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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Hindi | 32 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिवाडीए न चिट्ठेज्जा भिक्खू दत्तेसणं चरे ।
पडिरूवेण एसित्ता मियं कालेन भक्खए ॥ Translated Sutra: भिक्षा के लिए गया हुआ भिक्षु, खाने के लिए उपविष्ट लोगों की पंक्ति में न खड़ा रहे। मुनि की मर्यादा के अनुरूप एषणा करके गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ आहार स्वीकार करे और शास्त्रोक्त काल में आवश्यकतापूर्तिमात्र परिमित भोजन करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 453 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वेया अहीया न भवंति ताणं भुत्ता दिया निंति तमं तमेणं ।
जाया य पुत्ता न हवंति ताणं को नाम ते अनुमन्नेज्ज एयं ॥ Translated Sutra: ‘‘पढ़े हुए वेद भी त्राण नहीं होते हैं। यज्ञ – यागादि के रूप में पशुहिंसा के उपदेशक ब्राह्मण भी भोजन कराने पर तमस्तम स्थिति में ले जाते हैं। औरस पुत्र भी रक्षा करनेवाले नहीं हैं। अतः आपके उक्त कथन का कौन अनुमोदन करेगा ? ये काम – भोग क्षण भर के लिए सुख, तो चिरकाल तक दुःख देते हैं, अधिक दुःख और थोड़ा सुख देते हैं। संसार | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 454 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अनिगामसोक्खा ।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अनत्थाण उ कामभोगा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४५३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 851 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह तेनेव कालेणं धम्मतित्थयरे जिने ।
भगवं वद्धमाणो त्ति सव्वलोगम्मि विस्सुए ॥ Translated Sutra: उसी समय धर्म – तीर्थ के प्रवर्त्तक, जिन, भगवान् वर्द्धमान थे, जो समग्र लोक में प्रख्यात थे। उन लोक – प्रदीप भगवान् वर्द्धमान के विद्या और चारित्र के पारगामी, महान् यशस्वी भगवान् गौतम शिष्य थे। बारह अंगों के वेत्ता, प्रबुद्ध गौतम भी शिष्य – संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Hindi | 44 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वित्ते अचोइए निच्चं खिप्पं हवइ सुचोइए ।
जहोवइट्ठं सुकयं किच्चाइं कुव्वई सया ॥ Translated Sutra: विनयी शिष्य गुरु द्वारा प्रेरित न किए जाने पर भी कार्य करने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है। प्रेरणा होने पर तत्काल यथोपदिष्ट कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 437 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अच्चेइ कालो तूरंति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा ।
उविच्च भोगा पुरिसं चयंति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥ Translated Sutra: ‘‘राजन् ! समय व्यतीत हो रहा है, रातें दौड़ती जा रही हैं। मनुष्य के भोग नित्य नहीं हैं। काम – भोग क्षीण पुण्यवाले व्यक्ति को वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे कि क्षीण फलवाले वृक्ष को पक्षी। यदि तू काम – भोगों को छोड़ने में असमर्थ है, तो आर्य कर्म ही कर। धर्म में स्थित होकर सब जीवों के प्रति दया करनेवाला बन, जिससे कि तू भविष्य | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Hindi | 4 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो ।
एवं दुस्सीलपडिनीए मुहरी निक्कसिज्जई ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया घृणा के साथ सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके निकाला जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Hindi | 7 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा विनयमेसेज्जा सीलं पडिलभे जओ ।
बुद्धपुत्त नियागट्ठी न निक्कसिज्जइ कण्हुई ॥ Translated Sutra: इसलिए विनय का आचरण करना जिससे कि शील की प्राप्ति हो। जो बुद्धपुत्र है – वह कहीं से भी निकाला नहीं जाता। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Hindi | 10 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मा य चंडालियं कासी बहुयं मा य आलवे ।
कालेन य अहिज्जित्ता तओ ज्झाएज्ज एगगो ॥ Translated Sutra: शिष्य आवेश में आकर कोई चाण्डलिक कर्म न करे, बकवास न करे। अध्ययन काल में अध्ययन करे और उसके बाद एकाकी ध्यान करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ विनयश्रुत |
Hindi | 46 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुज्जा जस्स पसीयंति संबुद्धा पुव्वसंथुया ।
पसन्ना लाभइस्संति विउलं अट्ठियं सुयं ॥ Translated Sutra: शिक्षण काल से पूर्व ही शिष्य के विनय – भाव से परिचित, संबुद्ध, पूज्य आचार्य उस पर प्रसन्न रहते हैं। प्रसन्न होकर वे उसे अर्थगंभीर विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 52 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कालीपव्वंगसंकासे किसे धमणिसंतए ।
मायन्ने असन-पानस्स अदीन-मनसो चरे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 55 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया ।
नाइवेलं मुनी गच्छे सोच्चाणं जिनसासनं ॥ Translated Sutra: विरक्त और अनासक्त होकर विचरण करते हुए मुनि को शीतकाल में शीत का कष्ट होता ही है, फिर भी आत्मजयी जिनशासन को समझकर स्वाध्यायादि के प्राप्त काल का उल्लंघन न करे। शीत लगने पर मुनि ऐसा न सोचे कि ‘‘मेरे पास शीत – निवारण के योग्य साधन नहीं है। शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए छवित्राण – वस्त्र भी नहीं हैं, तो मैं क्यों न | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 57 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उसिणपरियावेणं परिदाहेण तज्जिए ।
घिंसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए ॥ Translated Sutra: गरम भूमि, शिला एवं लू आदि के परिताप से, प्यास की दाह से, ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सात के लिए आकुलता न करे। स्नान को इच्छा न करे। जल से शरीर को सिंचित न करे, पंखे आदि से हवा न करे। सूत्र – ५७, ५८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 73 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अक्कोसेज्ज परो भिक्खुं न तेसिं पडिसंजले ।
सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले ॥ Translated Sutra: यदि कोई भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे। क्रोध करने वाला अज्ञानियों के सदृश होता है। अतः भिक्षु आक्रोश – काल में संज्वलित न हो, दारुण, ग्रामकण्टक की तरह चुभने वाली कठोर भाषा को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए। सूत्र – ७३, ७४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 89 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से नूनं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा ।
जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई ॥ Translated Sutra: ‘‘निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देनेवाले अपकर्म किए हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता हूँ।’’ ‘अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय में आते हैं’ – इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि अपने को आश्वस्त करे। सूत्र – ८९, ९० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ परिषह |
Hindi | 93 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नत्थि नूनं परे लोए इड्ढी वावि तवस्सिणो ।
अदुवा वंचिओ मि त्ति इइ भिक्खू न चिंतए ॥ Translated Sutra: ‘‘निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, मैं तो धर्म के नाम पर ठगा गया हूँ’’ – ‘‘पूर्व काल में जिन हुए थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे’’ – ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं – भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। सूत्र – ९३, ९४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Hindi | 100 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवमावट्टजोणीसु पाणिणो कम्मकिब्बिसा ।
न निविज्जंति संसारे सव्वट्ठे सु व खत्तिया ॥ Translated Sutra: जिस प्रकार क्षत्रिय लोग चिरकाल तक समग्र ऐश्वर्य एवं सुखसाधनों का उपभोग करने पर भी निर्वेद – को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मों से मलिन जीव अनादि काल से आवर्तस्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए भी संसार दशा से निर्वेद नहीं पाते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Hindi | 102 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कम्माणं तु पहाणाए आनुपुव्वी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमनुप्पत्ता आययंति मनुस्सयं ॥ Translated Sutra: कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगति निरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि प्राप्त होती है और उसके फलस्वरूप उन्हें मनुष्यत्व प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Hindi | 111 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया ।
उवेंति मानुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई ॥ Translated Sutra: वहां देवलोक में यथास्थान अपनी काल – मर्यादा तक ठहरकर, आयु क्षय होने पर वे देव वहाँ से लौटते हैं, और मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ दशांग से युक्त होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ चातुरंगीय |
Hindi | 114 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भोच्चा मानुस्सए भोए अप्पडिरूवे अहाउयं ।
पुव्वं विसुद्धसद्धम्मे केवलं बोहि बुज्झिया ॥ Translated Sutra: जीवपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर भी पूर्व काल में विशुद्ध सद्धर्म के आराधक होने के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ असंखयं |
Hindi | 119 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्मं ।
कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उवेंति ॥ Translated Sutra: संसारी जीव अपने और अन्य बंधु – बांधवों के लिए साधारण कर्म करता है, किन्तु उस कर्म के फलोदय के समय कोई भी बन्धु बन्धुता नहीं दिखाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ असंखयं |
Hindi | 124 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं ।
विसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ Translated Sutra: ‘जो पूर्व जीवन में अप्रमत्त नहीं रहता, वह बाद में भी अप्रमत्त नहीं हो पाता है’ यह ज्ञानी जनों की धारणा है। ‘अभी क्या है, बाद में अन्तिम समय अप्रमत्त हो जाऐंगे’ यह शाश्वतवादियों की मिथ्या धारणा है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहनेवाला व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के समय, शरीर छूटने की स्थिति आने पर विषाद पाता | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ असंखयं |
Hindi | 125 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे ।
समिच्च लोयं समया महेसी अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो ॥ Translated Sutra: कोई भी तत्काल विवेक को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः अभी से कामनाओं का परित्याग कर, सन्मार्ग में उपस्थित होकर, समत्व दृष्टि से लोक को अच्छी तरह जानकर आत्मरक्षक महर्षि अप्रमत्त होकर विचरे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ अकाममरणिज्जं |
Hindi | 134 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हत्थागया इमे कामा कालिया जे अनागया ।
