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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 98 | View Detail | ||
Mool Sutra: दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी
साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
12. देह-दोष दर्शन | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: मांसास्थिसंघाते मूत्रपुरीषभृते नवच्छिद्रे।
अशुचिं परिस्रवति शुभं शरीरे किमस्ति ।। Translated Sutra: मांस व अस्थि के पिण्डभूत, तथा मूत्र-पूरीष के भण्डार अशुचि इस शरीर में शुभ है ही क्या, जिसमें कि नव द्वारों से सदा मल झरता रहता है। (अतः मैं इसके ममत्व का त्याग करता हूँ।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
13. आस्रव, संवर व निर्जरा भावना | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रव, संवर व निर्जरा भावना (Just Text w/o Gatha under this section) Translated Sutra: १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएँ नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर मैं इनसे निवृत्त होता हूँ। २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 113 | View Detail | ||
Mool Sutra: कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा।
श्रुत्वा नैयायिकं मार्गं, बहवः परिभ्रश्यन्ति ।। Translated Sutra: कदाचित् धर्म-श्रवण का लाभ हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा होना दुर्लभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रूप इस न्याय-मार्ग को सुनकर भी अनेक व्यक्ति (श्रद्धायुक्त चारित्र अंगीकार करने के बजाय ज्ञानाभिमानवश स्वच्छन्द व) पथ-भ्रष्ट होते देखे जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
8. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) | Hindi | 136 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो, भिक्षाचर्याऽको विदः।
शूरं मन्यत आत्मानं, यावत् रूक्षं न सेवते ।। Translated Sutra: नवदीक्षित साधु उसी समय तक शूरवीर है, जब तक संयम अंगीकार करके वह भिक्षाचर्या, रूखा-सूखा नीरस आहार व पीड़ाओं का स्पर्श नहीं कर लेता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
2. मोक्षमार्ग में चारित्र (कर्म) का स्थान | Hindi | 141 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुबह्वपि श्रुतमधीतं, किं करिष्यति चरणविप्रहीनस्य।
अन्धस्य यथा प्रदीप्ता, दीपशतसहस्रकोटिरपि ।। Translated Sutra: भले ही बहुत सारे शास्त्र पढ़े हों, परन्तु चारित्रहीन के लिए वे सब किस काम के? हजारों करोड़ भी जगे हुए दीपक अन्धे के लिए किस काम के? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
4. कर्मयोग-रहस्य | Hindi | 147 | View Detail | ||
Mool Sutra: तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो,
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्म्मेति जानाति कः ।। Translated Sutra: जिसने कर्म-फल का त्याग कर दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति हमें नहीं होती। परन्तु इतना विशेष है कि ऐसे ज्ञानी को भी कदाचित् किसी कारणवश कोई कर्म करना अवश्य पड़ता है। उसके आ पड़ने पर भी जो अकम्प परमज्ञान में स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं, यह कौन जानता है? अर्थात् वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता है। (निष्काम | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
3. अहिंसा-सूत्र | Hindi | 167 | View Detail | ||
Mool Sutra: म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा।
प्रयत्नस्य नास्ति बंधो हिंसामात्रेण समितस्य ।। Translated Sutra: जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है। यत्नाचार-विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है। और जो प्रयत्नवान व अप्रमत्त हैं, समिति-परायण है, उनको किसी जीव की हिंसामात्र से बन्ध नहीं होता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
4. सत्य-सूत्र | Hindi | 169 | View Detail | ||
Mool Sutra: पथ्यं हृदयानिष्टमपि, भण्यमाणस्य स्वगणवसतः।
