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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 477 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सजोगी णं भंते! सजोगि त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सजोगी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए।
मनजोगी णं भंते! मनजोगि त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। एवं वइजोगी वि।
कायजोगी णं भंते! कायजोगी त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो।
अजोगी णं भंते! अजोगी त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगीपर्याय में रहता है ? गौतम ! सयोगी जीव दो प्रकार के हैं – अनादि – अपर्यवसित और अनादि – सपर्यवसित। भगवन् ! मनोयोगी कितने काल तक मनोयोगी अवस्था में रहता है? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त। इसी प्रकार वचनयोगी भी समझना। काययोगी, काययोगी के रूप में जघन्य – अन्तर्मुहूर्त्त | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 478 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सवेदए णं भंते! सवेदए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सवेदए तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं।
इत्थिवेदे णं भंते! इत्थिवेदे त्ति कालतो केवचिरं होति? गोयमा! एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दसुत्तरं पलिओवमसतं पुव्वकोडिपुहत्तमब्भहियं १ एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अट्ठारस पलिओवमाइं पुव्वको-डिपुहत्तमब्भहियाइं २ एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं Translated Sutra: भगवन् ! सवेद जीव कितने काल तक सवेदरूप में रहता है ? गौतम ! सवेद जीव तीन प्रकार के हैं। अनादि – अनन्त, अनादि – सान्त और सादि – सान्त। जो सादि – सान्त हैं, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक; काल से अनन्त उत्सर्पिणी – अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गल – परावर्त्त | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 479 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सकसाई णं भंते! सकसाई त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सकसाई तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं।
कोहकसाई णं भंते! कोहकसाई त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। एवं जाव मायकसाई।
लोभकसाई णं भंते! लोभकसाई त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं।
अकसाई णं भंते! अकसाई त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अकसाई दुविहे Translated Sutra: भगवन् ! सकषायी जीव कितने काल तक सकषायीरूप में रहता है ? गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के हैं, अनादिअपर्यवसित, अनादि – सपर्यवसित और सादि – सपर्यवसित। जो सादि – सपर्यवसित हैं, उसका कथन सादि – सपर्यवसित सवेदक के अनुसार यावत् क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त तक करना। भगवन् ! क्रोध – कषायी क्रोधकषायीपर्याय | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 480 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सलेसे णं भंते! सलेसे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सलेसे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए।
कण्हलेसे णं भंते! कण्हलेसे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं।
नीललेसे णं भंते! नीललेसे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमासंखेज्जइभागमब्भहियाइं।
काउलेस्से णं भंते! काउलेस्से त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाइं पलिओवमासंखेज्जइभागमब्भहियाइं।
तेउलेस्से णं भंते! तेउलेस्से Translated Sutra: भगवन् ! सलेश्यजीव सलेश्य – अवस्था में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सलेश्य दो प्रकार के हैं। अनादि – अपर्यवसित और अनादि – सपर्यवसित। भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला जीव कितने काल तक कृष्णलेश्यावाला रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त अधिक तेतीस सागरोपम तक। नीललेश्यावाला जीव जघन्यतः | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 481 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सम्मद्दिट्ठी णं भंते! सम्मद्दिट्ठी त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सम्मद्दिट्ठी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठिं सागरोवमाइं सातिरेगाइं।
मिच्छद्दिट्ठी णं भंते! मिच्छद्दिट्ठी त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! मिच्छद्दिट्ठी तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं।
सम्मामिच्छद्दिट्ठी Translated Sutra: भगवन् ! सम्यग्दृष्टि कितने काल तक सम्यग्दृष्टिरूप में रहता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं, सादि – अपर्यवसित और सादि – सपर्यवसित। जो सादि – सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के हैं। अनादि – अपर्यवसित, अनादि – सपर्यवसित | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 482 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणी णं भंते! नाणीति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! नाणी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–सादीए वा अपज्जवसिए सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठिं सागरोवमाइं साइरेगाइं।
आभिनिबोहियनाणी णं भंते! आभिनिबोहियनाणी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! एवं चेव। एवं सुयनाणी वि। ओहिनाणी वि एवं चेव। नवरं–जहन्नेणं एक्कं समयं।
मनपज्जवनाणी णं भंते! मनपज्जवनाणी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
केवलनाणी णं भंते! केवलनाणी त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सादीए अपज्जवसिए।
अन्नाणी-मइअन्नाणी-सुयअन्नाणी Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं, सादि – अपर्यवसित और सादि – सपर्यवसित। जो सादि – सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 483 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चक्खुदंसणी णं भंते! चक्खुदंसणी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं।
अचक्खुदंसणी णं भंते! अचक्खुदंसणी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अचक्खुदंसणी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अनादीए वा सपज्जवसिए।
ओहिदंसणी णं भंते! ओहिदंसणी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीओ सागरोवमाइं सातिरेगाओ।
