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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 562 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गोयमा धम्मतित्थंकरे जिने अरहंते।
अह तारिसे वि इड्ढी-पवित्थरे, सयल-तिहुयणाउलिए।
साहीणे जग-बंधू मनसा वि न जे खणं लुद्धे॥ Translated Sutra: हे गौतम ! धर्म तीर्थंकर भगवंत, अरिहंत, जिनेश्वर जो विस्तारवाली ऋद्धि पाए हुए हैं। ऐसी समृद्धि स्वाधीन फिर भी जगत् बन्धु पलभर उसमें मन से भी लुभाए नहीं। उनका परमैश्वर्य रूप शोभायमय लावण्य, वर्ण, बल, शरीर प्रमाण, सामर्थ्य, यश, कीर्ति जिस तरह देवलोक में से च्यवकर यहाँ अवतरे, जिस तरह दूसरे भव में, उग्र तप करके देवलोक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 570 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] होही खणं अप्फालिय-सूसर-गंभीर-दुंदुहि-णिग्घोसा।
जय-सद्द-मुहल-मंगल-कयंजली जह य खीर-सलिलेणं॥ Translated Sutra: पलभर हाथ हिलाना, सुन्दर स्वर में गाना, गम्भीर दुंदुभि का शब्द करते, क्षीर समुद्र में से जैसे शब्द प्रकट हो वैसे जय जय करनेवाले मंगल शब्द मुख से नीकलते थे और जिस तरह दो हाथ जोड़कर अंजलि करते थे, जिस तरह क्षीर सागर के जल से कईं खुशबूदार चीज की खुशबू से सुवासित किए गए सुवर्ण मणिरत्न के बनाए हुए ऊंचे कलश से जन्माभिषेक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 590 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एयं तु जं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अनंत-गम-पज्जवेहिं सुत्तस्स य पिहब्भूयाहिं निज्जुत्ती-भास-चुण्णीहिं जहेव अनंत-नाण-दंसण-धरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जं तं आसि
(२) अह-न्नया काल-परिहाणि-दोसेणं ताओ निज्जुत्ती-भास चुण्णीओ वोच्छिण्णाओ
(३) इओ य वच्चंतेणं काल समएणं महिड्ढी-पत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुयहरे समुप्पन्ने
(४) तेणे यं पंच-मंगल-महा-सुयक्खंधस्स उद्धारो मूल-सुत्तस्स मज्झे लिहिओ
(५) मूलसुत्तं पुन सुत्तत्ताए गणहरेहिं, अत्थत्ताए अरहंतेहिं, भगवंतेहिं, धम्मतित्थंकरेहिं, तिलोग-महिएहिं, वीर-जिणिंदेहिं, Translated Sutra: यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध नवकार का व्याख्यान महा विस्तार से अनन्तगम और पर्याय सहित सूत्र से भिन्न ऐसे निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि से अनन्त ज्ञान – दर्शन धारण करनेवाले तीर्थंकर ने जिस तरह व्याख्या की थी। उसी तरह संक्षेप से व्याख्यान किया जाता था। लेकिन काल की परिहाणी होने के दोष से वो निर्युक्ति भाष्य, चूर्णिका | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 595 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एवं स सुत्तत्थोभयत्तगं चिइ-वंदणा-विहाणं अहिज्जेत्ता णं तओ सुपसत्थे सोहणे तिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्ग-ससी-बले।
(२) जहा सत्तीए जग-गुरूणं संपाइय-पूओवयारेणं पडिलाहियसाहुवग्गेण य, भत्तिब्भर-निब्भरेणं, रोमंच-कंचुपुलइज्जमाणतणू सहरिसविसट्ट वयणारविंदेणं, सद्धा-संवेग-विवेग-परम-वेरग्ग-मूलं विणिहय-घनराग-दोस-मोह-मिच्छत्त-मल-कलंकेण
(३) सुविसुद्ध-सुनिम्मल-विमल-सुभ-सुभयरऽनुसमय-समुल्लसंत-सुपसत्थज्झवसायगएणं, भुवण-गुरु-जियणंद पडिमा विणिवेसिय-नयन-मानसेणं अनन्नं-माणसेगग्ग-चित्तयाए य।
(४) धन्नो हं पुन्नो हं ति जिन-वंदणाइ-सहलीकयजम्मो त्ति इइ मन्नमानेणं, विरइय-कर-कमलंजलिणा, Translated Sutra: इस प्रकार सूत्र, अर्थ और उभय सहित चैत्यवंदन आदि विधान पढ़कर उसके बाद शुभ तिथि, करण, मुहूर्त्त, नक्षत्र योग, लग्न और चन्द्रबल का योग हुआ हो उस समय यथाशक्ति जगद्गुरु तीर्थंकर भगवंत को पूजने लायक उपकरण इकट्ठे करके साधु भगवंत को प्रतिलाभी का भक्ति पूर्ण हृदयवाला रोमांचित बनकर पुलकित हुए शरीरवाला, हर्षित हुए मुखारविंदवाला, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 600 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं सुदुक्करं पंच-मंगल-महासुयक्खंधस्स विणओवहाणं पन्नत्तं, महती य एसा नियंतणा, कहं बालेहिं कज्जइ
(२) गोयमा जे णं केइ न इच्छेज्जा एयं नियंतणं, अविनओवहाणेणं चेव पंचमंगलाइ सुय-नाणमहिज्जिणे अज्झावेइ वा अज्झावयमाणस्स वा अणुन्नं वा पयाइ।
(३) से णं न भवेज्जा पिय-धम्मे, न हवेज्जा दढ-धम्मे, न भवेज्जा भत्ती-जुए, हीले-ज्जा सुत्तं, हीलेज्जा अत्थं, हीलेज्जा सुत्त-त्थ-उभए हीलेज्जा गुरुं।
(४) जे णं हीलेज्जा सुत्तत्थोऽभए जाव णं गुरुं, से णं आसाएज्जा अतीताऽणागय-वट्टमाणे तित्थयरे, आसाएज्जा आयरिय-उवज्झाय-साहुणो
(५) जे णं आसाएज्जा सुय-नाणमरिहंत-सिद्ध-साहू, से तस्स णं सुदीहयालमणंत-संसार-सागरमाहिंडेमाणस्स Translated Sutra: हे भगवंत ! यह पंचमंगल श्रुतस्कंध पढ़ने के लिए विनयोपधान की बड़ी नियंत्रणा – नियम बताए हैं। बच्चे ऐसी महान नियंत्रणा किस तरह कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो कोई ईस बताई हुई नियंत्रणा की ईच्छा न करे, अविनय से और उपधान किए बिना यह पंचमंगल आदि श्रुतज्ञान पढ़े – पढ़ाए या उपधान पूर्वक न पढ़े या पढ़ानेवाले को अच्छा माने उसे नवकार | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 621 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं कयरे ते दंसण-कुसीले गोयमा दंसण-कुसीले दुविहे नेए–आगमओ नो आगमओ य। तत्थ आगमो सम्मद्दंसणं,
