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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 14 | View Detail | ||
Mool Sutra: मिथ्यात्वं विदन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति।
न च धर्मं रोचते हि, मधुरं रसं यथा ज्वरितः ।। Translated Sutra: मिथ्यात्व या अज्ञाननामक कर्म का अनुभव करनेवाला जीव (स्वभाव से ही) विपरीत श्रद्धानी होता है। जिस प्रकार ज्वरयुक्त मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता, उसी प्रकार उसे कल्याणकर धर्म भी नहीं रुचता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 15 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रद्धाति च प्रत्येति च रोचयति, च तथा पुनश्च स्पृशति।
धर्मं भोगनिमित्तं, न तु स कर्मक्षयनिमित्तं ।। Translated Sutra: (और यदि कदाचित्) वह धर्म की श्रद्धा, रुचि या प्रतीति करे भी और उसका कुछ स्पर्श करे भी, तो (तत्त्वज्ञान के अभाव के कारण) उसके लिए वह केवल भोग-निमित्तक ही होता है, कर्म-क्षय-निमित्तक नहीं। वह सदा मनुष्यादिरूप देहाध्यासस्थ व्यवहार में मूढ़ बना रहता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 16 | View Detail | ||
Mool Sutra: हस्तागता इमे कामाः, कालिता ये अनागताः।
को जानाति परं लोकं, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ।। Translated Sutra: उसकी विषयासक्त बुद्धि के अनुसार वर्तमान के काम-भोग तो हस्तगत हैं और भूत व भविष्यत् के अत्यन्त परोक्ष। परलोक किसने देखा है? कौन जानता है कि वह है भी या नहीं? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
8. दैत्यराज मिथ्यात्व (अविद्या) | Hindi | 17 | View Detail | ||
Mool Sutra: इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम्।
तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमाद्येत् ।। Translated Sutra: `यह वस्तु तो मेरे पास है और यह नहीं है। यह काम तो मैंने कर लिया है और यह अभी करना शेष है।' इस प्रकार के विकल्पों से लालायित उसको काल हर लेता है। कौन कैसे प्रमाद करे? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
9. लेने गये फूल, हाथ लगे शूल | Hindi | 18 | View Detail | ||
Mool Sutra: भोगामिषदोषविषण्णः हितनिःश्रेयसबुद्धित्यक्तार्थः।
बालश्च मन्दकः मूढः, बध्यते मक्षिका इव श्लेष्मणि ।। Translated Sutra: भोगरूपी दोष में लिप्त व आसक्त होने के कारण, हित व निःश्रेयस (मोक्ष) की बुद्धि का त्याग कर देनेवाला, आलसी, मूर्ख व मिथ्यादृष्टि ज्यों-ज्यों संसार से छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों कफ में पड़ी मक्खी की भाँति अधिकाधिक फँसता जाता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग) |
1. सम्यक् योग-रत्नत्रय | Hindi | 19 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनसा वचसा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्य-परिणामः।
जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिनैर्निर्दिष्टः ।। Translated Sutra: मन वचन व काय से युक्त जीव का वीर्य-परिणाम रूप प्रणियोग, `योग' कहलाता है। (अर्थात् जीव का मानसिक, वाचिक व कायिक हर प्रकार का प्रयत्न या पुरुषार्थ योग शब्द का वाच्य है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग) |
1. सम्यक् योग-रत्नत्रय | Hindi | 20 | View Detail | ||
Mool Sutra: चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो, योगस्तस्य च कारणम्।
ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ।। Translated Sutra: धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ ही प्रधान है। योग उसका कारण है। ज्ञान, श्रद्धान व चारित्ररूप रत्नत्रय उसका स्वरूप है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
1. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय | Hindi | 27 | View Detail | ||
Mool Sutra: व्यवहारेणुपदिश्यते, ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्।
नापि ज्ञानं न चरित्रं, न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।। Translated Sutra: अभेद-रत्नत्रय में स्थित ज्ञानी के चरित्र है, दर्शन है या ज्ञान है, यह बात भेदोपचार (विश्लेषण) सूचक व्यवहार से ही कही जाती है। वास्तव में उस अखण्ड तत्त्व में न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है। वह ज्ञानी तो ज्ञायक मात्र है। प्रश्न : विश्लेषणकारी इस व्यवहार का कथन करने की आवश्यकता ही क्या है? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
1. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय | Hindi | 28 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम्।
तथा व्यवहारेण विना, परमार्थोपदेशनमशक्यम् ।। Translated Sutra: उत्तर : जिस प्रकार म्लेच्छ जनों को म्लेच्छ भाषा के बिना कुछ भी समझाना शक्य नहीं है, उसी प्रकार तत्त्वमूढ साधारण जन को व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना शक्य नहीं है। (अर्थात् विश्लेषण किये बिना प्राथमिक जनों को अद्वैत तत्त्व का परिचय कराना शक्य नहीं है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
1. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय | Hindi | 29 | View Detail | ||
Mool Sutra: व्यवहारोऽभूतार्थो, भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः।
भूतार्थमाश्रितः खलु, सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ।। Translated Sutra: विश्लेषणकृत यह भेदोपचारी व्यवहार यद्यपि अभूतार्थ व असत्यार्थ है, और एकमात्र शुद्ध या निश्चय नय ही भूतार्थ है, जिसके आश्रय से जीव वास्तव में सम्यग्दृष्टि होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
1. निश्चय-व्यवहार ज्ञान समन्वय | Hindi | 30 | View Detail | ||
Mool Sutra: शुद्धः शुद्धादेशो, ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः।
व्यवहारदेशिता पुनर्ये, त्वपरमे स्थिता भावे ।। Translated Sutra: (तदपि व्यवहार प्रयोजनीय है, क्योंकि) परमभावदर्शियों ने शुद्ध तत्त्व का आदेश चरम-भूमि में स्थित शुद्ध तत्त्वज्ञानी के लिए किया है, और व्यवहार का आदेश अपरमभावरूप निम्न भूमियों में स्थित साधक के लिए किया गया है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
2. निश्चय-व्यवहार चारित्र समन्वय | Hindi | 36 | View Detail | ||
Mool Sutra: आलोचनादिक्रियाः, यद्विषकुम्भ इति शुद्धचरितस्य।
भणितमिह समयसारे, तज्जानीहि श्रुतेणार्थेन ।। Translated Sutra: आलोचना, प्रतिक्रमण आदि व्यावहारिक क्रियाओं को समयसार (ग्रन्थ की गाथा ३०६) में शुद्ध चारित्रवान् के लिए विषकुम्भ कहा है। उसे राग की अपेक्षा ही विष-कुम्भ कहा है, ऐसा भावार्थ भी शास्त्र से जान लेना चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
4. परम्परा-मुक्ति | Hindi | 40 | View Detail | ||
Mool Sutra: विविग्धि कर्मणो हेतुं, यशः संचिनु क्षान्त्या।
पार्थिवं शरीरं हित्वा, ऊर्ध्वां प्रक्रामति दिशम् ।। Translated Sutra: धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु (मिथ्यात्व, अविरति) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। (काल पूर्ण होने पर वहाँ से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
4. परम्परा-मुक्ति | Hindi | 41 | View Detail | ||
Mool Sutra: भुक्त्वा मानुष्कान्भोगान्, अप्रतिरूपाण्यथायुषम्।
पूर्वं विशुद्धसद्धर्मा, केवलं बोधिं बुद्धवा ।। Translated Sutra: कृपया देखें ४०; संदर्भ ४०-४२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
3. समन्वय अधिकार - (समन्वय योग) |
4. परम्परा-मुक्ति | Hindi | 42 | View Detail | ||
Mool Sutra: चतुरंगं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयमं प्रतिपद्य।
तपसाधूतकर्मांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः ।। Translated Sutra: कृपया देखें ४०; संदर्भ ४०-४२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
1. तत्त्व-निर्देश | Hindi | 312 | View Detail | ||
Mool Sutra: अतः शुद्धनयायत्तं, प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्।
नवतत्त्वगतत्वेऽपि, यदेकत्वं न मुञ्चति ।। Translated Sutra: परन्तु निश्चय या शुद्ध दृष्टि से देखने पर तो (दो तत्त्वों को भी कहीं अवकाश नहीं) एकमात्र आत्म-ज्योति ही चकचकाती है, जो इन नव तत्त्वों में धर्मीरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 313 | View Detail | ||
Mool Sutra: आकाशकालपुद्गल-धर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ।। Translated Sutra: (पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से) आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य जीव-प्रधान चेतन गुण से व्यतिरिक्त होने के कारण अजीव हैं, और जीव द्रव्य चेतन है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 314 | View Detail | ||
