Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Gujarati | 595 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो।
अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो, संसारहेउं च वयन्ति बन्धं।।८।। Translated Sutra: આત્મા અમૂર્ત હોવાથી ઈન્દ્રિયગ્રાહ્ય નથી - આંખ વગેરે ઈન્દ્રિયો તેને ગ્રહણ કરી શકે નહિ. અમૂર્ત હોવાથી તે નિત્ય છે - તેનો નાશ નથી. કર્મબંધનું મૂળ કારણ આત્મામાં રહેલા રાગ-દ્વેષાદિ છે, અને કર્મબંધ સંસારમાં આત્માના પરિભ્રમણનું કારણ છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Gujarati | 609 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा महातलायस्स, सन्निरुद्धे जलागमे।
उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे।।२२।। Translated Sutra: કોઈ મોટા તળાવમાં પાણીને આવવાનાં રસ્તા બંધ કરી દેવામાં આવે તો બાકીનું પાણી ઉલેચાઈને ખલાસ થઈ જાય છે અથવા તાપથી સોસાઈ જાય છે, એવી જ રીતે, સંયમી પુરુષ નવાં કર્મોને આવવાનાં દ્વાર બંધ કરે છે ત્યારે અનેક જન્મોનાં એકત્ર થયેલાં તેનાં પુરાણાં કર્મો તપ વડે સંદર્ભ ૬૦૯-૬૧૦ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Gujarati | 610 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे।
भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा निज्जरिज्जइ।।२३।। Translated Sutra: મહેરબાની કરીને જુઓ ૬૦૯; સંદર્ભ ૬૦૯-૬૧૦ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Gujarati | 621 | View Detail | ||
Mool Sutra: निव्वाणं ति अवाहंति, सिद्धी लोगग्गमेव य।
खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।।३४।। Translated Sutra: નિર્વાણ, અબાધા, સિદ્ધિ, લોકાગ્ર, ક્ષેમ, શિવ, અનાબાધ-આ બધાં એ સ્થિતિનાં નામ છે જેને પ્રાપ્ત કરવા મહર્ષિઓ સાધના કરે છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 624 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो।
एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं।।१।। Translated Sutra: ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, કાલ, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને જીવાસ્તિકાય - લોક આ છ દ્રવ્યોનો બનેલો છે એમ પરમદર્શી જિનેશ્વરોએ કહ્યું છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 628 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, दव्वं इक्किक्कमाहियं।
अणंताणि य दव्वाणि, कालो पुग्गल जंतवो।।५।। Translated Sutra: ધર્મ, અધર્મ, આકાશ - એટલાં દ્રવ્યો વ્યક્તિ તરીકે એક-એક છે. કાળ, પુદ્ગલ અને જીવ એ ત્રણ દ્રવ્યો અનંત-અનંત સંખ્યામાં છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 629 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्माधम्मे य दोऽवेए, लोगमित्ता वियाहिया।
लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए।।६।। Translated Sutra: ધર્મ અને અધર્મનું કદ લોક જેટલું છે. આકાશ લોક અને અલોકમાં વ્યાપ્ત છે, વ્યાવહારિક કાળ માત્ર મનુષ્યક્ષેત્રમાં છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 636 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए।
अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए।।१३।। Translated Sutra: જ્યાં જીવ અને અજીવ છે તે લોક છે. જ્યાં જીવો વિગેરે દ્રવ્યો નથી અને માત્ર આકાશ છે તે અલોક છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३६. सृष्टिसूत्र | Gujarati | 657 | View Detail | ||
Mool Sutra: सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं।
सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं।।७।। Translated Sutra: જીવો જ્યારે કર્મ બાંધે છે ત્યારે છયે દિશામાંથી કર્મપુદ્ગલોને આકર્ષે છે. અને ગ્રહણ કરેલાં એ પુદ્ગલો આત્માના સર્વ પ્રદેશો સાથે બંધાય છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३६. सृष्टिसूत्र | Gujarati | 658 | View Detail | ||
Mool Sutra: तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं।
कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं।।८।। Translated Sutra: જીવે શુભ કે અશુભ જે કર્મો બાંધ્યા હોય તે કર્મોની સાથે એ જીવ બીજા જન્મમાં જાય છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३७. अनेकान्तसूत्र | Gujarati | 661 | View Detail | ||
Mool Sutra: गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा।
लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे।।२।। Translated Sutra: ગુણનો આશ્રય કે આધાર તે દ્રવ્ય, એક દ્રવ્યને આશ્રયીને જે રહે તે ગુણ; પર્યાય એટલે દ્રવ્ય અને ગુણની બદલાતી અવસ્થાઓ. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Gujarati | 675 | View Detail | ||
Mool Sutra: तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं।
ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं।।२।। Translated Sutra: જ્ઞાનના પાંચ ભેદ છે : મતિજ્ઞાન (આભિનિબોધિક જ્ઞાન), શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મનઃપર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન. | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | Hindi | 21 | View Detail | ||
Mool Sutra: जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण।
अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी।।५।। Translated Sutra: जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर परीतसंसारी (अल्प जन्म-मरणवाले) हो जाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ?।।१।। Translated Sutra: अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 46 | View Detail | ||
Mool Sutra: खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्था णउ कामभोगा।।२।। Translated Sutra: ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देनेवाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 50 | View Detail | ||
Mool Sutra: भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे।
बाले य मन्दिए मूढे, बज्झई मच्छिया व खेलम्मि।।६।। Translated Sutra: आत्मा को दूषित करनेवाले भोगामिष (आसक्ति-जनक भोग) में निमग्न, हित और श्रेयस् में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञानी, मन्द और मूढ़ जीव उसी तरह (कर्मों से) बँध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 55 | View Detail | ||
