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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 203 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नियट्टमाणा वेगे आयार-गोयरमाइक्खंति नाणभट्ठा दंसणलूसिणो। Translated Sutra: कुछ संयम से निवृत्त हुए लोग आचार – विचार का बखान करते हैं, (किन्तु) जो ज्ञान से भ्रष्ट हो गए, वे सम्यग्दर्शन के विध्वंसक होकर (स्वयं चारित्र – भ्रष्ट हो जाते हैं।) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 204 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नममाणा एगे जीवितं विप्परिणामेंति।
पुट्ठा वेगे णियट्ठंति, जीवियस्सेव कारणा।
णिक्खंतं पि तेसिं दुन्निक्खंतं भवति।
बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो-पुनो जातिं पकप्पेंति।
अहे संभवंता विद्दायमाणा, अहमंसी विउक्कसे।
उदासीणे फरुसं वदंति।
पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं।
तं मेहावी जाणिज्जा धम्मं। Translated Sutra: कईं साधक नत (समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं। कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट होने पर केवल जीवन जीने के निमित्त से (संयम और संयमीवेश से) निवृत्त हो जाते हैं। उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुर्निष्क्रमण हो जाता है, क्योंकि साधारण जनों द्वारा भी वे निन्दनीय हो जाते हैं तथा (आसक्त होने से) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 205 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहम्मट्ठी तुमंसि नाम बाले, आरंभट्ठी, अणुवयमाणे, हणमाणे, घायमाणे, हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे उदीरिए, उवेहइ णं अणाणाए।
एस विसण्णे वितद्दे वियाहिते Translated Sutra: (धर्म से पतित को इस प्रकार अनुशासित करते हैं – ) तू अधर्मार्थी है, बाल है, आरम्भार्थी है, (आरम्भ – कर्ताओं का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है – ) प्राणियों का हनन करो, प्राणियों का वध करने वालों का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है। (भगवान ने) घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी अपेक्षा कर रहा है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 206 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणा–‘एवं पेगे वइत्ता’,
मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं ।
‘वीरायमाणा समुट्ठाए, अविहिंसा सुव्वया दंता’ ॥
अहेगे पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे।
वसट्टा कायराजना लूसगा भवंति।
अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, ‘से समणविब्भंते समणविब्भंते’।
पासहेगे समण्णागएहिं असमण्णागए, णममाणेहिं अणममाणे, विरतेहिं अविरते, दविएहिं अदविए।
अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्ठियट्ठे वीरे आगमेणं सया परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा ? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। दीन और पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 207 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से गिहेसु वा गिहंतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा ‘जणवयंतरेसु वा’, संतेगइयाजना लूसगा भवति, अदुवा–फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए।
ओए समियदंसणे।
दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, आइक्खे विभए किट्टे वेयवी।
से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए–संतिं, विरतिं, उवसमं, णिव्वाणं, सोयवियं,
अज्जवियं, मद्दवियं, लाघवियं, अणइवत्तियं।
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेज्जा। Translated Sutra: वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, जनपदों में या जन – पदान्तरों में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए) कुछ विद्वेषी जन हिंसक हो जाते हैं। अथवा (परीषहों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको सहन करे। राग और द्वेष से रहित सम्यग्दर्शी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 208 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपको बाधा न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का वध हो, तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेश न करने वाला) वह महामुनि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 209 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कायस्स विओवाए, एस संगामसीसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुनी, अवि हम्ममाणे फलगावयट्ठि, कालोवणीते कंखेज्ज कालं, जाव सरीरभेउ। Translated Sutra: शरीर के व्यापात को ही संग्रामशीर्ष कहा गया है। (जो मुनि उसमें हार नहीं खाता), वही (संसार का) पारगामी होता है। आहत होने पर भी मुनि उद्विग्न नहीं होता, बल्कि लकड़ी के पाटिये की भाँति रहता है। मृत्युकाल निकट आने पर (विधिवत् संलेखना से) जब तक शरीर का भेद न हो, तब तक वह मरणकाल की प्रतीक्षा करे। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 210 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा नोपाएज्जा, नोणिमंतेज्जा, नोकुज्जा वेयावडियं–परं आढायमाणे Translated Sutra: मैं कहता हूँ – समनोज्ञ या असमनोज्ञ साधक को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल या पाद – प्रोंछन आदरपूर्वक न दे, न देने के लिए निमंत्रित करे और न उनका वैयावृत्य करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 211 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धुवं चेयं जाणेज्जा – असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा, पायपुंछणं वा लभिय, भुंजिय णोभुंजिय, पंथं विउत्ता विउकम्म विभत्तं धम्मं झोसेमाणे समेमाणे पलेमाणे, पाएज्ज वा, निमंतेज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं–परं अणाढायमाणे Translated Sutra: असमनोज्ञ भिक्षु कदाचित् मुनि से कहे – (मुनिवर !) तुम इस बात को निश्चित समझ लो – (हमारे मठ या आश्रम में प्रतिदिन) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन (मिलता है)। तुम्हें ये प्राप्त हुए हों या न हुए हों तुमने भोजन कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन करते हुए | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में कईं साधकों को आचार – गोचर सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु – जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 213 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया।
अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स
सव्वत्थ सम्मयं पावं।
तमेव उवाइकम्म।
एस मह विवेगे वियाहिते।
गामे वा अदुवा रण्णे? नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह–पवेदितं माहणेण मईमया।
जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया।
जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं, अनियाणा ते वियाहिया। Translated Sutra: जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन) रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। (वह मुनि उन मतवादियों से कहे – ) (आप के दर्शनों में आरम्भ) पाप सर्वत्र सम्मत है। मैं उसी (पाप) का निकट से अति – क्रमण करके (स्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 400 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–तं जहा–खंधंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, पासायंसि वा, हम्मियतलंसि वा, अन्नतरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, नन्नत्थ आगाढाणागाढेहिं कारणेहिं ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा।
से य आहच्च चेतिते सिया णोतत्थ सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा हत्थाणि वा, पादाणि वा, अच्छीणि वा, दंताणि वा, मुहं वा उच्छोलेज्ज वा, पहोएज्ज वा। णोतत्थ ऊसढं पगरेज्जा, तं जहा–उच्चारं वा, पासवणं वा, खेलं वा, सिंघाणं वा, वंतं वा, पित्तं वा, पूतिं वा, सोणियं वा, अन्नयरं वा सरीरावयवं।
केवली बूया आयाणमेयं–से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलेज्ज Translated Sutra: वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो कि एक स्तम्भ पर है, या मचान पर है, दूसरी आदि मंजिल पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा प्रासाद के तल पर बना हुआ है, अथवा ऊंचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अत्यंत गाढ़ कारण के बिना उक्त उपाश्रय में स्थान – स्वाध्याय आदि कार्य न करे। कदाचित् किसी अनिवार्य कारणवश ऐसे उपाश्रय में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 401 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–सइत्थियं, सखुड्डं, सपसुभत्तपाणं। तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतज्जा।
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइ-कुलेण सद्धिं संवसमाणस्स–अलसगे वा, विसूइया वा, छड्डी वा उव्वाहेज्जा। अन्नतरे वा से दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा।
अस्संजए कलुण-पडियाए तं भिक्खुस्स गातं तेल्लेण वा, घएण वा, नवनीएण वा, वसाए वा, अब्भंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा। सिनाणेण वा, कक्केण वा, लोद्धेण वा, वण्णेण वा, चुण्णेण वा, पउमेण वा, आधंसेज्ज वा, पघंसेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा, उव्वट्टेज्ज वा। सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा, ‘उच्छोलेज्ज Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी जिस उपाश्रय को स्त्रियों से, बालकों से, क्षुद्र प्राणियों से या पशुओं से युक्त जाने तथा पशुओं या गृहस्थ के खाने – पीने योग्य पदार्थों से जो भरा हो, तो इस प्रकार के उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग कार्य न करे। साधु का गृहपतिकुल के साथ निवास कर्मबन्ध का उपादान कारण है। गृहस्थ परिवार के साथ निवास | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 402 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स–इह खलु गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा अन्नमन्नं अक्कोसंति वा, बंधंति वा, रुंभंति वा, उद्दवेंति वा।
