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Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका Hindi 100 View Detail
Mool Sutra: अधुवमसरणमेगत्त-मण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जर, धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज ।।

Translated Sutra: अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ, इन १२ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए।
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

3. रागद्वेष का प्रतिकार Hindi 121 View Detail
Mool Sutra: रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्, तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित्।

Translated Sutra: तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेष स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपेण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

3. अहिंसा-सूत्र Hindi 167 View Detail
Mool Sutra: मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ।।

Translated Sutra: जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है। यत्नाचार-विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है। और जो प्रयत्नवान व अप्रमत्त हैं, समिति-परायण है, उनको किसी जीव की हिंसामात्र से बन्ध नहीं होता।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

7. परिग्रह-त्याग-सूत्र Hindi 176 View Detail
Mool Sutra: न कामभोगा समयं उवेंति न यावि भोगा विगइं उवेंति। जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ।।

Translated Sutra: काम-भोग अपने आप न किसी में समता उत्पन्न करते हैं और न रागद्वेष रूप विषमता। मनुष्य स्वयं उनके प्रति रागद्वेष करके उनका स्वामी व भोगी बन जाता है, और मोहवश विकार-ग्रस्त हो जाता है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

7. परिग्रह-त्याग-सूत्र Hindi 177 View Detail
Mool Sutra: मूर्च्छाछन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः। मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ।।

Translated Sutra: मोह के वशीभूत मूर्च्छित बुद्धिवाले के लिए यह जगत् ही परिग्रह है और मूर्च्छाविहीन के लिए सारा जगत् भी अपरिग्रह है। [मूर्च्छाविहीन होने के कारण, श्वेताम्बराम्नाय में, साधु वस्त्र-पात्र आदि धारण करके भी परिग्रह के दोष से लिप्त नहीं होते हैं।] (इतना होने पर भी बाह्य-त्याग की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती।)
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र Hindi 183 View Detail
Mool Sutra: उवभोगपरिभोगे बीयं, परिमाणकरणमो णेयं। अणियमियवाविदोसा, न भवंति कायम्मि गुणभावो ।।

Translated Sutra: काम-वासना को घटाने के लिए ताम्बूल, गन्ध, पुष्प व शृंगार आदि की वस्तुओं का परिमाण करना द्वितीय भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इसके प्रभाव से परिमाण-बाह्य अनन्त वस्तुओं के प्रति आसक्तिभाव सर्वथा छूट जाता है। यही इसका गुणाकार करनेवाला गुणभाव है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

9. सामायिक-सूत्र Hindi 190 View Detail
Mool Sutra: सामाइयं उ कए, समणो इव सावहो हवइ जम्हा। एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा ।।

Translated Sutra: सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 197 View Detail
Mool Sutra: एगंते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे। उच्चारादिच्चाओ, पदिठावणिया हवे समिदी ।।

Translated Sutra: [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

12. मनो मौन Hindi 200 View Detail
Mool Sutra: सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि। पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ।।

Translated Sutra: वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है। देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

4. कायक्लेश तप (हठ-योग) Hindi 212 View Detail
Mool Sutra: ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा। उग्गा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं तमाहियं ।।

Translated Sutra: [आत्मबल की वृद्धि के तथा शरीर पर से ममत्व भाव का त्याग करने के अर्थ] योगीजन वीरासन, कुक्कुट आसन, शवासन आदि विविध प्रकार के उत्कट व उग्र आसनों को धारण करके धूप शीत या वर्षा में निर्भय व निश्चल बैठे या खड़े रहते हैं। यही कायक्लेश नामक छठा बाह्य तप है। (अब क्रम से प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर या मानसिक तपों का कथन किया जाता
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

9. ध्यान-समाधि सूत्र Hindi 228 View Detail
Mool Sutra: किंचिवि दिट्ठिमुपावत्तइत्तु, ज्झेये णिरुद्धदिट्ठीओ। अप्पाणम्मि सदिं, संधित्ता संसारमोक्खट्ठं ।।

Translated Sutra: जिसकी दृष्टि बाह्य ध्येयों में अटकी हुई है, वह उस विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को आत्मा में लगावे।
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग)

2. देह-त्याग Hindi 236 View Detail
Mool Sutra: संलेहणा य दुविहा, अब्भिंतरिया य बाहिरा चेव। अब्भिंतरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ।।