कटुकमिवौषधं तु, मधुरविपाकं भवति तस्य ।। Translated Sutra: हे मुनियो! तुम अपने संघवालों के साथ हितकर वचन बोलो। यदि कदाचित् वे हृदय को अप्रिय भी लगें, तो भी कोई हर्ज नहीं। क्योंकि कटुक औषधि भी परिणाम में मधुर व कल्याणकर ही होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 179 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि च भवंति त्रीण्येव।
शिक्षाव्रताति चत्वारि श्रावकधर्मो द्वादशविधा ।। Translated Sutra: [अनगार (साधुओं) के पाँच महाव्रतों का निर्देश कर दिया गया] सागार या गृहस्थ श्रावकों का धर्म १२ प्रकार का है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 181 | View Detail | ||
Mool Sutra: दिग्विदिग्माणं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीम्।
भोगोपभोगपरिमाणं इदमेव गुणव्रतानि त्रीणि ।। Translated Sutra: दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं। (आगे ३ गाथाओं में इन तीनों का क्रमशः कथन किया गया है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 182 | View Detail | ||
Mool Sutra: ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च दिक्षु परिमाणकरणमिह प्रथमम्।
भणितं गुणव्रतं खलु श्रावकधर्मे वीरेण ।। Translated Sutra: अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्रती श्रावक ऊपर नीचे व तिर्यक् सभी दिशाओं का परिमाण कर लेता है, कि इतने क्षेत्र के बाहर किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करूँगा। यही उसका दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत है। (सीमा से बाहर वाले क्षेत्र की अपेक्षा वह महाव्रती हो जाता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 204 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्यवसानविशुद्ध्या, वर्जिता ये तपः उत्कृष्टमपि।
कुर्वन्ति बहिर्लेश्याः, न भवति सा केवला शुद्धिः ।। Translated Sutra: परिणामों की शुद्धि से रहित तथा पूजा और सत्कार आदि में अनुरक्त जो (साधु) उत्कृष्ट भी तप करते हैं, उनके निर्दोष शुद्धि नहीं पायी जाती। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 250 | View Detail | ||
Mool Sutra: सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणिः।
क्षिति-उरगाम्बर सदा, परमपद-विमार्गणा साधुः ।। Translated Sutra: सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४. मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुँज, १२. क्षितिवत् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
7. दान-सूत्र | Hindi | 265 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो मुनिः भुक्तावशेषं भुंजति सो भुंजते जिनोपदिष्टम्।
संसारसारसौख्यं, क्रमशः निर्वाणवरसौख्यम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) | Hindi | 272 | View Detail | ||
Mool Sutra: सोऽसकृदुच्चैर्गोत्रे असकृन्नीचैर्गोत्रे,
नो हीनः नोऽप्यतिरिक्तः।
न स्पृहयेत् इति संख्याय,
को गोत्रवादी को मानवादी ।। Translated Sutra: | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 281 | View Detail | ||
Mool Sutra: निर्वेगत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु।
यः तस्य भवेत् त्यागः, इति कथितं जिनवरेन्द्रैः ।। Translated Sutra: जो जीव पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन हो जाता है, उसको त्यागधर्म होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 289 | View Detail | ||
Mool Sutra: कर्ता, भोक्ता अमूर्त्तः, शरीरमात्रः अनादिनिधनः च।
दर्शनज्ञानोपयोगः, जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः ।। Translated Sutra: जीव या आत्मा आकाशवत् अमूर्तीक है और (देह में रहता हुआ) देह-प्रमाण है। यह अनादि निधन अर्थात् स्वतः सिद्ध है। ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग ही उसका प्रधान लक्षण है। (देहधारी) वह अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है तथा उनके सुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता भी है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 295 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्कन्धाश्य स्कन्धदेशाश्च, तत्प्रदेशास्तथैव च।
परमाणवश्च बोद्धव्याः, रूपिणश्च चतुर्विधः ।। Translated Sutra: रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 300 | View Detail | ||
