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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 5 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुविहिं च पुप्फदंतं सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च ।
विमलमणंतं च जिणं धम्मं संतिं च वंदामि ॥ Translated Sutra: सुविधि या पुष्पदंत को, शीतल श्रेयांस और वासुपूज्य को, विमल और अनन्त (एवं) धर्म और शान्ति जिन को वंदन करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ वंदन |
Hindi | 10 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए,
अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अहोकायं काय-संफासं
खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो
जत्ता भे जवणिज्जं च भे,
खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए
जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: (शिष्य कहता है) हे क्षमा (आदि दशविध धर्मयुक्त) श्रमण, (हे गुरुदेव !) आपको मैं इन्द्रिय और मन की विषय विकार के उपघात रहित निर्विकारी और निष्पाप प्राणातिपात आदि पापकारी प्रवृत्ति रहित काया से वंदन करना चाहता हूँ। मुझे आपकी मर्यादित भूमि में (यानि साड़े तीन हाथ अवग्रह रूप – मर्यादा के भीतर) नजदीक आने की (प्रवेश करने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Hindi | 58 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह संतिगया दविया, नावकंखंति वीजिउं Translated Sutra: इस (जिन शासन में) जो शान्ति प्राप्त – (कषाय जिनके उपशान्त हो गए हैं) और दयार्द्रहृदय वाले मुनि हैं, वे जीव – हिंसा करके जीना नहीं चाहते। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 86 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसं च छंदं च विगिंच धीरे।
तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु।
जेण सिया तेण णोसिया।
इणमेव नावबुज्झंति, जेजना मोहपाउडा।
थीभि लोए पव्वहिए।
ते भो वयंति–एयाइं आयतणाइं।
से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरग-तिरिक्खाए।
उदाहु वीरे– अप्पमादो महामोहे।
अलं कुसलस्स पमाएणं।
संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए।
नालं पास।
अलं ते एएहिं। Translated Sutra: हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता त्याग दे। उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जिस भोगसामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है। जो मनुष्य मोहकी सघनतासे आवृत हैं, ढ़ंके हैं, वे इस तथ्य को कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षण – भंगुर हैं, तथा वे ही शल्य नहीं जानते यह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 99 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सिया से एगयरं विप्परामुसइ, छसु अन्नयरंसि कप्पति।
सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति।
सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति।
जंसिमे पाणा पव्वहिया। पडिलेहाए णोणिकरणाए।
एस परिण्णा पवुच्चइ।
कम्मोवसंती। Translated Sutra: कदाचित् किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छहों जीव – कायों में (सभी का) समारंभ कर सकता है। वह सुख का अभिलाषी, बार – बार सुख की ईच्छा करता है, (किन्तु) स्व – कृत कर्मों के कारण, मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा | Hindi | 146 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आवंति केआवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति–से दिट्ठं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता’ हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा।
एत्थ वि जाणह नत्थित्थ दोसो।
अनारियवयणमेयं।
तत्थ जे ते आरिया, ते एवं वयासी–से दुद्दिट्ठं च भ, दुस्सुयं च भ, दुम्मयं च भे, दुव्विण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जण्णं तुब्भे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं ‘परूवेह, एवं पण्णवेह’– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा, Translated Sutra: इस मत – मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न – भिन्न मतवाद का प्रतिपादन करते हैं। जैसे की कुछ मतवादी कहते हैं – ‘हमने यह देख लिया है, सून लिया है, मनन कर लिया है और विशेष रूप से जान भी लिया है, ऊंची, नीची और तिरछी सब दिशाओं में सब तरह से भली – भाँति इसका निरीक्षण भी कर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 207 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से गिहेसु वा गिहंतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा ‘जणवयंतरेसु वा’, संतेगइयाजना लूसगा भवति, अदुवा–फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए।
ओए समियदंसणे।
दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, आइक्खे विभए किट्टे वेयवी।
से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए–संतिं, विरतिं, उवसमं, णिव्वाणं, सोयवियं,
अज्जवियं, मद्दवियं, लाघवियं, अणइवत्तियं।