Translated Sutra: सल्लेखना अर्थात् पण्डितमरण दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तर व बाह्य। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 251 View Detail
Mool Sutra: ण बलाउसाउअट्ठं, ण सरीरस्सुवचयट्ठं तेजट्ठं। णाणट्ठं संजमठ्ठं, झाणट्ठं चेव भुंजेज्जो ।।

Translated Sutra: साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 277 View Detail
Mool Sutra: जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।।

Translated Sutra: ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 278 View Detail
Mool Sutra: न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा। मोहाविणो लोभभयावईया, संतोसिणो ण पकरेंति पावं ।।

Translated Sutra: अज्ञानी जन कितना भी प्रयत्न करें, वे कर्म को कर्म से नहीं खपा सकते। धीर पुरुष ही अकर्म से कर्म को खपाते हैं। कामना और भय से अतीत होकर यथालाभ सन्तुष्ट रहनेवाला योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। सत्य, संयम, तप व ब्रह्मचर्य धर्म के लिए दे. अधि. ८-९
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) Hindi 298 View Detail
Mool Sutra: ओरालियो य देहो, देहो वेउव्विओ य तेजइओ। आहारय कम्मइओ, पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।।

Translated Sutra: मनुष्यादि के स्थूल शरीर `औदारिक' कहलाते हैं और देवों व नारकियों के `वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेज शक्ति `तैजस शरीर' है। योगी जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट शरीर `आहारक' कहलाता है। और रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज `कार्मण शरीर' माना गया है। ये पाँचों
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) Hindi 331 View Detail
Mool Sutra: रत्तो बंधदि कम्मं, मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो ।।

Translated Sutra: रागी जीव ही कर्मों को बाँधता है, और राग-रहित उनसे मुक्त होता है। परमार्थतः संसारी जीवों के लिए राग ही एक मात्र बन्ध का कारण व बन्धस्वरूप है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) Hindi 338 View Detail
Mool Sutra: जावद्धम्मं दव्वं, तावं गंतूण लोयसिहरम्मि। चेट्ठंति सव्वसिद्धा, पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा ।।

Translated Sutra: लोक के शिखर पर जहाँ तक धर्म द्रव्य की सीमा है वहाँ तक जाकर सभी मुक्त जीव पृथक् पृथक् स्थित हो जाते हैं। उनका आकार मोम रहित मूषक के आभ्यन्तर आकाश की भाँति अथवा घटाकाश की भाँति चरम शरीर वाला तथा अमूर्तीक होता है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) Hindi 339 View Detail
Mool Sutra: जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अन्नोन्नसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे वि लोगंते ।।

Translated Sutra: लोक-शिखर पर जहाँ एक सिद्ध या मुक्तात्मा स्थित होती है, वहीँ एक दूसरे में प्रवेश पाकर संसार से मुक्त हो जाने वाली अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं। चरम शरीराकार इन सबके सिर लोकाकाश के ऊपरी अन्तिम छोर को स्पर्श करते हैं।
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14. सृष्टि-व्यवस्था

3. कर्म-कारणवाद Hindi 355 View Detail
Mool Sutra: ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया, पुणो वि जीवस्स। संजायंते देहा, देहंतरसंकमं पप्पा ।।

Translated Sutra: वे कर्म रूप परिणत पुद्गल स्कन्ध भवान्तर की प्राप्ति होने पर उस जीव के नये शरीर का आयोजन कर देते हैं।
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

3. नयवाद की सार्वभौमिकता Hindi 391 View Detail
Mool Sutra: णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ, विभयइ सच्चे व अलिए वा ।।

Translated Sutra: सभी नय अपने अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, परन्तु वे ही जब दूसरे के वक्तव्यों का निराकरण करने लगते हैं तो मिथ्या हो जाते हैं। अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञाता उन नयों में `यह कुछ नय तो सच्चे हैं और यह कुछ झूठे' ऐसा विभाग नहीं करते हैं।
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18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 425 View Detail
Mool Sutra: य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याज्जिन इव प्रभुः ।।

Translated Sutra: जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है (परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं।)
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2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग)

