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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 242 | View Detail | ||
Mool Sutra: (ख) उत्तमक्षमामार्दवार्जव-सत्यशौचं च संयमः चैव।
तपस्त्यागं आकिंचन्य, ब्रह्म इति दशविधः धर्मंः ।। Translated Sutra: उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इस प्रकार धर्म दशविध कहा गया है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 243 | View Detail | ||
Mool Sutra: अन्तस्तत्त्व विशुद्धात्मा, बहिस्तत्त्वं दयांगिषु।
द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्द्वितीयमाश्रयेत् ।। Translated Sutra: अन्तस्तत्त्व रूप समतास्वभावी विशुद्धात्मा तो साध्य है और प्राणियों की दया आदि बहिस्तत्त्व उसके साधन हैं। दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है। इसलिए अपरम भावी को धर्म के इन विविध अंगों का आश्रय अवश्य लेना चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 244 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलम्।
क्षान्ति निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तयं दुष्प्रघर्षिकम् ।। Translated Sutra: श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गुप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 245 | View Detail | ||
Mool Sutra: दानं पूजा शीलं, उपवासः बहुविधमपि क्षपणमपि।
सम्यक्त्वयुक्तं मोक्षसुखं, सम्यक्त्वेन विना दीर्घसंसारे ।। Translated Sutra: दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास अनेक प्रकार के व्रत और मुनि लिंग आदि सब एक सम्यग्दर्शन होने पर तो मोक्ष-सुख के कारण हैं और सम्यक्त्व के बिना दीर्घ-संसार के कारण हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 246 | View Detail | ||
Mool Sutra: यद्यत्स्वानिष्टं, तत्तद्वाक्चित्तकर्म्मभिः कार्यम्।
स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिंगम् ।। Translated Sutra: धर्म का यह सर्व प्रधान लिंग है कि जो जो कार्य अपने को अनिष्ट हो, वह दूसरों के प्रति मन से या वचन से या शरीर से स्वप्न में भी न करे। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 247 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्विविधं संयमचरणं, सागारं तथा भवेत् निरागारम्।
सागारं सग्रन्थे, परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम् ।। Translated Sutra: संयमचरण या धर्म दो प्रकार का है-सागार व अनगार। सागार धर्म परिग्रह-युक्त गृहस्थों को होता है और अनगार धर्म परिग्रह-रहित साधुओं को। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
2. सागार (श्रावक) सूत्र | Hindi | 248 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुण्डो यावत् प्रव्रजितुम्। अहं खलु देवानुप्रियाणामन्तिके पंचाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रतिपत्स्ये। Translated Sutra: जो व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर अपने को अनगार धर्म के लिए समर्थ नहीं समझता है, वह पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ऐसे द्वादश व्रतों वाले गृहस्थधर्म को अंगीकार करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 249 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रमण इति संयत इति च, ऋषिर्मुनिः साधु इति वीतराग इति।
नामानि सुविहितानां, अनगारो भदन्तः दान्तो यतिः ।। Translated Sutra: श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति, ये सब नाम एकार्थवाची हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 250 | View Detail | ||
Mool Sutra: सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणिः।
क्षिति-उरगाम्बर सदा, परमपद-विमार्गणा साधुः ।। Translated Sutra: सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४. मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुँज, १२. क्षितिवत् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 251 | View Detail | ||
Mool Sutra: न बलायुः स्वादार्थं, न शरीरस्योपचयार्थं तेजोऽर्थं।
ज्ञानार्थं संयमार्थं, ध्यानार्थं चेव भुंजीत ।। Translated Sutra: साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 252 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम्।
