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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 68 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइं चेव, नवरं–अब्भहिया सम्मत्ते। आभिनिबोहियनाणे, सुयनाणे य एएहिं असीइभंगा। जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं।
पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा भाणियव्वा, नवरं–जेहिं सत्तावीसं भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं।
मनुस्सा वि। जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीतिभंगा तेहिं ठाणेहिं मनुस्साण वि असीतिभंगा भाणियव्वा। जेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं, नवरं–मनुस्साणं अब्भहियं जहन्नियाए ठिईए, आहारए य असीतिभंगा।
वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा भवनवासी, नवरं– नाणत्तं जाणियव्वं Translated Sutra: जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गए हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं। विशेषता यह है कि सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान, और श्रुतज्ञान – इन तीन स्थानों में भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, इतनी बात नारक जीवों से अधिक है। तथा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 69 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जावइयाओ णं भंते! ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चेव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति?
हंता गोयमा! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चेव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति।
जावइय णं भंते! खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावइयं चेव खेत्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ? उज्जोएइ? तवेइ? पभासेइ?
हंता गोयमा! जावतिय णं खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोइए तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य Translated Sutra: भगवन् ! जितने जितने अवकाशान्तर से अर्थात् – जितनी दूरी से उदय होता हुआ सूर्य आँखो से शीघ्र देखा जाता है, उतनी ही दूरी से क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी दिखाई देता है ? हाँ, गौतम ! जितनी दूर से उदय होता हुआ सूर्य आँखो से दीखता है, उतनी ही दूरी से अस्त होता सूर्य भी आँखों से दिखाई देता है। भगवन् ! उदय होता हुआ सूर्य अपने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 75 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुव्विं भंते! लोयंते, पच्छा अतीतद्धा? पुव्विं अतीतद्धा, पच्छा लोयंते?
रोहा! लोयंते य अतीतद्धा य पुव्विं पेते, पच्छा पेते–दो वेते सासया भावा, अनानुपुव्वी एसा रोहा!
पुव्विं भंते! लोयंते, पच्छा अनागतद्धा? पुव्विं अनागतद्धा, पच्छा लोयंते?
रोहा! लोयंते य अनागतद्धा य पुव्विं पेते, पच्छा पेते–दो वेते सासया भावा, अनानुपुव्वी एसा रोहा!
पुव्विं भंते! लोयंते, पच्छा सव्वद्धा? पुव्विं सव्वद्धा, पच्छा लोयंते?
रोहा! लोयंते य सव्वद्धा य पुव्विं पेते, पच्छा पेते–दो वेते सासया भावा, अनानुपुव्वी एसा रोहा
जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते, एवं अलोयंतेण वि संजोएतव्वा सव्वे।
पुव्विं Translated Sutra: क्या ये पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? अथवा हे भगवन् ! क्या लोकान्त पहले और सर्वाद्धा (सर्व काल) पीछे हैं ? जैसे लोकान्त के साथ (पूर्वोक्त) सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार अलोकान्त के इन सभी स्थानों को जोड़ना चाहिए। भगवन् ! पहले सप्तम अवकाशान्तर है और पीछे सप्तम तनुवात है ? हे रोह ! इसी प्रकार सप्तम अवका – शान्तर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 81 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! किं विग्गहगइसमावण्णए? अविग्गहगइसमावण्णए?
गोयमा! सिय विग्गहगइसमावण्णए, सिय अविग्गहगइसमावण्णए।
एवं जाव वेमाणिए।
जीवा णं भंते! किं विग्गहगइसमावण्णया? अविग्गहगइसमावण्णया?
गोयमा! विग्गहगइसमावन्नगा वि, अविग्गहगइसमावन्नगा वि।
नेरइया णं भंते! किं विग्गहगइसमावन्नगा? अविग्गहगइसमावन्नगा?
