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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 761 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–सिय भंते! जाव चत्तारि पंच पुढविक्काइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति?
नो इणट्ठे समट्ठे। पुढविक्काइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा।
ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी? मिच्छदिट्ठी? सम्मामिच्छदिट्ठी?
गोयमा! नो सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, नो सम्मामिच्छदिट्ठी।
ते णं भंते! जीवा किं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! क्या कदाचित् दो यावत् चार – पाँच पृथ्वीकायिक मिलकर साधारण शरीर बाँधते हैं, बाँधकर पीछे आहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर का बन्ध करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येक – पृथक् – पृथक् आहार करने वाले हैं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 770 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं० एगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव पंचिंदियजीव-निव्वत्ती
एगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा– पुढविक्काइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव वणस्सइकाइय-एगिंदियजीवनिव्वत्ती।
पुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– सुहुमपुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती य, बादरपुढवि-काइय-एगिंदियजीवनिव्वत्ती य। एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा वड्डगबंधो तेयगसरीरस्स जाव–सव्वट्ठ सिद्धअनुत्तरोववातियकप्पातीतवेमानियदेवपंचिंदियजीवनिव्वत्ती Translated Sutra: भगवन् ! जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति यावत् पंचेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति। भगवन् ! एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की – पृथ्वी – कायिक – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-१ | Hindi | 979 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! नाणावरणिज्जं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ? एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तव्वया तहेव नाणावरणिज्जस्स वि भाणियव्वा, नवरं–जीवपदे मनुस्सपदे य सकसाइम्मि जाव लोभकसाइम्मि य पढम-बितिया भंगा, अवसेसं तं चेव जाव वेमाणिया। एवं दरिसणावरणिज्जेणं वि दंडगो भाणियव्वो निरवसेसो
जीवे णं भंते! वेयणिज्जं कम्मं किं बंधी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। सलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव पम्हलेस्से पढम-बितिया भंगा। सुक्कलेस्से ततियविहूणा भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो। कण्हपक्खिए Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा ? गौतम ! पापकर्म के समान ज्ञानावरणीय कर्म कहना, परन्तु जीवपद और मनुष्यपद में सकषायी यावत् लोभकषायी में प्रथम और द्वीतिय भंग ही कहना। यावत् वैमानिक तक कहना। ज्ञानावरणीयकर्म के समान दर्शनावरणीयकर्म कहना। भगवन् ! क्या जीव ने वेदनीयकर्म | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३१ अशोच्चा | Hindi | 450 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा, केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्सवा, तप्पक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स वा, तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए?
गोयमा! सोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए?
गोयमा! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं सोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं Translated Sutra: भगवन् ! केवली यावत् केवलि – पाक्षिक की उपासिका से श्रवण कर क्या कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म – बोध प्राप्त करता है ? गौतम ! कोई जीव प्राप्त करता है और कोई जीव प्राप्त नहीं करता। इस विषय में असोच्चा के समान ‘सोच्चा’ की वक्तव्यता कहना। विशेष यह कि सर्वत्र ‘सोच्चा’ ऐसा पाठ कहना। शेष पूर्ववत् यावत् जिसने मनःपर्यवज्ञानावरणीय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-३ प्राणवध | Hindi | 783 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादंसण-सल्लविवेगे, उप्पत्तिया वेणइया कम्मया पारिणामिया, ओग्गहे ईहा अवाए धारणा, उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे, नेरइयत्ते, असुरकुमारत्ते जाव वेमानियत्ते, नाणावरणिज्जे जाव अंत-राइए, कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी, चक्खुदंसणे अचक्खु-दंसणे ओहिदंसणे केवलदंसणे, आभिनिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा, ओरालियसरीरे वेउव्वियसरीरे आहारगसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे, मणजोगे वइजोगे कायजोगे, सागारोवओगे, अनागारोवओगे, Translated Sutra: भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, औत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम; नैरयिकत्व, असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१ चलन | Hindi | 22 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! किं आयारंभा? परारंभा? तदुभयारंभा? अनारंभा?
गोयमा! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अनारंभा।अत्थे-गइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अनारंभा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अनारंभा? अत्थे गइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अनारंभा?
गोयमा! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संसारसमावन्नगा य, असंसारसमावन्नगा य।
तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा, ते णं सिद्धा। सिद्धा णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयरंभा, अनारंभा।
तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा, ते दुविहा पन्नत्ता, Translated Sutra: हे भगवन् ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं, अथवा अनारम्भी हैं ? हे गौतम ! कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं है। कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी भी नहीं हैं, और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं। भगवन् ! किस कारण से आप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-२ दुःख | Hindi | 27 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! सव्वे समाहारा? सव्वे समसरीरा? सव्वे समुस्सासनीसासा?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया नो सव्वे समाहारा? नो सव्वे समसरीरा? नो सव्वे समुस्ससानीसासा?