Mool Sutra: उत्तमगुणानां धामं, सर्वद्रव्याणां उत्तमं द्रव्यम्।
तत्त्वानां परं तत्त्वं, जीवं जानीयात् निश्चयतः ।। Translated Sutra: ज्ञान दर्शन आनन्द आदि उत्तमोत्तम गुणों का धाम होने से `जीव' छहों द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और नौ तत्त्वों में सर्वोत्तम या सर्वप्रधान है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 315 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवादि बहिस्त्त्वं, हेयमुपादेयमात्मनो ह्यात्मा।
कर्मोपाधिसमुद्भव-गुणपर्यायैर्व्यतिरिक्तः ।। Translated Sutra: [भले इस जीवकी तात्त्विक व्यवस्था समझाने के लिए पूर्वोक्त प्रकार व्यवहार से नौ तत्त्वों का विवेचन किया गया हो, परन्तु निश्चय से तो पर्याय-प्रधान होने के कारण] जीवादि नौ तत्त्व आत्मा से बाह्य हैं। कर्मों की उपाधि से उत्पन्न होने वाले समस्त व्यावहारिक गुणों व पर्यायों से व्यतिरिक्त, एक मात्र शुद्धात्म-तत्त्व | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 316 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागद्वेषप्रमत्तं, इंद्रियवशगः करोति कर्माणि।
आस्रवद्वारैरविगूहि - तैस्त्रिविधेन करणेन ।। Translated Sutra: राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वश होकर मन, वचन व काय इन तीन करणों के द्वारा सदा कर्म करता रहता है। कर्मों का यह आगमन ही `आस्रव' शब्द का वाच्य है, जिसके अनेक द्वार हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 317 | View Detail | ||
Mool Sutra: इन्द्रियकषायाव्रतयोगाः, पंचचतुः पंचत्रिकृताः।
क्रियाः पंचविंशतिः, इमास्ताः अनुक्रमशः ।। Translated Sutra: पाँच इन्द्रिय, क्रोधादि चार कषाय, हिंसा, असत्य आदि पाँच अव्रत तथा पचीस प्रकार की सावद्य क्रियाएँ, ये सब आस्रव के द्वार हैं। इनके कारण ही जीव कर्मों का संचय करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 318 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रवद्वारैः सदा, हिंसादिकैः कर्ममास्रवति।
यथा नावो विनाशश्छिद्रैरुदधिमध्ये जलमास्रवन्त्याः ।। Translated Sutra: हिंसादिक इन आस्रव-द्वारों के मार्ग से जीव के चित्त में कर्मों का प्रवेश इसी प्रकार होता रहता है, जिस प्रकार समुद्र में सछिद्र नौका जल-प्रवेश के कारण नष्ट हो जाती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
1. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) | Hindi | 43 | View Detail | ||
Mool Sutra: भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च।
आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ।। Translated Sutra: भूतार्थनय से जाने गये जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध-मोक्ष ये नव तत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। (आत्मनिष्ठ सम्यग्दृष्टि है और पर्याय-निष्ठ मिथ्या-दृष्टि।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
1. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) | Hindi | 44 | View Detail | ||
Mool Sutra: यन्मौनं तत्सम्यक् यत्सम्यक् तदिह भवति मौनमिति।
निश्चयतः इतरस्य तु सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि ।। Translated Sutra: परमार्थतः मौन ही सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व ही मौन है। तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणवाला व्यवहार सम्यक्त्व इसका हेतु है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
2. सम्यग्दर्शन की सर्वोपरि प्रधानता | Hindi | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: दर्शनभ्रष्टो भ्रष्टः, भ्रष्टदर्शनस्य नास्ति निर्वाणम्।
सिद्ध्यन्ति चरणरहिता, दर्शनरहिता न सिद्ध्यन्ति ।। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति ही वास्तव में भ्रष्ट है, क्योंकि दर्शनभ्रष्ट को तीन काल में भी निर्वाण सम्भव नहीं। चारित्रहीन तो कदाचित् सिद्ध हो भी जाते हैं, परन्तु दर्शनहीन कभी भी सिद्ध नहीं होते। १. (सम्यक्त्वविहीन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान निरा शाब्दिक होता है। अर्थज्ञान-शून्य होने के कारण वह आराधना को | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 64 | View Detail | ||
Mool Sutra: न सत्कृतमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम्?
