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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 130 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] का अरई? के आनंदे? एत्थंपि अग्गहे चरे। सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीण-गुतो परिव्वए ॥ पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि?

Translated Sutra: उस (धूत – कल्प)योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द है? वह इस विषय में बिलकुल ग्रहण रहित होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य आदि त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन – वचन – काया को तीन गुप्तियों से गुप्त करते हुए विचरण करे। हे पुरुष ! तू ही मेरा मित्र है, फिर बाहर अपने से भिन्न मित्र क्यों ढूँढ़ रहा है ?
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 131 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥ पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि। पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि। सच्चस्स आणाए ‘उवट्ठिए से’ मेहावी मारं तरति। सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति।

Translated Sutra: जिसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर अत्यन्त दूर समझो, जिसे अत्यन्त दूर समझते हो उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो। हे पुरुष ! अपना ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है। सत्य
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 132 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] दुहओ जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमादेंति।

Translated Sutra: राग और द्वेष (इन) दोनों से कलुषित आत्मा जीवन की वन्दना, सम्मान और पूजा के लिए प्रवृत्त होता है। कुछ साधक भी इन के लिए प्रमाद करते हैं।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-३ अक्रिया Hindi 133 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ‘सहिए दुक्खमत्ताए’ पुट्ठो नो झंझाए। पासंमि दविए लोयालोय-पवंचाओ मुच्चइ।

Translated Sutra: ज्ञानादि से युक्त साधक दुःख की मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं होता। आत्मद्रष्टा वीतराग पुरुष लोक में आलोक के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-४ कषाय वमन Hindi 134 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से वंता कोहं च, माणं च, मायं च, लोभं च। एयं पासगस्स दंसणं ‘उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स’। आयाणं निसिद्धा? सगडब्भि।

Translated Sutra: वह (साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर देता है। यह दर्शन हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ – सर्वदर्शी का है। जो कर्मों के आदान का निरोध करता है, वही स्व – कृत का भेत्ता है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-४ कषाय वमन Hindi 135 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ।

Translated Sutra: जो एक को जानता है, वह सब को जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-४ कषाय वमन Hindi 136 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। ‘जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे’। दुक्खं लोयस्स जाणित्ता। वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं । परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं ॥

Translated Sutra: प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है। साधक लोक के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे) वीर साधक लोक के संयोग का परित्याग कर महायान को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-४ कषाय वमन Hindi 137 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ। सड्ढी आणाए मेहावी। लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं। अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं।

Translated Sutra: एक को पृथक्‌ करने वाला, अन्य (कर्मों) को भी पृथक्‌ कर देता है, अन्य को पृथक्‌ करने वाला, एक को भी पृथक्‌ कर देता है। (वीतराग की) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। साधक आज्ञा से लोक को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय हो जाता है। शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-३ शीतोष्णीय

उद्देशक-४ कषाय वमन Hindi 138 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी। जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी। जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी। जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी। जे जम्म-दंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी। जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी। से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च। एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स। आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि। किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ? नत्थि।

Translated Sutra: जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है, जो मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है, जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ सम्यक्वाद Hindi 139 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति–सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा। एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। तं जहा–उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवट्ठिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा। संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा। तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सिं चेयं पवुच्चइ।

Translated Sutra: मैं कहता हूँ – जो अर्हन्त भगवान अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे – वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं – समस्त प्राणियों, सर्व भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का हनन नहीं करना चाहिए, बलात्‌ उन्हें शासित नहीं करना चाहिए, न उन्हें दास
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ सम्यक्वाद Hindi 140 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तं आइइत्तु न णिहे न निक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा। दिट्ठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा। नो लोगस्सेसणं चरे।

Translated Sutra: साधक उस (अर्हत्‌ भाषित – धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर (उसका आचरण करे)। (इष्ट – अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। वह लोकैषणा में न भटके।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ सम्यक्वाद Hindi 141 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया? दिट्ठं सुयं मयं विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जइ। समेमाणा पलेमाणा, पुणो-पुनो जातिं पकप्पेंति।