गोयमा! सव्वे वि ताव होज्ज अविग्गहगइसमावन्नगा। अहवा अविग्गहगइसमावन्नगा, विग्गहगइ-समावन्नगे य। अहवा अविग्गहगइसमावन्नगा य, विग्गहगइसमावन्नगा य। एवं जीव–एगिंदिय-वज्जो तियभंगो। Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव विग्रहगतिसमापन्न – विग्रहगति को प्राप्त होता है, अथवा विग्रहगतिसमापन्न – विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता ? गौतम ! कभी (वह) विग्रहगति को प्राप्त होता है, और कभी विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त जानना चाहिए। भगवन् ! क्या बहुत से जीव विग्रहगति को प्राप्त होते हैं अथवा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 84 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे किं आहारमाहारेइ?
गोयमा! जं से माया नाणाविहाओ रसविगतीओ आहारमाहारेइ, तदेकदेसेणं ओयमाहारेइ।
जीवस्स णं भंते! गब्भगयस्स समाणस्स अत्थि उच्चारे इ वा पासवने इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं?
गोयमा! जीवे णं गब्भगए समाणे जमाहारेइ तं चिणाइ, तं जहा–सोइंदियत्ताए, चक्खिंदियत्ताए, घाणिंदियत्ताए, रसिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए, अट्ठि-अट्ठिमिंज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जीवस्स णं गब्भगयस्स समाणस्स नत्थि उच्चारे इ वा पासवने इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा।
जीवे णं Translated Sutra: भगवन् ! गर्भ में रहा हुआ जीव क्या नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता। भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! गर्भ में रहा हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय और समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त (परिपूर्ण) जीव, वीर्यलब्धि द्वारा, वैक्रियलब्धि द्वारा शत्रुसेना का आगमन सूनकर, अवधारण (विचार) | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 91 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! पुरिसं सत्तीए समभिसंधेज्जा, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिंदेज्जा, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेति, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिंदति–ताव च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए, पाणातिवात-किरियाए–पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे।
आसन्नवधएण य अनवकंखणवत्तीए णं पुरिसवेरेणं पुट्ठे। Translated Sutra: भगवन् ! कोई पुरुष किसी पुरुष को बरछी (या भाले) से मारे अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काट डाले, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम ! जब वह पुरुष उसे बरछी द्वारा मारता है, अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काटता है, तब वह पुरुष कायिकी, आधिकर – णिकी यावत् प्राणातिपातिकी इन पाँचों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 92 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं संगामं संगामेंति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणति, एगे पुरिसे परायिज्जति। से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! सवीरिए परायिणति, अवीरिए परायिज्जति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सवीरिए परायिणति? अवीरिए परायिज्जति?
गोयमा! जस्स णं वीरियवज्झाइं कम्माइं नो बद्धाइं नो पुट्ठाइं नो निहत्ताइं नो कडाइं नो पट्ठवियाइं नो अभिनिविट्ठाइं नो अभिसमन्नागयाइं नो उदिण्णाइं–उवसंताइं भवंति से णं परायिणति।
जस्स णं वीरियवज्झाइं कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाइं निहत्ताइं कडाइं पट्ठवियाइं अभिनिविट्ठाइं अभि-समन्नागयाइं Translated Sutra: भगवन् ! एक सरीखे, एक सरीखी चमड़ी वाले, समानवयस्क, समान द्रव्य और उपकरण वाले कोई दो पुरुष परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करें, तो उनमें से एक पुरुष जीतता है और एक पुरुष हारता है; भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? हे गौतम ! जो पुरुष सवीर्य होता है, वह जीतता है और जो वीर्यहीन होता है, वह हारता है ? भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 95 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, नो गरुयलहुए, अगरुयलहुए।
सत्तमे णं भंते! तनुवाए किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो अगरुयलहुए।
एवं सत्तमे घनवाए, सत्तमे घनोदही, सत्तमा पुढवी।
ओवासंतराइं सव्वाइं जहा सत्तमे ओवासंतरे।
जहा तनुवाए एवं–ओवास-वाय-घनउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा।
नेरइया णं भंते! किं गरुया? लहुया? गरुयलहुया? अगरुयलहुया?
गोयमा! नो गरुया, नो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया नो गरुया? नो लहुया? गरुयलहुया वि? अगरुयलहुया वि?
