Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१ प्रज्ञापना |
Hindi | 16 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा? अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतित्थगरसिद्धा सयंबुद्ध-सिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा इत्थीलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धा नपुंसकलिंगसिद्धा सलिंग सिद्धा अन्नलिंगसिद्धा गिहिलिंगसिद्धा एगसिद्धा अनेगसिद्धा।
से त्तं अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा। Translated Sutra: वह अनन्तरसिद्ध – असंसारसमापन्नजीव – प्रज्ञापना क्या है ? पन्द्रह प्रकार की है। (१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकरसिद्ध, (४) अतीर्थंकरसिद्ध, (५) स्वयंबुद्धसिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (७) बुद्ध – बोधितसिद्ध, (८) स्त्रीलिंगसिद्ध, (९) पुरुषलिंगसिद्ध, (१०) नपुंसकलिंगसिद्ध, (११) स्वलिंगसिद्ध, (१२) अन्य – लिंगसिद्ध, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२० अन्तक्रिया |
Hindi | 496 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १ नेरइय अंतकिरिया, २ अनंतरं ३ एगसमय ४ उव्वट्टा ।
५ तित्थगर ६ चक्कि ७ बल, ८ वासुदेव ९ मंडलिय १० रयणा य ॥ Translated Sutra: अन्तक्रियासम्बन्धी १० द्वार – नैरयिकों की अन्तक्रिया, अनन्तरागत जीव – अन्तक्रिया, एक समय में अन्तक्रिया, उद्वृत्त जीवों की उत्पत्ति, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक और रत्नद्वार। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२० अन्तक्रिया |
Hindi | 505 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति–अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा? गोयमा! जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरनामगोयाइं कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाइं कडाइं पट्ठवियाइं निविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमन्नागयाइं उदिण्णाइं नो उवसंताइं भवंति से णं रयणप्पभापुढविनेरइए रयण-प्पभापुढविनेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा, जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरनामगोयाइं नो बद्धाइं जाव नो उदिण्णाइं Translated Sutra: भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है ? गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं क्योंकि – गौतम ! जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक ने तीर्थंकर नाम – गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट, निधत्त, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत है, उदीर्ण है, | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 168 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] साएय कोसला गयपुरं च, कुरु सोरियं कुसट्टा य ।
कंपिल्लं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव ॥ Translated Sutra: कौशल में साकेत, कुरु में गजपुर, कुशार्त्त में सौरीपुर, पंचाल में काम्पिल्य, जांगल में अहिच्छत्रा। सौराष्ट्र में द्वारावती, विदेह में मिथिला, वत्स में कौशाम्बी, शाण्डिल्य में नन्दिपुर, मलय में भद्दिलपुर। मत्स्य में वैराट, वरण में अच्छ, दशार्ण में मृत्तिकावती, चेदि में शुक्तिमती, सिन्धु – सौवीर में वीतभय। शूरसेन | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२ स्थान |
Hindi | 177 | Gatha | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूयत्थेणाधिगया, जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
सहसम्मुइयासवसंवरी य रोएइ उ निसग्गो ॥ Translated Sutra: जो व्यक्ति स्वमति से जीवादि नव तत्त्वों को तथ्य रूप से जान कर उन पर रुचि करता है, वह निसर्ग रुचि। जो व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों पर स्वयमेव चार प्रकार से श्रद्धान् करता है, तथा वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं, उसे निसर्गरुचि जानना। सूत्र – १७७, १७८ | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१६ प्रयोग |
Hindi | 441 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! गइप्पवाए पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–पओगगती ततगती बंधणच्छेदनगती उववायगती विहायगती।
से किं तं पओगगती? पओगगती पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगे भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती।
जीवाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मासरीरकायप्पओगगती।
नेरइयाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! एक्कारसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जतिविहा तस्स ततिविहा भाणितव्वा जाव वेमानियाणं।
जीवा णं भंते! किं सच्चमनप्पओगगती Translated Sutra: भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच – प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपात – गति और विहायोगति। वह प्रयोगगति क्या है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार की, सत्यमनःप्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति। प्रयोग के समान प्रयोगगति भी कहना। भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२० अन्तक्रिया |
Hindi | 506 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा? गोयमा! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति? गोयमा! जहा रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरत्ते।
