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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 34 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कट्टु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवा-गच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अनुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुप्फं पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए? से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके जाए जले संवड्ढिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव मेहे Translated Sutra: मेघकुमार के माता – पिता मेघकुमार को आगे करके जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा तरफ से आरंभ करके प्रदक्षिणा करते हैं। वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं। फिर कहते हैं – हे देवानुप्रिय ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। प्राणों के समान और उच्छ्वास के समान है। हृदय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 35 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, आलित्त पलित्ते णं भंते! लोए जराए मरणेण य। से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि ज्झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए तं गहाय आयाए एगंतं अवक्कमइ–एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य लोए हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे। एस मे नित्थारिए Translated Sutra: मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आया। भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की। फिर वन्दन – नमस्कार किया और कहा – भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से आदीप्त है, यह संसार प्रदीप्त है। हे भगवन् ! यह संसार आदीप्त – प्रदीप्त है। जैसे कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 36 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जद्दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जा संथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जा-संथारए जाए यावि होत्था।
तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चा-रस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टेंति अप्पेगइया पाएहिं संघट्टेंति अप्पे गइया सीसे संघट्टेंति अप्पेटइया पीट्ठे संघट्टेंति अप्पेगइया कायंसि संघट्टेंति अप्पेगइया ओलंडेंति अप्पेगइया पोलंडेंति Translated Sutra: जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगिकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम में अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्ग्रन्थों के शय्या – संस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकुमार का शय्या – संस्तारक द्वार के समीप हुआ। तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात् अन्य | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 37 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं मेहा! इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी–से नूनं तुमं मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणेहि य निग्गच्छमाणेहि य अप्पेगइएहिं हत्थेहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं पाएहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं सीसे संघट्टिए अप्पेगइएहिं पोट्टे संघट्टिए अप्पेगइएहिं कायंसि संघट्टिए अप्पेगइएहिं ओलंडिए अप्पेगइएहिं पोलंडिए अप्पेगइएहिं पाय-रय-रेणु-गुंडिए कए। एमहालियं च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं निमिल्लावेत्तए। तए णं तुज्ज मेहा! इमेयारूवे अज्झत्थिए Translated Sutra: तत्पश्चात् ‘हे मेघ’ इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मेघकुमार से कहा – ‘हे मेघ! तुम रात्रि के पहले और पीछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मींच सके। मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 38 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुमं मेहा! आनुपुव्वेणं गब्भवासाओ निक्खंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमनुप्पत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए।
तं जइ ताव तुमे मेहा! तिरिक्ख-जोणियभावमुवगएणं अपडिलद्ध-सम्मत्तरयण-लंभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए अंतरा चेव संघारिए, नो चेव णं निक्खित्ते। किमंग पुण तुमं मेहा! इयाणिं विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहयसरीर-दंतलद्धपंचिंदिए णं एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार-परक्कमसंजुत्ते णं मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसयंसि वायणाए पुच्छणाए Translated Sutra: तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आए – तुम्हारा जन्म हुआ। बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए। तब मेरे निकट मुण्डित होकर गृहवास से अनगार हुए। तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंच योनिरूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व – रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 39 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे अनगारे अन्नया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।
तए णं से मेहे अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।
