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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
पिण्ड |
Hindi | 1 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पिंडे उग्गम उप्पायणेसणा जोयणा पमाणे य ।
इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिंडनिज्जुत्ती ॥ Translated Sutra: पिंड़ यानि समूह। वो चार प्रकार के – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। यहाँ संयम आदि भावपिंड़ उपकारक द्रव्यपिंड़ है। द्रव्यपिंड़ के द्वारा भावपिंड़ की साधना की जाती है। द्रव्यपिंड़ तीन प्रकार के हैं। आहार, शय्या, उपधि। इस ग्रंथ में मुख्यतया आहारपिंड़ के बारे में सोचना है। पिंड़ शुद्धि आठ प्रकार से सोचनी है। उद्गम, उत्पादना, | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 117 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं ।
भावं अहे करेई तम्हा तं भावऽहेकम्मं ॥ Translated Sutra: संयमस्थान – कंड़क संयमश्रेणी, लेश्या एवं शाता वेदनीय आदि के समान शुभ प्रकृति में विशुद्ध विशुद्ध स्थान में रहे साधु को आधाकर्मी आहार जिस प्रकार से नीचे के स्थान पर ले जाता है, उस कारण से वो अधःकर्म कहलाता है। संयम स्थान का स्वरूप देशविरति समान पाँचवे गुण – स्थान में रहे सर्व उत्कृष्ट विशुद्ध स्थानवाले जीव | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 273 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बायर सुहुमं भावे उ पूइयं सुहुममुवरि वोच्छामि ।
उवगरण भत्तपाने दुविहं पुन बायरं पूइं ॥ Translated Sutra: पूतिकर्म दो प्रकार से हैं। एक सूक्ष्मपूति और दूसरी बाहर पूति। सूक्ष्मपूति आगे बताएंगे। बादरपूति दो प्रकार से। उपकरणपूति और भक्तपानपूति। पूतिकर्म – यानि शुद्ध आहार के आधाकर्मी आहार का मिलना। यानि शुद्ध आहार भी अशुद्ध बनाए। पूति चार प्रकार से। नामपूति, स्थापनापूति, द्रव्यपूति और भावपूति। नामपूति – पूति | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 344 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पामिच्चंपिय दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेण ।
लोइय सज्झिलगाई लोगुत्तर वत्थमाईसु ॥ Translated Sutra: प्रामित्य यानि साधु के लिए उधार लाकर देना। ज्यादा लाना दो प्रकार से। १. लौकिक और २. लोकोत्तर। लौकिक में बहन आदि का दृष्टांत और लोकोत्तर में साधु – साधु में वस्त्र आदि का। कोशल देश के किसी एक गाँव में देवराज नाम का परिवार रहता था। उसको सारिका नाम की बीवी थी। एवं सम्मत आदि कईं लड़के और सम्मति आदि कईं लड़कियाँ थी। | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 351 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परियट्टियंपि दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेणं ।
एक्केक्कंपिय दुविहं तद्दव्वे अन्नदव्वे य ॥ Translated Sutra: साधु के लिए चीज की अदल – बदल करके देना परावर्तित। परावर्तित दो प्रकार से। लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक में एक चीज देकर ऐसी ही चीज दूसरों से लेना। या एक चीज देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना। लोकोत्तर में भी ऊक्त अनुसार वो चीज देकर वो चीज लेनी या देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना लौकिक तद्रव्य – यानि खराबी घी आदि | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 437 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नामं ठवणा दविए भावे उप्पायणा मुनेयव्वा ।
दव्वंमि होइ तिविहा भावंमि उ सोलसपया उ ॥ Translated Sutra: उत्पादना के चार निक्षेप हैं। १. नाम उत्पादना, २. स्थापना उत्पादना, ३. द्रव्य उत्पादना, ४. भाव उत्पादना। नाम उत्पादना – उत्पादना ऐसा किसी का भी नाम होना वो। स्थापना उत्पादना – उत्पादना की स्थापना – आकृति हो वो। द्रव्य उत्पादना – तीन प्रकार से। सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य उत्पादना। भाव उत्पादना – दो प्रकार | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 503 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उच्छाहिओ परेण व लद्धिपसंसाहिं वा समुत्तइओ ।
अवमानिओ परेण य जो एसइ मानपिंडो सो ॥ Translated Sutra: अपना लब्धिपन या दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनकर गर्वित बना हुआ, तूँ ही यह काम करने के लिए समर्थ है, ऐसा दूसरे साधु के कहने से उत्साही बने या ‘तुमसे कोई काम सिद्ध नहीं होता।’ ऐसा दूसरों के कहने से अपमानीत साधु, अहंकार के वश होकर पिंड़ की गवेषणा करे यानि गृहस्थ को कहे कि, ‘दूसरों से प्रार्थना किया गया जो पुरुष सामनेवाले | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 532 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विज्जामंतपरूवण विज्जाए भिक्खुवासओ होइ ।
मंतींम सीसवेयण तत्थ मरुंडेण दिट्ठंतो ॥ Translated Sutra: जप, होम, बलि या अक्षतादि की पूजा करने से साध्य होनेवाली या जिसके अधिष्ठाता प्रज्ञाप्ति आदि स्त्री देवता हो वो विद्या। एवं जप होम आदि के बिना साध्य होता हो या जिसका अधिष्ठाता पुरुष देवता हो वो मंत्र। भिक्षा पाने के लिए विद्या या मंत्र का उपयोग किया जाए तो वो पिंड़ विद्यापिंड़ या मंत्रपिंड़ कहलाता है। ऐसा पिंड़ | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