सक्करप्पभापुढविनेरइए अनंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा? गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइए।
तिरियमणुएहिंतो पुच्छा। गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहिंतो पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा।
एवं बलदेवत्तं पि, नवरं–सक्करप्पभापुढविनेरइए वि लभेज्जा।
एवं वासुदेवत्तं दोहिंतो पुढवीहिंतो वेमाणिएहिंतो Translated Sutra: भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक उद्वर्त्तन करके क्या चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है ? गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं क्योंकि – गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों को तीर्थंकरत्व प्राप्त होने, न होने के कारणों के समान चक्रवर्तीपद प्राप्त होना, न होना समझना। शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक उद्वर्त्तन करके | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 540 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं।
नाणावरणिज्जे णं भंते पन्नत्ते! कम्मे कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–आभिनिबोहियनाणावरणिज्जे सुयनाणावरणिज्जे ओहिनाणावरणिज्जे मनपज्जवनाणावरणिज्जे केवलनाणावरणिज्जे।
दरिसणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–निद्दापंचए य दंसणचउक्कए य।
निद्दापंचए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–निद्दा जाव थीणद्धी।
दंसणचउक्कए णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–चक्खु-दंसणावरणिज्जे Translated Sutra: भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ – ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आभिनिबोधिक यावत् केवलज्ञानावरणीय। दर्शनावरणीयकर्म कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का – निद्रा – पंचक और दर्शनचतुष्क। निद्रा – पंचक कितने प्रकार का है ? गौतम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 541 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती–कम्मनिसेगो।
निद्दापंचयस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडा-कोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती–कम्मनिसेगो।
दंसणचउक्कस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिन्नि य वाससहस्साइं Translated Sutra: भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्ट तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। सम्पूर्ण कर्मस्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर कर्मनिषेक का काल है। निद्रापंचक की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य पल्योपम का असंख्या – तवाँ भाग कम, सागरोपम | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 542 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगिंदिया णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं निद्दापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि।
एगिंदिया णं भंते! जीवा सातावेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
असायावेयणिज्जस्स जहा नाणावरणिज्जस्स।
एगिंदिया णं भंते! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! नत्थि किंचि बंधंति।
एगिंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स Translated Sutra: भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बाँधते हैं ? गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के तीन सप्तमांश और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का। इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का बन्ध भी जानना। एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-२ | Hindi | 543 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बेइंदिया णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवम-पणुवीसाए तिन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं णिद्दापंचगस्स वि।
एवं जहा एगिंदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियव्वं, नवरं–सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियव्वा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणा, सेसं तं चेव, जत्थ एगिंदिया णं बंधंति तत्थ एते वि न बंधंति।
बेइंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति? गोयमा! जहन्नेणं सागरोवम-पणुवीसं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
तिरिक्खजोणियाउअस्स जहन्नेण Translated Sutra: भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के तीन सप्तमांश भाग का और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बाँधते हैं। इसी प्रकार निद्रापंचक की स्थिति जानना। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति के समान द्वीन्द्रिय जीवों की | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 20 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मेहुणसण्णासंपगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहिं हणंति एक्कमेक्कं विसयविसउदीरएसु। अवरे परदारेहिं हम्मंति विसुणिया घननासं सयणविप्पनासं च पाउणंति। परस्स दाराओ जे अविरया मेहुण-सण्णसंपगिद्धा य मोहभरिया अस्सा हत्थी गवा य महिसा मिगा य मारेंति एक्कमेक्कं, मनुयगणा वानरा य पक्खी य विरुज्झंति, मित्ताणि खिप्पं भवंति सत्तू, समये धम्मे गणे य भिंदंति पारदारी। धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण उल्लोट्टए चरित्तओ, जसमंतो सुव्वया य पावंति अयसकित्तिं, रोगत्ता वाहिया य वड्ढेंति रोय-वाही, दुवे य लोया दुआराहगा भवंति–इहलोए चेव परलोए–परस्स दाराओ जे अविरया।
तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिया Translated Sutra: जो मनुष्य मैथुनसंज्ञा में अत्यन्त आसक्त है और मूढता अथवा से भरे हुए हैं, वे आपस में एक दूसरे का शस्त्रों से घात करते हैं। कोई – कोई विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली परकीय स्त्रियों में प्रवृत्त होकर दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं। जब उनकी परस्त्रीलम्पटता प्रकट हो जाती है तब धन का विनाश और स्वजनों का सर्वथा | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ हिंसा |
Hindi | 2 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इणमो अण्हय-संवर-विनिच्छियं पवयणस्स निस्संदं ।
वोच्छामि निच्छयत्थं, सुहासियत्थं महेसीहिं ॥ Translated Sutra: हे जम्बू ! आस्रव और संवर का भलीभाँति निश्चय कराने वाले प्रवचन के सार को मैं कहूँगा, जो महर्षियों – तीर्थंकरों एवं गणधरों आदि के द्वारा निश्चय करने के लिए सुभाषित है – समीचीन रूप से कहा गया है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 15 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण करेंति चोरियं तक्करा परदव्वहरा छेया कयकरण लद्धलक्खा साहसिया लहुस्सगा अतिमहिच्छ लोभगत्था, दद्दर ओवीलका य गेहिया अहिमरा अणभंजका भग्गसंधिया रायदुट्ठकारी य विसयनिच्छूढा लोकवज्झा, उद्दहक गामघाय पुरघाय पंथघायग आलीवग तित्थभेया लहुहत्थ संपउत्ता जूईकरा खंडरक्खत्थीचोर पुरिसचोर संधिच्छेया य गंथिभेदगपरधनहरणलोमावहार- अक्खेवी हडकारक निम्मद्दग गूढचोर गोचोर अस्सचोरग दासिचोरा य एकचोरा ओकड्ढक संपदायक उच्छिंपक सत्थघायक बिलकोलीकारका य निग्गाह विप्पलुंपगा बहुविहतेणिक्कहरणबुद्धी, एते अन्नेय एवमादी परस्स दव्वाहि जे अविरया।
विपुलबल-परिग्गहा य बहवे रायाणो Translated Sutra: उस चोरी को वे चोर – लोग करते हैं जो परकीय द्रव्य को हरण करने वाले हैं, हरण करने में कुशल हैं, अनेकों बार चोरी कर चूके हैं और अवसर को जानने वाले हैं, साहसी हैं, जो तुच्छ हृदय वाले, अत्यन्त महती ईच्छा वाले एवं लोभ से ग्रस्त हैं, जो वचनों के आडम्बर से अपनी असलियत को छिपाने वाले हैं – आसक्त हैं, जो सामने से सीधा प्रहार | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 16 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहेव केइ परस्स दव्वं गवेसमाणा गहिता य हया य बद्धरुद्धा य तरितं अतिधाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गाह चारभड चाडुकराण तेहि य कप्पडप्पहार निद्दय आरक्खिय खर फरुस वयण तज्जण गलत्थल्ल उत्थल्लणाहिं विमणा चारगवसहिं पवेसिया निरयवसहिसरिसं।
तत्थवि गोम्मिकप्पहार दूमण निब्भच्छण कडुयवयण भेसणग भयाभिभूया अक्खित्त नियंसणा मलिणदंडिखंडवसणा उक्कोडा लंच पास मग्गण परायणेहिं गोम्मिकभडेहिं विविहेहिं बंधणेहि, किं ते? हडि नियड बालरज्जुय कुदंडग वरत्त लोह-संकल हत्थंदुय वज्झपट्ट दामक णिक्कोडणेहिं, अन्नेहि य एवमादिएहिं गोम्मिक भंडोवकरणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं संकोडण मोड-णाहि Translated Sutra: इसी प्रकार परकीय धन द्रव्य की खोज में फिरते हुए कईं चोर पकड़े जाते हैं और उन्हें मारा – पीटा जाता है, बाँधा जाता है और कैद किया जाता है। उन्हें वेग के साथ घूमाया जाता है। तत्पश्चात् चोरों को पकड़ने वाले, चौकीदार, गुप्तचर उन्हें कारागार में ठूंस देते। कपड़े के चाबुकों के प्रहारों से, कठोर – हृदय सिपाहियों के तीक्ष्ण | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ताणि उ इमाणि सुव्वय-महव्वयाइंलोकहिय-सव्वयाइं सुयसागर देसियाइं तव संजम महव्वयाइं सीलगुणवरव्वयाइं सच्चज्जवव्वयाइं नरग तिरिय मणुय देवगति विवज्जकाइं सव्वजिनसासणगाइं कम्मरयविदारगाइं भवसयविणासणकाइं दुहसयविमोयणकाइं सुहसयपवत्तणकाइं कापुरिस-दुरु-त्तराइं सप्पुरिसनिसेवियाइं निव्वाणगमणमग्गसग्गपणायगाइं संवरदाराइं पंच कहियाणि उ भगवया।
तत्थ पढमं अहिंसा, जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स भवति–
दीवो ताणं सरणं गती पइट्ठा
निव्वाणं निव्वुई समाही
सत्ती कित्ती कंती
रती य विरती य सुयंग तित्ती
दया विमुत्ती खंती समत्ताराहणा
महंती बोही बुद्धी धिती
समिद्धी रिद्धी विद्धी
ठिती Translated Sutra: हे सुव्रत ! ये महाव्रत समस्त लोक के लिए हितकारी है। श्रुतरूपी सागर में इनका उपदेश किया गया है। ये तप और संयमरूप व्रत है। इन महाव्रतों में शील का और उत्तम गुणों का समूह सन्निहित है। सत्य और आर्जव – इनमें प्रधान है। ये महाव्रत नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बचाने वाले हैं – समस्त जिनों – तीर्थंकरों | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 34 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एसा सा भगवती अहिंसा, जा सा–
भीयाणं पिव सरणं, पक्खीणं पिव गयणं।
तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं।
समुद्दमज्झे व पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं।
दुहट्टियाणं व ओसहिबलं, अडवीमज्झे व सत्थगमणं।
एत्तो विसिट्ठतरिका अहिंसा, जा सा–
पुढवि जल अगणि मारुय वणप्फइ बीज हरित जलचर थलचर खहचर तसथावर सव्वभूय खेमकरी।
[सूत्र] एसा भगवती अहिंसा, जा सा–
अपरिमियनाणदंसणधरेहिं सीलगुण विनय तव संजमनायकेहिं तित्थंकरेहिं सव्वजग-वच्छलेहिं तिलोगमहिएहिं जिणचंदेहिं सुट्ठु दिट्ठा, ओहिजिणेहिं विण्णाया, उज्जुमतीहिं विदिट्ठा, विपुलमतीहिं विदिता, पुव्वधरेहिं अधीता, वेउव्वीहिं पतिण्णा।