केवलदंसणी णं भंते! केवलदंसणी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है ? गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक (चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है)। भगवन् ! अचक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्द – र्शनीरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के है। अनादि – अपर्यवसित | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 484 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] संजए णं भंते! संजए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
असंजए णं भंते! असंजए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! असंजए तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, अणादिए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं–अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं।
संजयासंजए जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
नोसंजए-नोअसंजए-नोसंजयासंजए णं पुच्छा। गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! संयत कितने काल तक संयतरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व तक। भगवन् ! असंयत कितने काल तक असंयतरूप में रहता है ? गौतम ! असंयत तीन प्रकार के हैं, अनादि – अपर्यवसित, अनादि – सपर्यवसित, सादि – सपर्यवसित। जो सादि – सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 485 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सागारोवउत्ते णं भंते! सागारोवउत्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। अनागारोवउत्ते वि एवं चेव। Translated Sutra: भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव निरन्तर कितने काल तक साकारोपयोगयुक्तरूप में बना रहता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक। अनाकारोपयोगयुक्त जीव भी इसी प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट अन्त – र्मुहूर्त्त तक रहता है। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 486 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आहारए णं भंते! आहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! आहारए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य।
छउमत्थाहारए णं भंते! छउमत्थाहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं–असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि-ओसप्पि-णीओ कालतो, खेत्ततो अंगुलस्स असंखेज्जइभागं।
केवलिआहारए णं भंते! केवलिआहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
अनाहारए णं भंते! अनाहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अनाहारए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–छउमत्थअनाहारए य, केवलिअनाहारए य।
छउमत्थअनाहारए णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! आहारक जीव कितने काल तक आहारकरूप में रहता है ? गौतम ! आहारक जीव दो प्रकार के हैं, छद्मस्थ – आहारक और केवली – आहारक। छद्मस्थ – आहारक जघन्य दो समय कम क्षूद्रभव ग्रहण जितने काल और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक छद्मस्थ – आहारकरूप में रहता है। कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी – अवसर्पिणियों तथा क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 487 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भासए णं भंते! भासए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं।
अभासए णं भंते! अभासए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अभासए तिविहे पन्नत्ते, तं जहा– अनाईए वा अपज्जवसिए, अणाईए वा सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो। Translated Sutra: भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक। अभाषक तीन प्रकार के हैं – अनादि – अपर्यवसित, अनादि – सपर्यवसित और सादि – सपर्यवसित। उनमें से जो सादि – सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त अभाषकरूप में रहते हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 488 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] परित्ते णं भंते! परित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! परित्ते दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–कायपरित्ते य, संसारपरित्ते य।
कायपरित्ते णं भंते! कायपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो–असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ।
संसारपरित्ते णं भंते! संसारपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं– अनंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गल-परियट्टं देसूणं।
अपरित्ते णं भंते! अपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अपरित्ते दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–कायअपरित्ते य, संसारअपरित्ते Translated Sutra: परीत दो प्रकार के हैं। कायपरीत और संसारपरीत। कायपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक, असंख्यात उत्सर्पिणी – अवसर्पिणियों तक उसी पर्यायमें रहता है। संसारपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल – परावर्त्त उसी पर्याय में रहता है। अपरीत दो प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 489 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पज्जत्तए णं भंते! पज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं।
अपज्जत्तए णं भंते! अपज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं।
नोपज्जत्तए-णोअपज्जत्तए णं पुच्छा। गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! पर्याप्त जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याप्त – अवस्था में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम पृथक्त्व तक। अपर्याप्त जीव ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक रहता है। नोपर्याप्त – नोअपर्याप्त जीव सादि – अपर्यवसित हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 490 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुहुमे णं भंते! सुहुमे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो।
बादरे णं भंते! बादरे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं–असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखे-ज्जइभागं।
नोसुहुम-नोबादरे णं भंते! पुच्छा। गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म – पर्यायवाला रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल। बादर जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल यावत् क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण रहता है। भगवन् ! नोसूक्ष्म – नोबादर सादि – अपर्यवसित हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 491 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सण्णी णं भंते! सण्णी ति कालतो केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवम-सतपुहत्तं सातिरेगं।
