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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ पच्चक्खाण |
Hindi | 73 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सामाइयं नामं सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च। Translated Sutra: सामायिक यानि सावद्य योग का वर्जन और निरवद्य योग का सेवन ऐसे शिक्षा अध्ययन दो तरीके से बताया है। उपपातस्थिति, उपपात, गति, कषायसेवन, कर्मबंध और कर्मवेदन इन पाँच अतिक्रमण का वर्जन करना चाहिए – सभी जगह विरति की बात बताई गई है। वाकई सर्वत्र विरति नहीं होती। इसलिए सर्व विरति कहनेवाले ने सर्व से और देश से (सामायिक) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 276 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविं च आउकायं, तेउकायं च वाउकायं च ।
पणगाइं बीय-हरियाइं, तसकायं च सव्वसो नच्चा ॥ Translated Sutra: पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद – शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं त्रसकाय – इन्हें सब प्रकार से जानकर। ‘ये अस्तित्ववान् है’ यह देखकर ‘ये चेतनावान् है’ यह जानकर उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे उनके आरम्भ का परित्याग करके विहार करते थे। सूत्र – २७६, २७७ | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 276 | Gatha | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हट्ठस्स अणवगल्लस, निरुवक्किट्ठस्स जंतुणो ।
एगे ऊसास-नीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चइ ॥ Translated Sutra: हृष्ट, वृद्धावस्था से रहित, व्याधि से रहित मनुष्य आदि के एक उच्छ्वास और निःश्वास के ‘काल’ को प्राण कहते हैं। ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और लवों का एक मुहूर्त्त जानना। अथवा – सर्वज्ञ ३७७३ उच्छ्वास – निश्वासों का एक मुहूर्त्त कहा है। इस मुहूर्त्त प्रमाण से तीस मुहूर्त्तों का एक अहोरात्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 771 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जीवाणं निव्वत्ति कम्मपगडी सरीर निव्वत्ति |
सव्विंदिय निव्वत्ति भासा य मणे कसाया य || Translated Sutra: १. जीव, २. कर्मप्रकृति, ३. शरीर, ४. सर्वेन्द्रिय, ५. भाषा, ६. मन, ७. कषाय। तथा – ८. वर्ण, ९. गंध, १०. रस, ११. स्पर्श, १२. संस्थान, १३. संज्ञा, १४. लेश्या, १५. दृष्टि, १६. ज्ञान, १७. अज्ञान, १८. उपयोग और १९. योग, (इन सबकी निर्वृत्ति का कथन इस उद्देशक में किया गया है)। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र – ७७१– | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 772 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] वण्ण रस गंध फासे संठाअ विहीय बोद्धव्वा |
लेस दिट्ठी नाणे उवओगे चेव जोगे य || Translated Sutra: देखो सूत्र ७७१ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 773 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: देखो सूत्र ७७१ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-९ करण | Hindi | 775 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वे खित्ते काले भवे य भावे य सरीर करणे य |
इंदिय करणं भासा मणे कसाए समुग्घाए || Translated Sutra: द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, शरीर, करण, इन्द्रियकरण, भाषा, मन, कषाय और समुद्घात्। तथा – संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, वेद, प्राणातिपातकरण, पुद्गलकरण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान इनका कथन इस उद्देशक में हैं। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ सूत्र – ७७५–७७७ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-७ शाली | Hindi | 305 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सत्त पाणूइं से थोवे, सत्त थोवाइं से लवे ।
लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ Translated Sutra: सात प्राणों का एक ‘स्तोक’ होता है। सात स्तोकों का एक ‘लव’ होता है। ७७ लवों का एक मुहूर्त्त कहा गया है। अथवा ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त्त होता है, ऐसा समस्त अनन्तज्ञानियों ने देखा है। सूत्र – ३०५, ३०६ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-९ करण | Hindi | 776 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] वण्ण रस गंध फासे संठाअ विहीय बोद्धव्वा |