गोयमा! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–महासरीरा य, अप्पसरीरा य। तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुत्तराए पोग्गले आहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेंति, बहुतराए पोग्गले उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंति; अभिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं उस्ससंति, अभिक्खणं नीससंति।
तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति, अप्पतराए Translated Sutra: भगवन् ! क्या सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले, तथा समान उच्छ्वास – निःश्वास वाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं; जैसे कि – महाशरीरी और अल्पशरीरी। इनमें जो बड़े शरीर वाले हैं, वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत पुद्गलों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 95 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, नो गरुयलहुए, अगरुयलहुए।
सत्तमे णं भंते! तनुवाए किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो अगरुयलहुए।
एवं सत्तमे घनवाए, सत्तमे घनोदही, सत्तमा पुढवी।
ओवासंतराइं सव्वाइं जहा सत्तमे ओवासंतरे।
जहा तनुवाए एवं–ओवास-वाय-घनउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा।
नेरइया णं भंते! किं गरुया? लहुया? गरुयलहुया? अगरुयलहुया?
गोयमा! नो गरुया, नो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया नो गरुया? नो लहुया? गरुयलहुया वि? अगरुयलहुया वि?
गोयमा! विउव्विय-तेयाइं Translated Sutra: भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलघु है, अथवा अगुरुलघु है ? गौतम! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु – लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है। भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरु – लघु है; अगुरुलघु नहीं है। इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-४ यान | Hindi | 187 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ?
गोयमा! जल्लेस्साइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा–कण्हलेस्सेसु वा, नीललेस्सेसु वा, काउलेस्सेसु वा। एवं जस्स वा लेस्सा वा तस्स भाणियव्वा। जाव–
जीवे णं भंते! जे भविए जोइसिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ?
गोयमा! जल्लेसाइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा–तेउलेस्सेसु।
जीवे णं भंते! जे भविए वेमाणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ?
गोयमा! जल्लेस्साइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा–तेउलेस्सेसु Translated Sutra: भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, वह कौन – सी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है। यथा – कृष्णलेश्या वालों में, नीललेश्या वालों में, अथवा कापोतलेश्या वालों में। इस प्रकार जो जिसकी लेश्या हो, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
उद्देशक-१० लेश्या | Hindi | 212 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति?
हंता गोयमा! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, ताफास-त्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति। एवं चउत्थो उद्देसओ पन्नवणाए चेव लेस्सापदे नेयव्वो जाव– Translated Sutra: भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या का संयोग पाकर तद्रुप और तद्वर्ण में परिणत हो जाती है ? (हे गौतम !) प्रज्ञापनासूत्र में उक्त लेश्यापद का चतुर्थ उद्देशक यहाँ कहना चाहिए, और वह यावत् परिणाम इत्यादि द्वार – गाथा तक कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-४ सप्रदेशक | Hindi | 286 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! कालादेसेणं किं सपदेसे? अपदेसे?
गोयमा! नियमा सपदेसे।
नेरइए णं भंते! कालादेसेणं किं सपदेसे? अपदेसे?
गोयमा! सिय सपदेसे, सिय अपदेसे।
एवं जाव सिद्धे।
जीवा णं भंते! कालादेसेणं किं सपदेसा? अपदेसा?
गोयमा! नियमा सपदेसा।
नेरइया णं भंते! कालादेसेणं किं सपदेसा? अपदेसा?
गोयमा! १. सव्वे वि ताव होज्जा सपदेसा २. अहवा सपदेसा य अपदेसे य ३. अहवा सपदेसा य अपदेसा य।
एवं जाव थणियकुमारा।
पुढविकाइया णं भंते! किं सपदेसा? अपदेसा?
गोयमा! सपदेसा वि, अपदेसा वि।
एवं जाव वणप्फइकाइया।
सेसा जहा नेरइया तहा जाव सिद्धा।
आहारगाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। अनाहारगाणं जीवेगिंदियवज्जा छब्भंगा Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव कालादेश से सप्रदेश हैं या अप्रदेश हैं ? गौतम ! कालादेश से जीव नियमतः सप्रदेश हैं। भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कालादेश से सप्रदेश है या अप्रदेश हैं ? गौतम ! एक नैरयिक जीव कालादेश से कदाचित् सप्रदेश है और कदाचित् अप्रदेश है। इस प्रकार यावत् एक सिद्ध – जीव – पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! कालादेश की | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-३ स्थावर | Hindi | 348 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सिय भंते! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए? नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए?
हंता सिय।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए? नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए?
गोयमा! ठितिं पडुच्च। से तेणट्ठेणं गोयमा! जाव महाकम्मतराए।
सिय भंते! नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए? काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए?
हंता सिय।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए? काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए?
गोयमा! ठितिं पडुच्च। से तेणट्ठेणं गोयमा! जाव महाकम्मतराए।
एवं असुरकुमारे वि, नवरं–तेउलेसा अब्भहिया। एवं जाव वेमाणिया। जस्स जइ लेस्साओ तस्स
तत्तिया भाणियव्वाओ। जोइसियस्स न भण्णइ Translated Sutra: भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्म वाला और नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? हाँ, गौतम ! कदाचित् ऐसा होता है। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्म वाला होता है और नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-२ आशिविष | Hindi | 394 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सागारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
पंच नाणाइं, तिन्नि अन्नाणाइं–भयणाए।
आभिनिबोहियनाणसागारोवउत्ता णं भंते?
चत्तारि नाणाइं भयणाए। एवं सुयनाणसागारोवउत्ता वि। ओहिनाणसागारोवउत्ता जहा ओहिनाणलद्धिया। मनपज्जवनाणसागारोवउत्ता जहा मनपज्जवनाणलद्धीया। केवलनाण-सागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धीया।
मइअन्नाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए। एवं सुयअन्नाणसागारोवउत्ता वि। विभंगनाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाइं नियमा।
अनगारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी?