प्रमाण |
Hindi | 684 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ ।
पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥ Translated Sutra: प्रमाण दोष जो आहार करने से ज्ञानाभ्यास वैयावच्च आदि करने में और संयम के व्यापार में उस दिन और दूसरे दिन और आहार खाने का समय न हो तब तक शारीरिक बल में हानि न पहुँचे उतना आहार प्रमाणसर कहलाता है। नाप से ज्यादा आहार खाने से प्रमाणातिरिक्त दोष बने और उससे संयम और शरीर को नुकसान हो सामान्य से पुरुष के लिए बत्तीस नीवाले | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Gujarati | 128 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वंमि अत्तकम्मं जं जो उ ममायए तगं दव्वं ।
भावे असुहपरिणओ परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૨૮. જે પુરુષ જે ધનને પોતાનું માને છે, તેને તે ધન દ્રવ્યાત્મકર્મ કહેવાય છે. નો – આગમથી ભાવઆત્મકર્મ – અશુભ પરિણામવાળો બીજાના કર્મને પોતાનું કરે તે ભાવ આત્મકર્મ કહેવાય. સૂત્ર– ૧૨૯. આધાકર્મ અને સંક્લિષ્ટ પરિણામવાળો સાધુ પ્રાસુકને પણ ગ્રહણ કરવા છતાં કર્મ વડે બંધાય છે તેથી તેને તું (ભાવ) આત્મકર્મ જાણ. એટલે | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Gujarati | 234 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदोदयं च सूरोदयं च रन्नो उ दोन्नि उज्जाणा ।
तेसिं विवरियगमणे आणाकोवो तओ दंडो ॥ Translated Sutra: ચંદ્રાનના નગરી, ચંદ્રાવતંસક રાજા, ત્રિલોકરેખા આદિ રાણી હતી. અંત:પુર સાથે સ્વૈર વિહાર કરવાની ઈચ્છાથી ઘોષણા કરાવી કે કોઈએ ઉદ્યાનમાં ન જવું. કેટલાક દુર્જનો રાણીઓને જોવાની ઈચ્છાથી ત્યાં છુપાઈને રહ્યા પણ ઉદ્યાન પાલકોએ તેને પકડી લીધા. તેમાં તૃણ – કાષ્ઠ આદિ લાવનારા પણ કેટલાક પકડાયા. રાજાએ બંને પુરુષોના વૃતાંત | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Gujarati | 295 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च ।
सहसंतरं न कप्पइ कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૯૫. મિશ્રજાત ત્રણ પ્રકારે છે – યાવદર્થિક, પાખંડીમિશ્ર, સાધુમિશ્ર. આ હજારના આંતરાવાળુ હોય તો પણ ન કલ્પે, ત્રણ કલ્પ કર્યા પછી કલ્પે. સૂત્ર– ૨૯૬. દુષ્કાળમાં, દુષ્કાળના ઉલ્લંઘન પછી, માર્ગના મથાળે કે યાત્રામાં કોઈ શ્રદ્ધાવાન્ ગૃહસ્થ ઘણા ભિક્ષાચર જાણીને મિશ્રજાત કરે. સૂત્ર– ૨૯૭. યાવદર્થિકને માટે આ રાંધેલ | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Gujarati | 437 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नामं ठवणा दविए भावे उप्पायणा मुनेयव्वा ।
दव्वंमि होइ तिविहा भावंमि उ सोलसपया उ ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૩૭. નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય, ભાવને વિશે ઉત્પાદના જાણવી. તેમાં દ્રવ્યમાં ત્રણ પ્રકારે અને ભાવમાં સોળ પદ વાળી જાણવી. સૂત્ર– ૪૩૮. ઔપયાચિતક આદિ વડે અને પુરુષ, અશ્વ તથા બીજ વગેરે વડે પુત્ર, અશ્વ, વૃક્ષાદિની જે ઉત્પાદના તે સચિત્ત છે. સૂત્ર– ૪૩૯. સોના, રૂપા આદિ મધ્યે ઇચ્છિત ધાતુથી કરેલી ઉત્પત્તિ અચિત્ત હોય છે, તથા | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Gujarati | 443 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खीरे य मज्जणे मंडणे य कीलावणंकधाई य ।
एक्केक्काविय दुविहा करणे कारावणे चेव ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૪૩. ક્ષીર, મજ્જન, મંડન, ક્રીડન, અંક ધાત્રી. આ પ્રત્યેક કરવું અને કરાવવું બે પ્રકારે છે. સૂત્ર– ૪૪૪. બાળકને ધારણ કરે, પોષણ કરે અથવા બાળક તેને ધાવે માટે ધાત્રી કહેવાય. પૂર્વકાળમાં વૈભવાનુસાર પાંચ ધાત્રી રહેતી. સૂત્ર– ૪૪૫. દૂધના આહારવાળો આ રૂવે છે, તેથી ભિક્ષાની આશા રાખનાર મને ભિક્ષા આપ. પછી તેને સ્તન્ય પાજે. | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Gujarati | 481 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समणे महाण किवणे अतिही साणे य होइ पंचमए ।
वणि जायणत्ति वणिओ पायप्पाणं वणेइत्ति ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૮૧. શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, કૃપણ, અતિથિ, પાંચમો શ્વાન છે. પ્રાયઃ આત્માને ભક્તિવાળો દેખાડીને માંગે છે, તેથી વનીપક કહેવાય. સૂત્ર– ૪૮૨. મૃત માતાવાળા વાછરડા માફક આહારાદિના લોભથી શ્રમણાદિ પાંચેને વિશે પોતાની ભક્તિ દેખાડે તે વનીપક કહેવાય છે. સૂત્ર– ૪૮૩. નિર્ગ્રન્થ, શાક્ય, તાપસ, ગૈરુક, આજીવક એ પાંચ પ્રકારના શ્રમણ | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
प्रमाण |
Gujarati | 684 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ ।
पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૬૮૪. પુરુષને બત્રીશ કવળરૂપ આહાર કુક્ષિપૂરક કહ્યો છે અને સ્ત્રીને અઠ્ઠાવીશ કવળ. સૂત્ર– ૬૮૫. સાધુને આ પ્રમાણથી કંઈક હીન, અર્ધ, અર્ધાર્ધ, યાત્રા માત્રા આહાર પ્રમાણ ધીરપુરુષો કહે છે, તે જ અવમ આહાર છે. સૂત્ર– ૬૮૬. હવે પ્રમાણના દોષો કહે છે – જે સાધુ પ્રકામ, નિકામ, પ્રણીત, અતિબહુ અને અતિ બહુશઃ ભોજનાદિ આહાર કરે, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Hindi | 3 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वायगवरवंसाओ तेवीसइमेणं धीरपुरिसेण ।
