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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 478 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–असंजए भिक्खु-पडियाए कीयं वा, धोयं वा, रत्तं वा, घट्ठं वा, मट्ठं वा, संमट्ठं वा, संपधूमियं वा, तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं, अबहिया नीहडं, अणत्तट्ठियं, अपरिभुत्तं, अनासेवितं –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
अह पुणेवं जाणेज्जा–पुरिसंतरकडं, बहिया नीहडं, अत्तट्ठियं, परिभुत्तं, आसेवियं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि किसी वस्त्र के विषय में यह जान जाए कि असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त से उसे खरीदा है, धोया है, रंगा है, घिस कर साफ किया है, चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया है, सुवासित किया है और ऐसा वह वस्त्र अभी पुरुषान्तरकृत यावत् दाता द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, तो ग्रहण न करे। यदि साधु या साध्वी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 486 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, सेज्जं पुण पाय जाणेज्जा, तं जहा–अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा– तहप्पगारं पायं–
जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, नो बीयं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए पाय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं Translated Sutra: संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो जिन पात्रों को जाने वे इस प्रकार हैं – तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र। इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है। जो निर्ग्रन्थ तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और स्थिर – सहन वाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं। वह साधु, साध्वी | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 486 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, सेज्जं पुण पाय जाणेज्जा, तं जहा–अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा– तहप्पगारं पायं–
जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, नो बीयं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए पाय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं Translated Sutra: સાધુ – સાધ્વી પાત્ર ગ્રહણ કરવા ઇચ્છે તો આ ત્રણ પ્રકારના પાત્ર સ્વીકારે. તુંબ પાત્ર, કાષ્ઠ પાત્ર, માટી પાત્ર. આ પ્રકારનું કોઈ એક પાત્ર તરુણ યાવત્ દૃઢ સંઘયણવાળો સાધક રાખે – બીજું નહીં. તે સાધુ અર્ધયોજનથી આગળ પાત્ર લેવા જવાનો મનથી પણ વિચાર ન કરે. સાધુ – સાધ્વી એમ જાણે કે એક સાધર્મિક સાધુને ઉદ્દેશીને પ્રાણી આદિની | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-३ अनीयश अदि अध्ययन-८ गजसुकुमाल |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ उक्खेवओ अट्ठमस्स एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए नयरीए, जहा पढमे जाव अरहा अरिट्ठनेमी समोसढे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी छ अनगारा भायरो सहोदरा होत्था–सरिसया सरित्तया सरिव्वया नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासा सिरिवच्छंकिय-वच्छा कुसुम -कुंडलभद्दलया नलकूबरसमाणा।
तए णं ते छ अनगारा जं चेव दिवसं मुंडा भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइया, तं चेव दिवसं अरहं अरिट्ठनेमिं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामो णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा जावज्जीवाए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं Translated Sutra: भगवन् ! तृतीय वर्ग के आठवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जंबू ! उस काल, उस समय में द्वारका नगरीमें प्रथम अध्ययनमें किये गये वर्णन के अनुसार यावत् अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान पधारे। उस काल, उस समय भगवान नेमिनाथ के अंतेवासी – शिष्य छ मुनि सहोदर भाई थे। वे समान आकार, त्वचा और समान अवस्थावाले प्रतीत होते | |||||||||
Antkruddashang | અંતકૃર્દ્દશાંગસૂત્ર | Ardha-Magadhi |
वर्ग-३ अनीयश अदि अध्ययन-८ गजसुकुमाल |
Gujarati | 13 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ उक्खेवओ अट्ठमस्स एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए नयरीए, जहा पढमे जाव अरहा अरिट्ठनेमी समोसढे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी छ अनगारा भायरो सहोदरा होत्था–सरिसया सरित्तया सरिव्वया नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासा सिरिवच्छंकिय-वच्छा कुसुम -कुंडलभद्दलया नलकूबरसमाणा।
तए णं ते छ अनगारा जं चेव दिवसं मुंडा भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइया, तं चेव दिवसं अरहं अरिट्ठनेमिं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामो णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा जावज्जीवाए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं Translated Sutra: હે ભગવન ! જો શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે અંતકૃદ્દશા સૂત્રના ત્રીજા વર્ગના અધ્યયન – ૭ નો આ અર્થ કહ્યો છે તો ભગવંત મહાવીરે અધ્યયન – ૮ નો શો અર્થ કહ્યો છે ? નિશ્ચે હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે દ્વારવતી નગરી હતી. પ્રથમ અધ્યયનમાં કહ્યા મુજબ યાવત્ અરહંત અરિષ્ટનેમિ પધાર્યા. તે કાળે તે સમયે અરિષ્ટનેમિના શિષ્યો છ સાધુઓ સહોદર ભાઈઓ | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 22 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं?
लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं–जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिरनुकंपा हया इव उद्दामा गया इव निरंकुसा घट्ठा मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडुरपाउरणा जिनाणं अणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं उभओकालं आवस्सयस्स उवट्ठंति।
से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं। से तं जाणगसरीर-भवियसरीरवतिरत्तं दव्वावस्सयं। से त्तं नोआगमओ दव्वावस्सयं। से तं दव्वावस्सयं। Translated Sutra: लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक क्या है ? जो श्रमण के गुणों से रहित हों, छह काय के जीवों के प्रति अनुकम्पा न होने के कारण अश्व की तरह उद्दाम हों, हस्तिवत् निरंकुश हों, स्निग्ध पदार्थों के लेप से अंग – प्रत्यंगों को कोमल, सलौना बनाते हों, शरीर को धोते हों, अथवा केशों का संस्कार करते हों, ओठों को मुलायम रखने के लिए मक्खन | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 22 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरकुमारा देवा अंतियं पाउब्भवित्थाकालमहानीलसरिस नीलगुलिय गवल अयसिकुसुमप्पगासा वियसिय सयवत्तमिव पत्तल निम्मल ईसीसियरत्ततंबनयणा गरुलायत उज्जुतुंगणासा ओयविय सिल प्पवाल बिंबफलसन्निभाहरोट्ठा पंडुर ससिसयल विमल निम्मल संख गोखीर फेण दगरय मुणालिया धव-लदंतसेढी हुयवह निद्धंत धोय तत्त तवणिज्ज रत्ततलतालुजीहा अंजण घण कसिण रुयग रमणिज्ज निद्धकेसा वामेगकुंडलधरा अद्द चंदनानुलित्तगत्ता ईसीसिलिंध पुप्फप्पगासाइं असंकिलिट्ठाइं सुहुमाइं वत्थाइं पवरपरिहिया वयं च पढमं समइक्कंता बिइयं च असंपत्ता भद्दे जोव्वणे Translated Sutra: उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के पास अनेक असुरकुमार देव प्रादुर्भुत हुए। काले महा – नीलमणि, नीलमणि, नील की गुटका, भैंसे के सींग तथा अलसी के पुष्प जैसा उसका काला वर्ण तथा दीप्ति थी। उनके नेत्र खिले हुए कमल सदृश थे। नेत्रों की भौहें निर्मल थीं। उनके नेत्रों का वर्ण कुछ – कुछ सफेद, लाल तथा ताम्र जैसा था। उनकी | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 55 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! तहा सजोगी सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ? नो इणट्ठे समट्ठे।
से णं पुव्वामेव सन्निस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीनं पढमं मनजोगं निरुंभइ, तयानंतरं च णं विदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा, असंखेज्ज-गुणपरिहीणं विइयं वइजोगं निरुंभइ, तयानंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहन्न-जोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिरुंभइ। से णं एएणं उवाएणं पढमं मनजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता वयजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता कायजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता जोगनिरोहं करेइ, करेत्ता अजोगत्तं Translated Sutra: भगवन् ! क्या सयोगी सिद्ध होते हैं ? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे सबसे पहले पर्याप्त, संज्ञी, पंचेन्द्रिय जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं। उसके बाद पर्याप्त बेइन्द्रिय जीव के जघन्य वचन – योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन वचन – योग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 377 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थि रहते थे, यथा – कालोदयी, शैलोदाई शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 518 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ।
तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 525 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। संखवने चेइए–वण्णओ। तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया अभिगयजीवा-जीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयाइ एगयओ समुवागयाणं सहियाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–देवलोगेसु णं अज्जो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवट्ठिती-गहियट्ठे ते समणोवासए एवं वयासी–देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं Translated Sutra: उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। इस आलभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण करते थे। उस समय एक दिन एक स्थान पर आकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में परस्पर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-७ केवली | Hindi | 744 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुण सिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अय-मेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्ग-लत्थिकायं।
तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। (वर्णन)। वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। (वर्णन)। यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्टक था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत – से अन्यतीर्थिक रहते थे, यथा – कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के अनुसार, यावत् – ‘यह कैसे माना जा सकता है?’ यहाँ तक समझना | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Gujarati | 377 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, Translated Sutra: તે કાળે, તે સમયે રાજગૃહ નગર હતું. (વર્ણન ઉવવાઈ સૂત્રાનુસાર કરવું). ત્યાં ગુણશીલ ચૈત્ય હતું. (વર્ણન ઉવવાઈ સૂત્રાનુસાર) યાવત્ ત્યાં પૃથ્વીશીલા પટ્ટક હતો. (વર્ણન) તે ગુણશીલ ચૈત્યની થોડે દૂર ઘણા અન્ય – તીર્થિકો રહેતા હતા. તે આ – કાલોદાયી, શૈલોદાયી, શૈવાલોદાયી, ઉદક, નામોદક, નર્મોદક, અન્નપાલક, શૈલપાલક, શંખપાલક, સુહસ્તી | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Gujarati | 525 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। संखवने चेइए–वण्णओ। तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया अभिगयजीवा-जीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयाइ एगयओ समुवागयाणं सहियाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–देवलोगेसु णं अज्जो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवट्ठिती-गहियट्ठे ते समणोवासए एवं वयासी–देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं Translated Sutra: સૂત્ર– ૫૨૫. તે કાળે, તે સમયે આલભિકા નામે નગરી હતી. શંખવન ચૈત્ય હતું.(નગરી અને ચૈત્યનું વર્ણન ઉવવાઈ સૂત્રાનુસાર જાણવું) તે આલભિકા નગરીમાં ઋષિભદ્રપુત્ર પ્રમુખ ઘણા શ્રમણોપાસકો રહેતા હતા. તેઓ આઢ્ય યાવત્ અપરિભૂત હતા. જીવાજીવના જ્ઞાતા હતા, યાવત્ વિચરતા હતા. ત્યારે તે શ્રાવકો અન્ય કોઈ દિવસે એક સાથે એકત્રિત થઈ બેઠેલા, | |||||||||
Bhagavati | ભગવતી સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-७ केवली | Gujarati | 744 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुण सिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अय-मेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्ग-लत्थिकायं।
तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૪૪. તે કાળે, તે સમયે રાજગૃહનગર, ગુણશીલ ચૈત્ય, યાવત્ પૃથ્વીશિલાપટ્ટક હતો. તે ગુણશીલ ચૈત્યથી કંઈક સમીપ ઘણા અન્યતીર્થિકો રહેતા હતા. તે આ પ્રમાણે છે – કાલોદાયી, શૈલોદાયી૦ આદિ શતક – ૭ – માં અન્યતીર્થિકોદ્દેશકમાં કહ્યા મુજબ છે યાવત્ અન્યતીર્થિકોની તે વાત કેમ માનવી? ત્યાં રાજગૃહ નગરમાં મદ્રુક નામે શ્રાવક | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 46 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहं धनेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूणि वासाणि सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाणि मानुस्सगाइं कामभोगाइं पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि।
तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं मानुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासिं मन्ने नियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्ध-लुद्धयाइं Translated Sutra: धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ। बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ, शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पाँचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 56 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–जण्णं देवानुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा नित्थरियव्वं ति कट्टु अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। Translated Sutra: तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए एक घर में आए और एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुआ – ‘हे देवानुप्रिय ! जो भी हमें सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश – गमन प्राप्त हो, उस सबका हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए।’ इस प्रकार कहकर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 57 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ–अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन-जाण-वाहणा बहुधन-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छिड्डिय-पउर-भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसट्ठिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला नवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- हसिय-भणिय- चेट्ठिय-विलाससंलावुल्लाव- निउण-जुत्तोवयार-कुसला ऊसियज्झया सहस्सलंभा विदिण्णछत्त-चामर-बालवीयणिया कण्णीरहप्पयाया वि होत्था।
बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं Translated Sutra: उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी। वह समृद्ध थी, वह बहुत भोजन – पान वाली थी। चौंसठ कलाओं में पंडिता थीं। गणिका के चौंसठ गुणों से युक्त थीं। उनतीस प्रकार की विशेष क्रिडाएं करने वाली थी। कामक्रीड़ा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी। उसके सोते हुए | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 76 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अठमट्ठे पन्नत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणु इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सोओदाए महानदीए दाहिणेणं, सुहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं सलिलावई नामं विजए पन्नत्ते।