असण्णी णं भंते! असण्णी ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो
नोसण्णी–नोअसण्णी णं पुच्छा। गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! संज्ञी जीव कितने काल तक संज्ञीपर्याय में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्वकाल। असंज्ञी असंज्ञी पर्याय में जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। नोसंज्ञी – नोअसंज्ञी सादि – अपर्यवसित हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 492 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भवसिद्धिए णं भंते! भवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अनादीए सपज्जवसिए।
अभवसिद्धिए णं भंते! अभवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अनादीए अपज्जवसिए।
नोभवसिद्धिय-नोअभवसिद्धिए णं पुच्छा। गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। Translated Sutra: भगवन् ! भवसिद्धिक जीव कितने काल तक उसी पर्याय में रहता है ? गौतम ! वह अनादि – सपर्यवसित हैं। अभवसिद्धिक अनादि – अपर्यवसित हैं। नोभवसिद्धिक – नोअभवसिद्धिक सादि – अपर्यवसित हैं। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 493 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकाए णं भंते! धम्मत्थिकाए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सव्वद्धं। एवं जाव अद्धासमए। Translated Sutra: धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकायरूप में ? वह सर्वकाल रहता है। इसी प्रकार यावत् अद्धासमय भी समझना। भगवन् ! चरमजीव ? गौतम ! (वह) अनादि – सपर्यवसित होता है। अचरम दो प्रकार के हैं, अनादि – अपर्यवसित और सादि – अपर्यवसित। सूत्र – ४९३, ४९४ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१८ कायस्थिति |
Hindi | 494 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चरिमे णं भंते! चरिमे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अनादीए सपज्जवसिए।
अचरिमे णं भंते! अचरिमे त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अचरिमे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अपज्जवसिए। Translated Sutra: देखो सूत्र ४९३ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 540 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं।
नाणावरणिज्जे णं भंते पन्नत्ते! कम्मे कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभिनिबोहियनाणावरणिज्जे सुयनाणावरणिज्जे ओहिनाणावरणिज्जे मनपज्जवनाणावरणिज्जे केवलनाणावरणिज्जे।
दरिसणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–निद्दापंचए य दंसणचउक्कए य।
निद्दापंचए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–निद्दा जाव थीणद्धी।
दंसणचउक्कए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–चक्खु-दंसणावरणिज्जे Translated Sutra: भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ – ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आभिनिबोधिक यावत् केवलज्ञानावरणीय। दर्शनावरणीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का – निद्रा – पंचक और दर्शनचतुष्क। निद्रा – पंचक कितने प्रकार का है ? गौतम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 541 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती–कम्मनिसेगो।
निद्दापंचयस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडा-कोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती–कम्मनिसेगो।
दंसणचउक्कस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्ट तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। सम्पूर्ण कर्मस्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर कर्मनिषेक का काल है। निद्रापंचक की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य पल्योपम का असंख्या – तवाँ भाग कम, सागरोपम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 542 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगिंदिया णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं निद्दापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि।
एगिंदिया णं भंते! जीवा सातावेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
असायावेयणिज्जस्स जहा नाणावरणिज्जस्स।
एगिंदिया णं भंते! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! नत्थि किंचि बंधंति।
एगिंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स Translated Sutra: भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बाँधते हैं ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के तीन सप्तमांश और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का। इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का बन्ध भी जानना। एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 543 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बेइंदिया णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवम-पणुवीसाए तिन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं णिद्दापंचगस्स वि।
एवं जहा एगिंदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियव्वं, नवरं–सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियव्वा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणा, सेसं तं चेव, जत्थ एगिंदिया णं बंधंति तत्थ एते वि न बंधंति।
बेइंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवम-पणुवीसं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
तिरिक्खजोणियाउअस्स जहन्नेण Translated Sutra: भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बाँधते हैं। इसी प्रकार निद्रापंचक की स्थिति जानना। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति के समान द्वीन्द्रिय जीवों की | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 544 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जहन्नठितिबंधए के? गोयमा! अन्नयरे सुहुमसंपराए–उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जहन्नठितिबंधए, तव्वइरित्ते अजहन्ने। एवं एतेणं अभिलावेणं मोहाउयवज्जाणं सेसकम्माणं भाणियव्वं।
मोहणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जहन्नठितिबंधए के? गोयमा! अन्नयरे बायरसंपराए–उवसा-मए वा खवए वा एस णं गोयमा! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जहन्नठितिबंधए, तव्वतिरित्ते अजहन्ने।
आउयस्स णं भंते! कम्मस्स जहन्नठितिबंधए के?