गोयमा! विउव्विय-तेयाइं Translated Sutra: भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलघु है, अथवा अगुरुलघु है ? गौतम! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु – लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है। भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरु – लघु है; अगुरुलघु नहीं है। इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 98 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते नामं अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं वयासी–
थेरा सामाइयं न याणंति, थेरा सामाइयस्स अट्ठं न याणंति।
थेरा पच्चक्खाणं न याणंति, थेरा पच्चक्खाणस्स अट्ठं न याणंति।
थेरा संजमं न याणंति, थेरा संजमस्स अट्ठं न याणंति।
थेरा संवरं न याणंति, थेरा संवरस्स अट्ठं न याणंति।
थेरा विवेगं न याणंति, थेरा विवेगस्स अट्ठं ण याणंति।
थेरा विउस्सग्गं न याणंति, थेरा विउस्सगस्स अट्ठं न याणंति।
तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अनगारं एवं वदासी–
जाणामो णं अज्जो! सामाइयं, जाणामो णं अज्जो! सामाइयस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय (भगवान महावीर के शासनकाल) में पार्श्वापत्यीय कालास्यवेषिपुत्र नामक अनगार जहाँ (भगवान महावीर के) स्थविर भगवान बिराजमान थे, वहाँ गए। स्थविर भगवंतों से उन्होंने कहा – ‘हे स्थविरो ! आप सामयिक को नहीं जानते, सामयिक के अर्थ को नहीं जानते, आप प्रत्याख्यान को नहीं जानते और प्रत्याख्यान के अर्थ को नहीं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 102 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति –
एवं खलु चलमाणे अचलिए। उदीरिज्जमाणे अनुदीरिए। वेदिज्जमाणे अवेदिए। पहिज्जमाणे अपहीने। छिज्जमाणे अच्छिन्ने भिज्जमाणे अभिन्ने। दज्झमाणे अदड्ढे। भिज्जमाणे अमए। निज्जरिज्जमाणे अनिज्जिण्णे।
दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति,
कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति?
दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिनेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति।
तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति,
कम्हा तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति?
तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिनेहकाए, तम्हा तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि – जो चल रहा है, वह अचलित है – चला नहीं कहलाता और यावत् – जो निर्जीर्ण हो रहा है, वह निर्जीर्ण नहीं कहलाता। दो परमाणुपुद्गल एक साथ नहीं चिपकते। दो परमाणुपुद्गल एक साथ क्यों नहीं चिपकते ? इसका कारण यह है कि दो परमाणु – पुद्गलों में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 112 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ,
पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ जाव समोसरणं। परिसा निग्गच्छइ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: उस काल उस समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपला – शक नामका चैत्य था। वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। यावत् – भगवान का समवसरण हुआ। परीषद् धर्मोपदेश सूनने के लिए नीकली। उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 114 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तए णं से खंदए अनगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
अहासुहं देवानुप्पिया! मा पडिबंधं।
तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठे जाव नमंसित्ता मासियं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से नीकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र – अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर के पास आकर वन्दना – नमस्कार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 115 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया।
तए णं तस्स खंदयस्स अनगारस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–
एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महानुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए। जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि, भासं भासित्ता वि गिलामि, भासं भासमाणे गिलामि, Translated Sutra: उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई। यावत् जनता धर्मोपदेश सूनकर वापिस लौट गई। तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पीछले प्रहर में धर्म – जागरणा करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 116 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से खंदए अनगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमनस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महाव्वयाइं आरुहेइ, आरुहेत्ता समणा य समणीओ य खामेइ, खामेत्ता तहारूवेहि थेरेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं द्रुहइ, द्रुहित्ता मेहघणसन्निगासं देवसन्निवातं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे Translated Sutra: तदनन्तर श्री स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर अत्यन्त हर्षित, सन्तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हुए। फिर खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और वन्दना – नमस्कार करके स्वयमेव पाँच महाव्रतों का आरोपण किया। फिर श्रमण – श्रमणियों से क्षमायाचना की, और तथारूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 117 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अनगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसग्गं करेंति, करेत्ता पत्तचीवराणि गेण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ सणियं-सणियं पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए।
से णं देवानुप्पिएहिं अब्भ णुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरुहेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं Translated Sutra: तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे ऊतरे। ऊतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। भगवान को वन्दना – नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 119 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–१. रयणप्पभा २. सक्करप्पभा ३. बालुयप्पभा ४. पंकप्पभा ५. धूमप्पभा ६. तमप्पभा ७. तमतमा।
जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयव्वो जाव– Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में नैरयिक उद्देशक में पृथ्वीसम्बन्धी जो वर्णन है, वह सब यहाँ जान लेना चाहिए। वहाँ उनके संस्थान, मोटाई आदि का तथा यावत् – अन्य जो भी वर्णन है, वह सब यहाँ कहना। पृथ्वी, नरकावास का अंतर, संस्थान, बाहल्य, विष्कम्भ, परिक्षेप, वर्ण, गंध और स्पर्श (यह सब कहना चाहिए)। सूत्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 121 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किं सव्वे पाणा उववन्नपुव्वा?
