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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 400 | View Detail | ||
Mool Sutra: तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतोपघातिनी।
सत्यापि सा न वक्तव्या, यतो पापस्य आगमः।।१७।। Translated Sutra: तथा कठोर और प्राणियों का उपघात करनेवाली, चोट पहुँचानेवाली भाषा भी न बोले। ऐसा सत्य-वचन भी न बोले जिससे पाप का बन्ध होता हो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 401 | View Detail | ||
Mool Sutra: तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक इति वा।
व्याधितं वाऽपि रोगी इति, स्तेनं चौर इति नो वदेत्।।१९।। Translated Sutra: इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, व्याधिग्रस्त को रोगी और चोर को चोर भी न कहे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 403 | View Detail | ||
Mool Sutra: दृष्टां मिताम् असन्दिग्धां, प्रतिपूर्णां व्यवताम्।
अजल्पनशीलां अनुद्विग्नां, भाषां निसृज आत्मवान्।।२०।। Translated Sutra: आत्मवान् मुनि ऐसी भाषा बोले जो आँखों देखी बात को कहती हो, मित (संक्षिप्त) हो, सन्देहास्पद न हो, स्वर-व्यंजन आदि से पूर्ण हो, व्यक्त हो, बोलने पर भी न बोली गयी जैसी अर्थात् सहज हो और उद्वेगरहित हो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 404 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुर्लभा तु मुधादायिनः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः।
मुधादायिनः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम्।।२१।। Translated Sutra: मुधादायी-निष्प्रयोजन देनेवाले--दुर्लभ हैं और मुधाजीवी--भिक्षा पर जीवन यापन करनेवाले--भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही साक्षात् या परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 407 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम्।
न च पुष्पं क्लामयति, स च प्रीणात्यात्मानम्।।२४।। Translated Sutra: जैसे भ्रमर पुष्पों को तनिक भी पीड़ा पहुँचाये बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करनेवाले बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण दाता को किसी भी प्रकार का कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। यही उनकी एषणा समिति है। संदर्भ ४०७-४०८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 408 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवमेते श्रमणाः मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः।
विहंगमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणारताः।।२५।। Translated Sutra: कृपया देखें ४०७; संदर्भ ४०७-४०८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 428 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्रव्ये क्षेत्रे काले, भावे च कृतापराधशोधनकम्।
निन्दनगर्हणयुक्तो, मनोवचःकायेन प्रतिक्रमणम्।।१२।। Translated Sutra: निन्दा तथा गर्हा से युक्त साधु का मन वचन काय के द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के व्रताचरणविषयक दोषों या अपराधों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 434 | View Detail | ||
Mool Sutra: दैवसिकनियमादिषु, यथोक्तमानेन उक्तकाले।
जिनगुणचिन्तनयुक्तः, कायोत्सर्गस्तनुविसर्गः।।१८।। Translated Sutra: दिन, रात, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्रभगवान् के गुणों का चिन्तवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 445 | View Detail | ||
Mool Sutra: बलं स्थाम च प्रेक्ष्य श्रद्धाम् आरोग्यम् आत्मनः।
क्षेत्रं कालं च विज्ञाय तथा आत्मानं नियुञ्जीत।।७।। Translated Sutra: अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए। (क्योंकि शक्ति से अधिक उपवास करने से हानि होती है।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२९. ध्यानसूत्र | Hindi | 504 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा चिरसंचितमिन्धन-मनलः पवनसहितः द्रुतं दहति।
तथा कर्मेंधनममितं, क्षणेन ध्यानानलः दहति।।२१।। Translated Sutra: जैसे चिरसंचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 560 | View Detail | ||
Mool Sutra: कतकफलयुतजलं वा, शरदि सरःपानीयम् इव निर्मलकम्।
सकलोपशान्तमोहः, उपशान्तकषायतो भवति।।१५।। Translated Sutra: जैसे निर्मली-फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल (मिट्टी के बैठ जाने से) निर्मल होता है, वैसे ही जिनका सम्पूर्ण मोह उपशान्त हो गया है, वे निर्मल परिणामी उपशान्त-कषाय[5] कहलाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 577 | View Detail | ||
Mool Sutra: नापि तत् शस्त्रं च विषं च, दुष्प्रयुक्तो वा करोति वैतालः।
