Sutra: कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य। यत्कायिकं मानसिकं च किंचित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ।।

Translated Sutra: कामानुगृद्धि ही दुःख की जननी है, इसीसे इहलोक में या देवलोक में जितने भी शारीरिक व मानसिक दुःख हैं, वीतरागी उन सबका अन्त कर देते हैं। अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने के कारण उन्हें कामनाजन्य दुःख नहीं रहता।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

7. निर्विचिकित्सत्व (अस्पृश्यता-निवारण) Hindi 58 View Detail
Mool Sutra: जो न करोति जुगुप्सं, चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणां। स खलु निर्विचित्सः, सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ।।

Translated Sutra: जो जीव वस्तु के मनोज्ञामनोज्ञ धर्मों में अथवा व्यक्ति के कुल, जाति व सम्प्रदाय आदि रूप विविध धर्मों में ग्लानि नहीं करता, उसे विचिकित्साविहीन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

8. अमूढ़दृष्टित्व (स्व-धर्म-निष्ठा) Hindi 60 View Detail
Mool Sutra: मायोदितमेतत् तु, मृषाभाषा, निरर्थिका। सयच्छन्नप्यहम्, वसामि ईर्यायां च ।।

Translated Sutra: (अपने-अपने पक्ष का पोषण करने में रत अनेक मत-मतान्तर लोक में प्रचलित हैं) ये सब मायाचारी हैं और इनकी वाणी मिथ्या व निरर्थक हैं। उनके कथन को सुनकर भी मैं भ्रम में नहीं पड़ता। संयम में स्थित रहता हूँ तथा यतनापूर्वक चलता हूँ।
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