न च पुष्पं क्लामयति, स च प्रीणाति आत्मानम् ।। Translated Sutra: जैसे भ्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किन्तु फूल को किसी प्रकार की भी क्षति पहुँचने नहीं देता, उसी प्रकार साधु भिक्षा-वृत्ति से इस प्रकार अपना निर्वाह करता है जिससे गृहस्थों पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 253 | View Detail | ||
Mool Sutra: अपि सूर्पिकं वा शुष्कं वा, शीतपिण्डे पुराणकुष्माषं।
अथ बुक्कसं पुलाकं वा, लब्धे पिण्डं अलब्धेः द्रविकः ।। Translated Sutra: भिक्षा में प्राप्त भोजन में चाहे घी चूता हो, अथवा रूखा सूखा व ठण्डा हो, वह पुराने उड़दों का हो, अथवा धान्य जौ आदि का बना हो, साधु सबको समान भाव से ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त भिक्षा में आहार मिले या न मिले, वे दोनों में समान रहते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 254 | View Detail | ||
Mool Sutra: वासीचन्दनसमानकल्पः, समतृणमणिमुक्तालोष्ठकांचनः।
समश्च मानापमानयोः शमितरजस्कः शमितरागद्वेषः ।। Translated Sutra: कोई कुल्हाड़ी से उनके शरीर को चीर दे अथवा चन्दन से लिप्त कर दे, दोनों के प्रति वे समभाव रखते हैं। इसी प्रकार तृण व मणि में, लोहे व सोने में तथा मान व अपमान में सदा सम रहते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 255 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु, यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः।
तस्य तु निर्वृत्तिर्भक्तिर्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 256 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकापि सा समर्था, जिनभक्तिः दुर्गतिं निवारयितुम्।
पुण्यान्यपि पूरयितुं, आसिद्धिः परम्परासुखानाम् ।। Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 257 | View Detail | ||
Mool Sutra: आह गुरु पूजायां, कायवधः भवत्येव यद्यपि जिनानाम्।
तथापि सा कर्तव्या, परिणामविशुद्धिहेतुत्वात् ।। Translated Sutra: यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 258 | View Detail | ||
Mool Sutra: आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी, ज्ञानी चेतिचतुर्विधाः।
उपासकास्त्रयस्तत्र, धन्या वस्तुविशेषतः ।। Translated Sutra: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में से प्रथम तीन वस्तु की विशेषता के कारण धन्य हैं। परन्तु जिसके मोह व क्षोभ आदि समस्त विक्षेप शान्त हो गये हैं, जो सम्यग्दृष्टि तथा अन्तरात्मा का भर्ता है, जिसका संसार अति निकट रह गया है, ऐसा ज्ञानी तो अपनी तत्त्वनिष्ठारूप नित्य-भक्ति के कारण ही विशेषता | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 259 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्तिर्विशिष्यते।
अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ।। Translated Sutra: कृपया देखें २५८; संदर्भ २५८-२५९ | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
5. गुरु-उपासना | Hindi | 260 | View Detail | ||
Mool Sutra: ये केचिदपि उपदेशाः, इह-परलोके सुखावहाः सन्ति।
विनयेन गुरुजनेभ्यः, सर्वान् प्राप्नुवन्ति ते पुरुषाः ।। Translated Sutra: इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
5. गुरु-उपासना | Hindi | 261 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्यात् खलु स पावको न दहेत्,
आशीविषो वा कुपितो न भक्षेत्।
स्यात् विषं हलाहलं न मारयेत्,
न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ।। Translated Sutra: यह कदाचित् सम्भव है कि अग्नि जलाना छोड़ दे, अथवा कुपित दृष्टिविष सर्प भी डंक न मारे, अथवा हलाहल विष खा लेने पर भी वह व्यक्ति को न मारे, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि गुरु-निन्दक को मोक्ष प्राप्त हो जाय। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
6. दया-सूत्र | Hindi | 262 | View Detail | ||
Mool Sutra: तृषितं वा बुभुक्षितं वा,
दुःखितं वा दृष्ट्वा यो हि दुःखितमनाः।
प्रतिपद्यते तं कृपया,
तस्येषा भवति अनुकम्पा ।। Translated Sutra: भूखे, प्यासे अथवा किसी दुःखी प्राणी को देखकर जिसका मन दुःखी हो गया है, ऐसा जो मनुष्य उसकी कृपा-बुद्धि से रक्षा व सेवा करता है, उसको अनुकम्पा होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
6. दया-सूत्र | Hindi | 263 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा ते न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वेवमेव सर्वजीवानाम्।