पंच नाणाइं, तिन्नि अन्नाणाइं–भयणाए। एवं चक्खुदंसण-अचक्खुदंसणअनागारोवउत्ता वि, Translated Sutra: भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं, या अज्ञानी ? गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं, जो ज्ञानी होते हैं, उनमें पाँच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और जो अज्ञानी होते हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान – साकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? गौतम ! | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 498 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–उप्पले णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
गोयमा! एगजीवे, नो अनेगजीवे। तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जंति ते णं नो एगजीवा अनेगजीवा।
ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जंति। एवं उववाओ भाणियव्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसानेति।
ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! जहन्नेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरांत जब उस उत्पल में दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रहकर अनेक जीव वाला बन जाता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-२ थी ८ शालूक आदि | Hindi | 500 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पलासे णं भंते? एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा, नवरं–सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं गाउयपुहत्ता। देवेहिंतो न उववज्जंति।
लेसासु–ते णं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा? नीललेस्सा? काउलेस्सा?
गोयमा! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा काउलेस्से वा–छव्वीसं भंगा, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! पलासवृक्ष के एक पत्ते वाला (होता है, तब वह) एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! उत्पल – उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष इतना है कि पलाश के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग हैं और उत्कृष्ट गव्यूति – पृथक्त्व है। देव च्यव कर पलाशवृक्ष में से उत्पन्न नहीं होते। भगवन् ! वे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 543 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवायवेरमणे, जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
अह भंते! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! ओग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे–एस णं कतिवण्णे जाव कति फासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे कतिवण्णे Translated Sutra: भगवन् ! प्राणातिपात – विरमण यावत् परिग्रह – विरमण तथा क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ? गौतम ! (ये सभी) वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित कहे हैं। भगवन् ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-१ पृथ्वी | Hindi | 566 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! कण्हलेस्से, नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति?
हंता गोयमा! कण्हलेस्से जाव उववज्जंति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–कण्हलेस्से जाव उववज्जंति?
गोयमा! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु-संकिलिस्समाणेसु कण्हलेसं परिणमइ, परिणमित्ता कण्हलेसेसु नेरइएसु उववज्जंति। से तेणट्ठेणं जाव उववज्जंति।
से नूनं भंते! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति?
हंता गोयमा! जाव उववज्जंति।
से केणट्ठेणं जाव उववज्जंति?
गोयमा! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नीललेस्सं परिणमइ, परिणमित्ता नीललेस्सेसु Translated Sutra: भगवन् ! क्या वास्तव में कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, यावत् शुक्ललेश्यी बनकर (जीव पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है ? हाँ, गौतम ! हो जाता है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! उसके लेश्यास्थान संक्लेश को प्राप्त होते – होते कृष्णलेश्या के रूप में परिणत हो जाते हैं और कृष्णलेश्या के रूप में परिणत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-११ थी १४ | Hindi | 689 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दीवकुमारा णं भंते! सव्वे समाहारा? सव्वे समुस्सासनिस्सासा?
नो इणट्ठे समट्ठे। एवं जहा पढमसए बितियउद्देसए दीवकुमाराणं वत्तव्वया तहेव जाव समाउया, समुस्सासनिस्सासा।
दीवकुमाराणं भंते! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा।
एएसि णं भंते! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया।
एएसि णं भंते! दीवकुमाराणं कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण Translated Sutra: भगवन् ! सभी द्वीपकुमार समान आहार और समान निःश्वास वाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रथम शतक के द्वीतिय उद्देशक में द्वीपकुमारों के अनुसार कितने ही समआयुष्य वाले और सम – उच्छ्वास – निःश्वास वाले होते हैं, तक कहना चाहिए। भगवन् ! द्वीपकुमारों में कितनी लेश्याएं हैं ? चार। कृष्ण यावत् तेजो। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१७ |
उद्देशक-२ संयत | Hindi | 701 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति–एवं खलु पाणातिवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले वट्ट माणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए पारिणामियाए वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। ओग्गहे, ईहा-अवाए धारणाए वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। नेरइयत्ते तिरिक्ख-मनुस्स-देवत्ते वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन – शल्य में प्रवृत्त हुए प्राणी का जीव अन्य है और उस जीव से जीवात्मा अन्य है। प्राणातिपात – विरमण यावत् परिग्रह – विरमण में, क्रोधाविवेक यावत् मिथ्यादर्शन – शल्य – त्याग में प्रवर्तमान प्राणी का | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१७ |
उद्देशक-१२ एकेन्द्रिय | Hindi | 715 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगिंदिया णं भंते! सव्वे समहारा? एवं जहा पढमसए बितियउद्देसए पुढविक्काइयाणं वत्तव्वया भणिया सा चेव एगिंदियाणं इह भाणियव्वा जाव समाउया, समोववन्नगा।
एगिंदियाणं भंते! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा।
एएसि णं भंते! एगिंदियाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा एगिंदिया तेउलेस्सा, काउलेस्सा अनंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्ह-लेस्सा विसेसाहिया।
एएसि णं भंते! एगिंदियाणं कण्हलेसाणं इड्ढी? जहेव Translated Sutra: भगवन् ! क्या सभी एकेन्द्रिय जीव समान आहार वाले हैं ? सभी समान शरीर वाले हैं इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। गौतम ! प्रथम शतक के द्वीतिय उद्देशकमें पृथ्वीकायिक जीवों के अनुसार यहाँ एकेन्द्रिय जीवों के विषयमें कहना। भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों में कितनी लेश्याएं कही गई है ? गौतम ! चार लेश्याएं कही गई है। यथा – कृष्ण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-१ बेईन्द्रिय | Hindi | 780 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–सिय भंते! जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ साहरणसरीर बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति?