१ संकंते, २ कंखंते, ३ विदुगुंछंते, ४ दिट्ठीमोहं गच्छंते अणोववूहए, ५ परिवडिय-धम्मसद्धे सामन्नमुज्झिउ-कामाणं अथिरीकरणेणं, ७ साहम्मियाणं अवच्छल्लत्तणेणं, ८ अप्पभावनाए एतेहिं अट्ठहिं पि थाणंतरेहिं कुसीले नेए। Translated Sutra: हे भगवंत ! दर्शनकुशील कितने प्रकार के होते हैं ? हे गौतम ! दर्शनकुशील दो प्रकार के हैं – एक आगम से और दूसरा नोआगम से। उसमें आगम से सम्यग्दर्शन में शक करे, अन्य मत की अभिलाषा करे, साधु – साध्वी के मैले वस्त्र और शरीर देखकर दुगंछा करे। घृणा करे, धर्म करने का फल मिलेगा या नहीं, सम्यक्त्व आदि गुणवंत की तारीफ न करना। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 644 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पिंडविसोही गया।
इयाणिं समितीओ पंच। तं जहा इरिया-समिती, २ भासा-समिई, ३ एसणा-समिई, ४ आयाण भंड-मत्त-निक्खेवणा-समिती, ५ उच्चार-पास-वण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणिया-समिती।
तहा गुत्तीओ तिन्नि-मण-गुत्ती, वइ-गुत्ती, काय-गुत्ती,
तहा भावनाओ दुवालस। तं जहा–१ अनिच्चत्त-भावना, २ असरणत्त-भावना, ३ एगत्त-भावना, ४ अन्नत्त-भावना, ५-असुइ-भावना, ६-विचित्त-संसार-भावना, ७ कम्मासव-भावना, ८ संवर-भावना, ९ विनिज्जरा-भावना, १० लोगवि-त्थरभावना, ११ धम्मं सुयक्खायं सुपन्नत्तं तित्थयरेहिं ति भावना, तत्तचिंता भावना, १२ बोहि-सुदुल्लभा-जम्मंतर-कोडीहिं वि त्ति भावना।
एवमादि-थाणंतरेसुं जे पमायं कुज्जा, Translated Sutra: अब पाँच समिति इस प्रकार बताई है – ईयासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंड़ – मत्तनिक्षेपणा समिति और उच्चार – पासवण खेल सिंधाणजल्लपारिष्ठापनिका समिति और तीन गुप्ति, मन गुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति और बारह भावना वो इस प्रकार – १. अनित्यभावना, २. अशरण भावना, ३. एकत्वभावना, ४. अन्यत्व – भावना, ५. अशुचिभावना, ६. विचित्र | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 662 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहन्नया अनुपहेणं गच्छमाणेहिं दिट्ठा तेहिं पंच साहुणो छट्ठं समणोवासगं ति। तओ भणियं नाइलेण जहा–भो सुमती भद्दमुह पेच्छ, केरिसो साहु सत्थो ता एएणं चेव साहु-सत्थेणं गच्छामो, जइ पुणो वि, नूणं गंतव्वं। तेण भणियं एवं होउ त्ति।
तओ सम्मिलिया तत्थ सत्थे-जाव णं पयाणगं वहंति ताव णं भणिओ सुमती नातिलेणं जहा णं भद्दमुह मए हरिवंस-तिलय-मरगयच्छविणो सुगहिय-नाम-धेज्जस्स बावीसइम-तित्थगरस्स णं अरिट्ठनेमि नामस्स पाय-मूले सुहनिसन्नेणं एवमव-धारियं आसी, जहा, जे एवंविहे अनगार-रूवे भवंति ते य कुसीले, जे य कुसीले ते दिट्ठीए वि निरक्खिउं न कप्पंति।
ता एते साहुणो तारिसे मणागं, न कप्पए एतेसिं Translated Sutra: अब देशान्तर की और प्रयाण करनेवाले ऐसे उन दोनों ने रास्ते में पाँच साधु और छट्ठा एक श्रमणोपासक – उन्हें दिखे। तब नागिल ने सुमति को कहा कि अरे सुमति ! भद्रमुख, देखो, इन साधुओं का साथ कैसा है तो हम भी इस साधु के समुदाय के साथ जाए। उसने कहा कि भले, वैसा करे। केवल एक मुकाम पर जाने के लिए प्रयाण करते थे तब नागिल ने सुमति | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 677 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवमायण्णिऊण तओ भणियं सुमइणा। जहा–तुमं चेव सत्थवादी भणसु एयाइं, नवरं न जुत्तमेयं जं साहूणं अवन्नवायं भासिज्जइ।
अन्नं तु–किं न पेच्छसि तुमं एएसिं महानुभागाणं चेट्ठियं छट्ठ-ट्ठम-दसम दुवालस-मास- खमणाईहिं आहा-रग्गहणं गिम्हायावणट्ठाए वीरासण-उक्कुडुयासण-नाणाभिग्गह-धारणेणं च कट्ठ-तवोणुचरणेणं च पसुक्खं मंस-सोणियं ति महाउ-वासगो सि तुमं, महा-भासा-समिती विइया तए, जेणेरिस-गुणोवउत्ताणं पि महानुभागाणं साहूणं कुसीले त्ति नामं संकप्पियंति। तओ भणियं नाइलेणं जहा मा वच्छ तुमं एतेणं परिओसमुवयासु, जहा अहयं आसवारेणं परिमुसिओ।
अकाम-निज्जराए वि किंचि कम्मक्खयं भवइ, किं पुन Translated Sutra: ऐसा सुनकर सुमति ने कहा – तुम ही सत्यवादी हो और इस प्रकार बोल सकते हो। लेकिन साधु के अवर्णवाद बोलना जरा भी उचित नहीं है। वो महानुभाव के दूसरे व्यवहार पर नजर क्यों नहीं करते ? छट्ठ, अट्ठम, चार – पाँच उपवास मासक्षमण आदि तप करके आहार ग्रहण करनेवाले ग्रीष्म काल में आतापना लेते है। और फिर विरासन उत्कटुकासन अलग – अलग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 679 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं तओ वी मए समाणे से सुमती जीवे कहं उववायं लभेज्जा गोयमा तत्थेव पडिसंताव-दायगथले तेणेव कमेणं सत्त भवंतरे तओ वि दुट्ठ साणे, तओ वि कण्हे, तओ वि वाणमंतरे, तओ वि लिंबत्ताए वणस्सईए।