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेज्जा। Translated Sutra: वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, जनपदों में या जन – पदान्तरों में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए) कुछ विद्वेषी जन हिंसक हो जाते हैं। अथवा (परीषहों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको सहन करे। राग और द्वेष से रहित सम्यग्दर्शी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 414 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईण वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयारे-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणिय-सालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहाकम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, बद्ध-कम्मंताणि वा, वक्क-कम्मंताणि वा, Translated Sutra: आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कईं श्रद्धालु हैं जैसे कि गृहस्वामी, गृह – पत्नी, उसकी पुत्र – पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, धायमाताएं, दास – दासियाँ या नौकर – नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार – व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सूना है, किन्तु उन्होंने यह सून | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-३ इर्या |
उद्देशक-२ | Hindi | 458 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जंघासंतारिमे उदए सिया। से पुव्वामेव ससीसोव-रियं कायं पादे य पमज्जेज्जा, पमज्जेत्ता सागारं भत्तं पच्चक्खाएज्जा, पच्चक्खाएत्ता एगं पायं जले किच्चा, एगं पायं थले किच्चा, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीयमाणे, णो‘हत्थेण हत्थं’ पाएण पायं, काएण कायं, आसाएज्जा। ‘से अणासायमाणे’ तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा।
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे नो साय-वडियाए, नो परदाह-वडियाए, महइ-महालयंसि उदगंसि कायं Translated Sutra: ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में जंघा – प्रमाण जल पड़ता हो तो उसे पार करने के लिए वह पहले सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे। इस प्रकार सिर से पैर तक का प्रमार्जन करके वह एक पैर को जल में और एक पैर को स्थल में रखकर यतनापूर्वक जल को, भगवान के द्वारा कथित ईर्यासमिति की विधि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-३ इर्या |
उद्देशक-३ | Hindi | 461 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, पागाराणि वा, तोर-णाणि वा, अग्गलाणि वा, अग्गल-पासगाणि वा, गड्डाओ वा, दरीओ वा, कूडागाराणि वा, पासादाणि वा, नूम-गिहाणि वा, रुक्ख-गिहाणि वा, पव्वय-गिहाणि वा, रुक्खं वा चेइय-कडं, थूभं वा चेइय-कडं, आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा, पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणिय-सालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहा-कम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, वद्ध-कम्मंताणि वा, वक्क-कम्मंताणि वा, वन-कम्मंताणि वा, इंगाल-कम्मंताणि वा, कट्ठ-कम्मंताणि वा, सुसाण-कम्मंताणि वा, संति-कम्मंताणि वा, गिरि-कम्मंताणि वा, कंदर-कम्मंताणि Translated Sutra: ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी मार्ग में आने वाले उन्नत भू – भाग या टेकरे, खाइयाँ, नगर को चारों ओर से वेष्टित करने वाली नहरें, किले, नगर के मुख्य द्वार, अर्गला, अर्गलापाशक, गड्ढे, गुफाएं या भूगर्भ मार्ग तथा कूटागार, प्रासाद, भूमिगृह, वृक्षों को काटछांट कर बनाए हुए गृह, पर्वतीय गुफा, वृक्ष के नीचे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-४ भाषाजात |
उद्देशक-२ क्रोधादि उत्पत्तिवर्जन | Hindi | 470 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाइं रूवाइं पासेज्जा तहावि ताइं नो एवं वएज्जा, तं जहा–गंडी गंडी ति वा, कुट्ठी कुट्ठी ति वा, रायंसी रायंसी ति वा, अवमारियं अवमारिए ति वा, काणियं काणिए ति वा, ज्झिमियं ज्झिमिए ति वा, कुणियं कुणिए ति वा, खुज्जियं खुज्जिए ति वा, उदरी उदरी ति वा, मूयं भूए ति वा, सूणियं सूणिए ति वा, गिलासिणी गिलासिणी ति वा, वेवई वेवई ति वा, पीढसप्पी पीढसप्पी ति वा, सिलिवयं सिलिवए ति वाव, महुमेहणी महुमेहणी ति वा, हत्थछिन्नं हत्थछिन्ने ति वा, पादछिन्नं पादछिन्ने ति वा, नक्कछिन्नं नक्कछिन्ने ति वा, कण्णछिन्नं कण्णछिन्ने ति वा, ओट्ठछिन्नं ओट्ठछिन्ने ति वा जे यावण्णे Translated Sutra: संयमशील साधु या साध्वी यद्यपि अनेक रूपों को देखते हैं तथापि उन्हें देखकर इस प्रकार न कहे। जैसे कि गण्डी माला रोग से ग्रस्त या जिसका पैर सूझ गया हो को गण्डी, कुष्ठ – रोग से पीड़ित को कोढ़िया, यावत् मधुमेह से पीड़ित रोगी को मधुमेही कहकर पुकारना, अथवा जिसका हाथ कटा हुआ है उसे हाथकटा, पैरकटे को पैरकटा, नाक कटा हुआ हो | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन – सम्बन्धी वर्ग | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 539 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं चउत्थं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं–से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा, नेवन्नेहिं मेहुणं गच्छावेज्जा, अन्नंपि मेहुणं गच्छंतं न समणुज्जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया। केवली बूया–निग्गंथे णं अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहमाणे, संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेवली-पण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा। नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं Translated Sutra: इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, समस्त प्रकार के मैथुन – विषय सेवन का प्रत्या – ख्यान करता हूँ। देव – सम्बन्धी, मनुष्य – सम्बन्धी और तिर्यंच – सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से मैथुन – सेवन कराऊंगा और न ही मैथुनसेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 540 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं पंचमं भंते! महव्वयं–सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं गिण्हेज्जा, नेवन्नेहिं परिग्गहं गिण्हावेज्जा, अन्नंपि परिग्गहं गिण्हंतं ण समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–सोयओ जीवे मणुण्णामणुण्णाइं सद्दाइं सुणेइ। मणुण्णामणुण्णेहिं सद्देहिं नो सज्जेज्जा, नो रज्जेज्जा, नो गिज्झेज्जा, नो मुज्झेज्जा, नो अज्झोववज्जेज्जा, नो विणिग्घाय-मावज्जेज्जा। केवली बूया– Translated Sutra: इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पाँचवे महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत के संदर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा, और न परिग्रहण करने वालों का अनुमोदन | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Hindi | 73 | Gatha | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई ।
तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ॥ Translated Sutra: जैसे कोई पुरुष अपने द्वारा चाहे गए सभी गुणों – विशेषताओं से युक्त भोजन कर, भूख – प्यास से मुक्त होकर अपरिमित तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार – सर्वकालतृप्त, अनुपम शान्तियुक्त सिद्ध शाश्वत तथा अव्याबाध परम सुख में निमग्न रहते हैं। सूत्र – ७३, ७४ | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 1 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था–रिद्धत्थिमिय समिद्धा पमुइय-जनजानवया आइण्ण जन मनूसा हल सयसहस्स संकिट्ठ विकिट्ठ-लट्ठ पन्नत्त सेउसीमा कुक्कुड संडेय गाम पउरा उच्छु जव सालिकलिया गो महिस गवेलगप्पभूया आयारवंत चेइय जुवइविविहसन्निविट्ठबहुला उक्कोडिय गायगंठिभेय भड तक्कर खंडरक्खरहिया खेमा निरुवद्दवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा अनेगकोडि कोडुंबियाइण्ण निव्वुयसुहा.....
..... नड नट्टग जल्ल मल्ल मुट्ठिय वेलंबग कहग पवग लासग आइक्खग लंख मंख तूणइल्ल तुंबवीणिय अनेगतालायराणुचरिया आरामुज्जाण अगड तलाग दीहिय वप्पिणि गुणोववेया उव्विद्ध विउल गंभीर खायफलिहा चक्क गय Translated Sutra: उस काल, उस समय, चम्पा नामक नगरी थी। वह वैभवशाली, सुरक्षित एवं समृद्ध थी। वहाँ के नागरिक और जनपद के अन्य व्यक्ति वहाँ प्रमुदित रहते थे। लोगों की वहाँ घनी आबादी थी। सैकड़ों, हजारों हलों से जुती उसकी समीपवर्ती भूमि सुन्दर मार्ग – सीमा सी लगती थी। वहाँ मुर्गों और युवा सांढों के बहुत से समूह थे। उसके आसपास की भूमि | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 16 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो–जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विनयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी, जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जिइंदिया जियनिद्दा जियपरीसहा जीवियासमरणभय विप्पमुक्का, वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अज्जवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जप्पहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा, चारुवण्णा Translated Sutra: तब श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी बहुत से स्थविर, भगवान, जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बल – सम्पन्न, रूप – सम्पन्न, विनय – सम्पन्न, ज्ञान – सम्पन्न, दर्शन – सम्पन्न, चारित्र – सम्पन्न, लज्जा – सम्पन्न, लाघव – सम्पन्न – ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी – प्रशस्तभाषी। क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, इन्द्रियजयी, निद्राजयी, | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 20 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अब्भिंतरए तवे? अब्भिंतरए तवे छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–पायच्छित्तं विनओ वेयावच्चं सज्झाओ ज्झाणं विउस्सग्गो।
से किं तं पायच्छित्ते? पायच्छित्ते दसविहे पन्नत्ते, तं जहा–आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तवारिहे छेदारिहे मूलारिहे अणवट्ठप्पारिहे पारंचियारिहे। से तं पायच्छित्ते।
से किं तं विनए? विनए सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा–नाणविनए दंसणविनए चरित्तविनए मनविनए वइविनए कायविनए लोगोवयारविनए।
