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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhaktaparigna | भक्तपरिज्ञा | Ardha-Magadhi |
आचरण, क्षमापना आदि |
Hindi | 69 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेलोक्कस्स पहुत्तं लद्धूण वि परिवडंति कालेणं ।
सम्मत्तं पुण लद्धं अक्खयसोक्खं लहइ मोक्खं ॥ Translated Sutra: तीन लोक की प्रभुता पाकर काल से जीव मरता है। लेकिन सम्यक्त्व पाने के बाद जीव अक्षय सुखवाला मोक्ष पाता है। | |||||||||
Bhaktaparigna | भक्तपरिज्ञा | Ardha-Magadhi |
आचरण, क्षमापना आदि |
Hindi | 77 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरिहंतनमुक्कारो एक्को वि हवेज्ज जो मरणकाले ।
सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारुच्छेयणसमत्थो ॥ Translated Sutra: यदि मौत के समय अरिहंत को एक भी नमस्कार हो तो वो संसार को नष्ट करने के लिए समर्थ हैं ऐसा जिनेश्वर भगवान ने कहा है। | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
मरण भेदानि |
Gujarati | 11 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अपरक्कमस्स काले अपहुप्पंतम्मि जं तमवियारं २ ।
तमहं भत्तपरिन्नं जहापरिन्नं भणिस्सामि ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૦ | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
आलोचना प्रायश्चित्त |
Gujarati | 12 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धिइबलवियलाणमकालमच्चुकलियाणमकयकरणाणं ।
निरवज्जमज्जकालियजईण जोग्गं निरुवसग्गं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૦ | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
आलोचना प्रायश्चित्त |
Gujarati | 22 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह सो आलोयणदोसवज्जियं उज्जुयं जहाऽऽयरियं ।
बालु व्व बालकालाउ देइ आलोयणं सम्मं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૯ | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
आचरण, क्षमापना आदि |
Gujarati | 46 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहवा समाहिहेउं सागारं चयइ तिविहमाहारं ।
तो पाणयं पि पच्छा वोसिरियव्वं जहाकालं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૩ | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
आचरण, क्षमापना आदि |
Gujarati | 58 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] काले अपहुप्पंते सामन्ने सावसेसिए इण्हिं ।
मोहमहारिउदारणअसिलट्ठिं सुणसु अनुसट्ठिं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૬ | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
आचरण, क्षमापना आदि |
Gujarati | 69 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेलोक्कस्स पहुत्तं लद्धूण वि परिवडंति कालेणं ।
सम्मत्तं पुण लद्धं अक्खयसोक्खं लहइ मोक्खं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૬૫ | |||||||||
Bhaktaparigna | ભક્તપરિજ્ઞા | Ardha-Magadhi |
आचरण, क्षमापना आदि |
Gujarati | 77 | Gatha | Painna-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरिहंतनमुक्कारो एक्को वि हवेज्ज जो मरणकाले ।
सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारुच्छेयणसमत्थो ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૬ | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-४ | Hindi | 121 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असनं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए।
से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा नो अन्नेसिं अनुप्पदेज्जा, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया।
तं अप्पणा भुंजमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं। Translated Sutra: साधु – साध्वी ने अशन आदि आहार प्रथम पोरिसी यानि कि प्रहर में ग्रहण किया है और अन्तिम तक का काल या दो कोश की हद से ज्यादा दूर के क्षेत्र तक अपने पास रखे या इस काल और क्षेत्र हद का उल्लंघन तक वो आहार रह जाए तो वो आहार खुद न खाए, अन्य साधु – साध्वी को न दे, लेकिन एकान्त में सर्वथा अचित्त स्थान पर परठवे। यदि ऐसा न करते | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-२ | Hindi | 54 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] उवस्सयस्स अंतो वगडाए सुरावियडकुंभे वा सोवीरयवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा। Translated Sutra: उपाश्रय के आँगन में मदिरा या मद्य के भरे घड़े रखे गए हो, अचित्त ऐसे ठंड़े या गर्म पानी के घड़े वहाँ भरे हो, वहाँ पूरी रात अग्नि सुलगता हो, जलता हो तो गीले हाथ की रेखा सूख जाए उतना काल रहना न कल्पे शायद गवेषणा करने के बावजूद भी दूसरा स्थान न मिले तो एक या दो रात्रि रहना कल्पे लेकिन यदि ज्यादा रहे तो जितने रात – दिन ज्यादा | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-१ | Hindi | 10 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयओ वत्थए। Translated Sutra: गाँव यावत् राजधानी में जिस स्थान पर