दुद्धरधरेणं मुनिना पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥ Translated Sutra: वाचक श्रेष्ठवंशज ऐसे तेईसमें धीरपुरुष, दुर्धर एवं पूर्वश्रुत से जिनकी बुद्धि समृद्ध हुई है ऐसे मुनि द्वारा – श्रुतसागर से संचित कर के उत्तम शिष्यगण को जो दिया है, ऐसे आर्य श्यामाचार्य को नमस्कार हो। सूत्र – ३, ४ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Hindi | 16 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा? अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतित्थगरसिद्धा सयंबुद्ध-सिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा इत्थीलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धा नपुंसकलिंगसिद्धा सलिंग सिद्धा अन्नलिंगसिद्धा गिहिलिंगसिद्धा एगसिद्धा अनेगसिद्धा।
से त्तं अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा। Translated Sutra: वह अनन्तरसिद्ध – असंसारसमापन्नजीव – प्रज्ञापना क्या है ? पन्द्रह प्रकार की है। (१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकरसिद्ध, (४) अतीर्थंकरसिद्ध, (५) स्वयंबुद्धसिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (७) बुद्ध – बोधितसिद्ध, (८) स्त्रीलिंगसिद्ध, (९) पुरुषलिंगसिद्ध, (१०) नपुंसकलिंगसिद्ध, (११) स्वलिंगसिद्ध, (१२) अन्य – लिंगसिद्ध, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Hindi | 160 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं मगरा? मगरा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– सोंडमगरा य मट्ठमगरा य। से तं मगरा।
से किं तं सुंसुमारा? सुंसुमारा एगगारा पन्नत्ता। से त्तं सुंसुमारा। जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सम्मुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य। तत्थ णं जेते सम्मुच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा। तत्थ णं जेते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पन्नत्ता तं जहा–इत्थी पुरिसा नपुंसया।
एतेसि णं एवमाइयाणं जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं अद्ध-तेरस जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। Translated Sutra: वे मगर किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के हैं। शौण्डमकर और मृष्टमकर। वे सुंसुमार किस प्रकार के हैं ? एक ही आकार के हैं। अन्य जो इस प्रकार के हों उन्हें भी जान लेना। वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं – सम्मूर्च्छिम और गर्भज। इनमें से जो सम्मूर्च्छिम हैं, वे सब नपुंसक होते हैं। इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Hindi | 161 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य।
से किं तं चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–एगखुरा दुखुरा गंडीपदा सणप्फदा।
से किं तं एगखुरा? एगखुरा अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–अस्सा अस्सतरा घोडगा गद्दभा गोरक्खरा कंदलगा सिरिकंदलगा आवत्ता। जे यावन्ने तहप्पगारा। से त्तं एगखुरा।
से किं तं दुखुरा? दुखुरा अनेगविहा पन्नत्ता, तं० उट्टा गोणा गवया रोज्झा पसया महिसा मिया संवरा वराहा अय-एलग-रुरु-सरभ-चमर-कुरंग-गोकण्णमादी। Translated Sutra: वे चतुष्पद – स्थलचर – पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के। एकखुरा, द्विखुरा, गण्डी – पद और सनखपद। वे एकखुरा किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के। अश्व, अश्वतर, घोटक, गधा, गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकन्दलक और आवर्त इसी प्रकार के अन्य प्राणी को भी एकखुर – स्थलचर० समझना। वे द्विखुर किस प्रकार के हैं | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 162 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया य।
से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्ख-जोणिया चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–अही अयगरा आसालिया महोरगा।
से किं तं अही? अही दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–दव्वीकरा य मउलिणो य।
से किं तं दव्वीकरा? दव्वीकरा अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–आसीविसा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा उस्सासविसा निस्सासविसा कण्हसप्पा सेदसप्पा काओदरा दब्भपुप्फा Translated Sutra: वे परिसर्प – स्थलचर० दो प्रकार के हैं। उरःपरिसर्प० एवं भुजपरिसर्प – स्थलचर – पंचेन्द्रिय – तिर्यंचयोनिक। उरःपरिसर्प – स्थलचर – पंचेन्द्रिय – तिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के। अहि, अजगर, आसालिक और महोरग। वे अहि किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के। दर्वीकर और मुकुली। वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 163 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी।
से किं तं चम्मपक्खी? चम्मपक्खी अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–वग्गुली जलोया अडिला भारंडपक्खी जीवंजीवा समुद्दवायता कण्णत्तिया पक्खिविराली, जे यावन्ने तहप्पगारा। से त्तं चम्मपक्खी।