से किं तं नाणविनए? नाणविनए पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभिणिबोहियनाणविनए सुयनाणविनए ओहिनाणविनए मनपज्जवनाणविनए केवलनाणविनए। Translated Sutra: आभ्यन्तर तप क्या है ? आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है – १. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान तथा ६. व्युत्सर्ग। प्रायश्चित्त क्या है ? प्रायश्चित्त दस प्रकार का कहा गया है – १. आलोचनार्ह, २. प्रतिक्रमणार्ह, ३. तदुभयार्ह, ४. विवेकार्ह, ५. व्युत्सर्गार्ह, ६. तपोऽर्ह, ७. छेदार्ह, ८. मूलार्ह, ९. अनवस्थाप्यार्ह, | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 27 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं चंपाए नयरीए सिंघाडग तिग चउक्क चच्चर चउम्मुह महापहपहेसु महया जनसद्देइ वा, जनवूहइ वा जनबोलेइ वा जनकलकलेइ वा जनुम्मीइ वा जनुक्कलियाइ वा जनसन्निवाएइ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ– एवं खलु देवानुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसोत्तमे जाव संपाविउकामे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव चंपाए नयरीए बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो देवानुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं Translated Sutra: उस समय चम्पा नगरी के सिंघाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों, गलियों में मनुष्यों की बहुत आवाज आ रही थी, बहुत लोग शब्द कर रहे थे, आपस में कह रहे थे, फुसफुसाहट कर रहे थे। लोगों का बड़ा जमघट था। वे बोल रहे थे। उनकी बातचीत की कलकल सुनाई देती थी। लोगों की मानो एक लहर सी उमड़ी आ रही थी। छोटी – छोटी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 176 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्जभयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहानीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविट्ठे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए ज्झियाति।
तए णं चमरं असुरिंदं असुररायं सामानियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव ज्झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी– किं णं देवानुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा चिंतासोयसागर-संपविट्ठा करयलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया Translated Sutra: इसके पश्चात् वज्र – (प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुआ, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमरचंचा नामक राजधानी में सुधर्मा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 200 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो वग्गू नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स उत्तरे णं जहा सोमस्स विमान-रायहाणि-वत्तव्वया तहा नेयव्वा जाव पासादवडेंसया।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो इमे देवा आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–वेसमणकाइया इ वा, वेसमणदेवयकाइया इ वा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा, दीवकुमारीओ, दिसाकुमारा, दिसाकुमारीओ, वाणमंतरा, वाणमंतरीओ–जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो आणा-उववाय-वयण-निद्देसे Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल – वैश्रमण महाराज का वल्गु नामक महाविमान कहाँ है? गौतम ! सौधर्मावतंसक नामक महाविमान के उत्तरमें है। इस सम्बन्ध में सारा वर्णन सोम महाराज के महा – विमान की तरह जानना चाहिए; और वह यावत् राजधानी यावत् प्रासादावतंसक तक का वर्णन भी उसी तरह जान लेना चाहिए देवेन्द्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 520 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु सत्त महा-
सुविणे पासित्ता णं पडिबु-ज्झंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति। इमे य णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए Translated Sutra: ‘हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत् आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।’ अतः हे देवानुप्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 522 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुत्तंसि ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणग-ण्हाण-गीय-वाइय-पसाहण-अट्ठंगतिलग-कंकण-अविहवबहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउय-मंगलोवयार-कयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरियत्ताणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिंतो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेनं पाणिं गिण्हाविंसु।
तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति, तं जहा–अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ, Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी समय शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त्त में महाबल कुमार ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक – मंगल प्रायश्चित्त किया। उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया गया। फिर सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, गीत, वादित, मण्डन, आठ अंगों पर तिलक, लाल डोरे के रूप में कंकण तथा दही, अक्षत आदि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 646 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं पभू णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए? विसए णं भंते! गोसा-लस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए? समत्थे णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगा-हच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए?