गोयमा! जे णं जीवे असंखेप्पद्धप्पविट्ठे सव्वनिरुद्धे से आउए, सेसे सव्वमहंतीए आउय-बंधद्धाए, तीसे णं आउयबंधद्धाए चरिमकालसमयंसि सव्वजहन्नियं Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन है ? गौतम ! वह अन्यतर सूक्ष्मसम्पराय, उपशामक या क्षपक होता है। हे गौतम ! यही ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य और अन्य अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। इस प्रकार से मोहनीय और आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों के विषय में कहना। मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक अन्यतर | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 545 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उक्कोसकालठितीयं णं भंते! नाणावरणिज्जं कम्मं किं नेरइओ बंधति तिरिक्खजोणिओ बंधति तिरिक्खजोणिणी बंधति मणुस्सो बंधति मनुस्सी बंधति देवो बंधति देवी बंधति? गोयमा! नेरइओ वि बंधति जाव देवी वि बंधति।
केरिसए णं भंते! नेरइए उक्कोसकालठितीयं नाणावरणिज्जं कम्मं बंधति? गोयमा! सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्ते सागारे जागरे सुतोवउत्ते मिच्छादिट्ठी कण्हलेसे उक्कोस-संकिलिट्ठपरिणामे ईसिमज्झिमपरिणामे वा, एरिसए णं गोयमा! नेरइए उक्कोसकालठितीयं नाणावरणिज्जं कम्मं बंधति।
केरिसए णं भंते! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीयं नाणावरणिज्जं कम्मं बंधति? गोयमा! कम्मभूमए Translated Sutra: भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले ज्ञानावरणीयकर्म को क्या नारक बाँधता है, तिर्यंच बाँधता है, तिर्यंचनी बाँधती है, मनुष्य बाँधता है, मनुष्य स्त्री बाँधती है अथवा देव बाँधता है या देवी बाँधती है ? गौतम ! उसे नारक यावत् देव सभी बाँधते हैं। भगवन् ! किस प्रकार का नारक उत्कृष्ट स्थितिवाला ज्ञानावरणीयकर्म बाँधता | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 550 | Gatha | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १-२ सच्चित्ताहारट्ठी ३ केवति ४ किं वा वि ५ सव्वओ चेव ।
६ कतिभागं ७ सव्वे खलु, ८ परिणामे चेव बोधव्वे ॥ Translated Sutra: इस उद्देशक में इन ग्यारह पदों हैं – सचित्ताहार, आहारार्थी, कितने काल से ?, क्या आहार ? सब प्रदेशों से, कितना भाग? सभी आहार (करते हैं ?) (सतैव) परिणत करते हैं ? तथा – एकेन्द्रियशरीरादि, लोमाहार एवं मनोभक्षी। सूत्र – ५५०, ५५१ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 552 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मोसाहारा? गोयमा! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा एवं असुरकुमारा जाव वेमानिया।
ओरालियसरीरी जाव मनूसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा वि मीसाहारा वि।
नेरइया णं भंते! आहारट्ठी? हंता गोयमा! आहारट्ठी।
नेरइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति? गोयमा! नेरइयाणं आहारे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभोगनिव्वत्तिए य अणाभोगनिव्वत्तिए य। तत्थ णं जेसे अणाभोगनिव्वत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जति। तत्थ णं जेसे आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्ठे समुप्पज्जति।
नेरइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति? Translated Sutra: भगवन् ! क्या नैरयिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ? गौतम ! वे केवल अचित्ताहारी होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिकों पर्यन्त जानना। औदारिकशरीरी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं। भगवन् ! क्या नैरयिक आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 554 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविक्काइया णं भंते! आहारट्ठी? हंता! आहारट्ठी।
पुढविक्काइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति? गोयमा! अनुसमयं अविरहिए आहरट्ठे समुप्पज्जति।
पुढविक्काइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति एवं जहा नेरइयाणं जाव–ताइं भंते! कति दिसिं आहारेंति? गोयमा! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, नवरं– ओसन्नकारणं न भवति, वण्णतो काल-नील-लोहिय-हालिद्द-सुक्किलाइं, गंधओ सुब्भिगंध-दुब्भिगंधाइं, रसओ तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराइं, फासतो कक्खड-मउय-गरुय-लहुय-सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विप्परिणामइत्ता Translated Sutra: भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! प्रतिसमय बिना विरह के होती है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के कथन के समान जानना; यावत् पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२८ आहार |
उद्देशक-१ | Hindi | 555 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बेइंदिया णं भंते! आहारट्ठी? हंता गोयमा! आहारट्ठी।
बेइंदिया णं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति? जहा नेरइयाणं, नवरं–तत्थ णं जेसे आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्ठे समुप्पज्जति। सेसं जहा पुढविक्काइयाणं जाव आहच्च नीससंति, नवरं–नियमा छद्दिसिं।
बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति? कतिभागं अस्साएंति? गोयमा! असंखेज्जतिभागं आहारेंति, अनंतभागं अस्साएंति।
बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं सव्वे आहारेंति? नो सव्वे आहारेंति? गोयमा! बेइंदियाणं दुविहे Translated Sutra: भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होत है ? गौतम ! नारकों के समान समझना। विशेष यह कि उनमें जो आभोग – निर्वर्तित आहार है, उसकी अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्मुहूर्त्त में विमात्रा से होती है। शेष कथन पृथ्वी – कायिकों | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३५ वेदना |
Hindi | 596 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! वेदना पन्नत्ता? गोयमा! तिविहा वेदना पन्नत्ता, तं जहा–सीता उसिणा सीतोसिणा।
नेरइया णं भंते! किं सीतं वेदनं वेदेंति? उसिणं वेदनं वेदेंति? सीतोसिणं वेदनं वेदेंति? गोयमा! सियं पि वेदनं वेदेंति, उसिणं पि वेदनं वेदेंति, नो सीतोसिणं वेदनं वेदेंति।
असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! सीयं पि वेदनं वेदेंति, उसिणं पि वेदनं वेदेंति, सीतोसिणं पि वेदनं वेदेंति। एवं जाव वेमानिया।
कतिविहा णं भंते! वेदना पन्नत्ता? गोयमा! चउव्विहा वेदना पन्नत्ता, तं जहा–दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ।
नेरइया णं भंते! किं दव्वओ वेदनं वेदेंति जाव किं भावओ वेदनं वेदेंति? गोयमा! दव्वओ वि वेदनं वेदेंति Translated Sutra: भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की – शीतवेदना, उष्णवेदना और शीतोष्णवेदना। भगवन् ! नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं, या शीतोष्णवेदना वेदते हैं ? गौतम ! शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्णवेदना भी। कोई – कोई प्रत्येक (नरक – ) पृथ्वी में वेदनाओं के विषय में कहते हैं – रत्नप्रभापृथ्वी | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३६ समुद्घात |
Hindi | 612 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! वेदनासमुग्घाए समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे? केवतिए खेत्ते फुडे? गोयमा! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं नियमा छद्दिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे।
से णं भंते! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे? केवइकालस्स फुडे? गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण वा एवइकालस्स अफुण्णे एवइकालस्स फुडे।
ते णं भंते! पोग्गला केवइकालस्स णिच्छुभति? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तस्स।
ते णं भंते! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाइं तत्थ पाणाइं भूयानं जीवाइं सत्ताइं अभिहणंति वत्तेंति Translated Sutra: भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को निकालता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विस्तार और स्थूलता की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं में व्याप्त करता है। इतना क्षेत्र आपूर्ण और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है। वह | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३६ समुद्घात |
Hindi | 613 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे? केवतिए खेत्ते फुडे? गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाइं एगदिसिं विदिसिं वा एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे।
से णं भंते! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे? केवतिकालस्स फुडे? गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि।
एवं नेरइए वि, नवरं–आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं Translated Sutra: भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को आत्म – प्रदेशों से पृथक् करता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! विस्तार और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-३६ समुद्घात |
Hindi | 621 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! तहासजोगी सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणं अंतं करेति? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। से णं पुव्वामेव सण्णिस्स पंचेंदियस्स पज्जत्तयस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्ज-गुणपरिहीणं पढमं मनजोगं निरुंभइ, तओ अनंतरं च णं बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीनं दोच्चं वइजोगं निरुंभति, तओ अनंतरं च णं सुहुमस्स पनगजीवस्स अपज्ज-त्तयस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तच्चं कायजोगं निरुंभति।
से णं एतेणं उवाएणं पढमं मनजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता वइजोगं निरुंभति, निरुंभित्ता काय-जोगं निरुंभति, निरुंभित्ता जोगनिरोहं Translated Sutra: भगवन् ! वह तथारूप सयोगी सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ नहीं होते। वह सर्वप्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का पहले निरोध करते हैं, तदनन्तर द्वीन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले से असंख्यातगुणहीन | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Gujarati | 13 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं रूविअजीवपन्नवणा? रूविअजीवपन्नवणा चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा– खंधा खंधदेसा खंधप्पएसा परमाणुपोग्गला।