को जाणइ परे लोए अत्थि वा नत्थि वा पुणो? ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ अकाममरणिज्जं |
Hindi | 158 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तुलिया विसेसमादाय दयाधम्मस्स खंतिए ।
विप्पसीएज्ज मेहावी तहाभूएण अप्पणा ॥ Translated Sutra: बालमरण और पंडितमरण की परस्पर तुलना करके मेधावी साधक विशिष्ट सकाम मरण को स्वीकार करे, और मरण काल में दया धर्म एवं क्षमा से पवित्र तथाभूत आत्मा से प्रसन्न रहे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ अकाममरणिज्जं |
Hindi | 159 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तओ काले अभिप्पेए सड्ढी तालिसमंतिए ।
विनएज्ज लोमहरिसं भेयं देहस्स कंखए ॥ Translated Sutra: जब मरण – काल आए, तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या स्वीकार की थी, तदनुसार ही भिक्षु गुरु के समीप पीडाजन्य लोमहर्ष को दूर करे तथा शान्तिभाव से शरीर के भेद की प्रतीक्षा करे। मृत्यु का समय आने पर मुनि भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन में से किसी एक को स्वीकार कर सकाम मरण से शरीर को छोड़ता है। – ऐसा मैं कहता हू सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ अकाममरणिज्जं |
Hindi | 160 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह कालंमि संपत्ते आघायाय समुस्सयं ।
सकाममरणं मरई तिण्हमन्नयरं मुनी ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १५९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ क्षुल्लक निर्ग्रंथत्व |
Hindi | 175 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विविच्च कम्मुणो हेउं कालकंखी परिव्वए ।
मायं पिंडस्स पाणस्स कडं लद्धूण भक्खए ॥ Translated Sutra: प्राप्त अवसर का ज्ञाता साधक कर्म के हेतुओं को दूर करके विचरे। गृहस्थ के द्वारा अपने लिए तैयार किया गया आहार और पानी आवश्यकतापूर्तिमात्र ग्रहण कर सेवन करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ औरभ्रीय |
Hindi | 189 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जहा कागिनिए हेउं सहस्सं हारए नरो ।
अपत्थं अंबगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए ॥ Translated Sutra: एक क्षुद्र काकिणी के लिए मूढ मनुष्य हजार गँवा देता है और राजा एक अपथ्य आम्रफल खाकर बदले मे जैसे राज्य को खो देता है। इसी प्रकार देवताओं के कामभोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग नगण्य हैं। मनुष्य की अपेक्षा देवताओं की आयु और कामभोग हजार गुणा अधिक हैं। ‘‘प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक युत वर्ष की स्थिति | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ औरभ्रीय |
Hindi | 195 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया ।
देवत्तं मानुसत्तं च जं जिए लोलयासढे ॥ Translated Sutra: अज्ञानी जीव की दो गति हैं – नरक और तिर्यंच। वहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है। क्योंकि वह लोलुपता और वंचकता के कारण देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार चूका होता है। नरक और तिर्यंच – रूप दो दुर्गति को प्राप्त अज्ञानी जीव देव और मनुष्य गति को सदा ही हारे हुए हैं। क्योंकि भविष्य में उन का दीर्घ काल तक वहाँ से | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ कापिलिय |
Hindi | 222 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इह जीवियं अनियमेत्ता पब्भट्ठा समाहिजोएहिं ।
ते कामभोगरसगिद्धा उववज्जंति आसुरे काए ॥ Translated Sutra: जो वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त असुरकाय में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से निकलकर भी वे संसार में बहुत काल तक परिभ्रमण करते हैं। बहुत अधिक कर्मों से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधि धर्म की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है। सूत्र – २२२, २२३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 293 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इइ इत्तरियम्मि आउए जीवियए बहुपच्चवायए ।
विहुणाहि रयं पुरे कडं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: अल्पकालीन आयुष्य में, विघ्नों से प्रतिहत जीवन में ही पूर्वसंचित कर्मरज को दूर करना है, गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 294 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुलहे खलु मानुसे भवे चिरकालेण वि सव्वपाणिणं ।
गाढा य विवाग कम्मुणो समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: विश्व के सब प्राणियों को चिरकाल में भी मनुष्य भव की प्राप्ति दुर्लभ है। कर्मों का विपाक तीव्र है। इसलिए गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 295 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: पृथ्वीकाय में, अप्काय में, तेजस् काय में, वायुकाय में असंख्यात काल तक रहता है। अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। और वनस्पतिकाय में गया हुआ जीव उत्कर्षतः दुःख से समाप्त होने वाले अनन्त काल तक रहता है। अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। सूत्र – २९५–२९९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 296 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आउक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २९५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 297 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेउक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २९५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 298 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वाउक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २९५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 