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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 291 | View Detail | ||
Mool Sutra: सव्वे सरा नियट्टंति, तक्का तत्थ न विज्जइ।
मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने ।। Translated Sutra: (शास्त्र केवल मनुष्यादिक व्यवहारिक जीवों का ही विस्तार करने वाले हैं। इन सर्व विकल्पों से अतीत) मुक्तात्मा का स्वरूप बतलाने में सभी शब्द निवृत्त हो जाते हैं, तर्क वहाँ तक पहुँच नहीं पाता, और बुद्धि की उसमें गति नहीं। वह मात्र चिज्ज्योति स्वरूप है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 292 | View Detail | ||
Mool Sutra: आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं।
णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। Translated Sutra: आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, और ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है। इसलिए ज्ञान सर्वगत है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 293 | View Detail | ||
Mool Sutra: जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं।
तं देही देहत्थो, सदेहमित्तं पभासयदि ।। Translated Sutra: (ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से यद्यपि आत्मा भी सर्वगत कहा जा सकता है, परन्तु) जिस प्रकार पद्मरागमणि दूध के वर्तन में डाल देने पर उसमें स्थित ही सारे दूध को प्रकाशित करती है, उसके बाह्य क्षेत्र को नहीं; उसी प्रकार यह देहस्थ जीवात्मा भी इस शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता हुआ देह प्रमाण ही प्रतिभासित होता है, उससे | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 294 | View Detail | ||
Mool Sutra: भेदसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलना-
त्मिकां क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः ।। Translated Sutra: परस्पर में मिलकर स्कन्धों या भूतों को उत्पन्न करते हैं | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 295 | View Detail | ||
Mool Sutra: खन्धा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य।
परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउव्विहा ।। Translated Sutra: रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल चार प्रकार का है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश व परमाणु। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 296 | View Detail | ||
Mool Sutra: खंधं सयलसमत्थं, तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति।
अद्धंद्धं च पदेसो, परमाणु चेव अविभागी ।। Translated Sutra: पृथिवी आदि स्थूल पदार्थ स्कन्ध कहलाते हैं। उसके आधे को देश तथा उसके भी आधे भाग को प्रदेश कहते हैं। जिसका पुनः भेद होना किसी प्रकार भी सम्भव न हो वह परमाणु कहलाता है। (अति स्थूल, स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म के भेद से स्कन्ध अनेक प्रकार के हैं।) | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 297 | View Detail | ||
Mool Sutra: सद्दंधयार-उज्जोय, पभा-छायातवेहिया।
वण्णगंधरसफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। Translated Sutra: शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप आदि सब पुद्गल के कार्य हैं, और वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श ये चार उसके प्रधान लक्षण हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 298 | View Detail | ||
Mool Sutra: ओरालियो य देहो, देहो वेउव्विओ य तेजइओ।
आहारय कम्मइओ, पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।। Translated Sutra: मनुष्यादि के स्थूल शरीर `औदारिक' कहलाते हैं और देवों व नारकियों के `वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेज शक्ति `तैजस शरीर' है। योगी जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट शरीर `आहारक' कहलाता है। और रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज `कार्मण शरीर' माना गया है। ये पाँचों | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 299 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवस्स णत्थि रागो, णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो।
जेण दु एंद सव्वे, पुग्गल दव्वस्स परिणामा ।। Translated Sutra: परमार्थतः न तो राग जीव का परिणाम है और न द्वेष और मोह, क्योंकि ये सब पुद्गल-द्रव्य के परिणाम हैं। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) | Hindi | 300 | View Detail | ||
Mool Sutra: मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः।
अकर्म-कर्मनोकर्म, जातिभेदेषु वर्गणा ।। Translated Sutra: (अधिक कहाँ तक कहा जाय) लोक में जितने भी मूर्तिमान पदार्थ हैं, वे अकर्म रूप हों या कर्म रूप, नोकर्म अर्थात् विविध प्रकार के शरीरों व स्कन्धों रूप हों या विभिन्न जाति की सूक्ष्म वर्गणा रूप, यहाँ तक कि देहधारी संसारी जीव भी, इन सबमें पुद्गल शब्द प्रवृत्त होता है। (मन, वाणी व ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म भी पुद्गल माने गये | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