ते समासतो पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–वण्णपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया।
जे वण्णपरिणता ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–कालवण्णपरिणता नीलवण्णपरिणता लोहियवण्णपरिणता हालिद्दवण्णपरिणता सुक्किलवण्णपरिणता।
जे गंधपरिणता ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सुब्भिगंधपरिणता य दुब्भिगंधपरिणता य।
जे रसपरिणता ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–तित्तरसपरिणता कडुयरसपरिणता कसायरस-परिणता अंबिलरसपरिणता महुररसपरिणता।
जे फासपरिणता ते अट्ठविहा पन्नत्ता, Translated Sutra: [૧] રૂપી અજીવપ્રજ્ઞાપના કેટલા પ્રકારે છે ? તે ચાર પ્રકારે છે – સ્કંધ, સ્કંધદેશ, સ્કંધપ્રદેશ, પરમાણુ પુદ્ગલ. પુદ્ગલો સંક્ષેપથી પાંચ ભેદે છે. તે આ પ્રમાણે – વર્ણ પરિણત, ગંધ પરિણત, રસ પરિણત, સ્પર્શ પરિણત અને સંસ્થાન પરિણત. [૨] જે વર્ણ પરિણત છે, તે પાંચ ભેદે કહ્યા છે. તે આ – કાળા – નીલા – લોહિત – હાલિદ્ર – શુક્લ વર્ણ પરિણત. જે | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Gujarati | 59 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पूसफली कालिंगी, तुंबी तउसी य एलवालुंकी ।
घोसाडई पडोला, पंचंगुलिया य नालीया ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૩૮ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Gujarati | 130 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुस्सफलं कालिगं, तुंबं तउसेलवालु बालुंकं ।
घोसाडयं पडोलं, तिंदूयं चेव तेंदूसं ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૦ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 162 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया य।
से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्ख-जोणिया चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–अही अयगरा आसालिया महोरगा।
से किं तं अही? अही दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–दव्वीकरा य मउलिणो य।
से किं तं दव्वीकरा? दव्वीकरा अनेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–आसीविसा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा उस्सासविसा निस्सासविसा कण्हसप्पा सेदसप्पा काओदरा दब्भपुप्फा Translated Sutra: પરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચયોનિક કેટલા ભેદે છે ? તે બે ભેદે કહેલ છે – ઉરપરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચયોનિક, ભુજપરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચયોનિક. તે ઉરપરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચયોનિક કેટલા ભેદે છે ? તે ચાર ભેદે છે – અહી, અજગર, આસાલિક, મહોરગ. તે અહીં કેટલા ભેદે છે ? બે ભેદે છે – દર્વીકર, | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 166 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं मनुस्सा? मनुस्सा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–समुच्छिममनुस्सा य गब्भवक्कंतियमनुस्सा य।
से किं तं सम्मुच्छिममनुस्सा? सम्मुच्छिममनुस्सा एगागारा पन्नत्ता।
कहि णं भंते! सम्मुच्छिममनुस्सा सम्मुच्छंति? गोयमा! अंतोमनुस्सखेत्ते पणतालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवएसु गब्भवक्कंतियमनुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगतजीव-कलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा गामनिद्धमणेसु वा? Translated Sutra: [૧] તે મનુષ્યો કેટલા ભેદે છે ? બે ભેદે – સંમૂર્ચ્છિમ અને ગર્ભવ્યુત્ક્રાંતિક. તે સંમૂર્ચ્છિમ મનુષ્યો કેટલા ભેદે છે ? ભગવન્ ! તે સંમૂર્ચ્છિમ મનુષ્યો ક્યાં સંમૂર્ચ્છે છે ? ગૌતમ ! પીસ્તાળીશ લાખ યોજન પ્રમાણ મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં અઢી દ્વીપ અને સમુદ્રોમાં પંદર કર્મભૂમિમાં, ત્રીશ અકર્મભૂમિમાં તથા છપ્પન અંતર્દ્વીપોમાં | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 195 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! नेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! नेरइया परिवसंति? गोयमा! सट्ठाणेणं सत्तसु पुढवीसु, तं जहा–रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमप्पभाए,
एत्थ णं नेरइयाणं चउरासीति निरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खायं।