सः संयतः सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः ।। Translated Sutra: जो सत्कार तथा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करता, नमस्कार तथा वन्दना आदि की भावना नहीं करता, उसके लिए प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही कहाँ? वह संयत है, सुव्रत है, तपस्वी है, आत्म-गवेषक है और वही भिक्षु है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 65 | View Detail | ||
Mool Sutra: तेषामपि तपो न शुद्धं, निष्क्रान्ता ये महाकुलाः।
यन्नैवाऽन्ये विजानन्ति, न श्लोकं प्रवेदयेत् ।। Translated Sutra: उनका तप शुद्ध नहीं है जो इक्ष्वाकु आदि बड़े कुलों में उत्पन्न होकर दीक्षित होने के कारण अभिमान करते हैं और लोक-सम्मान के लिए तप करते हैं। अतएव साधु को ऐसा तप करना चाहिए कि दूसरों को उसका पता ही न चले, जिसमें इहलोक व परलोक की आशंसा न हो। उसे अपनी प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 66 | View Detail | ||
Mool Sutra: घोटकलिंडसमानस्य, तस्याभ्यन्तरे कुथितस्य।
बाह्यकरणं किं तस्य, करिष्यति वकनिभृतकरणस्य ।। Translated Sutra: बगुले की चेष्टा के समान अन्तरंग में जो कषाय से मलिन है, ऐसे साधु की बाह्य क्रिया किस काम की? वह तो घोड़े की लीद के समान है, जो ऊपर से चिकनी और भीतर से दुर्गन्धयुक्त होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 67 | View Detail | ||
Mool Sutra: गुणैः साधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधूगुणान् मुञ्च असाधून्।
विज्ञाय आत्मानमात्मना, यो रागद्वेषयोः समः स पूज्यः ।। Translated Sutra: गुणों से ही (मनुष्य) साधु होता है और दुर्गुणों से असाधु। अतः सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो आत्मा द्वारा आत्मा को जानकर राग-द्वेष दोनों में सम रहता है, वही पूज्य है। (झूठी प्रशंसा पानेवाला दम्भाचारी नहीं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 68 | View Detail | ||
Mool Sutra: तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं, किं पुनः तिष्ठसि तीरमागतः।
अभित्वर पारं गन्तुम्, समयं गौतम! मा प्रमादये ।। Translated Sutra: तू इस विशाल संसार-सागर को तैर चुका है। (गोखुर में डूबने की भाँति) अब किनारा हाथ आ जाने पर भी (झूठी मान-प्रतिष्ठा मात्र के लिए) क्यों अटक रहा है? शीघ्र पार हो जा। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
11. स्थितिकरणत्व (ज्ञानयोग व्यवस्थिति) | Hindi | 69 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत्रैव पश्येत् क्वचित् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचाऽथवा मानसेन।
तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आकीर्णः क्षिप्रमिव खलिनम् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार जातिवान् घोड़ा लगाम का संकेत पाते ही विपरीत मार्ग को छोड़कर सीधे मार्ग पर चलने लगता है, उसी प्रकार धैर्यवान् साधु जब कभी अपने मन वचन काय को असद् मार्ग पर जाता हुआ देखता है, तो तत्काल ही वह उनको वहाँ से खींचकर सन्मार्ग में प्रतिष्ठित कर देता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
12. वात्सल्यत्व (प्रेमयोग) | Hindi | 70 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः धार्मिकेषु भक्तः, अनुचरणं करोति परमश्रद्धया।
प्रियवचनं जल्पन्, वात्सल्यं तस्य भव्यस्य ।। Translated Sutra: जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धा से धर्मी जनों में प्रमोदपूर्ण भक्ति रखता है, तथा उनके अनुसार आचरण करता है, उस भव्य जीव के वात्सल्य गुण कहा गया है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
12. वात्सल्यत्व (प्रेमयोग) | Hindi | 71 | View Detail | ||
Mool Sutra: सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।। Translated Sutra: सब जीवों में मेरी मैत्री हो, गुणीजनों में प्रमोद हो, दुःखी जीवों के प्रति दया हो और धर्म-विमुख विपरीत वृत्तिवालों में माध्यस्थ भाव। हे प्रभो! मेरी आत्मा सदा (प्रेम व वात्सल्य के अंगभूत) इन चारों भावों को धारण करे। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