से किं तं लोमपक्खी? लोमपक्खी अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–डंका कंका कुरला वायसा चक्कागा हंसा कलहंसा पायहंसा रायहंसा अडा सेडी वगा बलाया पारिप्पवा कोंचा सारसा मेसरा मसूरा मयूरा सतवच्छा गहरा पोंडरीया कागा कामं-जुगा वंजुलगा तित्तिरा वट्टगा लावगा कवोया Translated Sutra: वे खेचर – पंचेन्द्रिय – तिर्यंचयोनिक किस – किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के। चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गक पक्षी और विततपक्षी। वे चर्मपक्षी किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के। वल्गुली, जलौका, अडिल्ल, भारण्डपक्षी जीवंजीव, समुद्रवायस, कर्णत्रिक और पक्षिविडाली। अन्य जो भी इस प्रकार के पक्षी हों, (उन्हें चर्मपक्षी | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 166 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं मनुस्सा? मनुस्सा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–समुच्छिममनुस्सा य गब्भवक्कंतियमनुस्सा य।
से किं तं सम्मुच्छिममनुस्सा? सम्मुच्छिममनुस्सा एगागारा पन्नत्ता।
कहि णं भंते! सम्मुच्छिममनुस्सा सम्मुच्छंति? गोयमा! अंतोमनुस्सखेत्ते पणतालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवएसु गब्भवक्कंतियमनुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगतजीव-कलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा गामनिद्धमणेसु वा? Translated Sutra: मनुष्य किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के। सम्मूर्च्छिम और गर्भज। सम्मूर्च्छिम मनुष्य कैसे होते हैं ? भगवन् ! सम्मूर्च्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर, ४५ लाख योजन विस्तृत द्वीप – समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में एवं छप्पन अन्तर्द्वीपों में गर्भज | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 191 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं देवा? देवा चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–भवनवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमानिया।
से किं तं भवनवासी? भवनवासी दसविहा पन्नत्ता, तं जहा–असुरकुमारा नागकुमारा सुवण्ण-कुमारा विज्जुकुमारा अग्गिकुमारा दीवकुमारा उदहिकुमारा दिसाकुमारा वाउकुमारा थणियकुमारा। ते समासतो दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। से त्तं भवनवासी।
से किं तं वाणमंतरा? वाणमंतरा अट्ठविहा पन्नत्ता, तं जहा–किन्नरा किंपुरिसा महोरगा गंधव्वा जक्खा रक्खसा भूया पिसाया। ते समासतो दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। से त्तं वाणमंतरा।
से किं तं जोइसिया? जोइसिया पंचविहा पन्नत्ता, Translated Sutra: देव कितने प्रकार के हैं ? चार प्रकार के हैं। भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भवन – वासी देव दस प्रकार के हैं – असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधि – कुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार। ये देव संक्षेप में दो प्रकार के हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 217 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! वाणमंतरा देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वि एगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिता उक्किन्नंतरविउलगंभीरखायपरिहा पागारट्टालय कबाड तोरण पडिदुवारदेसभागा जंत सयग्घि मुसल मुसुंढिपरिवारिया अओज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयालकोट्ठगरइया Translated Sutra: भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर तथा नीचे भी एक सौ योजन छोड़कर, बीच में आठ सौ योजन में, वाण – व्यन्तर देवों के तीरछे असंख्यात भौमेय लाखों नगरावास हैं। वे भौमेयनगर बाहर से गोल और अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 218 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणाययस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जानगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं भोमेज्जानगरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवनवण्णओ तहा भाणितव्वो जाव पडिरूवा। एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति–महिड्ढिया जहा ओहिया जाव Translated Sutra: भन्ते ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के बीच के आठ सौ योजन में, पिशाच देवों के तीरछे असंख्यात भूगृह के समान लाखों नगरावास हैं। नगरावास वर्णन पूर्ववत्। इन में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान हैं। (वे स्थान) | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 219 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १ काले य महाकाले, २ सुरूव पडिरूव ३ पुण्णभद्दे य ।
अमरवइ माणिभद्दे, ४ भीमे य तहा महाभीमे ॥ Translated Sutra: वाणव्यन्तर देवों के प्रत्येक के दो – दो इन्द्र क्रमशः इस प्रकार हैं – काल और महाकाल, सुरूप और प्रतिरूप, पूर्णभद्र और माणिभद्र इन्द्र, भीम और महाभीम। तथा – किन्नर और किम्पुरुष, सत्पुरुष और महापुरुष, अतिकाय और महाकाय तथा गीतरति और गीतयश। सूत्र – २१९, २२० | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 253 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जह सव्वकामगुणितं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ ।
