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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1042 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चउत्थीए पोरिसीए निक्खिवित्ताण भायणं ।
सज्झायं तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं ॥ Translated Sutra: चतुर्थ प्रहर में प्रतिलेखना कर सभी पात्रों को बाँध कर रख दे। उसके बाद जीवादि सब भावों का प्रकाशक स्वाध्याय करे। पौरुषी के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर शय्या का प्रतिलेखन करे। सूत्र – १०४२, १०४३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1043 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पोरिसीए चउब्भाए वंदित्ताण तओ गुरुं ।
पडिक्कमित्ता कालस्स सेज्जं तु पडिलेहए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०४२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1044 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पासवणुच्चारभूमिं च पडिलेहिज्ज जयं जई ।
काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ Translated Sutra: दैवसिक – प्रतिक्रमण – यतना में प्रयत्नशील मुनि फिर प्रस्रवण और उच्चार – भूमिका प्रतिलेखन करे। उसके बाद सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित दिवस – सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे। कायोत्सर्ग को पूर्ण करके गुरु को वन्दना करे। तदनन्तर अनुक्रम में | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1048 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओ गुरुं ।
थुइमंगलं च काऊण कालं संपडिलेहए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०४४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1049 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं ज्झाणं ज्झियायई ।
तइयाए निद्दमोक्खं तु सज्झायं तु चउत्थिए ॥ Translated Sutra: रात्रिक कृत्य एवं प्रतिक्रमण – प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। चौथे प्रहर में कालका प्रतिलेखन कर, असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे। सूत्र – १०४९, १०५० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1050 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पोरिसीए चउत्थीए कालं तु पडिलेहिया ।
सज्झायं तओ कुज्जा अबोहेंतो असंजए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०४९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1051 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पोरिसीए चउब्भाए वंदिऊण तओ गुरुं ।
पडिक्कमित्तु कालस्स कालं तु पडिलेहए ॥ Translated Sutra: चतुर्थ प्रहर के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर, काल का प्रतिलेखन करे। सबः दुःखों से मुक्त करने वाले कायोत्सर्ग का समय होने पर सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सम्बन्धित रात्रि – सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे। कायोत्सर्ग को पूरा | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२७ खलुंकीय |
Hindi | 1066 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खलुंका जारिसा जोज्जा दुस्सीसा वि हु तारिसा ।
जोइया धम्मजाणंमि भज्जंति धिइदुब्बला ॥ Translated Sutra: अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देता है, वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्म – यान में जोतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं। कोई ऋद्धि – का गौरव करता है, कोई रस का गौरव करता है, कोई सुख का गौरव करता है, तो कोई चिरकाल तक क्रोध करता है। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है, कोई अपमान से डरता है, तो कोई स्तब्ध है। हेतु और कारणों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1082 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो ।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो जिनेहिं वरदंसिहिं ॥ Translated Sutra: वरदर्शी जिनवरों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव – यह छह द्रव्यात्मक लोक कहा है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1083 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो अहम्मो आगासं दव्वं इक्किक्कमाहियं ।
अनंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलजंतवो ॥ Translated Sutra: धर्म, अधर्म और आकाश – ये तीनों द्रव्य संख्या में एक – एक हैं। काल, पुद्गल और जीव – ये तीनों द्रव्य अनन्त – अनन्त हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1084 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणो ।
भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं ॥ Translated Sutra: गति धर्म का लक्षण है, स्थिति अधर्म का लक्षण है, सभी द्रव्यों का भाजन अवगाहलक्षण आकाश है। वर्तना काल का लक्षण है। उपयोग जीव का लक्षण है, जो ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से पहचाना जाता है। सूत्र – १०८४, १०८५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1085 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो ।
नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १०८४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1128 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कालपडिलेहणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ। Translated Sutra: भन्ते ! काल की प्रतिलेखना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काल की प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1134 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] परियट्टणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
परियट्टणाए णं वंजणाइं जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ। Translated Sutra: भन्ते ! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? परावर्तना से व्यंजन स्थिर होता है। और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजन – लब्धि को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1135 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अनुप्पेहाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
अनुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धनियबंधनबद्धाओ सिढिलबंधनबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, तिव्वानुभावाओ मंदानुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो बंधइ। असाया-वेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ अनाइयं च णं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ। Translated Sutra: भन्ते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? अनुप्रेक्षा से जीव आयुष् कर्म छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्म प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म प्रदेशों को अल्प – प्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष् | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1185 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पेज्जदोसमिच्छादंसणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