ते णं नरया अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-नक्खत्त-जोइसपहा मेद-वसा-पूय-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊअगनिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरया असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं नेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता। Translated Sutra: ભગવન્ ! પર્યાપ્તા – અપર્યાપ્તા નૈરયિકના સ્થાનો ક્યાં છે ? ભગવન્ ! નૈરયિકો ક્યાં વસે છે ? ગૌતમ ! સ્વસ્થાન વડે સાતે પૃથ્વીમાં – રત્નપ્રભા, શર્કરાપ્રભા, વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તમઃપ્રભા, તમસ્તમપ્રભા. અહીં નૈરયિકોના ૮૪ – લાખ નરકાવાસો કહ્યા છે. તે નરકો અંદરથી ગોળ, બહારથી ચોરસ, નીચે અસ્ત્રાની આકૃતિવાળા | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 196 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइया परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसत-सहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभापुढविनेरइयाणं तीसं निरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं नरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता निच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-नक्खत्त-जोइसप्पभा मेद-वसापूय-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊअगनिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૯૬. ભગવન્ ! રત્નપ્રભા પૃથ્વી નૈરયિક પર્યાપ્તા – અપર્યાપ્તાના સ્થાનો ક્યાં છે ? ભગવન્! રત્નપ્રભા પૃથ્વી નૈરયિકો ક્યાં વસે છે ? ગૌતમ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ૧,૮૦,૦૦૦ યોજન બાહલ્યના ઉપર – નીચેના એક – એક હજાર યોજન છોડીને વચ્ચેના ૧,૭૮,૦૦૦ યોજન પ્રમાણ ભાગમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકોનો ૩૦ લાખ નરકાવાસો કહ્યા | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 203 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! भवनवासीणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! भवनवासी देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं भवनवासीणं देवाणं सत भवनकोडीओ बावत्तरिं च भवनावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं भवना बाहिं वट्टा अंतो समचउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिता उक्किन्नंतर- विउलगंभीरखातप्परिहा पाणारट्टालय-कवाड-तोरग-पडिदुवारदेसभागा जंत-सयग्घि-मुसल-मुसुंढि-परिवारिया अओज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयाल-कोट्ठगरइया Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૦૩. ભગવન્ ! પર્યાપ્તા – અપર્યાપ્તા ભવનવાસી દેવોના સ્થાનો ક્યાં કહ્યા છે ? ભગવન્! ભવનવાસી દેવો ક્યાં વસે છે ? ગૌતમ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની ૧,૮૦,૦૦૦ યોજનની જાડાઈના ઉપર – નીચેના એક – એક હજાર છોડીને વચ્ચેના ૧,૭૮,૦૦૦ યોજન ભાગમાં ભવનવાસી દેવોના સાતક્રોડ બોંતેર લાખ ભવનો છે. તે ભવનો બહારથી ગોળ, અંદરથી ચોરસ, નીચે | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 205 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चूडामणिमउडरयण-भूसणणागफडगरुलवइरं-पुण्णकलसंकिउप्फेस सीह-हयवर-गयअंक-मगर-वद्धमाण निज्जुत्तचित्तचिंधगता सुरूवा महिड्ढीया महज्जुतीया महायसा महब्बला महानुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियथंभियभुया अंगद-कुंडल-मट्ठगंड तलकण्णपीडधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्ला-णुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए दिव्वाए जुत्तीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૦૩ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 213 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] काला असुरकुमारा, नागा उदही य पंडरा दो वि ।
वरकनगनिहसगोरा, होंति सुवण्णा दिसा थणिया ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૦૬ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 217 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! वाणमंतरा देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वि एगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिता उक्किन्नंतरविउलगंभीरखायपरिहा पागारट्टालय कबाड तोरण पडिदुवारदेसभागा जंत सयग्घि मुसल मुसुंढिपरिवारिया अओज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयालकोट्ठगरइया Translated Sutra: ભગવન્ ! વ્યંતરોમાં પર્યાપ્તા – અપર્યાપ્તા દેવોના સ્થાનો ક્યાં કહેલા છે ? ભગવન્ ! વ્યંતર દેવો ક્યાં વસે છે ? ગૌતમ ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ૧૦૦૦ યોજન પ્રમાણ જાડા રત્નમય કાંડના ઉપર – નીચેના ૧૦૦ યોજન છોડીને વચ્ચેના ૮૦૦ યોજનમાં અહીં વ્યંતર દેવોના તિર્છા ભૂમિ સંબંધી અસંખ્યાતા લાખો નગરો છે એમ કહેલ છે. તે ભૌમેય નગરો | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 218 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणाययस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जानगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं भोमेज्जानगरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवनवण्णओ तहा भाणितव्वो जाव पडिरूवा। एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति–महिड्ढिया जहा ओहिया जाव Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૧૮. ભગવન્ ! પર્યાપ્તા – અપર્યાપ્તા પિશાચ દેવોના સ્થાનો ક્યાં છે ? ભગવન્ ! પિશાચ દેવો ક્યાં રહે છે ? ગૌતમ ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના હજાર યોજન જાડા રત્નમય કાંડના ઉપર – નીચેના સો – સો યોજન છોડીને વચ્ચેના ૮૦૦ યોજનમાં પિશાચ દેવોના તીર્છા અસંખ્યાત લાખ ભૌમેય નગરો છે. એમ કહેલ છે. તે ભૌમેયનગરો બહારના ભાગે ગોળ છે | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 219 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १ काले य महाकाले, २ सुरूव पडिरूव ३ पुण्णभद्दे य ।