3. भेद-रत्नत्रय Hindi 23 View Detail
Mool Sutra: यथानाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दद्धाति। ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिकः प्रयत्नेन ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार कोई धनार्थी पुरुष राजा को पहले जानता है और उसकी श्रद्धा करता है; तत्पश्चात् वह उसका प्रयत्नपूर्वक अनुसरण करता है। इसी प्रकार मुमुक्षु को जीव या आत्म-तत्त्व जानकर उसकी श्रद्धा करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करना चाहिए। संदर्भ २३-२४
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2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग)

3. भेद-रत्नत्रय Hindi 24 View Detail
Mool Sutra: एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः। अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ।।

Translated Sutra: कृपया देखें २३; संदर्भ २३-२४
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

1. सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ दर्शन) Hindi 43 View Detail
Mool Sutra: भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च। आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ।।

Translated Sutra: भूतार्थनय से जाने गये जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध-मोक्ष ये नव तत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। (आत्मनिष्ठ सम्यग्दृष्टि है और पर्याय-निष्ठ मिथ्या-दृष्टि।)
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

4. सम्यग्दर्शन के लिंग (ज्ञानयोग) Hindi 51 View Detail
Mool Sutra: संवेगो निर्वेदो, निन्दा गर्हा च उपशमो भक्तिः। वात्सल्यं अनुकम्पा, अष्ट गुणाः सम्यक्त्वयुक्तस्य ।।

Translated Sutra: संवेग, निर्वेद (वैराग्य), अपने दोषों के लिए आत्मनिन्दन व गर्हण, कषायों की मन्दता, गुरु-भक्ति, वात्सल्य, व दया। (पूर्वोक्त आठ के अतिरिक्त) सम्यग्दृष्टि को ये आठ गुण भी स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

5. निःशंकित्व (अभयत्व) Hindi 52 View Detail
Mool Sutra: सम्यग्दृष्टयो जीवा, निश्शंकाः भवन्ति निर्भयास्तेन। सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ।।

Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि जीव निश्शंक होते हैं और इसलिए निर्भय। चूँकि उन्हें सात भय नहीं होते, इसलिए वे निश्शंक होते हैं।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

6. निःकांक्षित्व (निष्कामता) Hindi 57 View Detail
Mool Sutra: कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य। यत्कायिकं मानसिकं च किंचित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ।।

Translated Sutra: कामानुगृद्धि ही दुःख की जननी है, इसीसे इहलोक में या देवलोक में जितने भी शारीरिक व मानसिक दुःख हैं, वीतरागी उन सबका अन्त कर देते हैं। अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने के कारण उन्हें कामनाजन्य दुःख नहीं रहता।
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

13. प्रशम भाव (चित्त-प्रसाद) Hindi 72 View Detail
Mool Sutra: चतुरः कषायान् त्रीणि गौरवानि पंचेन्द्रियग्रामान्। जित्वा परीषहानपि च हराराधनापताकाम् ।।

Translated Sutra: क्रोधादि चार कषायों को, रस ऋद्धि व सुख इन तीन गारवों को, पाँचों इन्द्रियों को तथा अनुकूल व प्रतिकूल विघ्नों को व संकटों को जीतकर, साथ ही आराधनारूपी पताका को हाथ में लेकर, मित्र पुत्र व बन्धु आदि में तथा इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयों में किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष करना कर्तव्य नहीं है। संदर्भ ७२-७३
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग)

13. प्रशम भाव (चित्त-प्रसाद) Hindi 73 View Detail
Mool Sutra: मित्रसुतबान्धवादिषु इष्टानिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु। रागो वा द्वेषो वा ईषदपि मनसा न कर्त्तव्यः ।।

Translated Sutra: कृपया देखें ७२; संदर्भ ७२-७३
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग)

9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका Hindi 100 View Detail
Mool Sutra: अध्रुवशरणमेकत्व-मन्यत्वसंसारलोकमशुचित्वं। आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधिं च चिन्त्येत् ।।

Translated Sutra: अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ, इन १२ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए।
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग)

3. रागद्वेष का प्रतिकार Hindi 121 View Detail
Mool Sutra: सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटंतौ, ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्च्चिः ।।

Translated Sutra: तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेष स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपेण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

