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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Hindi | 14 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए।
अस्सिं लोए पव्वहिए।
तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति। Translated Sutra: जो मनुष्य आतै है, वह ज्ञान दर्शन से परिजीर्ण रहता है। क्योंकि वह अज्ञानी जो है। अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा – पीड़ा का अनुभव करता है। काम, भोग व सुख के लिए आतुर बने प्राणी स्थान – स्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप देते रहते हैं। यह तू देख ! समझ ! | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-३ अनवद्यतप | Hindi | 148 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं।
जहा जुण्णाइं कट्ठाइं, हव्ववाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे।
विगिंच कोहं अविकंपमाणे। Translated Sutra: यहाँ (अर्हत्प्रवचनमें) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित अनासक्त होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर को प्रकम्पित कर डाले। अपने कषाय – आत्मा को कृश करे, जीर्ण कर डाले। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालत है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्मा को शीघ्र जला डालता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-३ उपकरण शरीर विधूनन | Hindi | 198 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘एयं खु मुनी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे णिज्झोसइत्ता’।
जे अचेले परिवुसिए, तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ–परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइ-स्सामि, सूइं जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीवीस्सामि, उक्कसिस्सामि, वोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि।
अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसग-फासा फुसंति।
एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले।
‘लाघवं आगममाणे’।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
एवं तेसिं महावीराणं चिरराइं Translated Sutra: सतत सु – आख्यात धर्म वाला विधूतकल्पी (आचार का सम्यक् पालन करने वाला) वह मुनि आदान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है। जो भिक्षु अचेलक रहता है, उस भिक्षु को ऐसी चिन्ता उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूँगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे की याचना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 225 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेत्ता–
अदुवा संतरुत्तरे।
अदुवा एगसाडे।
अदुवा अचेले। Translated Sutra: जब भिक्षु यह जान ले कि ‘हेमन्त ऋतु’ बीत गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जिन – जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे। उन यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर (ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक वाला होकर रहे। अथवा वह अचेलक हो जाए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-५ ग्लान भक्त परिज्ञा | Hindi | 229 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायतइएहिं, तस्स णं नो एवं भवति–तइयं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जाइं वत्थाइं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं धारेज्जा।
णोधोएज्जा, णोरएज्जा, णोधोय-रत्ताइं वत्थाइं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं।
अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेत्ता–
अदुवा एगसाडे।
अदुवा अचेले।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
जस्स Translated Sutra: जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँ। वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे। इससे आगे वस्त्र – विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गई है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 231 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिते पायबिइएण, तस्स नो एवं भवइ–बिइयं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा।
नो धोएज्जा, नो रएज्जा, नो धोय-रत्तं वत्थं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं।
अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेत्ता– ‘अदुवा अचेले’।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चूका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि में दूसे वस्त्र की याचना करूँगा। वह यथा – एषणीय वस्त्र की याचना करे। यहाँ से लेकर आगे ‘ग्रीष्मऋतु आ गई’ तक का वर्णन पूर्ववत्। भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 481 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदय सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, तहप्पगारं वत्थं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं, रोइज्जंतं न रुच्चइ, तहप्पगारं वत्थं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं Translated Sutra: साधु – साध्वी यदि ऐसे वस्त्र को जाने जो कि अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनैषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। साधु या साध्वी यदि जाने के यह वस्त्र अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ है, अस्थिर है, या जीर्ण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 549 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से हु प्परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय-मेहुणे चरे ।
भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ॥ Translated Sutra: जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा – कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसा ही जो भिक्षु परिज्ञा – सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, लोक सम्बन्धी आशंसा से रहित, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम में विचरण करना, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Anuttaropapatikdashang | अनुत्तरोपपातिक दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-३ धन्य, सुनक्षत्र, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र... अध्ययन-१ |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अनुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं काकंदी नामं नयरी होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धा। सहसंबवणे उज्जाणे–सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे। जियसत्तू राया।
तत्थ णं काकंदीए नयरीए भद्दा नामं सत्थवाही परिवसइ–अड्ढा जाव अपरिभूया।
तीसे णं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते धन्ने नामं दारए होत्था–अहीणपडिपुण्ण-पंचेंदियसरीरे जाव सुरूवे। पंचधाईपरिग्गहिए जहा महब्बलो जाव बावत्तरिं कलाओ अहीए जाव अलंभोगसमत्थे Translated Sutra: हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने, अनुत्तरोपपातिक – दशा के तृतीय वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किए हैं तो फिर हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में काकन्दी नगरी थी। वह सब तरह के ऐश्वर्य और धन – धान्य से परिपूर्ण थी। सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था, जो सब ऋतुओं में | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 162 | Gatha | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जुन्नसुरा जुन्नगुलो, जुन्नघयं जुन्नतंदुला चेव ।
अब्भा य अब्भरुक्खा, संज्झा गंधव्वनगरा य ॥ Translated Sutra: जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण घी, जीर्ण तंदुल, अभ्र, अभ्रवृक्ष, संध्या, गंधर्वनगर। | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 314 | Gatha | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिजूरियपेरंतं, चलंतबेंटं पडंतनिच्छीरं ।
पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥ Translated Sutra: अविद्यमान को विद्यमान सद्वस्तु से उपमित करने को असत् – सत् औपम्यसंख्या कहते हैं। सर्व प्रकार से जीर्ण, डंठल से टूटे, वृक्ष से नीचे गिरे हुए, निस्सार और दुःखित ऐसे पत्ते ने वसंत समय प्राप्त नवीन पत्ते से कहा – जीर्ण पीले पत्ते ने नवोद्गत किसलयों कहा – इस समय जैसे तुम हो, हम भी पहले वैसे ही थे तथा इस समय जैसे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 764 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविकाइयस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता?