अमरवइ माणिभद्दे, ४ भीमे य तहा महाभीमे ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૧૮ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 221 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! अणवन्नियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! अणवन्निया देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं हेट्ठा य एगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसतेसु, एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जा नगरावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खातं। ते णं जाव पडिरूवा,
एत्थ णं अणवण्णिन्नियाणं देवाणं ठाणा। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे अणवन्निया देवा परिवसंति–महड्ढिया जहा पिसाया जाव विहरंति।
सन्निहियसामाणा Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૧૮ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 235 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सिद्धाणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! सिद्धा परिवसंति? गोयमा! सव्वट्ठसिद्धस्स महाविमानस्स उवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालस जोयणे उड्ढं अबाहाए, एत्थ णं ईसीपब्भारा नामं पुढवी पन्नत्ता– पणतालीसं जोयणसतसहस्साणि आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सतसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दोन्नि य अउणापण्णे जोयणसते किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ता। ईसीपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणाइं बाहल्लेणं पन्नत्ते, ततो अनंतरं च णं माताए माताए–पएसपरिहाणीए परिहायमाणी-परिहायमाणी सव्वेसु चरिमंतेसु मच्छियपत्तातो तनुयरी अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं Translated Sutra: સૂત્ર– ૨૩૫. ભગવન્ ! સિદ્ધોના સ્થાનો ક્યાં કહ્યા છે ? ભગવન્ ! સિદ્ધો ક્યાં વસે છે ? ગૌતમ ! સર્વાર્થસિદ્ધ મહા – વિમાનની ઉપરની સ્તૂપિકાથી બાર યોજન ઊંચે ઇષત્ પ્રાગ્ભારા નામે પૃથ્વી છે. તે ૪૫ – લાખ યોજન લંબાઈ – પહોળાઈથી છે. તેની પરિધિ ૧,૪૨,૩૦,૨૪૯ યોજનથી કંઈક અધિક છે. ઇષત્ પ્રાગ્ભારા પૃથ્વીના બહુમધ્ય દેશભાગનું આઠ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Gujarati | 254 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इय सव्वकालतित्ता, अतुलं नेव्वाणमुवगया सिद्धा ।
सासयमव्वाबाहं, चिट्ठंति सुही सुहं पत्ता ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૩૫ | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-३ अल्पबहुत्त्व |
Gujarati | 296 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एतेसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखेज्जपदेसियाणं असंखेज्जपदेसियाणं अनंतपदेसियाण य खंधाणं दव्वट्ठयाए पदेसट्ठयाए दव्वट्ठपदेसट्ठयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा अनंतपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए, परमाणुपोग्गला दव्वट्ठयाए अनंतगुणा, संखेज्जपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा; पदेसट्ठयाए–सव्वत्थोवा अनंतपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए, परमाणुपोग्गला अपदेस-ट्ठयाए अनंतगुणा, संखेज्जपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा; दव्वट्ठ-पदेसट्ठयाए–सव्वत्थोवा Translated Sutra: ભગવન્ ! આ પરમાણુ પુદ્ગલ, સંખ્યાત પ્રદેશિક, અસંખ્યાત પ્રદેશી, અનંતપ્રદેશી સ્કંધોમાં દ્રવ્યાર્થતાથી, પ્રદેશાર્થપણાથી, દ્રવ્યાર્થ – પ્રદેશાર્થતાથી કોણ કોનાથી અલ્પ, બહુ, તુલ્ય કે વિશેષાધિક છે ? ગૌતમ! સૌથી થોડાં અનંતપ્રદેશી સ્કંધો દ્રવ્યાર્થપણે, પરમાણુ પુદ્ગલો દ્રવ્યાર્થપણે અનંતગણા, સંખ્યાત પ્રદેશી સ્કંધો | |||||||||
Pragnapana | પ્રજ્ઞાપના ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
पद-४ स्थिति |
Gujarati | 298 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं।
अपज्जत्तनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं।
पज्जत्तयनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाइं।
रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं सागरोवमं।
अपज्जत्तयरयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेण Translated Sutra: ભગવન્ ! નારકોની કેટલા કાળની સ્થિતિ કહી છે ? ગૌતમ ! જઘન્ય દશહજાર વર્ષ, ઉત્કૃષ્ટ ૩૩ – સાગરોપમ. ભગવન્ ! અપર્યાપ્ત નૈરયિકોની કેટલો કાળ સ્થિતિ કહી છે ? ગૌતમ ! જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી અંતર્મુહૂર્ત્ત. ભગવન્ ! પર્યાપ્ત નૈરયિકોની કેટલો કાળ સ્થિતિ છે ? ગૌતમ ! જઘન્યથી અંતર્મુહૂર્ત્ત ન્યૂન ૧૦,૦૦૦ વર્ષ, ઉત્કૃષ્ટ અંતર્મુહૂર્ત્ત |