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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
भवनपति अधिकार |
Hindi | 51 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं देवाणं बल-विरिय-परक्कमो उ जो जस्स ।
ते सुंदरि! वण्णे हं जहक्कमं आनुपुव्वीए ॥ Translated Sutra: हे सुंदरी ! इस भवनपति देवमें जिन का बल – वीर्य पराक्रम है उस के यथाक्रम से आनुपूर्वी से वर्णन करता हूँ। असुर और असुर कन्या द्वारा जो स्वामित्व का विषय है। उसका क्षेत्र जम्बूद्वीप और चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी तक है। यही स्वामित्व बलि और वैरोचन के लिए भी समझना। धरण और नागराज जम्बूद्वीप को फन द्वारा आच्छादित | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 93 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तए णं छप्पि दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणंसि पत्तेयं-पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करेत्ता मिहिलं रायहाणिं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु साणं-साणं राईणं वयणाइं निवेदेंति।
तए णं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतियं एयमट्ठं सोच्चा आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्टु एवं वयासी–न देमि णं अहं तुब्भं Translated Sutra: इस प्रकार उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं के दूत, जहाँ मिथिला नगरी थी वहाँ जाने के लिए रवाना हो गए। छहों दूत जहाँ मिथिला थी, वहाँ आए। मिथिला के प्रधान उद्यान में सब ने अलग – अलग पड़ाव डाले। फिर मिथिला राजधानी में प्रवेश करके कुम्भ राजा के पास आए। प्रत्येक – प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़े और अपने – अपने राजाओं के | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण-हियए धाराहयनीवसुरभिकुसुम-चुंचुमालइयतणू ऊसविय-रोमकूवे तं सुमिणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता ईहं पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ, करेत्ता धारिणिं देविं ताहिं जाव हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर-सस्सिरीयाहिं वग्गूहिं अनुवूहमाणे-अनुवूहमाणे एवं वयासी–उराले णं तुमे देवानुप्पिए! सुमिणे दिट्ठे। कल्लाणे णं तुमे देवानुप्पिए! सुमिणे दिट्ठे। सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सूनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हुआ, मेघ की धाराओं से आहत कदम्बवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा – उसने स्वप्न का अवग्रहण किया। विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया। अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 17 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे सत्त महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति।
इमे य सामी! धारिणीए देवीए एगे महासुमिणे दिट्ठे, तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे। अत्थलाभो सामी! Translated Sutra: जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तो वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में किन्हीं भी सात महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं तो बलदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। जब मांडलिक राजा गर्भ में आता है तो मांडलिक राजा की माता इन चौदह महास्वप्नों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 34 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कट्टु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवा-गच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अनुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुप्फं पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए? से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके जाए जले संवड्ढिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव मेहे Translated Sutra: मेघकुमार के माता – पिता मेघकुमार को आगे करके जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा तरफ से आरंभ करके प्रदक्षिणा करते हैं। वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं। फिर कहते हैं – हे देवानुप्रिय ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। प्राणों के समान और उच्छ्वास के समान है। हृदय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 38 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुमं मेहा! आनुपुव्वेणं गब्भवासाओ निक्खंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमनुप्पत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए।
तं जइ ताव तुमे मेहा! तिरिक्ख-जोणियभावमुवगएणं अपडिलद्ध-सम्मत्तरयण-लंभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए अंतरा चेव संघारिए, नो चेव णं निक्खित्ते। किमंग पुण तुमं मेहा! इयाणिं विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहयसरीर-दंतलद्धपंचिंदिए णं एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार-परक्कमसंजुत्ते णं मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसयंसि वायणाए पुच्छणाए Translated Sutra: तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आए – तुम्हारा जन्म हुआ। बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए। तब मेरे निकट मुण्डित होकर गृहवास से अनगार हुए। तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंच योनिरूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व – रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 40 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे अनगारे तेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महानुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे किडि-किडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था–जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा तिलंडासगडिया इ वा एरंडसगडिया इ वा उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, एवामेव मेहे अनगारे ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, उवचिए Translated Sutra: तत्पश्चात् मेघ अनगार उस उराल, विपुल, सश्रीक – प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी – शिव – धन्य, मांगल्य – उदग्र, उदार, उत्तम महान प्रभाव वाले तपःकर्म से शुष्क – नीरस शरीर वाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए। उठते – उठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गई। शरीर कृश | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। चम्पा नगरी थी। चन्द्रच्छाय अंगराज – अंग देश का राजा था। उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत – से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। वे अर्हन्नक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 147 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 159 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नामं थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नामं अनगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउलं-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ।
तए णं से धम्मरुई अनगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाइं ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। परीषद् वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 172 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं दोवइं रायवरकण्णं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति। किं ते? वरपायपत्तनेउरा जाव चेडिया-चक्कवाल-महयरग-विंद-परिक्खित्ता अंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ।
तए णं से धट्ठज्जुणे कुमारे दोवईए रायवरकन्नाए सारत्थं करेइ।
तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कंपिल्लपुरं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरामडबं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया। किस प्रकार ? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए यावत् वह दासियों के समूह से परिवृत्त होकर अन्तःपुर से बाहर नीकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई। आकर क्रीड़ा करने वाली धाय और लेखिका | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 176 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जुहिट्ठिल्ले राया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवइं देविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेत्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुइं वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुं रायं एवं वयासी–एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेन वा दानवेन वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि णं ताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए।
तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, Translated Sutra: इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात् थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे। वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा करने लगे। किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Hindi | 211 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से धने सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहुं धन-कनगं सुंसुमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं गहाय जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं उवनेइ, उवनेत्ताएवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! चिलाए चोरसेनावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं मम गिहं धाएत्ता सुबहुं धन-कनगं सुंसुमं च दारियं गहाय रायगिहाओ पडि-निक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पडिगए। तं इच्छामो णं देवानुप्पिया! सुंसुमाए दारियाए कूवं गमित्तए। तुब्भं णं देवानुप्पिया! से विपुले धनकनगे, ममं Translated Sutra: चोरों के चले जाने के पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर आया। आकर उसने जाना कि मेरा बहुत – सा धन कनक और सुंसुमा लड़की का अपहरण कर लिया गया है। यह जानकर वह बहुमूल्य भेंट लेकर के रक्षकों के पास गया और उनसे कहा – ‘देवानुप्रियो ! चिलात नामक चोरसेनापति सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से यहाँ आकर, पाँच सौ चोरों के साथ, मेरा घर लूटकर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 218 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं Translated Sutra: पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 250 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सुरूवहि-मंदरिंदु-मणी।
खिदि-उरगंबर सरिसां, परम-पय-विमग्गया साहू ।। Translated Sutra: सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४. मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुँज, १२. क्षितिवत् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 250 | View Detail | ||
Mool Sutra: सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणिः।