मासियं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ किट्टेइ, सम्मं काएणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि Translated Sutra: तत्पश्चात् उन मेघ अनगार ने किसी अन्य समय श्रमण भगवान महावीर की वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना – नमस्कार करके कहा – ‘भगवन् ! मैं आपकी अनुमति पाकर एक मास की मर्यादा वाली भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार करके विचरने की ईच्छा करता हूँ। भगवान् ने कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध न करो, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 40 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे अनगारे तेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महानुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे किडि-किडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था–जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा तिलंडासगडिया इ वा एरंडसगडिया इ वा उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, एवामेव मेहे अनगारे ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, उवचिए Translated Sutra: तत्पश्चात् मेघ अनगार उस उराल, विपुल, सश्रीक – प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी – शिव – धन्य, मांगल्य – उदग्र, उदार, उत्तम महान प्रभाव वाले तपःकर्म से शुष्क – नीरस शरीर वाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए। उठते – उठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गई। शरीर कृश | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 41 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नामं अनगारे से णं भंते! मेहे अनगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी मेहे नामं अनगारे पगइभद्दए जाव विनीए, से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता, बारस भिक्खुपडिमाओ गुण-रयण-संवच्छरं तवोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव किट्टेत्ता, मए अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेत्ता, तहारूवेहिं कडादीहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहित्ता, Translated Sutra: ‘भगवन् !’ इस प्रकार कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे। भगवन् ! यह मेघ अनगार काल – मास में काल करके किस गति में गए ? और किस जगह उत्पन्न हुए ? ‘हे गौतम !’ इस प्रकार कहकर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 42 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, बितियस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गुणसिलए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते, एत्थ णं महं एगं जिण्णुज्जाणे यावि होत्था–विनट्ठदेवउल-परिसडियतोरणघरे नानाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-वच्छच्छाइए अनेग-वालसय-संकणिज्जे यावि होत्था।
तस्स णं जिण्णुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे भग्गकूवे यावि होत्था।
तस्स णं भग्गकूवस्स Translated Sutra: श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं – ‘भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने द्वीतिय ज्ञाता – ध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में – जब राजगृह नामक नगर था। (वर्णन) उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि उस राजगृह नगर से बाहर ईशान कोण में – | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 43 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे–अड्ढे दित्ते वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन-जान-वाहणाइण्णे बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए बहुधन-बहुजायरूवरयए आओग-पओग-संपउत्ते विच्छड्डिय-विउल-भत्तपाणे।
तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था–सुकुमालपाणिपाया अहीनपडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरा लक्खण-वंजण-गुणोववेया मानुम्मान-प्पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगी ससि-सोमागार-कंत-पियदंसणा सुरूवा करयल-परिमिय-तिवलिय-वलियमज्झा कुंडलुल्लिहिय-गंडलेहा कोमुइ-रयणियर-पडिपुण्ण-सोमवयणा सिंगारागार-चारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयार-कुसला Translated Sutra: राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह था। वह समृद्धिशाली था, तेजस्वी था, घर में बहुत – सा भोजन – पानी तैयार होता था। उस धन्य सार्थवाह की पत्नी का नाम भद्रा था। उसके हाथ पैर सुकुमार थे। पाँचों इन्द्रियाँ हीनता से रहित परिपूर्ण थीं। वह स्वस्तिक आदि लक्षणों तथा तिल मसा आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त थीं। मान, उन्मान | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 44 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स पंथए नामं दासचेडे होत्था–सव्वंगसुंदरंगे मंसोवचिए बालकीलावण-कुसले यावि होत्था।
तए णं से धने सत्थवाहे रायगिहे नयरे बहूणं नगर-निगम-सेट्ठि-सत्थवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणिप्प-सेणीणं बहूसु कज्जेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य जाव चक्खुभूए यावि होत्था। नियगस्स वि य णं कुडुंबस्स बहूसु कज्जेसु य जाव चक्खुभूए यावि होत्था। Translated Sutra: उस धन्य सार्थवाह का पंथक नामक एक दास – चेटक था। वह सर्वांग – सुन्दर था, माँस से पुष्ट था और बालकों को खेलाने में कुशल था। वह धन्य सार्थवाह राजगृह नगर में बहुत से नगर के व्यापारियों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों के तथा अठारहों श्रेणियों और प्रश्रेणियों के बहुत से कार्यो में, कुटुम्बों में कुटुम्ब सम्बन्धी विषयों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 45 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं रायगिहे नयरे विजए नामं तक्करे होत्था–पावचंडाल-रूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसिय-दित्त-रत्तनयणे खरफ-रुस-महल्ल-विगय-बीभच्छदाढिए असंपुडियउट्ठे उद्धूय-पइण्ण-लंबंभमुद्धए भमर-राहुवण्णं निरनुक्कोसे निरनुतावे दारुणे पइभए निसंसइए निरनुकंपे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरेव एगंतधाराए गिद्धेव आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी जलमिव सव्वग्गाही उक्कंचण-वंचण-माया-नियडि-कूड-कवड-साइ-संपओग-बहुले चिरनगरविनट्ठ-दुट्ठसीलायार-चरित्ते जूयप्पसंगी मज्जप्पसंगी भोज्जप्पसंगी मंसप्पसंगी दारुणे हिययदारए साहसिए संधिच्छेयए उवहिए विस्संभघाई आलीवग-तित्थभेय-लहुहत्थसंपउत्ते परस्स Translated Sutra: उस राजगृह में विजय नामक एक चोर था। वह पापकर्म करने वाला, चाण्डाल के समान रूपवाला, अत्यन्त भयानक और क्रूर कर्म करने वाला था। क्रुद्ध हुए पुरुष के समान देदीप्यमान और लाल उसके नेत्र थे। उसकी दाढ़ी या दाढ़े अत्यन्त कठोर, मोटी, विकृत और बीभत्स थीं। उसके होठ आपस में मिलते नहीं थे, उसके मस्तक के केश हवा से उड़ते रहते थे, | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 46 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहं धनेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूणि वासाणि सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाणि मानुस्सगाइं कामभोगाइं पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि।
तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं मानुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासिं मन्ने नियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्ध-लुद्धयाइं Translated Sutra: धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ। बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ, शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पाँचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 47 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था।
तए णं तीसे भद्दाए सत्थवाहीए तस्स गब्भस्स दोसु मासेसु वीइक्कंतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउब्भूए–धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाओ णं विउलं असनं पानं खाइमं साइमं सुबहुयं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियण-महिलियाहिं सद्धिं संपरिवुडाओ रायगिहं नयरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोक्खरिणिं ओगाहेंति, ओगाहित्ता ण्हा-याओ कयवलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ Translated Sutra: तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा के दिन विपुल अशन, पान, खादिम और भोजन तैयार करती। बहुत से नाग यावत् वैश्रमण देवों की मनौती करती और उन्हें नमस्कार किया करती थी। वह भद्रा सार्थवाही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर एकदा गर्भवती हो गई। भद्रा सार्थवाही को दो मास बीत गए। तीसरा मास | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 48 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए, देवदिन्नं दारगं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता बहूहिं डिंभएहिं य डिंभियाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे अभिरमइ।
तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ देवदिन्नं दारयं ण्हायं कयबलिकम्मं कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वा लंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता पंथयस्स दासचेडगस्स हत्थयंसि दलयइ।
तए णं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्थवाहीए हत्थाओ देवदिन्नं दारगं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, बहूहिं डिंभएहि य डिंभियाहि य दारएहि य दारियाहिं य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे Translated Sutra: तत्पश्चात् वह पंथन नामक दास चेटक देवदत्त बालक का बालाग्रही नियुक्त हुआ। वह बालक देवदत्त को कमर में लेता और लेकर बहुत – से बच्चों, बच्चियों, बालकों, बालिकाओं, कुमारों और कुमारियों के साथ, उनसे परिवृत्त होकर खेलता रहता था। भद्रा सार्थवाही ने किसी समय स्नान किये हुए, बलिकर्म, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किये | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 49 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पंथए दासचेडए तओ मुहुत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ। देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुइं वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धने सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धनं सत्थवाहं एवं वयासी–एवं खलु सामी! भद्दा सत्थवाही देवदिन्नं दारयं ण्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं मम हत्थंसि दलयइ। तए णं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हामि, गिण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमामि, बहूहिं डिंभएहि य डिंभियाहि य Translated Sutra: तत्पश्चात् वह पंथक नामक दास चेटक थोड़ी देर बाद जहाँ बालक देवदत्त को बिठाया था, वहाँ पहुँचा। उसने बालक देवदत्त को उस स्थान पर न देखा। तब वह रोता, चिल्लाता, विलाप करता हुआ सब जगह उसकी ढूंढ – खोज करने लगा। मगर कहीं भी उसे बालक देवदत्त की खबर न लगी, छींक वगैरह का शब्द न सुनाई दिया, न पता चला। तब जहाँ धन्य सार्थवाह था, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 50 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोढं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता अट्ठि-मुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महिय-गत्तं करेंति, करेत्ता अवउडा बंधनं करेंति, करेत्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधंति, बंधित्ता मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिहं नयरं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह Translated Sutra: तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया। धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई। आयुध और प्रहरण ग्रहण किये। फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत – से नीकलने के मार्गों यावत् दरवों, पीछे खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 51 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से धने सत्थवाहे अन्नया कयाइं लहुसयंसि रायावराहंसि संपलित्ते जाए यावि होत्था।
तए णं ते नगरगुत्तिया धनं सत्थवाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव चारए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चारगं अनुप्पवेसंति, अनुप्पवेसित्ता विजएणं तक्करेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधनं करेंति।
तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते विपुलं असनं पानं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, भोयणपिडयं करेइ, करेत्ता भोयणाइं पक्खिवइ, लंछिय-मुद्दियं करेइ, करेत्ता एगं च सुरभि वारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ, करेत्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी समय धन्य सार्थवाह को चुगलखोरों ने छोटा – सा राजकीय अपराध लगा दिया। तब नगर – रक्षकों ने धन्य सार्थवाह को गिरफ्तार कर लिया। कारागार में ले गए। कारागार में प्रवेश कराया और विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी में बांध दिया। भद्रा आर्या ने अगले दिन यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 52 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथगस्स दासचेडगस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसि मिसेमाणी धनस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ।