लेस दिट्ठी नाणे उवओगे चेव जोगे य || Translated Sutra: देखो सूत्र ७७५ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-१० व्यंतर | Hindi | 777 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वाणमंतरा णं भंते! सव्वे समाहारा? एवं जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्देसओ जाव अप्पिड्ढिय त्ति। Translated Sutra: देखो सूत्र ७७५ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 77 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अभिनंदे सुपइट्ठे य, विजए पीतिवद्धण ।
सेज्जंसे य सिवे यावि, ‘सिसिरेवि य हेमवं’ ॥ Translated Sutra: हे भगवन् ! मास के नाम किस प्रकार से हैं ? एक – एक संवत्सर में बारह मास होते हैं; उसके लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकार के नाम हैं। लौकिक नाम – श्रावण, भाद्रपद, आसोज, कार्तिक, मृगशिर्ष, पौष, महा, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और अषाढ़। लोकोत्तर नाम इस प्रकार हैं – अभिनन्द, सुप्रतिष्ठ, विजय, प्रीतिवर्द्धन, श्रेयांस, शिव, शिशिर, | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 78 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे ।
एकादसमे णिदाहे, वणविरोही य बारसे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 79 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कति णं संवच्छरा आहिताति वदेज्जा? ता पंच संवच्छरा आहिताति वदेज्जा, तं जहा–नक्खत्तसंवच्छरे जुगसंवच्छरे पमाणसंवच्छरे लक्खणसंवच्छरे सणिच्छरसंवच्छरे। Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दशा ९ मोहनीय स्थानो |
Hindi | 75 | Gatha | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उवट्ठियं पडिविरयं, संजयं सुतवस्सियं ।
वोकम्म धम्माओ भंसे, महामोहं पकुव्वइ ॥ Translated Sutra: जो पापविरत मुमुक्षु, संयत तपस्वी को धर्म से भ्रष्ट करे, अज्ञानी ऐसा वह जिनेश्वर के अवर्णवाद करे, अनेक जीवों को न्यायमार्ग से भ्रष्ट करे, न्यायमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करे तो वह महामोहनीय कर्म बांधता है। सूत्र – ७५–७७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 177 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सेज्जा निसीहियाए समावन्नो न गोयरं ।
अयावयट्ठा भोच्चाणं जइ तेणं न संथरे ॥ Translated Sutra: उपाश्रय में या स्वाध्यायभूमि में बैठा हुआ, अथवा गौचरी के लिए गया हुआ मुनि अपर्याप्त खाद्य – पदार्थ खाकर यदि उस से निर्वाह न हो सके तो कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से और उत्तर विधि से भक्त – पान की गवेषणा करे। सूत्र – १७७, १७८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 178 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तओ कारणमुप्पन्ने भत्तपानं गवेसए ।
विहिणा पुव्व-उत्तेण इमेणं उत्तरेण य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १७७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 275 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कंसेसु कंसपाएसु कुंडमोएसु वा पुणो ।
भुंजंतो असनपानाइं आयारा परिभस्सइ ॥ Translated Sutra: गृहस्थ के कांसे के कटोरे में या बर्तन में जो साधु अशन, पान आदि खाता – पीता है, वह श्रमणाचार से परिभ्रष्ट हो जाता है। (गृहस्थ के द्वारा) उन बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए पानी को डालने में जो प्राणी निहत होते हैं, उसमें तीर्थंकरों ने असंयम देखा है। कदाचित् पश्चात्कर्म और पुरःकर्म दोष संभव | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
वाणव्यन्तर अधिकार |
Hindi | 77 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] काले सुरूव पुण्णे भीमे तह किन्नरे य सप्पुरिसे ।
अइकाए गीयरई अट्ठेते होंति दाहिणओ ॥ Translated Sutra: काल, सुरूप, पुन्य, भीम, किन्नर, सुपुरिष, अकायिक, गीतरती ये आठ दक्षिण में होते हैं। मणि – स्वर्ण और रत्न के स्तूप, सोने की वेदिका युक्त उनके भवन दक्षिणदिशा की ओर होते हैं और बाकी के उत्तरदिशा में होते हैं। सूत्र – ७७, ७८ | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
वाणव्यन्तर अधिकार |
Hindi | 78 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मणि-कनग-रयणथूभिय जंबूनयवेइयाइं भवनाइं ।
एएसिं दाहिणओ, सेसाणं उत्तरे पासे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
इसिप्रभापृथ्वि एवं सिद्धाधिकार |
Hindi | 277 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खेतद्धयविच्छिन्ना अट्ठेव य जोयणाणि बाहल्लं ।