हंता गोयमा! असइं अदुवा अनंतखुत्तो। Translated Sutra: भगवन् ! क्या सब जीव उत्पन्नपूर्व हैं ? हाँ, गौतम ! सभी जीव रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वीयों में अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूके हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 123 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवेंति–
१. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अन्ने देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ आभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउ-व्विय परियारेइ।
२. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा–इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च।
जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ।
इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थिवेयं वेएइ।
एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा– इत्थिवेदं च, Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वशमें करके या आलिंगन करके उनके साथ भी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 129 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मेहुणण्णं भंते! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कज्जई?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कनएणं समभिद्धंसेज्जा, एरिसएणं गोयमा! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ।
सेवं भंते! सेवं भंते! जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की) सलाई (डालकर, उस) से बाँस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पतिसे भरी नली को जला डालता है, हे गौतम ! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 130 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति– अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवन-सयनासन-जानवाहणाइण्णा बहुधन-बहुजायरूव-रयया आयोगपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुल-भत्तपाना बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध-पुण्ण-पावा-आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिकरणबंधपमोक्खकुसला असहेज्जा Translated Sutra: इसके पश्चात् (एकदा) श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में तुंगिका नामकी नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नामका चैत्य था। उस तुंगिकानगरी में बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य और दीप्त थे। उनके विस्तीर्ण निपुल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 142 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! अत्थिकाया पन्नत्ता?
गोयमा! पंच अत्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा–धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए।
धम्मत्थिकाए णं भंते! कतिवण्णे? कतिगंधे? कतिरसे? कतिफासे?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे;
अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे।
से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ।
दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे,
खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते,
कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ–भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य–धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे।
भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे।
गुणओ गमणगुणे।
अधम्मत्थिकाए Translated Sutra: भगवन् ! अस्तिकाय कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति – काय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। भगवन् ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! धर्मास्ति – काय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित है, अर्थात् – धर्मास्तिकाय अरूपी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 144 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया?
हंता गोयमा! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावंउवदंसेतीति वत्तव्वं सिया।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! जीवे णं अनंताणं आभिनिबोहियनाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयनाणपज्जवाणं, अनंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मनपज्जवनाणपज्जवाणं, अनंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अणं-ताणं मइअन्नाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयअन्नाणपज्जवाणं, Translated Sutra: भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम वाला जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हाँ, गौतम ! भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है ? गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मनःपर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 147 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
अधम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
लोयाकासे णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
जीवत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
पोग्गलत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक – प्रमाण है, लोकस्पृष्ट है, लोकको ही स्पर्श करके कहा हुआ है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्ति – काय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। इन पाँचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 149 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति?
गोयमा! नो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसति, नो संखेज्जे भागे फुसति, नो असंखेज्जे भागे फुसति, नो सव्वं फुसति।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घनोदही धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति?