सर्वादरेणोपयुक्तं, आत्मौपम्येन कुरु दयाम् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को नहीं है, ऐसा जानकर अत्यन्त आदरभाव से सब जीवों को अपने समान समझकर उनपर दया करो। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
7. दान-सूत्र | Hindi | 264 | View Detail | ||
Mool Sutra: तावत् भुज्यतां लक्ष्मीः, दीयतां दानं दयाप्रधानेन।
या जलतरंगचपला, द्वित्रिदिनानि तिष्ठति ।। Translated Sutra: यह लक्ष्मी जल की तरंगों की भाँति अति चंचल है। दो तीन दिन मात्र ठहरने वाली है। इसलिए जब तक यह आपके पास है, तब तक इसे आवश्यकतानुसार भोगो और साथ-साथ दयाभाव सहित दान में भी खर्च करो। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
7. दान-सूत्र | Hindi | 265 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो मुनिः भुक्तावशेषं भुंजति सो भुंजते जिनोपदिष्टम्।
संसारसारसौख्यं, क्रमशः निर्वाणवरसौख्यम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
8. यज्ञ-सूत्र | Hindi | 266 | View Detail | ||
Mool Sutra: तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिस्थानं,
योगाः स्रुवः शरीरं करीषांगम्।
कर्मैधाः संयमयोगाः शान्तिः,
होमेन जुहोम्यृषीणां प्रशस्तेन ।। Translated Sutra: तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग स्रुवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्तिपाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से मैं अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) | Hindi | 267 | View Detail | ||
Mool Sutra: तथा रोषेण स्वयं, पूर्वमेव दह्यते हि कलकलेनैव।
अन्यस्य पुनः दुक्खं, कुर्यात् रुष्टो च न कुर्यात् ।। Translated Sutra: तप्त लौहपिण्ड के समान क्रोधी मनुष्य पहले स्वयं सन्तप्त होता है। तदनन्तर वह दूसरे पुरुष को रुष्ट कर सकेगा या नहीं, यह कोई निश्चित नहीं। नियमपूर्वक किसीको दुखी करना उसके हाथ में नहीं है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) | Hindi | 268 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्रोधेन यः न तप्यते, सुरनरतिर्यग्भिः क्रियमाणे अपि।
उपसर्गेऽपि रौद्रे, तस्य क्षमा निर्मला भवति ।। Translated Sutra: देव मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) | Hindi | 269 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्षमयामि सर्वान् जीवान्, सर्वे जीवाः क्षमन्ताम् माम्।
मैत्री मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनचित् ।। Translated Sutra: मैं समस्त जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव भी मुझे क्षमा करें। सबके प्रति मेरा मैत्रीभाव है। आजसे मेरा किसी के साथ कोई वैर-विरोध नहीं है। (इत्याकारक हृदय की जागृति उत्तम क्षमा है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) | Hindi | 270 | View Detail | ||
Mool Sutra: कुलरूपजातिबुद्धिषु, तपश्रुतशीलेषु गर्वं किंचित्।
यः नैव करोति श्रमणः, मार्दवधर्मं भवेत् तस्य ।। Translated Sutra: आठ प्रकार के मद लोक में प्रसिद्ध हैं-कुल रूप व जाति का मद, ज्ञान तप व चारित्र का मद, धन व बल का मद। जो श्रमण आठों ही प्रकार का किंचित् भी मद नहीं करता है, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) | Hindi | 271 | View Detail | ||
Mool Sutra: योऽपमानकरणं दोषं, परिहरति नित्यमायुक्तः।
सो नाम भवति मानी, न गुणत्यक्तेन मानेन ।। Translated Sutra: जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है, वही सच्चा मानी है। परन्तु गुणरहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं कहा जा सकता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) | Hindi | 272 | View Detail | ||
Mool Sutra: सोऽसकृदुच्चैर्गोत्रे असकृन्नीचैर्गोत्रे,
नो हीनः नोऽप्यतिरिक्तः।
न स्पृहयेत् इति संख्याय,
को गोत्रवादी को मानवादी ।। Translated Sutra: | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
11. उत्तम आर्जव (सरलता) | Hindi | 273 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत्तस्य ।। Translated Sutra: जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
11. उत्तम आर्जव (सरलता) | Hindi | 274 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा बालो जल्पन्, कार्यमकार्यं च ऋजुकं भणति।
