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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 627 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाः पुद्गलकायाः, सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः।
पुद्गलकरणाः जीवाः, स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु।।४।। Translated Sutra: પુદ્ગલ અને જીવ એ બે દ્રવ્યો સક્રિય છે - ક્રિયાશીલ છે. જીવને ક્રિયામાં પુદ્ગલ બાહ્ય સાધનરૂપ બને છે અને પુદ્ગલને કાળ સાધનરૂપ બને છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 637 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्पर्शरसगन्धवर्णव्यतिरिक्तम् अगुरुलघुकसंयुक्तम्।
वर्तनलक्षणकलितं कालस्वरूपं इदं भवति।।१४।। Translated Sutra: કાળદ્રવ્યમાં સ્પર્શ-રૂપ-રસ-ગંધ-વર્ણ વગેરે ગુણો નથી, તેમાં ગુરુતા કે લઘુતા નથી; વર્તના એ કાળનું મુખ્ય લક્ષણ છે. (વર્તના= પરિવર્તન.) | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 638 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवानां पुद्गलानां भवन्ति परिवर्तनानि विविधानि।
एतेषां पर्याया वर्तन्ते मुख्यकालआधारे।।१५।। Translated Sutra: જીવ અને પુદ્ગલમાં વિવિધ પરિવર્તન થાય છે. એમના પર્યાયો(બદલાતી અવસ્થાઓ)નો પ્રમુખ આધાર કાળ છે. (આ નિશ્ચયદૃષ્ટિથી કાળની વ્યાખ્યા છે.) | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 639 | View Detail | ||
Mool Sutra: समयआवलिउच्छ्वासाः प्राणाः स्तोकाश्च आदिका भेदाः।
व्यवहारकालनामानः निर्दिष्टा वीतरागैः।।१६।। Translated Sutra: સમય, આવલિ, ઉચ્છ્વાસ, પ્રાણ, સ્તોક વગેરે વ્યવહાર કાળના ભેદો છે એમ વીતરાગે કહ્યું છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 644 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर्णरसगन्धस्पर्शे पूरणगलनानि सर्वकाले।
स्कन्धा इव कुर्वन्तः परमाणवः पुद्गलाः तस्मात्।।२१।। Translated Sutra: જેમાં સદા પૂરણ અને ગલન (કંઈક ઉમેરાવું અને કંઈક ઓછું થવું, જોડાવું અને છૂટા થવું) વગેરે ક્રિયાઓ ચાલ્યા કરે છે, જેનાં વર્ણ-ગંધ-રસ-સ્પર્શ વગેરે ગુણોમાં પણ વધઘટ થયા કરે છે તે પદાર્થને પુદ્ગલ કહેવાય છે. પુદ્ગલના સ્કન્ધ અને પરમાણુ-બંને પ્રકારોમાં આવું પરિવ | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Gujarati | 648 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मा ज्ञानप्रमाणः, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम्।
ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम्।।२५।। Translated Sutra: (નિશ્ચય દૃષ્ટિથી) આત્મા જ્ઞાનપ્રમાણ છે, (જ્ઞાન એ જ આત્મા છે) અને જ્ઞાન તેના જ્ઞેય પદાર્થોના પ્રમાણનું છે અને લોક-અલોક બધું જ જ્ઞાનનું જ્ઞેય છે માટે જ્ઞાન સર્વવ્યાપી છે અને તેથી આત્મા પણ સર્વવ્યાપી છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३७. अनेकान्तसूत्र | Gujarati | 667 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरणकालपर्यन्तः।
तस्य तु बालादिकाः, पर्यययोग्या बहुविकल्पाः।।८।। Translated Sutra: જેમ જન્મથી મરણ સુધી પુરુષ માટે પુરુષ શબ્દનો વ્યવહાર થાય છે - એટલે કે પુરુષ તરીકે જ એ પદાર્થ ઓળખાય છે. બાળ-યુવાન વગેરે અનેક પ્રકારના તેના પર્યાય બદલાયા કરે છે. (એવું જ દરેક પદાર્થ વિશે સમજવું.) | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 696 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्रव्यार्थिकेन सर्वं, द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः।
भवति चान्यद् अनन्यत्-तत्काले तन्मयत्वात्।।७।। Translated Sutra: દ્રવ્યાર્થિક દૃષ્ટિકોણથી બધાં પદાર્થો માત્ર દ્રવ્ય જ છે. પણ પર્યાયાર્થિક નયના હિસાબે બધાં પદાર્થો ભિન્ન છે. જ્યારે જે નયથી જોવામાં આવે ત્યારે તે વસ્તુ તેવી જ ભાસે છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 701 | View Detail | ||
Mool Sutra: निर्वृत्ता द्रव्यक्रिया, वर्तने काले तु यत् समाचरणम्।
स भूतनैगमनयो,यथा अद्य दिनं निर्वृतो वीरः।।१२।। Translated Sutra: (નૈગમ નયના બદલાતાં ધોરણોનાં દૃષ્ટાંતો.) ભૂતકાળના પદાર્થ કે કાર્યનું વર્તમાનમાં આરોપણ કરે તે ભૂતનૈગમ. દા.ત. હજારો વર્ષ પૂર્વે ભગવાન મહાવીરનો જન્મ થયો હતો, એનું આજની તિથિ પર આરોપણ કરીને કહેવાય છે : "આજે ભગવાનનો જન્મ દિવસ છે." | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 707 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनुजादिकपर्यायो, मनुष्य इति स्वकस्थितिषु वर्तमानः।