गोयमा! से जहानामए रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स वण्णगपेसिया तरुणी बलवं जुगवं जुवाणी अप्पायंका थिरग्गहत्था दढपाणि-पाय-पास-पिट्ठंतरोरु-परिणता तलजमलजुयल-परिघनिभबाहू उरस्सबलसमण्णागया लंघण-पवण-जइण-वायाम-समत्था छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउणा निउणसिप्पोवगया तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकाइयं जतुगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय-पडिसाहरिय पडिसंखिविय-पडिसंखिविय जाव इणामेवत्ति कट्टु तिसत्तक्खुत्तो ओप्पीसेज्जा, तत्थ णं गोयमा! अत्थेगतिया पुढविक्काइया आलिद्धा अत्थेगतिया Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकाय के शरीर की कितनी बड़ी अवगाहना कही गई है ? गौतम ! जैसे कोई तरुणी, बलवती, युगवती, युगावय – प्राप्त, रोगरहित इत्यादि वर्णन – युक्त यावत् कलाकुशल, चातुरन्त चक्रवर्ती राजा की चन्दन घिसने वाली दासी हो। विशेष यह है कि यहाँ चर्मेष्ट, द्रुघण, मौष्टिक आदि व्यायाम – साधनों से सुदृढ़ इत्यादि विशेषण नहीं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१ चलन | Hindi | 9 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तते णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे अभिमुहे विनएणं पंजलियडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी–
से नूनं भंते! चलमाणे चलिए? उदीरिज्जमाणे उदोरिए? वेदिज्जमाणे वेदिए? पहिज्जमाणे पहीने? छिज्जमाणे छिन्ने? भिज्जमाणे भिन्ने? Translated Sutra: तत्पश्चात् जातश्रद्ध (प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले), जातसंशय, जातकुतूहल, संजातश्रद्ध, समुत्पन्न श्रद्धा वाले, समुत्पन्न कुतूहल वाले गौतम अपने स्थान से उठकर खड़े होते हैं। उत्थानपूर्वक खड़े होकर श्रमण गौतम जहाँ श्रमण भगवान महावीर हैं, उस ओर आते हैं। निकट आकर श्रमण भगवान महावीर को उनके दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१ चलन | Hindi | 10 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एए णं भंते! नव पदा किं एगट्ठा नानाघोसा नानावंजणा? उदाहु नाणट्ठा नानाघोसा नानावंजणा?
गोयमा! चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेदिज्जमाणे वेदिए, पहिज्जमाणे पहीने–
एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा नानाघोसा नानावंजणा उप्पन्नपक्खस्स।
छिज्जमाणे छिन्ने, भिज्जमाणे भिन्ने, दज्झमाणे दड्ढे, भिज्जमाणे मए, निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे–
एए णं पंच पदा नाणट्ठा नानाघोसा नानावंजणा विगयपक्खस्स। Translated Sutra: भगवन् ! क्या ये नौ पद, नानाघोष और नाना व्यञ्जनों वाले एकार्थक हैं ? अथवा नाना घोष वाले और नाना व्यञ्जनों वाले भिन्नार्थक पद हैं ? हे गौतम ! १. जो चल रहा है, वह चला; २. जो उदीरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ; ३. जो वेदा जा रहा है, वह वेदा गया; ४. और जो गिर (नष्ट) हो रहा है, वह गिरा (नष्ट हुआ), ये चारों पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१ चलन | Hindi | 14 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! पुव्वाहारिया पोग्गला चिया? पुच्छा–
जहा परिणया तहा चियावि।
एवं–उवचिया, उदीरिया, वेइया, निज्जिण्णा। Translated Sutra: हे भगवन् ! नैरयिकों द्वारा पहले आहारित पुद्गल चय को प्राप्त हुए ? हे गौतम ! जिस प्रकार वे परिणत हुए, उसी प्रकार चय को प्राप्त हुए; उसी प्रकार उपचय को प्राप्त हुए; उदीरणा को प्राप्त हुए, वेदन को प्राप्त हुए तथा निर्जरा को प्राप्त हुए। परिणत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण, इस एक – एक पद में चार प्रकार के पुद्गल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Hindi | 35 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं करिंसु?