अह भिक्खू णं उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा–एत्ते खलु अन्नमन्नं अक्कोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु, बंधंतु वा मा वा बंधंतु, रुंभंतु वा मा वा रुंभंतु, उद्दवेंतु वा मा वा उद्दवेंतु।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: साधु के लिए गृहस्थ – संसर्गयुक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, दास – दासियाँ, नौकर – नौकरानियाँ आदि रहती हैं। कदाचित् वे परस्पर एक – दूसरे को कटु वचन कहें, मारे – पीटे, बंद करे या उपद्रव करे। उन्हें ऐसा करते देख भिक्षु के मन में ऊंचे – नीचे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 403 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स–इह खलु गाहावई अप्पनो सअट्ठाए अगणिकायं उज्जालेज्ज वा, पज्जालेज्ज वा, विज्झावेज्ज वा। अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा–एते खलु अगणिकायं उज्जालंतु वा मा वा उज्जालेंतु, पज्जालेंतु वा मा वा पज्जालेंतु, विज्झावेंतु वा मा वा विज्झावेंतु।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं तहप्पगारे [सागारिए?] उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थों के साथ एक मकान में साधु का निवास करना इसलिए भी कर्मबन्ध का कारण है कि उसमें गृह – स्वामी अपने प्रयोजन के लिए अग्निकाय को उज्जवलित – प्रज्वलित करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझाएगा। वहाँ रहते हुए भिक्षु के मन में कदाचित् ऊंचे – नीचे परिणाम आ सकते हैं कि ये गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित करे अथवा उज्जवलित न | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 404 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स–इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा, गुणे वा, मणी वा, मोत्तिए वा, ‘हिरण्णे वा’, ‘सुवण्णे वा’, कडगाणि वा, तुडियाणि वा, तिसरगाणि वा, पालंबाणि वा, हारे वा, अद्धहारे वा, एगावली वा, मुत्तावली वा, कणगावली वा, रयनावली वा, तरुणियं वा कुमारिं अलंकिय-विभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा–एरिसिया वा सा नो वा एरिसिया–इति वा णं बूया, इति वा णं मणं साएज्जा।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं तहप्पगारे [सागारिए?] उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है। जैसे कि उस मकान में गृहस्थ के कुण्डल, करधनी, मणि, मुक्ता, चाँदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तीनलड़ा – हार, फूलमाला, अठारह लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, मुक्तावली हार, या कनकावली हार, रत्नावली हार, अथवा वस्त्रा – भूषण आदि से अलंकृत और विभूषित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 405 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स–इह खलु गाहावइणीओ वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ -सुण्हाओ वा, गाहावइ-धाईओ वा, गाहावइ-दासीओ वा, गाहावइ-कम्मकरीओ वा। तासिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ–जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता वयमंता गुणमंता संजया संवुडा बंभचारी उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एतेसिं कप्पइ मेहुणं धम्मं परियारणाए आउट्टित्तए।
जा य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणं धम्मं परियारणाए आउट्टेज्जा, पुत्तं खलु सा लभेज्जा–ओयस्सिं तेयस्सिं वच्चस्सिं जसस्सिं संप-राइयं आलोयण-दरिसणिज्जं। एयप्पगारं निग्घोसं सोच्चा निसम्म तासिं च णं अन्नय्ररि सड्ढी तं तवस्सिं भिक्खुं Translated Sutra: गृहस्थों के साथ एक स्थान में निवास करने वाले साधु के लिए कि उसमें गृहपत्नीयाँ, गृहस्थ की पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, उसकी धायमाताएं, दासियाँ या नौकरानियाँ भी रहेंगी। उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि, ‘ये जो श्रमण भगवान होते हैं, वे शीलवान, वयस्क, गुणवान, संयमी, शान्त, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 214 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, सव्वतो सव्वावंति च णं पडियक्कं ‘जीवेहिं कम्मसमारंभे णं’।
तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एतेहिं काएहिं दंडं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं एतेहिं काएहिं दंडं समारंभावेज्जा, नेवन्नेएतेहिं काएहिं दंडं समारंभंते वि समणुजाणेज्जा।
जेवण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारंभंति, तेसिं पि वयं लज्जामो।
तं परिण्णाय मेहावी तं वा दंडं, अन्नं वा दंडं, नोदंडभी दंडं समारंभेज्जासि। Translated Sutra: ऊंची, नीची एवं तीरछी, सब दिशाओं में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर कर्म – समारम्भ किया जाता है। मेधावी साधक उसका परिज्ञान करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 215 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावती बूया–आउसंतो समणा! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेतेमि, आवसहं वा समुस्सिणोमि, से भुंजह वसह आउसंतो समणा!