यन्त्रं वा दुष्प्रयुक्तं, सर्पो वा प्रमादिनः क्रुद्धः।।११।। Translated Sutra: दुष्प्रयुक्त शस्त्र, विष, भूत तथा दुष्प्रयुक्त यन्त्र तथा क्रुद्ध सर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व व निदान शल्य करते हैं। इससे बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा वह अनन्तसंसारी होता है। संदर्भ ५७७-५७८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 578 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत् करोति भावशल्य-मनुद्धृतमुत्तमार्थकाले।
दुर्लभबोधिकत्वं, अनन्तसंसारिकत्वं च।।१२।। Translated Sutra: कृपया देखें ५७७; संदर्भ ५७७-५७८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 579 | View Detail | ||
Mool Sutra: तदुद्धरन्ति गौरवरहिता, मूलं पुनर्भवलतानाम्।
मिथ्यादर्शनशल्यं, मायाशल्यं निदानं च।।१३।। Translated Sutra: अतः अभिमान-रहित साधक पुनर्जन्मरूपी लता के मूल अर्थात् मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अन्तरंग से निकालकर फेंक देते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 582 | View Detail | ||
Mool Sutra: आराधनायाः कार्ये, परिकर्म सर्वदा अपि कर्त्तव्यम्।
परिकर्मभावितस्य खलु, सुखसाध्या आराधना भवति।।१६।। Translated Sutra: (इसलिए मरण-काल में रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह) पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान या आराधना करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहनेवाले की आराधना सुखपूर्वक होती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 583 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा राजकुलप्रसूतो, योग्यं नित्यमपि करोति परिकर्म्म।
ततः जितकरणो युद्धे, कर्मसमर्थो भविष्यति हि।।१७।। Translated Sutra: राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शस्त्राभ्यास करता रहता है तो उसमें दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नित्य ध्यानाभ्यास करता है, उसका चित्त वश में हो जाता है और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाता है। संदर्भ ५८३-५८४ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 586 | View Detail | ||
Mool Sutra: इहपरलोकाशंसा-प्रयोगो तथा जीवितमरणभोगेषु।
वर्जयेद् भावयेत् च अशुभं संसारपरिणामम्।।२०।। Translated Sutra: संलेखना-रत साधक को मरण-काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम साँस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिन्तन करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 594 | View Detail | ||
Mool Sutra: अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः अधर्मः आकाशः।
कालः पुद्गलः मूर्तः रूपादिगुणः, अमूर्तयः शेषाः खलु।।७।। Translated Sutra: अजीवद्रव्य पाँच प्रकार का है--पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल। इनमें से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्त है। शेष चारों अमूर्त हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 600 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मप्रशंसनकरणं, पूज्येषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम्।
वैरधारणं च सुचिरं, तीव्रकषायाणां लिङ्गानि।।१३।। Translated Sutra: अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, दीर्घकाल तक वैर की गाँठ को बाँधे रखना--ये तीव्रकषायवाले जीवों के लक्षण हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 615 | View Detail | ||
Mool Sutra: चक्रिकुरुफणिसुरेन्द्रेषु, अहमिन्द्रे यत् सुखं त्रिकालभवम्।
ततः अनन्तगुणितं, सिद्धानां क्षणसुखं भवति।।२८।। Translated Sutra: चक्रवर्तियों को, उत्तरकुरु, दक्षिणकुरु आदि भोगभूमिवाले जीवों को, तथा फणीन्द्र, सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रों को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है उस सबसे भी अनन्तगुना सुख सिद्धों को एक क्षण में अनुभव होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 624 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मोऽधर्म आकाशं, कालः पुद्गला जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः।।१।। Translated Sutra: परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 625 | View Detail | ||
Mool Sutra: आकाशकालपुद्गल-धर्माधर्मेषु न सन्ति-जीवगुणाः।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता।।२।। Translated Sutra: आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों में जीव के गुण नहीं होते, इसलिए इन्हें अजीव कहा गया है। जीव का गुण चेतनता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 626 | View Detail | ||
Mool Sutra: आकाशकालजीवा,धर्माधर्मौ च मूर्तिपरिहीनाः।
मूर्त्तं पुद्गलद्रव्यं, जीवः खलु चेतनस्तेषु।।३।। Translated Sutra: आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्तिक हैं। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। इन सबमें केवल जीव द्रव्य ही चेतन है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 627 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाः पुद्गलकायाः, सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः।