Mool Sutra: मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः।
अकर्म-कर्मनोकर्म, जातिभेदेषु वर्गणा ।। Translated Sutra: (अधिक कहाँ तक कहा जाय) लोक में जितने भी मूर्तिमान पदार्थ हैं, वे अकर्म रूप हों या कर्म रूप, नोकर्म अर्थात् विविध प्रकार के शरीरों व स्कन्धों रूप हों या विभिन्न जाति की सूक्ष्म वर्गणा रूप, यहाँ तक कि देहधारी संसारी जीव भी, इन सबमें पुद्गल शब्द प्रवृत्त होता है। (मन, वाणी व ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म भी पुद्गल माने गये | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
6. काल द्रव्य | Hindi | 308 | View Detail | ||
Mool Sutra: लोकाकाशप्रदेशो, एकैकस्मिन् ये स्थिताः हि एकैकाः।
रत्नानां राशिः इव, ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ।। Translated Sutra: जैन दर्शन काल-द्रव्य को अणु-परिमाण मानता है। संख्या में ये लोक के प्रदेशों प्रमाण असंख्यात हैं। रत्नों की राशि की भाँति लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक, इस प्रकार उसके असंख्यात प्रदेशों पर असंख्यात कालाणु स्थित हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
1. तत्त्व-निर्देश | Hindi | 310 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापाऽऽस्रवस्तथा।
संवरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव ।। Translated Sutra: तत्त्व नौ हैं-जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव संवर, निर्जरा व मोक्ष। (आगे क्रमशः इनका कथन किया गया है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
4. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) | Hindi | 320 | View Detail | ||
Mool Sutra: रुन्धित्वा छिद्रसहस्राणि, जलयाने यथा जलं तु नास्रवति।
मिथ्यात्याद्यभावे, तथा जीवे संवरो भवति ।। Translated Sutra: जिस प्रकार नाव का छिद्र बन्द हो जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व इन्द्रिय आदि पूर्वोक्त आस्रव-द्वारों के रुक जाने पर कर्मों का आस्रव भी रुक जाता है। और यही उनका संवरण या संवर कहलाता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 333 | View Detail | ||
Mool Sutra: तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने।
न हि स्रोतसि प्रविशन्ति, कृस्नं परिशुष्यति तडागम् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार तालाब में जल का प्रवेश होता रहने पर, जल निकास का द्वार खोल देने से भी वह सूखता नहीं है, उसी प्रकार संवरहीन अज्ञानी को केवल तप मात्र से मोक्ष नहीं होता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 358 | View Detail | ||
Mool Sutra: जायते जीवस्येवं, भावः संसारचक्रवाले।
इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३५६; संदर्भ ३५६-३५८ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
6. सापेक्षतावाद | Hindi | 377 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत्रानर्पितमादधाति गुणतां, मुख्यं तु वस्त्वर्पितं।
तात्पर्यावलम्बनेन तु भवेद्, बोधः स्फुटं लौकिकः ।। Translated Sutra: (यद्यपि वस्तु का कोई भी अंश मुख्य या गौण नहीं होता, परन्तु प्रतिपादन करते समय वक्ता प्रयोजनवश वस्तु के कभी किसी एक अंश को मुख्य करके कहता है और कभी दूसरे को) जिस समय कोई एक अंश अपेक्षित हो जाने से मुख्य होता है, उस समय दूसरा अंश अनपेक्षित होकर गौण हो जाता है, परंतु निषिद्ध नहीं होता है। लोक में भी वक्ता के अभिप्राय | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 383 | View Detail | ||
Mool Sutra: सर्वे समयन्ति समम्यक्त्वं, चैकवशाद् नया विरुद्धा अपि।
भूत्यव्यवहारिण इव, राजोदासीनवशवर्तिनः ।। Translated Sutra: किसी एक स्याद्वादी के वशवर्ती हो जाने पर, परस्पर विरुद्ध भी ये सभी नयवाद समुदित होकर उसी प्रकार सम्यक्त्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार राजा के वशवर्ती हो जाने पर अनेक अभिप्रायों को रखने वाला भृत्य-समूह एक हो जाता है। अथवा किसी व्यवहारकुशल निष्पक्ष व्यक्ति को प्राप्त हो जाने पर, धन-धान्यादि के अर्थ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 384 | View Detail | ||
Mool Sutra: अपरापरसोपेक्षो, नयविषयोऽथ प्रमाणविषयो वा।