क्षिति-उरगाम्बर सदा, परमपद-विमार्गणा साधुः ।। Translated Sutra: सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४. मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुँज, १२. क्षितिवत् | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 55 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं विनीयाए रायहानीए भरहे नामं राया चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था–महयाहिमवंत महंत मलय मंदर महिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ।
बिइओ गमो रायवण्णगस्स इमो–तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उपज्जए जसंसो उत्तमे अभिजाए सत्त-वीरियपरक्कमगुणे पसत्थवण्ण सर सार संघयण बुद्धि धारण मेहा संठाण सील प्पगई पहाणगारवच्छायागइए अनेगवयणप्पहाणे तेय आउ बल वीरियजुत्ते अझुसिरघननिचिय-लोहसंकल नारायवइरउसहसंघयणदेहधारी झस-जुग भिंगार वद्धमाणग भद्दासण संख छत्त वीयणि पडाग चक्क नंगल मुसल रह सोत्थिय अंकुस चंदाइच्च अग्गि जूव सागर इंदज्झय पुहवि पउम कुंजर सीहासन दंड कुम्भ गिरिवर तुरगवर Translated Sutra: विनीता राजधानी में भरत चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह राजा भरत राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम इस प्रकार है – वहाँ असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, उत्तम, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 230 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिंदे उत्तरड्ढलोगाहिवई अट्ठावीसविमनावाससयसहस्साहिवई अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सक्के, इमं नाणत्तं–महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमानकारी, दक्खिणा निज्जाणभूमी, उत्तरपुरत्थिमिल्लो रइकरगपव्वओ, मंदरे समोसरिओ जाव पज्जुवासइ।
एवं अवसिट्ठावि इंदा भाणियव्वा जाव अच्चुओ, इमं नाणत्तं– Translated Sutra: उस काल, उस समय हाथ में त्रिशूल लिये, वृषभ पर सवार, सुरेन्द्र, उत्तरार्धलोकाधिपति, अठ्ठाईस लाख विमानों का स्वामी, निर्मल वस्त्र धारण किये देवेन्द्र, देवराज ईशान मन्दर पर्वत पर आता है। शेष वर्णन सौधर्मेन्द्र शक्र के सदृश है। अन्तर इतना है – घण्टा का नाम महाघोषा है। पदातिसेनाधिपति का नाम लघुपराक्रम है, विमानकारी | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 234 | Gatha | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पालय पुप्फय सोमनसे सिरिवच्छे य नंदियावत्ते ।
कामगमे पीइगमे, मनोरमे विमल सव्वओभद्दे ॥ Translated Sutra: पालक, पुष्पक, सौमनस, श्रीवत्स, नन्दावर्त, कामगम, प्रीतिगम, मनोरम, विमल तथा सर्वतोभद्र ये यान – विमानों की विकुर्वणा करनेवाले देवों के अनुक्रम से नाम हैं। सौधर्मेन्द्र, सनत्कुमारेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र तथा प्राणतेन्द्र की सुघोषा घण्टा, हरिनिगमेषी पदाति – सेनाधिपति, उत्तरवर्ती निर्याण – | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 39 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए चउहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं सुसमा नामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! ।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे Translated Sutra: गौतम ! प्रथम आरक का जब चार सागर कोड़ा – कोड़ी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक द्वितीय आरक प्रारम्भ हो जाता है। उसमें अनन्त वर्ण, अनन्त गंध, अनन्त रस, अनन्त स्पर्श, अनन्त संहनन, अनन्त संस्थान, अनन्त उच्चत्व, अनन्त आयु, अनन्त गुरु – लघु, अनन्त अगुरु – लघु, अनन्त उत्थान – कर्म – बल – वीर्य – पुरुषकार | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 40 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं सुसमदुस्समा नामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो! ।
सा णं समा तिहा विभज्जइ–पढमे तिभाए, मज्झिमे तिभाए, पच्छिमे तिभाए।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे इमीसे Translated Sutra: गौतम ! द्वितीय आरक का तीन सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी – काल का सुषम – दुःषमा नामक तृतीय आरक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्ण – पर्याय यावत् पुरुषकार – पराक्रमपर्याय की अनन्त गुण परिहानि होती है। उस आरक को तीन भागों में विभक्त किया है – प्रथम त्रिभाग, मध्यम त्रिभाग, अंतिम त्रिभाग। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 76 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया कयमालस्स देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए सुसेणं सेनावइं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छाहि णं भो देवानुप्पिया! सिंधूए महानईए पच्चत्थिमिल्लं निक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि य ओयवेहि, ओयवेत्ता अग्गाइं वराइं रयणाइं पडिच्छाहि, पडिच्छित्ता ममेयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।
तते णं से सेनावई बलस्स नेया, भरहे वासंमि विस्सुयजसे, महाबलपरक्कमे महप्पा ओयंसी तेयंसी लक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासंमि निक्खुडाणं निण्णाण य दुग्गमाण य दुक्खप्पवेसाण य वियाणए अत्थसत्थ-कुसले रयणं सेनावई सुसेने Translated Sutra: कृतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सुषेण सेनापति को बुलाकर कहा – सिंधु महानदी के पश्चिम से विद्यमान, पूर्व में तथा दक्षिण में सिन्धु महानदी द्वारा, पश्चिम में पश्चिम समुद्र द्वारा तथा उत्तर में वैताढ्य पर्वत द्वारा विभक्त भरतक्षेत्र के कोणवर्ती | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 80 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरड्ढभरहे वासे बहवे आवाडा नामं चिलाया परिवसंति–अड्ढा दित्ता बित्ता विच्छिण्णविउलभवन सयणासण जानवाहनाइण्णा बहुधन बहुजायरूवरयया आओगपओग-संपउत्ता विच्छड्डियपउरभत्तपाणा बहुदासी-दास गो महिस गवेलगप्पभूया बहुजनस्स अपरिभूया सूरा वीरा विक्कंता विच्छिण्णविउलबलबाहणा बहुसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि होत्था।
तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अन्नया कयाइ विसयंसि बहूइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भवित्था, तं जहा– अकाले गज्जियं, अकाले विज्जुयं, अकाले पायवा पुप्फंति, अभिक्खणं-अभिक्खणं आगासे देवयाओ नच्चंति।
तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहूइं उप्पाइयसयाइं Translated Sutra: उस समय उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में – आपात संज्ञक किरात निवास करते थे। वे आढ्य, दीप्त, वित्त, भवन, शयन, आसन, यान, वाहन तथा स्वर्ण, रजत आदि प्रचुर धन के स्वामी थे। आयोग – प्रयोग – संप्रवृत्त – थे। उनके यहाँ भोजन कर चुकने के बाद भी खाने – पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उनके घरों में बहुत से नौकर – नौकरानियाँ, गायें, भैंसे, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 84 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते आवाडचिलाया सुसेनसेनावइणा हयमहिय पवरवीरघाइय विवडियचिंधद्धयपडागा किच्छ- प्पाणोवगया दिसोदिसिं पडिसेहिया समाणा भीया तत्था वहिया उव्विग्गा संजायभया अत्थामा अबला अवीरिया अपुरिसक्कारपरक्कमा अधारणिज्जमितिकट्टु अनेगाइं जोयणाइं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता एगयओ मिलायंति, मिलायित्ता जेणेव सिंधू महानई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वालुयासंथारए संथरेंति, संथरेत्ता वालुयासंथारए दुरुहंति, दुरुहित्ता अट्ठमभत्ताइं पगिण्हंति, पगिण्हित्ता वालुयासंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिया जे तेसिं कुलदेवया मेहमुहा नामं नागकुमारा देवा ते मनसीकरेमाणा-मनसीकरेमाणा Translated Sutra: सेनापति सुषेण द्वारा हत – मथित किये जाने पर, मेदान छोड़कर भागे हुए आपात किरात बड़े भीत, त्रस्त, व्यथित, पीड़ायुक्त, उद्विग्न होकर घबरा गये। वे अपने को निर्बल, निर्वीर्य तथा पौरुष – पराक्रम रहित अनुभव करने लगे। शत्रु – सेना का सामना करना शक्य नहीं है, यह सोचकर वे वहाँ से अनेक योजन दूर भाग गये। यों दूर जाकर वे एक स्थान | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 95 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहो णं देवानुप्पियाणं इड्ढी जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, तं दिट्ठा णं देवानुप्पियाणं इड्ढी जुई जसे बले वीरिए पुरिस-क्कार-परक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, तं खामेसु णं देवानुप्पिया! खमंतु णं देवानुप्पिया! खंतुमरुहंतु णं देवानुप्पिया! नाइ भुज्जो-भुज्जो एवं करणयाए त्तिकट्टु पंजलिउडा पायवडिया भरहं रायं सरणं उवेंति।
तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाइं वराइं रयणाइं पडिच्छंति, पडिच्छित्ता ते आवाडचिलाए एवं वयासी– गच्छह णं भो! तुब्भे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया Translated Sutra: आपकी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम – ये सब आश्चर्यकारक हैं। आपको दिव्य देव – द्युति – परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त है। हमने आपकी ऋद्धि का साक्षात् अनुभव किया है। देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमायाचना करते हैं। आप हमें क्षमा करें। हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। यों कहकर | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 122 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स भरहस्स रन्नो अन्नया कयाइ रज्जधुरं चिंतेमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अभिजिए णं मए नियगबल वीरिय पुरिसक्कार परक्कमेणं चुल्ल-हिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेयं खलु मे अप्पाणं महयारायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तए त्तिकट्टु एवं संपेहेति, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए फुल्लु-प्पल-कमल-कोमलुम्मिलियंमि अहपंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास किंसुय सुयमुह गुंजद्धरागसरिसे कमलागर संडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिंमि दिणयरे तेयसा जलंते जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव मज्जनघराओ पडिनिक्खमइ, Translated Sutra: राजा भरत अपने राज्य का दायित्व सम्हाले था। एक दिन उसके मन में ऐसा भाव, उत्पन्न हुआ – मैंने अपना बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम द्वारा समस्त भरतक्षेत्र को जीत लिया है। इसलिए अब उचित है, मैं विराट् राज्याभिषेक – समारोह आयोजित करवाऊं, जिसमें मेरा राजतिलक हो। दूसरे दिन राजा भरत, स्नान कर बाहर निकला, पूर्व की ओर मुँह | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 344 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदविमानं भंते! कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति? गोयमा! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति–चंदविमानस्स णं पुरत्थिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल विमलनिम्मलदहिधण गोखीर फेण रययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउट्ठ वट्ट पीवरसु-सिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडंबियमुहाणं रत्तुप्पल-पत्तमउयसूमालतालुजीहाणं महुगुलियपिंगलक्खाणं पीवरवरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं मिउविसय-सुहुमलक्खणपसत्थवरवण्णकेसरसडोवसोहियाणं ऊसिय सुणमिय सुजाय अप्फोडिय नंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदाढाणं वइरामयदंताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्ज जोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मनोगमाणं मनोरमाणं Translated Sutra: भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव परिवहन करते हैं ? गौतम ! सोलह हजार, चन्द्रविमान के पूर्व में श्वेत, सुभग, जनप्रिय, सुप्रभ, शंख के मध्यभाग, जमे हुए दहीं, गाय के दूध के झाग तथा रजतनिकर, उज्ज्वल दीप्तियुक्त, स्थिर, लष्ट, प्रकोष्ठक, वृत्त, पीवर, सुश्लिष्ट, विशिष्ट, तीक्ष्ण, दंष्ट्राओं प्रकटित मुखयुक्त, रक्तोत्पल, | |||||||||
