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Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 242 View Detail
Mool Sutra: (क) धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।

Translated Sutra: वस्तु का स्वभाव धर्म है। (प्रकृत में समता आत्मा का स्वभाव होने से वह उसका धर्म है।) उत्तम क्षमा आदि दश, सम्यग्दर्शनादि तीन तथा जीवों की रक्षा (उपलक्षण से अहिंसा आदि पाँच तथा अन्य भी पूर्वोक्त संयम के अंग) ये सब धर्म हैं अर्थात् उस समतामयी स्वभाव के विविध अंग या लिंग हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 242 View Detail
Mool Sutra: (ख) उत्तमखममद्दवज्जव, सच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवतागमकिंचण्हं, बम्हा इदि दसविहो धम्मो ।।

Translated Sutra: उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इस प्रकार धर्म दशविध कहा गया है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 243 View Detail
Mool Sutra: अन्तस्तत्त्व विशुद्धात्मा, बहिस्तत्त्वं दयांगिषु। द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्द्वितीयमाश्रयेत् ।।

Translated Sutra: अन्तस्तत्त्व रूप समतास्वभावी विशुद्धात्मा तो साध्य है और प्राणियों की दया आदि बहिस्तत्त्व उसके साधन हैं। दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है। इसलिए अपरम भावी को धर्म के इन विविध अंगों का आश्रय अवश्य लेना चाहिए।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 244 View Detail
Mool Sutra: सद्धं णगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं। खंतिं णिउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ।।

Translated Sutra: श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गुप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 245 View Detail
Mool Sutra: दाणं पूजा सीलं, उववासं, बहुविहं पि खवणं पि। सम्मजुदं मोक्खसुहं, सम्मविणा दीहसंसारं ।।

Translated Sutra: दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास अनेक प्रकार के व्रत और मुनि लिंग आदि सब एक सम्यग्दर्शन होने पर तो मोक्ष-सुख के कारण हैं और सम्यक्त्व के बिना दीर्घ-संसार के कारण हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 246 View Detail
Mool Sutra: यद्यत्स्वानिष्टं, तत्तद्वाक्चित्तकर्म्मभिः कार्यम्। स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिंगम् ।।

Translated Sutra: धर्म का यह सर्व प्रधान लिंग है कि जो जो कार्य अपने को अनिष्ट हो, वह दूसरों के प्रति मन से या वचन से या शरीर से स्वप्न में भी न करे।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

1. धर्मसूत्र Hindi 247 View Detail
Mool Sutra: दुविहं संजमचरणं, सायारं तह हवे णिरायारं। सायारं सग्गंथे, परिग्गहा-रहिय खलु णिरायारं ।।

Translated Sutra: संयमचरण या धर्म दो प्रकार का है-सागार व अनगार। सागार धर्म परिग्रह-युक्त गृहस्थों को होता है और अनगार धर्म परिग्रह-रहित साधुओं को।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

2. सागार (श्रावक) सूत्र Hindi 248 View Detail
Mool Sutra: नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए। अहं ण देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिसामि ।।

Translated Sutra: जो व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर अपने को अनगार धर्म के लिए समर्थ नहीं समझता है, वह पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ऐसे द्वादश व्रतों वाले गृहस्थधर्म को अंगीकार करता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 249 View Detail
Mool Sutra: समणोत्ति संजदोत्ति य, रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागोत्ति। णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।।

Translated Sutra: श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति, ये सब नाम एकार्थवाची हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 250 View Detail
Mool Sutra: सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सुरूवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर सरिसां, परम-पय-विमग्गया साहू ।।

Translated Sutra: सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४. मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुँज, १२. क्षितिवत्
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 251 View Detail
Mool Sutra: ण बलाउसाउअट्ठं, ण सरीरस्सुवचयट्ठं तेजट्ठं। णाणट्ठं संजमठ्ठं, झाणट्ठं चेव भुंजेज्जो ।।

Translated Sutra: साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 252 View Detail
Mool Sutra: जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं। न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ।।

Translated Sutra: जैसे भ्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किन्तु फूल को किसी प्रकार की भी क्षति पहुँचने नहीं देता, उसी प्रकार साधु भिक्षा-वृत्ति से इस प्रकार अपना निर्वाह करता है जिससे गृहस्थों पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 253 View Detail
Mool Sutra: अवि सुइयं वा सुक्कं वा, सीयपिंड पुराणकुम्मासं। अदु बुक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्धे दविए ।।

Translated Sutra: भिक्षा में प्राप्त भोजन में चाहे घी चूता हो, अथवा रूखा सूखा व ठण्डा हो, वह पुराने उड़दों का हो, अथवा धान्य जौ आदि का बना हो, साधु सबको समान भाव से ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त भिक्षा में आहार मिले या न मिले, वे दोनों में समान रहते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 254 View Detail
Mool Sutra: वासीचन्दणसमाणकप्पे, समतिणमणिमुत्तालोट्ठु कंचणे। समे य माणावमाणणाए, समियरते समिदरागदोसे ।।