Translated Sutra: जिस मुमुक्षु में यह बुद्धि नहीं है, उससे अन्य (सावद्याम्भ) प्रवृत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी विवेक बुद्धि कैसे होगी ? यह जो (अहिंसा धर्म) कहा जा रहा है, वह इष्ट, श्रुत, मत और विशेष रूप से ज्ञात है। हिंसा में (गृद्धिपूर्वक) रचे – पचे रहने वाले और उसी में
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ सम्यक्वाद Hindi 142 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अहो य राओ य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि।

Translated Sutra: (मोक्षमार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सतत प्रज्ञावान्‌, धीर साधक ! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं, (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (धर्म में) पराक्रम कर। ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा Hindi 143 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा – एए पए संबुज्झमाणे, लोयं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेइयं।

Translated Sutra: जो आस्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिस्रव – कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं, जो परिस्रव हैं, वे आस्रव हो जाते हैं, जो अनास्रव – व्रत विशेष हैं, वे भी अपरिस्रव – कर्म के कारण हो जाते हैं, (इसी प्रकार) जो अपरिस्रव, वे भी अनास्रव नहीं होते हैं। इन पदों को सम्यक्‌ प्रकार से समझने वाला तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा Hindi 144 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवन्नाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं। अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता। अहासच्चमिणं- ति बेमि। नानागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया । कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, ‘पुढो-पुढो जाइं पकप्पयंति’ ॥

Translated Sutra: ज्ञानी पुरुष, इस विषयमें, संसारमें स्थित, सम्यक्‌ बोध पाने को उत्सुक एवं विज्ञान – प्राप्त मनुष्यों को उपदेश करते हैं। जो आर्त अथवा प्रमत्त होते हैं, वे भी धर्म का आचरण कर सकते हैं। यह यथातथ्य – सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ जीवों को मृत्यु के मुख में जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी कुछ लोग ईच्छा द्वारा प्रेरित
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा Hindi 145 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ‘इहमेगेसिं तत्थ-तत्थ संथवो भवति। अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति। चिट्ठं कूरेहिं कम्महिं चिट्ठं परिचिट्ठति । अचिट्ठं कूरेहिं कम्मेहिं, णोचिट्ठं परिचिट्ठति ॥ एगे वयंति अदुवा वि नाणी, नाणी वयंति अदुवा वि एगे।

Translated Sutra: इस लोक में कुछ लोगों को उन – उन (विभिन्न मतवादों) का सम्पर्क होता है, (वे) लोक में होनेवाले दुःखों का संवेदन करते हैं। जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ़ अध्यवसायवश क्रूर कर्मों से प्रवृत्त होता है, वह अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता। यह बात चौदह पूर्वों के धारक श्रुतकेवली आदि कहते हैं या केवलज्ञानी
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा Hindi 146 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवंति केआवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति–से दिट्ठं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता’ हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा। एत्थ वि जाणह नत्थित्थ दोसो। अनारियवयणमेयं। तत्थ जे ते आरिया, ते एवं वयासी–से दुद्दिट्ठं च भ, दुस्सुयं च भ, दुम्मयं च भे, दुव्विण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जण्णं तुब्भे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं ‘परूवेह, एवं पण्णवेह’– ‘सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा,

Translated Sutra: इस मत – मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न – भिन्न मतवाद का प्रतिपादन करते हैं। जैसे की कुछ मतवादी कहते हैं – ‘हमने यह देख लिया है, सून लिया है, मनन कर लिया है और विशेष रूप से जान भी लिया है, ऊंची, नीची और तिरछी सब दिशाओं में सब तरह से भली – भाँति इसका निरीक्षण भी कर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-३ अनवद्यतप Hindi 147 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] उवेह एणं बहिया य लोयं, से सव्वलोगंसि जे केइ विण्णू । अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति ॥ नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू। आरंभजं दुक्खमिणंति नच्चा, एवमाहु समत्तदंसिणो। ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति। इति कम्म परिण्णाय सव्वसो।