तत्सापेक्षं तत्त्वं, निरपेक्षं तयोर्विपरीतम् ।। Translated Sutra: प्रमाण व नय के विषय एक-दूसरे की अपेक्षा से वर्तते हैं। प्रमाण का विषय अर्थात् अनेकान्तात्मक जात्यन्तरभूत वस्तु तो नय के विषय की अर्थात् उसके किसी एक धर्म की अपेक्षा करती है, और नय का विषयभूत एक धर्म तत्सहवर्ती दूसरे नय के विषयभूत अन्य धर्म की अपेक्षा करता है। यही तत्त्व की या नय की सापेक्षता है। इससे विपरीत | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव) |
2. स्याद्वाद-न्याय | Hindi | 406 | View Detail | ||
Mool Sutra: सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः, सर्वत्रार्थात्प्रतीयते।
यथैवकारेऽयोगादि, व्यवच्छेदप्रयोजनः ।। Translated Sutra: (निःसन्देह सर्वत्र व सर्वदा इस प्रकार बोलना व्यवहार विरुद्ध है, इसीलिए आचार्य कहते हैं कि) जिस प्रकार एवकार का प्रयोग न होने पर भी विज्ञजन केवल प्रकरण पर से अयोग व्यवच्छेद, अन्ययोग व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद के आशय को ग्रहण कर लेते हैं, उसी प्रकार स्यात्कार का प्रयोग न होने पर भी स्याद्वादीजन प्रकरणवशात् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
3. दिगम्बर-सूत्र | Hindi | 417 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मे निप्रवासो, दोषावासश्च इक्षुपुष्पसमः।
निष्फलनिर्गुणकारो, नटश्रमणो नग्नरूपेण ।। Translated Sutra: (इसका यह अर्थ नहीं कि नग्न हो जाना मात्र मोक्षमार्ग है, क्योंकि) जिसका चित्त धर्म में नहीं बसता, जिसमें दोषों का आवास है, तथा जो ईख के फूल के समान निष्फल व निर्गुण है, वह व्यक्ति तो नग्नवेश में नट-श्रमण मात्र है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 421 | View Detail | ||
Mool Sutra: प्रतीत्यार्थं च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम्।
यात्रार्थं ग्रहणार्थं च, लोके लिंगप्रयोजनम् ।। Translated Sutra: इतना होने पर भी लोक-प्रतीति के अर्थ, हेमन्त व वर्षा आदि ऋतुओं में सुविधापूर्वक संयम का निर्वाह करने के लिए, तथा सम्यक्त्व व ज्ञानादि को ग्रहण व धारण करने के लिए लोक में बाह्य लिंग का भी अपना स्थान अवश्य है। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 49 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! ।
तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! काले भविस्सई Translated Sutra: गौतम ! पंचम आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – दुःषमा नामक छठ्ठा आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, समपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। भगवन् ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 51 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए नामं महामेहे पाउब्भविस्सइ–भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभ-बाहल्लेणं। तए णं से पुक्खलसंवट्टए महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुयाइस्सइ, पविज्जयाइत्ता खिप्पामेव जुग मुसल मुट्ठिप्पमाण-मेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूयं मुम्मुरभूयं छारियभूयं तत्तकवेल्लुगभूयं तत्तसमजोइभूयं निव्वाविस्सति।
तंसिं च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं निवतितंसि समाणंसि, एत्थ णं खीरमेहे नामं महामेहे पाउब्भविस्सइ–भरप्पमाणमेत्ते Translated Sutra: उस उत्सर्पिणी – काल के दुःषमा नामक द्वितीय आरक के प्रथम समय में भरतक्षेत्र की अशुभ अनुभावमय रूक्षता, दाहकता आदि का अपने प्रशान्त जल द्वारा शमन करनेवाला पुष्कर – संवर्तक नामक महामेघ प्रकट होगा। वह महामेघ लम्बाई, चौड़ाई तथा विस्तार में भरतक्षेत्र प्रमाण होगा। वह पुष्कर – संवर्तक महामेघ शीघ्र ही गर्जन कर शीघ्र | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 53 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! बहुसम-रमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव नानाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहि य उवसोभिए, तं जहा–कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव।