4. आकाश द्रव्य | Hindi | 301 | View Detail | ||
Mool Sutra: चेयण रहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं।
लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ।। Translated Sutra: आकाश द्रव्य अचेतन है, अमूर्तीक है, सर्वगत अर्थात् विभु है। सर्व द्रव्यों को अवगाह या अवकाश देना इसका लक्षण है। वह दो भागों में विभक्त है - लोकाकाश और अलोकाकाश। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
4. आकाश द्रव्य | Hindi | 302 | View Detail | ||
Mool Sutra: घम्माघर्म्मौ कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये।
आयासे सो लोगो, ततो परदो अलोगुत्तो ।। Translated Sutra: (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षट्द्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित हैं, वह `लोक' है और शेष अनन्त आकाश `अलोक' कहलाता है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 303 | View Detail | ||
Mool Sutra: उदयं जह मच्छाणं, गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए।
तह जीवपुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाणेहिं ।। Translated Sutra: जिस प्रकार मछली के लिए जल उदासीन रूप से सहकारी है, उसी प्रकार जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्यों को धर्म द्रव्य गमन में उदासीन रूप से सहकारी है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 304 | View Detail | ||
Mool Sutra: जह हवदि धम्मदव्वं, तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं, कारणभूदं तु पुढ़वीव ।। Translated Sutra: धर्म द्रव्य की ही भाँति अधर्म द्रव्य को भी जानना चाहिए। क्रियायुक्त जीव व पुद्गल के ठहरने में यह उनके लिए उदासीन रूप से सहकारी होता है, जिस प्रकार स्वयं ठहरने में समर्थ होते हुए भी हम पृथिवी का आधार लिये बिना इस आकाश में कहीं ठहर नहीं सकते। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 305 | View Detail | ||
Mool Sutra: ण य गच्छदि धम्मत्थो, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ।। Translated Sutra: धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलता है और न जीव पुद्गलों को जबरदस्ती चलाता है। वह इनकी गति के लिए प्रवर्तक या निमित्त मात्र है। (इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को निमित्त मात्र ही समझना चाहिए।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
5. धर्म तथा अधर्म द्रव्य | Hindi | 306 | View Detail | ||
Mool Sutra: जादो अलोगलोगो, जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता, अविभत्ता लोयमेत्ता य ।। Translated Sutra: वास्तव में देखा जाये तो इन दो द्रव्यों के कारण ही एक अखण्ड आकाश में पूर्वोक्त लोक व अलोक विभाग उत्पन्न हो गये हैं। ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण हैं, और एक क्षेत्रावगाही हैं। परन्तु अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा दोनों की सत्ता जुदी-जुदी है। एक का स्वरूप या लक्षण गति हेतुत्व है और दूसरे का स्थिति हेतुत्व। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
6. काल द्रव्य | Hindi | 307 | View Detail | ||
Mool Sutra: सब्भावसभावाणं, जीवाणं तह य पोग्गलाणं य।
परियट्टणसंभूदो, कालो णियमेण पण्णत्तो ।। Translated Sutra: सत्तास्वभावी जीव व पुद्गलों की वर्तना व परिवर्तना में जो धर्म-द्रव्य की भाँति ही उदासीन निमित्त है, उसे ही निश्चय से काल द्रव्य कहा गया है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
6. काल द्रव्य | Hindi | 308 | View Detail | ||
Mool Sutra: लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का।
रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ।। Translated Sutra: जैन दर्शन काल-द्रव्य को अणु-परिमाण मानता है। संख्या में ये लोक के प्रदेशों प्रमाण असंख्यात हैं। रत्नों की राशि की भाँति लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक, इस प्रकार उसके असंख्यात प्रदेशों पर असंख्यात कालाणु स्थित हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
1. तत्त्व-निर्देश | Hindi | 309 | View Detail | ||
Mool Sutra: तच्चं तह परमट्ठं, दव्वसहावं तहेव परमपरं।
धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ।। Translated Sutra: तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध, परम ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
1. तत्त्व-निर्देश | Hindi | 310 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ।। Translated Sutra: तत्त्व नौ हैं-जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव संवर, निर्जरा व मोक्ष। (आगे क्रमशः इनका कथन किया गया है।) | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