तत्थ णं सलिलावईविजए वीयसोगा नामं रायहाणी–नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोग-भूया।
तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए इंदकुंभे Translated Sutra: ’भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने सातवे ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो आठवे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ ‘हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में महाविदेह नामक वर्ष में, मेरु पर्वत से पश्चिम में, निषध नामक वर्षधर पर्वत से उत्तर में, शीतोदा महानदी से दक्षिण में, सुखावह नामक वक्षार पर्वत से पश्चिम | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। चम्पा नगरी थी। चन्द्रच्छाय अंगराज – अंग देश का राजा था। उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत – से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। वे अर्हन्नक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 110 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी। पुण्णभद्दे चेइए।
तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे। तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाह-दारया होत्था, तं जहा–जिनपालिए य जिनरक्खिए य।
तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अम्हे लवणसमुद्दं पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा। सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुनरवि Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान महावीर ने नौवें ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। कोणिक राजा था। चम्पानगरी के बाहर ईशान – दिक्कोण में पूर्णभद्र चैत्य था। चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह निवास करता था। वह समृद्धिशाली था। भद्रा उसकी भार्या | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 158 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सोलसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था।
तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे होत्था।
तत्थ णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तं जहा–सोमे सोमदत्ते सोमभूई–अड्ढा जाव अपरिभूया रिउव्वेय-जउव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय जाव बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिनिट्ठिया।
तेसि णं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था, तं जहा–नागसिरी भूयसिरी जक्खसिरी–सुकुमालपाणिपायाओ जाव तेसि णं माहणाणं इट्ठाओ, Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो सोलहवे ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ जम्बू ! उस काल, उस समयमें चम्पा नगरी थी। उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान दिशा भागमें सुभूमिभाग नामक उद्यान था। उस चम्पानगरीमें तीन ब्राह्मण – बन्धु निवास करते थे। सोम, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 184 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था।
तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था। (वर्णन) उस नगर में कनककेतु नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत – से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Hindi | 210 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चिलाए चोरसेनावई अन्नया कयाइ विपुलं असन-पान-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता ते पंच चोरसए आमंतेइ तओ पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विपुलं असन-पान-खाइम-साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपुलेणं धूव-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्मानेइ, सक्कारेत्ता सम्मानेत्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे सड्ढे। तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अनुमग्गजाइया सुंसुमा नामं दारिया–अहीना जाव सुरूवा। Translated Sutra: तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति ने एक बार किसी समय विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा कर पाँच सौ चोरों को आमंत्रित किया। फिर स्नान तथा बलिकर्म करके भोजन – मंडप में उन पाँच सौ चोरों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का तथा सूरा प्रसन्ना नामक मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, वितरण एवं परिभोग करने लगा। | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Gujarati | 76 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अठमट्ठे पन्नत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणु इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सोओदाए महानदीए दाहिणेणं, सुहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं सलिलावई नामं विजए पन्नत्ते।
तत्थ णं सलिलावईविजए वीयसोगा नामं रायहाणी–नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोग-भूया।
तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए इंदकुंभे Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૬. ભગવન્ ! જો શ્રમણ યાવત્ સિદ્ધિ ગતિ સંપ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે સાતમા જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો, તો આઠમા જ્ઞાત અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે આ જ જંબૂદ્વીપના મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મેરુ પર્વતની પશ્ચિમે નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તરે, શીતોદા મહાનદીની દક્ષિણે સુખાવહ વક્ષસ્કાર પર્વતની | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Gujarati | 184 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं कनगकेऊ नामं राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया यावि होत्था।
तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૮૪. ભગવન્ ! જો શ્રમણ ભગવંત મહાવીર સ્વામીએ જ્ઞાતાધર્મકથાના સોળમાં અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો ભગવંતે સતરમાં જ્ઞાતઅધ્યયનનો અર્થ શું કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે હસ્તિશીર્ષ નગર હતું. ત્યાં કનકકેતુ રાજા હતો. તે હસ્તિશીર્ષ નગરમાં ઘણા સાંયાત્રિક નૌવણિક રહેતા હતા. તેઓ ધનાઢ્ય યાવત્ ઘણા લોકોથી અપરિભૂત | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Gujarati | 46 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहं धनेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूणि वासाणि सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाणि मानुस्सगाइं कामभोगाइं पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि।
तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं मानुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासिं मन्ने नियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्ध-लुद्धयाइं Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૬. ત્યારે તે ભદ્રા ભાર્યાએ અન્ય કોઈ દિવસે મધ્યરાત્રિ કાળ સમયમાં કુટુંબ જાગરિકાથી જાગતા આવા પ્રકારે આધ્યાત્મિક યાવત્ સંકલ્પ થયો – હું ધન્ય સાર્થવાહ સાથે ઘણા વર્ષોથી શબ્દ – સ્પર્શ – રસ – ગંધ – રૂપ માનુષ્ય કામભોગોને અનુભવતી વિચરું છું, મેં પુત્ર કે પુત્રીને જન્મ આપ્યો નથી, તે માતાઓ ધન્ય છે યાવત્ તે | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
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Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–जण्णं देवानुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा नित्थरियव्वं ति कट्टु अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। Translated Sutra: સૂત્ર– ૫૬. ત્યારે તે સાર્થવાહ પુત્રો કોઈ સમયે મળ્યા. એક ઘરમાં આવી સાથે બેઠા અને આવો પરસ્પર વાર્તાલાપ થયો કે – હે દેવાનુપ્રિય ! આપણને જે સુખ, દુઃખ, પ્રવ્રજ્યા, વિદેશગમન પ્રાપ્ત થાય, તેનો આપણે એકબીજા સાથે નિર્વાહ કરવો. એમ વિચારી બંનેએ આવો સંકેત પરસ્પર સ્વીકાર્યો. પછી પોત – પોતાના કાર્યમાં લાગી ગયા. સૂત્ર– ૫૭. તે | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
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Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ–अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन-जाण-वाहणा बहुधन-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छिड्डिय-पउर-भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसट्ठिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला नवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- हसिय-भणिय- चेट्ठिय-विलाससंलावुल्लाव- निउण-जुत्तोवयार-कुसला ऊसियज्झया सहस्सलंभा विदिण्णछत्त-चामर-बालवीयणिया कण्णीरहप्पयाया वि होत्था।
बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૬ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Gujarati | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: સૂત્ર– ૮૭. તે કાળે, તે સમયે અંગ જનપદ હતું, તેમાં ચંપાનગરી હતી. ત્યાં ચંદ્રચ્છાય અંગરાજ હતો. તે ચંપા નગરીમાં અર્હન્નક આદિ ઘણા સાંયાત્રિક નૌવણિક રહેતા હતા. તેઓ સમૃદ્ધ યાવત્ અપરિભૂત હતા. તેમાં તે અર્હન્નક નામે શ્રાવક હતો, તે જીવા – જીવ આદિ તત્ત્વનો જ્ઞાતા હતો ઇત્યાદિ શ્રાવકનું વર્ણન કરવું. ત્યાર પછી તે અર્હન્નક | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 110 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी। पुण्णभद्दे चेइए।
तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे। तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाह-दारया होत्था, तं जहा–जिनपालिए य जिनरक्खिए य।
तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अम्हे लवणसमुद्दं पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा। सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुनरवि Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૧૦. ભગવન્ ! જો શ્રમણ યાવત્ નિર્વાણ પ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે આઠમા જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવંતે નવમા અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે ચંપાનગરી હતી. પૂર્ણભદ્ર ચૈત્ય હતું, ત્યાં માકંદી નામે સાર્થવાહ રહેતો હતો. તે ઋદ્ધિમાન હતો. તેને ભદ્રા નામે પત્ની હતી. તે ભદ્રાને | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Gujarati | 158 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सोलसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था।
तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे होत्था।
तत्थ णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तं जहा–सोमे सोमदत्ते सोमभूई–अड्ढा जाव अपरिभूया रिउव्वेय-जउव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय जाव बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिनिट्ठिया।
तेसि णं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था, तं जहा–नागसिरी भूयसिरी जक्खसिरी–सुकुमालपाणिपायाओ जाव तेसि णं माहणाणं इट्ठाओ, Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૫૮. ભગવન્ ! જો શ્રમણ યાવત્ નિર્વાણ પ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે પંદરમાં જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે સોળમા અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી. તે ચંપાનગરીની બહાર ઈશાન ખૂણામાં સુભૂમિભાગ ઉદ્યાન હતો. તે ચંપાનગરીમાં ત્રણ બ્રાહ્મણ ભાઈઓ રહેતા | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Gujarati | 210 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चिलाए चोरसेनावई अन्नया कयाइ विपुलं असन-पान-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता ते पंच चोरसए आमंतेइ तओ पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विपुलं असन-पान-खाइम-साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपुलेणं धूव-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्मानेइ, सक्कारेत्ता सम्मानेत्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे सड्ढे। तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अनुमग्गजाइया सुंसुमा नामं दारिया–अहीना जाव सुरूवा। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૦૮ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) | Hindi | 50 | View Detail | ||
Mool Sutra: निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य।
उववूह थिदीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ।। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण या अंग हैं-निःशंकित्त्व, निःकांक्षित्त्व, निर्विचिकित्त्सत्व, अमूढदृष्टित्त्व, उपवृंहणत्त्व (उपगूहनत्व), स्थितिकरणत्त्व, वात्सल्यत्त्व तथा प्रभावनाकरणत्त्व। (इन सबके लक्षण आगे क्रम से कहे जानेवाले हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
5. एक महान् आश्चर्य | Hindi | 10 | View Detail | ||
Mool Sutra: (क) दवग्गिणा जहा रण्णे, डज्झमाणेसु जंतुसु।
अण्णे सत्ता पमोयंति, रागद्दोसवसं गया ।। Translated Sutra: जिस प्रकार वन में अग्नि लग जाने पर उसमें जलते हुए जीवों को देखकर दूसरे जीव रागद्वेषवश प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार काम-भोगों में मूर्च्छित हम सब मूर्ख जन यह नहीं समझते कि (हम सहित) यह सारा संसार ही राग-द्वेषरूपी अग्नि में नित्य जला जा रहा है। संदर्भ १०-१० | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
5. एक महान् आश्चर्य | Hindi | 10 | View Detail | ||
Mool Sutra: (ख) एवमेव वयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया।
डज्झमाणं ण बुज्झामो, रागद्दोसऽग्गिणा जगं ।। Translated Sutra: संदर्भ १०-१० | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
7. अपना शत्रु-मित्र स्वयं | Hindi | 12 | View Detail | ||
Mool Sutra: अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहाधेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ।। Translated Sutra: आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही शाल्मली वृक्ष। आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नन्दन-वन। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
7. अपना शत्रु-मित्र स्वयं | Hindi | 13 | View Detail | ||
Mool Sutra: अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्ठिय ।। Translated Sutra: आत्मा ही अपने सुख व दुःख को सामान्य तथा विशेष रूप से करनेवाला है, और इसलिए वही अपना मित्र अथवा शत्रु है। सुकृत्यों में स्थित वह अपना मित्र है और दुष्कृत्यों में स्थित अपना शत्रु। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 14 | View Detail | ||
Mool Sutra: मिच्छंतं वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ।
ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो ।। Translated Sutra: मिथ्यात्व या अज्ञाननामक कर्म का अनुभव करनेवाला जीव (स्वभाव से ही) विपरीत श्रद्धानी होता है। जिस प्रकार ज्वरयुक्त मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता, उसी प्रकार उसे कल्याणकर धर्म भी नहीं रुचता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 16 | View Detail | ||
Mool Sutra: हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया।