Jitakalpa | जीतकल्प सूत्र | Ardha-Magadhi |
तप प्रायश्चित्तं |
Hindi | 56 | Gatha | Chheda-05A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ठवणमणापुच्छाए निव्विसओ विरिय-गूहणाए य ।
जीएणेक्कासणयं सेसय-मायासु खमणं तु ॥ Translated Sutra: आचार्य की आज्ञा बिना स्थापना कुल में भोजन के लिए प्रवेशे तो एकासणा, पराक्रम गोपे तो एकासणा, उस अनुसार जीत व्यवहार है। सूत्र व्यवहार अनुसार माया रहित हो तो एकासणा माया सहित हो तो उपवास। | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
द्वीप समुद्र | Hindi | 165 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं वनसंडस्स तत्थतत्थ देसे तहिंतहिं बहुईओ खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सरसीओ सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपंतियाओ अच्छाओ सण्हाओ रययामयकूलाओ समतीराओ वइरामयपासाणाओ तवणिज्जतलाओ अच्छाओ सण्हाओ रययामय-कूलाओ समतीराओ वइरामयपासाणाओ तवणिज्जतलाओ सुवण्ण सुब्भ रययवालुयाओ वेरुलिय-मणिफालियपडलपच्चोयडाओ सुहोयारसुउत्ताराओ नानामणितित्थ सुबद्धाओ चाउक्कोणाओ आनुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछण्णपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पल कुमुद नलिन सुभग सोगंधिय पोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त फुल्ल केसरोवचियाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ Translated Sutra: उस वनखण्ड के मध्य में उस – उस भाग में उस उस स्थान पर बहुत – सी छोटी – छोटी चौकोनी वावडियाँ हैं, गोल – गोल अथवा कमलवाली पुष्करिणियाँ हैं, जगह – जगह नहरों वाली दीर्घिकाएं हैं, टेढ़ीमेढ़ी गुंजालिकाएं हैं, जगह – जगह सरोवर हैं, सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, अनेक सरसर पंक्तियाँ और बहुत से कुओं की पंक्तियाँ हैं। वे स्वच्छ हैं, | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
ज्योतिष्क उद्देशक | Hindi | 315 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदविमाने णं भंते कति देवसाहस्सीओ परिवहंति गोयमा चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभ-गाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउवट्टपीवर-सुसिलिट्ठविसिट्ठ-तिक्खदाढा-विडंबितमुहाणं रत्तुप्पलपत्त-मउयसुमालालु-जीहाणं मधुगुलियपिंग-लक्खाणं पसत्थसत्थवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं विसालपीवरोरुपडिपुन्नविउलखंधाणं मिउविसय पसत्थसुहुमलक्खण-विच्छिण्णकेसरसडोवसोभिताणं चंकमितललिय-पुलितथवलगव्वित-गतीणं उस्सियसुणिम्मि-यसुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयनक्खाणं वइरामयदंताणं पीतिगमाणं मनोगमाणं मनोरमाणं मनोहराणं अमीयगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं Translated Sutra: भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं ? गौतम ! १६००० देव, उनमें से ४००० देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा से उठाते हैं। वे सिंह श्वेत हैं, सुन्दर हैं, श्रेष्ठ कांति वाले हैं, शंख के तल के समान विमल और निर्मल तथा जमे हुए दहीं, गाय का दूध, फेन चाँदी के नीकर के समान श्वेत प्रभावाले हैं, उनकी आँखें शहद की गोली | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 1 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ॐ नमो तित्थस्स।
ॐ नमो अरहंताणं।
सुयं मे आउसं तेण भगवया एवमक्खायं–
इह खलु छउमत्थ-संजम-किरियाए वट्टमाणे जे णं केइ साहू वा, साहूणी वा, से णं इमेणं परमत्थ-तत्त-सार- सब्भूयत्थ-पसाहग- सुमहत्थातिसय-पवर-वर- महानिसीह-सुयक्खंध- सुयानु-सारेणं तिविहं तिविहेणं सव्व-भाव-भावंतरंतरेहि णं नीसल्ले भवित्ताणं आयहियट्ठाए अच्चंत-घोर-वीरुग्गं कट्ठ-तव-संजमानुट्ठाणेसुं सव्व-पमायालंबनविप्पमुक्के अनुसमयमहन्निसमनालसत्ताए सययं अनिव्विन्ने अनन्न-परम-सद्धा-संवेग-वेरग्ग-मग्गगए निन्नियाणे अनिगूहिय-बल-वीरिय-पुरिसक्कार -परक्कमे अगिलाणीए वोसट्ठ-चत्त-देहे सुनिच्छि-एगग्ग-चित्ते-अभिक्खणं Translated Sutra: तीर्थ को नमस्कार हो, अरहंत भगवंत को नमस्कार हो। आयुष्मान् भगवंत के पास मैंने इस प्रकार सुना है कि, यहाँ जो किसी छद्मस्थ क्रिया में वर्तते ऐसे साधु या साध्वी हो वो – इस परमतत्त्व और सारभूत चीज को साधनेवाले अति महा अर्थ गर्भित, अतिशय श्रेष्ठ, ऐसे ‘‘महानिसीह’’ श्रुतस्कंध श्रुत के मुताबिक त्रिविध (मन, वचन, काया) | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 837 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केई आयरिए, इ वा मयहरए, इ वा असई कहिंचि कयाई तहाविहं संविहाणगमासज्ज इणमो निग्गंथं पवयणमन्नहा पन्नवेज्जा, से णं किं पावेज्जा गोयमा जं सावज्जायरिएणं पावियं।
से भयवं कयरे णं से सावज्जयरिए किं वा तेणं पावियं ति। गोयमा णं इओ य उसभादि तित्थंकर चउवीसिगाए अनंतेणं कालेणं जा अतीता अन्ना चउवीसिगा तीए जारिसो अहयं तारिसो चेव सत्त रयणी पमाणेणं जगच्छेरय भूयो देविंद विंदवं-दिओ पवर वर धम्मसिरी नाम चरम धम्मतित्थंकरो अहेसि। तस्से य तित्थे सत्त अच्छेरगे पभूए। अहन्नया परिनिव्वुडस्स णं तस्स तित्थंकरस्स कालक्कमेणं असंजयाणं सक्कार कारवणे नाम अच्छेरगे वहिउमारद्धे।