जहा रयणप्पभा तहा घनोदहि-घनवाय-तणुवाया वि।
इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? Translated Sutra: भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श करती है या असंख्यातभाग को स्पर्श करती है, अथवा संख्यातभागों को स्पर्श करती है या असंख्यात भागों को स्पर्श करती है अथवा समग्र को स्पर्श करती है? गौतम! यह रत्नप्रभापृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श नहीं करती, अपितु असंख्यात भाग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 152 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं मोयाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे नंदने नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गच्छइ, पडिगया परिसा।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नामं अनगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासि– चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरराया केमहिड्ढीए? केमहज्जुतीए? केमहाबले? केमहायसे? केमहासोक्खे? केमहानुभागे? केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए?
गोयमा! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए, महज्जुतीए, महाबले, महायसे, महासोक्खे, महानुभागे! Translated Sutra: उस काल उस समयमें ‘मोका’ नगरी थी। मोका नगरी के बाहर ईशानकोण में नन्दन चैत्य था। उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे। परीषद् नीकली। धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापस चली गई उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के द्वीतिय अन्तेवासी अग्निभूति नामक अनगार जिनका गोत्र गौतम था, तथा जो सात हाथ ऊंचे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 155 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूति अनगारे दोच्चे णं गोयमेणं अग्गिभूतिणा अनगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–जइ णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, बली णं भंते! वइरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिड्ढीए? जाव केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए?
गोयमा! बली णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया महिड्ढीए जाव महानुभागे। जहा चमरस्स तहा बलिस्स वि नेयव्वं, नवरं–सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं भाणियव्वं, सेसं तं चेव निरवसेसं नेयव्वं, नवरं–नाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं सामाणिएहि य।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति तच्चे Translated Sutra: इसके पश्चात् तीसरे गौतम ( – गोत्रीय) वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार किया, और फिर यों बोले – भगवन् ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्व – णाशक्ति से सम्पन्न है, तब हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? यावत् वह कितनी विकुर्वणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 156 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासि तीसए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडि-पुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स Translated Sutra: भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने मे समर्थ है, तो आप देवानुप्रिय का शिष्य ‘तिष्यक’ नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था निरन्तर छठ – छठ की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूरे आठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 158 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अनगारे पगतिभद्दए जाव विनीए अट्ठमंअट्ठमेणं अनिक्खित्तेणं, पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोक-म्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेत्ता, तीसं भत्ताइं अनसनाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाने कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए Translated Sutra: भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि से युक्त है, यावत् वह इतनी विकुर्वणाशक्ति रखता है, तो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत, तथा निरन्तर अट्ठम की तपस्या और पारणे में आयंबिल, ऐसी कठोर तपश्चर्या से आत्मा को भावित करता हुआ, दोनों हाथ ऊंचे रखकर सूर्य की ओर मुख करके आतापना – भूमि में आतापना लेने वाला | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 160 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ जाव परिसा पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाने देविंदे देवराया ईसाने कप्पे ईसानवडेंसए विमाने जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्ता जाव जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता। एवं वदासी–अहो णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव महानुभागे। ईसानस्स णं भंते! सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं अनुपविट्ठे?
गोयमा! Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। यावत् परीषद् भगवान की पर्युपासना करने लगी। उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, शूलपाणि वृषभ – वाहन लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रजरहित निर्मल वस्त्रधारक, सिर पर माला से सुशोभित मुकुटधारी, नवीनस्वर्ण निर्मित सुन्दर, विचित्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 161 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहानी अणिंदा अपुरोहिया या वि होत्था।
तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सिं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासि–
एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचा रायहानी अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवानुप्पिया! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, अयं च णं देवानुप्पिया! तामली बालतवस्सी तामलित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभागे नियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणाज्झूसणाज्झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे, तं सेयं खलु देवानुप्पिया! अम्हं तामलिं Translated Sutra: उस काल उस समय में बलिचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहित से विहीन थी। उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा। देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया, और कहा – देवानुप्रियो ! बलिचंचा राजधानी इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है। हे देवानुप्रियो | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 163 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते ईसानकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं गरहिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं पव्वहिज्जमाणं आकड्ढ-विकड्ढिं कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाने देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे Translated Sutra: तत्पश्चात् ईशानकल्पवासी बहुत – से वैमानिक देवों और देवियों ने (इस प्रकार) देखा कि बलिचंचा – निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा और आक्रोशना की जा रही है, यावत् उस शब को मनचाहे ढंग से इधर – उधर घसीटा या खींचा जा रहा है। अतः इस प्रकार देखकर वे वैमानिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 165 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवित्तए?