13. प्रशम भाव (चित्त-प्रसाद) | Hindi | 72 | View Detail | ||
Mool Sutra: चतुरः कषायान् त्रीणि गौरवानि पंचेन्द्रियग्रामान्।
जित्वा परीषहानपि च हराराधनापताकाम् ।। Translated Sutra: क्रोधादि चार कषायों को, रस ऋद्धि व सुख इन तीन गारवों को, पाँचों इन्द्रियों को तथा अनुकूल व प्रतिकूल विघ्नों को व संकटों को जीतकर, साथ ही आराधनारूपी पताका को हाथ में लेकर, मित्र पुत्र व बन्धु आदि में तथा इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयों में किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष करना कर्तव्य नहीं है। संदर्भ ७२-७३ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
13. प्रशम भाव (चित्त-प्रसाद) | Hindi | 73 | View Detail | ||
Mool Sutra: मित्रसुतबान्धवादिषु इष्टानिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु।
रागो वा द्वेषो वा ईषदपि मनसा न कर्त्तव्यः ।। Translated Sutra: कृपया देखें ७२; संदर्भ ७२-७३ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
14. आस्तिक्य भाव | Hindi | 74 | View Detail | ||
Mool Sutra: अर्थोऽयमपरोऽनर्थ, इति निर्द्धारणं हृदि।
आस्तिक्यं परमं चिह्नं, सम्यक्त्वस्य जगुर्जिनाः ।। Translated Sutra: `यह अर्थ है और यह अनर्थ है', हृदय में इस प्रकार दृढ़ निर्धारण करना, सम्यग्दर्शन का आस्तिक्य नामक परम चिह्न है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
15. प्रभावनाकरणत्व | Hindi | 75 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मकथाकथनेन च, बाह्ययोगैश्चापि अनवद्यैः।
धर्मः प्रभावयितव्यः जीवेषु दयानुकम्पया ।। Translated Sutra: धर्मोपदेश के द्वारा, अथवा स्व-परोपकारी शुभ क्रियाओं के द्वारा, अथवा जीवों में दया व अनुकम्पा के द्वारा (उपलक्षण से प्रेम, दान व सेवा आदि के द्वारा) धर्म की प्रभावना करना कर्तव्य है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
16. भाव-संशुद्धि | Hindi | 76 | View Detail | ||
Mool Sutra: मदमानमायलोभविवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति।
परिकथितो भव्यानां, लोकालोकप्रदर्शिभिः ।। Translated Sutra: लोकालोकदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने, भव्यों के मद मान माया व लोभविवर्जित निर्मल भाव को भाव-शुद्धि कहा है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
16. भाव-संशुद्धि | Hindi | 77 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनः शुद्धिमबिभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये।
त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ।। Translated Sutra: मन की शुद्धि को प्राप्त किये बिना जो अज्ञ जन मोक्ष के लिए तप करते हैं, वे नाव को छोड़कर महासागर को भुजाओं से तैरने की इच्छा करते हैं। (अर्थात् बिना चित्त-शुद्धि के मोक्ष-मार्ग में गमन सम्भव नहीं।) (भाव से विरक्त व्यक्ति जल में कमलवत् अलिप्त रहता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
16. भाव-संशुद्धि | Hindi | 78 | View Detail | ||
Mool Sutra: अभ्यन्तरशुद्धेः, बाह्यशुद्धिरपि भवति नियमेन।
अभ्यन्तरदोषेण हि, करोति नरः बाह्यान् दोषान् ।। Translated Sutra: अभ्यन्तर शुद्धि के होने पर बाह्य शुद्धि नियम से होती है। अभ्यन्तर परिणामों के मलिन होने पर मनुष्य शरीर व वचन से अवश्य ही दोष उत्पन्न करता है। (तात्पर्य यह कि निःशंकित या अभयत्व आदि भावों से युक्त चित्त-शुद्धि का हो जाना ही सम्यग्दर्शन का प्रधान चिह्न है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
1. सम्यग्ज्ञान-सूत्र (अध्यात्म-विवेक) | Hindi | 79 | View Detail | ||
Mool Sutra: संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं आत्मपरस्वरूपस्य।
ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं, साकारमनेकभेदं च ।। Translated Sutra: आत्मा व अनात्मा के स्वरूप को संशय, विमोह, विभ्रमरहित जानना सम्यग्ज्ञान है, जो सविकल्प व साकार रूप होने के कारण अनेक भेदोंवाला होता है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
1. सम्यग्ज्ञान-सूत्र (अध्यात्म-विवेक) | Hindi | 80 | View Detail | ||
Mool Sutra: भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो, विभिन्नाः पुद्गलाः अपि।