तओ वि मनुएसुं, इत्थि त्ताए, तओ वि छट्ठीए, तओ वि मनुयत्ताए कुट्ठी, तओ वि वाणमंतरे, तओ वि महाकाए जूहाहिवती गए, तओ वि मरिऊणं मेहुणासत्ते अनंत वणप्फतीए, तओ वि अनंत कालाओ मनुएसुं संजाए। तओ वि मनुए महानेमित्ती, तओ वि सत्तमाए, तओ वि महामच्छे चरिमोयहिम्मि, तओ सत्तमाए तओ वि गोणे, तओ वि मनुए, तओ वि विडव कोइलियं, तओ वि जलोयं वि महामच्छे, तओ वि तंदुलमच्छे, तओ वि सत्तमाए तओ वि रासहे, तओ वि साणे, तओ वि किमी, तओ Translated Sutra: हे भगवंत ! वहाँ मरकर उस सुमति का जीव कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! वहीं वो प्रतिसंताप दायक नाम की जगह में, उसी क्रम से साँत भव तक अंड़गोलिक मानव रूप से पैदा होगा। उसके बाद दुष्ट श्वान के भव, उसके बाद काले श्वान में, उसके बाद वाणव्यंतर में, उसके बाद नीम की वनस्पति में, उसके बाद स्त्री – रत्न के रूपमेँ, उसके बाद छट्ठी नारकी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 682 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं ते साहुणो तस्स णं णाइल सड्ढगस्स छंदेणं कुसीले उयाहु आगम जुत्तीए गोयमा कहं सड्ढगस्स वरायस्सेरिसो सामत्थो जे णं तु सच्छंदत्ताए महानुभावाणं सुसाहूणं अवन्नवायं भासे तेणं सड्ढगेणं हरिवंस तिलय मरगयच्छ-विणो बावीसइम धम्म तित्थयर अरिट्ठनेमि नामस्स सयासे वंदन वत्तियाए गएणं आयारंगं अनंत गमपज्जवेहिं पन्नविज्जमाणं सम-वधारियं। तत्थ य छत्तीसं आयारे पन्नविज्जंति।
तेसिं च णं जे केइ साहू वा साहुणी वा अन्नयरमायारमइक्कमेज्जा, से णं गारत्थीहिं उवमेयं। अहन्नहा समनुट्ठे वाऽऽयरेज्जा वा पन्नवेज्जा वा तओ णं अनंत संसारी भवेज्जा।
ता गोयमा जे णं तु मुहनंतगं अहिगं Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या वो पाँच साधु को कुशील रूप में नागिल श्रावक ने बताया वो अपनी स्वेच्छा से या आगम शास्त्र के उपाय से ? हे गौतम ! बेचारे श्रावक को वैसा कहने का कौन – सा सामर्थ्य होगा ? जो किसी अपनी स्वच्छन्द मति से महानुभाव सुसाधु के अवर्णवाद बोले वो श्रावक जब हरिवंश के कुलतिलक मरकत रत्न समान श्याम कान्तिवाले बाईसवें | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 683 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं सो उण णाइल सड्ढगो कहिं समुप्पन्नो गोयमा सिद्धीए।
से भयवं कहं गोयमा ते णं महानुभागेणं तेसिं कुसीलाणं संसग्गिं णितुट्ठेऊणं तीए चेव बहु सावय तरु संड संकुलाए घोर-कंताराडवीए सव्व पाव कलिमल कलंक विप्पमुक्कं तित्थयर वयणं परमहियं सुदुल्लहं भवसएसुं पि त्ति कलिऊणं अच्चंत विसुद्धासएणं फासुद्देसम्मि निप्पडिकम्मं निरइयारं पडिवन्नं पडिवन्नं पायवोगमणमणसणं ति।
अहन्नया तेणेव पएसेणं विहर-माणो समागओ तित्थयरो अरिट्ठनेमी। तस्स य अणुग्गहट्ठाए तेणे य अचलिय सत्तो भव्वसत्तो त्ति काऊणं उत्तिमट्ठ पसाहणी कया साइसया देसणा। तमायन्न-माणो सजल जलहर निनाय देव दुंदुही निग्घोसं Translated Sutra: हे भगवंत ! वो नागिल श्रावक कहाँ पैदा हुआ ? हे गौतम ! वो सिद्धिगति में गया। हे भगवंत ! किस तरह? हे गौतम ! महानुभाव नागिल ने उस कुशील साधु के पास से अलग होकर कईं श्रावक और पेड़ से व्याप्त घोर भयानक अटवी में सर्व पाप कलिमल के कलंक रहित चरम हितकारी सेंकड़ों भव में भी अति दुर्लभ तीर्थंकर भगवंत का वचन है ऐसा मानकर निर्जीव | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 695 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं तेसिं संखातीताणं गच्छमेरा थाणंतराणं अत्थि, केई अन्नयरे थाणंतरेणं जे णं उसग्गेण वा, अववा-एण वा कहं चिय पमायदोसेणं असई अइक्कमेज्जा अइक्कंतेण वा आराहगे भवेज्जा गोयमा निच्छयओ नत्थि।
से भयवं के णं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं निच्छयओ नत्थि गोयमा तित्थयरे णं ताव तित्थयरे तित्थे पुन चाउवन्ने समणसंघे। से णं गच्छेसुं पइट्ठिए, गच्छेसुं पि णं सम्मद्दंसण नाण चारित्ते पइट्ठिए। ते य सम्मद्दंसण नाण चारित्ते परमपुज्जाणं पुज्ज यरे परम सरन्नाणं सरन्ने, परम सेव्वाणं सेव्वयरे। ताइं च जत्थ णं गच्छे अन्नयरे ठाणे कत्थइ विराहिज्जंति से णं गच्छे समग्ग पणासए उम्मग्ग देसए। Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या उस संख्यातीत गच्छ मर्यादा के स्थानांतर में ऐसा कोई स्थानान्तर है कि जो उत्सर्ग या अपवाद से किसी भी तरह से प्रमाद दोष से बार – बार मर्यादा या आज्ञा का उल्लंघन करे तो भी आराधक हो ? गौतम ! यकीनन वो आराधक नहीं है। हे भगवंत ! किस कारण से आप ऐसा कहते हो ? हे गौतम ! तीर्थंकर उस तीर्थ को करनेवाले हैं और फिर तीर्थ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 707 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एत्थं चायरियाणं पणपन्नं होंति कोडि-लक्खाओ।
कोडि-सहस्से कोडि-सए य तह एत्तिए चेव॥ Translated Sutra: पचपन क्रोड़, पचपन लाख, पचपन हजार पाँच सो पचपन क्रोड़ संख्या प्रमाण यहाँ आचार्य हैं उसमें से बड़े गुणवाले गुणसमूह युक्त ऐसे होते हैं कि जो सर्व तरह के उत्तम भेदों द्वारा तीर्थंकर समान गुरु – आचार्य होते हैं। सूत्र – ७०७, ७०८ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 709 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से चेय गोयमा देयवयणा सूरित्थ, णायसेसाइं।
तं तह आराहेज्जा जह तित्थयरे चउव्वीसं॥ Translated Sutra: वो भी हे गौतम ! देवता के वचन समान है। उस सूर्य समान अन्य आचार्य की भी चौबीस तीर्थंकर की आराधना समान आराधना करनी चाहिए। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 711 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मुणिणो संघं तित्थं गण-पवयण-मोक्ख-मग्ग-एगट्ठा।