हंता पभू।
से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू?
गोयमा! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू।
पभू णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवित्तए?
हंता पभू।
से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू?
गोयमा! आढामाणे वि पभू, अणाढामाणे वि पभू।
पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोइत्तए?
हंता पभू।
से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू?
गोयमा! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू।
पभू णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया सक्कं देविंदं Translated Sutra: भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट हो (जाने) में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम! शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास जाने में समर्थ है। भगवन् ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? हे गौतम ! वह ईशानेन्द्र का आदर करता हुआ जाता है, किन्तु अनादर करता हुआ नहीं। भगवन् ! देवेन्द्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 170 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था जाव परिसा पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहानीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासनंसि, चउसट्ठीए सामानियसाहसहिं जाव नट्टविहिं उवदंसेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अत्थि णं भंते! ईसिप्पब्भाराए पुढवीए अहे असुर-कुमारा देवा परिवसंति? नो इणट्ठे Translated Sutra: उस काल, उस समय में राजगृह नामका नगर था। यावत् भगवान वहाँ पधारे और परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल, उस समय में चौंसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत्त और चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठे असुरेन्द्र असुरराज चमर ने (राजगृह में विराजमान भगवान को अवधिज्ञान से देखा); यावत् नाट्यविधि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 171 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] केवइयकालस्स णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य?
गोयमा! अनंताहिं ओसप्पिणीहिं, अनंताहिं उस्सप्पिणीहिं समतिक्कंताहिं अत्थि णं एस भावे लोयच्छेरयभूए समुप्पज्जइ, जं णं असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।
किं निस्साए णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव साहम्मो कप्पो?
गोयमा! से जहानामए इहं सबरा इ वा बब्बरा इ वा टंकणा इ वा चुचुया इ वा पल्हा इ वा पुलिंदा इ वा एगं महं रण्णं वा गड्ढं वा दुग्गं वा दरिं वा विसमं वा पव्वयं वा नीसाए सुमहल्लमवि आसबलं वा हत्थिबलं वा जोहबलं वा धणुबलं वा आगलेंति,
एवामेव असुरकुमारा वि Translated Sutra: भगवन् ! कितने काल में असुरकुमार देव ऊर्ध्व – गमन करते हैं, तथा सौधर्मकल्प तक ऊपर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे ? गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी – काल और अनन्त अवसर्पिणीकाल व्यतीत होने के पश्चात् लोक में आश्चर्यभूत यह भाव समुत्पन्न होता है कि असुरकुमार देव ऊर्ध्वगमन करते हैं, यावत् सौधर्मकल्प तक जाते हैं। भगवन् ! किसका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 172 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चमरे णं भंते! असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? पत्ते? अभिसमन्नागए?
एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विंज्झगिरिपायमूले बेभेले नामं सन्निवेसे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं बेभेले सन्निवेसे पूरणे नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए या वि होत्था।
तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अत्थि ता मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं Translated Sutra: भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि और यावत् वह सब, किस प्रकार उपलब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुई ? हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारत वर्ष (क्षेत्र) में, विन्ध्याचल की तलहटी में ‘बेभेल’ नामक सन्निवेश था। वहाँ ‘पूरण’ नामक एक गृहपति रहता था। वह आढ्य और दीप्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 174 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया वज्जं पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता
वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि–एवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो बहाए वज्जे निसट्ठे।
तए णं ममं इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था– नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो अप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, नन्नत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि Translated Sutra: हे गौतम ! (जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशाग्र हिलने लगे। तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दन – नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके कहा – भगवन् ! आपका ही आश्रय लेकर स्वयं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 176 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्जभयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहानीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविट्ठे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए ज्झियाति।
तए णं चमरं असुरिंदं असुररायं सामानियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव ज्झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी– किं णं देवानुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा चिंतासोयसागर-संपविट्ठा करयलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया Translated Sutra: इसके पश्चात् वज्र – (प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुआ, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमरचंचा नामक राजधानी में सुधर्मा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 177 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो?