पेज्जदोसमिच्छादंसणविजएणं नाणदंसणचरित्ताराहणयाए अब्भुट्ठेइ। अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्विं अट्ठवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दंसणावरणिज्जं पंचविहं अंतरायं एए तिन्नि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ।
तओ पच्छा अनुत्तरं अनंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ। जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं।
तं पढमसमए बद्धं बिइयसमए वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं तं बद्धं पुट्ठं उदीरियं Translated Sutra: भन्ते ! राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? राग, द्वेष और मिथ्या – दर्शन के विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है। आठ प्रकार की कर्म – ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्व प्रथम मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्रमशः क्षय करता है। अनन्तर ज्ञानावरणीय कर्म | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1186 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ सुक्कज्झाणं ज्झायमाणे तप्पढमयाए मनजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता वइजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता आनापाननिरोहं करेइ, करेत्ता ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारद्धाए य णं अनगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुक्कज्झाणं ज्झियायमाणे वेयणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ। Translated Sutra: केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्त्तपरिणाम आयु शेष रहती है, तब वह योग निरोध में प्रवृत्त होता है। तब ‘सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति’ नामक शुक्ल – ध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, अनन्तर वचनयोग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान का निरोध करता है। श्वासोच्छ्वास | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1197 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इत्तिरिया मरणकाले दुविहा अनसना भवे ।
इत्तिरिया सावकंखा निरवकंखा बिइज्जिया ॥ Translated Sutra: अनशन तप के दो प्रकार हैं – इत्वरिक और मरणकाल। इत्वरिक सावकांक्ष होता है। मरणकाल निरवकांक्ष होता है।संक्षेप से इत्वरिक – तप छह प्रकार का है – श्रेणि, तप, धन – तप, वर्ग – तप – वर्ग – वर्ग तप और छठा प्रकीर्ण तप। इस प्रकार मनोवांछित नाना प्रकार के फल को देने वाला ‘इत्वरिक’ अनशन तप जानना। सूत्र – ११९७–११९९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1200 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जा सा अनसना मरणे दुविहा सा वियाहिया ।
सवियारअवियारा कायचिट्ठं पई भवे ॥ Translated Sutra: कायचेष्टा के आधार पर मरणकालसम्बन्धी अनशन के दो भेद हैं – सविचार और अविचार अथवा मरणकाल अनशन के सपरिकर्म और अपरिकर्म ये दो भेद हैं। अविचार अनशन के निर्हांही और अनिर्हारी – ये दो भेद भी होते हैं। दोनों में आहार का त्याग होता है। सूत्र – १२००, १२०१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1202 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ओमोयरियं पंचहा समासेण वियाहियं ।
दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य ॥ Translated Sutra: संक्षेप में अवमौदर्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की अपेक्षा से पाँच प्रकार का हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1208 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे काले ।
एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्वो ॥ Translated Sutra: दिवस के चार प्रहर होते हैं। उन चार प्रहरों में भिक्षा का जो नियत समय है, तदनुसार भिक्षा के लिए जाना, यह काल से ‘ऊणोदरी’ तप है। अथवा कुछ भागन्यून तृतीय प्रहर में भिक्षा की एषणा करना, काल की अपेक्षा से ‘ऊणोदरी’ तप है। सूत्र – १२०८, १२०९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1209 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसंतो ।
चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १२०८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1212 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा ।
एएहिं ओमचरओ पज्जवचरओ भवे भिक्खू ॥ Translated Sutra: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो – जो पर्याय कथन किये हैं, उन सबसे ऊणोदरी तप करने वाला ‘पर्यवचरक’ होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1247 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्चंतकालस्स समूलगस्स सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो ।
तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ॥ Translated Sutra: अनन्त अनादि काल से सभी दुःखों और उनके मूल कारणों से मुक्ति का उपाय मैं कह रहा हूँ। उसे पूरे मन से सुनो। वह एकान्त हितरूप है, कल्याण के लिए है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1270 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे से जह वा पयंगे आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञरूपों में तीव्र रूप से गृद्धि, आसक्ति रखता है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे प्रकाश – लोलुप पतंगा प्रकाश के रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ रूप के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त (दुर्दभ) द्वेष से दुःख को प्राप्त होता है। इसमें | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1274 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रूवानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: रूप में अनुपात और परिग्रह के कारण रूप के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1277 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो रूवे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके पश्चात् और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप होता है। इस प्रकार रूप से अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1283 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में अतृप्त मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है, जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें शब्द का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – १२८३, १२८४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1287 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: शब्द में अनुराग और ममत्व के कारण शब्द के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में, उसको सुख कहाँ है ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1290 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्ताणि समाययंतो सद्दे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखमय है। इस प्रकार शब्द में अतृप्त व्यक्ति चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1296 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ गन्ध में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे औषधि की गन्ध में आसक्त रागानुरक्त सर्प बिल से निकलकर विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ गन्ध के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें गन्ध का कोई अपराध नहीं है। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1300 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: गन्ध में अनुराग और परिग्रह में ममत्त्व के कारण गन्ध के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1303 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो गंधे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखमय है। इस प्रकार गन्ध से अतृप्त होकर वह चोरी करनेवाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1309 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे बडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ रसों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य काँटे से बींधा जाता है। जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इस में रस का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – १३०९, १३१० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1313 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: रस में अनुरक्ति और ममत्त्व के कारण रस के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग – काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। वह संतोष को प्राप्त नहीं होता। असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल दूसरों की वस्तुऍं चुराता है। रस और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से पराजित | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1316 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो रसे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1322 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वरन्ने ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे – वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भेंसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है। जो अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1325 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: स्पर्श की आशा का अनुगामी अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। स्पर्श में अनुरक्ति और ममत्व के कारण स्पर्श के उत्पादन में, संरक्षण में, संनियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1326 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1329 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो फासे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःख रूप है। इस प्रकार रूप में अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1335 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे करेणुमग्गावहिए व नागे ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ भावों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट, काम गुणों में आसक्त रागातुर हाथी विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ भाव के प्रति तीव्ररूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1338 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: भाव की आशा का अनुगामी व्यक्ति अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। भाव में अनुरक्त और ममत्व के कारण भाव के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ? उसे | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1339 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३३८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1342 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो भावे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, और बोलने के समय वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1373 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया ।
पएसग्गं खेत्तकाले य भावं चादुत्तरं सुण ॥ Translated Sutra: ये कर्मों की मूल प्रकृतियाँ और उत्तर प्रकृतियाँ कही गई हैं। इसके आगे उनके प्रदेशाग्र – द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सूनो। | |||||||||
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अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1386 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जीमूयनिद्धसंकासा गवलरिट्ठगसन्निभा ।
खंजणंजणनयणनिभा किण्हलेसा उ वण्णओ ॥ Translated Sutra: कृष्ण लेश्या का वर्ण सजल मेघ, महिष, शृंग, अरिष्टक खंजन, अंजन और नेत्र – तारिका के समान (काला) है। नील लेश्या का वर्ण – नील अशोक वृक्ष, चास पक्षी के पंख और स्निग्ध वैडूर्य मणि के समान (नीला) है। कापोत लेश्या का वर्ण – अलसी के फूल, कोयल के पंख और कबूतर की ग्रीवा के वर्ण के समान (कुछ काला और कुछ लाल – जैसा मिश्रित) है। तेजोलेश्या | |||||||||
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अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1415 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असंखिज्जाणोसप्पिणीण उस्सप्पिणीण जे समया ।
संखाईया लोगा लेसाण हुंति ठाणाइं ॥ Translated Sutra: असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, असंख्य योजन प्रमाण लोक के जितने आकाश – प्रदेश होते हैं, उतने ही लेश्याओं के स्थान होते हैं। | |||||||||
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अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1462 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुक्कज्झाणं ज्झियाएज्जा अनियाणे अकिंचने ।
वोसट्ठकाए विहरेज्जा जाव कालस्स पज्जओ ॥ Translated Sutra: मुनि शुक्ल ध्यान में लीन रहे। निदानरहित और अकिंचन रहे। जीवनपर्यन्त शरीर की आसक्ति को छोड़कर विचरण करे। | |||||||||
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अध्ययन-३५ अनगार मार्गगति |
Hindi | 1463 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निज्जूहिऊण आहारं कालधम्मे उवट्ठिए ।
जहिऊण मानुसं बोंदिं पहू दुक्खे विमुच्चई ॥ Translated Sutra: अन्तिम काल – धर्म उपस्थित होने पर मुनि आहार का परित्याग कर और मनुष्य – शरीर को छोड़कर दुःखों से मुक्तप्रभु हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1467 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा ।
परूवणा तेसि भवे जीवाणमजीवाण य ॥ Translated Sutra: द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से जीव और अजीव की प्ररूपणा होती है। |