दंसण-नाण-चरित्ते घोरुग्ग-तवं चेव गच्छ-णामे य॥ Translated Sutra: मुनि, संघ, तीर्थ, गण, प्रवचन, मोक्षमार्ग यह समान अर्थ कहनेवाले शब्द हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, घोर, उग्र तप यह सब गच्छ के पर्याय नाम जानना, जिस गच्छ में गुरु, राग, द्वेष या अशुभ आशय से शिष्य को सारणादिक प्रेरणा देते हो, धमकते हो तो हे गौतम ! वो गच्छ नहीं है। सूत्र – ७११, ७१२ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 743 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जत्थ य उसभादीणं तित्थयराणं सुरिंदमहियाणं।
कम्मट्ठ-विप्पमुक्काण आणं न खलिज्जइ स गच्छो॥ Translated Sutra: जिसमें सुरेन्द्र – पुजीत आँठ कर्म रहित, ऋषभादिक तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा का स्खलन नहीं किया जाता वो गच्छ। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 744 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थयरे तित्थयरे तित्थं पुन जाण गोयमा संघं।
संघे य ठिए गच्छे गच्छ-ठिए नाण-दंसण-चरित्ते॥ Translated Sutra: हे गौतम ! तीर्थ की स्थापना करनेवाले तीर्थंकर भगवंत और फिर उनका शासन, उसे हे गौतम ! संघ मानना। और संघ में रहे गच्छ, गच्छ में रहे ज्ञान – दर्शन और चारित्र तीर्थ हैं। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 791 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थयरसमे सूरी दुज्जय-कम्मट्ठ-मल्ल-पडिमल्ले।
आणं अइक्कमंते ते का पुरिसे न सप्पुरिसे॥ Translated Sutra: दुर्जय आँठ कर्मरूपी मल्ल को जीतनेवाला प्रतिमल्ल और तीर्थंकर समान आचार्य की आज्ञा का जो उल्लंघन करते हैं वो कापुरुष है, लेकिन सत्पुरुष नहीं है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 816 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कयरे णं ते पंच सए एक्क विवज्जिए साहूणं जेहिं च णं तारिस गुणोववेयस्स महानुभागस्स गुरुणो आणं अइक्कमिउं नाराहियं गोयमा णं इमाए चेव उसभ चउवीसिगाए अतीताए तेवीसइमाए चउवीसिगाए जाव णं परिनिव्वुडे चउवीसइमे अरहा ताव णं अइक्कंतेणं केवइएणं कालेणं गुणनिप्फन्ने कम्मसेल मुसुमूरणे महायसे, महासत्ते, महानुभागे, सुगहिय नामधेज्जे, वइरे नाम गच्छाहिवई भूए।
तस्स णं पंचसयं गच्छं निग्गंथीहिं विना, निग्गंथीहिं समं दो सहस्से य अहेसि। ता गोयमा ताओ निग्गंथीओ अच्चंत परलोग भीरुयाओ सुविसुद्ध निम्मलंतकरणाओ, खंताओ, दंताओ, मुत्ताओ, जिइंदियाओ, अच्चंत भणिरीओ निय सरीरस्सा वि य छक्काय Translated Sutra: हे भगवंत ! एक रहित ऐसे ५०० साधु जिन्होंने वैसे गुणयुक्त महानुभाव गुरु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके आराधक न हुए, वे कौन थे ? हे गौतम ! यह ऋषभदेव परमात्मा की चोवीसी के पहले हुई तेईस चौवीसी और उस चौवीसी के चौवीसवे तीर्थंकर निर्वाण पाने के बाद कुछ काल गुण से पैदा हुए कर्म समान पर्वत का चूरा करनेवाला, महायशवाले, महासत्त्ववाले | |||||||||
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अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 818 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नं च–जइ एते तव संजम किरियं अनुपालेहिंति, तओ एतेसिं चेव सेयं होहिइ, जइ न करेहिंति, तओ एएसिं चेव दुग्गइ-गमणमनुत्तरं हवेज्जा। नवरं तहा वि मम गच्छो समप्पिओ, गच्छाहिवई अहयं भणामि। अन्नं च–
जे तित्थयरेहिं भगवंतेहिं छत्तीसं आयरियगुणे समाइट्ठे तेसिं तु अहयं एक्कमवि नाइक्कमामि, जइ वि पाणोवरमं भवेज्जा। जं च आगमे इह परलोग विरुद्धं तं णायरामि, न कारयामि न कज्जमाणं समनुजाणामि। तामेरिसगुण जुत्तस्सावि जइ भणियं न करेंति ताहमिमेसिं वेसग्गहणा उद्दालेमि।
एवं च समए पन्नत्ती जहा–जे केई साहू वा साहूणी वा वायामेत्तेणा वि असंजममनुचिट्ठेज्जा से णं सारेज्जा से णं वारेज्जा, से Translated Sutra: दूसरा यह शिष्य शायद तप और संयम की क्रिया का आचरण करेंगे तो उससे उनका ही श्रेय होगा और यदि नहीं करेंगे तो उन्हें ही अनुत्तर दुर्गति गमन करना पड़ेगा। फिर भी मुझे गच्छ समर्पण हुआ है, मैं गच्छाधिपति हूँ, मुझे उनको सही रास्ता दिखाना चाहिए। और फिर दूसरी बात यह ध्यान में रखनी है कि – तीर्थंकर भगवंत ने आचार्य के छत्तीस | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 819 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं तित्थयरसंतियं आणं नाइक्कमेज्जा उयाहु आयीरयसंतियं। गोयमा चउव्विहा आयरिया भवंति तं जहा–नामायरिया, ठवणायरिया, दव्वायरिया, भावायरिया। तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थयरसमा चेव दट्ठव्वा। तेसिं संतियाऽऽणं आणा नाइक्कमेज्जा।