तत्थ Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई आचार्य जो गच्छनायक बार – बार किसी तरह से शायद उस तरह का कारण पाकर इस निर्ग्रन्थ प्रवचन को अन्यथा रूप से – विपरीत रूप से प्ररूपे तो वैसे कार्य से उसे कैसा फल मिले ? हे गौतम ! जो सावद्याचार्य ने पाया ऐसा अशुभ फल पाए, हे गौतम ! वो सावद्याचार्य कौन थे ? उसने क्या अशुभ फल पाया? हे गौतम ! यह ऋषभादिक तीर्थंकर | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 839 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं गोयमा तेसिं अनायार पवत्ताणं बहूणं आयरिय मयहरादीणं एगे मरगयच्छवी कुवलयप्पहा-भिहाणे नाम अनगारे महा तवस्सी अहेसि। तस्स णं महा महंते जीवाइ पयत्थेसु तत्त परिण्णाणे सुमहंतं चेव संसार सागरे तासुं तासुं जोणीसुं संसरण भयं सव्वहा सव्व पयारेहिं णं अच्चंतं आसायणा भीरुयत्तणं तक्कालं तारिसे वी असमंजसे अनायारे बहु साहम्मिय पवत्तिए तहा वी सो तित्थयरा-णमाणं णाइक्कमेइ। अहन्नया सो अनिगूहिय बल वीरिय पुरिसक्कार परक्कमे सुसीस गण परियरिओ सव्वण्णु-पणीयागम सुत्तत्थो भयाणुसारेणं ववगय राग दोस मोह मिच्छत्तममकाराहंकारो सव्वत्थापडिबद्धो किं बहुना सव्वगुणगणा हिट्ठिय सरीरो Translated Sutra: उसी तरह हे गौतम ! इस तरह अनाचारमे प्रवर्तनेवाले कईं आचार्य एवं गच्छनायक के भीतर एक मरकत रत्न समान कान्तिवाले कुवलयप्रभ नाम के महा तपस्वी अणगार थे। उन्हें काफी महान जीवादिक चीज विषयक सूत्र और अर्थ सम्बन्धी विस्तारवाला ज्ञान था। इस संसार समुद्र में उन योनि में भटकने के भयवाले थे। उस समय उस तरह का असंयम प्रवर्तने | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1516 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ति भाणिऊणं चिंतिउं पवत्तो सो महापावयारी।
जहा णं किं छिंदामि अहयं सहत्थेहिं तिलं तिलं सगत्तं किं वा णं तुंगगिरियडाओ पक्खिविउं दढं संचुन्नेमि इनमो अनंत-पाव संघाय समुदयं दुट्ठं किं वा णं गंतूण लोहयार सालाए सुतत्त लोह खंडमिव घन खंडाहिं चुण्णावेमि सुइरमत्ताणगं किं वा णं फालावेऊण मज्झोमज्झीए तिक्ख करवत्तेहिं अत्ताणगं पुणो संभरावेमि अंतो सुकड्ढिय तउय तंब कंसलोह लोणूससज्जियक्खारस्स किं वा णं सहत्थेणं छिंदामि उत्तमंगं किं वा णं पविसामि मयरहरं किं वा णं उभयरुक्खेसु अहोमुहं विणिबंधाविऊण-मत्ताणगं हेट्ठा पज्जलावेमि जलणं किं बहुना णिद्दहेमि कट्ठेहिं अत्ताणगं Translated Sutra: ऐसा बोलकर महापाप कर्म करनेवाला वो सोचने लगा कि – क्या अब मैं शस्त्र के द्वारा मेरे गात्र को तिल – तिल जितने टुकड़े करके छेद कर डालूँ ? या तो ऊंचे पर्वत के शिखर से गिरकर अनन्त पाप समूह के ढ़ेर समान इस दुष्ट शरीर के टुकड़े कर दूँ ? या तो लोहार की शाला में जाकर अच्छी तरह से तपाकर लाल किए लोहे की तरह मोटे घण से कोई टीपे उस | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 387 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं नो इत्थीणं निज्झाएज्जा। नो नमालवेज्जा। नो णं तीए सद्धिं परिवसेज्जा। नो णं अद्धाणं पडिवज्जेज्जा
(२) गोयमा सव्व-प्पयारेहि णं सव्वित्थीयं अच्चत्थं मउक्कडत्ताए रागेणं संधुक्किज्जमाणी
कामग्गिए संपलित्ता सहावओ चेव विसएहिं बाहिज्जइ।
(३) तओ सव्व-पयारेहिं णं सव्वत्थियं अच्चत्थं मउक्कडत्ताए रागेणं संधु-क्किज्जमाणी कामग्गीए संपलित्ता सहावओ चेव विसएहिं बाहिज्जमाणी, अनुसमयं सव्व-दिसि-विदिसासुं णं सव्वत्थ विसए पत्थेज्जा
(४) जावं णं सव्वत्थ-विसए पत्थेज्जा, ताव णं सव्व-पयारेहिं णं सव्वत्थ सव्वहा पुरिसं संकप्पिज्जा,
(५) जाव णं Translated Sutra: हे भगवंत ! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि – स्त्री के मर्म अंग – उपांग की ओर नजर न करना, उसके साथ बात न करना, उसके साथ वास न करना, उसके साथ मार्ग में अकेले न चलना ? हे गौतम ! सभी स्त्री सर्व तरह से अति उत्कट मद और विषयाभिलाप के राग से उत्तेजित होती है। स्वभाव से उस का कामाग्नि हंमेशा सुलगता रहता है। विषय की ओर उसका चंचल चित्त | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 404 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (४) जामत्थियं तं वेयणं नो अहियासेज्जा वियम्मं वा समायरेज्जा से णं अधन्ना, से णं अपुन्ना, से णं अवंदा, से णं अपुज्जा, से णं अदट्ठव्वा, से णं अलक्खणा, से णं भग्ग-लक्खणा, से णं सव्व अमंगल-अकल्लाण-भायणा।
(५) से णं भट्ठ-सीला, से णं भट्ठायारा से णं परिभट्ठ-चारित्ता, से णं निंदणीया, से णं गरहणीया, से खिंसणिज्जा, से णं कुच्छणिज्जा, से णं पावा, से णं पाव-पावा, से णं महापाव-पावा, से णं अपवित्ति त्ति॥
(१) एवं तु गोयमा चडुलत्ताए भीरुत्ताए कायरत्ताए लोलत्ताए, उम्मायओ वा दप्पओ वा
कंदप्पओ वा अणप्प-वसओ वा आउट्टियाए वा,
(२) जमित्थियं संजमाओ परिभस्सिय, दूरद्धाणे वा गामे वा नगरे वा रायहाणीए वा, Translated Sutra: यदि वो स्त्री वेदना न सहे और अकार्याचरण करे तो वो स्त्री, अधन्या, अपुण्यवंती, अवंदनीय, अपूज्य, न देखने लायक, बिना लक्षण के तूटे हुए भाग्यवाली, सर्व अमंगल और अकल्याण के कारणवाली, शीलभ्रष्टा, भ्रष्टाचारवाली, नफरतवाली, धृणा करनेलायक, पापी, पापी में भी महा पापीणी, अपवित्रा है। हे गौतम ! स्त्री होंशियारी से, भय से, कायरता | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 492 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं जइ एवं ता किं पंच-मंगलस्स णं उवहाणं कायव्वं
(२) गोयमा पढमं नाणं तओ दया, दयाए य सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं अत्तसम-दरिसित्तं
(३) सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं-अत्तसम-दंसणाओ य तेसिं चेव संघट्टण-परियावण-किलावणोद्दावणाइ-दुक्खु-पायण-भय-विवज्जणं,