पभू णं आनंदा! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए। विसए णं आनंदा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए। समत्थे णं आनंदा! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए, नो चेव णं अरहंते भगवंते, पारियावणियं पुण करेज्जा। Translated Sutra: (आनन्द स्थविर – ) [प्र.] ‘भगवन् ! क्या मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप – तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जलाकर भस्मराशि करने में समर्थ हैं ? भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषयमात्र है अथवा वह ऐसा करने में समर्थ भी हैं ?’ ‘हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप – तेज से यावत् भस्म करने में समर्थ हैं। हे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-८ भूमि | Hindi | 794 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसु णं भंते! पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु अत्थि ओसप्पिणीति वा उस्सप्पिणीति वा?
हंता अत्थि। एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो
एएसु णं भंते! पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं पन्नवयंति?
नो इणट्ठे समट्ठे।
एएसु णं पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु, पुरिम-पच्छिमगा दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं पण्णवयंति, अवसेसा णं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पन्नवयंति। एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पन्नवयंति।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे भारहे Translated Sutra: भगवन् ! महाविदेह क्षेत्रों में अरहन्त भगवान सप्रतिक्रमण पंच – महाव्रत वाले धर्म का उपदेश करते हैं ? (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है। भरत तथा ऐरवत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम ये दो अरहन्त भगवंत सप्रतिक्रमण पाँच महाव्रतोंवाले और शेष अरहन्त भगवंत चातुर्याम धर्म का उपदेश करते हैं और पाँच महाविदेह क्षेत्रों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-७ संयत | Hindi | 968 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं ज्झाणे? ज्झाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा– अट्टे ज्झाणे, रोद्दे ज्झाणे, धम्मे ज्झाणे, सुक्के ज्झाणे।
अट्टे ज्झाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–अमणुन्नसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, मणुन्नसंपयोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, आयंकसंपयोग-संपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमन्नागए यावि भवइ, परिज्झुसियकामभोगसंपयोग-संपउत्ते तस्स अविप्पयोग-सतिसमन्नागए यावि भवइ।
अट्टस्स णं ज्झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा–कंदणया, सोयणया, तिप्पणया, परिदेवणया।
रोद्देज्झाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–हिंसानुबंधी, मोसानुबंधी, तेयानुबंधी, Translated Sutra: (भगवन् !) ध्यान कितने प्रकार का ? (गौतम !) चार प्रकार का – आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान। आर्त्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है। यथा – अमनोज्ञ वस्तुओं की प्राप्ति होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना, मनोज्ञ वस्तुओं की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना, आतंक प्राप्त होने पर उसके वियोग की | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपसंहार |
Hindi | 1083 | Gatha | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कुमुयसुसंठियचलणा, अमलियकोरेंटबिंटसंकासा।
सुयदेवया भगवती मम मतितिमिरं पणासेउ ॥ Translated Sutra: कच्छप के समान संस्थित चरण वाली तथा अम्लान कोरंट की कली के समान, भगवती श्रुतदेवी मेरे मति अन्धकार को विनष्ट करे। जिसके हाथमें विकसित कमल है, जिसने अज्ञानान्धकार का नाश किया है, जिसको बुध और विबुधों ने सदा नमस्कार किया है, ऐसी श्रुताधिष्ठात्रि देवी मुझे भी बुद्धि प्रदान करे। जिसकी कृपा से ज्ञान सीखा है, उस श्रुतदेवता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
उपसंहार |
Hindi | 1086 | Gatha | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुयदवेया य जक्खो कुंभधरो बंभसंति वेरोट्टा।
विज्जा य अंतहुंडी देउ अविग्घं लिहंतस्स ॥ Translated Sutra: श्रुतदेवता, कुम्भधर यक्ष, ब्रह्मशान्ति, वैरोट्यादेवी, विद्या और अन्तहुंडी, लेखक के लिए अविघ्न प्रदान करे। | |||||||||
Chatusharan | चतुश्शरण | Ardha-Magadhi |
चतुशरणं |
Hindi | 20 | Gatha | Painna-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वयणामएण भुवणं निव्वाविंता गुणेसु ठाविंता ।
जियलोयमुद्धरिंता अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥ Translated Sutra: वचनामृत द्वारा जगत को शान्ति देनेवाले, गुण में स्थापित करनेवाले, जीव लोक का उद्धार करनेवाले अरिहंत भगवान मुझे शरणरूप हो। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 73 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स ।