हंता करिंसु।
तं भंते! किं १. देसेणं देसं करिंसु? २. देसेणं सव्वं करिंसु? ३. सव्वेणं देसं करिंसु? ४. सव्वेणं सव्वं करिंसु?
गोयमा! १. नो देसेणं देसं करिंसु, २. नो देसेणं सव्वं करिंसु, ३. नो सव्वेणं देसं करिंसु। ४. सव्वेणं सव्वं करिंसु।
एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियव्वो, जाव वेमाणियाणं।
एवं करेंति। एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं।
एवं करिस्संति। एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं।
एवं चिए, चिणिंसु, चिणंति, चिणिस्संति। उवचिए, उवचिणिंसु, उवचिणंति, उवचिणिस्संति। उदीरेंसु, दीरेंति उदीरिस्संति। वेदेंसु, वेदेंति, वेदिस्संति। निज्जरेंसु, निज्जरेंति, Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन किया है ? हाँ, गौतम ! किया है। भगवन् ! क्या वह देश से देशकृत है ? पूर्वोक्त प्रश्न वैमानिक तक करना। इस प्रकार ‘कहते हैं’ यह आलापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार ‘करते हैं’ यह आलापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार ‘करेंगे’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-३ कांक्षा प्रदोष | Hindi | 36 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कड-चिय-उवचिय, उदीरिया वेदिया य निज्जिण्णा ।
आदितिए चउभेदा, तियभेदा पच्छिमा तिन्नि ॥ Translated Sutra: कृत, चित, उपचित, उदीर्ण, वेदित और निर्जीर्ण; इतने अभिलाप यहाँ कहने हैं। इनमें से कृत, चित और उपचित में एक – एक के चार – चार भेद हैं; अर्थात् – सामान्य क्रिया, भूतकाल की क्रिया, वर्तमान काल की क्रिया और भविष्यकाल की क्रिया। पीछले तीन पदों में सिर्फ तीन काल की क्रिया कहनी है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 102 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति –
एवं खलु चलमाणे अचलिए। उदीरिज्जमाणे अनुदीरिए। वेदिज्जमाणे अवेदिए। पहिज्जमाणे अपहीने। छिज्जमाणे अच्छिन्ने भिज्जमाणे अभिन्ने। दज्झमाणे अदड्ढे। भिज्जमाणे अमए। निज्जरिज्जमाणे अनिज्जिण्णे।
दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति,
कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति?
दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिनेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति।
तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति,
कम्हा तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति?
तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिनेहकाए, तम्हा तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि – जो चल रहा है, वह अचलित है – चला नहीं कहलाता और यावत् – जो निर्जीर्ण हो रहा है, वह निर्जीर्ण नहीं कहलाता। दो परमाणुपुद्गल एक साथ नहीं चिपकते। दो परमाणुपुद्गल एक साथ क्यों नहीं चिपकते ? इसका कारण यह है कि दो परमाणु – पुद्गलों में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 181 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ?
हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ।
जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंत किरिया भवइ?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति?
मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में काँपता है, विविध रूप में काँपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है, घट्टित होता (घूमता) है, क्षुब्ध होता है, उदीरित होता या करता है; और उन – उन भावों में परिणत होता है ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित – (परिमित) रूप से काँपता है, यावत् उन – उन भावों में परिणत होता है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 195 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो वरसिट्ठे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स दाहिणे णं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं जोयण-सहस्साइं वीईवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो वरसिट्ठे नामं महाविमाने पन्नत्ते–अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं–जहा सोमस्स विमाणं तहा जाव अभिसेओ। रायहानी तहेव जाव पासायपंतीओ।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा आणा उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–जमकाइया इ वा, जमदेवयकाइया इ वा, पेतकाइया इ वा, पेतदेवयकाइया इ वा, असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा, निरयपाला, Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान कहाँ है ? गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से दक्षिण में, सौधर्मकल्प से असंख्य हजार योजन आगे चलने पर, देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान बताया गया है, जो साढ़े बारह लाख योजन लम्बा – चौड़ा है, इत्यादि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-३ स्थावर | Hindi | 349 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! जा वेदना सा निज्जरा? जा निज्जरा सा वेदना?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जा वेदना न सा निज्जरा? जा निज्जरा न सा वेदना?