से भयवं कयरे णं ते भावायरिया भन्नंति। गोयमा जे अज्जपव्वइए वि आगमविहिए पयं पएणानुसंचरंति ते भावायरिए। जे उणं वाससय दिक्खिए वि होत्ताणं वायामेत्तेणं पि आगमओ बाहिं करिंति ते नामट्ठवणाहिं निओइयव्वे। से भयवं आयरिया णं केवइयं पायच्छित्तं भवेज्जा जमेगस्स साहुणो तं आयरिय मयहर पवत्तिनीए य सत्तरसगुणं अहा णं सील खलिए भवंति। तओ तिलक्खगुणं। Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन न करे या आचार्य की आज्ञा का ? हे गौतम ! आचार्य चार तरह के बताए हैं। वो इस प्रकार – नाम आचार्य, स्थापना आचार्य, द्रव्य आचार्य और भाव आचार्य। उसमें जो भावाचार्य हैं उन्हें तीर्थंकर समान मानना। उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 821 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केरिस गुणजुत्तस्स णं गुरुणो गच्छनिक्खेवं कायव्वं गोयमा जे णं सुव्वए, जे णं सुसीले, जे णं दढव्वए, जे णं दढचारित्ते, जे णं अनिंदियंगे, जे णं अरहे, जे णं गयरागे, जे णं गयदोसे, जे णं निट्ठिय मोह मिच्छत्त मल कलंके, जे णं उवसंते, जे णं सुविण्णाय जगट्ठितीए, जे णं सुमहा वेरग्गमग्गमल्लीणे, जे णं इत्थिकहापडिनीए, जे णं भत्तकहापडिनीए, जे णं तेण कहा पडिनीए, जे णं रायकहा पडिनीए, जे णं जनवय कहा पडिनीए, जे णं अच्चंतमनुकंप सीले, जे णं परलोग-पच्चवायभीरू, जे णं कुसील पडिनीए,
जे णं विण्णाय समय सब्भावे, जे णं गहिय समय पेयाले, जे णं अहन्निसानुसमयं ठिए खंतादि अहिंसा लक्खण दसविहे समणधम्मे, Translated Sutra: हे भगवंत ! कैसे गुणयुक्त गुरु हो तो उसके लिए गच्छ का निक्षेप कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो अच्छे व्रतवाले, सुन्दर शीलवाले, दृढ़ व्रतवाले, दृढ़ चारित्रवाले, आनन्दित शरीर के अवयववाले, पूजने के लायक, राग रहित, द्वेष रहित, बड़े मिथ्यात्व के मल के कलंक जिसके चले गए हैं वैसे, जो उपशान्त हैं, जगत की दशा को अच्छी तरह से पहचानते हो, | |||||||||
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अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 823 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं उड्ढं पुच्छा। गोयमा तओ परेण उड्ढं हायमाणे कालसमए तत्थ णं जे केई छक्काय समारंभ विवज्जी से णं धन्ने पुन्ने वंदे पूए नमंसणिज्जे। सुजीवियं जीवियं तेसिं। Translated Sutra: हे भगवंत ! उसके बाद के काल में क्या हुआ ? हे गौतम ! उसके बाद के काल समय में जो कोई आत्मा छ काय जीव के समारम्भ का त्याग करनेवाला हो, वो धन्य, पूज्य, वंदनीय, नमस्करणीय, सुंदर जीवन जीनेवाले माने जाते हैं। हे भगवंत ! सामान्य पृच्छा में इस प्रकार यावत् क्या कहना ? हे गौतम ! अपेक्षा से कैसी आत्मा उचित है। और (प्रव्रज्या के | |||||||||
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अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 831 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं गच्छववत्थं तह त्ति पालेत्तु तहेव जं जहा भणियं।
रय-मल-किलेस-मुक्के गोयम मोक्खं गएऽ णंतं॥ Translated Sutra: जिस प्रकार शास्त्र में किया है उस प्रकार गच्छ की व्यवस्था का यथार्थ पालन करके कर्मरूप रज के मैल और क्लेश से मुक्त हुए अनन्त आत्मा ने मुक्ति पद पाया है। देव, असुर और जगत के मानव से नमन किए हुए, इस भुवन में जिनका अपूर्व प्रकट यश गाया गया है, केवली तीर्थंकर भगवंत ने बताए अनुसार गण में रहे, आत्म पराक्रम करनेवाले, गच्छाधिपति | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 833 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केइ अमुणिय समय सब्भावे होत्था विहिए, इ वा अविहिए, इ वा कस्स य गच्छायारस्स य मंडलिधम्मस्स वा छत्तीसइविहस्स णं सप्पभेय नाण दंसण चरित्त तव वीरियायारस्स वा, मनसा वा, वायाए वा, कहिं चि अन्नयरे ठाणे केई गच्छाहिवई आयरिए, इ वा अंतो विसुद्ध, परिणामे वि होत्था णं असई चुक्केज्ज वा, खलेज्ज वा, परूवेमाणे वा अणुट्ठे-माणे वा, से णं आराहगे उयाहु अनाराहगे गोयमा अनाराहगे।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अनाराहगे गोयमा णं इमे दुवालसंगे सुयनाणे अणप्पवसिए अनाइ निहणे सब्भूयत्थ पसाहगे अनाइ संसिद्धे से णं देविंद वंद वंदाणं अतुल बल वीरिएसरिय सत्त परक्कम महापुरिसायार Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले हो, वह विधि से या अविधि से किसी गच्छ के आचार या मंड़ली धर्म के मूल या छत्तीस तरह के भेदवाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के आचार को मन से वचन से या काया से किसी भी तरह कोई भी आचार स्थान में किसी गच्छाधिपति या आचार्य के जितने अंतःकरण में विशुद्ध परिणाम होने के | |||||||||
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अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 842 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ गोयमा अप्प संकिएणं चेव चिंतियं तेण सावज्जायरिएणं जहा णं– जइ इह एयं जहट्ठियं पन्नवेमि तओ जं मम वंदनगं दाउमाणीए तीए अज्जाए उत्तिमंगेण चलणग्गे पुट्ठे तं सव्वेहिं पि दिट्ठमेएहिं ति। ता जहा मम सावज्जायरियाहिहाणं कयं तहा अन्नमवि किंचि एत्थ मुद्दंकं काहिंति। अहन्नहा सुत्तत्थं पन्नवेमि ता णं महती आसायणा।
ता किं करियव्वमेत्थं ति। किं एयं गाहं पओवयामि किं वा णं अन्नहा पन्नवेमि अहवा हा हा न जुत्तमिणं उभयहा वि। अच्चंतगरहियं आयहियट्ठीणमेयं, जओ न मेस समयाभिप्पाओ जहा णं जे भिक्खू दुवालसंगस्स णं सुयनाणस्स असई चुक्कखलियपमायासंकादी सभयत्तेणं पयक्खरमत्ता बिंदुमवि Translated Sutra: तब अपनी शंकावाला उन्होंने सोचा कि यदि यहाँ मैं यथार्थ प्ररूपणा करूँगा तो उस समय वंदना करती उस आर्या ने अपने मस्तक से मेरे चरणाग्र का स्पर्श किया था, वो सब इस चैत्यवासी ने मुझे देखा था। तो जिस तरह मेरा सावद्याचार्य नाम बना है, उस प्रकार दूसरा भी वैसा कुछ अवहेलना करनेवाला नाम रख देंगे जिससे सर्व लोक में मै अपूज्य | |||||||||