पुद्गलकरणाः जीवाः, स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु।।४।। Translated Sutra: जीव और पुद्गलकाय ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। शेष सब द्रव्य निष्क्रिय हैं। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य साधन कालद्रव्य है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 628 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमेकैकमाख्यातम्।
अनन्तानि च द्रव्याणि, कालः (समयाः) पुद्गला जन्तवः।।५।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं। (व्यवहार-) काल, पुद्गल और जीव ये तीनों द्रव्य अनंत-अनंत हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 629 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्माऽधर्मो च द्वावप्येतौ, लोकमात्रौ व्याख्यातौ।
लोकेऽलोके च आकाशः, समयः समयक्षेत्रिकः।।६।। Translated Sutra: धर्म और अधर्म ये दोनों ही द्रव्य लोकप्रमाण हैं। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। (व्यवहार-) काल केवल समयक्षेत्र अर्थात् मनुष्यक्षेत्र में ही है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 630 | View Detail | ||
Mool Sutra: अन्योऽन्यं प्रविशन्तः, ददत्यवकाशमन्योऽन्यस्य।
मिलन्तोऽपि च नित्यं, स्वकं स्वभावं न विजहति।।७।। Translated Sutra: ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं, किन्तु अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 635 | View Detail | ||
Mool Sutra: चेतनारहितममूर्त्तं, अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम्।।१२।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 637 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्पर्शरसगन्धवर्णव्यतिरिक्तम् अगुरुलघुकसंयुक्तम्।
वर्तनलक्षणकलितं कालस्वरूपं इदं भवति।।१४।। Translated Sutra: स्पर्श, गन्ध, रस और रूप से रहित, अगुरु-लघु गुण से युक्त तथा वर्तना लक्षणवाला कालद्रव्य है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 638 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवानां पुद्गलानां भवन्ति परिवर्तनानि विविधानि।
एतेषां पर्याया वर्तन्ते मुख्यकालआधारे।।१५।। Translated Sutra: जीवों और पुद्गलों में नित्य होनेवाले अनेक प्रकार के परिवर्तन या पर्यायें मुख्यतः कालद्रव्य के आधार से होती हैं--उनके परिणमन में कालद्रव्य निमित्त होता है। (इसीको आगम में निश्चयकाल कहा गया है।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 639 | View Detail | ||
Mool Sutra: समयआवलिउच्छ्वासाः प्राणाः स्तोकाश्च आदिका भेदाः।
व्यवहारकालनामानः निर्दिष्टा वीतरागैः।।१६।। Translated Sutra: वीतरागदेव ने बताया है कि व्यवहार-काल समय, आवलि, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक आदि रूपात्मक है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात्।।२१।। Translated Sutra: जिसमें पूरण गलन की क्रिया होती है अर्थात् जो टूटता-जूड़ता रहता है, वह पुद्गल है। स्कन्ध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में सदा पूरण-गलन क्रिया होती रहती है, इसलिए परमाणु भी पुद्गल है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 648 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मा ज्ञानप्रमाणः, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम्।
ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम्।।२५।। Translated Sutra: (इस प्रकार व्यवहारनय से जीव शरीरव्यापी है, किन्तु-) वह ज्ञान-प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ज्ञेय लोक-अलोक है, अतः ज्ञान सर्वव्यापी है। आत्मा ज्ञान-प्रमाण होने से आत्मा भी सर्वव्यापी है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३७. अनेकान्तसूत्र | Hindi | 663 | View Detail | ||
Mool Sutra: न भवो भङ्गविहीनो, भङ्गो वा नास्ति सम्भवविहीनः।
उत्पादोऽपि च भङ्गो, न विना ध्रौव्येणार्थेन।।४।। Translated Sutra: उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्पाद के बिना नहीं होता। इसी प्रकार उत्पाद और व्यय दोनों त्रिकालस्थायी ध्रौव्य अर्थ (आधार) के बिना नहीं होते। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३७. अनेकान्तसूत्र | Hindi | 667 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरणकालपर्यन्तः।
तस्य तु बालादिकाः, पर्यययोग्या बहुविकल्पाः।।८।। Translated Sutra: पुरुष में पुरुष शब्द का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता है। परन्तु इसी बीच बचपन-बुढ़ापा आदि अनेक पर्यायें उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती जाती हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३७. अनेकान्तसूत्र | Hindi | 668 | View Detail | ||
Mool Sutra: तस्माद् वस्तूनामेव, यः सदृशः पर्यवः सः सामान्यम्।
यो विसदृशो विशेषः, स मतोऽनर्थान्तरं ततः।।९।। Translated Sutra: (अतः) वस्तुओं की जो सदृश पर्याय है-दीर्घकाल तक बनी रहनेवाली समान पर्याय है, वही सामान्य है और उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनों सामान्य तथा विशेष पर्यायें उस वस्तु से अभिन्न (कथंचित्) मानी गयी हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 681 | View Detail | ||