नो इणट्ठे समट्ठे। बेंदिया णं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! तओ लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा। एवं जहा एगूण-वीसतिमे सए तेउक्काइयाणं जाव उव्वट्टंति, नवरं–सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छदिट्ठी, दो नाणा दो अन्नाणा नियमं, नो मणजोगी, वइजोगी वि कायजोगी वि, आहारो Translated Sutra: ‘भगवन् !’ राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पाँच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बाँधते हैं, इसके पश्चात् आहार करते हैं ? अथवा आहार को परिणमाते हैं, फिर विशिष्ट शरीर को बाँधते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव पृथक् – पृथक् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२४ |
उद्देशक-१ नैरयिक | Hindi | 839 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति किं संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्ख- जोणिएहिंतो उववज्जंति? असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, नो असंखेज्जवासाउय सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणि-एहिंतो उववज्जंति।
जइ संखेज्जवासाउय-सण्णिपंचिंदिय-तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति– किं जलचरेहिंतो उववज्जंति–पुच्छा।
गोयमा! जलचरेहिंतो उववज्जंति, जहा असण्णी जाव पज्जत्तएहिंतो उववज्जंति, नो अपज्जत्त-एहिंतो उववज्जंति।
पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! यदि नैरयिक संज्ञी – पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी – पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी – पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में से ? गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी – पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-१ लेश्या | Hindi | 862 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेसा जहा पढमसए बितिए उद्देसए तहेव लेस्साविभागो। अप्पाबहुगं च जाव चउव्विहाणं देवाणं चउव्विहाणं देवीणं मीसगं अप्पाबहुगंति। Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्री गौतम स्वामी ने राजगृह में यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? गौतम ! छह हैं। यथा कृष्णलेश्या आदि। शेष वर्णन प्रथम शतक के द्वीतिय उद्देशक अनुसार यहाँ भी लेश्याओं का विभाग, उनका अल्पबहुत्व, यावत् चार प्रकार के देव और चार प्रकार की देवियों के मिश्रित अल्पबहुत्व | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-६ निर्ग्रन्थ | Hindi | 919 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुलाए णं भंते! किं सलेस्से होज्जा? अलेस्से होज्जा?
गोयमा! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा।
जइ सलेस्से होज्जा, से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा?
गोयमा! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा–तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए। एवं बउसस्स वि। एवं पडिसेवणाकु-सीले वि।
कसायकुसीले–पुच्छा।
गोयमा! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा।
जइ सलेस्से होज्जा, से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा?
गोयमा! छसु लेस्सासु होज्जा, तं जहा–कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए।
नियंठे णं भंते! –पुच्छा।
गोयमा! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा।
जइ सलेस्से होज्जा, से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! पुलाक सलेश्य होता है या अलेश्य होता है ? गौतम ! वह सलेश्य होता है अलेश्य नहीं होता है। भगवन् ! यदि वह सलेश्य होता है तो कितनी लेश्याओं में होता है ? गौतम ! वह तीन विशुद्ध लेश्याओं में होता है, यथा – तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में। इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना कुशील जानना। भगवन् ! कषायकुशील | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३१ युग्मं, नरक, उपपात आदि |
उद्देशक-२ थी २८ | Hindi | 1004 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति?
एवं चेव जहा ओहियगमो जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जंति, नवरं–उववाओ जहा वक्कंतीए धूमप्पभापुढविनेरइयाणं, सेसं तं चेव।
धूमप्पभापुढविकण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं चेव निरवसेसं। एवं तमाए वि, अहेसत्तमाए वि, नवरं–उववाओ सव्वत्थ जहा वक्कंतीए।
कण्हलेस्सखुड्डागतेओगनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं चेव, नवरं–तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, सेसं तं चेव।
एवं जाव अहेसत्तमाए वि।
कण्हलेस्सखुड्डागदावरजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं चेव, नवरं–दो वा छ वा दस Translated Sutra: भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमाण कृष्णलेश्यी नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! औघिक – गम अनुसार समझना यावत् वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते। विशेष यह है कि धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों का उपपात व्युत्क्रान्तिपद अनुसार कहना। शेष पूर्ववत् ! भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमाण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३१ युग्मं, नरक, उपपात आदि |
उद्देशक-२ थी २८ | Hindi | 1005 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नीललेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं जहेव कण्हलेस्साखुड्डागकड-जुम्मा, नवरं–उववाओ जो वालुयप्पभाए, सेसं तं चेव। वालुयप्पभापुढविनीललेस्सखुड्डागकड-जुम्मनेरइया एवं चेव। एवं पंकप्पभाए वि, एवं धूमप्पभाए वि। एवं चउसु वि जुम्मेसु, नवरं–परिमाणं जाणियव्वं। परिमाणं जहा कण्हलेस्सउद्देसए। सेसं तहेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म – राशि – प्रमाण नीललेश्यी नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! कृष्ण – लेश्यी क्षुद्रकृतयुग्म नैरयिक के समान। किन्तु इनका उपपात बालुकाप्रभापृथ्वी के समान है। शेष पूर्ववत्। भगवन्! नीललेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमाण बालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३१ युग्मं, नरक, उपपात आदि |
उद्देशक-२ थी २८ | Hindi | 1006 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] काउलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डाग-कडजुम्ममनेरइया, नवरं–उववाओ जो रयणप्पभाए, सेसं तं चेव।
रयणप्पभापुढविकाउलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति?