एकवाड, एकद्वार, एकप्रवेश, निर्गमन स्थान हो वहाँ समकाल साधु – साध्वी को साथ रहना न कल्पे लेकिन अनेकवाड, अनेकद्वार, अनेक प्रवेश निर्गमन स्थान हो तो कल्पता है। वगडा यानि वाड, कोट, प्राकार ऐसा अर्थ होता है। गाँव या घर की सुरक्षा के लिए उसके आसपास दिवाल, वाड आदि बनाए हो वो, द्वार | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-१ | Hindi | 42 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असनं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्तए। Translated Sutra: साधु – साध्वी को रात को या विकाल को (संध्याकाल) १. पूर्वप्रतिलेखित शय्या संस्तारक छोड़कर अशन, पान, खादिम, स्वादिम लेना न कल्पे, उसी तरह, २. चोरी करके या लिनकर ले गए वस्त्र का इस्तमाल करके धोकर, रंगकर, वस्त्र पर की निशानी मिटाकर, फेरफार करके या सुवासित करके भी यदि कोई दे जाए तो ऐसे आहृत – चाहत वस्त्र अलावा के वस्त्र, | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-२ | Hindi | 58 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा लोयए वा खीरं वा दहिं वा सप्पिं वा नवनीए वा तेल्ले वा फाणियं वा पूवे वा सक्कुली वा सिहरिणी वा उक्खिण्णाणि वा विक्खिण्णाणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पकिण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। Translated Sutra: उपाश्रय के आँगन में मावा, दूध, दहीं, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मालपुआ, लड्डु, पूरी, शीखंड़, शिखरण रखे – फैले, ढ़ग के रूप में या छूटे पड़े हो तो साधु – साध्वी को वहाँ हाथ के पर्व की रेखा सूख जाए उतना काल रहना न कल्पे, लेकिन यदि अच्छी तरह से ढ़गरूप से, दीवार की ओर कुंड़ बनाकर, निशानी या अंकित करके या ढ़ँके हुए हो तो शर्दी – गर्मी में रहना | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-२ | Hindi | 73 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ अव्वोच्छिन्नाओ अव्वोगडाओ अनिज्जूढाओ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। Translated Sutra: (सागारिक एवं अन्य लोगों के लिए संयुक्त निष्पन्न भोजन में से) सागारिक का हिस्सा निश्चित् – पृथक् निर्धारित अलग न नीकाला हो और उसमें से कोई दे तो साधु – साध्वी को लेना न कल्पे, लेकिन यदि सागारिक का हिस्सा अलग किया गया हो और कोई दे तब लेना कल्पे। सूत्र – ७३, ७४ | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-४ | Hindi | 134 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे इच्छेज्जा एगंते बहुफासुए पएसे परिट्ठवेत्तए, अत्थि या इत्थ केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे, कप्पइ से सागारियकडं गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए पएसे परिट्ठवेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया। Translated Sutra: यदि कोई साधु रात को या विकाल संध्या के वक्त मर जाए तो उस मृत भिक्षु के शरीर को किसी वैयावच्च करनेवाले साधु एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश से परठने के लिए चाहे तब यदि वहाँ उपयोग में आ सके वैसा गृहस्थ का अचत्त उपकरण हो तो वो उपकरण गृहस्थ का ही है ऐसा मानकर ग्रहण करे। उससे उस मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त में सर्वथा | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-४ | Hindi | 135 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं अविओसवेत्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामानुगामं वा दूइज्जित्तए, गणाओ वा गणं संकमित्तए, वासावासं वा वत्थए।
जत्थेव अप्पणो आयरिय-उवज्झायं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं, तस्संतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउट्टेज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुट्ठेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा।
से य सुएण पट्ठविए आइयव्वे सिया, से य सुएण नो पट्ठविए नो आइयव्वे सिया। से य सुएण पट्ठविज्जमाणे नो आइयइ, से निज्जूहियव्वे Translated Sutra: यदि कोई साधु कलह करके उस कलह को उपशान्त न करे तो उसे गृहस्थ के घर में भक्त – पान के लिए प्रदेश – निष्क्रमण करना, स्वाध्याय भूमि या मल – मूत्र त्याग भूमि में प्रवेश करना, एक गाँव से दूसरे गाँव जाना, एक गण से दूसरे गण में जाना, वर्षावास रहना न कल्पे। जहाँ वो अपने बहुश्रुत या बहु आगमज्ञ आचार्य या उपाध्याय को देखे वहाँ | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-५ | Hindi | 153 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अनुप्पविट्ठस्स अंतोपडिग्गहंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा तं पुव्वामेव लाइया विसोहिया-विसोहिया ततो संजयामेव भुंजेज्ज वा पिबेज्ज वा।