Translated Sutra: इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से) विमुख जो लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर ! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में अग्रणी विज्ञ है। तू अनुचिन्तन करके देख – जिन्होंने दण्ड का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान होते हैं।) जो सत्त्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक्‌ विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म का क्षय करते हैं। ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-३ अनवद्यतप Hindi 148 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं। जहा जुण्णाइं कट्ठाइं, हव्ववाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे। विगिंच कोहं अविकंपमाणे।

Translated Sutra: यहाँ (अर्हत्प्रवचनमें) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित अनासक्त होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर को प्रकम्पित कर डाले। अपने कषाय – आत्मा को कृश करे, जीर्ण कर डाले। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालत है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्मा को शीघ्र जला डालता है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-३ अनवद्यतप Hindi 149 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] इमं निरुद्धाउयं संपेहाए दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं। पुढो फासाइं च फासे। लोयं च पास विप्फंदमाणं। जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं, अनिदाणा ते वियाहिया। तम्हा तिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि।

Translated Sutra: यह मनुष्य – जीवन अल्पायु है, यह सम्प्रेक्षा करता हुआ साधक अकम्पित रहकर क्रोध का त्याग करे। (क्रोधादि से) वर्तमानमें अथवा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाले दुःखों को जाने। क्रोधी पुरुष भिन्न – भिन्न नरकादि स्थानोंमें विभिन्न दुःखों का अनुभव करता है। प्राणीलोक को इधर – उधर भाग – दौड़ करते देख ! जो पुरुष पापकर्मों
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 150 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं। तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सया जए। दुरनुचरो मग्गो वीराणं अनियट्टगामीणं। विगिंच मंस-सोणियं। एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए । जे धुनाइ समुस्सयं, वसित्ता बंभचेरंसि ॥

Translated Sutra: मुनि पूर्व – संयोग का त्याग कर उपशम करके (शरीर का) आपीड़न करे, फिर प्रपीड़न करे और तब निष्पीड़न करे। मुनि सदा अविमना, प्रसन्नमना, स्वारत, समित, सहित और वीर होकर (इन्द्रिय और मन का) संयमन करे। अप्रमत्त होकर जीवन – पर्यन्त संयम – साधन करने वाले, अनिवृत्तगामी मुनियों का मार्ग अत्यन्त दुरनुचर होता है। (संयम और मोक्षमार्ग
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 151 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेत्तेहिं पलिछिन्नेहिं, आयाणसोय-गढिए बाले। अव्वोच्छिन्नबंधणे, अनभिक्कंतसंजोए। तमंसि अविजाणओ आणाए लंभो नत्थि

Translated Sutra: नेत्र आदि इन्द्रियों पर नियंत्रण का अभ्यास करते हुए भी जो पुनः कर्म के स्रोत में गृद्ध हो जाता है तथा जो जन्म – जन्मों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह – अन्धकार में निमग्न वह बाल – अज्ञानी मानव अपने आत्महित एवं मोक्षोपाय को नहीं जान पाता। ऐसे साधक को आज्ञा का लाभ नहीं प्राप्त होता।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 152 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया? से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सम्ममेयंति पासह। जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं। पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं। ‘कम्मुणा सफलं’ दट्ठुं, तओ णिज्जाइ वेयवी।

Translated Sutra: जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का) पूर्व – संस्कार नहीं है और पश्चात्‌ का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा ? (जिसकी भोगकांक्षाएं शान्त हो गई हैं।) वही वास्तव में प्रज्ञानवान्‌ है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। यह सम्यक्‌ है, ऐसा तुम देखो – सोचो। (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-४ सम्यक्त्व

उद्देशक-४ संक्षेप वचन Hindi 153 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे खलु भो! वीरा समिता सहिता सदा जया संघडदंसिनो आतोवरया अहा-तहा लोगमुवेहमाणा, पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं इति सच्चंसि परिचिट्ठिंसु, साहिस्सामो णाणं वीराणं समिताणं सहिताणं सदा जयाणं संघडदंसिणं आतोवरयाणं अहा-तहा लोगमुवेहमाणाणं। किमत्थि उवाधी पासगस्स ‘न विज्जति? नत्थि’।