तए णं से धने सत्थवाहे अन्नया कयाइं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ, मोयावेत्ता चारगसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारियकम्मं कारवेइ जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहधोयमट्टियं गेण्हइ, गेण्हित्ता पोक्ख-रिणीं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए Translated Sutra: तब भद्रा सार्थवाही दास चेटक पंथक के मुख से यह अर्थ सूनकर तत्काल लाल हो गई, रुष्ट हुई यावत् मिसमिसाती हुई धन्य सार्थवाह पर प्रद्वेष करने लगी। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को किसी समय मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिवार के लोगों ने अपने साभूत अर्थ से – राजदण्ड से मुक्त कराया। मुक्त होकर वह कारागार से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 53 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा जाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगि-ण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
परिसा निग्गया धम्मो कहिओ।
तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स बहुजनस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा इहमागया इहसंपत्ता। तं गच्छामि? णं थेरे भगवंते वंदामि नमंसामि एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर भगवंत जाति से उत्पन्न, कुल से सम्पन्न, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे – रहे। उनका आगमन जानकर परिषद नीकली। धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना दी। तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 54 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जहा णं जंबू! धनेणं सत्थवाहेणं नो धम्मो त्ति वा तवो त्ति वा कयपडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा नायए इ वा घाडियए इ वा सहाए इ वा सुहि त्ति वा विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असन-पान-खाइम-साइमाओ संविभागे कए, नण्णत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए।
एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए समाणे ववगय-ण्हाणुमद्दण-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालिय-सरीरस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा तं विपुलं असनं पानं खाइमं साइमं आहारमाहारेइ, नन्नत्थ नाणदंसणचरित्ताणं बहणट्ठयाए, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं Translated Sutra: जम्बू ! जैसे धन्य सार्थवाह ने ‘धर्म है’ ऐसा समझकर या तप, प्रत्युपकार, मित्र आदि मानकर विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया था, सिवाय शरीर की रक्षा करने के। इसी प्रकार हे जम्बू ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर स्नान, उपामर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार आदि शृंगार को | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 55 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स नायाधम्मकहाणं अयमट्ठे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे– सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे सुरम्मे नंदनवणे इव सुह-सुरभि-सीयलच्छायाए समनुबद्धे।
तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं एगा वनमयूरी दो पुट्ठे परियागए पिट्टुंडी-पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पसवइ, पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वीतिय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो तीसरे अध्ययन का क्या फरमाया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। (वर्णन) उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के फूलों – फलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था। नन्दन | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 56 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–जण्णं देवानुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा नित्थरियव्वं ति कट्टु अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। Translated Sutra: तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए एक घर में आए और एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुआ – ‘हे देवानुप्रिय ! जो भी हमें सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश – गमन प्राप्त हो, उस सबका हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए।’ इस प्रकार कहकर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 57 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ–अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन-जाण-वाहणा बहुधन-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छिड्डिय-पउर-भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसट्ठिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला नवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- हसिय-भणिय- चेट्ठिय-विलाससंलावुल्लाव- निउण-जुत्तोवयार-कुसला ऊसियज्झया सहस्सलंभा विदिण्णछत्त-चामर-बालवीयणिया कण्णीरहप्पयाया वि होत्था।
बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं Translated Sutra: उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी। वह समृद्ध थी, वह बहुत भोजन – पान वाली थी। चौंसठ कलाओं में पंडिता थीं। गणिका के चौंसठ गुणों से युक्त थीं। उनतीस प्रकार की विशेष क्रिडाएं करने वाली थी। कामक्रीड़ा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी। उसके सोते हुए | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 58 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते सत्थवाहदारगा पुव्वावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धिं थूणामंडवाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता हत्थसंगेल्लीए सुभूमिभागे उज्जाणे बहूसु आलिघरएसु य कयलिघरएसु य लत्ताघरएसु य अच्छणघरएसु य पेच्छणघरएसु य पसाहणघरएसु य मोहणघरएसु य सालघरएसु य जालघरएसु य कुसुमघरएसु य उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। Translated Sutra: तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र दिन के पीछले प्रहर में देवदत्ता गणिका के साथ स्थूणामंडप से बाहर नीकलकर हाथ में हाथ जालकर, सुभूमिभाग में बने हुए आलिनामक वृक्षों के गृहों में, कदली – गृहों में, लतागृहों में, आसन गृहों में, प्रेक्षणगृहों में, मंडन करने के गृहों में, मोहन गृहों में, साल वृक्षों के गृहों में, जाली वाले | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 59 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते सत्थवाहदारगा जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तए णं सा वनमयूरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ, पासित्ता भीया तत्था महया-महया सद्देणं केकारवं विनिम्मुयमाणी-विनिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए मालुयाकच्छगं च अनिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठइ।
तए णं ते सत्थवाहदारगा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–जहा णं देवानुप्पिया! एसा वनमयूरी अम्हे एज्जमाणे पासित्ता भीया तत्था तसिया उव्विग्गा पलाया महया-महया सद्देणं केकारवं विनिम्मुयमाणी-विनिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिनिक्खमइ Translated Sutra: तत्पश्चात् वे सार्थवाहदारक जहाँ मालुकाकच्छ था, वहाँ जाने के लिए प्रवृत्त हुए। तब उस वनमयूरी ने सार्थवाहपुत्रों को आता देखा। वह डर गई और घबरा गई। वह जोर – जोर से आवाज करके केकारव करती हुई मालुकाकच्छ से बाहर नीकली। एक वृक्ष की जाली पर स्थित होकर उन सार्थवाहपुत्रों को तथा मालुकाकच्छ को अपलक दृष्टि से देखने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 60 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए से णं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव से वनमयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि संकिए कंखिए वितिगिंछस-मावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे किण्णं ममं एत्थ कीलावणए मयूरीपोयए भविस्सइ उदाहु नो भविस्सइ? त्ति कट्टु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तेइ परियत्तेइ आसारेइ संसारेइ चालेइ फंदेइ घट्टेइ खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेइ।
तए णं से मयूरी-अंडए अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे परियत्तिज्जमाणे आसारि-ज्जमाणे संसारिज्जमाणे Translated Sutra: तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह दारक था, वह कल सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वन – मयूरी का अंडा था, वहाँ आया। आकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी ? विचिकित्सा को प्राप्त हुआ, भेद को प्राप्त हुआ, कलुषता को प्राप्त हुआ। अत एव वह विचार | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 61 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि निस्संकिए [निक्कंखिए निव्वितिगिंछे?] सुव्वत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मयूरीपोयए भविस्सइ त्ति कट्टु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइ नो संसारेइ नो चालेइ नो फंदेइ नो घट्टेइ नो खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्टियावेइ।
तए णं से मयूरी-अंडए अनुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उब्भिन्ने मयूरी-पोयए एत्थ जाए।
तए णं से जिनदत्तपुत्ते तं मयूरी-पोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठे मयूर-पोसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं Translated Sutra: जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ आया। आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक रहा। ‘मेरे इस अंडे में से क्रड़ा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरी – बालक होगा’ इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार – बार उलटा – पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं आदि। इस कारण उलट – पलट न करने से और न बजाने से उस काल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ काचबो |
Hindi | 62 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गंगाए महानईए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था–अनुपुव्वसुजाय-वप्प-गंभीरसीयलजले अच्छ-विमल-सलिल-पलिच्छण्णे संछण्ण-पत्त-पुप्फ -पलासे बहुउप्पल-पउम-कुमुय-नलिण-सुभग-सोगं-धिय-पुंडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त केसरपुप्फोवचिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छभाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सयाणि Translated Sutra: ‘भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के चौथे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?’ हे जम्बू! उस काल और उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी। उस वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीर द्रह नामक एक द्रह था। उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे। जल गहरा और शीतल था। स्वच्छ एवं निर्मल जल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 63 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पंचमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवती नामं नयरी होत्था–पाईणपडीणायया उदीण-दाहिणवित्थिण्णा नवजोयणवित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा धनवइ-मइ-निम्मिया चामीयर-पवर-पागारा नाणामणि-पंचवण्ण-कविसीसग-सोहिया अलकापुरि-संकासा पमुइय-पक्कीलिया पच्चक्खं देवलोगभूया।
तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए रेवतगे नामं पव्वए होत्था–तुंगे गगनतल-मनुलिहंतसिहरे नानाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-परिगए हंस-मिग-मयूर-कोंच-सारस-चक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेए Translated Sutra: भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती नगरी थी। वह पूर्व – पश्चिम में लम्बी और उत्तर – दक्षिण में चौड़ी थी। नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी। वह कुबेर की मति से निर्मित हुई थी। सुवर्ण के श्रेष्ठ प्राकार से और पंचरंगी नान मणियों के बने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 64 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा नामं गाहावइणी परिवसइ–अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन -जानवाहना बहुधन-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणा बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलग-प्पभूया बहुजनस्स अपरिभूया।
तीसे णं थावच्चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं सत्थवाहदारए होत्था–सुकुमालपाणिपाए अहीन-पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे लक्खण-वंजण-गुणोववेए मानुम्मान-प्पमाणपडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगे ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे।
तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारगं साइरेगअट्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहुत्तंसि कलायरियस्स Translated Sutra: द्वारका नगरी में थावच्चा नामक एक गाथापत्नी निवास करती थी। वह समृद्धि वाली थी यावत् बहुत लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे। उस थावच्चा गाथापत्नी का थावच्चपुत्र नामक सार्थवाह का बालक पुत्र था। उसके हाथ – पैर अत्यन्त सुकुमार थे। वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला, प्रमाणोपेत अंगोपांगों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 65 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] थावच्चापुत्ते वि निग्गए। जहा मेहे तहेव धम्मं सोच्चा निसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ। जहा मेहस्स तहा चेव निवेयणा।
तए णं तं थावच्चापुत्तं थावच्चा गाहावइणी जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसय-पडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था।
तए णं सा थावच्चा गाहावइणी आसणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठेत्ता महत्थं महग्घं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं Translated Sutra: मेघकुमार की तरह थावच्चापुत्र भी भगवान को वन्दना करने के लिए नीकला। उसी प्रकार धर्म को श्रवण करके और हृदय में धारण करके जहाँ थावच्चा गाथापत्नी थी, वहाँ आया। आकर माता के पैरों को ग्रहण किया। मेघकुमार समान थावच्चापुत्र का वैराग्य निवेदना समझनी। माता जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत – सी आघवणा, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 66 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नामं नगरे होत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे। सेलए राया। पउमावई देवी। मंडुए कुमारे जुवराया।
तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था–उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुरं चिंतयंति।
थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे। राया निग्गए।
तए णं से सेलए राया थावच्चापुत्तस्स अनगारस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए पीइमणे परम-सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता थावच्चा-पुत्तं अनगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
सद्दहामि Translated Sutra: उस काल और उस समय में शैलकपुर नगर था। उसके बाहर सुभूमिभाग उद्यान था। शैलक राजा था। पद्मावती रानी थी। मंडुक कुमार था। वह युवराज था। उस शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे। वे औत्पत्तिकी वैनयिकी पारिणामिकी और कार्मिकी इस प्रकार चारों तरह की बुद्धियों से सम्पन्न थे और राज्य की धुरा के चिन्तक भी थे – शासन | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 67 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ। नीलासोए उज्जाणे–वण्णओ।
तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नयरसेट्ठी परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नामं परिव्वायए होत्था–रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय-सट्ठितंतकुसले संखसमए लद्धट्ठे पंचजम-पंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्मं दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवे-माणे पण्णवेमाणे धाउरत्त-वत्थ-पवर-परिहिए तिदंड-कुंडिय-छत्त-छन्नालय-अंकुस-पवित्तय-केसरि-हत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में सौगंधिका नामक नगरी थी। (वर्णन) उस नगरी के बाहर नीलाशोक नामक उद्यान था। (वर्णन) उस सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नामक नगरश्रेष्ठी निवास करता था। वह समृद्धिशाली था, यावत् वह किसी से पराभूत नहीं हो सकता था। उस काल और उस समय में शुक नामक एक परिव्राजक था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 68 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सुए अन्नया कयाइ जेणेव सेलगपुरे नगरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
परिसा निग्गया। सेलओ निग्गच्छइ।
तए णं से सेलए सुयस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे सुयं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव नवरं देवानुप्पिया! पंथगपामोक्खाइं पंच मंतिसयाइं आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि। तओ पच्छा देवानुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वयामि।
अहासुहं देवानुप्पिया।
तए Translated Sutra: तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा – ‘हे सुदर्शन ! चलें, हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चा – पुत्र के समीप प्रकट हों – चलें और इन अर्थों को, हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरणों को पूछें।’ अगर वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 69 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालाइक्कंतेहि य पमाणाइक्कंतेहि य निच्चं पाणभोयणेहि य पयइ-सुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया –उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। कंडु-दाह-पित्तज्जर-परिगयसरीरे यावि विहरइ।
तए णं से सेलए तेणं रोयायंकेणं सुक्के भुक्खे जाए यावि होत्था।
तए णं से सेलए अन्नया कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सेल-गपुरे नयरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं Translated Sutra: तत्पश्चात् प्रकृति से सुकुमार और सुखभोग के योग्य शैलक राजर्षि के शरीर में सदा अन्त, प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, ठंडा – गरम, कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त भोजन – पान मिलने के कारण वेदना उत्पन्न हो गई। वह वेदना उत्कट यावत् विपुल, कठोर, प्रगाढ़, प्रचंड एवं दुस्सह थी। उनका शरीर खुजली और दाह उत्पन्न करने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 70 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं पंथगवज्जाणं पंचण्हं अनगारसयाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए विउले असन-पान-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए नो संचाएइ फासुएसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जनवयविहारं विहरित्तए। नो खलु कप्पइ देवानुप्पिया! समणाणं निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउ-बद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए Translated Sutra: तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए – मिले, एक साथ बैठे। तब मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि – शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्च्छित हो | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 71 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पंथए सेलगस्स सेज्जा-संथारय-उच्चार-पासवण-खेल्ल-सिंघाणमत्त-ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणएणं अगिलाए विनएणं वेयावडियं करेइ।
तए णं से सेलए अन्नया कयाइ कत्तिय-चाउम्मासियंसि विउलं असन-पान-खाइम-साइमं आहारमाहारिए सुबहुं च मज्जपाणयं पीए पच्चावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते।
तए णं से पंथए कत्तिय-चाउम्मासियंसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कंते, चाउम्मासियं पडिक्कमिउ-कामे सेलगं रायरिसिं खामणट्ठयाए सीसेणं पाएसु संघट्टेइ।
तए णं से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएसु संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे उट्ठेइ, उट्ठेत्ता एवं वयासी–से केस णं भो! Translated Sutra: तब वह पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, संघाण के पात्र, औषध, भेषज, आहार, पानी आदि से बिना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगे। उस समय पंथक मुनि ने कार्तिक की चौमासी के दिन कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण करके, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की ईच्छा से शैलक राजर्षि को खमाने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 72 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवामेव समणाउसो! जे निग्गंथे वा निग्गंथी वा ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसील-विहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं सम-णाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे,
परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य अनादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार कंतारं भुज्जो-भुज्जो अनुपरियट्टिस्सइ।
तए णं ते पंथगवज्जा पंच अनगारसया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी –एवं खलु देवानुप्पिया! Translated Sutra: हे आयुष्मन् श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्तारक आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत – से श्रमणों, बहुत – सी श्रमणियों, बहुत – से श्रावकों और बहुत – सी श्राविकाओं की हीलना का पात्र होता है। यावत् वह चिरकाल पर्यन्त संसार – भ्रमण करता है। तत्पश्चात् पंथक को छोड़कर पाँच | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 73 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अनगारसया जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवाग-च्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति, दुरुहित्ता मेघघनसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहंति, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-ज्झूसणा-ज्झूसिया भत्तपाण-पडियाइक्खिया पाओवगमणंणुवन्ना।
तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अनगारसया बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्व-दुक्खप्पहीणा।
एवामेव Translated Sutra: इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह इस लोक में बहुसंख्यक साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमनीय, पूजनीय, सत्कारणीय और सम्माननीय होगा। कल्याण, मंगल, देव और चैत्य स्वरूप होगा। विनयपूर्वक उपासनीय होगा। परलोक में उसे हाथ, कान एवं नासिका के | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ तुंब |
Hindi | 74 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव सुक्कज्झाणोवगए विहरइ।
तए णं से इंदभूई नामं अनगारे जायसड्ढे जाव एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कतुंब निच्छिद्दं निरुवहयं दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, Translated Sutra: भगवन् ! श्रमण यावत् सिद्धि को प्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। उस राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् जहाँ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-७ रोहिणी |
Hindi | 75 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे।
तत्थ णं रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे जाव अपरिभूए। भद्दा भारिया–अहीनपंचिंदियसरीरा जाव सुरूवा।
तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारगा होत्था, तं जहा–धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए।
तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तं जहा–उज्झिया भोगवइया रक्खिया रोहिणिया।