गोयमा! कम्मं वेदना, नोकम्मं निज्जरा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जा वेदना न सा निज्जरा, सा निज्जरा न सा वेदना।
नेरइया णं भंते! जा वेदना सा निज्जरा? जा निज्जरा सा वेदना?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइयाणं जा वेदना न सा निज्जरा? जा निज्जरा न सा वेदना?
गोयमा! नेरइयाणं कम्मं वेदना, नोकम्मं निज्जरा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नेरइयाणं जा वेदना न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेदना।
एवं जाव Translated Sutra: भगवन् ! क्या वास्तव में जो वेदना है, वह निर्जरा कही जा सकती है ? और जो निर्जरा है, वह वेदना कही जा सकती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं कही जा सकती और जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं कही जा सकती ? गौतम ! वेदना कर्म है और निर्जरा नोकर्म है। इस कारण से ऐसा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 464 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महयाभडचडगर पहकरवंदपरिक्खित्ते, जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं Translated Sutra: श्रमण भगवान् महावीर के पास से धमृ सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् वन्दन – नमन किया और कहा – ‘‘भगवन् ! मैं र्निग्रन्थ – प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ – प्रवचन पर प्रतीत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 466 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए।
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स एयमट्ठं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ।
तए णं से जमाली अनगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं बहिया जनवयविहारं विहरित्तए।
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अनगारस्स दोच्चं पि, तच्चं Translated Sutra: तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना – नमस्कार करके इस प्रकार बोले – भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर विहार करना चाहता हूँ। यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात को आदर नहीं दिया, न स्वीकार किया। वे मौन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 540 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे?
गोयमा! जण्णं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाइं दव्वाइं ओरालिय -सरीरत्ताए गहियाइं बद्धाइं पुट्ठाइं कडाइं पट्ठवियाइं निविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं परियादियाइं परिणामियाइं निज्जिण्णाइं निसिरियाइं निसिट्ठाइं भवंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे।
एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्टेवि, नवरं–वेउव्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउव्वियसरीरप्पायोग्गाइं दव्वाइं वेउव्वियसरीरत्ताए गहियाइं, सेसं तं चेव सव्वं, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, Translated Sutra: भगवन् ! यह औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? गौतम ! औदारिकशरीर में रहते हुए जीव ने औदारिकशरीर योग्य द्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण किए हैं, बद्ध किए हैं, स्पृष्ट किए हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है; उन्हें प्रस्थापित किया है; स्थापित किए | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१ चमरेन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-१ काली |
Hindi | 220 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं गुणसिलए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मा नामं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा जाव चोद्दसपुव्वी चउनाणोवगया पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुव्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्ज-माणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया। धम्मो Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। (वर्णन) उस राजगृह के बाहर ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था। (वर्णन समझ लेना) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नामक स्थविर उच्चजाति से सम्पन्न, कुल से सम्पन्न यावत् चौदह पूर्वों के वेत्ता और चार ज्ञानों से युक्त थे। वे पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्णदोहला असम्मानियदोहला सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयनकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला नित्तेया दोणविवण्णवयणा जहोचिय-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हारं अनभिलसमाणी किड्डारमणकिरियं परिहावेमाणी दीना दुम्मणा निरानंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियाइ।
तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडिचारियाओ अब्भिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणिं देविं ओलुग्ग ज्झियायमाणिं पासंति, पासित्ता एवं वयासी– किण्णं तुमे देवानुप्पिए! Translated Sutra: तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई। भूख से व्याप्त हो गई। मांस रहित हो गई। जीर्ण एवं शीर्ण शरीर वाली, स्नान का | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 20 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडिचारियाणं अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं ज्झि-यायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया ज्झियायसि?
तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ।
तए णं से सेणिए राया धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया ज्झियायसि?