परीसहे जिणंतस्स सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ Translated Sutra: जो श्रमण तपोगुण में प्रधान है,ऋजुमति है, क्षान्ति एवं संयम में रत है, तथा परीषहों को जीतने वाला है; ऐसे श्रमण को सुगति सुलभ है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 74 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमरभवणाइं ।
जेसिं पिओ तवो संजमो य खंती य बंभचेरं च ॥ Translated Sutra: भले ही वे पिछली वय में प्रव्रजित हुए हों किन्तु जिन्हें तप, संयम, क्षान्ति एवं ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही देवभवनों में जाते हैं। | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
मङ्गलं, देवेन्द्रपृच्छा |
Hindi | 1 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अमर-नरवंदिए वंदिऊण उसभाइए जिनवरिंदे ।
वीरवरपच्छिमंते तेलोक्कगुरू गुणाइन्ने ॥ Translated Sutra: त्रैलोक्य गुरु – गुण से परिपूर्ण, देव और मानव द्वारा पूजनीय, ऋषभ आदि जिनवर और अन्तिम तीर्थंकर महावीर को नमस्कार करके निश्चे आगमविद् किसी श्रावक संध्याकाल के प्रारम्भ में जिसका अहंकार जीत लिया है वैसे वर्धमानस्वामी की मनोहर स्तुति करता है। और वो स्तुति करनेवाले श्रावक की पत्नी सुख शान्ति से सामने बैठकर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 90 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामं जनवए होत्था। तत्थ णं वाणारसी नामं नयरी होत्था। तत्थ णं संखे नामं कासीराया होत्था।
तए णं तीसे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए अन्नया कयाइं तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था।
तए णं से कुंभए राया सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! इमस्स दिव्वस्स कुंडजुयलस्स संधिं संघाडेह, [संघाडेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह?] ।
तए णं सा सुवण्णगारसेणी एयमट्ठं तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगारभिसियासु Translated Sutra: उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था। उस जनपद में वाराणसी नामक नगरी थी। उसमें काशीराज शंख नामक राजा था। एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डल – युगल का जोड़ खुल गया। तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा – ‘देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़ को साँध दो।’ तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 15 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्त-सुइय-सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण-सरससुरभि-मुक्क-पुप्फपुं-जोवयारकलियं कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डज्झंत-सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर गंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरि-सवस-विसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से सेणिए राया कल्लं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा – हे देवानुप्रिय ! आज बाहर की उपस्थानशाला को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफ – सूथरी, लीपी हुई, पाँच वर्णों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुंदुरुक्क, तुरुष्क | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 123 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारया तओ मुहुत्तंतरस्स पासायवडेंसए सइं वा रइं वा धिइं वा अलभमाणा अन्नमन्नं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! रयणदीव-देवया अम्हे एवं वयासी–एवं खलु अहं सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ। तं सेयं खलु अम्हं देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्लं वनसंडं गमित्तए–अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवागच्छंति। तत्थ णं वावीसु य जाव आलीधरएसु य जाव सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरंति।
तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सइं वा रइं वा धिइं वा अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले Translated Sutra: वे माकन्दीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त्त में ही उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में कहने लगे – ‘देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे कहा है कि – शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवण – समुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१० चंद्रमा |
Hindi | 141 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गोयमो एवं वयासी–
कहण्णं भंते! जीवा वड्ढंति वा हायंति वा? गोयमा! ते जहानामए बहुलपक्खस्स पाडिवय-चंदे पुण्णिया-चंदं पणिहाय हीने वण्णेणं हीणे सोम्माए हीने निद्धयाए हीने कंतीए एवं–दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेसाए हीने मंडलेणं।
तयानंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवय-चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव हीणतराए मंडलेणं।
तयानंतरं च णं तइया–चंदे बीया-चंदं पणिहाय हीनतराए वण्णेणं जाव हीनतराए मंडलेणं।