तण्हा-छुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ॥ Translated Sutra: जैसे कोई पुरुष सर्वकामगुणित भोजन का उपभोग करके प्यास और भूख से विमुक्त होकर ऐसा हो जाता है, जैसे कोई अमृत से तृप्त हो। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३ अल्पबहुत्त्व |
Hindi | 268 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! जीवाणं सवेदगाणं इत्थीवेदगाणं पुरिसवेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेदगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इत्थीवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अनंतगुणा, नपुंसगवेदगा अनंतगुणा, सवेयगा विसेसाहिया। Translated Sutra: भगवन् ! इन सवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अवेदी जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े जीव पुरुषवेदी है, स्त्रीवेदी संख्यातगुणे हैं, अवेदी अनन्तगुणे हैं, नपुंसकवेदी अनन्तगुणे हैं, उनसे भी सवेदी विशेषाधिक हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३ अल्पबहुत्त्व |
Hindi | 297 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! सव्वजीवप्पबहुं महादंडयं वत्तइस्सामि–१. सव्वत्थोवा गब्भक्कंतिया मनुस्सा, २. मनुस्सीओ संखेज्जगुणाओ, ३. बादरतेउक्काइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा, ४. अनुत्तरोववाइया देवा असंखेज्जगुणा, ५. उवरिमगेवेज्जगा देवा संखे-ज्जगुणा, ६. मज्झिमगेवेज्जगा देवा संखेज्ज-गुणा, ७. हेट्ठिमगेवेज्जगा देवा संखेज्जगुणा, ८. अच्चुते कप्पे देवा संखेज्जगुणा, ९. आरण कप्पे देवा संखेज्जगुणा, १०. पाणए कप्पे देवा संखेज्जगुणा, ११. आणए कप्पे देवा संखेज्जगुणा, ...
...१२. अधेसत्तमाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, १३. छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, १४. सहस्सारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, १५. Translated Sutra: हे भगवन् ! अब मैं समस्त जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण करने वाले महादण्डक का वर्णन करूँगा – १. सबसे कम गर्भव्युत्क्रान्तिक हैं, २. मानुषी संख्यातगुणी अधिक हैं, ३. बादर तेजस्कायिक – पर्याप्तक असंख्यात – गुणे हैं, ४. अनुत्तरौपपातिक देव असंख्यातगुणे हैं, ५. ऊपरी ग्रैवेयकदेव संख्यातगुणे हैं, ६. मध्यमग्रैवेयकदेव | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-६ व्युत्क्रान्ति |
Hindi | 334 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! कतोहिंतो उववज्जंति? किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति? गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति, नो देवेहिंतो उववज्जंति।
जदि तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति किं एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? तेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? चउरिंदिय-तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? गोयमा! नो एगिंदिय-तिरिक्खजोणिएहिंतो नो बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो नो तेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! नैरयिक, तिर्यंचयोनिकों तथा मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! यदि तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो कौन से तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! (वे) सिर्फ पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! यदि पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-६ व्युत्क्रान्ति |
Hindi | 335 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अस्सण्णी खलु पढमं, दोच्चं च सिरीसवा तइय पक्खी ।
सीहा जंति चउत्थिं, उरगा पुन पंचमिं पुढविं ॥ Translated Sutra: असंज्ञी निश्चय ही पहली (नरकभूमि) में, सरीसृप दूसरी तक, पक्षी तीसरी तक, सिंह चौथी तक, उरग पाँचवी तक। तथा – स्त्रियाँ छठी (नरकभूमि) तक और मत्स्य एवं मनुष्य (पुरुष) सातवीं तक उत्पन्न होते हैं। नरकपृथ्वीयों में इनका यह उत्कृष्ट उपपात समझना। सूत्र – ३३५, ३३६ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-९ योनी |
Hindi | 360 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता? गोयमा! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तं जहा–कुम्मुण्णया, संखावत्ता, वंसीपत्ता कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं। कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गब्भे वक्कमंति, तं जहा–अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा। संखावत्ता णं जोणी इत्थिरयणस्स। संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उवचयंति, नो चेव णं निप्फज्जंति। वंसीपत्ता णं जोणी पिहुजणस्स। वंसीपत्ताए णं जोणीए पिहुजणा गब्भे वक्कमंति। Translated Sutra: भगवन् ! योनि कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की। कूर्मोन्नता, शंखावर्त्ता और वंशीपत्रा। कूर्मोन्नता योनि में उत्तमपुरुष गर्भ में उत्पन्न होते हैं। जैसे – अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव। शंखावर्त्ता योनि स्त्रीरत्न की होती है। शंखावर्त्ता योनि में बहुत – से जीव और पुद्गल आते हैं, गर्भरूप में | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-११ भाषा |