तए Translated Sutra: तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सूनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारिणी देवी थी, वहाँ आता है। आकर धारिणी देवी को जीर्ण – जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त – देखता है। इस प्रकार कहता है – ‘देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 37 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं मेहा! इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी–से नूनं तुमं मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणेहि य निग्गच्छमाणेहि य अप्पेगइएहिं हत्थेहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं पाएहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं सीसे संघट्टिए अप्पेगइएहिं पोट्टे संघट्टिए अप्पेगइएहिं कायंसि संघट्टिए अप्पेगइएहिं ओलंडिए अप्पेगइएहिं पोलंडिए अप्पेगइएहिं पाय-रय-रेणु-गुंडिए कए। एमहालियं च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं निमिल्लावेत्तए। तए णं तुज्ज मेहा! इमेयारूवे अज्झत्थिए Translated Sutra: तत्पश्चात् ‘हे मेघ’ इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मेघकुमार से कहा – ‘हे मेघ! तुम रात्रि के पहले और पीछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मींच सके। मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 42 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, बितियस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गुणसिलए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते, एत्थ णं महं एगं जिण्णुज्जाणे यावि होत्था–विनट्ठदेवउल-परिसडियतोरणघरे नानाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-वच्छच्छाइए अनेग-वालसय-संकणिज्जे यावि होत्था।
तस्स णं जिण्णुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे भग्गकूवे यावि होत्था।
तस्स णं भग्गकूवस्स Translated Sutra: श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं – ‘भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने द्वीतिय ज्ञाता – ध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में – जब राजगृह नामक नगर था। (वर्णन) उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि उस राजगृह नगर से बाहर ईशान कोण में – | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 45 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं रायगिहे नयरे विजए नामं तक्करे होत्था–पावचंडाल-रूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसिय-दित्त-रत्तनयणे खरफ-रुस-महल्ल-विगय-बीभच्छदाढिए असंपुडियउट्ठे उद्धूय-पइण्ण-लंबंभमुद्धए भमर-राहुवण्णं निरनुक्कोसे निरनुतावे दारुणे पइभए निसंसइए निरनुकंपे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरेव एगंतधाराए गिद्धेव आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी जलमिव सव्वग्गाही उक्कंचण-वंचण-माया-नियडि-कूड-कवड-साइ-संपओग-बहुले चिरनगरविनट्ठ-दुट्ठसीलायार-चरित्ते जूयप्पसंगी मज्जप्पसंगी भोज्जप्पसंगी मंसप्पसंगी दारुणे हिययदारए साहसिए संधिच्छेयए उवहिए विस्संभघाई आलीवग-तित्थभेय-लहुहत्थसंपउत्ते परस्स Translated Sutra: उस राजगृह में विजय नामक एक चोर था। वह पापकर्म करने वाला, चाण्डाल के समान रूपवाला, अत्यन्त भयानक और क्रूर कर्म करने वाला था। क्रुद्ध हुए पुरुष के समान देदीप्यमान और लाल उसके नेत्र थे। उसकी दाढ़ी या दाढ़े अत्यन्त कठोर, मोटी, विकृत और बीभत्स थीं। उसके होठ आपस में मिलते नहीं थे, उसके मस्तक के केश हवा से उड़ते रहते थे, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 48 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए, देवदिन्नं दारगं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता बहूहिं डिंभएहिं य डिंभियाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे अभिरमइ।
तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ देवदिन्नं दारयं ण्हायं कयबलिकम्मं कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वा लंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता पंथयस्स दासचेडगस्स हत्थयंसि दलयइ।
तए णं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्थवाहीए हत्थाओ देवदिन्नं दारगं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, बहूहिं डिंभएहि य डिंभियाहि य दारएहि य दारियाहिं य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे Translated Sutra: तत्पश्चात् वह पंथन नामक दास चेटक देवदत्त बालक का बालाग्रही नियुक्त हुआ। वह बालक देवदत्त को कमर में लेता और लेकर बहुत – से बच्चों, बच्चियों, बालकों, बालिकाओं, कुमारों और कुमारियों के साथ, उनसे परिवृत्त होकर खेलता रहता था। भद्रा सार्थवाही ने किसी समय स्नान किये हुए, बलिकर्म, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किये | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 50 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोढं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता अट्ठि-मुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महिय-गत्तं करेंति, करेत्ता अवउडा बंधनं करेंति, करेत्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधंति, बंधित्ता मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिहं नयरं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह Translated Sutra: तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया। धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई। आयुध और प्रहरण ग्रहण किये। फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत – से नीकलने के मार्गों यावत् दरवों, पीछे खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-११ दावद्रव |
Hindi | 142 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति?
गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पन्नत्ता–किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठंति।
जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव Translated Sutra: ‘भगवन् ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 146 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स अन्नया कयाइ सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउब्भूया। [तं जहा–
[गाथा] सासे कासे जरे दाहे, कुच्छिसूले भगंदरे ।अरिसा अजीरए दिट्ठी-
मुद्धसूले अकारए ।अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू दउदरे कोढे ॥ Translated Sutra: कुछ समय पश्चात् एक बार नन्द मणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए। वे इस प्रकार थे – श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षि – शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, नेत्रशूल, मस्तकशूल, भोजनविषयक अरुचि, नेत्रवेदना कर्णवेदना, कंडू – खाज, दकोदर और कोढ़। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
13. आस्रव, संवर व निर्जरा भावना | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रव, संवर व निर्जरा भावना (Just Text w/o Gatha under this section) Translated Sutra: १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएँ नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर मैं इनसे निवृत्त होता हूँ। २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
13. आस्रव, संवर व निर्जरा भावना | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रव, संवर व निर्जरा भावना (Just Text w/o Gatha under this section) Translated Sutra: १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएँ नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर मैं इनसे निवृत्त होता हूँ। २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 37 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे बासे गेहाइ वा गेहावनाइय वा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे, रुक्खगेहालया णं ते मनुया पन्नत्ता समणाउसो!।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा नगराइ वा निगमाइ वा रायहानीइ वा खेडाइ वा कब्बडाइ वा मडंबाइ वा दोणमुहाइ वा पट्टणाइ वा आगराइ वा आसमाइ वा संबाहाइ वा सन्निवेसाइ वा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे, जहिच्छियकामगामिणो णं ते मनुया पन्नत्ता।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा मसीइ वा किसीइ वा वणिएत्ती वा पणिएत्ति वा वाणिज्जेइ वा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे, ववगयअसिमसि किसि वणिय पणिय वाणिज्जा णं ते मनुया पन्नत्ता समणाउसो!।
अत्थि णं भंते! तीसे Translated Sutra: भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में क्या घर होते हैं ? क्या गेहापण – बाजार होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। उन मनुष्यों के वृक्ष ही घर होते हैं। क्या उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम यावत् सन्निवेश होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य स्वभावतः यथेच्छ – विचरणशील होते हैं। क्या उस समय भरतक्षेत्र में असि, मषि, कृषि, वणिक् | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
मनुष्य उद्देशक | Hindi | 145 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगोरुयदीवस्स णं भंते! केरिसए आगार भावपडोयारे पन्नत्ते?
गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते। से जहानामए–आलिंगपुक्खरेति वा, एवं सवणिज्जे भाणितव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मनुस्सा य मनुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थतत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उद्दालका मोद्दालका रोद्दालका कतमाला नट्टमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंता कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहिं य पुप्फेहि य अच्छणपडिच्छन्ना सिरीए अतीवअतीव सोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठंति...
...एगोरुयदीवे णं दीवे Translated Sutra: हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का है ? गौतम ! एकोरुकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। मुरज के चर्मपुट समान समतल वहाँ का भूमिभाग है – आदि। इस प्रकार शय्या की मृदुता भी कहना यावत् पृथ्वीशिलापट्टक का भी वर्णन करना। उस शिलापट्टक पर बहुत से एको – रुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियाँ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 840 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहन्नया तेसिं दुरायाराणं सद्धम्म परंमुहाणं अगार धम्माणगार धम्मोभयभट्ठाणं लिंग मेत्त णाम पव्वइयाणं कालक्कमेणं संजाओ परोप्परं आगम वियारो। जहा णं सड्ढगाणमसई संजया चेव मढदेउले पडिजागरेंति खण्ड पडिए य समारावयंति। अन्नं च जाव करणिज्जं तं पइ समारंभे कज्ज-माणे जइस्सावि णं नत्थि दोस संभवं। एवं च केई भणंति संजम मोक्ख नेयारं, अन्ने भणंति जहा णं पासायवडिंसए पूया सक्कार बलि विहाणाईसु णं तित्थुच्छप्पणा चेव मोक्खगमणं।