परिहायमाणी चरिमंते मच्छियपत्ताओ तनुययरी ॥ Translated Sutra: वो पृथ्वी बीच में ८ योजन चौड़ी और कम होते होते मक्खी के पंख की तरह पतली होती जाती है। शंख, श्वेत रत्न और अर्जुन सुवर्ण समान वर्णवाली उल्टे छत्र के आकार वाली है। सूत्र – २७७, २७८ | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
इसिप्रभापृथ्वि एवं सिद्धाधिकार |
Hindi | 278 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संखंकसन्निकासा नामेण सुदंसणा अमोहा य ।
अज्जुनसुवण्णयमई उत्ताणयछत्तसंठाणा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७७ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 77 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरहंत–सिद्ध–पवयण–गुरु–थेर–बहुस्सुय–तवस्सीसु ।
वच्छल्लया य तेसिं, अभिक्ख नाणोवओगे य ॥ Translated Sutra: अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी – इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना, बारंबार ज्ञान का उपयोग करना, तथा – दर्शन, विनय, आवश्यक शीलव्रत का निरतिचार पालन करना, क्षणलव अर्थात् ध्यान सेवन, तप करना, त्याग, तथा – नया – नया ज्ञान ग्रहण करना, समाधि, वैयावृत्य, श्रुतभक्ति और प्रवचन प्रभावना इस बीस कारणों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 78 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दंसण–विनए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो ।
खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाहीए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 79 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयण–पहावणया ।
एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ सो उ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) | Hindi | 51 | View Detail | ||
Mool Sutra: संवेओ णिव्वेओ, णिंदा गरुहा व उवसमो भत्ती।
वच्छल्लं अणुकंपां, गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स ।। Translated Sutra: संवेग, निर्वेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 203 | View Detail | ||
Mool Sutra: विसयकसायविणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए।
जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ।। Translated Sutra: पाँचों इन्द्रियों को विषयों से रोककर और चारों कषायों का निग्रह करके, ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा जो निजात्मा की भावना करता है, उसको नियम से तप होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 233 | View Detail | ||
Mool Sutra: इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो।
खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं ।। Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि पुरुष एकमात्र पण्डित-मरण का ही प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि वह शीघ्र ही अनन्त मरणों का अन्त कर देता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 258 | View Detail | ||
Mool Sutra: आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी, ज्ञानी चेतिचतुर्विधाः।
उपासकास्त्रयस्तत्र, धन्या वस्तुविशेषतः ।। Translated Sutra: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में से प्रथम तीन वस्तु की विशेषता के कारण धन्य हैं। परन्तु जिसके मोह व क्षोभ आदि समस्त विक्षेप शान्त हो गये हैं, जो सम्यग्दृष्टि तथा अन्तरात्मा का भर्ता है, जिसका संसार अति निकट रह गया है, ऐसा ज्ञानी तो अपनी तत्त्वनिष्ठारूप नित्य-भक्ति के कारण ही विशेषता | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 259 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्तिर्विशिष्यते।
अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ।। Translated Sutra: कृपया देखें २५८; संदर्भ २५८-२५९ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
6. सापेक्षतावाद | Hindi | 376 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथैकशः कारकमर्थसिद्धये,
समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम्।
तथैव सामान्यविशेषमातृका,
नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पिताः ।। Translated Sutra: जैसे व्याकरण में एक-एक कारक शेष कारकों को सहायक बनाकर ही अर्थ की सिद्धि में समर्थ होता हैं, वैसे ही वस्तु के सामान्यांश और विशेषांश को ग्रहण करने वाले जो प्रधान नय या दृष्टियाँ हैं, वे मुख्य और गौण की कल्पना से ही इष्ट हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 387 | View Detail | ||