आभिनिबोहियनाणीहिं Translated Sutra: यह अहिंसा भगवती जो है सो भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने समान है, प्यास से पीड़ित प्राणियों के लिए जल के समान है, भूखों के लिए भोजन के समान है, समुद्र के मध्य में जहाज समान है, चतुष्पद के लिए आश्रम समान है, दुःखों से पीड़ित के लिए औषध समान है, भयानक जंगल में सार्थ समान है। भगवती अहिंसा | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ अहिंसा |
Hindi | 35 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स इमा पंच भावनाओ पढमस्स वयस्स होंति पाणातिवायवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए।
पढमं–ठाणगमणगुणजोगजुंजण जुगंतरनिवातियाए दिट्ठीए इरियव्वं कीड पयंग तस थावर दयावरेण, निच्चं पुप्फ फल तय पवाल कंद मूल दगमट्टिय बीज हरिय परिवज्जएण सम्मं।
एवं खु सव्वपाणा न हीलियव्वा न निंदियव्वा, न गरहियव्वा, न हिंसियव्वा, न छिंदियव्वा, न भिंदियव्वा, न वहेयव्वा, न भयं दुक्खं च किंचि लब्भा पावेउं जे।
एवं इरियासमितिजोगेण भावित्तो भवति अंतरप्पा, असबलमसंकिलिट्ठ निव्वणचरित्त-भावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।
बितियं च–मणेण पावएणं पावगं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वह बंध परिकिलेसबहुलं भय मरण परिकिलेससंकि-लिट्ठं Translated Sutra: पाँच महाव्रतों – संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये – आगे कही जाने वाली – पाँच भावनाएं प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं। खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व – पर की पीड़ारहितता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ सत्य |
Hindi | 36 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! बितियं च सच्चवयणं–सुद्धं सुइयं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिट्ठं सुपतिट्ठियं सुपतिट्ठियजसं सुसंजमियवयणबुइयं सुरवर नरवसभ पवर बलवग सुविहियजण बहुमयं परमसाहु-धम्मचरणं तव नियम परिग्गहियं सुगतिपहदेसगं च लोगुत्तमं वयमिणं विज्जाहरगगणगमणविज्जाण साहकं सग्गमग्गसिद्धिपहदेसकं अवितहं, तं सच्चं उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं, अत्थतो विसुद्धं उज्जोयकरं पभासकं भवति सव्वभावाण जीवलोगे अविसंवादि जहत्थमधुरं पच्चक्खं दइवयं व जं तं अच्छेरकारकं अवत्थंतरेसु बहुएसु माणुसाणं।
सच्चेण महासमुद्दमज्झे चिट्ठंति, न निमज्जंति मूढाणिया वि पोया।
सच्चेण य उदगसंभमंसि Translated Sutra: हे जम्बू ! द्वितीय संवर सत्यवचन है। सत्य शुद्ध, शुचि, शिव, सुजात, सुभाषित होता है। यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक् विचारपूर्वक कहा गया है। इसे ज्ञानीजनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है। यह सुप्रतिष्ठित है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है। सत्य सुरवरों, नरवृषभों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ सत्य |
Hindi | 37 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इमं च अलिय पिसुण फरुस कडुय चवल वयण परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभाविकं आगमेसिभद्दं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विओसमणं।
तस्स इमा पंच भावणाओ बितियस्स वयस्स अलियवयणवेरमण परिरक्खणट्ठयाए।
पढमं–सोऊणं संवरट्ठं परमट्ठं, सुट्ठु जाणिऊण न वेगियं न तुरियं न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परस्स पीलाकरं सावज्जं, सच्चं च हियं च मियं चगाहकं च सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालम्मि य वत्तव्वं।
एवं अणुवीइसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा, संजय कर चरण नयण वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो।
बितियं–कोहो ण सेवियव्वो। कुद्धो चंडिक्किओ Translated Sutra: अलीक – असत्य, पिशुन – चुगली, परुष – कठोर, कटु – कटुक और चपल – चंचलतायुक्त वचनों से बचाव के लिए तीर्थंकर भगवान ने यह प्रवचन समीचीन रूप से प्रतिपादित किया है। यह भगवत्प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुभ भावना से युक्त है, भविष्य में श्रेयस्कर है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, मुक्ति का सीधा मार्ग है, सर्वोत्कृष्ट | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ दत्तानुज्ञा |
Hindi | 38 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! दत्ताणुण्णायसंवरो नाम होति ततियं–सुव्वतं महव्वतं गुणव्वतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणं-ततण्हामणुगय महिच्छ मणवयणकलुस आयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमण हत्थ पायनिहुयं निग्गंथं नेट्ठिकं निरुत्तं निरासवं निब्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभ पवरबलवग सुविहिय-जनसंमतं परमसाहुधम्मचरणं।
जत्थ य गामागर नगर निगम खेड कब्बड मडंब दोणमुह संवाह पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि मुत्त सिल प्पवाल कंस दूस रयय वरकणग रयणमादिं पडियं पम्हुट्ठं विप्पणट्ठं न कप्पति कस्सति कहेउं वा गेण्हिउं वा। अहिरण्णसुवण्णिकेण समलेट्ठुकंचनेनं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं।