तए Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन् ! सातवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था। उस राजगृह नगर में धन्य नामक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 76 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अठमट्ठे पन्नत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणु इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सोओदाए महानदीए दाहिणेणं, सुहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं सलिलावई नामं विजए पन्नत्ते।
तत्थ णं सलिलावईविजए वीयसोगा नामं रायहाणी–नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोग-भूया।
तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए इंदकुंभे Translated Sutra: ’भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने सातवे ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो आठवे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ ‘हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में महाविदेह नामक वर्ष में, मेरु पर्वत से पश्चिम में, निषध नामक वर्षधर पर्वत से उत्तर में, शीतोदा महानदी से दक्षिण में, सुखावह नामक वक्षार पर्वत से पश्चिम | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 77 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरहंत–सिद्ध–पवयण–गुरु–थेर–बहुस्सुय–तवस्सीसु ।
वच्छल्लया य तेसिं, अभिक्ख नाणोवओगे य ॥ Translated Sutra: अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी – इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना, बारंबार ज्ञान का उपयोग करना, तथा – दर्शन, विनय, आवश्यक शीलव्रत का निरतिचार पालन करना, क्षणलव अर्थात् ध्यान सेवन, तप करना, त्याग, तथा – नया – नया ज्ञान ग्रहण करना, समाधि, वैयावृत्य, श्रुतभक्ति और प्रवचन प्रभावना इस बीस कारणों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 78 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दंसण–विनए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो ।
खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाहीए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 79 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयण–पहावणया ।
एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ सो उ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 80 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अनगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव एगराइयं।
तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अनगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तं जहा–
चउत्थं करेंति, सव्वकामगुणियं पारेंति।
छट्ठं करेंति, चउत्थं करेंति।
अट्ठमं करेंति, छट्ठं करेंति।
दसमं करेंति, अट्ठमं करेंति।
दुवालसमं करेंति, दसमं करेंति।
चोद्दसमं करेंति, दुवालसमं करेंति।
सोलसमं करेंति, चोद्दसमं करेंति।
अट्ठारसमं करेंति, सोलसमं करेंति।
वीसइमं करेंति, सोलसमं करेंति।
अट्ठारसमं करेंति, चोद्दसमं करेंति।
सोलसमं करेंति, दुवालसमं करेंति।
चोद्दसमं Translated Sutra: तत्पश्चात् वे महाबल आदि सातों अनगार एक मास की पहली भिक्षु – प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। यावत् बारहवी एकरात्रि की भिक्षु – प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों अनगार क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरने लगे। वह तप इस प्रकार किया जाता है – सर्वप्रथम | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 81 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं महब्बलवज्जाणं छण्हं देवाणं देसूणाइं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। महब्बलस्स देवस्स य पडिपुण्णाइं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई।
तए णं ते महब्बलवज्जा छप्पि देवा जयंताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अनंतरं च यं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं-पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायाया, तं जहा–
पडिबुद्धी इक्खागराया,
चंदच्छाए अंगराया,
संखे कासिराया,
रुप्पी कुणालाहिवई,
अदीनसत्तू कुरुराया,
जियसत्तू पंचालाहिवई।
तए णं से महब्बले देवे तिहिं नाणेहिं समग्गे उच्चट्ठाणगएसुं Translated Sutra: उस जयन्त विमान में कितनेक देवों की बत्तीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उनमें से महाबल को छोड़कर दूसरे छह देवों की कुछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति और महाबल देव की पूर बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई। तत्पश्चात् महाबल देव के सिवाय छहों देव जयन्त देवलोक से, देव सम्बन्धी आयु का क्षय होने से, स्थिति का क्षय होने से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 82 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहयरियाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणुस्सवं, नवरं–मिहिलाए कुंभस्स पभावईए अभिलाओ संजोएयव्वो जाव नंदीसरवरदीवे महिमा।
तया णं कुंभए राया बहूहिं भवनवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणा-भिसेयमहिमाए कयाए समाणीए पच्चूसकालसमयंसि नगरगुत्तिए सद्दावेइ जायकम्मं जाव नाम-करणं–जम्हा णं अम्हं इमीसे दारियाए माऊए मल्लसय-णिज्जंसि डोहले विणीए, तं होउ णं अम्हं दारिया नामेणं मल्ली।
तए णं सा मल्ली पंचधाईपरिक्खित्ता जाव सुहंसुहेणं परिवड्ढई०। Translated Sutra: उस काल और उस समय में अधोलोक में बसने वाली महत्तरिका दिशा – कुमारिकाएं आई इत्यादि जन्म का वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति अनुसार समझ लेना। विशेषता यह है कि मिथिला नगरी में, कुम्भ राजा के भवन में, प्रभावती देवों को आलापक कहना। यावत् देवों ने जन्माभिषेक करके नन्दीश्वर द्वीप में जाकर महोत्सव किया। तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 83 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सा वड्ढई भगवई दिवलोयचुया अणोवमसिरीया ।
दासी दास परिवुडा परिकिण्णा पीढमद्देहिं ॥ Translated Sutra: देवलोक से च्युत हुई वह भगवती मल्ली वृद्धि को प्राप्त हुई तो अनुपम शोभा से सम्पन्न हो गई, दासियों और दासों से परिवृत्त हुई और पीठमर्दों से घिरी रहने लगी। |