Translated Sutra: हे आर्यो ! जो साधक वीर हैं, समित हैं, सहित हैं, संयत हैं, सतत शुभाशुभदर्शी हैं, (पापकर्मों से) स्वतः उपरत हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं, सभी दिशाओं में भली प्रकार सत्य में स्थित हो चूके हैं, उन के सम्यग्‌ ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसका उपदेश करेंगे। (ऐसे) सत्यद्रष्टा वीर के कोई उपाधि होती है ? नहीं होती। – ऐसा मैं
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-१ एक चर Hindi 154 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ‘आवंती केआवंति लोयंसि विप्परामुसंति, अट्ठाए अणट्ठाए वा’, एएसु चेव विप्परामुसंति। गुरू से कामा। तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे। नेव से अंतो, नेव से दूरे।

Translated Sutra: इस लोक में जितने भी कोई मनुष्य सप्रयोजन या निष्प्रयोजन जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों में विविध रूप में उत्पन्न होते हैं। उनके लिए शब्दादि काम का त्याग करना बहुत कठिन होता है। इसलिए (वह) मृत्यु की पकड़ में रहता है, इसलिए अमृत (परमपद) से दूर होता है। वह (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-१ एक चर Hindi 155 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से पासति फुसियमिव, कुसग्गे पणुन्नं निवतितं वातेरितं । एवं बालस्स जीवियं, मंदस्स अविजाणओ ॥ कूराणि कम्माणि बाले पकुव्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ। मोहेण गब्भं मरनाति एति। एत्थ मोहे पुणो-पुनो

Translated Sutra: वह पुरुष (कामनात्यागी) कुश की नोंक को छुए हुए (बारंबार दूसरे जलकण पड़ने से) अस्थिर और वायु के झोंके से प्रेरित होकर गिरते हुए जलबिन्दु की तरह जीवन को (अस्थिर) जानता – देखता है। बाल, मन्द का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह (जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता। वह बाल – हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-१ एक चर Hindi 156 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति।

Translated Sutra: जिसे संशय का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जानता।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-१ एक चर Hindi 157 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे छेए से सागारियं ण सेवए। ‘कट्टु एवं अविजाणओ’ बितिया मंदस्स बालया। लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अनासेवनयाए

Translated Sutra: जो कुशल है, वह मैथुन सेवन नहीं करता। जो ऐसा करके उसे छिपाता है, वह उस मूर्ख की दूसरी मूर्खता है। उपलब्ध कामभोगों का पर्यालोचन करके, सर्व प्रकार से जानकर उन्हें स्वयं सेवन न करे और दूसरों को भी कामभोगों के कटुफल का ज्ञान कराकर उनके अनासेवन की आज्ञा दे, ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-१ एक चर Hindi 158 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे। ‘एत्थ फासे’ पुणो-पुणो आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी। एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं, ‘असरणे सरणं’ ति मन्नमाणे। इहमेगेसिं एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, आसवसक्की पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे ‘मा से केइ अदक्खू’ अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ। अट्ठा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आवट्टं अणुपरियट्टंति।

Translated Sutra: हे साधको ! विविध कामभोगों में गृद्ध जीवों को देखो, जो नरक – तिर्यंच आदि यातना – स्थानों में पच रहे हैं – उन्हीं विषयों से खिंचे जा रहे हैं। इस संसार प्रवाह में उन्हीं स्थानों का बारंबार स्पर्श करते हैं। इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीवी हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों) के कारण आरम्भजीवी हैं। अज्ञानी साधक इस
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-२ विरत मुनि Hindi 159 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोयंसि अणारंभजीवी, एतेसु चेव मनारंभजीवी। एत्थोवरए तं झोसमाणे ‘अयं संधी’ ति अदक्खु। जे ‘इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति मन्नेसी। एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते। उट्ठिए नोपमायए। जाणित्तु दुक्खं पत्तयं सायं’। पुढोछंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं। से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए।

Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी हैं, वे (अनारम्भ – प्रवृत्त गृहस्थों) के बीच रहते हुए भी अना – रम्भजीवी हैं। इस सावद्य से उपरत अथवा आर्हत्‌शासन में स्थित अप्रमत्त मुनि खयह सन्धि हैं। – ऐसा देखकर उसे क्षीण करता हुआ (क्षणभर भी प्रमाद न करे)। ‘इस औदारिक शरीर का यह वर्तमान क्षण है,’ इस प्रकार जो क्षणान्वेषी
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-२ विरत मुनि Hindi 160 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एस समिया-परियाए वियाहिते। जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं, उदाहु ते आयंका फुसंति। इति उदाहु वीरे ते फासे पुट्ठो हियासए। से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्मं, विद्धंसण-धम्मं, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं, विपरिनाम धम्मं, पासह एयं रूवं।

Translated Sutra: ऐसा साधक शमिता या समता का पारगामी, कहलाता है। जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं है, कदाचित्‌ उन्हें आतंक स्पर्श करे, ऐसे प्रसंग पर धीर (वीर) तीर्थंकर महावीर न कहा कि ‘उन दुःखस्पर्शों को (समभावपूर्वक) सहन करे।’ यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे अवश्य छूट जाएगा। इस रूप – देह के स्वरूप को देखो, छिन्न – भिन्न और
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-२ विरत मुनि Hindi 161 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] संधिं समुप्पेहमाणस्स एगायतण-रयस्स इह विप्पमुक्कस्स, नत्थि मग्गे विरयस्स

Translated Sutra: जो आत्म – रमण रूप आयतन में लीन है, मोह ममता से मुक्त है, उस हिंसादि विरत साधक के लिए संसार – भ्रमण का मार्ग नहीं है – ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

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उद्देशक-२ विरत मुनि Hindi 162 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोगंसि परिग्गहावंती–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावंती। एतदेवेगेसि महब्भयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए। एए संगे अविजाणतो।

Translated Sutra: इस जगत में जितने भी प्राणी परिग्रहवान हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इनमें (मूर्च्छा के कारण) ही परिग्रहवान हैं। यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है। साधकों ! असंयमी – परिग्रही लोगों के वित्त – या वृत्त को देखो। (इन्हें भी महान भयरूप
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-२ विरत मुनि Hindi 163 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से ‘सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति नच्चा’, पुरिसा! परमचक्खू! विपरक्कमा। एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि। से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, ‘बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव’। एत्थ विरते अनगारे, दीहरायं तितिक्खए। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए ॥ एयं मोणं सम्मं अणुवासिज्जासि।

Translated Sutra: (परिग्रह महाभय का हेतु है) यह सम्यक्‌ प्रकार से प्रतिबुद्ध है और सुकथित है, यह जानकर परमचक्षुष्मान्‌ पुरुष! तू (परिग्रह से मुक्त होने) पुरुषार्थ कर। (जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। मैंने सूना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-३ अपरिग्रह Hindi 164 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती। सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते ॥ जहेत्थ मए संधी झोसिए, एवमण्णत्थ संधी दुज्झोसिए भवति, तम्हा बेमि–नो निहेज्ज वीरियं।

Translated Sutra: इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में (मूर्च्छा – ममता न रखने के कारण) ही अपरिग्रही हैं। मेधावी साधक (आगमरूप) वाणी सूनकर तथा पण्डितों के वचन पर चिन्तन – मनन करके (अपरिग्रही) बने। आर्यों (तीर्थंकरों) ने ‘समता में धर्म कहा है।’ (भगवान महावीर ने कहा) जैसे मैंने ज्ञान – दर्शन – चारित्र – इन
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

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उद्देशक-३ अपरिग्रह Hindi 165 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे पुव्वुट्ठाई, नोपच्छा-निवाई। जे पुव्वुट्ठाई, पच्छा-निवाई। जे नोपुव्वुट्ठाई, नोपच्छा-निवाई। सेवि तारिसए सिया, जे परिण्णाय लोगमणुस्सिओ।

Translated Sutra: (इस मुनिधर्म में मोक्ष – मार्ग साधक तीन प्रकार के होते हैं) – एक वह होता है, जो पहले साधना के लिए उठता है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है। दूसरा वह है – जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है। तीसरा वह होता है – जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है। जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-३ अपरिग्रह Hindi 166 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एयं नियाय मुनिणा पवेदितं–इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं संपेहाए, सुणिया भवे अकामे अज्झंज्झे। इमेणं चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ?