Translated Sutra: कोई कुल्हाड़ी से उनके शरीर को चीर दे अथवा चन्दन से लिप्त कर दे, दोनों के प्रति वे समभाव रखते हैं। इसी प्रकार तृण व मणि में, लोहे व सोने में तथा मान व अपमान में सदा सम रहते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 255 View Detail
Mool Sutra: सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदि भत्ती, होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।।

Translated Sutra: जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 256 View Detail
Mool Sutra: एया वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदुं, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।।

Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 257 View Detail
Mool Sutra: आह गुरु पूयाए, कामवहो होइ जइ वि हु जिणाणं। तह वि तइ कायव्वा, परिणामविसुद्धिहेऊओ ।।

Translated Sutra: यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 258 View Detail
Mool Sutra: आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी, ज्ञानी चेतिचतुर्विधाः। उपासकास्त्रयस्तत्र, धन्या वस्तुविशेषतः ।।

Translated Sutra: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में से प्रथम तीन वस्तु की विशेषता के कारण धन्य हैं। परन्तु जिसके मोह व क्षोभ आदि समस्त विक्षेप शान्त हो गये हैं, जो सम्यग्दृष्टि तथा अन्तरात्मा का भर्ता है, जिसका संसार अति निकट रह गया है, ऐसा ज्ञानी तो अपनी तत्त्वनिष्ठारूप नित्य-भक्ति के कारण ही विशेषता
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

4. पूजा-भक्ति सूत्र Hindi 259 View Detail
Mool Sutra: ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्तिर्विशिष्यते। अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ।।

Translated Sutra: कृपया देखें २५८; संदर्भ २५८-२५९
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

5. गुरु-उपासना Hindi 260 View Detail
Mool Sutra: जे केइ वि उवएसा, इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा ।।

Translated Sutra: इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

5. गुरु-उपासना Hindi 261 View Detail
Mool Sutra: सिया हु से पावय नो हडिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे। सिया विसं हलाहलं न मारे, न यावि मुक्खो गुरुहीलणाए ।।

Translated Sutra: यह कदाचित् सम्भव है कि अग्नि जलाना छोड़ दे, अथवा कुपित दृष्टिविष सर्प भी डंक न मारे, अथवा हलाहल विष खा लेने पर भी वह व्यक्ति को न मारे, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि गुरु-निन्दक को मोक्ष प्राप्त हो जाय।
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6. दया-सूत्र Hindi 262 View Detail
Mool Sutra: तिसिदं वा भुक्खिदं वा, दुहिदं दट्ठूण जो हि दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया, तस्सेसा होदि अणुकंपा ।।

Translated Sutra: भूखे, प्यासे अथवा किसी दुःखी प्राणी को देखकर जिसका मन दुःखी हो गया है, ऐसा जो मनुष्य उसकी कृपा-बुद्धि से रक्षा व सेवा करता है, उसको अनुकम्पा होती है।
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6. दया-सूत्र Hindi 263 View Detail
Mool Sutra: जह ते न पियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं। सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को नहीं है, ऐसा जानकर अत्यन्त आदरभाव से सब जीवों को अपने समान समझकर उनपर दया करो।
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7. दान-सूत्र Hindi 264 View Detail
Mool Sutra: ता भुंजिज्जउ लच्छी, दिज्जउ दाणं दयापहाणेण। जा जलतरंगचवला, दोतिण्णिदिणाणि चिट्ठेइ ।।

Translated Sutra: यह लक्ष्मी जल की तरंगों की भाँति अति चंचल है। दो तीन दिन मात्र ठहरने वाली है। इसलिए जब तक यह आपके पास है, तब तक इसे आवश्यकतानुसार भोगो और साथ-साथ दयाभाव सहित दान में भी खर्च करो।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

7. दान-सूत्र Hindi 265 View Detail
Mool Sutra: जो मुणिभुत्तवसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिट्ठं। संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ।।

Translated Sutra: जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

8. यज्ञ-सूत्र Hindi 266 View Detail
Mool Sutra: तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं। कम्ममेहा संजमजोग सन्ती, होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ।।

Translated Sutra: तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग स्रुवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्तिपाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से मैं अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) Hindi 267 View Detail
Mool Sutra: तध रोसेण सयं, पुव्वमेव डज्झदि हु कलकलेणेव। अण्णस्स पुणो दुक्खं, करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा ।।

Translated Sutra: तप्त लौहपिण्ड के समान क्रोधी मनुष्य पहले स्वयं सन्तप्त होता है। तदनन्तर वह दूसरे पुरुष को रुष्ट कर सकेगा या नहीं, यह कोई निश्चित नहीं। नियमपूर्वक किसीको दुखी करना उसके हाथ में नहीं है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) Hindi 268 View Detail
Mool Sutra: कोहेण जो ण तप्पदि, सुर णर तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि ।।

Translated Sutra: देव मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) Hindi 269 View Detail
Mool Sutra: खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ।।

Translated Sutra: मैं समस्त जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव भी मुझे क्षमा करें। सबके प्रति मेरा मैत्रीभाव है। आजसे मेरा किसी के साथ कोई वैर-विरोध नहीं है। (इत्याकारक हृदय की जागृति उत्तम क्षमा है।)
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) Hindi 270 View Detail
Mool Sutra: कुलरूवजादिबूद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्मं हवे तस्स ।।

Translated Sutra: आठ प्रकार के मद लोक में प्रसिद्ध हैं-कुल रूप व जाति का मद, ज्ञान तप व चारित्र का मद, धन व बल का मद। जो श्रमण आठों ही प्रकार का किंचित् भी मद नहीं करता है, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) Hindi 271 View Detail
Mool Sutra: जो अवमाणकरणं दोसं, परिहरइ णिच्चमाउत्तो। सो णाम होदि माणी, ण गुणचत्तेण माणेण ।।

Translated Sutra: जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है, वही सच्चा मानी है। परन्तु गुणरहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं कहा जा सकता।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) Hindi 272 View Detail
Mool Sutra: असइं उच्चागोए असइं णीयागोए, णो हीणे णो अइरित्ते। णो पीहए इह संखाए, को गोयावाई को माणावाई ।।

Translated Sutra:
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

11. उत्तम आर्जव (सरलता) Hindi 273 View Detail
Mool Sutra: जो चिंतेइ ण वंकं, ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णियदोसं, अज्जवधम्मो हवे तस्स ।।

Translated Sutra: जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

11. उत्तम आर्जव (सरलता) Hindi 274 View Detail
Mool Sutra: जह बालो जंपंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार बालक बोलता हुआ कार्य व अकार्य को सरलता से कह देता है, उसी प्रकार सरलता से अपने दोषों की आलोचना करनेवाला साधु माया व मद से मुक्त होता है।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 275 View Detail
Mool Sutra: किं माहणा! जोइ समारभन्ता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा? जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुइट्ठं कुसला वयंति ।।

Translated Sutra: हे ब्राह्मणो! तुम लोग यज्ञ में अग्नि का आरम्भ तथा जल द्वारा बाह्य शुद्धि की गवेषणा क्यों करते हो? कुशल पुरुष केवल इस बाह्य शुद्धि को अच्छा नहीं समझता।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 276 View Detail
Mool Sutra: सम-संतोस-जलेण य, जो धोवदि तिण्णलोहमलपुंजं। भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ।।

Translated Sutra: जो मुनि समताभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पुंज को धोता है, तथा भोजन में गृद्ध नहीं होता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 277 View Detail
Mool Sutra: जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।।

Translated Sutra: ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 278 View Detail
Mool Sutra: न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा। मोहाविणो लोभभयावईया, संतोसिणो ण पकरेंति पावं ।।

Translated Sutra: अज्ञानी जन कितना भी प्रयत्न करें, वे कर्म को कर्म से नहीं खपा सकते। धीर पुरुष ही अकर्म से कर्म को खपाते हैं। कामना और भय से अतीत होकर यथालाभ सन्तुष्ट रहनेवाला योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। सत्य, संयम, तप व ब्रह्मचर्य धर्म के लिए दे. अधि. ८-९
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

13. उत्तम त्याग Hindi 279 View Detail
Mool Sutra: सव्वे भावे जम्हा, पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं, णाणं णियमा मुणेदव्वं ।।

Translated Sutra: अपने से अतिरिक्त सभी पदार्थों को `ये मुझसे पर हैं' ऐसा जानकर, ज्ञान ही प्रत्याख्यान करता है, इसलिए ज्ञान या आत्मा ही स्वयं स्वभाव से प्रत्याख्यान या त्याग स्वरूप है, ऐसा जानना चाहिए।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

13. उत्तम त्याग Hindi 280 View Detail
Mool Sutra: विषयान् साधकः पूर्वमनिष्टत्वधिया त्यजेत्। न त्यजेन्न च गृह्णीयात्, सिद्धो विन्द्यात् स तत्त्वतः ।।

Translated Sutra: यद्यपि अपरम भाव वाली अपनी पूर्व भूमिका में साधक विषयों को अनिष्ट जानकर उनका त्याग अवश्य करता है और उसे ऐसा करना भी चाहिए, परन्तु परमार्थ भूमि के हस्तगत हो जाने के कारण ज्ञानी तो तत्त्वतः सिद्ध व मुक्त ही है। इसलिए वह न तो कुछ त्याग करता है, न ग्रहण।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