Mool Sutra: कालो सहाव णियई, पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेवा, समासओ होंति सम्मत्तं ।। Translated Sutra: काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अर्थात् कर्म दैव या अदृष्ट, और पुरुषार्थ ये पाँचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक् एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या हैं और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) | Hindi | 51 | View Detail | ||
Mool Sutra: संवेगो निर्वेदो, निन्दा गर्हा च उपशमो भक्तिः।
वात्सल्यं अनुकम्पा, अष्ट गुणाः सम्यक्त्वयुक्तस्य ।। Translated Sutra: संवेग, निर्वेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 203 | View Detail | ||
Mool Sutra: विषयकषायविनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायै।
यः भावयति आत्मानं, तस्य तपः भवति नियमेन ।। Translated Sutra: पाँचों इन्द्रियों को विषयों से रोककर और चारों कषायों का निग्रह करके, ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा जो निजात्मा की भावना करता है, उसको नियम से तप होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 233 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकं पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुषः असंभ्रान्तः।
क्षिप्रं सः मरणानां, करोत्यन्तमनन्तानाम् ।। Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि पुरुष एकमात्र पण्डित-मरण का ही प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि वह शीघ्र ही अनन्त मरणों का अन्त कर देता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 258 | View Detail | ||
Mool Sutra: आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी, ज्ञानी चेतिचतुर्विधाः।
उपासकास्त्रयस्तत्र, धन्या वस्तुविशेषतः ।। Translated Sutra: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में से प्रथम तीन वस्तु की विशेषता के कारण धन्य हैं। परन्तु जिसके मोह व क्षोभ आदि समस्त विक्षेप शान्त हो गये हैं, जो सम्यग्दृष्टि तथा अन्तरात्मा का भर्ता है, जिसका संसार अति निकट रह गया है, ऐसा ज्ञानी तो अपनी तत्त्वनिष्ठारूप नित्य-भक्ति के कारण ही विशेषता | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 259 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्तिर्विशिष्यते।
अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ।। Translated Sutra: कृपया देखें २५८; संदर्भ २५८-२५९ | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
6. सापेक्षतावाद | Hindi | 376 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथैकशः कारकमर्थसिद्धये,
समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम्।
तथैव सामान्यविशेषमातृका,
नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पिताः ।। Translated Sutra: जैसे व्याकरण में एक-एक कारक शेष कारकों को सहायक बनाकर ही अर्थ की सिद्धि में समर्थ होता हैं, वैसे ही वस्तु के सामान्यांश और विशेषांश को ग्रहण करने वाले जो प्रधान नय या दृष्टियाँ हैं, वे मुख्य और गौण की कल्पना से ही इष्ट हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 387 | View Detail | ||
Mool Sutra: कालो स्वभावो नियतिः, पूर्वकृतं पुरुषः कारणैकान्ताः।
मिथ्यात्वं ते चैव, समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् ।। Translated Sutra: काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अर्थात् कर्म दैव या अदृष्ट, और पुरुषार्थ ये पाँचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक् एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या हैं और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् हैं। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 24 | Gatha | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सत्त पाणूइं से थोवे, सत्त थोवाइं से लवे ।
लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्तेति आहिए ॥ Translated Sutra: सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, ७७ लवों का एक मुहूर्त्त होता है। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 125 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से भरहे राया अन्नया कयाइ जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाण-मंडवंसि नानामणि रयण भत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहनिसन्ने सुहोदएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहिं सुद्धोदएहिं य पुण्णे कल्लाणगपवरमज्जनविहीए मज्जिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणग-पवरमज्जणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहियंगे सरससुरहिगोसीसचंदनानुलित्तगत्ते अहय-सुमहग्घदूसरयणसुसंवुए सुइमाला वण्णग विलेवने आविद्ध-मणिसुवण्णे कप्पियहारद्धहार तिसरय पालंबपलंबमाण-कडिसुत्त-सुकयसोहे Translated Sutra: किसी दिन राजा भरत ने स्नान किया। देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगनेवाला राजा स्नानघर से बाहर निकला। जहाँ आदर्शगृह में, जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया। पूर्व की और मुँह किये सिंहासन पर बैठा। शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार बार देखता था। शुभ परिणाम, प्रशस्त – अध्यवसाय, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, विशुद्धिक्रम | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 275 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जया णं भंते! चंदे सव्वब्भंतरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ? गोयमा! पंच जोयणसहस्साइं तेवत्तरिं च जोयणाइं सत्तत्तरिं च चोयाले भागसए गच्छइ मंडलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहि य पणवीसेहिं सएहिं छेत्ता। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवट्ठेहिं जोयणसएहिं एगवीसाए य सट्ठिभाएहिं जोयणस्स चंदे चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ।
जया णं भंते! चंदे अब्भंतरानंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ? गोयमा! पंच जोयणसहस्साइं सत्तत्तरिं च जोयणाइं छत्तीसं च चोवत्तरे भागसए गच्छइ Translated Sutra: भगवन् ! जब चन्द्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त्त कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम ! ५०७३ – ७७४४/१३७२५ योजन। तब वह यहाँ स्थित मनुष्यों को ४७२६३ – २१/६१ योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। जब चन्द्र दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब प्रतिमुहूर्त्त ५०७७ | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
त्रिविध जीव प्रतिपत्ति |
Hindi | 70 | Sutra | Upang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एतासि णं भंते! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! १. सव्वत्थोवा पुरिसा २. इत्थीओ संखेज्जगुणाओ ३. नपुंसगा अनंतगुणा।
एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणिइत्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियनपुंसगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! १. सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा २. तिरिक्खजोणिइत्थीओ संखेज्जगुणाओ ३. तिरिक्खजोणियनपुंसगा अनंतगुणा।
एतासि णं भंते! मनुस्सित्थीणं मनुस्सपुरिसाणं मनुस्सनपुंसगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! १. सव्वत्थोवा Translated Sutra: (१) भगवन् ! इन स्त्रियों में, पुरुषों में और नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम ! सबसे थोड़े पुरुष, स्त्रियाँ संख्यातगुणी और नपुंसक अनन्तगुण हैं। (२) इन तिर्यक्योनिक में, सबसे थोड़े तिर्यक्योनिक पुरुष, तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ उनसे असंख्यातगुणी, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 224 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लवणसमुद्दं धायइसंडे नामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति।
धायइसंडे णं भंते! दीवे किं समचक्कवालसंठिते? विसमचक्कवालसंठिते? गोयमा! समचक्कवाल-संठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते।
धायइसंडे णं भंते! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं? केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते? गोयमा! चत्तारि जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, इगयालीसं जोयणसतसहस्साइं दसजोयण-सहस्साइं नव य एगट्ठे जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते। से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेणं वनसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वण्णओ।