299 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वणस्सइकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालमणंतदुरंतं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २९५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 300 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बेइंदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखिज्जसण्णियं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय में और चतुरिन्द्रिय में गया हुआ जीव उत्कर्षतः संख्यात काल तक रहता है। इसलिए गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। सूत्र – ३००–३०२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 301 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेइंदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखिज्जसण्णियं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३०० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 302 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चउरिंदियकायमगइओ उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखिज्जसण्णियं समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३०० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० द्रुमपत्रक |
Hindi | 318 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वोछिंद सिनेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं ।
से सव्वसिनेहवज्जिए समयं गोयम! मा पमायए ॥ Translated Sutra: जैसे शरद – कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू भी अपना सभी प्रकार का स्नेह का त्याग कर, गौतम ! इसमें तू समय मात्र भी प्रमाद मत कर। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 365 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कयरे आगच्छइ दित्तरूवे काले विगराले फोक्कनासे ।
ओमचेलए पंसुपिसायभूए संकरदूसं परिहरिय कंठे? ॥ Translated Sutra: बीभत्स रूपवाला, काला, विकराल, बेडोल, मोटी नाकवाला, अल्प एवं मलिन वस्त्रवाला, धूलिधूसरित होने से भूत की तरह दिखाई देनेवाला, गले में संकरदूष्य धारण करनेवाला यह कौन आ रहा है ? अरे अदर्शनीय ! तू कौन है ? यहाँ किस आशा से आया है तू ? गंदे और धूलिधूसरित वस्त्र से तू अधनंगा पिशाच की तरह दीख रहा है। जा, भाग यहाँ से, यहाँ क्यों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 368 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समणो अहं संजओ बंभयारी विरओ धनपयणपरिग्गहाओ ।
परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३६७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 377 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] के एत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खंडिएहिं ।
एयं दंडेण फलेण हंता कंठम्मि घेत्तूण खेलज्ज जो णं? ॥ Translated Sutra: रुद्रदेव – यहाँ कोई है क्षत्रिय, उपज्योतिष – रसोइये, अध्यापक और छात्र, जो इस निर्ग्रन्थ को डण्डे से, फलक से पीट कर और कण्ठ पकड़ कर निकाल दें। यह सुनकर बहुत से कुमार दौड़ते हुए आए और दण्डों से, बेंतो से, चाबुकों से ऋषि को पीटने लगे। राजा कौशलिक की अनिन्द्य सुंदरी कन्या भद्रा ने मुनि को पीटते देखकर क्रुद्ध कुमारों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 384 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ते घोररूवा ठिय अंतलिक्खे असुरा तहिं तं जणं तालयंति ।
ते भिन्नदेहे रुहिरं वमंते पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो ॥ Translated Sutra: आकाश में स्थित भयंकर रूप वाले असुरभावापन्न क्रुद्ध यक्ष उनको प्रताड़ित करने लगे। कुमारों को क्षत – विक्षत और खून की उल्टी करते देखकर भद्रा ने पुनः कहा – जो भिक्षु का अपमान करते हैं, वे नखों से पर्वत खोदते हैं, दातों से लोहा चबाते हैं और पैरों से अग्नि को कुचलते हैं।महर्षि आशीविष, घोर तपस्वी, घोर व्रती, घोर पराक्रमी | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 386 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसीविसो उग्गतवो महेसी घोरव्वओ घोरपरक्कमो य ।
अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३८४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 411 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसिमो भायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा ।
अन्नमन्नमनुरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो ॥ Translated Sutra: ‘‘इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, अनुरक्त और हितैषी भाई – भाई थे। – ‘‘हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत – गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चाण्डाल थे। देवलोक में महान् ऋद्धि से सम्पन्न देव थे। यह हमारा छठवां भव है, जिसमें हम एक – दूसरे को छोड़कर पृथक् – पृथक् पैदा हुए हैं।’’ सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 412 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दासा दसन्ने आसी मिया कालिंजरे नगे ।
हंसा मयंगतीरे सोवागा कासिभूमिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४११ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 427 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इह जीविए राय! असासयम्मि धनियं तु पुण्णाइं अकुव्वमाणो ।
से सोयई मच्चुमुहोवनीए धम्मं अकाऊण परंसि लोए ॥ Translated Sutra: ‘‘राजन् ! इस अशाश्वत मानवजीवन में जो विपुल पुण्यकर्म नहीं करता है, वह मृत्यु के आने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। जैसे कि यहाँ सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाता है। मृत्यु के समय में उसके मात – पिता और भाई कोई भी मृत्युदुःख |