एवं चेव। एवं सक्करप्पभाए वि, एवं वालुयप्पभाए वि। एवं चउसु वि जुम्मेसु, नवरं–परिमाणं जाणियव्वं जहा कण्हलेस्स-उद्देसए, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! कापोतलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमित नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमाण नैरयिकों के समान जानना। विशेष यह है कि इनका उपपात रत्नप्रभा में होता है। शेष पूर्ववत्। भगवन् ! कापोतलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमाण रत्नप्रभापृथ्वी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३१ युग्मं, नरक, उपपात आदि |
उद्देशक-२ थी २८ | Hindi | 1008 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सभवसिद्धीयखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्सद्देसओ तहेव निरवसेसं चउसु वि जुम्मेसु भाणियव्वो जाव–
अहेसत्तमपुढविकण्हलेस्सखुड्डागकलियोगनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? तहेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्म – प्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम! औघिक कृष्णलेश्या उद्देशक समान जानना। चारों युग्मों में इसका कथन करना चाहिए। भगवन् ! अधः – सप्तमपृथ्वी के कृष्णलेश्यी क्षुद्रकल्योज – राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? पूर्ववत्। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३२ नरकस्य उद्वर्तनं, उपपात लेश्या आदि |
उद्देशक-१ थी २८ | Hindi | 1017 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सकडजुम्मनेरइया? एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा निरवसेसा, नवरं–उव्वट्टंति त्ति अभिलावो भाणियव्वो, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म – राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से नीकलकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रकार उपपातशतक के समान उद्वर्त्तनाशतक के भी अट्ठाईस उद्देशक जानना। विशेष यह है कि ‘उत्पन्न’ के स्थान पर ‘उद्वर्त्तित’ कहना। शेष पूर्ववत्। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३३ एकेन्द्रिय शतक-शतक-२ थी १२ |
Hindi | 1022 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा–पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया।
कण्हलेस्सा णं भंते! पुढविक्काइया कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सुहुमपुढविक्काइया य, बादरपुढविक्काइया य।
कण्हलेस्सा णं भंते! सुहुमपुढविक्काइया कतिविहा पन्नत्ता?
एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कओ भेदो जहेव ओहि-उद्देसए।
कण्हलेस्सअपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइयाणं भंते! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ?
एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए तहेव पन्नत्ताओ, तहेव बंधंति, तहेव वेदेंति।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
कतिविहा णं भंते! अनंतरोववन्नगकण्हलेस्सएगिंदिया Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के यथा – पृथ्वी – कायिक यावत् वनस्पतिकायिक। भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथा – सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक। भगवन् ! कृष्णलेश्यी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३४ एकेन्द्रिय शतक-शतक-२ थी १२ |
Hindi | 1038 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कइविहा णं भंते! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता, भेदो चउक्कओ जहा कण्हलेस्सएगिंदियसए जाव वणस्सइकाइयत्ति।
कण्हलेस्सअपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरत्थिमिल्ले? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसओ जाव लोगचरिमंते त्ति। सव्वत्थ कण्हलेस्सु चेव उववाएयव्वो।
कहिं णं भंते! कण्हलेस्सअपज्जत्ताबादरपुढविक्काइयाणं ठाणा पन्नत्ता? एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसओ जाव तुल्लट्ठिइय त्ति।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमं सेढिसयं तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा। Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार। उनके चार – चार भेद एकेन्द्रियशतक के अनुसार वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना। भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व – चरमान्त में यावत् उत्पन्न होता है ? गौतम ! औघिक उद्देशक के अनुसार लोक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३५ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ | Hindi | 1045 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो? जहा उप्पलुद्देसए तहा उववाओ
ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति।
ते णं भंते! जीवा समए समए–पुच्छा।
गोयमा! ते णं अनंता समए समए अवहीरमाणा-अवहीरमाणा अनंताहिं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए।
ते णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा? अबंधगा?
गोयमा! बंधगा, नो अबंधगा। एवं सव्वेसिं आउयवज्जाणं। आउयस्स बंधगा वा अबंधगा वा।
ते णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स–पुच्छा।
गोयमा! वेदगा, नो अवेदगा। Translated Sutra: भगवन् ! कृतयुग्म – कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! उत्पलोद्देशक के उपपात समान उपपात कहना चाहिए। भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे सोलह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त। भगवन् ! वे अनन्त जीव समय – समय में एक – एक अपहृत किये जाएं तो कितने काल में अपहृत होते | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३५ एकेन्द्रिय शतक-शतक-२ थी १२ |
Hindi | 1057 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति?
गोयमा! उववाओ तहेव, एवं जहा ओहिउद्देसए, नवरं इमं नाणत्तं।
ते णं भंते! जीवा कण्हलेस्सा?
हंता कण्हलेस्सा।
ते णं भंते! कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिंदियत्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। एवं ठिती वि।
सेसं तहेव जाव अनंतखुत्तो।
एवं सोलस वि जुम्मा भाणियव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति? जहा पढमसमय-उद्देसओ, नवरं–
ते णं भंते! जीवा कण्हलेस्सा?