Mool Sutra: जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो।।११।। Translated Sutra: जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, और मृत्यु दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | Hindi | 58 | View Detail | ||
Mool Sutra: कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु।
दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं।।३।। Translated Sutra: (प्रमत्त मनुष्य) शरीर और वाणी से मत्त होता है तथा धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है। वह राग और द्वेष--दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केंचुआ) मुख और शरीर--दोनों से मिट्टी का संचय करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | Hindi | 59 | View Detail | ||
Mool Sutra: न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा।
एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।।४।। Translated Sutra: ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बँटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | Hindi | 64 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा।
वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य।।९।। Translated Sutra: ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय--ये संक्षेप में आठ कर्म हैं। संदर्भ ६४-६५ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | Hindi | 65 | View Detail | ||
Mool Sutra: नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य।
एवमेयाइं कम्माइं, अट्ठेवउ समासओ।।१०।। Translated Sutra: कृपया देखें ६४; संदर्भ ६४-६५ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 71 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति।।१।। Translated Sutra: राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 76 | View Detail | ||
Mool Sutra: कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स।
जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।।६।। Translated Sutra: सब जीवों का, और क्या देवताओं का भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतरागी उस दुःख का अन्त पा जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 78 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स।
अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा।।८।। Translated Sutra: अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प-विकल्प ही सब दोषों के मूल हैं--जो इस प्रकार के चिन्तन में उद्यत होता है तथा इन्द्रिय-विषय दोषों के मूल नहीं हैं--इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है। उससे उसकी काम-गुणों में होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 81 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।।११।। Translated Sutra: भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 93 | View Detail | ||
Mool Sutra: मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।।१२।। Translated Sutra: असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दुःखी होता है कि वह झूठ बोलकर भी सफल नहीं हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का संकल्प करता है। वह इसलिए भी दुःखी रहता है कि कहीं कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य-व्यवहार का अन्त दुःखदायी ही होता है। इसी तरह विषयों में अतृप्त होकर | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 97 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं।।१६।। Translated Sutra: जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माषा (उदड) सोने से निष्पन्न (पूरा) होनेवाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं होता। (यह निष्कर्ष कपिल नामक व्यक्ति की तृष्णा के उतार-चढ़ाव के परिणाम को सूचित करता है।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 98 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।।१७।। Translated Sutra: कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जायँ, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता (तृप्ति नहीं होती), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा।
एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं।।२८।। Translated Sutra: जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 110 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाइं।।२९।। Translated Sutra: जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया (और) जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का (ही) नाश कर दिया। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 118 | View Detail | ||
Mool Sutra: जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।३७।। Translated Sutra: जो-जो रात बीत रही है वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 119 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा य तिण्णि वणिया, मूलं घेत्तूण निग्गया।
एगोऽत्थ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ।।३८।। Translated Sutra: जैसे तीन वणिक् मूल पूँजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है, और एक मूल को भी गँवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। संदर्भ ११९-१२० | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 120 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगो मूलं पि हारित्ता, आगओ तत्थ वाणिओ।
ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह।।३९।। Translated Sutra: कृपया देखें ११९; संदर्भ ११९-१२० | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 122 | View Detail | ||
Mool Sutra: अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नंदणं वणं।।१।। Translated Sutra: (मेरी) आत्मा ही वैतरणी नदी है। आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामदुहा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 123 | View Detail | ||