1. तत्त्व-निर्देश | Hindi | 311 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाजीवौ हि धर्मिणौ, तद्धर्मास्त्वास्रवादय इति।
धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं, सप्तविधमुक्तम् ।। Translated Sutra: इन उपर्युक्त नौ तत्त्वों में जीव व अजीव ये प्रथम दो तत्त्व तो धर्मी हैं, और आस्रव आदि शेष उन दोनों के ही धर्म हैं। इस प्रकार ये सात या नौ तत्त्व वास्तव में दो ही हैं-धर्मी व धर्म अथवा जीव तथा अजीव। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
1. तत्त्व-निर्देश | Hindi | 312 | View Detail | ||
Mool Sutra: अतः शुद्धनयायत्तं, प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्।
नवतत्त्वगतत्वेऽपि, यदेकत्वं न मुञ्चति ।। Translated Sutra: परन्तु निश्चय या शुद्ध दृष्टि से देखने पर तो (दो तत्त्वों को भी कहीं अवकाश नहीं) एकमात्र आत्म-ज्योति ही चकचकाती है, जो इन नव तत्त्वों में धर्मीरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 313 | View Detail | ||
Mool Sutra: आगासकालपुग्गल-धम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा।
तेसिं अचेदणत्थं भणिदं जीवस्स चेदणदा ।। Translated Sutra: (पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से) आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य जीव-प्रधान चेतन गुण से व्यतिरिक्त होने के कारण अजीव हैं, और जीव द्रव्य चेतन है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 314 | View Detail | ||
Mool Sutra: उत्तमगुणाण धामं, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं।
तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेहि णिच्छयदो ।। Translated Sutra: ज्ञान दर्शन आनन्द आदि उत्तमोत्तम गुणों का धाम होने से `जीव' छहों द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और नौ तत्त्वों में सर्वोत्तम या सर्वप्रधान है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
2. जीव-अजीव तत्त्व | Hindi | 315 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवादि बहित्तच्चं, हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा।
कम्मोपाधिसमुब्भव-गुणपज्जएहिं वदिरित्तो ।। Translated Sutra: [भले इस जीवकी तात्त्विक व्यवस्था समझाने के लिए पूर्वोक्त प्रकार व्यवहार से नौ तत्त्वों का विवेचन किया गया हो, परन्तु निश्चय से तो पर्याय-प्रधान होने के कारण] जीवादि नौ तत्त्व आत्मा से बाह्य हैं। कर्मों की उपाधि से उत्पन्न होने वाले समस्त व्यावहारिक गुणों व पर्यायों से व्यतिरिक्त, एक मात्र शुद्धात्म-तत्त्व | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 316 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माइं।
आसवदारेहिं अविगुहेहिं, तिविहेण करणेणं ।। Translated Sutra: राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वश होकर मन, वचन व काय इन तीन करणों के द्वारा सदा कर्म करता रहता है। कर्मों का यह आगमन ही `आस्रव' शब्द का वाच्य है, जिसके अनेक द्वार हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 317 | View Detail | ||
Mool Sutra: इंदियकसायअव्वय, जोगा पंचचउपंचतिन्नि कमा।
किरिआओ पणवीसं, इमाउताओ अणुक्कमसो ।। Translated Sutra: पाँच इन्द्रिय, क्रोधादि चार कषाय, हिंसा, असत्य आदि पाँच अव्रत तथा पचीस प्रकार की सावद्य क्रियाएँ, ये सब आस्रव के द्वार हैं। इनके कारण ही जीव कर्मों का संचय करता है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 318 | View Detail | ||
Mool Sutra: आसवदारेहिं सया, हिंसाईएहिं कम्ममासवइ।
जह नावाइ विणासो, छिद्देहि जलं उयहिमज्झे ।। Translated Sutra: हिंसादिक इन आस्रव-द्वारों के मार्ग से जीव के चित्त में कर्मों का प्रवेश इसी प्रकार होता रहता है, जिस प्रकार समुद्र में सछिद्र नौका जल-प्रवेश के कारण नष्ट हो जाती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
3. आस्रव तत्त्व (क्रियमाण कर्म) | Hindi | 319 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो सम्मं भूयाइं पासइ, भूए य अप्पभूए य।
कम्ममलेण ण लिप्पइ, सो संवरियासवदुवारो ।। Translated Sutra: जो आत्मभूत और अनात्मभूत सभी पदार्थों को तत्त्व-दृष्टि से देखता है, वह कर्म-मल से लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके समस्त आस्रव-द्वार रुक जाते हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
4. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) | Hindi | 320 | View Detail | ||
Mool Sutra: रुंधिय छिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि।
मिच्छत्ताइअभावे, तह जीवे संवरो होई ।। Translated Sutra: जिस प्रकार नाव का छिद्र बन्द हो जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व इन्द्रिय आदि पूर्वोक्त आस्रव-द्वारों के रुक जाने पर कर्मों का आस्रव भी रुक जाता है। और यही उनका संवरण या संवर कहलाता है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
4. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) | Hindi | 321 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ।