तीसे णं भंते! समाए मनुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! तेसिं णं मनुयाणं छव्विहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, बहूईओ रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउयं पालेहिंति, पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी, अप्पेगइया तिरिय-गामी, अप्पेगइया मनुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, न सिज्झंति।
तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं Translated Sutra: उत्सर्पिणी काल के दुःषमा नामक द्वितीय आरक में भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम ! उनका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा। उस समय मनुष्यों का आकार – प्रकार कैसा होगा ? गौतम ! उस मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होंगे। उनकी ऊंचाई सात हाथ की होगी। उनका जघन्य अन्त – मुहूर्त्त का तथा उत्कृष्ट कुछ | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 54 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चई–भरहे वासे? भरहे वासे? गोयमा! भरहे णं वासे वेयड्ढस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चोद्दुसत्तरं जोयणसयं एगारस य एगूनवीसइभाए जोयणस्स अबाहाए, लवणसमुद्दस्स उत्तरेणं चोद्दसुत्तरं जोयणसयं एगारस य एगूनवीसइभाए जोयणस्स अबाहाए, गंगाए महानईए पच्चत्थिमेणं, सिंधूए महानईए पुरत्थिमेणं, दाहिणड्ढभरहमज्झिल्लतिभागस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं विनीया नामं रायहानी पन्नत्ता–पाईणपडीणायया, उदीणदाहिणविच्छिण्णा, दुवालस-जोयणायामा नवजोयणविच्छिण्णा धनवइमतिनिम्माया चामीकरपागारा नानामणिपंचवण्णकवि- सीसगपरिमंडियाभिरामा अलकापुरीसंकासा पमुइय-पक्कीलिया पच्चक्खं Translated Sutra: भगवन् ! भरतक्षेत्र का ‘भरतक्षेत्र’ यह नाम किस कारण पड़ा ? गौतम ! भरतक्षेत्र – स्थित वैताढ्य पर्वत के दक्षिण के ११४ – ११/१९ योजन तथा लवणसमुद्र के उत्तर में ११४ – ११/१९ योजन की दूरी पर, गंगा महानदी के पश्चिम में और सिन्धु महानदी के पूर्व में दक्षिणार्ध भरत के मध्यवर्ती तीसरे भाग के ठीक बीच में विनीता राजधानी है। | |||||||||
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वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 55 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं विनीयाए रायहानीए भरहे नामं राया चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था–महयाहिमवंत महंत मलय मंदर महिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ।
बिइओ गमो रायवण्णगस्स इमो–तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उपज्जए जसंसो उत्तमे अभिजाए सत्त-वीरियपरक्कमगुणे पसत्थवण्ण सर सार संघयण बुद्धि धारण मेहा संठाण सील प्पगई पहाणगारवच्छायागइए अनेगवयणप्पहाणे तेय आउ बल वीरियजुत्ते अझुसिरघननिचिय-लोहसंकल नारायवइरउसहसंघयणदेहधारी झस-जुग भिंगार वद्धमाणग भद्दासण संख छत्त वीयणि पडाग चक्क नंगल मुसल रह सोत्थिय अंकुस चंदाइच्च अग्गि जूव सागर इंदज्झय पुहवि पउम कुंजर सीहासन दंड कुम्भ गिरिवर तुरगवर Translated Sutra: विनीता राजधानी में भरत चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह राजा भरत राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम इस प्रकार है – वहाँ असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, उत्तम, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ३ भरतचक्री |
Hindi | 56 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स भरहस्स रन्नो अन्नया कयाइ आउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पज्जित्था।
तए णं से आउहघरिए भरहस्स रन्नो आउहघरसालाए दिव्वं चक्करयणं समुप्पन्नं पासाइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणामेव से दिव्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं० कट्टु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता आउहघरसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणामेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं Translated Sutra: एक दिन राजा भरत की आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। आयुधशाला के अधिकारी ने देखा। वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, चित्त में आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ अत्यन्त सौम्य मानसिक भाव और हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो उठा। दिव्य चक्र – रत्न को तीन बार आदक्षिण – प्रदक्षिणा की, हाथ जोड़ते हुए चक्ररत्न को | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 229 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए दिव्वं जिणिंदाभिगमनजोग्गं सव्वालंकारविभूसियं उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता अट्ठहिं अग्ग-महिसीहिं सपरिवाराहिं नट्टाणीएणं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमानं अनुप्पयाहिणीकरेमाणे-अनुप्पयाहिणीकरेमाणे पुव्विल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव सीहासने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने।
एवं चेव सामानियावि उत्तरेणं तिसोमाणपडिरूवएणं दुरुहित्ता पत्तेयं-पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति। अवसेसा देवा य देवीओ Translated Sutra: पालक देव द्वारा दिव्य यान की रचना को सुनकर शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्यानीक, गन्धर्वानीक के साथ उस यान – विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से – | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 230 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिंदे उत्तरड्ढलोगाहिवई अट्ठावीसविमनावाससयसहस्साहिवई अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सक्के, इमं नाणत्तं–महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमानकारी, दक्खिणा निज्जाणभूमी, उत्तरपुरत्थिमिल्लो रइकरगपव्वओ, मंदरे समोसरिओ जाव पज्जुवासइ।
एवं अवसिट्ठावि इंदा भाणियव्वा जाव अच्चुओ, इमं नाणत्तं– Translated Sutra: उस काल, उस समय हाथ में त्रिशूल लिये, वृषभ पर सवार, सुरेन्द्र, उत्तरार्धलोकाधिपति, अठ्ठाईस लाख विमानों का स्वामी, निर्मल वस्त्र धारण किये देवेन्द्र, देवराज ईशान मन्दर पर्वत पर आता है। शेष वर्णन सौधर्मेन्द्र शक्र के सदृश है। अन्तर इतना है – घण्टा का नाम महाघोषा है। पदातिसेनाधिपति का नाम लघुपराक्रम है, विमानकारी | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 233 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] आणयपाणयकप्पे, चत्तारि सयारनच्चुए तिन्नि ॥
एए विमाणा णं। इमे जाणविमानकारी देवा, तं जहा– Translated Sutra: देखो सूत्र २३० | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 234 | Gatha | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पालय पुप्फय सोमनसे सिरिवच्छे य नंदियावत्ते ।
कामगमे पीइगमे, मनोरमे विमल सव्वओभद्दे ॥ Translated Sutra: पालक, पुष्पक, सौमनस, श्रीवत्स, नन्दावर्त, कामगम, प्रीतिगम, मनोरम, विमल तथा सर्वतोभद्र ये यान – विमानों की विकुर्वणा करनेवाले देवों के अनुक्रम से नाम हैं। सौधर्मेन्द्र, सनत्कुमारेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र तथा प्राणतेन्द्र की सुघोषा घण्टा, हरिनिगमेषी पदाति – सेनाधिपति, उत्तरवर्ती निर्याण – | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 235 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सोहम्मगाणं सणंकुमारगाणं बंभलोयगाणं महासुक्कगाणं पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा, हरि-नेगमेसी पायत्तणीयाहिवई, उत्तरिल्ला निज्जाणभूमी, दाहिणपुरत्थिमिल्ले रइकरगपव्वए। ईसान-गाणं माहिंद लंतग सहस्सार अच्चुयगाण य इंदाणं महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणीयाहिवई, दक्खिणिल्ले निज्जाणमग्गे, उत्तरपुरत्थिमिल्ले रइकरगपव्वए, परिसाओ णं जहा जीवाभिगमे, आयरक्खा सामानियचउग्गुणा सव्वेसिं, जानविमाना सव्वेसिं जोयणसयसहस्सविच्छिण्णा, उच्चत्तेणं सविमानप्पमाणा, महिंदज्झया सव्वेसिं जोयणसाहस्सिया, सक्कवज्जा मंदरे समोसरंति जाव पज्जुवासंति। Translated Sutra: देखो सूत्र २३४ | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ५ जिन जन्माभिषेक |