तत्तथाऽऽलोचयेन्मायामद-विप्रमुक्त एव ।। Translated Sutra: जिस प्रकार बालक बोलता हुआ कार्य व अकार्य को सरलता से कह देता है, उसी प्रकार सरलता से अपने दोषों की आलोचना करनेवाला साधु माया व मद से मुक्त होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
12. उत्तम शौच (सन्तोष) | Hindi | 275 | View Detail | ||
Mool Sutra: किं ब्राह्मणा ज्योतिः समारभमाणाः,
उदकेन शुद्धिं बाह्यां विमार्गयथ।
यां मार्गयथ बाह्यं विशुद्धिं,
न तत् स्विष्टं कुशला वदन्ति ।। Translated Sutra: हे ब्राह्मणो! तुम लोग यज्ञ में अग्नि का आरम्भ तथा जल द्वारा बाह्य शुद्धि की गवेषणा क्यों करते हो? कुशल पुरुष केवल इस बाह्य शुद्धि को अच्छा नहीं समझता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
12. उत्तम शौच (सन्तोष) | Hindi | 276 | View Detail | ||
Mool Sutra: समसन्तोषजलेन, यः धोवति तीव्रलोभमलपुंजम्।
भोजनगृद्धिविहीनः, तस्य शौचं भवेत् विमलम् ।। Translated Sutra: जो मुनि समताभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पुंज को धोता है, तथा भोजन में गृद्ध नहीं होता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
12. उत्तम शौच (सन्तोष) | Hindi | 277 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा लाभः तथा लोभः, लोभाल्लोभः प्रवर्धते।
द्विमाषकृतं कार्यं, कोट्या अपि न निष्ठितम् ।। Translated Sutra: ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
12. उत्तम शौच (सन्तोष) | Hindi | 278 | View Detail | ||
Mool Sutra: न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः,
अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः।
मेधाविनः लोभभयादतीताः,
संतोषिणो नो प्रकुर्वन्ति पापम् ।। Translated Sutra: अज्ञानी जन कितना भी प्रयत्न करें, वे कर्म को कर्म से नहीं खपा सकते। धीर पुरुष ही अकर्म से कर्म को खपाते हैं। कामना और भय से अतीत होकर यथालाभ सन्तुष्ट रहनेवाला योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। सत्य, संयम, तप व ब्रह्मचर्य धर्म के लिए दे. अधि. ८-९ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 279 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानं सर्वान्भावान्, प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा।
तस्मात् प्रत्याख्यानं, ज्ञानं नियमात् मन्तव्यम् ।। Translated Sutra: अपने से अतिरिक्त सभी पदार्थों को `ये मुझसे पर हैं' ऐसा जानकर, ज्ञान ही प्रत्याख्यान करता है, इसलिए ज्ञान या आत्मा ही स्वयं स्वभाव से प्रत्याख्यान या त्याग स्वरूप है, ऐसा जानना चाहिए। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 280 | View Detail | ||
Mool Sutra: विषयान् साधकः पूर्वमनिष्टत्वधिया त्यजेत्।
न त्यजेन्न च गृह्णीयात्, सिद्धो विन्द्यात् स तत्त्वतः ।। Translated Sutra: यद्यपि अपरम भाव वाली अपनी पूर्व भूमिका में साधक विषयों को अनिष्ट जानकर उनका त्याग अवश्य करता है और उसे ऐसा करना भी चाहिए, परन्तु परमार्थ भूमि के हस्तगत हो जाने के कारण ज्ञानी तो तत्त्वतः सिद्ध व मुक्त ही है। इसलिए वह न तो कुछ त्याग करता है, न ग्रहण। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 281 | View Detail | ||
Mool Sutra: निर्वेगत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु।
यः तस्य भवेत् त्यागः, इति कथितं जिनवरेन्द्रैः ।। Translated Sutra: जो जीव पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन हो जाता है, उसको त्यागधर्म होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 282 | View Detail | ||
Mool Sutra: यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धानपि पृष्ठीकरोति।
स्वाधीनान्स्त्यजति भोगान्, स खलु त्यागीत्युच्यते ।। Translated Sutra: अपने को प्रिय लगनेवाले भोग प्राप्त हो जाने पर भी जो उनके प्रति हर प्रकार पीठ दिखाकर चलता है, और स्वतंत्र रूप से उनका त्याग कर देता है, (अर्थात् उन पदार्थों की आवश्यकता ही उसे अपने जीवन में प्रतीत नहीं होती है) वही सच्चा त्यागी है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) | Hindi | 283 | View Detail | ||
Mool Sutra: भूत्वा च निःसंगो, निजभावं निःगृह्णातु सुख-दुःखम्।
निर्द्वन्देन तु वर्तते, अनगारस्तस्य किंचन न हि ।। Translated Sutra: जो मुनि सभी प्रकार के परिग्रह या मूर्च्छा से रहित होकर और सुख व दुःख दायक कर्म-जनित निज भावों को रोककर निश्चिन्तता पूर्वक आचरण करता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) | Hindi | 284 | View Detail | ||