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अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 844 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ताहे पुणो वि तेहिं भणियं जहा किमेयाइं अरड-बरडाइं असंबद्धाइं दुब्भासियाइं पलवह जइ पारिहारगं णं दाउं सक्के ता उप्फिड, मुयसु आसणं, ऊसर सिग्घं, इमाओ ठाणाओ। किं देवस्स रूसेज्जा। जत्थ तुमं पि पमाणीकाऊणं सव्व संघेणं समय सब्भावं वायरेउं जे समाइट्ठो।
तओ पुणो वि सुइरं परितप्पिऊणं गोयमा अन्नं पारिहारगं अलभमाणेणं अंगीकाऊण दीहं संसारं भणियं च सावज्जायरिएणं जहा णं उस्सग्गाववाएहिं आगमो ठिओ तुब्भे न याणहेयं। एगंतो मिच्छत्तं, जिणाणमाणा मणेगंता।
एयं च वयणं गोयमा गिम्हायव संताविएहिं सिहिउलेहिं च अहिणव पाउस सजल घणोरल्लिमिव सबहुमाणं समाइच्छियं तेहिं दुट्ठ-सोयारेहिं।
तओ Translated Sutra: तब भी उस दुराचारी ने कहा कि तुम ऐसे आड़े – टेढ़े रिश्ते के बिना दुर्भाषित वचन का प्रलाप क्यों करते हो? यदि उचित समाधान देने के लिए शक्तिमान न हो तो खड़े हो जाव, आसन छोड़ दे यहाँ से जल्द आसन छोड़कर नीकल जाए। जहाँ तुमको प्रमाणभूत मानकर सर्व संघ ने तुमको शास्त्र का सद्भाव कहने के लिए फरमान किया है। अब देव के उपर क्या दोष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 882 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खण-भंगुरस्स देहस्स जा विवत्ती न मे भवे।
ता तित्थयरस्स पामूलं, पायच्छित्तं चरामिऽहं॥ Translated Sutra: जितने में क्षणभंगुर ऐसे इस मेरे देह का विनाश न हो उतने में तीर्थंकर भगवंत के चरणकमल में जाकर मैं अपने गुनाह का प्रायश्चित्त करूँ। हे गौतम ! ऐसे पश्चात्ताप करते हुए वो यहाँ आएगा और घोर प्रायश्चित्त का सेवन पाएगा। घोर और वीर तप का सेवन करके अशुभ कर्म खपाकर शुक्लध्यान की श्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञान पाकर मोक्ष | |||||||||
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अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 895 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किंवा निमित्तमुवयरिउं सो भमे बहु-दुहट्ठिओ ।
चरिमस्सन्नस्स तित्थम्मि गोयमा कंचण-च्छवी॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! माया प्रपंच करने के स्वभाववाला आसड़ कौन था ? वो हम नहीं जानते। फिर किस निमित्त से काफी दुःख से परेशान यहाँ भटका ? हे गौतम ! दूसरे किसी अंतिम कांचन समान कान्तिवाले तीर्थंकर के तीर्थ में भूतीक्ष नाम के आचार्य का आसड़ नाम का शिष्य था। महाव्रत अंगीकार करके उसने सूत्र और अर्थ का अध्ययन किया। तब विषय का दर्द | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1054 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वासुपुज्जस्स तित्थम्मि, भोला कालगच्छवी।
मेघमालज्जिया आसि, गोयमा मन-दुब्बला॥ Translated Sutra: बारहवें वासुपूज्य तीर्थंकर भगवंत के तीर्थ में भोली काजल समान शरीर के काले वर्णवाली दुर्बल मनवाली मेघमाला नाम की एक साध्वी थी। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1065 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भयवं जावइयं दिट्ठं, तावइयं कहणुपालिया।
जे भवे अवीय-परमत्थे, किच्चाकिच्चमयाणगे॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! जितना देखा हो या जाना हो तो उसका पालन उतने प्रमाण में किस तरह कर सके ? जिन्होंने अभी परमार्थ नहीं जाना, कृत्य और अकृत्य के जानकार नहीं है। वो पालन किस तरह कर सकेंगे ? हे गौतम ! केवली भगवंत एकान्त हीत वचन को कहते हैं। वो भी जीव का हाथ पकड़कर बलात्कार से धर्म नहीं करवाते। लेकिन तीर्थंकर भगवान के बताए हुए | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1090 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अगीयत्थत्तदोसेणं गोयमा ईसरेण उ।
जं पत्तं तं निसामित्ता लहुं गीयत्थो मुनी भवे॥ Translated Sutra: हे गौतम ! किसी दूसरी चौबीस के पहले तीर्थंकर भगवंत का जब विधिवत् निर्वाण हुआ तब मनोहर निर्वाण महोत्सव प्रवर्तता था और सुन्दर रूपवाले देव और असुर नीचे उतरते थे और ऊपर चड़ते थे। तब पास में रहनेवाले लोग यह देखकर सोचने लगे कि अरे ! आज मानव लोक में ताज्जुब देखते हैं। किसी वक्त भी कहीं भी ऐसी इन्द्रजाल – सपना देखने | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1511 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कहं पुन एरिसे सुलभबोही जाए महायसे सुगहिय-णामधेज्जे से णं कुमारं महरिसी गोयमा ते णं समणभावट्ठिएणं अन्न-जम्मम्मि वाया दंडे पउत्ते अहेसि, तन्निमित्तेणं जावज्जीवं मूणव्वए गुरूवएसे णं संधारिए अन्नं च तिन्नि महापावट्ठाणे संजयाणं तं जहा–आऊ तेऊ मेहुणे। एते य सव्वोवाएहिं परिवज्जए ते णं तु एरिसे सुलभबोही जाए।
अहन्नया णं गोयमा बहु सीसगण परियरिए से णं कुमारमहरिसी पत्थिए सम्मेयसेलसिहरे देहच्चाय निमित्तेणं, कालक्कमेणं तीए चेव वत्तणीए जत्थ णं से राय कुल बालियानरिंदे चक्खुकुसीले। जाणावियं च रायउले, आगओ य वंदनवत्तियाए सो इत्थी-नरिंदो उज्जानवरम्मि।