यः भणति तावत्कालं, स स्थूलो भवति ऋजुसूत्रः।।१८।। Translated Sutra: અમુક સમય મર્યાદા સુધી ચાલુ રહેનાર અવસ્થાઓને સ્વીકારે તે સ્થૂળ ઋજુસૂત્રનય છે. જેમ કે મનુષ્ય દેહમાં હોય ત્યાં સુધી જીવને મનુષ્ય ગણવો. | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | Hindi | 9 | View Detail | ||
Mool Sutra: पञ्चमहाव्रततुङ्गाः, तत्कालिकस्वपरसमयश्रुतधाराः।
नानागुणगणभरिता, आचार्या मम प्रसीदन्तु।।९।। Translated Sutra: पंच महाव्रतों से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परसमय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुणसमूह से परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | Hindi | 17 | View Detail | ||
Mool Sutra: यद् आलीना जीवाः, तरन्ति संसारसागरमनन्तम्।
तत् सर्वजीवशरणं, नन्दतु जिनशासनं सुचिरम्।।१।। Translated Sutra: जिसमें लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागर को पार कर जाते हैं तथा जो समस्त जीवों के लिए शरणभूत है, वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 46 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखाः अनिकामसौख्याः।
संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः।।२।। Translated Sutra: ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देनेवाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
७. मिथ्यात्वसूत्र | Hindi | 67 | View Detail | ||
Mool Sutra: हा ! यथा मोहितमतिना, सुगतिमार्गमजानता।
भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयंकरे।।१।। Translated Sutra: हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 82 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मः मङ्गलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमः तपः।
देवाः अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः।।१।। Translated Sutra: धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 93 | View Detail | ||
Mool Sutra: मृषावाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।
एवमदत्तानि समाददानः, रूपेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।।१२।। Translated Sutra: असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दुःखी होता है कि वह झूठ बोलकर भी सफल नहीं हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का संकल्प करता है। वह इसलिए भी दुःखी रहता है कि कहीं कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य-व्यवहार का अन्त दुःखदायी ही होता है। इसी तरह विषयों में अतृप्त होकर | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 104 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धान् विपृष्ठीकरोति।
स्वाधीनान् त्यजति भोगान्, स हि त्यागी इति उच्यते।।२३।। Translated Sutra: त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 135 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः।
माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः।।१४।। Translated Sutra: क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 136 | View Detail | ||
Mool Sutra: उपशमेन हन्यात् क्रोधं, मानं मार्दवेन जयेत्।
मायां च आर्जवभावेन, लोभं सन्तोषतो जयेत्।।१५।। Translated Sutra: क्षमा से क्रोध का हनन करें, मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 138 | View Detail | ||
Mool Sutra: स जानन् अजानन् वा, कृत्वा आ(अ)धार्मिकं पदम्।
संवरेत् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तत् न समाचरेत्।।१७।। Translated Sutra: जान या अजान में कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाय। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१२. अहिंसासूत्र | Hindi | 148 | View Detail | ||
Mool Sutra: सर्वे जीवाः अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम्।
तस्मात्प्राणवधं घोरं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति तम्।।२।। Translated Sutra: सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए प्राणवध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१२. अहिंसासूत्र | Hindi | 149 | View Detail | ||