एवं Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो दसवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? ‘हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। उस के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Hindi | 210 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चिलाए चोरसेनावई अन्नया कयाइ विपुलं असन-पान-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता ते पंच चोरसए आमंतेइ तओ पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विपुलं असन-पान-खाइम-साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपुलेणं धूव-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्मानेइ, सक्कारेत्ता सम्मानेत्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे सड्ढे। तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अनुमग्गजाइया सुंसुमा नामं दारिया–अहीना जाव सुरूवा। Translated Sutra: तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति ने एक बार किसी समय विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा कर पाँच सौ चोरों को आमंत्रित किया। फिर स्नान तथा बलिकर्म करके भोजन – मंडप में उन पाँच सौ चोरों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का तथा सूरा प्रसन्ना नामक मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, वितरण एवं परिभोग करने लगा। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
16. भाव-संशुद्धि | Hindi | 77 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनः शुद्धिमबिभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये।
त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ।। Translated Sutra: मन की शुद्धि को प्राप्त किये बिना जो अज्ञ जन मोक्ष के लिए तप करते हैं, वे नाव को छोड़कर महासागर को भुजाओं से तैरने की इच्छा करते हैं। (अर्थात् बिना चित्त-शुद्धि के मोक्ष-मार्ग में गमन सम्भव नहीं।) (भाव से विरक्त व्यक्ति जल में कमलवत् अलिप्त रहता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
8. यज्ञ-सूत्र | Hindi | 266 | View Detail | ||
Mool Sutra: तवो जोई जीवो जोइठाणं,
जोगा सुया सरीरं कारिसंगं।
कम्ममेहा संजमजोग सन्ती,
होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ।। Translated Sutra: तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग स्रुवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्तिपाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से मैं अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
16. भाव-संशुद्धि | Hindi | 77 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनः शुद्धिमबिभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये।
त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ।। Translated Sutra: मन की शुद्धि को प्राप्त किये बिना जो अज्ञ जन मोक्ष के लिए तप करते हैं, वे नाव को छोड़कर महासागर को भुजाओं से तैरने की इच्छा करते हैं। (अर्थात् बिना चित्त-शुद्धि के मोक्ष-मार्ग में गमन सम्भव नहीं।) (भाव से विरक्त व्यक्ति जल में कमलवत् अलिप्त रहता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 112 | View Detail | ||
Mool Sutra: मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ।। Translated Sutra: (चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कषाय-विजय व अहिंसादि युक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 244 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलम्।
क्षान्ति निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तयं दुष्प्रघर्षिकम् ।। Translated Sutra: श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गुप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
8. यज्ञ-सूत्र | Hindi | 266 | View Detail | ||
Mool Sutra: तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिस्थानं,
योगाः स्रुवः शरीरं करीषांगम्।
कर्मैधाः संयमयोगाः शान्तिः,
होमेन जुहोम्यृषीणां प्रशस्तेन ।। Translated Sutra: तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग स्रुवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्तिपाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से मैं अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 333 | View Detail | ||
Mool Sutra: तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने।
न हि स्रोतसि प्रविशन्ति, कृस्नं परिशुष्यति तडागम् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार तालाब में जल का प्रवेश होता रहने पर, जल निकास का द्वार खोल देने से भी वह सूखता नहीं है, उसी प्रकार संवरहीन अज्ञानी को केवल तप मात्र से मोक्ष नहीं होता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
1. स्वभाव कारणवाद (सत्कार्यवाद) | Hindi | 347 | View Detail | ||
Mool Sutra: अन्योऽन्यं प्रविशन्ति, ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य।
मिलन्त्यपि च नित्यं, स्वकं स्वभावं न विजहन्ति ।। Translated Sutra: ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करके स्थित हैं, अपने भीतर एक दूसरे को अवकाश देते हैं। क्षीर-नीरवत् परस्पर में मिल कर एकमेक हो जाते हैं। इतना होने पर भी ये कभी अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 44 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] उसभे णं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहियं चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए।