अगारवो य निस्सल्लो, जोवो हवइ अणासओ ।। Translated Sutra: पाँच समिति, तीन गुप्ति, कषायनिग्रह, इन्द्रिय-जय, निर्भयता, निश्शल्यता इत्यादि संवर के अंग हैं, क्योंकि इनसे जीव अनास्रव हो जाता है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
4. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) | Hindi | 322 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरुंभंति।
इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहिं। Translated Sutra: जिस प्रकार घोड़े को लगाम के द्वारा बलपूर्वक वश में किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान, ध्यान व तप के द्वारा इन्द्रिय-विषय व कषायों को बलपूर्वक वश करना चाहिए। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
4. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) | Hindi | 323 | View Detail | ||
Mool Sutra: जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु।
णासवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ।। Translated Sutra: परन्तु परम भाव को प्राप्त समता-भोगी जिस भिक्षु को किसी भी द्रव्य के प्रति न राग शेष रह गया है और न द्वेष व मोह, उसके बिना किसी प्रयास के ही शुभ व अशुभ कर्मों का आस्रव रुक जाता है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) | Hindi | 324 | View Detail | ||
Mool Sutra: कम्मसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं।
कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ।। Translated Sutra: अशुभ कर्म कुशील है और शुभ कर्म सुशील है, (ऐसा भेद व्यावहारिक जनों को ही शोभा देता है) समता-भोगी के लिए कोई भी कर्म जो संसार में प्रवेश कराये, सुशील कैसे हो सकता है? | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) | Hindi | 325 | View Detail | ||
Mool Sutra: सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।
बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। Translated Sutra: जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसी प्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती है। इसलिए परमार्थतः शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के लिए बन्धनकारी हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) | Hindi | 326 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर जिय पावइँ सुन्दरइँ, णाणिय ताँइँ भणंति।
जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु, सिवमइ जाइँ कुणंति ।। Translated Sutra: ज्ञानी की दृष्टि में तो वह पाप भी बहुत अच्छा है, जो जीव को दुःख व विषाद देकर उसकी बुद्धि को मोक्षमार्ग की ओर मोड़ देता है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) | Hindi | 327 | View Detail | ||
Mool Sutra: मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ, णाणिय ताइँ भणंति।
जीवहं रज्जइँ देवि लहु, दुक्खइँ जाइँ जणंति ।। Translated Sutra: और फिर वह (पापानुबन्धी) पुण्य भी किसी काम का नहीं, जो उसे राज्य-सुख देकर उसमें आसक्ति उत्पन्न करा देता है, जिसके कारण (पुण्य क्षीण हो जाने पर) शीघ्र ही वह नरक आदि गतियों के दुःखों को प्राप्त हो जाता है। [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुण्य सर्वत्र व सर्वदा इसी प्रकार तिरस्कार के योग्य है :] | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) | Hindi | 328 | View Detail | ||
Mool Sutra: वरं वयतवेहिं सग्गो, मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं।
छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ।। Translated Sutra: | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) | Hindi | 329 | View Detail | ||
Mool Sutra: एएहिं पंचहिं असंवरेहिं, रयमादिणित्तु अणुसमयं।
चउविह गति पेरंतं, अणुपरियट्टंति संसारं ।। Translated Sutra: हिंसा असत्य आदि पाँच प्रधान असंवर या आस्रवद्वार हैं। इनसे प्रति समय अनुरंजित रहने के कारण जीव नित्य ही कर्म-रज का संचय करके चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) | Hindi | 330 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्नेहाभ्यक्ततनोरंगं, रेणुनाश्लिष्यते यथा।
रागद्वेषानुविद्धस्य, कर्मबन्धस्तथा मतः ।। Translated Sutra: जिस प्रकार शरीर पर तेल मल कर व्यायाम करने वाला व्यक्ति रज-रेणुओं से लिप्त होता है, उसी प्रकार जिस व्यक्ति का चित्त राग से अनुविद्ध है, उसी को कर्मों का बन्ध होता है। राग-द्वेष विहीन केवल क्रिया मात्र से नहीं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) | Hindi | 331 | View Detail | ||
Mool Sutra: रत्तो बंधदि कम्मं, मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा।
एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो ।। Translated Sutra: रागी जीव ही कर्मों को बाँधता है, और राग-रहित उनसे मुक्त होता है। परमार्थतः संसारी जीवों के लिए राग ही एक मात्र बन्ध का कारण व बन्धस्वरूप है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 332 | View Detail | ||