Hindi | 236 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहानीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठीए सामानियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तावत्तीसेहिं, चउहिं लोगपालेहिं, पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अनियाहिवईहिं, चउहिं चउ-सट्ठीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहि य जहा सक्के, नवरं– इमं नाणत्तं–दुमो पायत्तणीयाहिवई, ओघस्सरा घंटा, विमानं पन्नासं जोयणसहस्साइं, महिंदज्झओ पंचजोयणसयाइं, विमानकारी आभि-ओगिओ देवो, अवसिट्ठं तं चेव जाव मंदरे समोसरइ पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिंदे असुरराया एवमेव नवरं–सट्ठी Translated Sutra: उस काल, उस समय चमरचंचा राजधानी में, सुधर्मासभा में, चमर नामक सिंहासन पर स्थित असुरेन्द्र, असुरराज चमर अपने ६४००० सामानिक देवों, ३३ त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों, सपरिवार पाँच अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, ६४००० अंगरक्षक देवों तथा अन्य देवों से संपरिवृत होता हुआ आता है। उसके | |||||||||
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वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 298 | Gatha | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधव्व अग्गिवेसे, सयवसहे आयवं च अममे य ।
अनवं भोमे च रिसहे, सव्वट्ठे रक्खसे चेव ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २८९ | |||||||||
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वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 299 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! करणा पन्नत्ता? गोयमा! एक्कारस करणा पन्नत्ता, तं जहा–बवं बालवं कोलवं थीविलोयणं गराइ वणिजं विट्ठी सउणी चउप्पयं नागं किंथुग्घं।
एएसि णं भंते! एक्कारसण्हं करणाणं कइ करणा चरा, कइ करणा थिरा पन्नत्ता? गोयमा! सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पन्नत्ता, तं जहा–बवं बालवं कोलवं थीविलोयणं गराइ वणिजं विट्ठी–एए णं सत्त करणा चरा। चत्तारि करणा थिरा पन्नत्ता, तं जहा–सउणी चउप्पयं नागं किंथुग्घं–एए णं चत्तारि करणा थिरा।
एए णं भंते! चरा थिरा वा कया भवंति? गोयमा! सुक्कपक्खस्स पडिवाए राओ बवे करणे भवइ। बिइयाए दिवा बालवे करणे भवइ, राओ कोलवे करणे भवइ। तइयाए दिवा थीविलोयणं करणं Translated Sutra: भगवन् ! करण कितने हैं ? गौतम ! ग्यारह – १. बव, २. बालव, ३. कौलव, ४. स्त्रीविलोचन – तैतिल, ५. गर, ६. वणिज, ७. विष्टि, ८. शकुनि, ९. चतुष्पद, १०. नाग तथा ११. किंस्तुघ्न। इन ग्यारह करणों में सात करण चर तथा चार करण स्थिर हैं। बव, बालव, कौलव, स्त्रीविलोचन, गरादि, वणिज तथा विष्टि – ये सात करण चर हैं एवं शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 300 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] किमाइया णं भंते! संवच्छरा, किमाइया अयना, किमाइया उऊ, किमाइया भासा, किमाइया पक्खा, किमाइया अहोरत्ता, किमाइया मुहुत्ता, किमाइया करणा, किमाइया नक्खत्ता पन्नत्ता? गोयमा! चंदाइया संवच्छरा, दक्खिणाइया अयणा, पाउसाइया उऊ, सावणाइया मासा, बहुलाइया पक्खा, दिवसाइया अहोरत्ता, रोद्दाइया मुहुत्ता, बालवाइया करणा, अभिजियाइया नक्खत्ता पन्नत्ता समणाउसो! ।
पंचसंवच्छरिए णं भंते! जुगे केवइया अयणा, केवइया उऊ, एवं मासा पक्खा अहोरत्ता, केवइया मुहुत्ता पन्नत्ता? गोयमा! पंचसंवच्छरिए णं जुगे दस अयणा, तीसं उऊ, सट्ठी मासा, एगे वीसुत्तरे पक्खसए, अट्ठारसतीसा अहोरत्तसया चउप्पन्नं मुहुत्तसहस्सा Translated Sutra: भगवन् ! संवत्सरों में आदि – संवत्सर कौन सा है ? अयनों में प्रथम अयन कौन सा है ? यावत् नक्षत्रों में प्रथम नक्षत्र कौन सा है ? गौतम ! संवत्सरों में आदि – चन्द्र – संवत्सर है। अयनों में प्रथम दक्षिणायन है। ऋतुओं में प्रथम प्रावृट् – ऋतु है। महीनों में प्रथम श्रावण है। पक्षों में प्रथम कृष्णपक्ष है। अहोरात्र | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र |
Hindi | 4 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं एगाए वइरामईए जगईए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते।
सा णं जगई अट्ठ जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले बारस जोयणाइं विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाइं विक्खंभेणं, उवरिं चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं, मूले विच्छिण्णा, मज्झे संक्खित्ता, उवरिं तनुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