Mool Sutra: यावन्तो लोके प्राणा-स्त्रसा अथवा स्थावराः।
तान् जानन्नजानन्वा, न हन्यात् नोऽपि घातयेत्।।३।। Translated Sutra: लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ जान या अजान में उनका हनन न करे और न कराये। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | Hindi | 160 | View Detail | ||
Mool Sutra: इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम्।
तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः?।।१।। Translated Sutra: यह मेरे पास है और यह नहीं है, वह मुझे करना है और यह नहीं करना है -- इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठानेवाला (काल) उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाय ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 170 | View Detail | ||
Mool Sutra: विपत्तिरविनीतस्य, संपत्तिर्विनीतस्य च।
यस्यैतद् द्विधा ज्ञातं, शिक्षां सः अधिगच्छति।।१।। Translated Sutra: अविनयी के ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, यह उसकी विपत्ति है और विनयी को ज्ञान आदि गुणों की सम्प्राप्ति होती है, (यह उसकी सम्पत्ति है। इन दोनों बातों को जाननेवाला ही ग्रहण और आसेवनरूप) सच्ची शिक्षा प्राप्त करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१४. शिक्षासूत्र | Hindi | 174 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, स्थितः च स्थापयति परम्।
श्रुतानि च अधीत्य, रतः श्रुतसमाधौ।।५।। Translated Sutra: अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 201 | View Detail | ||
Mool Sutra: सौवर्णिकमपि निगलं, बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्।
बध्नात्येवं जीवं, शुभमशुभं वा कृतं कर्म।।१०।। Translated Sutra: बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियाँ बाँधती हैं। इसी प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बाँधते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र | Hindi | 240 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत्रैव पश्येत् क्वचित् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचा अथ मानसेन।
तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आजानेयः (जात्यश्वः) क्षिप्रमिव खलीनम्।। Translated Sutra: जब कभी अपने में दुष्प्रयोग की प्रवृत्ति दिखायी दे, उसे तत्काल ही मन, वचन, काय से धीर (सम्यग्दृष्टि) समेट ले, जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 245 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम्।
उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यत् छेकं तत् समाचरेत्।।१।। Translated Sutra: (साधक) सुनकर ही कल्याण या आत्महित का मार्ग जान सकता है। सुनकर ही पाप या अहित का मार्ग जाना जा सकता है। अतः सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२०. सम्यक्चारित्रसूत्र | Hindi | 282 | View Detail | ||
Mool Sutra: मदमानमायालोभ-विवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति।
परिकथितं भव्यानां, लोकालोकप्रदर्शिभिः।।२१।। Translated Sutra: मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है, ऐसा लोकालोक के ज्ञाता-द्रष्टा सर्वज्ञदेव का भव्यजीवों के लिए उपदेश है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२१. साधनासूत्र | Hindi | 295 | View Detail | ||
Mool Sutra: जरा यावत् न पीडयति, व्याधिः यावत् न वर्द्धते।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावत् धर्मं समाचरेत्।।८।। Translated Sutra: जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियाँ (रोगादि) नहीं बढ़तीं और इन्द्रियाँ अशक्त (अक्षम) नहीं हो जाती, तब तक (यथाशक्ति) धर्माचरण कर लेना चाहिए। (क्योंकि बाद में अशक्त एवं असमर्थ देहेन्द्रियों से धर्माचरण नहीं हो सकेगा।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 322 | View Detail | ||