Hindi | 376 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! गाओ मिया पसू पक्खी पन्नवणी णं एसा भासा? न एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! गाओ मिया पसू पक्खी पन्नवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा।
अह भंते! जा य इत्थिवऊ जा य पुमवऊ जा य नपुंसगवऊ पन्नवणी णं एसा भासा? न एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! जा य इत्थिवऊ जा य पुमवऊ जा य नपुंसगवऊ पन्नवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा।
अह भंते! जा य इत्थिआणमणी जा य पुमआणमणी जा य नपुंसगआणमणी पन्नवणी णं एसा भासा? न एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! जा य इत्थिआणमणी जा य पुमआणमणी जा य नपुंसगआणमणी पन्नवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा।
अह भंते! जा य इत्थीपन्नवणी जा य पुमपन्नवणी जा य नपुंसगपन्नवणी पन्नवणी णं एसा भासा? न एसा Translated Sutra: भगवन् ! ‘गायें’, ‘मृग’, ‘पशु’, ‘पक्षी’ क्या यह भाषा प्रज्ञापनी हैं ? यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है। भगवन् ! जो स्त्रीवचन, पुरुषवचन अथवा नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? हाँ, ऐसा ही है। भगवन् ! यह जो स्त्री – आज्ञापनी, पुरुष – आज्ञापनी अथवा नपुंसक – आज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-११ भाषा |
Hindi | 378 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! मनुस्से महिसे आसे हत्थो सीहे वग्घे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोक्कंतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ? हंता गोयमा! मनुस्से जाव चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ।
अह भंते! मनुस्सा जाव चिल्ललगा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ? हंता गोयमा! मनुस्सा जाव चिल्ललगा सव्वा सा बहुवऊ।
अह भंते! मनुस्सी महिसी बलवा हत्थिणिया सीही वग्घी वगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरी सियाली विराली सुणिया कोलसुणिया कोक्कंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया जा यावन्ना तहप्पगारा सव्वा सा इत्थिवऊ? हंता गोयमा! मनुस्सी जाव Translated Sutra: भगवन् ! मनुष्य, महिष, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, वृक, द्वीपिक, ऋक्ष, तरक्ष, पाराशर, रासभ, सियार, बिडाल, शुनक, कोलशुनक, लोमड़ी, शशक, चीता और चिल्ललक, ये और इसी प्रकार के जो अन्य जीव हैं, क्या वे सब एकवचन हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! मनुष्यों से लेकर बहुत चिल्ललक तथा इसी प्रकार के जो अन्य प्राणी हैं, वे सब क्या बहुवचन हैं ? | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-११ भाषा |
Hindi | 397 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! वयणे पन्नत्ते? गोयमा! सोलसविहे वयणे पन्नत्ते, तं जहा–एगवयणे दुवयणे बहुवयणे इत्थिवयणे पुमवयणे नपुंसगवयणे अज्झत्थवयणे उवनीयवयणे अवनीयवयणे उवनीय-अवनीयवयणे अवनीयउवनीयवयणे तीतवयणे पडुप्पन्नवयणे अनागयवयणे पच्चक्खवयणे परोक्खवयणे। इच्चेयं भंते! एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा वयमाणे पन्नवणी णं एसा भासा? न एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! इच्चेयं एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा वयमाणे पन्नवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा। Translated Sutra: भगवन् ! वचन कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! सोलह प्रकार के। एकवचन, द्विवचन, स्त्रीवचन, पुरुषवचन, नपुंसकवचन, अध्यात्मवचन, उपनीतवचन, अपनीतवचन, उपनीतापनीतवचन, अपनीतोपनीतवचन, अतीतवचन, प्रत्युत्पन्नवचन, अनागतवचन, प्रत्यक्षवचन और परोक्षवचन। इस प्रकार एकवचन (से लेकर) परोक्षवचन (तक) बोलते हुए की क्या यह भाषा प्रज्ञापनी | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१३ परिणाम |
Hindi | 407 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] गतिपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–निरयगतिपरिणामे तिरियगतिपरिणामे मनुयगतिपरिणामे देवगतिपरिणामे।
इंदियपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–सोइंदियपरिणामे चक्खिंदियपरिणामे घाणिंदियपरिणामे जिब्भिंदियपरिणामे फासिंदियपरिणामे।
कसायपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–कोहकसाय-परिणामे मानकसायपरिणामे मायाकसायपरिणामे लोभकसायपरिणामे।
लेस्सापरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–कण्हलेस्सा-परिणामे नीललेस्सापरिणामे काउलेस्सापरिणामे Translated Sutra: भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का – निरयगतिपरिणाम, तिर्यग्गति – परिणाम, मनुष्यगतिपरिणाम और देवगतिपरिणाम। इन्द्रियपरिणाम पाँच प्रकार का है – श्रोत्रेन्द्रियपरिणाम, चक्षुरि – न्द्रियपरिणाम, घ्राणेन्द्रियपरिणाम, जिह्वेन्द्रियपरिणाम और स्पर्शेन्द्रियपरिणाम। कषायपरिणाम चार प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१६ प्रयोग |