को जाणइ परे लोए, अत्थि वा णत्थि वा पुणो ।। Translated Sutra: उसकी विषयासक्त बुद्धि के अनुसार वर्तमान के काम-भोग तो हस्तगत हैं और भूत व भविष्यत् के अत्यन्त परोक्ष। परलोक किसने देखा है? कौन जानता है कि वह है भी या नहीं? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 17 | View Detail | ||
Mool Sutra: इमं च मे अत्थि इमं च णत्थि,
इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं।
तं एवमेवं लालप्पमाणं,
हरा हरंति त्ति कहं पमाए ।। Translated Sutra: `यह वस्तु तो मेरे पास है और यह नहीं है। यह काम तो मैंने कर लिया है और यह अभी करना शेष है।' इस प्रकार के विकल्पों से लालायित उसको काल हर लेता है। कौन कैसे प्रमाद करे? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
9. लेने गये फूल, हाथ लगे शूल | Hindi | 18 | View Detail | ||
Mool Sutra: भोगामिस दोसविसण्णे, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थो।
बाले य मंदिए मूढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ।। Translated Sutra: भोगरूपी दोष में लिप्त व आसक्त होने के कारण, हित व निःश्रेयस (मोक्ष) की बुद्धि का त्याग कर देनेवाला, आलसी, मूर्ख व मिथ्यादृष्टि ज्यों-ज्यों संसार से छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों कफ में पड़ी मक्खी की भाँति अधिकाधिक फँसता जाता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग) |
3. भेद-रत्नत्रय | Hindi | 22 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो नाणं।
रायादीपरिहरणं चरणं, एसो दु मोक्खपहो ।। Translated Sutra: जीवादि नव तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तथा उनका सामान्य-विशेष रूप से अवधारण करना सम्यग्ज्ञान है। राग-द्वेष आदि दोषों का परिहार करना सम्यक्चारित्र है और ये तीनों मिलकर समुचित रूप से एक अखंड मोक्षमार्ग है। (ये तीनों वास्तव में पृथक्-पृथक् कुछ नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक होने के कारण एक ही हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग) |
3. भेद-रत्नत्रय | Hindi | 26 | View Detail | ||
Mool Sutra: इय जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य।
सव्वनयाणमणुमए, रमेज्जा संजमे मुणी ।। Translated Sutra: इस प्रकार जीव और अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप को सुनकर तथा परमार्थ तथा व्यवहार आदि सभी दृष्टियों के अनुसार उनकी हृदय से श्रद्धा करके भिक्षु संयम में रमण करे। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
1. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय | Hindi | 27 | View Detail | ||
Mool Sutra: ववहारेणुवदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तं दंसणं णाणं।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।। Translated Sutra: अभेद-रत्नत्रय में स्थित ज्ञानी के चरित्र है, दर्शन है या ज्ञान है, यह बात भेदोपचार (विश्लेषण) सूचक व्यवहार से ही कही जाती है। वास्तव में उस अखण्ड तत्त्व में न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है। वह ज्ञानी तो ज्ञायक मात्र है। प्रश्न : विश्लेषणकारी इस व्यवहार का कथन करने की आवश्यकता ही क्या है? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
4. परम्परा-मुक्ति | Hindi | 40 | View Detail | ||
Mool Sutra: विगिंच कम्मुणो हेउं, जसं संचिणु खंतिए।
पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ।। Translated Sutra: धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु (मिथ्यात्व, अविरति) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। (काल पूर्ण होने पर वहाँ से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
4. परम्परा-मुक्ति | Hindi | 41 | View Detail | ||
Mool Sutra: भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं।
पुव्वं विसुद्ध सद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ।। Translated Sutra: कृपया देखें ४०; संदर्भ ४०-४२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
4. परम्परा-मुक्ति | Hindi | 42 | View Detail | ||
Mool Sutra: चउरंगं दुल्लहं णच्चा, संजमं पडिवज्जिया।
तवसा धुयकम्मंसे, सिद्धे हवइ सासए ।। Translated Sutra: कृपया देखें ४०; संदर्भ ४०-४२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
1. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) | Hindi | 43 | View Detail | ||
Mool Sutra: भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं य।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। Translated Sutra: भूतार्थनय से जाने गये जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध-मोक्ष ये नव तत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। (आत्मनिष्ठ सम्यग्दृष्टि है और पर्याय-निष्ठ मिथ्या-दृष्टि।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) | Hindi | 51 | View Detail | ||
Mool Sutra: संवेओ णिव्वेओ, णिंदा गरुहा व उवसमो भत्ती।
वच्छल्लं अणुकंपां, गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स ।। Translated Sutra: संवेग, निर्वेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं। |