भिक्खू तं गाहावतिं समणसं सवयसं पडियाइक्खे–आउसंतो गाहावती! नो खलु ते वयणं आढामि, नो खलु ते वयणं Translated Sutra: वह भिक्षु कहीं जा रहा हो, श्मशान में, सून मकान में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के नीचे, कुम्भारशाला में या गाँव के बाहर कहीं खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुआ हो अथवा कहीं भी विहार कर रहा हो, उस समय कोई गृहपति उसके पास आकर कहे – ‘‘आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशन, पान, खाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन; प्राण, भूत, जीव | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 216 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, निसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावती आयगयाए पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ, आवसहं वा समुस्सिनाति तं भिक्खुं परिघासेउं।
तं च भिक्खू जाणेज्जा– सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अन्नेसिं वा अंतिए सोच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं Translated Sutra: वह भिक्षु जा रहा है, यावत् लेटा हुआ है, अथवा कहीं भी विचरण कर रहा है, उस समय उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति अपने आत्मगत भावों को प्रकट किये बिना प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक अशन, पान आदि बनवाता है, साधु के उद्देश्य से मोल लेकर, यावत् घर से लाकर देना चाहता है या उपाश्रय कराता है, वह उस भिक्षु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 217 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खुं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति– ‘से हंता! हणह, खणह, छिंदह, दहह, पचह, आलुंपह, विलुंपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह’ – ते फासे ‘धीरो पुट्ठो’ अहियासए।
अदुवा आयार-गोयरमाइक्खे, तक्किया ण मणेलिसं। ‘अनुपुव्वेण सम्मं पडिलेहाए आयगुत्ते।
अदुवा गुत्ती गोयरस्स’। बुद्धेहिं एयं पवेदितं– Translated Sutra: भिक्षु से पूछकर या बिना पूछे ही किसी गृहस्थ द्वारा ये (आहारादि पदार्थ) भिक्षु के समक्ष भेंट के रूप में लाकर रख देने पर (जब मुनि उन्हें स्वीकार नहीं करता), तब वह उसे परिताप देता है; मारता है, अथवा अपने नौकरों को आदेश देता है कि इसको पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ – पैर आदि काट डालो, उसे जला दो, इसका माँस पकाओ, इसके वस्त्रादि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 218 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा
पायपुंछणं वा णोपाएज्जा, णोनिमंतेज्जा, णोकुज्जा वेयावाडियं–परं आढायमाणे Translated Sutra: वह समनोज्ञ मुनि असमनोज्ञ साधु को अशन – पान आदि तथा वस्त्र – पात्र आदि पदार्थ अत्यन्त आदरपूर्वक न दे, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे और न ही उनका वैयावृत्य करे। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 220 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समुट्ठिता।
‘सोच्चा वई मेहावी’, पंडियाणं निसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते।
ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा नो ‘परिग्गहावंतो सव्वावंतो’ च णं लोगंसि।
णिहाय दंडं पाणेहिं, पावं कम्मं अकुव्वमाणे, एस महं अगंथे वियाहिए।
ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च नच्चा। Translated Sutra: कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं। तीर्थंकर तथा श्रुतज्ञानी आदि पण्डितों के वचन सूनकर, मेधावी साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) आर्यों ने समता में धर्म कहा है, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से धर्म कहा है। वे कामभोगों की आकांक्षा न रखनेवाले, प्राणियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 221 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आहारोवचया देहा, परिसह-पभंगुरा।
पासगेहे सव्विंदिएहिं परिगिलायमाणेहिं। Translated Sutra: शरीर आहार से उपचित होते हैं, परीषहों के आघात से भग्न हो जाते हैं; किन्तु तुम देखो, आहार के अभाव में कईं साधक क्षुधा से पीड़ित होकर सभी इन्द्रियों से ग्लान हो जाते हैं। राग – द्वेष से रहित भिक्षु दया का पालन करता है | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 222 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ओए दयं दयइ।
जे सन्निहाण सत्थस्स खेयण्णे।
से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खणण्णे विणयण्णे समयण्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेणुट्ठाई अपडिण्णे।
दुहओ छेत्ता नियाइ। Translated Sutra: जो भिक्षु सन्निधान – (आहारादि के संचय) के शस्त्र (संयमघातक प्रवृत्ति) का मर्मज्ञ है। वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ होता है। वह परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान करने वाला, किसी प्रकार की मिथ्या आग्रहयुक्त प्रतिज्ञा से रहित एवं राग और द्वेष के बन्धनों को छेदन करके | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Hindi | 223 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं भिक्खुं सीयफास-परिवेवमाणगायं उवसंकमित्तु गाहावई बूया–आउसंतो समणा! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति? आउसंतो गाहावई! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति। सीयफासं नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए। नो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालेत्तए वा पज्जालेत्तए वा, कायं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा अन्नेसिं वा वयणाओ।