Hindi | 441 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! गइप्पवाए पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–पओगगती ततगती बंधणच्छेदनगती उववायगती विहायगती।
से किं तं पओगगती? पओगगती पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगे भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती।
जीवाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मासरीरकायप्पओगगती।
नेरइयाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! एक्कारसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जतिविहा तस्स ततिविहा भाणितव्वा जाव वेमानियाणं।
जीवा णं भंते! किं सच्चमनप्पओगगती Translated Sutra: भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच – प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपात – गति और विहायोगति। वह प्रयोगगति क्या है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार की, सत्यमनःप्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति। प्रयोग के समान प्रयोगगति भी कहना। भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१७ लेश्या |
उद्देशक-३ | Hindi | 460 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्से णं भंते! नेरइए कण्हलेस्सं नेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणति? केवतियं खेत्तं पासति? गोयमा! नो बहुयं खेत्तं जाणति नो बहुयं खेत्तं पासति, नो दूरं खेत्तं जाणति नो दूरं खेत्तं पासति, इत्तरियमेव खेत्तं जाणति इत्तरियमेव खेत्तं पासति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति–कण्हलेसे णं नेरइए कण्हलेस्सं नेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे नो बहुयं खेत्तं जाणति नो बहुयं खेत्तं पासति, नो दूरं खेत्तं जाणति नो दूरं खेत्तं पासति, इत्तरियमेव खेत्तं जाणति इत्तरियमेव खेत्तं पासति? गोयमा! से जहानामए– केइ Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्यी नैरयिक कृष्णलेश्यी दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता और देखता है ? गौतम ! बहुत अधिक क्षेत्र न जानता है न देखता है न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता और देख पाता है, थोड़े से अधिक क्षेत्र को ही जानता है और देखता है। क्योंकि | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१७ लेश्या |
उद्देशक-६ | Hindi | 470 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा।
मनूसाणं भंते! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा।
मनूसीणं पुच्छा। गोयमा! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा।
कम्मभूमयमनूसाणं भंते! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा! छलेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। एवं कम्मभूमयमणूसीण वि।
भरहेरवयमनूसाणं भंते! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा! छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। एवं मनुस्सीण वि।
पुव्वविदेह-अवरविदेहकम्मभूमयमनूसाणं Translated Sutra: भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! छह, कृष्ण यावत् शुक्ल। भगवन् ! मनुष्यों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? गौतम ! छह, कृष्ण यावत् शुक्ल। इसी प्रकार मनुष्य स्त्री, कर्मभूमिज, भरत ऐरावत, पूर्व – पश्चिम विदेह – में मनुष्य और मानुषीस्त्री में भी छह लेश्या जानना। भगवन् ! अकर्मभूमिज मनुष्यों में कितनी लेश्याएं हैं | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 478 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सवेदए णं भंते! सवेदए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सवेदए तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं।
इत्थिवेदे णं भंते! इत्थिवेदे त्ति कालतो केवचिरं होति? गोयमा! एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दसुत्तरं पलिओवमसतं पुव्वकोडिपुहत्तमब्भहियं १ एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अट्ठारस पलिओवमाइं पुव्वको-डिपुहत्तमब्भहियाइं २ एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं Translated Sutra: भगवन् ! सवेद जीव कितने काल तक सवेदरूप में रहता है ? गौतम ! सवेद जीव तीन प्रकार के हैं। अनादि – अनन्त, अनादि – सान्त और सादि – सान्त। जो सादि – सान्त हैं, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक; काल से अनन्त उत्सर्पिणी – अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गल – परावर्त्त | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-१ | Hindi | 539 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्ध-फास-पुट्ठस्स संचियस्स चियस्स उवचियस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं निव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स गतिं पप्प ठितिं पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अनुभावे पन्नत्ते?