Translated Sutra: इस (उत्थान – पतन के कारण) को केवलज्ञानालोक से जानकर मुनिन्द्र ने कहा – मुनि आज्ञा में रुचि रखे, वह पण्डित है, अतः स्नेह से दूर रहे। रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में (स्वाध्याय में) यत्नवान रहे, सदा शील का सम्प्रेक्षण करे (लोक में सारभूत तत्त्व को) सूनकर काम और लोभेच्छा से मुक्त हो जाए। इसी (कर्म – शरीर) के साथ युद्ध
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-३ अपरिग्रह Hindi 167 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] ‘जुद्धारिहं खलु दुल्लहं’। जहेत्थ कुसलेहि परिण्णा-विवेगे भासिए। चुए हु बाले गब्भाइसु रज्जइ। अस्सिं चेयं पव्वुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा। से हु एगे संविद्धपहे मुनी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे। इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति। संजमति नोपगब्भति। उवेहमानो पत्तेयं सायं। वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए। एगप्पमुहे विदिसप्पइण्णे, निव्विन्नचारी अरए पयासु।

Translated Sutra: (अन्तर – भाव) युद्ध के योग अवश्य ही दुर्लभ है। जैसे कि तीर्थंकरों ने इस (भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक (ये दो शस्त्र) बताए हैं। (मोक्ष – साधना के लिए उत्थित होकर) भ्रष्ट होनेवाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि में फँस जाता है। इस अर्हत्‌ शासनमें यह कहा जाता है – रूप (तथा रसादि)में एवं हिंसामें (आसक्त होनेवाला उत्थित होकर
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

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उद्देशक-३ अपरिग्रह Hindi 168 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुभं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पाव कम्मं। तं नो अन्नेसिं। जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ॥ न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं। मुनी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं। पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो। एस ओहंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए।

Translated Sutra: संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे। जिस सम्यक्‌ को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक्‌ को देखते हो। (सम्यक्त्व) का सम्यक्‌रूप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल हैं, आसक्ति – मूलक स्नेह से आर्द्र
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-४ अव्यक्त Hindi 169 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्कंतं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो।

Translated Sutra: जो भिक्षु (अभी तक) अव्यक्त अवस्थामें है, उसका अकेले ग्रामानुग्राम विहार करना दुर्यात्‌ और दुष्पराक्रम है
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-४ अव्यक्त Hindi 170 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा। उन्नयमाणे य नरे, महता मोहेण मुज्झति। संबाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। एयं ते मा होउ। एयं कुसलस्स दंसणं। तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरवकारे, तस्सण्णी तन्निवेसणे। जयंविहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाती पलीवाहरे, पासिय पाणे गच्छेज्जा।

Translated Sutra: कईं मानव थोड़े – से प्रतिकूल वचन सूनकर भी कुपित हो जाते हैं। स्वयं को उन्नत मानने वाला अभिमानी मनुष्य प्रबल मोह से मूढ़ हो जाता है। उसको एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्गजनित एवं रोग – आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएं बार – बार आती हैं, तब उस अज्ञानी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यंत कठिन होता है। (ऐसी अव्यक्त
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-४ अव्यक्त Hindi 171 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विणियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे। एगया गुणसमियस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति। इहलोग-वेयण वेज्जावडियं। जं ‘आउट्टिकयं कम्मं’, तं परिण्णाए विवेगमेति। एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति वेयवी।

Translated Sutra: वह भिक्षु जाता हुआ, वापस लौटता हुआ, अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता समस्त अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर, सम्यक्‌ प्रकार से परिमार्जन करता हुआ समस्त क्रियाएं करे। किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-४ अव्यक्त Hindi 172 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra:

Translated Sutra: वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति से युक्त, सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है – ‘यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा ?’ वह स्त्रियाँ परम आराम हैं। (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक – सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?) ग्रामधर्म
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श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-५ ह्रद उपमा Hindi 173 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–तं जहा। अवि हरए पडिपुण्णे, चिट्ठइ समंसि भोमे । उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठति सोयमज्झगए ॥ से पास पव्वतो गुत्ते, पास लोए महेसिणो, जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया। सम्ममेयंति पासह। कालस्स कंखाए परिव्वयंति