Mool Sutra: अर्थेन तत् न बध्नाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादिकाः, नियामकाः न त्वनर्थके।।२२।। Translated Sutra: प्रयोजनवश कार्य करने से अल्प कर्मबन्ध होता है और बिना प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबन्ध होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में तो देश-काल आदि परिस्थितियों की सापेक्षता रहती है, लेकिन निष्प्रयोजन प्रवृत्ति तो सदा ही (अमर्यादितरूप से) की जा सकती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 327 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात्।
एतेन कारणेन,बहुशः सामायिकं कुर्यात्।।२७।। Translated Sutra: सामायिक करने से (सामायिक-काल में) श्रावक श्रमण के समान (सर्व सावद्ययोग से रहित एवं समताभावयुक्त) हो जाता है। अतएव अनेक प्रकार से सामायिक करनी चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 330 | View Detail | ||
Mool Sutra: अन्नादीनां शुद्धानां, कल्पनीयानां देशकालयुतम्।
दानं यतिभ्यः उचितं, गृहिणां शिक्षाव्रतं भणितम्।।३०।। Translated Sutra: उद्गम आदि दोषों से रहित देशकालानुकूल, शुद्ध अन्नादिक का उचित रीति से (मुनि आदि संयमियों को) दान देना गृहस्थों का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है। (इसका यह भी अर्थ है कि जो व्रती-त्यागी बिना किसी पूर्वसूचना के अ-तिथि रूप में आते हैं उनको अपने भोजन में संविभागी बनाना चाहिए।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 338 | View Detail | ||
Mool Sutra: बहवः इमे असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः।
न लपेदसाधुं साःधुः इति साधुं साधुः इति आलपेत्।।३।। Translated Sutra: (परन्तु) ऐसे भी बहुत से असाधु हैं जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है। (लेकिन) असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 339 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानदर्शनसम्पन्नं, संयमे च तपसि रतम्।
एवं गुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत्।।४।। Translated Sutra: ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में लीन तथा इसी प्रकार के गुणों से युक्त संयमी को ही साधु कहना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 342 | View Detail | ||
Mool Sutra: गुणैः साधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुञ्चाऽसाधुगुणान्।
विजानीयात् आत्मानमात्मना, यः रागद्वेषयोः समः स पूज्यः।।७।। Translated Sutra: (कोई भी) गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु। अतः साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 344 | View Detail | ||
Mool Sutra: बहु श्रृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां प्रेक्षते।
न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति।।९।। Translated Sutra: गोचरी अर्थात् भिक्षा के लिए निकला हुआ साधु कानों से बहुत-सी अच्छी-बुरी बातें सुनता है और आँखों से बहुत-सी अच्छी-बुरी वस्तुएँ देखता है, किन्तु सब-कुछ देख-सुनकर भी वह किसीसे कुछ कहता नहीं है। अर्थात् उदासीन रहता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 351 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्षुधं पिपासां दुःशय्यां, शीतोष्णं अरतिं भयम्।
अतिसहेत अव्यथितः देहदुःखं महाफलम्।।१६।। Translated Sutra: भूख, प्यास, दुःशय्या (ऊँची-नीची पथरीली भूमि) ठंड, गर्मी, अरति, भय आदि को बिना दुःखी हुए सहन करना चाहिए। क्योंकि दैहिक दुःखों को समभावपूर्वक सहन करना महाफलदायी होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 352 | View Detail | ||
Mool Sutra: अहो नित्यं तपःकर्मं, सर्वबुद्धैर्वर्णितम्।
यावल्लज्जासमा वृत्तिः, एकभक्तं च भोजनम्।।१७।। Translated Sutra: अहो, सभी ज्ञानियों ने ऐसे तप-अनुष्ठान का उपदेश किया है जिसमें संयमानुकूल वर्तन के साथ-साथ दिन में केवल एक बार भोजन विहित है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 369 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मार्थं परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात्।
हिंसकं न मृषा ब्रूयात्, नाप्यन्यं वदापयेत्।।६।। Translated Sutra: स्वयं अपने लिए या दूसरों के लिए क्रोधादि या भय आदि के वश होकर हिंसात्मक असत्यवचन न तो स्वयं बोलना चाहिए और न दूसरों से बुलवाना चाहिए। यह दूसरा सत्यव्रत है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 371 | View Detail | ||