Mool Sutra: अवधीयत इत्यवधिः, सीमाज्ञानमिति वर्णितं समये।
भवगुणप्रत्ययविधिकं, तदवधिज्ञानमिति ब्रुवन्ति।।८।। Translated Sutra: `अवधीयते इति अवधिः' अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को एकदेश जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसे आगम में सीमाज्ञान भी कहा गया है। इसके दो भेद हैं--भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 696 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्रव्यार्थिकेन सर्वं, द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः।
भवति चान्यद् अनन्यत्-तत्काले तन्मयत्वात्।।७।। Translated Sutra: द्रव्यार्थिक नय से सभी द्रव्य हैं और पर्यायार्थिक नय से वह अन्य-अन्य है, क्योंकि जिस समय में जिस नय से वस्तु को देखते हैं, उस समय वह वस्तु उसी रूप में दृष्टिगोचर होती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 701 | View Detail | ||
Mool Sutra: निर्वृत्ता द्रव्यक्रिया, वर्तने काले तु यत् समाचरणम्।
स भूतनैगमनयो,यथा अद्य दिनं निर्वृतो वीरः।।१२।। Translated Sutra: (भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से नैगमनय तीन प्रकार का है।) जो द्रव्य या कार्य भूतकाल में समाप्त हो चुका हो उसका वर्तमानकाल में आरोपण करना भूत नैगमनय है। जैसे हजारों वर्ष पूर्व हुए भगवान् महावीर के निर्वाण के लिए निर्वाण-अमावस्या के दिन कहना कि `आज वीर भगवान् का निर्वाण हुआ है।' | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 707 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनुजादिकपर्यायो, मनुष्य इति स्वकस्थितिषु वर्तमानः।
यः भणति तावत्कालं, स स्थूलो भवति ऋजुसूत्रः।।१८।। Translated Sutra: और जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहनेवाली मनुष्यादि पर्याय को उतने समय तक एक मनुष्यरूप से ग्रहण करता है, वह स्थूल-ऋजुसूत्रनय है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४०. स्याद्वाद व सप्तभङ्गीसूत्र | Hindi | 718 | View Detail | ||
Mool Sutra: अस्तिस्वभावं द्रव्यं, स्वद्रव्यादिषु ग्राहकनयेन।
तदपि च नास्तिस्वभावं, परद्रव्यादिभिर्गृहीतेन।।५।। Translated Sutra: स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तिस्वरूप है। वही पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा नास्तिस्वरूप है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४२. निक्षेपसूत्र | Hindi | 741 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्रव्यं खलु भवति द्विविधं, आगमनोआगमाभ्यां यथा भणितम्।
अर्हत् शास्त्रज्ञायकः, अनुपयुक्तो द्रव्यार्हन्।।५।। Translated Sutra: जहाँ वस्तु की वर्तमान अवस्था का उल्लंघन कर उसका भूतकालीन या भावी स्वरूपानुसार व्यवहार किया जाता है, वहाँ द्रव्यनिक्षेप होता है। उसके दो भेद हैं--आगम और नोआगम। अर्हत्कथित शास्त्र का जानकार जिस समय उस शास्त्र में अपना उपयोग नहीं लगाता उस समय वह आगम द्रव्यनिक्षेप से अर्हत् है। नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेद | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४२. निक्षेपसूत्र | Hindi | 743 | View Detail | ||
Mool Sutra: आगमनोआगमतस्तथैव भावोऽपि भवति द्रव्यमिव।
अर्हत् शास्त्रज्ञायकः, आगमभावो हि अर्हन्।।७।। Translated Sutra: तत्कालवर्ती पर्याय के अनुसार ही वस्तु को सम्बोधित करना या मानना भावनिक्षेप है। इसके भी दो भेद हैं--आगम भावनिक्षेप और नोआगम भावनिक्षेप। जैसे अर्हत्-शास्त्र का ज्ञायक जिस समय उस ज्ञान में अपना उपयोग लगा रहा है उसी समय अर्हत् है; यह आगमभावनिक्षेप है। जिस समय उसमें अर्हत् के समस्त गुण प्रकट हो गये हैं उस समय उसे | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 346 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं दीवे एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तं जहा– Translated Sutra: इसी जम्बूद्वीप के ऐरवत वर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए – १. चन्द्र के समान मुख वाले सुचन्द्र, २. अग्निसेन, ३. नन्दिसेन, ४. व्रतधारी ऋषिदत्त और ५. सोमचन्द्र की मैं वन्दना करता हूँ। ६. युक्तिसेन, ७. अजितसेन, ८. शिवसेन, ९. बुद्ध, १०. देवशर्म, ११. निक्षिप्तशस्त्र (श्रेयांस) की मैं सदा वन्दना करता हूँ। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१ |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपोंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोग-पज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेणं वियट्ट-च्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्व-दरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउका- मेणं Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! उन भगवान ने ऐसा कहा है, मैने सूना है। [इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्तिम समय में विद्यमान उन श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक कहा है, वे भगवान] – आचार आदि श्रुतधर्म के आदिकर हैं (अपने समय में धर्म के आदि प्रणेता हैं), तीर्थंकर हैं, (धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक हैं)। स्वयं सम्यक् बोधि को | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-९ |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पासे णं अरहा नव रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