हंता कण्हलेस्सा, सेसं तहेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
एवं जहा ओहियसए Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्यी – कृतयुग्म – कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात औघिक उद्देशक अनुसार समझना। किन्तु इन बातों में भिन्नता है। भगवन् ! क्या वे जीव कृष्ण – लेश्या वाले हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! वे कृष्णलेश्यी कृतयुग्म – कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कितने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३६ द्विइन्द्रिय शतक-शतक-१ थी १२ उद्देशको सहित |
Hindi | 1060 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मबेंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं चेव। कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं सतं, नवरं–लेस्सा, संचिट्ठणा जहा एगिंदियकण्हलेस्साणं।
एवं नीललेस्सेहिं वि सतं।
एवं काउलेस्सेहिं वि।
भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मबेंदिया णं भंते? एवं भवसिद्धियसता वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं नेयव्वा, नवरं–सव्वे पाणा? नो तिणट्ठे समट्ठे। सेसं तहेव ओहियसताणि चत्तारि।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
जहा भवसिद्धियसताणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसताणि चत्तारि भाणियव्वाणि, नवरं–सम्मत्त-नाणाणि सव्वेहिं नत्थि, सेसं तं चेव। एवं एयाणि बारस बेंदियमहाजुम्मसताणि भवंति।
सेवं Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म – कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् जानना। कृष्णलेश्यी जीवों का भी शतक ग्यारह उद्देशक – युक्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि इनकी लेश्या और कायस्थति तथा भवस्थिति कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के समान होती है। इसी प्रकार नीललेश्यी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४० संज्ञीपञ्चेन्द्रिय शतक-शतक-१ थी २१ उद्देशको सहित |
Hindi | 1066 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति? तहेव पढमुद्देसओ सण्णीणं नवरं–बंध-वेद-उदइ-उदीरण-लेस्स-बंधग-सण्ण-कसाय-वेदबंधगा य एयाणि जहा बेंदियाणं। कण्ह-लेस्साणं वेदो तिविहो, अवेदगा नत्थि। संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो-वमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं। एवं ठिती वि, नवरं–ठितीए अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं न भण्णंति। सेसं जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए जाव अनंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति? जहा सण्णिपंचिंदियपढमसमयउद्देसए तहेव Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्यी कृतयुग्म – कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। गौतम ! संज्ञी के प्रथम उद्देशक अनुसार जानना। विशेष यह है कि बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेदबंधक, इन सभी का कथन द्वीन्द्रियजीव – सम्बन्धी कथन समान है। कृष्णलेश्यी संज्ञी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४० संज्ञीपञ्चेन्द्रिय शतक-शतक-१ थी २१ उद्देशको सहित |
Hindi | 1067 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं नीललेस्सेसु वि सतं, नवरं–संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमस्स असं-खेज्जइभागमब्भहियाइं। एवं ठिती वि। एवं तिसु उद्देसएसु, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
एवं काउलेस्ससतं पि, नवरं–संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाइं। एवं ठितीवि। एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
एवं तेउलेस्सेसु वि सतं, नवरं–संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाइं। एवं ठितीवि, नवरं– नोसण्णोवउत्ता वा। एवं तिसु वि Translated Sutra: नीललेश्या वाले संज्ञी की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझना। विशेष यह कि संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार है। पहले, तीसरे, पाँचवे इन तीन उद्देशकों के विषय में जानना चाहिए। शेष पूर्ववत्। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ इसी प्रकार कापोतलेश्या | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४१ राशियुग्मं, त्र्योजराशि, द्वापर युग्मं राशि |
उद्देशक-१ थी १९६ | Hindi | 1072 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कण्हलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? उववाओ जहा धूमप्पभाए, सेसं जहा पढमुद्देसए। असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव वाणमंतराणं। मनुस्साण वि जहेव नेरइयाणं आयअजसं उवजीवंति। अलेस्स, अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झंति एवं न भाणियव्वं, सेसं जहा पढमुद्देसए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
कण्हलेस्सतेयोएहि वि एवं चेव उद्देसओ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
कण्हलेस्सदावरजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
कण्हलेस्सकलिओएहि वि एवं चेव उद्देसओ। परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उद्देसएसु।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहि Translated Sutra: भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म – कृतयुग्मराशिरूप नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इनका उपपात धूमप्रभापृथ्वी समान है। शेष कथन प्रथम उद्देशक अनुसार जानना। असुरकुमारों के विषय में भी इसी प्रकार वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए। मनुष्यों के विषय में भी नैरयिकों के समान कथन करना। वे आत्मअयश पूर्वक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४१ राशियुग्मं, त्र्योजराशि, द्वापर युग्मं राशि |
उद्देशक-१ थी १९६ | Hindi | 1073 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव निरवसेसं, एए चत्तारि उद्देसगा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
कण्हलेस्सभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमे वि भवसिद्धियकण्हलेस्सेहिं वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा।
एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहिं वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा।
एवं काउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा।
तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा।
पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा।