3. अहिंसा-सूत्र Hindi 167 View Detail
Mool Sutra: म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा। प्रयत्नस्य नास्ति बंधो हिंसामात्रेण समितस्य ।।

Translated Sutra: जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है। यत्नाचार-विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है। और जो प्रयत्नवान व अप्रमत्त हैं, समिति-परायण है, उनको किसी जीव की हिंसामात्र से बन्ध नहीं होता।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

7. परिग्रह-त्याग-सूत्र Hindi 176 View Detail
Mool Sutra: न कामभोगाः समतामुपयन्ति, न चापि भोगाः विकृतिमुपयन्ति। यः तत्प्रद्वेषी च परिग्रही च, स तेषु मोहात् विकृतिमुपैति ।।

Translated Sutra: काम-भोग अपने आप न किसी में समता उत्पन्न करते हैं और न रागद्वेष रूप विषमता। मनुष्य स्वयं उनके प्रति रागद्वेष करके उनका स्वामी व भोगी बन जाता है, और मोहवश विकार-ग्रस्त हो जाता है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

7. परिग्रह-त्याग-सूत्र Hindi 177 View Detail
Mool Sutra: मूर्च्छाछन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः। मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ।।

Translated Sutra: मोह के वशीभूत मूर्च्छित बुद्धिवाले के लिए यह जगत् ही परिग्रह है और मूर्च्छाविहीन के लिए सारा जगत् भी अपरिग्रह है। [मूर्च्छाविहीन होने के कारण, श्वेताम्बराम्नाय में, साधु वस्त्र-पात्र आदि धारण करके भी परिग्रह के दोष से लिप्त नहीं होते हैं।] (इतना होने पर भी बाह्य-त्याग की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती।)
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र Hindi 183 View Detail
Mool Sutra: उपभोगपरिभोगयोः द्वितीयं परिमाणकरणं विज्ञेयम्। अनियमितव्याप्तिदोषाः न भवन्ति कृते गुणभावः ।।

Translated Sutra: काम-वासना को घटाने के लिए ताम्बूल, गन्ध, पुष्प व शृंगार आदि की वस्तुओं का परिमाण करना द्वितीय भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इसके प्रभाव से परिमाण-बाह्य अनन्त वस्तुओं के प्रति आसक्तिभाव सर्वथा छूट जाता है। यही इसका गुणाकार करनेवाला गुणभाव है।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

9. सामायिक-सूत्र Hindi 190 View Detail
Mool Sutra: सामायिके तु कृते श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात्। एतेन कारणेन बहुशः सामायिकं कुर्यात् ।।

Translated Sutra: सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए।
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) Hindi 197 View Detail
Mool Sutra: एकान्ते अचित्ते दूरे गूढे विशाले अविरोधे। उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठापनिका भवेत्समितिः ।।

Translated Sutra: [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग)

12. मनो मौन Hindi 200 View Detail
Mool Sutra: सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि। पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ।।

Translated Sutra: वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है। देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है।
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

4. कायक्लेश तप (हठ-योग) Hindi 212 View Detail
Mool Sutra: स्थानानि वीरासनादानि, जीवस्य तु सुखावहानि। उग्राणि यथा धारयन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः ।।

Translated Sutra: [आत्मबल की वृद्धि के तथा शरीर पर से ममत्व भाव का त्याग करने के अर्थ] योगीजन वीरासन, कुक्कुट आसन, शवासन आदि विविध प्रकार के उत्कट व उग्र आसनों को धारण करके धूप शीत या वर्षा में निर्भय व निश्चल बैठे या खड़े रहते हैं। यही कायक्लेश नामक छठा बाह्य तप है। (अब क्रम से प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर या मानसिक तपों का कथन किया जाता
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग)

9. ध्यान-समाधि सूत्र Hindi 228 View Detail
Mool Sutra: किंचिन् दृष्टिमुपावर्त्य, ध्येये निरुद्धदृष्टिः। आत्मनि स्मृतिं संधाय, संसार-मोक्षार्थम् ।।

Translated Sutra: जिसकी दृष्टि बाह्य ध्येयों में अटकी हुई है, वह उस विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को आत्मा में लगावे।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग)

2. देह-त्याग Hindi 236 View Detail
Mool Sutra: सल्लेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरा च बाह्या चैव। अभ्यन्तरा कषाये, बाह्या भवति च शरीरे ।।