जप्पभिइं च णं उसभे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तप्पभिइं च णं उसभे अरहा कोसलिए निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा मानुस्सा वा तिरिक्खजोणिया वा पडिलोमा वा अनुलोमा वा। तत्थ पडिलोमा–वेत्तेण वा तयाए वा छियाए वा लयाए वा कसेण वा काए आउट्टेज्जा, अनुलोमा–वंदेज्ज वा नमंसेज्ज वा सक्कारेज्ज वा सम्मानेज्ज वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्ज वा ते सव्वे सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ।
तए णं से भगवं समणे जाए ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए Translated Sutra: कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे, तत्पश्चात् निर्वस्त्र। जब से वे प्रव्रजित हुए, वे कायिक परिकर्म रहित, दैहिक ममता से अतीत, देवकृत् यावत् जो उपसर्ग आते, उन्हें वे सम्यक् भाव से सहते, प्रतिकूल अथवा अनुकूल परिषह को भी अनासक्त भाव से सहते, क्षमाशील रहते, अविचल रहते। भगवान् ऐसे उत्तम | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 228 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पालए देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए जाव वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणित्ता तहेव करेइ।
तस्स णं दिव्वस्स जाणविमानस्स तिदिसिं तओ तिसोवानपडिरूवगा वण्णओ।
तेसि णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं-पत्तेयं तोरणे, वण्णओ जाव पडिरूवा।
तस्स णं जाणविमानस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे, से जहानामए–आलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीवियचम्मेइ वा अनेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड पच्चावड सेढि प्पसेढि सोत्थिय सोवत्थिय पूसमानव वद्धमाणग मच्छंडग मगरंडग जारमार फुल्लावलि पउमपत्त सागरतरंग वसंतलय पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहिं Translated Sutra: देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर – पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है। वह वैक्रिय समुद्घात द्वारा यान – विमान की विकुर्वणा करता है। उस यान – विमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमि – भाग है। वह आलिंग – पुष्कर तथा शंकुसदृश बड़े – बड़े कीले ठोक कर, खींचकर समान किये गये चीते आदि के चर्म जैसा समतल | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
नैरयिक उद्देशक-२ | Hindi | 105 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं खुहप्पिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! एगमेगस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स असब्भावपट्ठवणाए सव्वोदधी वा सव्व-पोग्गले वा आसगंसि पक्खिवेज्जा नो चेव णं से रयणप्पभाए पुढवीए नेरइए तित्ते वा सिता वितण्हे वा सिता, एरिसया णं गोयमा! रयणप्पभाए नेरइया खुधप्पिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। एवं जाव अधेसत्तमाए।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं एकत्तं पभू विउव्वित्तए? पुहुत्तंपि पभू विउव्वित्तए? गोयमा! एगत्तंपि पभू विउव्वित्तए। एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा मुसुंढिरूवं वा, एवं– मोग्गरमुसुंढिकरवतअसिसत्तीहलगतामुसलचक्का।
नारायकुंततोमरसूललउडभिंडमाला Translated Sutra: हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक भूख और प्यास की कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम! असत् कल्पना के अनुसार यदि किसी एक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के मुख में सब समुद्रों का जल तथा सब खाद्य पुद्गलों को डाल दिया जाय तो भी उस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती और न उसकी प्यास ही शान्त हो | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-२ | Hindi | 271 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ता मह किलेसमुत्तिणं सुहियं से अत्ताणयं।
मन्नंतो पमुइओ हिट्ठो सत्थचित्तो वि चिट्ठई॥ Translated Sutra: शरण रहित उस जीव को क्लेश न देकर सुखी किया, इसलिए अति हर्ष पाए। और स्वस्थ चित्तवाला होकर सोचे – माने कि यदि एक जीव को अभयदान दिया और फिर सोचने लगे कि अब मैं निवृत्ति – शांति प्राप्त हुआ। खुजलाने से उत्पन्न होनेवाला पापकर्म दुःख को भी मैंने नष्ट किया। खुजलाने से और उस जीव की विराधना होने से मैं अपनेआप नहीं जान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 292 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं परिग्गहारंभदोसेणं नरगाउयं।
तेत्तीस-सागरुक्कोसं वेइत्ता इह समागया॥ Translated Sutra: इस प्रकार परिग्रह और आरम्भ के दोष से नरकायुष बाँधकर उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम के काल तक नारकी की तीव्र वेदना से पीड़ित है। चाहे कितना भी तृप्त हो उतना भोजन करने के बावजूद भी संतोष नहीं होता, मुसाफिर को जिस तरह शान्ति नहीं मिलती उसी तरह यह बेचारा भोजन करने के बाद भी तृप्त नहीं होता। सूत्र – २९२, २९३ |