सा णं जगई एगेणं महंतगवक्खकडएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। से णं गवक्खकडए अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं पंच धनुसयाइं विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे।
तीसे Translated Sutra: वह एक वज्रमय जगती द्वारा सब ओर से वेष्टित है। वह जगती आठ योजन ऊंची है। मूल में बारह योजन चौड़ी, बीच में आठ योजन चौड़ी और ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त तथा ऊपर पतली है। उस का आकार गाय की पूँछ जैसा है। यह सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई सी – तरासी हुई – सी, रजरहित, मैल – रहित, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र |
Hindi | 6 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं वनसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते, से जहानामए–आलिंगपुक्खरेइ वा जाव नानाविह-पंचवण्णेहिं मणीहि य तणेहि य उवसोभिए, तं जहा–किण्हेहिं जाव सुक्किलेहिं। एवं वण्णो गंधो फासो सद्दो पुक्खरिणीओ पव्वयगा घरगा मंडवगा पुढविसिलावट्टया य नेयव्वा।
तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठंति निसीयंति तुयट्टंति रमंति ललंति कीलंति मोहंति, पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणाणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चनुभवमाणा विहरंति।
तीसे णं जगईए उप्पिं पउमवरवेइयाए अंतो एत्थ णं महं एगे वनसंडे पन्नत्ते–देसूनाइं Translated Sutra: उस वन – खंड में एक अत्यन्त समतल रमणीय भूमिभाग है। वह आलिंग – पुष्कर – धर्म – पुट, समतल और सुन्दर है। यावत् बहुविध पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है। कृष्ण आदि उनके अपने – अपने विशेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द हैं। वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मंड़प, पृथ्वी – शिलापट्ट हैं। वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव एवं देवियाँ | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र |
Hindi | 11 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भरहे नामं वासे पन्नत्ते?
गोयमा! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुद्दस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे नामं वासे पन्नत्ते– खाणुबहुले कंटकबहुले विसमबहुले दुग्गबहुले पव्वयबहुले पवायबहुले उज्झरबहुले निज्झरबहुले खुड्डाबहुले दरिबहुले नदीबहुले दहबहुले रुक्खबहुले गुच्छबहुले गुम्मबहुले लयाबहुले वल्लीबहुले अडवीबहुले सावयबहुये तेनबहुले तक्करबहुले डिंबबहुले डमरबहुले दुब्भिक्खबहुले दुक्कालबहुले पासंडबहुले किवणबहुले वणीमगबहुले Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष – क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! चुल्ल हिमवंत पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमवर्ती लवणसमुद्र के पूर्व में है। इसमें स्थाणुओं, काँटों, ऊंची – नीची भूमि, दुर्गमस्थानों, पर्वतों, प्रपातों, अवझरों, निर्झरों, | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार १ भरतक्षेत्र |
Hindi | 12 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे भरहे नामं वासे पन्नत्ते? गोयमा! वेयड्ढस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुद्दस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धभरहे नामं वासे पन्नत्ते– पाईणपडीणायए उदीण-दाहिणविच्छिन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए तिहा लवणसमुद्दं पुट्ठे, गंगासिंधूहिं महानईहिं तिभागपविभत्ते दोन्नि अट्ठतीसे जोयणसए तिन्नि य एगूनवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं।
तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुद्दं पुट्ठा– पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवणसमुद्दं पुट्ठा, Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! वैताढ्यपर्वत के दक्षिण में, दक्षिण – लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्व – लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिम – लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत है। वह पूर्व – पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर – दक्षिण में चौड़ा है। यह अर्द्ध – चन्द्र – संस्थान |