Mool Sutra: चित्तवदचित्तवद्वा, अल्पं वा यदि वा बहु (मूल्यतः)।
दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा (न गृह्णान्ति)।।८।। Translated Sutra: सचेतन अथवा अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दाँत साफ करने की सींक तक भी साधु बिना दिये ग्रहण नहीं करते। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 372 | View Detail | ||
Mool Sutra: अतिभूमिं न गच्छेद्, गोचराग्रगतो मुनिः।
कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रमेत्।।९।। Translated Sutra: गोचरी के लिए जानेवाले मुनि को वर्जित भूमि में प्रवेश नहीं करना चाहिए। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि तक ही जाना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 373 | View Detail | ||
Mool Sutra: मूलं एतद् अधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्रयम्।
तस्मात् मैथुनसंसर्गं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति णम्।।१०।। Translated Sutra: मैथुन-संसर्ग अधर्म का मूल है, महान् दोषों का समूह है। इसलिए ब्रह्मचर्य-व्रती निर्ग्रन्थ साधु मैथुन-सेवन का सर्वथा त्याग करते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 378 | View Detail | ||
Mool Sutra: आहारे वा विहारे, देशं कालं श्रमं क्षमंं उपधिम्।
ज्ञात्वा तान् श्रमणः, वर्तते यदि अल्पलेपी सः।।१५।। Translated Sutra: आहार अथवा विहार में देश, काल, श्रम, अपनी सामर्थ्य तथा उपधि को जानकर श्रमण यदि बरतता है तो वह अल्पलेपी होता है, अर्थात् उसे अल्प ही बन्ध होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 379 | View Detail | ||
Mool Sutra: न सः परिग्रह उक्तो, ज्ञातपुत्रेण तायिना।
मूर्च्छा परिग्रह उक्तः, इति उक्तं महर्षिणा।।१६।। Translated Sutra: ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने (वस्तुगत) परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है। उन महर्षि ने मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 381 | View Detail | ||
Mool Sutra: संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि, अल्पेच्छता अतिलाभेऽपि सति।
एवमात्मानमभितोषयति, सन्तोषप्राधान्यरतः स पूज्यः।।१८।। Translated Sutra: संस्तारक, शय्या, आसन और आहार का अतिलाभ होने पर भी जो अल्प इच्छा रखते हुए अल्प से अपने को संतुष्ट रखता है, अधिक ग्रहण नहीं करता, वह संतोष में ही प्रधान रूप से अनुरक्त रहनेवाला साधु पूज्य है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 382 | View Detail | ||
Mool Sutra: अस्तंगते आदित्ये, पुरस्ताच्चानुद्गते।
आहारमादिकं सर्वं, मनसापि न प्रार्थयेत्।।१९।। Translated Sutra: सम्पूर्ण परिग्रह से रहित, समरसी साधु को सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय के पूर्व किसी भी प्रकार के आहार आदि की इच्छा मन में नहीं लानी चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 383 | View Detail | ||
Mool Sutra: सन्ति इमे सूक्ष्माः प्राणिनः, त्रसा अथवा स्थावराः।
यान् रात्रावपश्यन्, कथं एषणीयं चरेत्?।।२०।। Translated Sutra: इस धरती पर ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव सदैव व्याप्त रहते हैं जो रात्रि के अन्धकार में दिखाई नहीं पड़ते। अतः ऐसे समय में साधु के द्वारा आहार की शुद्ध गवेषणा कैसे हो सकती है ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 395 | View Detail | ||
Mool Sutra: यतं चरेत् यतं तिष्ठेत्, यतमासीत यतं शयीत।
यतं भुञ्जानः भाषमाणः, पाप कर्मं न बध्नाति।।१२।। Translated Sutra: यतनाचार (विवेक या उपयोग) पूर्वक चलने, यतनाचारपूर्वक रहने, यतनाचारपूर्वक बैठने, यतनाचारपूर्वक सोने, यतनाचारपूर्वक खाने और यतनाचारपूर्वक बोलने से साधु को पाप-कर्म का बंध नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 398 | View Detail | ||
Mool Sutra: तथैवुच्चावचाः प्राणिनः, भक्तार्थं समागताः।
तदृजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत्।।१५।। Translated Sutra: गमन करते समय इस बात की भी पूरी सावधानी रखनी चाहिए कि नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि इधर-उधर से चारे-दाने के लिए मार्ग में इकट्ठा हो गये हों तो उनके सामने भी नहीं जाना चाहिए, ताकि वे भयग्रस्त न हों। |