जं Translated Sutra: हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार ‘दत्तानुज्ञात’ नामक है। यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है। यह परकीय द्रव्य – पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा – अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 39 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबू! एत्तो य बंभचेरं–उत्तम तव नियम णाण दंसण चरित्त सम्मत्त विणयमूलं जम नियम गुणप्पहाणजुतं हिमवंत-महंत तेयमंतं पसत्थ गंभीर थिमित मज्झं अज्जवसाहुजणाचरितं मोक्खमग्गं विसुद्ध सिद्धिगति निलयंसासयमव्वाबाहमपुणब्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवमचल-मक्खयकरं जतिवर सारक्खियं सुचरियं सुसाहियं नवरि मुणिवरेहिं महापुरिस धीर सूर धम्मिय धितिमंताण य सया विसुद्धं भव्वं भव्वजणानुचिण्णं निस्संकियं निब्भयं नित्तुसं निरायासं निरुवलेवं निव्वुतिधरं नियम निप्पकंपं तवसंजममूलदलिय नेम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं समितिगुत्तिगुत्तं ज्झाणवरकवाडसुकयं अज्झप्पदिण्णफलिहं संणद्धोत्थइयदुग्गइपहं Translated Sutra: हे जम्बू ! अदत्तादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है। यह ब्रह्मचर्य अनशन आदि तपों का, नियमों का, ज्ञान का, दर्शन का, चारित्र का, सम्यक्त्व का और विनय का मूल है। अहिंसा आदि यमों और गुणों में प्रधान नियमों से युक्त है। हिमवान् पर्वत से भी महान और तेजोवान है। प्रशस्य है, गम्भीर है। इसकी विद्यमानता में मनुष्य | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 40 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचमहव्वय-सुव्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं ।
वेरविरामण पज्जवसाणं, सव्वसमुद्द-महोदधितित्थं ॥ Translated Sutra: यह ब्रह्मचर्यव्रत पाँच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार वाले मुनियों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 41 | Gatha | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थकरेहिं सुदेसियमग्गं, नरयतिरिच्छविवज्जियमग्गं ।
सव्वपवित्त-सुनिम्मियसारं, सिद्धिविमाण-अवंगुयदारं ॥ Translated Sutra: तीर्थंकर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मार्ग – भलीभाँति बतलाए हैं। यह नरकगति और तिर्यंच गति के मार्ग को रोकने वाला है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनाने वाला तथा मुक्ति और वैमानिक देवगति के द्वार को खोलने वाला है। | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 43 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू। स इसी स मुणी स संजए स एव भिक्खू, जो सुद्धं चरति बंभचेरे।
इमं च रति राग दोस मोह पवड्ढणकरं किंमज्झ पमायदोस पासत्थसीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमज्जणाणि य अभिक्खणं कक्खसीसकरचरणवदणधोवण संबाहण गायकम्म परिमद्दण अनु-लेवण चुण्णवास धूवण सरीरपरिमंडण बाउसिक हसिय भणिय नट्टगीयवाइयनडनट्टकजल्ल-मल्लपेच्छण बेलंबक जाणि य सिंगारागाराणि य अण्णाणि य एवमादियाणि तव संजम बंभचेर घातोवघातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जेयव्वाइं सव्वकालं। भावेयव्वो भवइ य अंतरप्पा इमेहिं तव नियम सील जोगेहिं निच्चकालं, किं ते? –
अण्हाणकऽदंतधोवण सेयमलजल्लधारण Translated Sutra: ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु कहा जाता है। जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयत है और वही सच्चा भिक्षु है। ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को रति, राग, द्वेष और मोह, निस्सार प्रमाददोष तथा शिथिलाचारी साधुओं का शील और घृतादि | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ अपरिग्रह |
Hindi | 45 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जो सो वीरवरवयणविरतिपवित्थर-बहुविहप्पकारो सम्मत्तविसुद्धमूलो धितिकंदो विणयवेइओ निग्गततिलोक्कविपुल-जसनिचियपीणपीवरसुजातखंधो पंचमहव्वयविसालसालो भावणतयंत ज्झाण सुभजोग नाण पल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हयफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि सिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खर मोत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवर-वरपायवो। चरिमं संवरदारं।
जत्थ न कप्पइ गामागर नगर खेड कब्बड मडंब दोणमुह पट्टणासमगयं च किंचि अप्पं व बहुं व अणुं व थूलं व तस थावरकाय दव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं। न हिरण्ण सुवण्ण खेत्त वत्थुं, न दासी दास भयक पेस हय गय गवेलगं व, न जाण जुग्ग सयणासणाइं, Translated Sutra: श्रीवीरवर – महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर – पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है। विनय इसकी वेदिका है। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भावनाएं इस संवरवृक्ष | |||||||||
Pushpachulika | पुष्पचूला | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ थी १० |
Hindi | 3 | Sutra | Upang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फचूलियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सिरिदेवी सोहम्मे कप्पे सिरिवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सिरिवडिंसयंसि सीहासनंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा बहुपुत्तिया जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया,
नवरं–दारियाओ नत्थि। पुव्वभवपुच्छा।
एवं Translated Sutra: हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या आशय बताया है ? हे जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। श्रेणिक राजा था। श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे। परिषद् नीकली। उस काल और उस समय श्रीदेवी सौधर्मकल्प में श्री अवतंसक विमान की सुधर्मासभा में बहुपुत्रिका | |||||||||