तं च नो संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा नो अन्नेसिं दावए एगंते बहुफासुए पएसे पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया। Translated Sutra: कोई साधु – साध्वी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और पात्र में दो इन्द्रिय आदि जीव या सचित्त रज हुई देखे तो यदि उसे नीकालना या शोधना मुमकीन हो तो नीकाले या शोधन करे, यदि नीकालना या शोधन करना मुमकीन न हो तो वो आहार खुद न खाए, दूसरों को न दे, लेकिन किसी एकान्त अचित्त पृथ्वी का पड़िलेहण या प्रमार्जन करके वहाँ | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-५ | Hindi | 191 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पारियासियस्स आहारस्स जाव तयप्पमाणमेत्तमवि भूइप्पमाणमेत्तमवि बिंदुप्पमाणमेत्तमवि आहारमाहारित्तए, नन्नत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं। Translated Sutra: साधु – साध्वी को परिवासित (यानि रातमें रखा हुआ या कालातिक्रान्त ऐसे – १. तल जितना या चपटी जितना भी आहार करना और बूँद जितना भी पानी पीना, २. उग्र बीमारी या आतंक बिना अपने शरीर पर थोड़ा या ज्यादा लेप लगाना, ३. बीमारी या आतंक सिवा तेल, घी, मक्खन या चरबी लगाना या पिसना वो सब काम न कल्पे सूत्र – १९१–१९३ | |||||||||
BruhatKalpa | बृहत्कल्पसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-६ | Hindi | 198 | Sutra | Chheda-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथस्स य अहेपायंसि खाणू वा कंटए वा हीरे वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कमइ। Translated Sutra: साधु के पाँव के तलवे में तीक्ष्ण या सूक्ष्म काँटा – लकड़ा या पत्थर की कण लग जाए, आँख में सूक्ष्म जन्तु, बीज या रज गिरे और उसे खुद साधु या सहवर्ती साधु नीकालने के लिए या ढूँढ़ने के लिए समर्थ न हो तब साध्वी उसे नीकाले या ढूँढ़े तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता उसी तरह ऐसी मुसीबत साध्वी को हो तब साध्वी उसे नीकालने या | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 5 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कइ मंडलाइ वच्चइ? तिरिच्छा किं व गच्छइ?
ओभासइ केवइयं? सेयाइ किं ते संठिई? ॥ Translated Sutra: सूर्य एक वर्ष में कितने मण्डलों में जाता है ? कैसी तिर्यग् गति करता है ? कितने क्षेत्र को प्रकाशित करता है? प्रकाश की मर्यादा क्या है ? संस्थिति कैसी है ? उसकी लेश्या कहाँ प्रतिहत होती है ? प्रकाश संस्थिति किस तरह होती है ? वरण कौन करता है ? उदयावस्था कैसे होती है ? पौरुषीछाया का प्रमाण क्या है ? योग किसको कहते हैं? | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 12 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] छप्पंच य सत्तेव य, अट्ठ य तिन्नि य हवंति पडिवत्ती ।
पढमस्स पाहुडस्स उ, हवंति एयाओ पडिवत्ती ॥
[से त्तं पढमे पाहुडे पाहुड पाहुड पडिवती संखा] Translated Sutra: प्रथम प्राभृत में ये उनतीस परमतरूप प्रतिपत्तियाँ हैं। जैसे की – चौथे प्राभृतप्राभृत में छह, पाँचवे में पाँच, छट्ठे में सात, सातवे में आठ और आठवे में तीन प्रतिपत्तियाँ हैं। दूसरे प्राभृत के पहले प्राभृतप्राभृत में उदयकाल और अस्तकाल आश्रित घातरूप अर्थात् परमत की दो प्रतिपत्तियाँ हैं। तीसरे प्राभृतप्राभृत | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 15 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उदयम्मि अट्ठ भणिया, भेयघाए दुवे य पडिवत्ती ।
चत्तारिमुहुत्तगईए, हुंति तइयम्मि पडिवत्ती ॥
[से त्तं दोच्चे पाहुडे पाहुड पाहुड पडिवत्ती संखा] Translated Sutra: पहले प्राभृतप्राभृत में सूर्योदयकाल में आठ प्रतिपत्तियाँ कही हैं। दूसरे प्राभृतप्राभृत में भेदघात सम्बन्धी दो और तीसरे प्राभृतप्राभृत में मुहूर्त्तगति सम्बन्धी चार प्रतिपत्तियाँ है। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 20 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला नामं नयरी होत्था रिद्ध-त्थिमिय-समिद्धा, वण्णओ।
तीसे णं मिहिलाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं माणिभद्दे नामं चेइए होत्था–चिराईए, वण्णओ।
तीसे णं मिहिलाए नयरीए जियसत्तू नामं राया, धारिणी नामं देवी, वण्णओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तम्मि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। Translated Sutra: उस काल उस समय में मिथिला नामक नगरी थी। ऋद्धि सम्पन्न और समृद्ध ऐसे प्रमुदितजन वहाँ रहते थे। यावत् यह प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी। उस मिथिला नगरी के ईशानकोण में माणिभद्र नामक एक चैत्य था। वहाँ जितशत्रु राजा एवं धारिणी राणी थी। उस काल और उस समय में भगवान महावीर वहाँ पधारे। पर्षदा नीकली। धर्मोपदेश | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 21 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी– Translated Sutra: उस काल – उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति थी, जिनका गौतम गोत्र था, वे सात हाथ ऊंचे और समचतुरस्र संस्थानवाले थे यावत् उसने कहा। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 24 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता एयाए णं अद्धाए सूरिए ‘कइ मंडलाइं दुक्खुत्तो चरइ? ता चुलसीयं मंडलसयं चरइ– बासीतं मंडलसयं दुक्खुत्तो चरइ, तं जहा–निक्खममाणे चेव पविसमाणे चेव, दुवे य खलु मंडलाइं चारं चरइ, तं जहा– सव्वब्भंतरं चेव मंडलं सव्वबाहिरं चेव मंडलं। Translated Sutra: पूर्वोक्त कालमान में सूर्य कितने मंडलों में गति करता है ? वह १८४ मंडलों में गति करता है। १८२ मंडलों में दो बार गमन करता है। सर्व अभ्यन्तर मंडल से नीकलकर सर्व बाह्य मंडल में प्रविष्ट होता हुआ सूर्य सर्व अभ्य – न्तर तथा सर्व बाह्य मंडल में दो बार गमन करता है। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 35 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते तिरिच्छगती आहिताति वएज्जा? तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थ एगे एवमाहंसु–ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पादो मिरीची आगासंसि उत्तिट्ठइ, से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करेइ, करेत्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं मिरीयं आगासंसि विद्धंसइ– एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु–ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पादो सूरिए आगासंसि उत्तिट्ठइ, से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करेइ, करेत्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आगासंसि विद्धंसइ– एगे एवमाहंसु २
एगे पुण एवमाहंसु–ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पादो सूरिए आगासंसि उत्तिट्ठइ, से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करेइ, करेत्ता, पच्चत्थिमंसि Translated Sutra: हे भगवन् ! सूर्य की तिर्छी गति कैसी है ? इस विषय में आठ प्रतिपत्तियाँ हैं। (१) पूर्वदिशा के लोकान्त से प्रभातकाल का सूर्य आकाश में उदित होता है वह इस समग्र जगत् को तिर्छा करता है और पश्चिम लोकान्त में संध्या समय में आकाश में अस्त होता है। (२) पूर्वदिशा के लोकान्त से प्रातःकाल में सूर्य आकाश में उदित होता है, तिर्यक्लोक | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 36 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए चारं चरति आहिताति वएज्जा? तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थेगे एवमाहंसु–ता मंडलओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकमति–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु–ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निव्वेढेति २
तत्थ जेते एवमाहंसु–ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकमति, तेसि णं अयं दोसे, ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकमति एवतियं च णं अद्धं पुरतो न गच्छति, पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेति, तेसि णं अयं दोसे।
तत्थ जेते एवमाहंसु–ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निव्वेढेति, तेसि Translated Sutra: हे भगवन् ! एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण करता सूर्य कैसे गति करता है ? इस विषय में दो प्रति – पत्तियाँ हैं – (१) वह सूर्य भेदघात से संक्रमण करता है। (२) वह कर्णकला से गमन करता है। भगवंत कहते हैं कि जो भेदघात से संक्रमण बताते हैं उसमें यह दोष है कि भेदघात से संक्रमण करता सूर्य जिस अन्तर से एक मंडल से दूसरे मंडल | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 37 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता केयतियं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति आहिताति वएज्जा? तत्थ खलु इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थ एगे एवमाहंसु–ता छ छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु –ता पंच-पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु २
एगे पुण एवमाहंसु–ता चत्तारि-चत्तारि जोयणस-हस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु ३
एगे पुण एवमाहंसु–ता छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु ४
तत्थ जेते एवमाहंसु–ता छ-छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं Translated Sutra: हे भगवन् ! कितने क्षेत्र में सूर्य एकएक मुहूर्त्त में गमन करता है ? इस विषय में चार प्रतिपत्तियाँ हैं। (१) सूर्य एक – एक मुहूर्त्त में छ – छ हजार योजन गमन करता है। (२) पाँच – पाँच हजार योजन बताता है। (३) चार – चार हजार योजन कहता है। (४) सूर्य एक – एक मुहूर्त्त में छह या पाँच या चार हजार योजन गमन करता है जो यह कहते हैं | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 43 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते उदयसंठिती आहितेति वएज्जा? तत्थ खलु इमाओ तिन्नि पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थेगे एवमाहंसु–ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढेवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, ता जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढेवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढेवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, ता जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढेवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, ...