कुमार महरिसिणो Translated Sutra: हे भगवंत ! वो महायशवाले सुग्रहीत नाम धारण करनेवाले कुमार महर्षि इस तरह के सुलभबोधि किस तरह बने ? हे गौतम ! अन्य जन्म में श्रमणभाव में रहे थे तब उसने वचन दंड़ का प्रयोग किया था। उस निमित्त से जीवनभर गुरु के उपदेश से मौनव्रत धारण किया था। दूसरा संयतोने तीन महापाप स्थानक बताए हैं, वो इस प्रकार – अप्काय, अग्निकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1147 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भयवं नाहं वियाणामि, लक्खणदेवी हु अज्जिया।
जा अणुकलुसमगीयत्थत्ता काउं पत्ता दुक्ख-परंपरं॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! लक्ष्मणा आर्या जो अगीतार्थ और कलुषतावाली थी और उसकी वजह से दुःख परम्परा पाई वो मैं नहीं जानता। हे गौतम ! पाँच भरत और पाँच ऐरावत् क्षेत्र के लिए उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सर्व काल में एक – एक संसार में यह अतिध्रुव चीज है। जगत् की यह स्थिति हंमेशा टिकनेवाली है। हे गौतम ! मैं हूँ उस तरह सात हाथ के प्रमाणवाली | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1157 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तुण्हिक्का बंधुवग्गस वयणेहिं तु स-सज्झसं।
ठियाऽह कइवय-दिनेसुं अन्नया तित्थंकरो॥ Translated Sutra: किसी वक्त भव्य जीव रूपी कमलपन को विकसित करनेवाले केवलज्ञान समान तीर्थंकर भगवंत वहाँ आए और उद्यान में समवसरे, अपने अंतःपुर, सेना और वाहन सर्व ऋद्धि सहित राजा उन्हें भक्ति से वंदन करने के लिए गया। धर्म श्रवण करके वहाँ अंतःपुर, पुत्र और पुत्री सहित दीक्षा अंगीकार की। शुभ परीणामवाले मूर्च्छा रहित उग्र कष्टकारी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1164 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहो तित्थंकरेणम्हं किमट्ठं चक्खु-दरिसणं।
पुरिसित्थी रमंताणं, सव्वहा वि णिवारियं॥ Translated Sutra: यहाँ तीर्थंकर भगवंत ने पुरुष और स्त्री रतिक्रीड़ा करते हैं तो उनको देखना हमने क्यों मना किया होगा ? वो वेदना दुःख रहित होने से दूसरों का सुख नहीं पहचान सकते। अग्नि जलाने के स्वभाववाला होने के बावजूद भी आँख से उसे देखे तो देखनेवाले को नहीं जलाता। या तो ना, ना, ना, ना भगवंत ने जो आज्ञा की है वो यथार्थ ही है। वो विपरीत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1170 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थयरेणावि अच्चंतं कट्ठं कडयडं वयं।
अइदुद्धरं समादिट्ठं, उग्गं घोरं सुदुक्करं॥ Translated Sutra: तीर्थंकर भगवंत ने भी काफी कष्टकारी कठिन अति दुर्धर, उग्र, घोर मुश्किल से पालन किया जाए वैसा कठिन व्रत का उपदेश दिया है। तो त्रिविध त्रिविध से यह व्रत पालन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ? वचन और काया से अच्छी तरह से आचरण किया जाने के बाद भी तीसरे मन से रक्षा करना मुमकीन नहीं है। या तो दुःख की फिक्र की जाती है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1233 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं सो लक्खणज्जाए जीवो गोयमा चिरं।
घन-घोर-दुक्ख-संतत्तो, चउगइ-संसार-सागरे॥ Translated Sutra: उस प्रकार लक्ष्मणा साध्वी का जीव हे गौतम ! लम्बे अरसे तक कठिन घोर दुःख भुगतते हुए चार गति रूप संसार में नारकी तिर्यंच और कुमानवपन में भ्रमण करके फिर से यहाँ श्रेणीक राजा का जीव जो आनेवाली चौबीसी में पद्मनाभ के पहले तीर्थंकर होंगे उनके तीर्थ में कुब्जिका के रूप में पैदा होगा। शरीरसीबी की खाण समान गाँव में या | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1240 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वियाणित्ता पउम-तित्थयरं तप्पएसे समोसढं। पेच्छिही जाव ता तीए।
अन्नेसिमवि बहु-वाही-वेयणा-परिगय-सरीराणं। तद्देस विहारी भव्व सत्ताणं।
नर-नारी-गणाणं तित्थयर-दंसणा चेव, सव्व दुक्खं विणिट्ठिही॥ Translated Sutra: वेदना भुगतती होगी तब पद्मनाभ तीर्थंकर भगवंत वहाँ समवसरण करेंगे और वो उनका दर्शन करेंगे इसलिए तुरन्त ही उसके और दूसरे उस देश में रहे भव्य जीव और नारी कि जिसके शरीर भी व्याधि और वेदना से व्याप्त होंगे वो सभी समुदाय के व्याधि तीर्थंकर भगवंत के दर्शन से दूर होंगे। उसके साथ लक्ष्मणा साध्वी का जीव जो कुब्जिका है | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1245 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पणयामरमरुय मउडुग्घुट्ठ-चलण-सयवत्त-जयगुरु
जगनाह, धम्मतित्थयर, भूय-भविस्स वियाणग Translated Sutra: जिनके चरणकमल प्रणाम करते हुए देव और अनुसरते मस्तक के मुकुट से संघट्ट हुए हैं ऐसे हे जगद्गुरु ! जगत के नाथ, धर्म तीर्थंकर, भूत और भावि को पहचाननेवाले, जिन्होंने तपस्या से समग्र कर्म के अंश जला दिए हैं ऐसे, कामदेव शत्रु का विदारण करनेवाले, चार कषाय के समूह का अन्त करनेवाले, जगत के सर्व जीव के प्रति वात्सल्यवाले, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1254 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जं पुणो सोऊण मइविगलो बालयणो केसरिस्स व।