Translated Sutra: मैं कहता हूँ – जैसे एक जलाशय जो परिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, उसकी रज उपशान्त है, (अनेक जलचर जीवों का) संरक्षण करता हुआ, वह जलाशय स्रोत के मध्य में स्थित है। (ऐसा ही आचार्य होता है)। इस मनुष्यलोक में उन (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) सर्वतः गुप्त महर्षियों को तू देख, जो उत्कृष्ट ज्ञानवान्‌ (आगमश्रुत – ज्ञाता) हैं, प्रबुद्ध
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-५ ह्रद उपमा Hindi 174 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णोलभति समाधिं। सिया वेगे अनुगच्छंति, असिया वेगे अनुगच्छंति, अनुगच्छमाणेहिं अननुगच्छमाणे कहं न निव्विज्जे?

Translated Sutra: विचिकित्सा – प्राप्त आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता। कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध) आचार्य का अनुगमन करते हैं, कुछ असित (अप्रतिबद्ध) भी विचिकित्सादि रहित होकर (आचार्य का) अनुगमन करते हैं। इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुआ अनुगमन न करने वाला कैसे उदासीन नहीं होगा ?
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-५ ह्रद उपमा Hindi 175 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं।

Translated Sutra: वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-५ ह्रद उपमा Hindi 176 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: सड्ढिस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स–समियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। समियंति मण्णमा-णस्स एगया असमिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ। समियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, समिया होइ उवेहाए। असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए। उवेहमानो अणुवेहमाणं बूया उवेहाहि समियाए। इच्चेवं तत्थ संधी झोसितो भवति। उट्ठियस्स ठियस्स गतिं समणुपासह। एत्थवि बालभावे अप्पाणं णोउवदंसेज्जा।

Translated Sutra: श्रद्धावान्‌ सम्यक्‌ प्रकार से अनुज्ञा शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक्‌ स्वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक्‌ मानता है और उस समय (उत्तरकाल में) भी सम्यक्‌ (मानता) रहता है। (२) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक्‌ मानता है, किन्तु बाद में किसी समय उसका व्यवहार असम्यक्‌ हो जाता है। (३) कोई मुनि
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

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उद्देशक-५ ह्रद उपमा Hindi 177 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘हंतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘अज्जावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परितावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परिघेतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘उद्दवेयव्वं’ ति मन्नसि। अंजू चेय-पडिबुद्ध-जीवी, तम्हा ण हंता न विघायए। अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं ‘हंतव्वं’ ति नाभिपत्थए।

Translated Sutra: तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। ज्ञानी पुरुष ऋजु होते हैं, वह प्रतिबोध पाकर जीने वाला होता है। इसके कारण वह स्वयं
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

अध्ययन-५ लोकसार

उद्देशक-५ ह्रद उपमा Hindi 178 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया। तं पडुच्च पडिसंखाए। एस आयावादी समियाए- परियाए वियाहिते।

Translated Sutra: जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। क्योंकि ज्ञानों से आत्मा जानता है, इसलिए वह आत्मा है। उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से आत्मा की प्रतीति होती है। यह आत्म – वादी सम्यक्तता का परिगामी कहा गया है। ऐसा मैं कहता हूँ।
Acharang आचारांग सूत्र Ardha-Magadhi

श्रुतस्कंध-१

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उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन Hindi 179 Sutra Ang-01 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निरुवट्ठाणा। एतं ते मा होउ। एयं कुसलस्स दंसणं। तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे।

Translated Sutra: कुछ साधक अनाज्ञा में उद्यमी होते हैं और कुछ साधक आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं। यह तुम्हारे जीवन में न हो। यह (अनाज्ञा में अनुद्यम और आज्ञा में उद्यम) मोक्ष मार्ग – दर्शन – कुशल तीर्थंकर का दर्शन है। साधक उसी में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, सब कार्यों में उसे आगे करके प्रवृत्त हो,
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