13. उत्तम त्याग Hindi 281 View Detail
Mool Sutra: णिव्वेगतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवेच्चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ।।

Translated Sutra: जो जीव पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन हो जाता है, उसको त्यागधर्म होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

13. उत्तम त्याग Hindi 282 View Detail
Mool Sutra: जे य कंते पिय भोए, लद्धे विपिट्ठीकुव्वइ। साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ ।।

Translated Sutra: अपने को प्रिय लगनेवाले भोग प्राप्त हो जाने पर भी जो उनके प्रति हर प्रकार पीठ दिखाकर चलता है, और स्वतंत्र रूप से उनका त्याग कर देता है, (अर्थात् उन पदार्थों की आवश्यकता ही उसे अपने जीवन में प्रतीत नहीं होती है) वही सच्चा त्यागी है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) Hindi 283 View Detail
Mool Sutra: होऊण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं। णिद्दंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स किंचण्हं ।।

Translated Sutra: जो मुनि सभी प्रकार के परिग्रह या मूर्च्छा से रहित होकर और सुख व दुःख दायक कर्म-जनित निज भावों को रोककर निश्चिन्तता पूर्वक आचरण करता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) Hindi 284 View Detail
Mool Sutra: अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी। ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तं वि ।।

Translated Sutra: तत्त्वतः मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ और सदा अरूपी हूँ। मेरे सिवाय अन्य कुछ परमाणु मात्र भी यहाँ मेरा नहीं है। १. [दर्शन ज्ञान युक्त यह शाश्वत आत्मा ही मेरा है। इसके अतिरिक्त अन्य सर्व बाह्याभ्यन्तर पदार्थ संयोगज होने के कारण स्वरूपतः मुझसे भिन्न हैं।] २. [जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इस प्रकार निश्चित
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

14. उत्तम आकिंचन्य (कस्य स्विद्धनम्) Hindi 285 View Detail
Mool Sutra: सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो णत्थि किंचण। मिहिलाए डज्झमाणीए, ण मे डज्झइ किंचण ।।

Translated Sutra: मैं सुखपूर्वक रहता हूँ और सुखपूर्वक जीता हूँ। मिथिला नगरी में मेरा कुछ भी नहीं है। इसलिए इन महलों के जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता है। (राजा जनक का यह भाव ही आकिंचन्य धर्म है।)
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

1. लोक सूत्र Hindi 286 View Detail
Mool Sutra: आदिणिहणेण हीणो, पगदिसरूवेण एस संजादो। जीवाजीवसमिद्धो, सव्वण्हावलोइओ लोओ ।।

Translated Sutra: सर्वज्ञ भगवान से अवलोकित यह लोक अनाद्यनन्त, स्वतः सिद्ध और जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है। (यह तीन भागों में विभाजित है-अधो, मध्य व ऊर्ध्व है। अधोलोक में नारकीयों का, मध्य में मनुष्य व तिर्यंचों का तथा ऊर्ध्वलोक में देवों का वास है।)
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

1. लोक सूत्र Hindi 287 View Detail
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।।

Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

1. लोक सूत्र Hindi 288 View Detail
Mool Sutra: जीवा पुग्गलकाया, आयासं अत्थिकाइया सेसा। अमया अत्थित्तमया, कारणभूदा हि लोगस्स ।।

Translated Sutra: इन छह द्रव्यों में से जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म व अधर्म इन पाँच को सिद्धान्त में `अस्तिकाय' संज्ञा प्रदान की गयी है। काल द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी हैं, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण हैं।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

2. जीव द्रव्य (आत्मा) Hindi 289 View Detail
Mool Sutra: कत्ता भोत्ता अमुत्तो, सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दंसणणाणउव ओगो, जीवो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं ।।

Translated Sutra: जीव या आत्मा आकाशवत् अमूर्तीक है और (देह में रहता हुआ) देह-प्रमाण है। यह अनादि निधन अर्थात् स्वतः सिद्ध है। ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग ही उसका प्रधान लक्षण है। (देहधारी) वह अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है तथा उनके सुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता भी है।
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

2. जीव द्रव्य (आत्मा) Hindi 290 View Detail
Mool Sutra: अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं। जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।

Translated Sutra: [जीव द्रव्य इतना निर्विकल्प है कि नेति का आश्रय लिये बिना उसका कथन किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है] वह अरस है, अरूप है, अगन्ध है, अव्यक्त है, अशब्द है तथा अनुमान ज्ञान का विषय न होने से मन-वाणी के अगोचर है। वह न तिकोन है, न चौकोर आदि अन्य किसी संस्थान वाला। (वह अबद्ध है, अस्पृष्ट है, अनन्य व अविशेष है।) चेतना मात्र ही उसका
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