अभीजिनक्खत्ते साइरेगे नव मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएइ।
अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहा– अभीजि सवणो धणिट्ठा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तरापोट्ठवया रेवई अस्सिणी भरणी।
इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ नव जोयणसए उड्ढं अबाहाए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ।
जंबुद्दीवे णं दीवे नवजोयणिया मच्छा पविसिंसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा।
विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव-नव भोमा पन्नत्ता।
वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुधम्माओ नव जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ताओ।
दंसणावरणिज्जस्स Translated Sutra: पुरुषादानीय पार्श्वनाथ तीर्थंकर नौ रत्नी (हाथ) ऊंचे थे। अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त्त तक चन्द्रमा के साथ योग करता है। अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्रमा का उत्तर दिशा की ओर से योग करते हैं। वे नौ नक्षत्र अभिजित् से लगाकर भरणी तक जानना चाहिए। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से नौ सौ योजन | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१० |
Hindi | 14 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दसविहे समणधम्मे पन्नत्ते, तं जहा–खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे।
दस चित्तसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा–
धम्मचिंता वा से असमुप्पन्नपुव्वा समुप्पज्जिज्जा, सव्वं धम्मं जाणित्तए।
सुमिणदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जिज्जा, अहातच्चं सुमिणं पासित्तए।
सन्निनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जिज्जा, पुव्वभवे सुमरित्तए।
देवदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जिज्जा, दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवानुभावं पासित्तए।
ओहिनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जिज्जा, ओहिना लोगं जाणित्तए।
ओहिदंसणे वा से Translated Sutra: श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है। जैसे – क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास। चित्त – समाधि के दश स्थान कहे गए हैं। जैसे – जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ – भाषित श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित्त की समाधि या शान्ति के | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१५ |
Hindi | 32 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पन्नरस परमाहम्मिआ पन्नत्ता, तं जहा– Translated Sutra: पन्द्रह परमअधार्मिक देव कहे गए हैं – अम्ब, अम्बरिषी, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल।असिपत्र, धनु, कुम्भ, वालुका, वैतरणी, खरस्वर, महाघोष। सूत्र – ३२–३४ | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१५ |
Hindi | 33 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अंबे अंबरिसी चेव, सामे सबलेत्ति यावरे ।
रुद्दोवरुद्दकाले य, महाकालेत्ति यावरे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३२ | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१६ |
Hindi | 41 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पासस्स णं अरहतो पुरिसादानीयस्स सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समण-संपदा होत्था।
आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस वत्थू पन्नत्ता।
चमरबलीणं ओवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते।
लवणे णं समुद्दे सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेहपरिवुड्ढीए पन्नत्ते।
इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।
पंचमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता।
असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।
सोहम्मीसानेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।
महासुक्के कप्पे देवाणं Translated Sutra: पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण – सम्पदा सोलह हजार श्रमणों की थी। आत्मप्रवाद पूर्व के वस्तु नामक सोलह अर्थाधिकार कहे गए हैं। चमरचंचा और बलीचंचा नामक राजधानियों के मध्य भाग में उतार – चढ़ाव रूप अवतारिकालयन वृत्ताकार वाले होने से सोलह हजार आयाम – विष्कम्भ वाले कहे गए हैं। लवणसमुद्र के मध्य |