Pushpika | पूष्पिका | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ बहुपुत्रिका |
Hindi | 8 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पुप्फियाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाने सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ।
इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-आभोएमाणी Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो भदन्त ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। राजा श्रेणिक था। स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद् नीकली। उस काल और उस समय में सौधर्मकल्प | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 5 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियाभे देवे सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाने सभाए सुहम्माए सूरियाभंसि सीहासनंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं, चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अनिएहिं, सत्तहिं अनियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहिं बहूहिं सूरियाभ-विमानवासीहिं वेमानिएहिं देवेहिं देवीहिं य सद्धिं संपरिवुडे महयाहयनट्ट गीय वाइय तंती तल ताल तुडिय घन मुइंग पडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे-आभोएमाणे पासति।
तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे (दीवे?) भारहे Translated Sutra: उस काल उस समय में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा और बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देवदेवियों सहित अव्याहत निरन्तर | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 23 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्स एयमट्ठं नो आढाइ नो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठति।
तए णं से सूरियाभे देवे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी– तुब्भे णं भंते! सव्वं जाणह सव्वं पासह, सव्वओ जाणह सव्वओ पासह, सव्वं कालं जाणह सव्वं कालं पासह, सव्वे भावे जाणह सव्वे भावे पासह। जाणंति णं देवानुप्पिया! मम पुव्विं वा पच्छा वा ममेयरूवं दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवानुभावं लद्धं पत्तं अभिसमण्णागयं ति, तं इच्छामि णं देवानुप्पियाणं भत्तिपुव्वगं गोयमातियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवजुइं Translated Sutra: तब सूर्याभदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव के इस कथन का आदर नहीं किया, उसकी अनुमोदना नहीं की, किन्तु मौन रहे। तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने दूसरी और तीसरी बार भी पुनः इसी प्रकार से श्रमण भगवान महावीर से निवेदन किया – हे भगवन् ! आप सब जानते हैं आदि, यावत् नाट्य – विधि प्रदर्शित करना | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 24 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति, करेत्ता तं चेव भाणियव्वं जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था।
तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स आवड पच्चावड सेढि पसेढि सोत्थिय सोवत्थिय पूसमाणव वद्धमाणग मच्छंडा मगरंडा जारा मारा फुल्लावलि पउमपत्त सागरतरंग वसंतलता पउमलयभत्तिचित्तं नामं दिव्वं नट्टविहिं उवदंसेंति।
एवं च एक्किक्कियाए नट्टविहीए समोसरणादिया एसा वत्तव्वया जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था।
तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स ईहामिअ उसभ तुरग नर मगर विहग वालग किन्नर रुरु Translated Sutra: इसके बाद सभी देवकुमार और देवकुमारियाँ पंक्तिबद्ध होकर एक साथ मिले। सब एक साथ नीचे नमे और एक साथ ही अपना मस्तक ऊपर कर सीधे खड़े हुए। इसी क्रम से पुनः कर सीधे खड़े होकर नीचे नमे और फिर सीधे खड़े हुए। खड़े होकर एक साथ अलग – अलग फैल गए और फिर यथायोग्य नृत्य – गान आदि के उपकरणों – वाद्यों को लेकर एक साथ ही बजाने लगे, एक साथ | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 30 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सूरियाभे णं विमाने एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाणं, एवं मिगज्झयाणं गरुडज्झयाणं रुच्छज्झयाणं छत्तज्झयाणं पिच्छज्झयाणं सउणिज्झयाणं सीहज्झयाणं, उसभज्झयाणं, अट्ठसयं सेयाणं चउ विसानाणं नागवरकेऊणं।
एवामेव सपुव्वावरेणं सूरियाभे विमाने एगमेगे दारे असीयं असीयं केउसहस्सं भवति इति मक्खायं।
तेसि णं दाराणं एगमेगे दारे पण्णट्ठिं-पण्णट्ठिं भोमा पन्नत्ता। तेसि णं भोमाणं भूमिभागा उल्लोया य भाणियव्वा तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जाणि तेत्तीसमाणि भोमाणि । तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं पत्तेयं सीहासने पन्नत्ते? सीहासनवण्णओ सपरिवारो। अवसेसेसु भोमेसु Translated Sutra: सूर्याभ विमान के प्रत्येक द्वार के ऊपर चक्र, मृग, गरुड़, छत्र, मयूरपिच्छ, पक्षी, सिंह, वृषभ, चार दाँत वाले श्वेत हाथी और उत्तम नाग के चित्र से अंकित एक सौ आठ ध्वजाएं फहरा रही हैं। इस तरह सब मिलाकर एक हजार अस्सी ध्वजाएं उस सूर्याभ विमान के प्रत्येक द्वार पर फहरा रही हैं – ऐसा तीर्थंकर भगवंतों ने कहा है। उन द्वारों | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 39 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सभाए णं सुहम्माए उत्तरपुरत्थिमेणं, एत्थ णं महेगे सिद्धायतणे पन्नत्ते–एगं जोयणसयं आयामेणं, पन्नासं जोयणाइं विक्खंभेणं, बावत्तरिं जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं सभागमएणं जाव गोमाणसियाओ, भूमिभागा उल्लोया तहेव।