सिया से एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कायं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए। Translated Sutra: शीत – स्पर्श से काँपते हुए शरीर वाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे – आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय – विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? (इस पर मुनि कहता है) आयुष्मन् गृहपति ! मुझे ग्राम – धर्म पीड़ित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत – स्पर्श को सहन करने में समर्थ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 224 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायचउत्थेहिं, तस्स णं नो एवं भवति–चउत्थं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जाइं वत्थाइं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं धारेज्जा।
नो धोएज्जा, नो रएज्जा, नो धोय-रत्ताइं वत्थाइं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं। Translated Sutra: जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि ‘मैं चौथे वस्त्र की याचना करूँगा। वह यथा – एषणीय वस्त्रों की याचना करे और यथापरिगृहीत वस्त्रों को धारण करे। वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए – रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे। दूसरे ग्रामों में जाते | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 226 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवति। Translated Sutra: (इस प्रकार) लाघवता को लाता या उसका चिन्तन करता हुआ वह उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में ही) तप सध जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 227 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जमेयं भगवया पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: भगवान ने जिस प्रकार से इस (उपधि – विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई – पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 228 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–पुट्ठो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सीय-फासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आउट्टे।
तवस्सिनो हु तं सेयं, जमेगे विहमाइए।
तत्थावि तस्स कालपरियाए।
से वि तत्थ विअंतिकारए।
इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, आणुगामियं। Translated Sutra: जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं आक्रान्त हो गया हूँ, और मैं इस अनुकूल परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में) कोई – कोई संयम का धनी भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण से उस उपसर्ग के वश न हो कर उसका सेवन न करने के लिए दूर हो जाता है। उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-५ ग्लान भक्त परिज्ञा | Hindi | 229 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायतइएहिं, तस्स णं नो एवं भवति–तइयं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जाइं वत्थाइं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं धारेज्जा।
णोधोएज्जा, णोरएज्जा, णोधोय-रत्ताइं वत्थाइं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं।
अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेत्ता–
अदुवा एगसाडे।
अदुवा अचेले।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
जस्स Translated Sutra: जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँ। वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे। इससे आगे वस्त्र – विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गई है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-५ ग्लान भक्त परिज्ञा | Hindi | 230 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे–अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहिं, गिलानो अगिलाणेहिं, अभिकंख साह-म्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि। अहं वा वि खलु अपडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स, अगिलानो गिलाणस्स, अभिकंख साहम्मिअस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए।
आहट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च णोसाति-ज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं णोआणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं णोआणक्खेस्सामि, आहडं च णोसाति-ज्जिस्सामि।
‘लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वताए Translated Sutra: जिस भिक्षु का यह प्रकल्प होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे साधर्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा से साधर्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा। (१) (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 231 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिते पायबिइएण, तस्स नो एवं भवइ–बिइयं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा।