(४) तओ अणासवो, अणासवाओ य संवुडासवदारत्तं, संवुडासव-दारत्तेणं च दमो पसमो
(५) तओ य सम-सत्तु-मित्त-पक्खया, सम-सत्तु-मित्त-पक्खयाए य अराग-दोसत्तं, तओ य अकोहया अमाणया अमायया अलोभया, अकोह-माण-माया-लोभयाए य अकसायत्तं
(६) तओ य सम्मत्तं, समत्ताओ य जीवाइ-पयत्थ-परिन्नाणं, तओ य सव्वत्थ-अपडिबद्धत्तं, सव्वत्थापडिबद्धत्तेण य अन्नाण-मोह-मिच्छत्तक्खयं
(७) Translated Sutra: हे भगवंत ! यदि ऐसा है तो क्या पंच मंगल के उपधान करने चाहिए ? हे गौतम ! प्रथम ज्ञान और उसके बाद दया यानि संयम यानि ज्ञान से चारित्र – दया पालन होता है। दया से सर्व जगत के सारे जीव – प्राणी – भूत – सत्त्व को अपनी तरह देखनेवाला होता है। जगत के सर्व जीव, प्राणी, भूत सत्त्व को अपनी तरह सुख – दुःख होता है, ऐसा देखनेवाला होने | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 494 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किमेयस्स अचिंत-चिंतामणि-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं गोयमा
(२) इयं एयस्स अचिंत-चिंतामणी-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स णं सुत्तत्थं-पन्नत्तं
(३) तं जहा–जे णं एस पंचमं-गल-महासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरो ववत्ती तिल-तेल-कमल-मयरंदव्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव,
(४) जहत्थ किरियाणुगय-सब्भूय-गुणुक्कित्तणे, जहिच्छिय-फल-पसाहगे चेव परम-थुइवाए (५) से य परमथुई केसिं कायव्वा सव्व-जगुत्तमाणं।
(६) सव्व-जगुत्तमुत्तमे य जे केई भूए, जे केई भविंसु, जे केई भविस्संति, ते सव्वे चेव अरहंतादओ चेव नो नमन्ने ति।
(७) ते य पंचहा १ अरहंते, २ सिद्धे, ३ आयरिए, Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या यह चिन्तामणी कल्पवृक्ष समान पंच मंगल महाश्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ को प्ररूपे हैं ? हे गौतम ! यह अचिंत्य चिंतामणी कल्पवृक्ष समान मनोवांछित पूर्ण करनेवाला पंचमंगल महा श्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ प्ररूपेल हैं। वो इस प्रकार – जिस कारण के लिए तल में तैल, कमल में मकरन्द, सर्वलोक में पंचास्तिकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 501 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खीणट्ठ-कम्म-पाया मुक्का बहु-दुक्ख-गब्भवसहीनं।
पुनरवि अ पत्तकेवल-मनपज्जव-नाण-चरिततनू॥ Translated Sutra: केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और चरम शरीर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया ऐसे जीव भी अरिहंत के अतिशय को देखकर आठ तरह के कर्म का क्षय करनेवाले होते हैं। ज्यादा दुःख और गर्भावास से मुक्त होते हैं, महायोगी होते हैं, विविध दुःख से भरे भवसागर से उद्विग्न बनते हैं। और पलभर में संसार से विरक्त मनवाला बन जाता है। या हे गौतम | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 654 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कहं पुन तेण सुमइणा कुसील-संसग्गी कया आसी उ, जीए अ एरिसे अइदारुणे अवसाणे समक्खाए जेण भव-कायट्ठितीए अनोर-पारं भव-सायरं भमिही। से वराए दुक्ख-संतत्ते अलभंते सव्वण्णुवएसिए अहिंसा-लक्खण खंतादि-दसविहे धम्मे बोहिं ति गोयमा णं इमे, तं जहा–
अत्थि इहेव भारहे वासे मगहा नाम जनवओ। तत्थ कुसत्थलं नाम पुरं। तम्मि य उवलद्ध-पुन्न-पावे समुनिय-जीवाजीवादि-पयत्थे सुमती-नाइल नामधेज्जे दुवे सहोयरे महिड्ढीए सड्ढगे अहेसि।
अहन्नया अंतराय-कम्मोदएणं वियलियं विहवं तेसिं, न उणं सत्त-परक्कमं ति। एवं तु अचलिय-सत्त-परक्कमाणं तेसिं अच्चंतं परलोग-भीरूणं विरय-कूड-कवडालियाणं पडिवन्न-जहोवइट्ठ-दाणाइ-चउक्खंध-उवासग-धम्माणं Translated Sutra: हे भगवंत ! उस सुमति ने कुशील संसर्ग किस तरह किया था कि जिससे इस तरह के अति भयानक दुःख परीणामवाला भवस्थिति और कायस्थिति युक्त पार रहित भवसागर में दुःख संतप्त बेचारा वो भ्रमण करेगा। सर्वज्ञ – भगवंत के उपदेशीत अहिंसा लक्षणवाले क्षमा आदि दश प्रकार के धर्म को और सम्यक्त्व न पाएगा, हे गौतम ! वो बात यह है – इस भारतवर्ष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 686 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अत्थेगे गोयमा पाणी जे ते उम्मग्ग-पट्ठियं।
गच्छं संवासइत्ताणं भमती भव-परंपरं॥ Translated Sutra: हे गौतम ! ऐसे प्राणी है कि जो उन्मार्ग में प्रवेश किए हुए गच्छ में वास करके भव की परम्परा में भ्रमणा करते हैं। अर्ध पहोर, एक पहोर, एक दिन, एक पक्ष, एक मास या एक साल तक सन्मार्ग में प्रवेश किए हुए गच्छ में गुरुकुल वास में रहनेवाले साधु हे गौतम ! मौज – मजे करनेवाला या आलसी, निरुत्साही बुद्धि या मन से रहता हो लेकिन महानुभाव | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 692 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयरे णं से गच्छे जे णं वासेज्जा एवं तु गच्छस्स पुच्छा जाव णं वयासी। गोयमा जत्थ णं सम सत्तु मित्त पक्खे अच्चंत सुनिम्मल विसुद्धंत करणे आसायणा भीरु सपरोवयारमब्भुज्जए अच्चंत छज्जीव निकाय वच्छले, सव्वालंबण विप्पमुक्के, अच्चंतमप्पमादी, सविसेस बितिय समय सब्भावे रोद्दट्ट ज्झाण विप्पमुक्के, सव्वत्थ अनिगूहिय बल वीरिय पुरिसक्कार परक्कमे, एगंतेणं संजती कप्प परिभोग विरए एगंतेणं धम्मंतराय भीरू, एगंतेणं तत्त रुई एगंतेणं इत्थिकहा भत्तकहा तेणकहा राय-कहा जनवयकहा परिभट्ठायारकहा, एवं तिन्नि तिय अट्ठारस बत्तीसं विचित्त सप्पभेय सव्व विगहा विप्पमुक्के, एगंतेणं Translated Sutra: हे भगवंत ! ऐसे कौन – से गच्छ हैं, जिसमें वास कर सकते हैं ? हे गौतम ! जिसमें शत्रु और मित्र पक्ष की तरफ समान भाव वर्तता हो। अति सुनिर्मल विशुद्ध अंतःकरणवाले साधु हो, आशातना करने में भय रखनेवाले हो, खुद के और दूसरों के आत्मा का अहेसान करने में उद्यमवाले हों, छ जीव निकाय के जीव पर अति वात्सल्य करनेवाले हो, सर्व प्रमाद | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 816 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयरे णं ते पंच सए एक्क विवज्जिए साहूणं जेहिं च णं तारिस गुणोववेयस्स महानुभागस्स गुरुणो आणं अइक्कमिउं नाराहियं गोयमा णं इमाए चेव उसभ चउवीसिगाए अतीताए तेवीसइमाए चउवीसिगाए जाव णं परिनिव्वुडे चउवीसइमे अरहा ताव णं अइक्कंतेणं केवइएणं कालेणं गुणनिप्फन्ने कम्मसेल मुसुमूरणे महायसे, महासत्ते, महानुभागे, सुगहिय नामधेज्जे, वइरे नाम गच्छाहिवई भूए।
