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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 285 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं पिट्ठओ उपेहाए ।
अप्पं बुइएऽपडिभाणी, पंथपेही चरे जयमाणे ॥ Translated Sutra: भगवान चलते हुए न तिरछे और न पीछे देखते थे, वे मौन चलते थे, किसी के पूछने पर बोलते नहीं थे। यतनापूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 286 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने, तं वोसज्ज वत्थमणगारे ।
पसारित्तु बाहुं परक्कमे, नो अवलंबियाण कंधंसि ॥ Translated Sutra: भगवान उस वस्त्र का भी व्युत्सर्ग कर चूके थे। अतः शिशिर ऋतु में वे दोनों बाँहें फैलाकर चलते थे, उन्हें कन्धों पर रखकर खड़े नहीं होते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 287 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: ज्ञानवान महामाहन महावीर ने इस विधि के अनुरूप आचरण किया। उपदेश दिया। अतः मुमुक्षुजन इसका अनुमोदन करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 288 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] चरियासणाइं सेज्जाओ, एगतियाओ जाओ बुइयाओ ।
आइक्ख ताइं सयणासणाइं, जाइं सेवित्था से महावीरो ॥ Translated Sutra: ‘भन्ते ! चर्या के साथ – साथ आपने कुछ आसन और वासस्थान बताए थे, अतः मुझे आप उन शयनासन को बताएं, जिनका सेवन भगवान ने किया था।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 289 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आवेसण ‘सभा-पवासु’, पणियसालासु एगदा वासो ।
अदुवा पलियट्ठाणेसु, पलालपुंजेसु गदा वासो ॥ Translated Sutra: भगवान कभी सूने खण्डहरों में, कभी सभाओं, प्याऊओं, पण्य – शालाओं में निवास करते थे। अथवा कभी लुहार, सुथार, सुनार आदि के कर्मस्थानों में और पलालपुँज के मंच के नीचे उनका निवास होता था। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 290 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आगंतारे आरामागारे, गामे नगरेवि एगदा वासो ।
सुसाणे सुण्णगारे वा, रुक्खमूले वि एगदा वासो ॥ Translated Sutra: भगवान कभी यात्रीगृह में, आरामगृह में, गाँव या नगर में अथवा कभी श्मशान में, कभी शून्यगृह में तो कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 291 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एतेहिं मुनी सयणेहिं, समणे आसी पत्तेरस वासे ।
राइं दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति ॥ Translated Sutra: त्रिजगत्वेत्ता मुनीश्वर इन वासस्थानोंमें साधना काल के बारह वर्ष, छह महीने, पन्द्रह दिनों में शान्त और सम्यक्त्वयुक्त मन से रहे। वे रात – दिन प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहते थे तथा अप्रमत्त और समाहित अवस्था में ध्यान करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 292 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘णिद्दं पि णोपगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए’ ।
जग्गावती य अप्पाणं, ईसिं ‘साई या’ सी अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: भगवान निद्रा भी बहुत नहीं लेते थे। वे खड़े होकर अपने आपको जगा लेते थे। (कभी जरा – सी नींद ले लेते किन्तु सोने के अभिप्राय से नहीं सोते थे।) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 293 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संबुज्झमाणे पुनरवि, आसिंसु भगवं उट्ठाए ।
णिक्खम्म एगया राओ, बहिं चंकमिया मुहुत्तागं ॥ Translated Sutra: भगवान क्षणभर की निद्रा के बाद फिर जागृत होकर ध्यान में बैठ जाते थे। कभी – कभी रात में मुहूर्त्तभर बाहर घूमकर पुनः ध्यान – लीन हो जाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 294 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सयणेहिं तस्सुवसग्गा, भीमा आसी अनेगरूवा य ।
संसप्पगाय जे पाणा, अदुवा जे पक्खिनो उवचरंति ॥ Translated Sutra: उन आवास में भगवान को अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग आते थे। कभी साँप और नेवला आदि प्राणी काट खाते, कभी गिद्ध आकर माँस नोचते। कभी उन्हें चोर या पारदारिक आकर तंग करते, अथवा कभी ग्रामरक्षक उन्हें कष्ट देते, कभी कामासक्त स्त्रियाँ और कभी पुरुष उपसर्ग देते थे। सूत्र – २९४, २९५ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 295 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अदु कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सत्तिहत्था य ।