गोयमा! तेसि णं देवाणं अहुणोववण्णाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुपज्जइ–अहो! णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए, जारिसिया णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए, तारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए। जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा जाव अभिस-मण्णागए, तारिसिया णं अम्हेहि वि जाव अभिसमन्नागए।
तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवामो पासामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो Translated Sutra: भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण से जाते हैं ? गौतम ! (देवलोक में) तत्काल उत्पन्न तथा चरमभवस्थ उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है – अहो ! हमने दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है। जैसी दिव्य देवऋद्धि हमने यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 183 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु अतिरेगे वड्ढइ वा? हायइ वा?
लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयव्वा जाव लोयट्ठिई, लोयाणुभावे।
सेवं भंते! सेवं भंते? त्ति जाव विहरति। Translated Sutra: गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ? हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यावत् ‘लोकस्थिति’ से ‘लोकानुभाव’ शब्द तक कहना चाहिए। ‘हे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-५ स्त्री | Hindi | 189 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए?
हंता पभू।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइआइं पभू इत्थिरूवाइं विउव्वित्तए?
गोयमा! से जहानामए–जुवइं जुवाणे हत्थेणं हत्थंसि गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणवारे वि भाविअप्पा वेउव्वियससमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा! अनगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थि-रूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं Translated Sutra: भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना एक बड़े स्त्रीरूप यावत् स्यन्द – मानिका रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके क्या एक बड़े स्त्रीरूप की यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा कर सकता है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-५ स्त्री | Hindi | 190 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इत्थी असी पडागा, जण्णोवइए य होइ बोद्धव्वे ।
पल्हत्थिय पलियंके, अभिओग विकुव्वणा मायी ॥ Translated Sutra: स्त्री, तलवार, पताका, यज्ञोपवित, पल्हथी, पर्यंकासन इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा – सम्बन्धी वर्णन इस उद्देशक में हैं। तथा ऐसा कार्य मायी करता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-६ नगर | Hindi | 191 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरिं समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– तहाभावं जाणइ-पासइ? अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणामि-पासामि सेसं दंसण-विवच्चासे भवइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
अनगारे णं भंते! भावियप्पा Translated Sutra: भगवन् ! राजगृह नगर में रहा हुआ मिथ्यादृष्टि और मायी भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या तद्गत रूपों को जानता – देखता है ? हाँ, गौतम ! वह जानता और देखता है। भगवन् ! क्या वह (उन रूपों को) यथार्थरूप से जानता – देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-६ नगर | Hindi | 192 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भाविअप्पा अमायी सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिहं नगरं समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणामि-पासामि सेस दंसण-अविवच्चासे भवति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
अनगारे णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से, राजगृहनगर और वाराणसी नगरी के बीच में एक बड़े जनपदवर्ग को जानता – देखता है ? हाँ (गौतम ! उस जनपदवर्ग को) जानता – देखता है। भगवन् ! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, अथवा अन्यथाभाव से ? गौतम! वह उस जनपदवर्ग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 194 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो कति लोगपाला पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि लोगपाला पन्नत्ता, तं जहा–सोमे जमे वरुणे वेसमणे।
एएसि णं भंते! चउण्हं लोगपालाणं कति विमाना पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि विमाना पन्नत्ता, तं जहा– संज्झप्पभे वरसिट्ठे सयंजले वग्गू।
कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो संज्झप्पभे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त तारारूवाणं बहूइं जोयणाइं जाव पंच वडेंसया पन्नत्ता, Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने (पूछा – ) भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? गौतम ! चार। सोम, यम, वरुण और वैश्रमण। भगवन् ! इन चारों लोकपालों के कितने विमान हैं ? गौतम ! चार। सन्ध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंज्वल और वल्गु। भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम नामक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 195 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो वरसिट्ठे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स दाहिणे णं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं जोयण-सहस्साइं वीईवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो वरसिट्ठे नामं महाविमाने पन्नत्ते–अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं–जहा सोमस्स विमाणं तहा जाव अभिसेओ। रायहानी तहेव जाव पासायपंतीओ।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा आणा उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–जमकाइया इ वा, जमदेवयकाइया इ वा, पेतकाइया इ वा, पेतदेवयकाइया इ वा, असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा, निरयपाला, Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान कहाँ है ? गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से दक्षिण में, सौधर्मकल्प से असंख्य हजार योजन आगे चलने पर, देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान बताया गया है, जो साढ़े बारह लाख योजन लम्बा – चौड़ा है, इत्यादि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 198 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो सतिभागं पलिअ ठिई पन्नत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता। एमहिड्ढीए जाव महानुभागे जमे महाराया। Translated Sutra: देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – यम महाराज की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है और उसके अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम है। ऐसी महाऋद्धि वाला यावत् यममहाराज है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 199 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो सयंजले नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स पच्चत्थिमे णं जहा सोमस्स तहा विमान-रायधानीओ भाणियव्वा जाव पासादवडेंसया, नवरं–नामनाणत्तं।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो इमे देवा आणाउववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–वरुणकाइया इ वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा, नागकुमारीओ, उदहि-कुमारा, उदहिकुमारीओ, थणियकुमारा, थणियकुमारीओ–जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो आणा-उववाय-वयण-निद्देसे Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – वरुण महाराज का स्वयंज्वल नामक महाविमान कहाँ है? गौतम ! उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पश्चिम में सौधर्मकल्प से असंख्येय हजार योजन पार करने के बाद, स्वयंज्वल नाम का महाविमान आता है; इसका सारा वर्णन सोममहाराज के महाविमान की तरह जान लेना, राजधानी यावत् प्रासादावतंसकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 200 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो वग्गू नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स उत्तरे णं जहा सोमस्स विमान-रायहाणि-वत्तव्वया तहा नेयव्वा जाव पासादवडेंसया।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो इमे देवा आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–वेसमणकाइया इ वा, वेसमणदेवयकाइया इ वा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा, दीवकुमारीओ, दिसाकुमारा, दिसाकुमारीओ, वाणमंतरा, वाणमंतरीओ–जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो आणा-उववाय-वयण-निद्देसे Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल – वैश्रमण महाराज का वल्गु नामक महाविमान कहाँ है? गौतम ! सौधर्मावतंसक नामक महाविमान के उत्तरमें है। इस सम्बन्ध में सारा वर्णन सोम महाराज के महा – विमान की तरह जानना चाहिए; और वह यावत् राजधानी यावत् प्रासादावतंसक तक का वर्णन भी उसी तरह जान लेना चाहिए देवेन्द्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 202 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य ।
अमरवई माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥ Translated Sutra: (१) काल और महाकाल, (२) सुरूप और प्रतिरूप, (३) पूर्णभद्र और मणिभद्र, (४) भीम और महाभीम। तथा – (५) किन्नर और किम्पुरुष, (६) सत्पुरुष और महापुरुष, (७) अतिकाय और महाकाय, तथा (८) गीतरति और गीतयश। ये सब वाणव्यन्तर देवों के अधिपति – इन्द्र हैं। सूत्र – २०२, २०३ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 204 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एते वाणमंतराणं देवाणं।
जोइसियाणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–चंदे य, सूरे य।
सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति?
गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–सक्के देविंदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। ईसाने देविंदे देव-राया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे।
एसा वत्तव्वया सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियव्वा। जे य इंदा ते य भाणियव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: ज्योतिष्क देवों पर आधिपत्य करते हुए दो देव यावत् विचरण करते हैं। यथा – चन्द्र और सूर्य। भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में आधिपत्य करते हुए कितने देव विचरण करते हैं ? गौतम ! उन पर आधिपत्य करते हुए यावत् दस देव विचरण करते हैं। यथा – देवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, देवेन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वरुण |