तस्स णं पंचसयं गच्छं निग्गंथीहिं विना, निग्गंथीहिं समं दो सहस्से य अहेसि। ता गोयमा ताओ निग्गंथीओ अच्चंत परलोग भीरुयाओ सुविसुद्ध निम्मलंतकरणाओ, खंताओ, दंताओ, मुत्ताओ, जिइंदियाओ, अच्चंत भणिरीओ निय सरीरस्सा वि य छक्काय Translated Sutra: हे भगवंत ! एक रहित ऐसे ५०० साधु जिन्होंने वैसे गुणयुक्त महानुभाव गुरु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके आराधक न हुए, वे कौन थे ? हे गौतम ! यह ऋषभदेव परमात्मा की चोवीसी के पहले हुई तेईस चौवीसी और उस चौवीसी के चौवीसवे तीर्थंकर निर्वाण पाने के बाद कुछ काल गुण से पैदा हुए कर्म समान पर्वत का चूरा करनेवाला, महायशवाले, महासत्त्ववाले | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 831 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं गच्छववत्थं तह त्ति पालेत्तु तहेव जं जहा भणियं।
रय-मल-किलेस-मुक्के गोयम मोक्खं गएऽ णंतं॥ Translated Sutra: जिस प्रकार शास्त्र में किया है उस प्रकार गच्छ की व्यवस्था का यथार्थ पालन करके कर्मरूप रज के मैल और क्लेश से मुक्त हुए अनन्त आत्मा ने मुक्ति पद पाया है। देव, असुर और जगत के मानव से नमन किए हुए, इस भुवन में जिनका अपूर्व प्रकट यश गाया गया है, केवली तीर्थंकर भगवंत ने बताए अनुसार गण में रहे, आत्म पराक्रम करनेवाले, गच्छाधिपति | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 833 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केइ अमुणिय समय सब्भावे होत्था विहिए, इ वा अविहिए, इ वा कस्स य गच्छायारस्स य मंडलिधम्मस्स वा छत्तीसइविहस्स णं सप्पभेय नाण दंसण चरित्त तव वीरियायारस्स वा, मनसा वा, वायाए वा, कहिं चि अन्नयरे ठाणे केई गच्छाहिवई आयरिए, इ वा अंतो विसुद्ध, परिणामे वि होत्था णं असई चुक्केज्ज वा, खलेज्ज वा, परूवेमाणे वा अणुट्ठे-माणे वा, से णं आराहगे उयाहु अनाराहगे गोयमा अनाराहगे।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अनाराहगे गोयमा णं इमे दुवालसंगे सुयनाणे अणप्पवसिए अनाइ निहणे सब्भूयत्थ पसाहगे अनाइ संसिद्धे से णं देविंद वंद वंदाणं अतुल बल वीरिएसरिय सत्त परक्कम महापुरिसायार Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले हो, वह विधि से या अविधि से किसी गच्छ के आचार या मंड़ली धर्म के मूल या छत्तीस तरह के भेदवाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के आचार को मन से वचन से या काया से किसी भी तरह कोई भी आचार स्थान में किसी गच्छाधिपति या आचार्य के जितने अंतःकरण में विशुद्ध परिणाम होने के | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1016 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भगवं जो बलविरियं पुरिसयार-परक्कमं।
अनिगूहंतो तवं चरइ, पच्छित्तं तस्स किं भवे॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई भी मानव अपने में जो कोई बल, वीर्य पुरुषकार पराक्रम हो उसे छिपाकर तप सेवन करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त आए ? हे गौतम ! अशठ भाववाले उसे यह प्रायश्चित्त हो सकता है। क्योंकि वैरी का सामर्थ्य जानकर अपनी ताकत होने के बावजूद भी उसने उसकी अपेक्षा की है जो अपना बल वीर्य, सत्त्व पुरुषकार छिपाता है, वो शठ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1020 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से भगवं पावयं कम्मं परं वेइय समुद्धरे।
अणणुभूएण नो मोक्खं, पायच्छित्तेण किं तहिं॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! बड़ा पापकर्म वेदकर खपाया जा सकता है। क्योंकि कर्म भुगते बिना उसका छूटकारा नहीं किया जा सकता। तो वहाँ प्रायश्चित्त करने से क्या फायदा ? हे गौतम ! कईं क्रोड़ साल से इकट्ठे किए गए पापकर्म सुरज से जैसे तुषार – हीम पीगल जाए वैसे प्रायश्चित्त समान सूरज के स्पर्श से पीगल जाता है। घनघोर अंधकार वाली रात हो लेकिन | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1245 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पणयामरमरुय मउडुग्घुट्ठ-चलण-सयवत्त-जयगुरु
जगनाह, धम्मतित्थयर, भूय-भविस्स वियाणग Translated Sutra: जिनके चरणकमल प्रणाम करते हुए देव और अनुसरते मस्तक के मुकुट से संघट्ट हुए हैं ऐसे हे जगद्गुरु ! जगत के नाथ, धर्म तीर्थंकर, भूत और भावि को पहचाननेवाले, जिन्होंने तपस्या से समग्र कर्म के अंश जला दिए हैं ऐसे, कामदेव शत्रु का विदारण करनेवाले, चार कषाय के समूह का अन्त करनेवाले, जगत के सर्व जीव के प्रति वात्सल्यवाले, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1284 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] साम-भेय-पयाणाइं अह सो सहसा पउंजिउं।
तस्स साहस-तुलणट्ठा गूढ-चरिएण वच्चइ॥ Translated Sutra: सीधी तरह आज्ञा न माने तो साम, भेद, दाम, दंड आदि नीति के प्रयोग करके भी आज्ञा मनवाना। उसके पास सैन्यादिक कितनी चीजे हैं। उसका साहस मालूम करने के लिए गुप्तचर – जासूस पुरुष के झरिये जांच – पड़ताल करवाए। या गुप्त चरित्र से खुद पहने हुए कपड़े से अकेला जाए। बड़े पर्वत, कील्ले, अरण्य, नदी उल्लंघन करके लम्बे अरसे के बाद |