अदु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगतिया पुरिसा य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २९४ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 296 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इहलोइयाइं परलोइयाइं, भीमाइं अनेगरूवाइं ।
अवि सुब्भि-दुब्भि-गंधाइं, सद्दाइं अनेगरूवाइं ॥ Translated Sutra: भगवान ने इहलौकिक और पारलौकिक नाना प्रकार के भयंकर उपसर्ग सहन किये। वे अनेक प्रकार के सुगन्ध और दुर्गन्ध में तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में हर्ष – शोक रहित मध्यस्थ रहे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 297 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं ।
अरइं रइं अभिभूय, रीयई माहणे अबहुवाई ॥ Translated Sutra: उन्होंने सदा समिति युक्त होकर अनेक प्रकार के स्पर्शों को सहन किया। वे अरति और रति को शांत कर देते थे। वे महामाहन महावीर बहुत ही कम बोलते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 298 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] स जणेहिं तत्थ पुच्छिंसु, एगचरा वि एगदा राओ ।
अव्वाहिए कसाइत्था, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: कुछ लोग आकर पूछते – ‘तुम कौन हो ? यहाँ क्यों खड़े हो ?’ कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते – तब भगवान कुछ नहीं बोलते, इससे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते, फिर भी भगवान समाधि में लीन रहते, परन्तु प्रतिशोध लेने का विचार भी नहीं उठता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 299 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्टु ।
अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति ॥ Translated Sutra: अन्तर में स्थित भगवान से पूछा – ‘अन्दर कौन है ?’ भगवान ने कहा – ‘मैं भिक्षु हूँ।’ यदि वे क्रोधान्ध होते तब भगवान वहाँ से चले जाते। यह उनका उत्तम धर्म है। वे मौन रहकर ध्यान में लीन रहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 300 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जं सिप्पेगे पवेयंति, सिसिरे मारुए पवायंते ।
तंसिप्पेगे अनगारा, हिमवाए णिवायमेसंति ॥ Translated Sutra: शिशिरऋतु में ठण्डी हवा चलने पर कईं लोग काँपने लगते, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी निर्वातस्थान ढूँढ़ते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 301 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संघाडिओ पविसिस्सामो, एहा य समादहमाणा ।
पिहिया वा सक्खामो, अतिदुक्खं हिमग-संफासा ॥ Translated Sutra: हिमजन्य शीत – स्पर्श अत्यन्त दुःखदायी है, यह सोचकर कोई साधु संकल्प करते थे कि चादरों में घूस जाएंगे या काष्ठ जलाकर किवाड़ों को बन्द करके इस ठंड को सह सकेंगे, ऐसा भी कुछ साधु सोचते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 302 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तंसि भगवं अपडिण्णे, अहे वियडे अहियासए दविए ।
निक्खम्म एगदा राओ, चाएइ भगवं समियाए ॥ Translated Sutra: किन्तु उस शिशिर ऋतु में भी भगवान ऐसा संकल्प नहीं करते। कभी – कभी रात्रि में भगवान उस मंडप से बाहर चले जाते, मुहूर्त्तभर ठहर फिर मंडप में आते। उस प्रकार भगवान शीतादि परीषह समभाव से सहन करने में समर्थ थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 303 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: मतिमान महामाहन महावीर ने इस विधि का आचरण किया जिस प्रकार अप्रतिबद्धविहारी भगवान ने बहुत बार इस विधि का पालन किया, उसी प्रकार अन्य साधु भी आत्म – विकासार्थ इस विधि का आचरण करते हैं – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 304 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तणफासे सीयफासे य, तेउफासे य दंस-मसगे य ।
अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं ॥ Translated Sutra: भगवान घास का कठोर स्पर्श, शीत स्पर्श, गर्मी का स्पर्श, डाँस और मच्छरों का दंश; इन नाना प्रकार के दुःखद स्पर्शों को सदा सम्यक् प्रकार से सहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 305 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अह दुच्चर-लाढमचारी, वज्जभूमिं च सुब्भ भूमिं च ।