... एवं परिहावेतव्वं–सोलसमुहुत्ते दिवसे पन्नरसमुहुत्ते दिवसे Translated Sutra: सूर्य की उदय संस्थिति कैसी है ? इस विषय में तीन प्रतिपत्तियाँ हैं। एक परमतवादी कहता है कि जब जंबूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में अट्ठारह मुहूर्त्त का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी अट्ठारह मुहूर्त्त प्रमाण दिन होता है। जब उत्तरार्द्ध में अट्ठारह मुहूर्त्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध में भी अट्ठारह मुहूर्त्त | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 45 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कतिकट्ठे ते सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेति आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थेगे एवमाहंसु–ता अनुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेति आहितेति वदेज्जा–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु–ता अनुमुहुत्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेति आहितेति वएज्जा २
एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्वं, ता जाओ चेव ओयसंठितीए पणवीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव नेयव्वाओ जाव अनुओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेति आहिताति वदेज्जा–एगे एवमाहंसु २५।
वयं पुण एवं वयामो–ता सूरियस्स णं उच्चत्तं च लेसं च पडुच्च छाउद्देसे, उच्चत्तं च छायं च पडुच्च Translated Sutra: कितने प्रमाणवाली पौरुषी छाया को सूर्य निवर्तित करता है ? इस विषय में पच्चीस प्रतिपत्तियाँ हैं – जो छठ्ठे प्राभृत के समान समझ लेना। जैसे की कोई कहता है कि अनुसमय में सूर्य पौरुषी छाया को उत्पन्न करता है, इत्यादि। भगवंत फरमाते हैं कि सूर्य से उत्पन्न लेश्या के सम्बन्ध में यथार्थतया जानकर मैं छायोद्देश कहता | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 50 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते जोगस्स आदी आहिंतेति वदेज्जा? ता अभीईसवणा खलु दुवे नक्खत्ता पच्छंभागा समक्खेत्ता सातिरेग-ऊतालीसइमुहुत्ता तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ततो पच्छा अवरं सातिरेगं दिवसं–एवं खलु अभिईसवणा दुवे नक्खत्ता एगं रातिं एगं च सातिरेगं दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, जोएत्ता जोयं अनुपरियट्टंति, अनुपरियट्टित्ता सायं चंदं धनिट्ठाणं समप्पेंति।
ता धनिट्ठा खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, जोएत्ता ततो पच्छा रातिं अवरं च दिवसं–एवं खलु धनिट्ठा नक्खत्ते एगं रातिं एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, Translated Sutra: नक्षत्रों के चंद्र के साथ योग का आदि कैसे प्रतिपादित किया है ? अभिजीत् और श्रवण ये दो नक्षत्र पश्चात् भागा समक्षेत्रा है, वे चन्द्रमा के साथ सातिरेक ऊनचालीश मुहूर्त्त योग करके रहते हैं अर्थात् एक रात्रि और सातिरेक एक दिन तक चन्द्र के साथ व्याप्त रह कर अनुपरिवर्तन करते हैं और शाम को चंद्र धनिष्ठा के साथ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 76 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते मासा आहिताति वदेज्जा? ता एगमेगस्स णं संवच्छरस्स बारस मासा पन्नत्ता। तेसिं च दुविहा णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा–लोइया लोउत्तरिया य। तत्थ लोइया नामा ‘इमे, तं जहा’–सावणे भद्दवते अस्सोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फग्गुणे चित्ते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे। लोउत्तरिया नामा ‘इमे, तं जहा’– Translated Sutra: हे भगवन् ! गति भेद किस प्रकार से है ? गतिभेद (चार) दो प्रकार से है – सूर्यचार और चन्द्रचार। चंद्र चार – पाँच संवत्सरात्मक युग काल में अभिजीत नक्षत्र ६७ चार से चंद्र का योग करता है, श्रवण नक्षत्र ६७ चार से चन्द्र का योग करता है यावत् उत्तराषाढ़ा भी ६७ चार से चन्द्र के साथ योग करता है। आदित्यचार – भी इसी प्रकार समझना, | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 94 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ खलु इमाओ बावट्ठिं पुण्णिमासिणीओ बावट्ठिं अमावासाओ पन्नत्ताओ।
ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमं बावट्ठिं पुण्णिमासिणिं जोएति ताओ पुण्णिमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएति।
ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ता जंसि णं देसंसि चंदे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएति ताओ पुण्णिमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोच्चं Translated Sutra: इन ५६नक्षत्रोंमें ऐसे कोई नक्षत्र नहीं है जो सदा प्रातःकाल में चन्द्र से योग करके रहते हैं। सदा सायंकाल और सदा उभयकाल चन्द्र से योग करके रहनेवाला भी कोई नक्षत्र नहीं है। केवल दो अभिजीत नक्षत्र ऐसे हैं जो चुंवालीसवी – चुंवालीसवी अमावास्या में निश्चितरूप से प्रातःकाल में चन्द्र से योग करते हैं, पूर्णिमा | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 103 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कति णं संवच्छरा आहिताति वदेज्जा? तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पन्नत्ता, तं जहा–नक्खत्ते चंदे उडू आदिच्चे अभिवड्ढिते।
ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स नक्खत्तसंवच्छरस्स नक्खत्तमासे तीसइमुहुत्तेणं अहोरत्तेणं मिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वएज्जा? ता सत्तावीसं राइंदियाइं एक्कवीसं च सत्तट्ठिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा।
ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा? ता अट्ठसए एगूणवीसे मुहुत्ताणं सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा। ता एस णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा नक्खत्ते संवच्छरे।
ता Translated Sutra: हे भगवन् ! संवत्सर का प्रारंभ किस प्रकार से कहा है ? निश्चय से पाँच संवत्सर कहे हैं – चांद्र, चांद्र, अभिवर्धित, चांद्र और अभिवर्धित। इसमें जो पाँचवे संवत्सर का पर्यवसान है वह अनन्तर पुरस्कृत समय यह प्रथम संवत्सर की आदि है, द्वितीय संवत्सर की जो आदि है वहीं अनन्तर पश्चात्कृत् प्रथम संवत्सर का समाप्ति काल | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 109 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं हेमंतिं आउट्टिं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति? ता हत्थेणं, हत्थस्स णं पंच मुहुत्ता पन्नासं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं सत्तट्ठिधा छेत्ता सट्ठिं चुण्णिया भागा सेसा। तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए।
ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं हेमंतिं आउट्टिं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति? ता सतभिसयाहिं, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता छत्तालीसं चुण्णिया भागा सेसा। तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएति? Translated Sutra: एक युग में पाँच वर्षाकालिक और पाँच हैमन्तिक ऐसी दश आवृत्ति होती है। इस पंच संवत्सरात्मक युग में प्रथम वर्षाकालिक आवृत्ति में चंद्र अभिजीत नक्षत्र से योग करता है, उस समय में सूर्य पुष्य नक्षत्र से योग करता है, पुष्य नक्षत्र से उनतीस मुहूर्त्त एवं एक मुहूर्त्त के तेयालीस बासठांश भाग तथा बासठवें भाग को सडसठ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 110 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ खलु इमे दसविधे जोए पन्नत्ते, तं जहा–वसभाणुजाते वेणुयाणुजाते मंचे मंचातिमंचे छत्ते छत्तातिछत्ते जुयणद्धे घनसमंद्दे पीणिते मंडूकप्पुत्ते नामं दसमे।
ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं छत्तातिच्छत्तं जोयं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सत्तेणं छेत्ता दाहिण-पुरत्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता अट्ठावीसतिभागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहिं कलाहिं दाहिणपुरत्थिमिल्लं चउब्भागमंडलं असंपत्ते, एत्थ णं से चंदे छत्तातिच्छत्तं जोयं जोएति, Translated Sutra: इस पंच संवत्सरात्मक युग में प्रथम हैमन्तकालिकी आवृत्ति में चंद्र हस्तनक्षत्र से और सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से योग करता है, दूसरी हैमन्तकालिकी आवृत्ति में चंद्र शतभिषा नक्षत्र से योग करता है, इसी तरह तीसरी में चन्द्र का योग पुष्य के साथ, चौथी में चन्द्र का योग मूल के साथ और पाँचवी हैमन्तकालिकी आवृत्ति में | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 113 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कति मंडलाइं चरति? ता चोद्दस चउब्भागमंडलाइं चरति, एगं च चउव्वीससयभागं मंडलस्स।
ता आदिच्चेणं अद्धमासेणं चंदे कति मंडलाइं चरति? ता सोलस मंडलाइं चरति, सोलस-मंडलचारी तदा अवराइं खलु दुवे अट्ठकाइं जाइं चंदे केणइ असामण्णकाइं सयमेव पविट्ठित्ता-पविट्ठित्ता चारं चरति।