सद्दं गय-जुव तसिउं-नासे-दिसोदिसिं॥ Translated Sutra: ऐसी कठिन बाते सुनकर अल्प बुद्धिवाले बालजन उद्वेग पाए, कुछ लोगों का भरोसा उठ जाए, जैसे शेर की आवाज से हाथी इकट्ठे भाग जाते हैं वैसे बालजन कष्टकारी धर्म सुनकर दश दिशा में भाग जाते हैं। उस तरह का कठिन संचय दुष्ट ईच्छावाला और बूरी आदतवाला सुकुमाल शरीरवाला सुनने की भी ईच्छा नहीं रखते। तो उस प्रकार व्यवहार करने | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1267 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाव एरिस-मन-परिणामं ताव लोगंतिया सुरा।
थुणिउं भणंति जग-जीव-हिययं तित्थं पवट्टिही॥ Translated Sutra: जितने में इस तरह के मन – परीणाम होते हैं, उतने में लोकान्तिक देव भगवंत को विनती करते हैं – हे भगवंत ! जगत के जीव का हित करनेवाला धर्मतीर्थ आप प्रवर्तो। उस वक्त सारे पाप वोसिराकर देह ममत्व का त्याग कर के सर्व जगत में सर्वोत्तम ऐसे वैभव का तिनके की तरह त्याग करके इन्द्र के लिए भी जो दुर्लभ है वैसा निसंग उग्र कष्टकारी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1298 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तित्थंकराण नो भूयं नो भवेज्जा उ गोयमा ।
मुसावायं न भासंते गोयमा तित्थंकरे॥ Translated Sutra: दूसरा तीर्थंकर भगवंत को भी राग, द्वेष, मोह, भय, स्वच्छंद व्यवहार भूतकाल में नहीं था, और भावि में होगा भी नहीं। हे गौतम ! तीर्थंकर भगवंत कभी भी मृषावाद नहीं बोलते। क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष केवलज्ञान है, पूरा जगत साक्षात् देखता है। भूत भावि, वर्तमान, पुण्य – पाप और तीन लोक में जो कुछ है वो सब उनको प्रकट है, शायद | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1303 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भाणेंति जइ वि भुवणस्स पलयं हवइ तक्खणे।
जं हिय सव्व-जग-जीव-पाण-भूयाण केवलं।
तं अणुकंपाए तित्थयरा धम्मं भासिंति अवितहं॥ Translated Sutra: शायद तत्काल इस भुवन का प्रलय हो तो भी वो सभी जगत के जीव, प्राणी, भूत का एकत्व हित हो उस प्रकार अनुकंपा से यथार्थ धर्म को तीर्थंकर कहते हैं। जिस धर्म को अच्छी तरह से आचरण किया जाए उसे दुर्भगता का दुःख दारिद्र रोग शोक दुर्गति का भय नहीं होता। और संताप उद्वेग भी नहीं होते। सूत्र – १३०३, १३०४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1314 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मंडवियाए भवेयव्वं दुक्कर-कारि भणित्तु णं।
नवरं एयारिसं भविया, किमत्थं गोयमा एयं पुणो तं पपुच्छसी॥ Translated Sutra: फिर से तुम्हें यह पूछे गए सवाल का प्रत्युत्तर देता हूँ कि चार ज्ञान के स्वामी, देव – असुर और जगत के जीव से पूजनीय निश्चित उस भव में ही मुक्ति पानेवाले हैं। आगे दूसरा भव नहीं होगा। तो भी अपना बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम छिपाए बिना उग्र कष्टमय घोर दुष्कर तप का वो सेवन करते हैं। तो फिर चार गति स्वरूप संसार के जन्म | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1347 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वच्चइ खणेण जीवो पित्ताणिल-सेंभ-धाउ-खोभेहिं।
उज्जमह, मा विसीयह, तरतम-जोगो इमो दुसहो॥ Translated Sutra: जीव के शरीर में वात, पित्त, कफ, धातु, जठराग्नि आदि के क्षोभ से पलभर में मौत होती है तो धर्म में उद्यम करो और खेद मत पाना। इस तरह के धर्म का सुन्दर योग मिलना काफी दुर्लभ है। इस संसार में जीव को पंचेन्द्रियपन, मानवपन, आर्यपन, उत्तम कुल में पैदा होना, साधु का समागम, शास्त्र का श्रवण, तीर्थंकर के वचन की श्रद्धा, आरोग्य, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1360 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मिच्छत्तेण य अभिभूए तित्थयरस्स अवि भासियं।
वयणं लंघित्तु विवरीयं वाएत्ताणं॥ Translated Sutra: जो आत्मा मिथ्यात्व से पराभवित हुआ हो, तीर्थंकर भगवंत के वचन को विपरीत बोले, उनके वचन का उल्लंघन करे, वैसा करनेवाले की प्रशंसा करे तो वो विपरीत बोलनेवाला घोर गाढ़ अंधकार और अज्ञानपूर्ण पाताल में नरक में प्रवेश करनेवाला होता है। लेकिन जो सुन्दर तरह से ऐसा सोचता है कि – तीर्थंकर भगवंत खुद इस प्रकार कहते हैं वो | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1378 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केवइयाइं पायच्छित्तस्स णं पयाइं गोयमा संखाइयाइं पायच्छित्तस्स णं पयाइं।
से भयवं तेसिं णं संखाइयाणं पायच्छित्तस्स पयाणं किं तं पढणं पायच्छित्तस्स णं पयं गोयमा पइदिन-किरियं। से भयवं किं तं पइदिण-किरियं गोयमा जं नुसमयं अहन्निसा-पाणोवरमं जाव अणुट्ठेयव्वाणि संखेज्जाणि आवस्सगाणि।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं–आवस्सगाणि गोयमा असेस कसिणट्ठ कम्म- क्खयकारि उत्तम सम्म दंसण नाण चारित्त अच्चंत घोर वीरुग्ग कट्ठ सुदुक्कर तव साहणट्ठाए परुविज्जंति नियमिय विभत्तुद्दिट्ठ परिमिएणं काल समएणं पयंपएण अहन्निस नुसमयं आजम्मं अवस्सं एव तित्थयराइसु कीरंति Translated Sutra: हे भगवंत ! प्रायश्चित्त के कितने स्थान हैं ? हे गौतम ! प्रायश्चित्त के स्थान संख्यातीत बताए हैं। हे भगवंत! वो संख्यातीत प्रायश्चित्त स्थान में से प्रथम प्रायश्चित्त का पद कौन – सा है ? हे गौतम ! प्रतिदिन क्रिया सम्बन्धी जानना। हे भगवंत ! वो प्रतिदिन क्रिया कौन – सी कहलाती है ? हे गौतम ! जो बार – बार रात – दिन प्राण |