एवं तेसिं अविइय परमत्थाणं पावकम्माणं जं जेण सिट्ठं सो तं चेवुद्दामुस्सिंखलेणं मुहेणं पलवति। ताहे समुट्ठियं वाद संघट्टं। नत्थि य कोई तत्थ आगम कुसलो Translated Sutra: अब किसी समय दुराचारी अच्छे धर्म से पराङ्मुख होनेवाले साधुधर्म और श्रावक धर्म दोनों से भ्रष्ट होनेवाला केवल भेष धारण करनेवाले हम प्रव्रज्या अंगीकार की है – ऐसा प्रलाप करनेवाले ऐसे उनको कुछ समय गुजरने के बाद भी वो आपस में आगम सम्बन्धी सोचने लगे कि – श्रावक की गैरमोजुदगी में संयत ऐसे साधु ही देवकुल मठ उपाश्रय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1484 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ ते णं काले णं ते णं समएणं सुसढणामधेज्जे अनगारे हभूयवं। तेणं च एगेगस्स णं पक्खस्संतो पभूय-ट्ठाणिओ आलोयणाओ विदिन्नाओ सुमहंताइं च। अच्चंत घोर सुदुक्कराइं पायच्छित्ताइं समनुचिन्नाइं। तहा वि तेणं विरएणं विसोहिपयं न समुवलद्धं ति एतेणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ।
से भयवं केरिसा उ णं तस्स सुसढस्स वत्तव्वया गोयमा अत्थि इहं चेव भारहेवासे, अवंती नाम जनवओ। तत्थ य संबुक्के नामं खेडगे। तम्मि य जम्मदरिद्दे निम्मेरे निक्किवे किविणे निरणुकंपे अइकूरे निक्कलुणे णित्तिंसे रोद्दे चंडरोद्दे पयंडदंडे पावे अभिग्गहिय मिच्छादिट्ठी अणुच्चरिय नामधेज्जे Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा ? उस समय में उस समय यहाँ सुसढ़ नाम का एक अनगार था। उसने एक – एक पक्ष के भीतर कईं असंयम स्थानक की आलोचना दी और काफी महान घोर दुष्कर प्रायश्चित्त का सेवन किया। तो भी उस बेचारे को विशुद्धि प्राप्त नहीं हुई। इस कारण से ऐसा कहा। हे भगवंत ! उस सुसढ़ की वक्तव्यता किस तरह की है ? हे गौतम ! इस भारत | |||||||||
Nirayavalika | निरयावलिकादि सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ काल |
Hindi | 10 | Sutra | Upang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउब्भूए–धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं मानुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ णं सेणियस्स रन्नो उयरवलिमंसेहिं सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुंजेमाणीओ दोहलं विणेंति।
तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा Translated Sutra: तत्पश्चात् परिपूर्ण तीन मास बीतने पर चेलना देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ – वे माताएं धन्य हैं यावत् वे पुण्यशालिनी हैं, उन्होंने पूर्व में पुण्य उपार्जित किया है, उनका वैभव सफल है, मानवजन्म और जीवन का, सुफल प्राप्त किया है जो श्रेणिक राजा की उदरावली के शूल पर सेके हुए, तले हुए, भूने हुए मांस का तथा सूरा | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-१३ | Hindi | 796 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओस्से सउदए सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणगंसि ठाणं वा सेज्जं वा निसेज्जं वा निसीहियं वा चेएति, चेएंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी यहाँ बताए अनुसार स्थान पर बैठे, खड़े रहे, बैठे या स्वाध्याय करे। अन्य को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। जहाँ धुणा का निवास हो, जहाँ धुणा रहते हो ऐसे या अंड़ – प्राण, सचित्त बीज, सचित्त वनस्पति, हिम – सचित्त, जलयुक्त लकड़े हो, अनन्तकाय कीटक, मिट्टी, कीचड़, | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-१४ | Hindi | 882 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू अनंतरहियाए पुढवीए पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयावेंतं वा पयावेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी सचित्त पृथ्वी पर पात्र को एक या बार बार तपाए या सुखाए, वहाँ से आरम्भ करके जो साधु – साध्वी ठीक तरह से न बाँधे हुए, ठीक न किए हुए, अस्थिर या चलायमान ऐसे लकड़े के स्कन्ध, मंच, खटिया के आकार का मांची, मंड़प, मजला, जीर्ण ऐसा छोटा या बड़ा मकान उस पर पात्रा तपाए या सूखाए, दूसरों को सूखाने के लिए कहे उस तरह से सूखानेवाले | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 344 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पामिच्चंपिय दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेण ।
लोइय सज्झिलगाई लोगुत्तर वत्थमाईसु ॥ Translated Sutra: प्रामित्य यानि साधु के लिए उधार लाकर देना। ज्यादा लाना दो प्रकार से। १. लौकिक और २. लोकोत्तर। लौकिक में बहन आदि का दृष्टांत और लोकोत्तर में साधु – साधु में वस्त्र आदि का। कोशल देश के किसी एक गाँव में देवराज नाम का परिवार रहता था। उसको सारिका नाम की बीवी थी। एवं सम्मत आदि कईं लड़के और सम्मति आदि कईं लड़कियाँ थी। | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 351 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परियट्टियंपि दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेणं ।