कतराइं खलु ताइं दुवे अट्ठकाइं जाइं चंदे केणइ असामण्णकाइं सयमेव पविट्ठित्ता-पविट्ठित्ता चारं चरति? ता इमाइं खलु ते बे अट्ठकाइं जाइं चंदे केणइ असामण्णकाइं सयमेव पविट्ठित्ता-पविट्ठित्ता चारं चरति, तं जहा–निक्खममाणे चेव अमावासंतेणं, पविसमाणे चेव पुण्णिमासिंतेणं। एताइं खलु Translated Sutra: निश्चय से एक युग में बासठ पूर्णिमा और बासठ अमावास्या होती है, बासठवीं पूर्णिमा सम्पूर्ण विरक्त और बासठवीं अमावास्या सम्पूर्ण रक्त होती है। यह १२४ पक्ष हुए। पाँच संवत्सर काल से यावत् किंचित् न्यून १२४ प्रमाण समय असंख्यात समय देशरक्त और विरक्त होता है। अमावास्या और पूर्णिमा का अन्तर ४४२ मुहूर्त्त एवं | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 120 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते चयणोववाता आहिताति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ। तत्थ एगे एवमाहंसु–ता अनुसमयमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जंति–एगे एवमाहंसु १ एगे पुण एवमाहंसु–ता अनुमुहुत्तमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जंति २ एवं जहेव हेट्ठा तहेव जाव ता एगे पुण एवमाहंसु–ता अणुओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जंति–एगे एवमाहंसु २५।
वयं पुण एवं वदामो–ता चंदिमसूरिया णं देवा महिड्ढिया महाजुतीया महाबला महाजसा महाणुभावा महासोक्खा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वरगंधधरा वराभरणधरा अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाए काले अण्णे चयंति Translated Sutra: हे भगवन् ! ज्योत्सना स्वरूप कैसे कहा है ? चंद्रलेश्या और ज्योत्सना दोनों एकार्थक शब्द हैं, एक लक्षण वाले हैं। सूर्यलेश्या और आतप भी एकार्थक और एक लक्षणवाले हैं। अन्धकार और छाया भी एकार्थक और एक लक्षणवाले हैं। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 121 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थेगे एवमाहंसु–ता एगं जोयणसहस्सं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, दिवड्ढं चंदे–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु–ता दो जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाइं चंदे–एगे एवमाहंसु २
एगे पुण एवमाहंसु–ता तिन्नि जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धट्ठाइं चंदे–एगे एवमाहंसु ३
एगे पुण एवमाहंसु–ता चत्तारि जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाइं चंदे–एगे एवमाहंसु ४
एगे पुण एवमाहंसु–ता पंच जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धछट्ठाइं चंदे–एगे एवमाहंसु ५
एगे पुण एवमाहंसु–ता Translated Sutra: हे भगवन् ! इनका च्यवन और उपपात कैसे कहा है ? इस विषय में पच्चीस प्रतिपत्तियाँ हैं – एक कहता है कि अनुसमय में चंद्र और सूर्य अन्यत्र च्यवते हैं, अन्यत्र उत्पन्न होते हैं…यावत्… अनुउत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में अन्यत्र च्यवते हैं – अन्यत्र उत्पन्न होते हैं। समस्त पाठ प्राभृत – छह के अनुसार समझ लेना। भगवंत फरमाते | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 131 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता जोतिसिया णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससतसहस्समब्भहियं।
ता जोतिसिणीणं देवीणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पन्नासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं।
ता चंदविमाने णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं।
ता चंदविमाने णं देवीणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पन्नासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं।
ता सूरविमाने णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? Translated Sutra: ज्योतिष्केन्द्र चंद्र की चार अग्रमहिषीयाँ हैं – चंद्रप्रभा, ज्योत्सनाभा, अर्चिमालिनी एवं प्रभंकरा; एक एक पट्टराणी का चार – चार हजार देवी का परिवार है, वह एक – एक देवी अपने अपने ४००० रूपों की विकुर्वणा करती हैं इस तरह १६००० देवियों की एक त्रुटीक होती है। वह चंद्र चंद्रावतंसक विमान में सुधर्मासभा में उन देवियों | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 145 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता धायईसंडं णं दीवे कालोए नामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जाव नो विसमचक्कवाल-संठाणसंठिते।
ता कालोए णं समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा? ता कालोए णं समुद्दे अट्ठ जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते, एक्कानउतिं जोयणसत-सहस्साइं सत्तरिं च सहस्साइं छच्च पंचुत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा।
ता कालोए णं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसु वा पुच्छा। ता कालोए समुद्दे बातालीसं चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, बातालीसं सूरिया तवेंसु वा तवेंति वा तविस्संति वा, एक्कारस बावत्तरा Translated Sutra: देखो सूत्र १४४ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 146 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एक्कानउतिं सतराइं, सहस्साइं परिरओ तस्स ।
अहियाइं छच्च पंचुत्तराइं कालोदधिवरस्स ॥ Translated Sutra: कालोद नामक समुद्र जो वृत्त, वलयाकार एवं समचक्रविष्कम्भ वाला है वह चारों ओर से धातकीखण्ड को घीरे हुए रहा है। उसका चक्रवाल विष्कम्भ आठ लाख योजन और परिधि ९१७०६०५ योजन से किंचित् अधिक है। कालोद समुद्र में ४२ चंद्र प्रभासित होते थे – होते हैं और होंगे, ४२ – सूर्य तापित करते थे – करते हैं और करेंगे, ११७६ नक्षत्रों | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 147 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] बातालीसं चंदा, बातालीसं च दिनकरा दित्ता ।
कालोदहिंमि एते, चरंति संबद्धलेसागा ॥ Translated Sutra: कालोद समुद्र की परिधि साधिक ९१७०६०५ योजन है। कालोद समुद्र में ४२ – चंद्र, ४२ – सूर्य दिप्त हैं, वह सम्बद्धलेश्या से भ्रमण करते हैं। कालोद समुद्र में ११७६ नक्षत्र एवं ३६९६ महाग्रह हैं। उसमें २८,१२९५० कोड़ाकोड़ी तारागण हैं। सूत्र – १४७–१५० | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 149 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठावीसं कालोदहिंमि बारस य सहस्साइं ।
नव य सता पन्नासा, तारागणकोडिकोडीणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४७ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 150 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कालोयं णं समुद्दं पुक्खरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति।
पुक्खरवरे णं दीवे किं समचक्कवालसंठिते? विसमचक्कवालसंठिते? ता समचक्कवाल-संठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते।
ता पुक्खरवरे णं दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं? ता सोलस जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बानउतिं च सतसहस्साइं अउणानउतिं च सहस्साइं अट्ठचउनउते जोयणसते परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा।
ता पुक्खरवरे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा पुच्छा तहेव। ता चोतालं चंदसतं पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, चोतालं सूरियाणं Translated Sutra: देखो सूत्र १४७ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 151 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कोडी बानउत्ती खलु, अउणानउतिं भवे सहस्साइं ।
अट्ठसता चउनउता, य परिरओ पोक्खरवरस्स ॥ Translated Sutra: पुष्करवर नामका वृत्त – वलयाकार यावत् समचक्रवाल संस्थित द्वीप है कालोद समुद्र को चारों ओर से घीरे हुए है। पुष्करवर द्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ सोलह लाख योजन है और उसकी परिधि १,९२,४९,८४९ योजन है। पुष्करवरद्वीप में १४४ चंद्र प्रभासित हुए हैं – होते हैं और होंगे, १४४ सूर्य तापीत करते थे – करते हैं और करेंगे, ४०३२ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 179 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] केणं वड्ढति चंदो, परिहानी केण होति चंदस्स ।
कालो वा जोण्हो वा, केननुभावेण चंदस्स ॥ Translated Sutra: सूर्य – चंद्र का तापक्षेत्र मार्ग कलंबपुष्प के समान है, अंदर से संकुचित और बाहर से विस्तृत होता है। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 181 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] बावट्ठिं-बावट्ठिं, दिवसे-दिवसे तु सुक्कपक्खस्स ।
जं परिवड्ढति चंदो, खवेइ तं चेव कालेणं ॥ Translated Sutra: कृष्णराहु का विमान अविरहित – नित्य चंद्र के साथ होता है, वह चंद्र विमान से चार अंगुल नीचे विचरण करता है। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 183 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं वड्ढति चंदो, परिहानी एव होइ चंदस्स ।
कालो वा जोण्हो वा, एयनुभावेण चंदस्स ॥ Translated Sutra: पन्द्रह भाग से पन्द्रहवे दिन में चंद्र उस का वरण करता है और पन्द्रह भाग से पुनः उस का अवक्रम होता है। |