पंतं सेज्जं सेविंसु, आसणगाणि चेव पंताइं ॥ Translated Sutra: दुर्गम लाढ़ देश के वज्रभूमि और सुम्ह भूमि नामक प्रदेश में उन्होंने बहुत ही तुच्छ वासस्थानों और कठिन आसनों का सेवन किया था। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 306 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] लोढेहिं तस्सुवसग्गा, बहवे जाणवया लूसिंसु ।
अह लूहदेसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु ॥ Translated Sutra: लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान ने अनेक उपसर्ग सहे। वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डण्डों आदि से प्रहार करते थे; भोजन भी प्रायः रूखा – सूखा ही मिलता था। वहाँ के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 307 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पे जणे णिवारेइ, लूसणए सुणए दसमाणे ।
छुछुकारंति आहंसु, समणं कुक्कुरा डसंतुत्ति ॥ Translated Sutra: कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत से लोग इस श्रमण को कुत्ते काँटे, उस नीयत से कुत्तों को बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 308 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एलिक्खए जणे भुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरुसासी ।
लट्ठिं गहाय णालीयं, समणा तत्थ एव विहरिंसु ॥ Translated Sutra: उस जनपद में भगवान ने पुनः पुनः विचरण किया। उस जनपद में दूसरे श्रमण लाठी और नालिका लेकर विहार करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 309 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं पि तत्थ विहरंता, पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणएहिं ।
संलुंचमाणा सुणएहिं, दुच्चरगाणि तत्थ लाढेहिं ॥ Translated Sutra: वहाँ विचरण करने वाले श्रमणों को भी पहले कुत्ते पकड़ लेते, काट खाते या नोंच डालते। उस लाढ़ देश में विचरण करना बहुत ही दुष्कर था। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 310 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] निधाय दंडं पाणेहिं, तं कायं वोसज्जमणगारे ।
अह गामकंटए भगवं, ते अहियासए अभिसमेच्चा ॥ Translated Sutra: अनगार भगवान महावीर प्राणियों प्रति होनेवाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करके (विचरण करते थे) अतः भगवान उन ग्राम्यजनों के काँटों समान तीखे वचनों को (निर्जरा हेतु सहन) करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 311 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नाओ संगामसीसे वा, पारए तत्थ से महावीरे ।
एवं पि तत्थ लाढेहिं, अलद्धपुव्वो वि एगया गामो ॥ Translated Sutra: हाथी जैसे युद्ध के मोर्चे पर (विद्ध होने पर भी पीछे नहीं हटता) युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान महावीर उस लाढ़ देशमें परीषह – सेना को जीतकर पारगामी हुए। कभी – कभी लाढ़ देशमें उन्हें अरण्यमें भी रहना पड़ा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 312 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उवसंकमंतमपडिण्णं, गामंतियं पि अप्पत्तं ।
पडिणिक्खमित्तु लूसिंसु, एत्तो परं पलेहित्ति ॥ Translated Sutra: आवश्यकतावश निवास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे। वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते, तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से नीकलकर भगवान को रोक लेते, उन पर प्रहार करते और कहते – ‘यहाँ से आगे कहीं दूर चले जाओ।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 313 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] हयपुव्वो तत्थ दंडेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ-फलेणं ।
अदु लेलुणा कवालेणं, हंता हंता बहवे कंदिंसु ॥ Translated Sutra: उस लाढ़ देश में बहुत से लोग डण्डे, मुक्के अथवा भाले आदि से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर से मारते, फिर ‘मारो – मारो’ कहकर होहल्ला मचाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 314 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मंसाणि छिन्नपुव्वाइं, उट्ठुभंति एगया कायं ।
परीसहाइं लुंचिंसु, अहवा पसुणा अवकिरिंसु ॥ Translated Sutra: उन अनार्यों ने पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान के शरीर को पकड़कर माँस काट लिया था। उन्हें परीषहों से पीड़ित करते थे, कभी – कभी उन पर धूल फेंकते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 315 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उच्चालइय णिहणिंसु, अदुवा आसणाओ खलइंसु ।