गोयमा! नाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अनुभावे पन्नत्ते, तं जहा–सोयावरणे सोयाविण्णाणावरणे णेत्तावरणे णेत्तविण्णाणावरणे घाणावरणे घाणविण्णाणावरणे रसावरणे रसविण्णाणावरणे Translated Sutra: भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, सचित्त, चित्त और अपचित्त किये हुए, किञ्चित्विपाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदयप्राप्त, जीव के द्वारा कृत, निष्पादित और परिणामित, स्वयं के द्वारा दूसरे के द्वारा या दोनों के द्वारा उदीरणा – प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 540 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं।
नाणावरणिज्जे णं भंते पन्नत्ते! कम्मे कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभिनिबोहियनाणावरणिज्जे सुयनाणावरणिज्जे ओहिनाणावरणिज्जे मनपज्जवनाणावरणिज्जे केवलनाणावरणिज्जे।
दरिसणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–निद्दापंचए य दंसणचउक्कए य।
निद्दापंचए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–निद्दा जाव थीणद्धी।
दंसणचउक्कए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–चक्खु-दंसणावरणिज्जे Translated Sutra: भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ – ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आभिनिबोधिक यावत् केवलज्ञानावरणीय। दर्शनावरणीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का – निद्रा – पंचक और दर्शनचतुष्क। निद्रा – पंचक कितने प्रकार का है ? गौतम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 541 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती–कम्मनिसेगो।
निद्दापंचयस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडा-कोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती–कम्मनिसेगो।
दंसणचउक्कस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्ट तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। सम्पूर्ण कर्मस्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर कर्मनिषेक का काल है। निद्रापंचक की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य पल्योपम का असंख्या – तवाँ भाग कम, सागरोपम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 542 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगिंदिया णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं निद्दापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि।
एगिंदिया णं भंते! जीवा सातावेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
असायावेयणिज्जस्स जहा नाणावरणिज्जस्स।
एगिंदिया णं भंते! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! नत्थि किंचि बंधंति।
एगिंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स Translated Sutra: भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बाँधते हैं ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के तीन सप्तमांश और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का। इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का बन्ध भी जानना। एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 543 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बेइंदिया णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवम-पणुवीसाए तिन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं णिद्दापंचगस्स वि।
एवं जहा एगिंदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियव्वं, नवरं–सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियव्वा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणा, सेसं तं चेव, जत्थ एगिंदिया णं बंधंति तत्थ एते वि न बंधंति।
बेइंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवम-पणुवीसं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
तिरिक्खजोणियाउअस्स जहन्नेण Translated Sutra: भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बाँधते हैं। इसी प्रकार निद्रापंचक की स्थिति जानना। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति के समान द्वीन्द्रिय जीवों की | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-२ | Hindi | 569 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सवेदे जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। इत्थिवेद-पुरिसवेदेसु जीवादीओ तियभंगो। नपुंगसगवेदए जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। अवेदए जहा केवलनाणी। Translated Sutra: समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य सब सवेदी जीवों के, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी में, नपुंसक – वेदी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। अवेदी जीवों को केवलज्ञानी के समान कहना। | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-११ भाषा |
Gujarati | 378 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! मनुस्से महिसे आसे हत्थो सीहे वग्घे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोक्कंतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ? हंता गोयमा! मनुस्से जाव चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ।
अह भंते! मनुस्सा जाव चिल्ललगा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ? हंता गोयमा! मनुस्सा जाव चिल्ललगा सव्वा सा बहुवऊ।
अह भंते! मनुस्सी महिसी बलवा हत्थिणिया सीही वग्घी वगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरी सियाली विराली सुणिया कोलसुणिया कोक्कंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया जा यावन्ना तहप्पगारा सव्वा सा इत्थिवऊ? हंता गोयमा! मनुस्सी जाव Translated Sutra: ભગવન્ ! મનુષ્ય, પાડો, અશ્વ, હાથી, સિંહ, વાઘ, વરુ, દીપડો, રીંછ, તરક્ષ, ગડો, શિયાળ, બિલાડો, કૂતરો, શિકારી કૂતરો, લોંકડી, સસલો, ચિત્તો, ચિલ્લલક, તે સિવાયના બીજા તેવા પ્રકારના તે બધાં એકવચન છે ? ગૌતમ ! તેઓ એકવચન છે. ભગવન્ ! મનુષ્યો યાવત્ ચિલ્લલકો આદિ બધાં બહુવચન છે ? હા, ગૌતમ ! છે. ભગવન્ ! માનુષી, ભેંસ, ઘોડી, હાથણી, સિંહણ, વાઘણ, | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Gujarati | 3 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वायगवरवंसाओ तेवीसइमेणं धीरपुरिसेण ।
दुद्धरधरेणं मुनिना पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩. વાચક શ્રેષ્ઠ વંશમાં ત્રેવીશમાં, ધીરપુરુષ દુર્દ્ધર – ધર અને પૂર્વશ્રુત સમૃદ્ધ બુદ્ધિ એવા મુનિ વડે. સૂત્ર– ૪. શ્રુતસાગરથી વીણીને પ્રધાન શ્રુતરત્ન શિષ્યગણને આપ્યું, તે આર્યશ્યામને મારા નમસ્કાર. સૂત્ર સંદર્ભ– ૩, ૪ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Gujarati | 15 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं असंसारसमावन्नजीवपन्नवणा? असंसारसमावन्नजीवपन्नवणा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा य परंपरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा य। Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૫. અસંસાર સમાપન્ન જીવ પ્રજ્ઞાપના કેટલા ભેદે છે ? અસંસાર સમાપન્ન જીવ પ્રજ્ઞાપના બે ભેદે કહેલ છે – અનંતર સિદ્ધ અસંસાર સમાપન્ન જીવ પ્રજ્ઞાપના અને પરંપર સિદ્ધ અસંસાર સમાપન્ન જીવ પ્રજ્ઞાપના. સૂત્ર– ૧૬. અનંતર સિદ્ધ અસંસાર સમાપન્ન જીવ પ્રજ્ઞાપના કેટલા ભેદે છે ? પંદર ભેદે છે – ૧. તીર્થસિદ્ધ, અતીર્થસિદ્ધ, |