सुक्कलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा। एवं एए वि भवसिद्धिएहि Translated Sutra: भगवन् ! भवसिद्धिक राशियुग्म – कृतयुग्मराशि नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पहले के चार औघिक उद्देशकों अनुसार सम्पूर्ण चारों उद्देशक जानना। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०।’ भगवन् ! कृष्ण – लेश्यी भवसिद्धिक राशियुग्म – कृतयुग्मराशियुक्त नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४१ राशियुग्मं, त्र्योजराशि, द्वापर युग्मं राशि |
उद्देशक-१ थी १९६ | Hindi | 1075 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एवं जहा पढमो उद्देसओ। एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धियसरिसा कायव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
कण्हलेस्ससम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति? एए वि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि वि उद्देसगा कायव्वा। एवं सम्मदिट्ठीसु वि भवसिद्धियसीरसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! सम्यग्दृष्टि – राशियुग्म – कृतयुग्मराशियुक्त नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? प्रथम उद्देशक के समान यह उद्देशक जानना। इसी प्रकार चारों युग्मों में भवसिद्धिक के समान चार उद्देशक कहने चाहिए। ‘हे भगवन्! यह इसी प्रकार है०।’ भगवन् ! कृष्णलेश्यी सम्यग्दृष्टि राशियुग्म – कृतयुग्मराशि नैरयिक | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
द्विविध जीव प्रतिपत्ति |
Hindi | 14 | Sutra | Upang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेसि णं भंते! जीवाणं कइ सरीरगा पन्नत्ता? गोयमा! तओ सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए तेयए कम्मए।
तेसि णं भंते! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइ-भागं, उक्कोसेणवि अंगुलासंखेज्जइभागं।
तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरा किं संघयणा पन्नत्ता? गोयमा! छेवट्टसंघयणा पन्नत्ता।
तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरा किं संठिया पन्नत्ता? गोयमा! मसूरचंदसंठिया पन्नत्ता।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति कसाया पन्नत्ता? गोयमा! चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तं जहा–कोहकसाए मानकसाए मायाकसाए लोहकसाए।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति सण्णाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! चत्तारि सण्णाओ पन्नत्ताओ, Translated Sutra: हे भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन – औदारिक, तैजस और कार्मण। भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट से भी अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। भगवन् ! उन जीवों के शरीर के किस संहननवाले हैं ? गौतम ! सेवार्तसंहनन वाले। भगवन् ! उन जीवों के शरीर | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
द्विविध जीव प्रतिपत्ति |
Hindi | 49 | Sutra | Upang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं मनुस्सा? मनुस्सा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संमुच्छिममनुस्सा य गब्भवक्कंतियमनुस्सा य।
कहि णं भंते! संमुच्छिममनुस्सा संमुच्छंति? गोयमा! अंतो मनुस्सखेत्ते जाव अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पन्नत्ता? गोयमा! तिन्नि सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए तेयए कम्मए। संघयण संठाण कसाय सण्णा लेसा जहा बेइंदियाणं, इंदिया पंच, समुग्घाया तिन्नि, असन्नी, नपुंसगा, अपज्जत्तीओ पंच, दिट्ठिदंसण अन्नाण जोग उवओगा जहा पुढविकाइयाणं, आधारो जहा बेइंदियाणं, उववातो नेरइय देव तेउ वाउ असंखाउवज्जो, अंतोमुहुत्तं ठिती, समोहतावि असमोहतावि मरंति, कहिं Translated Sutra: मनुष्य का क्या स्वरूप है ? मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा – सम्मूर्च्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य। भगवन् ! सम्मूर्च्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर होते हैं, यावत् अन्तमुहूर्त्त की आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। भन्ते ! उन जीवों के कितने शरीर होते हैं ? गौतम | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
नैरयिक उद्देशक-२ | Hindi | 104 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्ताए परिणमंति? गोयमा! जे पोग्गला अनिट्ठा जाव अमणामा, ते तेसिं ऊसासत्ताए परिणमंति। एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं आहारस्सवि सत्तसुवि।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति लेसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! एक्का काउलेसा पन्नत्ता। एवं सक्करप्पभाएवि।
वालुयप्पभाए पुच्छा। दो लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–नीललेसा काउलेसा य। ते बहुतरगा जे काउलेसा, ते थोवतरगा जे णीललेस्सा।
पंकप्पभाए पुच्छा। एक्का नीललेसा पन्नत्ता।
धूमप्पभाए पुच्छा। गोयमा! दो लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–किण्हलेस्सा य नीललेस्सा य। ते बहुतरका जे नीललेस्सा, Translated Sutra: भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं ? गौतम! अनिष्ट यावत् अमणाम पुद्गल परिणत होते हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक जानना। इसी प्रकार जो पुद्गल अनिष्ट एवं अमणाम होते हैं, वे नैरयिकी के आहार रूप में परिणत होते हैं। ऐसा ही कथन रत्नप्रभादि सातों नरक | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
तिर्यंच उद्देशक-१ | Hindi | 131 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा।
ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी? मिच्छदिट्ठी? सम्मामिच्छदिट्ठी? गोयमा! सम्मदिट्ठीवि मिच्छदिट्ठीवि सम्मामिच्छदिट्ठीवि।
ते णं भंते! जीवा किं नाणी? अन्नाणी? गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि–तिन्नि नाणाइं तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए।
ते णं भंते! जीवा किं मनजोगी? वइजोगी? कायजोगी? गोयमा! तिविधावि।
ते णं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता? अनागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्तावि अनागारोवउत्तावि।
ते णं भंते! जीवा कओ उववज्जंति? –किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? पुच्छा। Translated Sutra: हे भगवन् ! इन जीवों के कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! छह – कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। हे भगवन् ! ये जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग् मिथ्यादृष्टि हैं। गौतम ! तीनों। भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे दो या तीन ज्ञानवाले हैं और | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सर्व जीव प्रतिपत्ति |