धायइसंडस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पन्नत्ता? Translated Sutra: धातकीखण्ड नाम का द्वीप, जो गोल वलयाकार संस्थान से संस्थित है, लवणसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए है। भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप समचक्रवाल संस्थित है या विषमचक्रवाल ? गौतम ! वह समचक्रवाल संस्थान – संस्थित है। भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप का चक्रवाल – विष्कम्भ और परिधि कितनी है ? गौतम ! वह चार लाख योजन चक्रवाल – विष्कम्भ वाला | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 277 | Gatha | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सागरे लवणतोए ।
धायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूरा य ॥ Translated Sutra: इस जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं। धातकीखण्ड में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं। जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। इनसे दुगुने लवणसमुद्र में हैं और लवणसमुद्र के चन्द्रसूर्यों के तिगुने धातकीखण्ड में हैं। धातकीखण्ड के आगे के समुद्र और द्वीपों | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 278 | Gatha | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दो दो जंबुद्दीवे, ससिसूरा दुगुणिया, भवे लवणे ।
लावणिगा य तिगुणिया, ससिसूरा धायईसंडे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७७ | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 279 | Gatha | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] धायइसंडप्पभित्ति, उद्दिट्ठा तिगुणिया भवे चंदा ।
आइल्लचंदसहिया, अनंतरानंतरे खेत्ते ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७७ | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 280 | Gatha | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] रिक्खग्गहतारग्गं, दीवसमुद्देसु इच्छसी नाउं ।
तस्स ससीहिं गुणियं, रिक्खग्गहतारयग्गं तु ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७७ | |||||||||
Jivajivabhigam | જીવાભિગમ ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
त्रिविध जीव प्रतिपत्ति |
Gujarati | 70 | Sutra | Upang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एतासि णं भंते! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! १. सव्वत्थोवा पुरिसा २. इत्थीओ संखेज्जगुणाओ ३. नपुंसगा अनंतगुणा।
एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणिइत्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियनपुंसगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! १. सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा २. तिरिक्खजोणिइत्थीओ संखेज्जगुणाओ ३. तिरिक्खजोणियनपुंसगा अनंतगुणा।
एतासि णं भंते! मनुस्सित्थीणं मनुस्सपुरिसाणं मनुस्सनपुंसगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! १. सव्वत्थोवा Translated Sutra: ભગવન્ ! આ સ્ત્રી, પુરુષ, નપુંસકમાં કોણ કોનાથી અલ્પ, બહુ, તુલ્ય કે વિશેષાધિક છે ? ગૌતમ ! સૌથી ઓછા પુરુષો છે, તેનાથી સ્ત્રીઓ સંખ્યાતગણી છે, તેનાથી નપુંસકો અનંતગણા છે. ભગવન્ ! આ તિર્યંચોના સ્ત્રી – પુરુષ – નપુંસકોમાં કોણ કોનાથી અલ્પ બહુ, તુલ્ય કે વિશેષાધિક છે? ગૌતમ! સૌથી ઓછા તિર્યંચ પુરુષો છે, તિર્યંચ સ્ત્રીઓ અસંખ્યાતગણી, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 174 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] माया-दंभेण पच्छन्नो, तं पायडिउं न सक्कए।
राया दुच्चरियं पुच्छे अह साहह देह सव्वस्सं ॥ Translated Sutra: अपने शल्य से दुःखी, माया और दंभ से किए गए शल्य – पाप छिपानेवाला वो अपने शल्य प्रकट करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता। शायद कोई राजा दुश्चरित्र पूछे तो सर्वस्व और देह देने का मंजूर हो। लेकिन अपना दुश्चरित्र कहने के लिए समर्थ नहीं हो सकता। शायद राजा कहे कि तुम्हें समग्र पृथ्वी दे दूँ लेकिन तुम अपना दुश्चरित्र प्रकट | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 769 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अववाएण वि कारण-वसेण अज्जा चउण्हमूणाओ।
गाऊयमवि परिसक्कंति जत्थ तं केरिसं गच्छं॥ Translated Sutra: अपवाद से और कारण हो तो चार से कम साध्वी एक गाऊं भी जिसमें चलते हो वो गच्छ किस तरह का ? हे गौतम! जिस गच्छमें आँठ से कम साधु मार्गमें साध्वी के साथ अपवाद से भी चले तो उस गच्छ में मर्यादा कहां ? सूत्र – ७६९, ७७० |