शून्यः संसर्ग इत्येवं, यः पश्यति स पश्यति ।। Translated Sutra: प्रत्येक आत्मा तथा शरीर मन आदि सभी पुद्गल भी परस्पर एक-दूसरे से भिन्न हैं। देह व जीव का अथवा पिता पुत्रादि का संसर्ग कोई वस्तु नहीं है। जो ऐसा देखता है वही वास्तव में देखता है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
5. निश्चय व्यवहार ज्ञान-समन्वय | Hindi | 90 | View Detail | ||
Mool Sutra: सूत्रमर्थनिमेणं न सूत्रमात्रेणार्थप्रतिपत्तिः।
अर्थगतिः पुनः नयवादग्रहणलीना दुरभिगम्या ।। Translated Sutra: इसमें सन्देह नहीं कि सूत्र (शास्त्र) अर्थ का स्थान है, परन्तु मात्र सूत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती। अर्थ का ज्ञान विचारणा व तर्कपूर्ण गहन नयवाद पर अवलम्बित होने के कारण दुर्लभ है। अतः सूत्र का ज्ञाता अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न करे, क्योंकि अकुशल एवं धृष्ट आचार्य (शास्त्र को पक्ष-पोषण का तथा शास्त्रज्ञान | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
5. निश्चय व्यवहार ज्ञान-समन्वय | Hindi | 91 | View Detail | ||
Mool Sutra: तस्मादधिगतसूत्रेणार्थसम्पादने यतितव्यम्।
आचार्याः धीरहस्ताः, हन्त महाज्ञां विडम्बयन्ति ।। Translated Sutra: कृपया देखें ९०; संदर्भ ९०-९१ | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 99 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रमणेन श्रावकेन च, या नित्यमपि भावनीयाः।
दृढसंवेगकारिण्यो, विशेषतः उत्तमार्थे ।। Translated Sutra: श्रमण को या श्रावक को संवेग व वैराग्य के दृढ़ीकरणार्थ नित्य ही, विशेषतः सल्लेखना के काल में इन १२ भावनाओं का चिन्तवन करते रहना चाहिए। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 100 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्रुवशरणमेकत्व-मन्यत्वसंसारलोकमशुचित्वं।
आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधिं च चिन्त्येत् ।। Translated Sutra: अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ, इन १२ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 101 | View Detail | ||
Mool Sutra: अम्भोबुद्बुदसंनिभा तनुरियं, श्रीरिन्द्रजालोपमा।
दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः, कान्तार्थपुत्रादयः ।। Translated Sutra: यह शरीर जलबुद्बुद के समान अनित्य है तथा लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान चंचल। स्त्री, धन व पुत्रादि आँधी से आहत जल-प्रवाहवत् अति वेग से नाश की ओर दौड़े जा रहे हैं। वैषयिक सुख काम से मत्त स्त्री की भाँति तरल हैं अर्थात् विश्वास के योग्य नहीं हैं। इसलिए समस्त उपद्रवों के स्थानभूत इनके विषय में शोक करने से क्या लाभ है? | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 102 | View Detail | ||
Mool Sutra: सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं, मत्तांगनापाङ्गवत्।
तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये, शोकेन किं किं मुदा ।। Translated Sutra: कृपया देखें १०१; संदर्भ १०१-१०२ | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 103 | View Detail | ||
Mool Sutra: जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते, विविधव्याधिसंतप्ते।
लोके नास्ति शरणं जिनेन्द्रवरशासनं मुक्त्वा ।। Translated Sutra: जन्म, जरा व मरण के भय से पूर्ण तथा विविध व्याधियों से संतप्त इस लोक में जिनशासन को छोड़कर (अथवा आत्मा को छोड़कर) अन्य कोई शरण नहीं है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 104 | View Detail | ||
Mool Sutra: संगं परिजानामि शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन।
गुप्तयः समितयः, मम त्राणं शरणं च ।। Translated Sutra: धन कुटुम्ब आदि रूप संसर्गों की अशरणता को मैं अच्छी तरह जानता हूँ, तथा माया मिथ्या व निदान (कामना) इन तीन मानसिक शल्यों का मन वचन काय से त्याग करता हूँ। तीन गुप्ति व पाँच समिति ही मेरे रक्षक व शरण हैं। इस मोक्ष-मार्ग को न जानने के कारण ही मैं अनादि काल से इस संसार-सागर में भटक रहा हूँ। एक बालाग्र प्रमाण भी क्षेत्र |