Mool Sutra: तवसा उ निज्जरा इह, निज्जरणं खवणनासमेगट्ठा।
कम्माभावापायणमिह, निज्जरमो जिणा विंति ।। Translated Sutra: तप के प्रभाव से कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरण, क्षपण, नाश, कर्मों के अभाव की प्राप्ति ये सब एकार्थवाची हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 333 | View Detail | ||
Mool Sutra: तवसा चेव ण मोक्खो, संवरहीणस्स होइ जिणवयणे।
ण हु सोते पविस्संते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ।। Translated Sutra: जिस प्रकार तालाब में जल का प्रवेश होता रहने पर, जल निकास का द्वार खोल देने से भी वह सूखता नहीं है, उसी प्रकार संवरहीन अज्ञानी को केवल तप मात्र से मोक्ष नहीं होता। | |||||||||
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7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 334 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा महातलागस्स, सन्निरुद्धे जलागमे।
उस्सिंचिणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।। Translated Sutra: जिस प्रकार किसी बड़े भारी तालाब में जलागमन के द्वार को रोक कर उसका जल निकाल देने पर वह सूर्य ताप से शीघ्र ही सूख जाता है। उसी प्रकार संयमी साधु पाप-कर्मों के द्वार को अर्थात् राग-द्वेष को रोक कर तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। -[अज्ञानी जितने कर्म करोड़ों भवों में खपाता है, ज्ञानी | |||||||||
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7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 335 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे।
भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा णिज्जरिज्जई ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३३४; संदर्भ ३३४-३३५ | |||||||||
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8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 336 | View Detail | ||
Mool Sutra: सेणावतिंमि निहते, जहा सेणा पणस्सती।
एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ।। Translated Sutra: जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना नष्ट हो जाती है या भाग जाती है, उसी प्रकार राग-द्वेष के कारणभूत मोह-कर्म के क्षय हो जाने पर शेष सब कर्म-संस्कारों का क्षय स्वतः होता जाता है। | |||||||||
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8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 337 | View Detail | ||
Mool Sutra: लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के।
गइपुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु ।। Translated Sutra: जिस प्रकार मिट्टी का लेप धुल जाने पर तूम्बी स्वतः जल के ऊपर आ जाती है, जिस प्रकार एरण्ड का बीज गर्मी के दिनों में चटखकर स्वयं ऊपर की ओर जाता है, जिस प्रकार अग्नि की शिखा तथा धूम का स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन होता है और जिस प्रकार धनुष्य से छूटे हुए बाण का पूर्व प्रयोग के कारण ऊपर की ओर गमन होता है, उसी प्रकार पूर्व प्रयोगवश | |||||||||
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8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 338 | View Detail | ||
Mool Sutra: जावद्धम्मं दव्वं, तावं गंतूण लोयसिहरम्मि।
चेट्ठंति सव्वसिद्धा, पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा ।। Translated Sutra: लोक के शिखर पर जहाँ तक धर्म द्रव्य की सीमा है वहाँ तक जाकर सभी मुक्त जीव पृथक् पृथक् स्थित हो जाते हैं। उनका आकार मोम रहित मूषक के आभ्यन्तर आकाश की भाँति अथवा घटाकाश की भाँति चरम शरीर वाला तथा अमूर्तीक होता है। | |||||||||
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8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 339 | View Detail | ||
Mool Sutra: जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का।
अन्नोन्नसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे वि लोगंते ।। Translated Sutra: लोक-शिखर पर जहाँ एक सिद्ध या मुक्तात्मा स्थित होती है, वहीँ एक दूसरे में प्रवेश पाकर संसार से मुक्त हो जाने वाली अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं। चरम शरीराकार इन सबके सिर लोकाकाश के ऊपरी अन्तिम छोर को स्पर्श करते हैं। | |||||||||
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8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 340 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा दड्ढाणं बीयाणं, न जायंति पुणंकुरा।
कम्मबीयेसु दड्ढेसु, न जायंति भवांकुरा ।। Translated Sutra: जिस प्रकार बीज के दग्ध हो जाने पर फिर उनसे अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार कर्मरूपी बीजों के दग्ध हो जाने पर भवरूपी अंकुर फिर उत्पन्न नहीं होते। अर्थात् मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते। |