४ थी ९ पंचविध यावत् दशविध सर्वजीव | Hindi | 392 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तं जहा–कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा अलेस्सा।
कण्हलेसे णं भंते! कण्हलेसत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं।
नीललेस्से णं भंते! णीललेस्सेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागमब्भहियाइं।
काउलेस्से णं भंते! काउलेस्सेत्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागमब्भहियाइं।
तेउलेस्से णं भंते! Translated Sutra: अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं – कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य। कृष्ण लेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है। नीललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग | |||||||||
Mahapratyakhyan | महाप्रत्याख्यान | Ardha-Magadhi |
विविधं धर्मोपदेशादि |
Hindi | 71 | Gatha | Painna-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किण्हा नीला काऊ लेसा झाणाइं अट्ट-रोद्दाइं ।
परिवज्जिंतो गुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥ Translated Sutra: कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और आर्त्त रौद्र ध्यान को वर्जन करता हुआ गुप्तिवाला और उसके सहित; – तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या एवं शुक्लध्यान को आदरते हुए और उसके सहित पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ। सूत्र – ७१, ७२ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३ अल्पबहुत्त्व |
Hindi | 270 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! जीवाणं सलेस्साणं किण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्ह-लेस्साणं सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेज्जगुणा, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा, अलेस्सा अनंतगुणा, काउलेस्सा अनंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, किण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया। Translated Sutra: भगवन् ! इन सलेश्यों, कृष्णलेश्यावालों, यावत् शुक्ललेश्यावालों एवं लेश्यारहित जीवों में से कौन यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्यी , पद्मलेश्यी संख्यातगुणे हैं, तेजोलेश्यी संख्यातगुणे हैं, लेश्या – रहित अनन्तगुणे हैं, कापोतलेश्यी अनन्तगुणे, नीललेश्यी विशेषाधिक; कृष्णलेश्यी विशेषाधिक, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१३ परिणाम |
Hindi | 407 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] गतिपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–निरयगतिपरिणामे तिरियगतिपरिणामे मनुयगतिपरिणामे देवगतिपरिणामे।
इंदियपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–सोइंदियपरिणामे चक्खिंदियपरिणामे घाणिंदियपरिणामे जिब्भिंदियपरिणामे फासिंदियपरिणामे।
कसायपरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–कोहकसाय-परिणामे मानकसायपरिणामे मायाकसायपरिणामे लोभकसायपरिणामे।
लेस्सापरिणामे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–कण्हलेस्सा-परिणामे नीललेस्सापरिणामे काउलेस्सापरिणामे Translated Sutra: भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का – निरयगतिपरिणाम, तिर्यग्गति – परिणाम, मनुष्यगतिपरिणाम और देवगतिपरिणाम। इन्द्रियपरिणाम पाँच प्रकार का है – श्रोत्रेन्द्रियपरिणाम, चक्षुरि – न्द्रियपरिणाम, घ्राणेन्द्रियपरिणाम, जिह्वेन्द्रियपरिणाम और स्पर्शेन्द्रियपरिणाम। कषायपरिणाम चार प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१६ प्रयोग |
Hindi | 441 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! गइप्पवाए पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–पओगगती ततगती बंधणच्छेदनगती उववायगती विहायगती।
से किं तं पओगगती? पओगगती पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगे भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती।
जीवाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मासरीरकायप्पओगगती।
नेरइयाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! एक्कारसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जतिविहा तस्स ततिविहा भाणितव्वा जाव वेमानियाणं।
जीवा णं भंते! किं सच्चमनप्पओगगती Translated Sutra: भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच – प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपात – गति और विहायोगति। वह प्रयोगगति क्या है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार की, सत्यमनःप्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति। प्रयोग के समान प्रयोगगति भी कहना। भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१७ लेश्या |
उद्देशक-१ | Hindi | 450 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सलेस्सा णं भंते! नेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासनिस्सासा? स च्चेव पुच्छा। एवं जहा ओहिओ गमओ तहा सलेस्सगमओ वि णिरवसेसो भाणियव्वो जाव वेमानिया।
कण्हलेस्सा णं भंते! नेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासनिस्सासा पुच्छा। गोयमा! जहा ओहिया, नवरं– नेरइया वेदनाए माइमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगा य अमाइसम्मद्दिट्ठिउववन्नगा य भाणियव्वा। सेसं तहेव जहा ओहियाणं।
असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा ओहिया, नवरं–मनूसाणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थ णं जेते सम्मद्दिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–संजया असंजया संजयासंजया य, जहा ओहियाणं। जोइसिय-वेमानिया आइल्लिगासु तिसु लेस्सासु Translated Sutra: भगवन् ! सलेश्य सभी नारक समान आहारवाले, समान शरीरवाले और समान उच्छ्वास – निःश्वासवाले हैं? सामान्य गम के समान सभी सलेश्य समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना। भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यावाले सभी नैरयिक समान आहारवाले, समान शरीरवाले और समान उच्छ्वास – निःश्वासवाले होते हैं ? गौतम ! सामान्य नारकों के समान कृष्णलेश्यावाले | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१७ लेश्या |
उद्देशक-२ | Hindi | 451 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा! छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। Translated Sutra: भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं? छह – कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोपलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या , शुक्ललेश्या |