वोसट्ठकाए पणयासी, दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान को ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग आसन से दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान शरीर का व्युत्सर्ग किये हुए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णु प्रतिज्ञा से युक्त थे। अतएव वे इन परीषहों से विचलित नहीं होते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 316 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सूरो संगामसीसे वा, संवुडे तत्थ से महावीरे ।
पडिसेवमाणे फरुसाइं, अचले भगवं रीइत्था ॥ Translated Sutra: जैसे कवच पहना हुआ योद्धा युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से विद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान महावीर लाढ़ादि देश में परीषहसेना से पीड़ित होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए मेरुपर्वत की तरह ध्यान में निश्चल रहकर मोक्षपथ में पराक्रम करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 317 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: (स्थान और आसन के सम्बन्ध में) प्रतिज्ञा से मुक्त मतिमान, महामाहन भगवान महावीर ने इस विधि का अनेक बार आचरण किया; उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 318 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ओमोदरियं चाएत्ति, अपुट्ठे वि भगवं रोगेहिं ।
पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा, नो से सातिज्जति तेइच्छं ॥ Translated Sutra: भगवान रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य तप करते थे। वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे। वे शरीर को आत्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे। सूत्र – ३१८, ३१९ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 319 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संसोहणं च वमणं च, गायब्भंगणं सिणाणं च ।
संबाहणं ण से कप्पे, दंतपक्खालणं परिण्णाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३१८ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 320 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] विरए गामधम्मेहिं, रीयति माहणे अबहुवाई ।
सिसिरंमि एगदा भगवं, छायाए ज्झाइ आसी य ॥ Translated Sutra: महामाहन भगवान विरत होकर विचरण करते थे। वे बहुत बुरा नहीं बोलते थे। कभी – कभी भगवान शिशिर ऋतु में स्थिर होकर ध्यान करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 321 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयावई य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभिवाते ।
अदु जावइत्थं लूहेणं, ओयण-मंथु-कुम्मासेणं ॥ Translated Sutra: भगवान ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते थे। उकडू आसन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे। और वे प्रायः रूखे आहार को दो – कोद्रव व बेर आदि का चूर्ण, तथा उड़द आदि से शरीर – निर्वाह करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 322 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्ठ मासे य जावए भगवं ।
अपिइत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासं पि ॥ Translated Sutra: भगवान ने इन तीनों का सेवन करके आठ मास तक जीवन यापन किया। कभी – कभी भगवान ने अर्ध मास या मासभर तक पानी नहीं पिया। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 323 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता ।
रायोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया भुंजे ॥ Translated Sutra: उन्होंने कभी – कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया। वे रातभर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। कभी – कभी वे वासी भोजन भी करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 324 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] छट्ठेणं एगया भुंजे, अदुवा अट्ठमेण दसमेणं ।
दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: वे कभी बेले, कभी तेले, कभी चौले कभी पंचौले के अनन्तर भोजन करते थे। भोजन प्रति प्रतिज्ञारहित होकर समाधि का प्रेक्षण करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 325 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नच्चाणं से महावीरे, णोवि य पावगं सयमकासी ।