Mool Sutra: अहमेकः खलु शुद्धो, दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी।
नैवास्ति मम् किंचिद्प्यन्यत् परमाणुमात्रमपि ।। Translated Sutra: तत्त्वतः मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ और सदा अरूपी हूँ। मेरे सिवाय अन्य कुछ परमाणु मात्र भी यहाँ मेरा नहीं है। १. [दर्शन ज्ञान युक्त यह शाश्वत आत्मा ही मेरा है। इसके अतिरिक्त अन्य सर्व बाह्याभ्यन्तर पदार्थ संयोगज होने के कारण स्वरूपतः मुझसे भिन्न हैं।] २. [जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इस प्रकार निश्चित | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) | Hindi | 285 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुखं वसामो जीवामः, येषां नो नास्ति किंचन।
मिथिलायां दह्यमानायां, न मे दह्यते किंचन ।। Translated Sutra: मैं सुखपूर्वक रहता हूँ और सुखपूर्वक जीता हूँ। मिथिला नगरी में मेरा कुछ भी नहीं है। इसलिए इन महलों के जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता है। (राजा जनक का यह भाव ही आकिंचन्य धर्म है।) | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 286 | View Detail | ||
Mool Sutra: आदिनिधनेन हीनः, प्रकृतिस्वरूपेण एष संजातः।
जीवाजीवसमृद्धः, सर्वज्ञावलोकितः लोकः ।। Translated Sutra: सर्वज्ञ भगवान से अवलोकित यह लोक अनाद्यनन्त, स्वतः सिद्ध और जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है। (यह तीन भागों में विभाजित है-अधो, मध्य व ऊर्ध्व है। अधोलोक में नारकीयों का, मध्य में मनुष्य व तिर्यंचों का तथा ऊर्ध्वलोक में देवों का वास है।) | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 287 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मः अधर्मः आकाशः, कालः पुद्गलाः जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तो, जिनैर्वरदर्शिभिः ।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 288 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाः पुद्गलकायाः, आकाशमस्तिकायौ शेषौ।
अमया अस्तित्वमयाः, कारणभूता हि लोकस्य ।। Translated Sutra: इन छह द्रव्यों में से जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म व अधर्म इन पाँच को सिद्धान्त में `अस्तिकाय' संज्ञा प्रदान की गयी है। काल द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी हैं, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण हैं। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 289 | View Detail | ||
Mool Sutra: कर्ता, भोक्ता अमूर्त्तः, शरीरमात्रः अनादिनिधनः च।
दर्शनज्ञानोपयोगः, जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः ।। Translated Sutra: जीव या आत्मा आकाशवत् अमूर्तीक है और (देह में रहता हुआ) देह-प्रमाण है। यह अनादि निधन अर्थात् स्वतः सिद्ध है। ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग ही उसका प्रधान लक्षण है। (देहधारी) वह अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है तथा उनके सुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता भी है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 290 | View Detail | ||
Mool Sutra: अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीहि अलिंगग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।। Translated Sutra: [जीव द्रव्य इतना निर्विकल्प है कि नेति का आश्रय लिये बिना उसका कथन किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है] वह अरस है, अरूप है, अगन्ध है, अव्यक्त है, अशब्द है तथा अनुमान ज्ञान का विषय न होने से मन-वाणी के अगोचर है। वह न तिकोन है, न चौकोर आदि अन्य किसी संस्थान वाला। (वह अबद्ध है, अस्पृष्ट है, अनन्य व अविशेष है।) चेतना मात्र ही उसका | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 291 | View Detail | ||
Mool Sutra: सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते।
मतिस्तत्र न ग्राहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः ।। Translated Sutra: (शास्त्र केवल मनुष्यादिक व्यवहारिक जीवों का ही विस्तार करने वाले हैं। इन सर्व विकल्पों से अतीत) मुक्तात्मा का स्वरूप बतलाने में सभी शब्द निवृत्त हो जाते हैं, तर्क वहाँ तक पहुँच नहीं पाता, और बुद्धि की उसमें गति नहीं। वह मात्र चिज्ज्योति स्वरूप है। |