Translated Sutra: सल्लेखना अर्थात् पण्डितमरण दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तर व बाह्य। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) Hindi 251 View Detail
Mool Sutra: न बलायुः स्वादार्थं, न शरीरस्योपचयार्थं तेजोऽर्थं। ज्ञानार्थं संयमार्थं, ध्यानार्थं चेव भुंजीत ।।

Translated Sutra: साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 277 View Detail
Mool Sutra: यथा लाभः तथा लोभः, लोभाल्लोभः प्रवर्धते। द्विमाषकृतं कार्यं, कोट्या अपि न निष्ठितम् ।।

Translated Sutra: ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका।
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग)

12. उत्तम शौच (सन्तोष) Hindi 278 View Detail
Mool Sutra: न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः। मेधाविनः लोभभयादतीताः, संतोषिणो नो प्रकुर्वन्ति पापम् ।।

Translated Sutra: अज्ञानी जन कितना भी प्रयत्न करें, वे कर्म को कर्म से नहीं खपा सकते। धीर पुरुष ही अकर्म से कर्म को खपाते हैं। कामना और भय से अतीत होकर यथालाभ सन्तुष्ट रहनेवाला योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। सत्य, संयम, तप व ब्रह्मचर्य धर्म के लिए दे. अधि. ८-९
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग)

3. पुद्गल द्रव्य (तन्मात्रा महाभूत) Hindi 298 View Detail
Mool Sutra: औदारिकश्च देहो, देहो वैक्रियकश्च तैजसः। आहारकः कार्माणः, पुद्गलद्रव्यात्मिकाः सर्वे ।।

Translated Sutra: मनुष्यादि के स्थूल शरीर `औदारिक' कहलाते हैं और देवों व नारकियों के `वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेज शक्ति `तैजस शरीर' है। योगी जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट शरीर `आहारक' कहलाता है। और रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज `कार्मण शरीर' माना गया है। ये पाँचों
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

6. बन्ध तत्त्व (संचित कर्म) Hindi 331 View Detail
Mool Sutra: रक्तो बध्नाति कर्मं, मुच्यते कर्माभिः रागरहितात्मा। एष बन्धसामासो, जीवानां जानीहि निश्चयतः ।।

Translated Sutra: रागी जीव ही कर्मों को बाँधता है, और राग-रहित उनसे मुक्त होता है। परमार्थतः संसारी जीवों के लिए राग ही एक मात्र बन्ध का कारण व बन्धस्वरूप है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) Hindi 338 View Detail
Mool Sutra: यावद्धर्मो द्रव्यं, तावद् गत्वा लोकशिखरे। तिष्ठन्ति सर्वसिद्धाः, पृथक् पृथक् गतसिक्थमूषकगर्भनिभाः ।।

Translated Sutra: लोक के शिखर पर जहाँ तक धर्म द्रव्य की सीमा है वहाँ तक जाकर सभी मुक्त जीव पृथक् पृथक् स्थित हो जाते हैं। उनका आकार मोम रहित मूषक के आभ्यन्तर आकाश की भाँति अथवा घटाकाश की भाँति चरम शरीर वाला तथा अमूर्तीक होता है।
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13. तत्त्वार्थ अधिकार

8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) Hindi 339 View Detail
Mool Sutra: यत्र च एकः सिद्धस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ताः। अन्योन्यसमवगाढाः स्पृष्टाः सर्वेऽपि लोकान्ते ।।

Translated Sutra: लोक-शिखर पर जहाँ एक सिद्ध या मुक्तात्मा स्थित होती है, वहीँ एक दूसरे में प्रवेश पाकर संसार से मुक्त हो जाने वाली अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं। चरम शरीराकार इन सबके सिर लोकाकाश के ऊपरी अन्तिम छोर को स्पर्श करते हैं।
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14. सृष्टि-व्यवस्था

3. कर्म-कारणवाद Hindi 355 View Detail
Mool Sutra: ते ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः, पुनरपि जीवस्य। संजायन्ते देहाः, देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ।।

Translated Sutra: वे कर्म रूप परिणत पुद्गल स्कन्ध भवान्तर की प्राप्ति होने पर उस जीव के नये शरीर का आयोजन कर देते हैं।
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