नो धोएज्जा, नो रएज्जा, नो धोय-रत्तं वत्थं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं।
अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेत्ता– ‘अदुवा अचेले’।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चूका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि में दूसे वस्त्र की याचना करूँगा। वह यथा – एषणीय वस्त्र की याचना करे। यहाँ से लेकर आगे ‘ग्रीष्मऋतु आ गई’ तक का वर्णन पूर्ववत्। भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 232 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ–एगो अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवइ।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि ‘मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और न मैं किसी का हूँ,’ वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे। (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय – विमोक्ष करे तो) उसे तप सहज में प्राप्त हो जाता है। भगवान ने इसका जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 233 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णोवामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं नो संचारेज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवइ।
जमेयं भगवता पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी अशन आदि आहार करते समय आस्वाद लेते हुए बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। यह अनास्वाद वृत्ति से लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (आहार करे)। (स्वाद – विमोक्ष से) वह तप का सहज लाभ प्राप्त करता है। भगवान ने जिस रूप में स्वाद – विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 234 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–से ‘गिलामि च’ खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता, कसाए पयणुए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे। Translated Sutra: जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच मैं इस समय इस शरीर को वहन करने में क्रमशः ग्लान हो रहा हूँ, वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे और कषायों को कृश करे। समाधियुक्त लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 235 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, निगमं वा, रायहाणिं वा, ‘तणाइं जाएज्जा, तणाइं जाएत्ता, से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणग-दग मट्टिय-मक्कडासंताणए, ‘पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय तणाइं संथरेज्जा, तणाइं संथरेत्ता’ एत्थ वि समए इत्तरियं कुज्जा।
तं सच्चं सच्चावादी ओए तिण्णे छिन्न-कहंकहे आतीतट्ठे अनातीते वेच्चाण भेउरं कायं, संविहूणिय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अस्सिं ‘विस्सं भइत्ता’ भेरवमणुचिण्णे।
तत्थावि Translated Sutra: क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पट्टन में, द्रोणमुख में, आकर में, आश्रम में, सन्निवेश में, निगम में या राजधानी में प्रवेश करके घास की याचना करे। उसे लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़े आदि के अंडे, जीव – जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूँदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 236 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू अचेले परिवुसिते, ‘तस्स णं’ एवं भवति–चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासि-त्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दंस-मसगफास अहियासित्तए, एगतरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छादणं चहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पति कडि-बंधणं धारित्तए। Translated Sutra: जो भिक्षु अचेल – कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के स्पर्श सहन कर सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, डाँस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न – भिन्न जाति, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ प्रति | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 237 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सोयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंस-मसगफासा फुसंति, गयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले।
लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमन्नागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार – बार घास का स्पर्श चूभता है, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी का स्पर्श होता है, डाँस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल उन एक – जातीय या भिन्न – भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। लाघव का सर्वांगीण चिन्तन करता हुआ (वह अचेल रहे)। अचेल | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 238 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु दलइस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु दलइस्सामि, आहडं च णोसातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु ‘अन्नेसिं भिक्खूणं’ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु णोदलइस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु णोदलइस्सामि, आहडं च नो सातिज्जिस्सामि।