अन्नेहिं वा ण कारित्था, कीरंतं पि णाणुजाणित्था ॥ Translated Sutra: वे भगवान महावीर (दोषों को) जानकर स्वयं पाप नहीं करते थे, दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे और न पाप करने वालों का अनुमोदन करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 326 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गामं पविसे णयरं वा, घासमेसे कडं परट्ठाए ।
सुविसुद्धमेसिया भगवं, आयत-जोगयाए सेवित्था ॥ Translated Sutra: ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे के लिए बने हुए भोजन की एषणा करते थे। सुविशुद्ध आहार ग्रहण करके भगवान आयतयोग से उसका सेवन करते थे। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 327 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अदु वायसा दिगिंछत्ता, जे अन्ने रसेसिनो सत्ता ।
घासेसणाए चिट्ठंते, सययं निवतिते य पेहाए ॥ Translated Sutra: भिक्षाटन के समय, रास्ते में क्षुधा से पीड़ित कौओं तथा पानी पीने के लिए आतुर अन्य प्राणियों को लगातार बैठे हुए देखकर – | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 328 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अदु माहणं व समणं वा, गामपिंडोलगं च अतिहिं वा ।
सोवागं मूसियारं वा, कुक्कुरं ‘वावि विहं ठियं’ पुरतो ॥ Translated Sutra: अथवा ब्राह्मण, श्रमण, गाँव के भिखारी या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को मार्ग में बैठा देखकर – | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 329 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] वित्तिच्छेदं वज्जंतो, तेसप्पत्तियं परिहरंतो ।
मंदं परक्कमे भगवं, अहिंसमानो घासमेसित्था ॥ (त्रिभिः कुलकम्) Translated Sutra: उनकी आजीविका विच्छेद न हो, तथा उनके मन में अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान धीरे – धीरे चलते थे। किसीको जरा – सा भी त्रास न हो, इसलिए हिंसा न करते हुए आहार की गवेषणा करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 330 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि सूइयं व सुक्कं वा, सीयपिंडं पुराणकुम्मासं ।
अदु बक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्धए दविए ॥ Translated Sutra: भोजन सूखा हो, अथवा ठंडा हो, या पुराना उड़द हो, पुराने धान को ओदन हो या पुराना सत्तु हो, या जौ से बना हुआ आहार हो, पर्याप्त एवं अच्छे आहार के मिलने या न मिलने पर इन सब में संयमनिष्ठ भगवान राग – द्वेष नहीं करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 331 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि ज्झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए ज्झाणं ।
उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥ Translated Sutra: भगवान महावीर उकडू आदि आसनों में स्थित होकर ध्यान करते थे। ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में स्थित द्रव्य – पर्याय को ध्यान का विषय बनाते थे। वे असम्बद्ध बातों से दूर रहकर आत्म – समाधि में ही केन्द्रित रहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 332 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अकसाई विगयगेही, सद्दरूवेसुऽमुच्छिए ज्झाति ।
छउमत्थे वि परक्कममाणे, नो पमायं सइं पि कुव्वित्था ॥ Translated Sutra: भगवान क्रोधादि कषायों को शान्त करके, आसक्ति को त्यागकर, शब्द और रूप के प्रति अमूर्च्छित रहकर ध्यान करते थे। छद्मस्थ अवस्था में सदनुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 333 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सयमेव अभिसमागम्म, आयतजोगमायसोहीए ।
अभिणिव्वुडे अमाइल्ले, आवकहं भगवं समिआसी ॥ Translated Sutra: आत्म – शुद्धि के द्वारा भगवान ने स्वयमेव आयतयोग को प्राप्त कर लिया और उनके कषाय उपशान्त हो गए उन्होंने जीवन पर्यन्त माया से रहित तथा समिति – गुप्ति से युक्त होकर साधना की। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 334 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेणं मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: किसी प्रतिज्ञारहित ज्ञानी महामाहन भगवानने अनेकबार इस विधि का आचरण किया, उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी अपने आत्म – विकास के लिए इसी प्रकार आचरण करते थे। ऐसा मैं कहता हूँ |