तस्स णं सिद्धायतनस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पन्नत्ता–सोलस जोयणाइं आयामविक्खंभेणं, अट्ठ जोयणाइं बाहल्लेणं।
तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं, एत्थ णं महेगे देवच्छंदए पन्नत्ते–सोलस जोयणाइं आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं सोलस जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे।
तत्थ णं अट्ठसयं जिनपडिमाणं जिनुस्सेहप्पमाणमित्ताणं संनिखित्तं Translated Sutra: सुधर्मा सभा के ईशान कोण में एक विशाल (जिनालय) सिद्धायतन है। वह सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और बहत्तर योजन ऊंचा है। तथा इस सिद्धायतन का गोमानसिकाओं पर्यन्त एवं भूमिभाग तथा चंदेवा का वर्णन सुधर्मासभा के समान जानना। उस सिद्धायतन (जिनालय) के ठीक मध्यप्रदेश में सोलह योजन लम्बी – चौड़ी, आठ योजन मोटी एक विशाल मणिपीठिका | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 42 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सूरियाभे देवे तेसिं सामानियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिए पीइमने परमसोमनस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए सयणिज्जाओ अब्भुट्ठेति, अब्भुट्ठेत्ता उववायसभाओ पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ, जेणेव हरए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हरयं अनुपयाहिणीकरेमाणे-अनुपयाहिणीकरेमाणे पुरत्थिमिल्लेणं तोरणेणं अनुप-विसइ, अनुपविसित्ता पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवानपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जलावगाहं करेइ, करेत्ता जल-मज्जणं करेइ, करेत्ता जलकिड्डं करेइ, करेत्ता जलाभिसेयं करेइ, करेत्ता आयंते चोक्खे परमसूईभूए हरयाओ Translated Sutra: तत्पश्चात् वह सूर्याभदेव उन सामानिकपरिषदोपगत देवों से इस अर्थ को सूनकर और हृदय में अवधारित कर हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हृदय होता हुआ शय्या से उठा और उठकर उपपात सभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से नीकला, नीकलकर ह्रद पर आया, ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती तोरण से होकर उसमें प्रविष्ट हुआ। पुर्वदिशावर्ती | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 44 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स चत्तारि सामानियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे सूरियाभविमानवासिणो वेमाणिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जाव सहस्सपत्तहत्थगया सूरियाभं देवं पिट्ठतो-पिट्ठतो समनुगच्छंति।
तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया वंदनकलस-हत्थगया जाव अप्पेगतिया धूवकडुच्छुयहत्थगया हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया पीइमणा परमसोमनस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया सूरियाभं देवं पिट्ठतो-पिट्ठतो समनुगच्छंति।
तए णं से सूरियाभे देवे चउहिं सामानियसाहस्सीहिं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहि य सूरियाभविमानवासीहिं Translated Sutra: तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य बहुत से सूर्याभविमान वासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ – सहस्रपत्र कमलों कोल कर सूर्याभदेव के पीछे – पीछे चले। तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव के बहुत – से अभियोगिक देव और देवियाँ हाथों में कलश यावत् धूप – दानों | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | Hindi | 24 | View Detail | ||
Mool Sutra: जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं।।८।। Translated Sutra: जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो तथा जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी न चाहो। यही जिनशासन है--तीर्थंकर का उपदेश है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 427 | View Detail | ||
Mool Sutra: उसहादिजिणवराणं, णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च।
काऊण अच्चिदूण य, तिसुद्धिपणामो थवो णेओ।।११।। Translated Sutra: ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नामों की निरुक्ति तथा उनके गुणों का कीर्तन करना, गंध-पुष्प-अक्षतादि से पूजा-अर्चा करके, मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 431 | View Detail | ||
Mool Sutra: विणओवयार माणस्स-मंजणा, पूजणा गुरुजणस्स।
तित्थयराणय आणा-सुयधम्मा राहणा किरिया।।१५।। Translated Sutra: वंदना करना, उपचार नाम का विनय है। उससे अभिमान का विलय होता है, गुरुजनो की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना होती है तथा उसका पारम्परिक फल परम ध्यान (अक्रिया) होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 514 | View Detail | ||
Mool Sutra: रयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं।
संसारं तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए।।१०।। Translated Sutra: (वास्तव में-) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 693 | View Detail | ||
Mool Sutra: तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थार-मूलवागरणी।
दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सिं।।४।। Translated Sutra: तीर्थंकरों के वचन दो प्रकार के हैं--सामान्य और विशेष। दोनों प्रकार के वचनों की राशियों के (संग्रह के) मूल प्रतिपादक नय भी दो ही हैं--द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सब नय इन दोनों के ही अवान्तर भेद हैं। (द्रव्यार्थिक नय वस्तु के सामान्य अंश का प्रतिपादक है और पर्यायार्थिक विशेषांश का।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४२. निक्षेपसूत्र | Hindi | 741 | View Detail | ||
Mool Sutra: दव्वं खु होइ दुविहं, आगम-णोआगमेण जह भणियं।
अरहंत-सत्थ-जाणो, अणजुत्तो दव्व-अरिहंतो।।५।। Translated Sutra: जहाँ वस्तु की वर्तमान अवस्था का उल्लंघन कर उसका भूतकालीन या भावी स्वरूपानुसार व्यवहार किया जाता है, वहाँ द्रव्यनिक्षेप होता है। उसके दो भेद हैं--आगम और नोआगम। अर्हत्कथित शास्त्र का जानकार जिस समय उस शास्त्र में अपना उपयोग नहीं लगाता उस समय वह आगम द्रव्यनिक्षेप से अर्हत् है। नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेद | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४४. वीरस्तवन | Hindi | 756 | View Detail | ||
Mool Sutra: जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ।
जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो।।७।। Translated Sutra: द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवन्त हों, तीर्थंकरों में अन्तिम जयवन्त हों। लोकों के गुरु जयवन्त हों। महात्मा महावीर जयवन्त हों। | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | English | 431 | View Detail | ||
Mool Sutra: विनयोपचारः मानस्य-भंजनं, पूजनं गुरुजनस्य।
तीर्थकराणांच आज्ञा-श्रुतधर्म आराधना अक्रिया।।१५।। Translated Sutra: Humility is a must; it dispels pride; it amounts to worship of the preceptor and tirthankaras and it is the obedience of scriptural tenets. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | English | 514 | View Detail | ||
Mool Sutra: रत्नत्रयसंयुक्तः जीवः अपि भवति उत्तमं तीर्थम्।
संसारं तरति यतः, रत्नत्रयदिव्यनावा।।१०।। Translated Sutra: A soul endowed with the Three Jewels constitutes an excellent ford. One can cross the ocean of transmigratory cycle with the aid of the divine boat of Three Jewles. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | English | 693 | View Detail | ||
Mool Sutra: तीर्थंकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तार - मूलव्याकरणी।
द्रव्यार्थिकश्च पर्यवनयश्च, शेषाः विकल्पाः एतेषाम्।।४।। Translated Sutra: The entire body of the teachings of Tirthankara taken in its entirely and taken in its particular details is to be explained with the help of two basic standpoints (nayas)-viz that substantial point of view (dravyarthikanaya) and that modificational point of view (paryayarthikanaya). The rest of them are the offshoots of these two. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४४. वीरस्तवन | English | 756 | View Detail | ||
Mool Sutra: जयति श्रुतानां प्रभवः, तीर्थंकराणामपश्चिमो जयति।
जयति गुरुर्लोकानां, जयति महात्मा महावीरः।।७।। Translated Sutra: Let victory be to the great soul Mahavira who is the source of all scriptural texts, who is the last among tirthankaras, who acts as teacher to all the world. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Gujarati | 431 | View Detail | ||
Mool Sutra: विनयोपचारः मानस्य-भंजनं, पूजनं गुरुजनस्य।
तीर्थकराणांच आज्ञा-श्रुतधर्म आराधना अक्रिया।।१५।। Translated Sutra: વંદન કરવાથી ગુરુનો વિનય થાય છે, પોતાના અભિમાનનો નાશ થાય છે, ગુરુજનોનું પૂજન થાય છે, તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાનું પાલન થાય છે, જ્ઞાનની આરાધના થાય છે અને તેના ફળસ્વરૂપે ધ્યાન અને મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Gujarati | 514 | View Detail | ||
Mool Sutra: रत्नत्रयसंयुक्तः जीवः अपि भवति उत्तमं तीर्थम्।
संसारं तरति यतः, रत्नत्रयदिव्यनावा।।१०।। Translated Sutra: જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્ર રૂપી રત્નત્રયથી સંપન્ન આત્મા તીર્થ છે, કારણ કે રત્નત્રયરૂપ નૌકા વડે એ સંસાર સાગરને તરી જાય છે. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Gujarati | 693 | View Detail | ||
Mool Sutra: तीर्थंकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तार - मूलव्याकरणी।
द्रव्यार्थिकश्च पर्यवनयश्च, शेषाः विकल्पाः एतेषाम्।।४।। Translated Sutra: તીર્થંકરની વાણીના બે મુખ્ય પ્રકાર છે - કેટલાંક વચન વસ્તુના સામાન્ય ધર્મના નિરૂપક છે, બીજાં વિશેષ ધર્મનાં નિરૂપક છે. સામાન્ય ધર્મપ્રતિપાદક દૃષ્ટિકોણને દ્રવ્યાર્થિક નય કહેવાય છે અને વિશેષ ધર્મપ્રતિપાદક કથનને પર્યાયાર્થિક નય કહેવાય છે. બાકીના નયો આ બે ન | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४४. वीरस्तवन | Gujarati | 756 | View Detail | ||
Mool Sutra: जयति श्रुतानां प्रभवः, तीर्थंकराणामपश्चिमो जयति।
जयति गुरुर्लोकानां, जयति महात्मा महावीरः।।७।। Translated Sutra: સર્વ શ્રુતજ્ઞાનની ઉત્પત્તિનાં મૂળ સ્રોત સમાન, અંતિમ તીર્થંકર, લોકગુરુ, મહાત્મા મહાવીર પ્રભુનો જય હો! |