अहं च खलु तेण अहाइरित्तेणं अहेसणिज्जेणं Translated Sutra: जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा और उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा। (१) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा। (२) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 239 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–
से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं आणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहिअच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे।
अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, निगमं वा, रायहाणिं वा, तणाइं जाएज्जा, तणाइं जाएत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंग-पणगदग-मट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय Translated Sutra: जिस भिक्षु के मन में यह अध्यवसाय होता है कि मैं वास्तव में इस समय इस शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान हो रहा हूँ। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संक्षेप करे। आहार को क्रमशः घटाता हुआ कषायों को भी कृश करे। यों करता हुआ समाधिपूर्ण लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय, दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 241 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहं पि विदित्ताणं, बुद्धा धम्मस्स पारगा ।
अणुपुव्वीए संखाए, आरंभाओ तिउट्टति ॥ Translated Sutra: वे धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों प्रकार से हेयता का अनुभव करके क्रम से विमोक्ष का अवसर जान – कर आरंभ से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 242 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कसाए पयणुए किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए ।
अह भिक्खू गिलाएज्जा, आहारस्सेव अंतियं ॥ Translated Sutra: वह कषायों को कृश करके, अल्पाहारी बनकर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है, यदि ग्लानि को प्राप्त होता है, तो भी आहार के पास न जाए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 245 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जं किंचुवक्कमं जाणे, आउक्खेमस्स अप्पनो ।
तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए ॥ Translated Sutra: यदि अपनी आयु के क्षेम में जरा – सा भी उपक्रम जान पड़े तो उस संलेखना काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु शीघ्र पण्डितमरण को अपना ले। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 246 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गामे वा अदुवा रण्णे, थंडिलं पडिलेहिया ।
अप्पपाणं तु विण्णाय, तणाइं संथरे मुनी ॥ Translated Sutra: (संलेखन – साधक) ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन करे, उसे जीव – जन्तुरहित स्थान जानकर मुनि (वहीं) घास बिछा ले। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 247 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अणाहारो तुअट्टेज्जा, पुट्ठो तत्थहियासए ।
नातिवेलं उवचरे, माणुस्सेहिं वि पुट्ठओ ॥ Translated Sutra: वह वहीं निराहार हो कर लेट जाए। उस समय परीषहों और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर सहन करे। मनुष्यकृत उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करे। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 248 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा ।
भुंजंति मंस-सोणियं, ण छणे ण पमज्जए ॥ Translated Sutra: जो रेंगने वाले प्राणी हैं, या जो आकाश में उड़ने वाले हैं, या जो बिलों में रहते हैं, वे कदाचित् अनशनधारी मुनि के शरीर का माँस नोचे और रक्त पीए तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 249 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पाणा देहं विहिंसंति, ठाणाओ य विउब्भमे ।
‘आसवेहिं विवित्तेहिं’ तिप्पमाणेऽहियासए ॥ Translated Sutra: (वह मुनि ऐसा चिन्तन करे) ये प्राणी मेरे शरीर का विघात कर रहे हैं, (मेरे ज्ञानादि आत्मगुणों का नहीं, वह उस स्थान से उठकर अन्यत्र न जाए।) आस्रवों से पृथक् हो जाने के कारण तृप्ति अनुभव करता हुआ (उन उपसर्गों को) सहन करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 251 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए ।
आयवज्जं पडीयारं, विजहिज्जा तिहा तिहा ॥ Translated Sutra: ज्ञात – पुत्र ने भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण अनशन का यह आचार – धर्म बताया है। इसमें किसी भी अंगोपांग के व्यापार का, किसी दूसरे के सहारे का मन, वचन और काया से तथा कृत – कारित – अनुमोदित रूप से त्याग करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 252 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] हरिएसु ण णिवज्जेज्जा, थंडिलं ‘मुनिआ सए’
विउसिज्ज अणाहारो, पुट्ठो तत्थहियासए ॥ Translated Sutra: वह हरियाली पर शयन न करे, स्थण्डिल को देखकर वहाँ सोए। वह निराहार उपधि का व्युत्सर्ग करके परीषहों तथा उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। |