Mool Sutra: अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च, तदुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।।२।। Translated Sutra: आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 124 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य।
ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी !।।३।। Translated Sutra: अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं। हे मुने ! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय (धर्मानुसार) विचरण करता हूँ। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 125 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।।४।। Translated Sutra: जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है उसकी विजय ही परमविजय है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 126 | View Detail | ||
Mool Sutra: अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ।
अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए।।५।। Translated Sutra: बाहरी युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 127 | View Detail | ||
Mool Sutra: अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य।।६।। Translated Sutra: स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए। अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 128 | View Detail | ||
Mool Sutra: वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य।
माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहि य।।७।। Translated Sutra: उचित यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपने पर विजय प्राप्त करूँ। बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित (प्रताड़ित) किया जाऊँ, यह ठीक नहीं है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 129 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगओ विरईं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।।८।। Translated Sutra: एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए-असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 130 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे।
जे भिक्खू रुंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले।।९।। Translated Sutra: पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो पाप हैं। जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है वह मंडल (संसार) में नहीं रुकता-मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 139 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मारामे चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही।
धम्मारामरए दंते, बम्भचेरसमाहिए।।१८।। Translated Sutra: धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलानेवाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पानेवाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Hindi | 160 | View Detail | ||
Mool Sutra: इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं।
तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ?।।१।। Translated Sutra: यह मेरे पास है और यह नहीं है, वह मुझे करना है और यह नहीं करना है -- इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठानेवाला (काल) उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाय ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Hindi | 163 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पण्डिए आसुपण्णे।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंड-पक्खी व चरेऽप्पमत्तो।।४।। Translated Sutra: आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे, प्रमाद में विश्वास न करे। मुहूर्त बड़े घोर (निर्दयी) होते हैं, शरीर दुर्बल है, इसलिए वह भारण्ड पक्षी की भाँति अप्रमत्त होकर विचरण करे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 171 | View Detail | ||
Mool Sutra: अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई।
थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य।।२।। Translated Sutra: इन पाँच स्थानों या कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती : १. अभिमान, २. क्रोध, ३. प्रमाद, ४. रोग और ५. आलस्य। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 172 | View Detail | ||
Mool Sutra: अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई।
अहस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे।।३।। Translated Sutra: इन आठ स्थितियों या कारणों से मनुष्य शिक्षाशील कहा जाता है : १. हँसी-मजाक नहीं करना, २. सदा इन्द्रिय और मन का दमन करना, ३. किसीका रहस्योद्घाटन न करना, ४. अशील (सर्वथा आचारविहीन) न होना, ५. विशील (दोषों से कलंकित) न होना, ६. अति रसलोलुप न होना, ७. अक्रोधी रहना तथा ८. सत्यरत होना। संदर्भ १७२-१७३ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 173 | View Detail | ||
Mool Sutra: नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए।
अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई।।४।। Translated Sutra: कृपया देखें १७२; संदर्भ १७२-१७३ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 175 | View Detail | ||
Mool Sutra: वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं।
पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्धुमरिहई।।६।। Translated Sutra: जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता है, जो उपधान (श्रुत-अध्ययन के समय) तप करता है, जो प्रिय करता है, जो प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 176 | View Detail | ||
Mool Sutra: जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो।
दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति।।७।। Translated Sutra: जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते हैं, और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं। |