एक्केक्कंपिय दुविहं तद्दव्वे अन्नदव्वे य ॥ Translated Sutra: साधु के लिए चीज की अदल – बदल करके देना परावर्तित। परावर्तित दो प्रकार से। लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक में एक चीज देकर ऐसी ही चीज दूसरों से लेना। या एक चीज देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना। लोकोत्तर में भी ऊक्त अनुसार वो चीज देकर वो चीज लेनी या देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना लौकिक तद्रव्य – यानि खराबी घी आदि | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
एषणा |
Hindi | 655 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घेत्तव्वमलोवकडं लेवकडे मा हु पच्छकम्माई ।
न य रसगेहिपसंगो इअ वुत्ते चोयगो भणइ ॥ Translated Sutra: लिप्त का अर्थ है – जिस अशनादि से हाथ, पात्र आदि खरड़ाना, जैसे की दहीं, दूध, दाल आदि द्रव्यों को लिप्त कहलाते हैं। जिनेश्वर परमात्मा के शासन में ऐसे लिप्त द्रव्य लेना नहीं कल्पता, क्योंकि लिप्त हाथ, भाजन आदि धोने में पश्चात्कर्म लगते हैं तथा रस की आसक्ति का भी संभव होता है। लिप्त हाथ, लिप्त भाजन, शेष बचे हुए द्रव्य | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उपसंहार |
Hindi | 703 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] छहिं कारणेहिं साधू आहारिंतोवि आयरइ धम्मं ।
छहिंचेव कारणेहि निज्जूहिंतोवि आयरइ ॥ Translated Sutra: आहार करने के छह कारण हैं। इन छह कारण के अलावा आहार ले तो कारणातिरिक्त नामका दोष लगे क्षुधा वेदनीय दूर करने के लिए, वैयावच्च सेवा भक्ति करने के लिए, संयम पालन करने के लिए, शुभ ध्यान करने के लिए, प्राण टिकाए रखने के लिए, इर्यासमिति का पालन करने के लिए। इन छह कारण से साधु आहार खाए, लेकिन शरीर का रूप या जबान के रस के | |||||||||
Pushpachulika | पुष्पचूला | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 3 | Sutra | Upang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फचूलियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सिरिदेवी सोहम्मे कप्पे सिरिवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सिरिवडिंसयंसि सीहासनंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा बहुपुत्तिया जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया,
नवरं–दारियाओ नत्थि। पुव्वभवपुच्छा।
एवं Translated Sutra: हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या आशय बताया है ? हे जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। श्रेणिक राजा था। श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे। परिषद् नीकली। उस काल और उस समय श्रीदेवी सौधर्मकल्प में श्री अवतंसक विमान की सुधर्मासभा में बहुपुत्रिका | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Hindi | 65 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–अह णं भंते! इहं उवविसामि? पएसी! साए उज्जानभूमीए तुमंसि चेव जाणए।
तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धिं केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ, केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–तुब्भं णं भंते! समणाणं णिग्गंथाणं एस सण्णा एस पइण्णा एस दिट्ठी एस रुई एस उवएसे एस संकप्पे एस तुला एस माणे एस पमाणे एस समोसरणे, जहा–अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं?
तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी–पएसी! अम्हं समणाणं णिग्गंथाणं एस सण्णा एस पइण्णा एस दिट्ठी एस रुई एस हेऊ एस उवएसे एस संकप्पे एस तुला एस माणे एस पमाणे एस समोसरणे, जहा–अन्नो Translated Sutra: प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया – भदन्त ! क्या मैं यहाँ बैठ जाऊं ? हे प्रदेशी ! यह उद्यानभूमि तुम्हारी अपनी है, अत एव बैठने के विषय में तुम स्वयं समझ लो। तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा केशी कुमारश्रमण के समीप बैठ गया और पूछा – भदन्त ! क्या आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा है, प्रतिज्ञा | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Hindi | 68 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ–एवं खलु भंते! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अनेगगनणायक दंडणायग राईसर तलवर माडंबिय कोडुंबिय इब्भ सेट्ठि सेनावइ सत्थवाह मंति महामंति गणग दोवारिय अमच्च चेड पीढमद्द नगर निगम दूय संधिवालेहिं सद्धिं संपरिवुडे विहरामि। तए णं ममं णगरगुत्तिया ससक्खं सहोढं सलोद्दं सगेवेज्जं अवउडगबंधणबद्धं चोरं उवणेंति। तए णं अहं तं पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि, ववरोवेत्ता अओकुंभीए पक्खिवावेमि, अओमएणं पिहाणएणं पिहावेमि, अएण य तउएण य कायावेमि, आयपच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि।
तए Translated Sutra: प्रदेशी राजा ने केशीकुमारश्रमण से कहा – बुद्धि – विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है। किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती है। हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पाँच बाणों को नीकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण |