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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 767 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जत्थ समुद्देस-काले साहूणं मंडलीए अज्जाओ।
गोयम ठवंति पादे इत्थी-रज्जं, न तं गच्छं॥ Translated Sutra: जिसमें भोजन के समय साधु की मांडली में पात्र स्थापन करनेवाली हो तो वो स्त्री राज्य है, लेकिन वो गच्छ नहीं है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 387 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं नो इत्थीणं निज्झाएज्जा। नो नमालवेज्जा। नो णं तीए सद्धिं परिवसेज्जा। नो णं अद्धाणं पडिवज्जेज्जा
(२) गोयमा सव्व-प्पयारेहि णं सव्वित्थीयं अच्चत्थं मउक्कडत्ताए रागेणं संधुक्किज्जमाणी
कामग्गिए संपलित्ता सहावओ चेव विसएहिं बाहिज्जइ।
(३) तओ सव्व-पयारेहिं णं सव्वत्थियं अच्चत्थं मउक्कडत्ताए रागेणं संधु-क्किज्जमाणी कामग्गीए संपलित्ता सहावओ चेव विसएहिं बाहिज्जमाणी, अनुसमयं सव्व-दिसि-विदिसासुं णं सव्वत्थ विसए पत्थेज्जा
(४) जावं णं सव्वत्थ-विसए पत्थेज्जा, ताव णं सव्व-पयारेहिं णं सव्वत्थ सव्वहा पुरिसं संकप्पिज्जा,
(५) जाव णं Translated Sutra: हे भगवंत ! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि – स्त्री के मर्म अंग – उपांग की ओर नजर न करना, उसके साथ बात न करना, उसके साथ वास न करना, उसके साथ मार्ग में अकेले न चलना ? हे गौतम ! सभी स्त्री सर्व तरह से अति उत्कट मद और विषयाभिलाप के राग से उत्तेजित होती है। स्वभाव से उस का कामाग्नि हंमेशा सुलगता रहता है। विषय की ओर उसका चंचल चित्त | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 389 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं केणं अट्ठेण एवं वुच्चइ जहा पुरिसे वि णं जे णं न संजुज्जे से णं धन्ने जे णं संजुज्जे से अधन्ने
(२) गोयमा जे य णं से तीए इत्थीए पावाए बद्ध-पुट्ठ-कम्म-ट्ठिइं चिट्ठइ।
से णं पुरिससंगेणं निकाइज्जइ
(३) तेणं तु बद्ध-पुट्ठ-निकाइएणं कम्मेणं सा वराई
(४) तं तारिसं अज्झवसायं पडुच्चा एगिंदियत्ताए पुढवादीसुं गया समाणी अनंत-काल-परियट्टेण वि णं नो पावेज्जा बेइंदियत्तणं
(५) एवं कह कह वि बहुकेसेण अनंत-कालाओ एगिंदियत्तणं खविय बेइंदियत्तं, एवं तेइंदियत्तं चउरिं-दियत्तमवि केसेणं वेयइत्ता पंचिंदियत्तेणं आगया समाणी
(६) दुब्भगित्थिय-पंड-तेरिच्छ-वेयमाणी। हा-हा-भूय-कट्ठ-सरणा, Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहलाता है कि जो पुरुष उस स्त्री के साथ योग न करे वो धन्य और योग करे वो अधन्य ? हे गौतम ! बद्धस्पृष्ट – कर्म की अवस्था तक पहुँची हुई वो पापी स्त्री पुरुष का साथ प्राप्त हो तो वो कर्म निकाचितपन में बदले, यानि बद्धस्पृष्ट निकाचित कर्म से बेचारी उस तरह के अध्यवसाय पाकर उसकी आत्मा पृथ्वीकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 395 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१२) जे य णं से अहमे, से णं स-पर-दारासत्त-मानसे नुसमयं कूरज्झवसायज्झवसिय-चित्ते
हिंसारंभ-परिग्गहाइसु अभिरए भवेज्जा,
(१३) तहा णं जे य से अहमाहमे, से णं महा-पाव-कम्मे सव्वाओ इत्थीओ वाया मनसा य कम्मुणा तिविहं तिविहेणं नुसमयं अभिलसेज्जा,
(१४) तहा अच्चंतकूरज्झवसाय-अज्झवसिएहिं चित्ते हिंसारंभ-परिग्गहासत्ते कालं गमेज्जा
(१५) एएसिं दोण्हं पि णं गोयमा अनंत-संसारियत्तणं नेयं॥ Translated Sutra: जो अधम पुरुष हो वो अपनी या पराई स्त्री में आसक्त मनवाला हो। हरएक वक्त में क्रूर परिणाम जिसके चित्त में चलता हो आरम्भ और परिग्रहादिक के लिए तल्लीन मनवाला हो। और फिर जो अधमाधम पुरुष हो वो महापाप कर्म करनेवाले सर्व स्त्री की मन, वचन, काया से त्रिविध त्रिविध से प्रत्येक समय अभिलाषा करे। और अति क्रूर अध्यवसाय से | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 396 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) भयवं जे णं से अहमे जे वि णं से अहमाहमे पुरिसे तेसिं च दोण्हं पि अनंत-संसारियत्तणं
समक्खायं, तो णं एगे अहमे एगे अहमाहमे
(२) एतेसिं दोण्हं पि पुरिसावत्थाणं के पइ-विसेसे
(३) गोयमा जे णं से अहम-पुरिसे, से णं जइ वि उ स-पर-दारासत्त-माणसे कूरज्झवसाय-ज्झवसिएहिं चित्ते हिंसारंभ-परिग्गहासत्त-चित्ते, तहा वि णं दिक्खियाहिं साहुणीहिं अन्नयरासुं च। सील-संरक्खण-पोसहोववास-निरयाहिं दिक्खियाहिं गारत्थीहिं वा सद्धिं आवडिय-पेल्लियामंतिए वि समाणे नो वियम्मं समायरेज्जा,
(४) जे य णं से अहमाहमे पुरिसे, से णं निय-जणणि-पभिईए जाव णं दिक्खियाईहिं साहुणीहिं पि समं वियम्मं समायरेज्जा
(५) Translated Sutra: हे भगवंत ! जो अधम और अधमाधम पुरुष दोनों का एक समान अनन्त संसारी इस तरह बताया तो एक अधम और अधमाधम उसमें फर्क कौन – सा समझे ? हे गौतम ! जो अधम पुरुष अपनी या पराई स्त्री में आसक्त मनवाला क्रूर – परिणामवाले चित्तवाला आरम्भ परिग्रह में लीन होने के बावजूद भी दीक्षित साध्वी और शील संरक्षण करने की ईच्छावाली हो। पौषध, उपवास, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 402 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (२) एवं तु गोयमा जीए इत्थीए-ति कालं पुरिससंजोग-संपत्ती न संजाया। अहा णं पुरिस-संजोग-संपत्तीए वि साहीणाए जाव णं तेरसमे चोद्दसमे पन्नरसमे णं च समएणं पुरिसेणं सद्धिं न संजुत्ता नो वियम्मं समायरियं,
(३) से णं, जहा घन-कट्ठ-तण-दारु-समिद्धे केई गामे इ वा नगरे इ वा, रन्ने इ वा, संपलित्ते चंडानिल-संधुक्किए पयलित्ताणं पय-लित्ताणं णिडज्झिय निडज्झिय चिरेणं उवसमेज्जा
(४) एवं तु णं गोयमा से इत्थी कामग्गी संपलित्ता समाणी णिडज्झिय-निडज्झिय समय-चउक्केणं उवसमेज्जा
(५) एवं इगवीसमे वावीसमे जाव णं सत्ततीसइमे समए जहा णं पदीव-सिहा वावण्णा पुन-रवि सयं वा तहाविहेणं चुन्न-जोगेणं वा पयलिज्जा Translated Sutra: हे गौतम ! उसी तरह जिस स्त्री को तीन काल पुरुष संयोग की प्राप्ति नहीं हुई। पुरुष संयोग संप्राप्ति स्वाधीन होने के बावजूद भी तेरहवे – चौदहवे, पंद्रहवे समय में भी पुरुष के साथ मिलाप न हुआ। यानि संभोग कार्य आचरण न किया। तो जिस तरह कईं काष्ठ लकड़े, ईंधण से भरे किसी गाँव, नगर या अरण्य में अग्नि फैल उठा और उस वक्त प्रचंड़ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 406 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा णं गोयमा इत्थीयं नाम पुरिसाणं अहमाणं सव्व-पाव-कम्माणं वसुहारा, तम-रय-पंक-खाणी सोग्गइ-मग्गस्स णं अग्गला, नरयावयारस्स णं समोयरण-वत्तणी
(२) अभूमयं विसकंदलिं, अणग्गियं चडुलिं अभोयणं विसूइयं अणामियं वाहिं, अवेयणं मुच्छं, अणोवसग्गं मारिं अनियलिं गुत्तिं, अरज्जुए पासे, अहेउए मच्चू,
(३) तहा य णं गोयमा इत्थि-संभोगे पुरिसाणं मनसा वि णं अचिंतणिज्जे, अणज्झव-सणिज्जे, अपत्थणिज्जे, अणीहणिज्जे, अवियप्पणिज्जे, असंकप्पणिज्जे, अणभिलसणिज्जे, असंभरणिज्जे तिविहं तिविहेणं ति।
(४) जओ णं इत्थियं नाम पुरिसस्स णं, गोयमा सव्वप्पगारेसुं पि दुस्साहिय-विज्जं पि व दोसुप्पपायणिं, सारंभ Translated Sutra: हे गौतम ! यह स्त्री, पुरुष के लिए सर्व पापकर्म की सर्व अधर्म की धनवृष्टि समान वसुधारा समान है। मोह और कर्मरज के कीचड़ की खान समान सद्गति के मार्ग की अर्गला – विघ्न करनेवाली, नरक में उतरने के लिए सीड़ी समान, बिना भूमि के विषवेलड़ी, अग्नि रहित उंबाडक – भोजन बिना विसूचिकांत बीमारी समान, नाम रहित व्याधि, चेतना बिना मूर्छा, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 408 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा य इत्थीओ नाम गोयमा पलय-काल-रयणी-मिव सव्व-कालं तमोवलित्ताओ भवंति।
(२) विज्जु इव खणदिट्ठ-नट्ठ-पेम्माओ भवंति।
(३) सरणागय-घायगो इव एक्क-जम्मियाओ तक्खण-पसूय-जीवंत-मुद्ध-निय-सिसु-भक्खीओ इव महा-पाव-कम्माओ भवंति।
(४) खर-पवणुच्चालिय-लवणोवहि-वेलाइव बहु-विह-विकप्प-कल्लोलमालाहिं णं। खणं पि एगत्थ हि असंठिय-माणसाओ भवंति।
(५) सयंभुरमणोवहिममिव दुरवगाह-कइतवाओ भवंति।
(६) पवणो इव चडुल-सहावाओ भवंति
(७) अग्गी इव सव्व-भक्खाओ, वाऊ इव सव्व-फरिसाओ, तक्करो इव परत्थलोलाओ, साणो इव दानमेत्तमेत्तीओ, मच्छो इव हव्व-परिचत्त-नेहाओ,
(१) एवमाइ-अनेग-दोस-लक्ख-पडिपुन्न-सव्वंगोवंग-सब्भिंतर-बाहिराणं Translated Sutra: हे गौतम ! यह स्त्री प्रलयकाल की रात की तरह जिस तरह हंमेशा अज्ञान अंधकार से लिपीत है। बीजली की तरह पलभर में दिखते ही नष्ट होने के स्नेह स्वभाववाली होती है। शरण में आनेवाले का घात करनेवाले लोगों की तरह तत्काल जन्म दिए बच्चे के जीव का ही भक्षण करनेवाले समान महापाप करनेवाली स्त्री होती है, सज्जक पवन के योग से घूंघवाते | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 411 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किमित्थिए संलावुल्लावंगोवंग-निरिक्खणं वज्जेज्जा, से णं उयाहु मेहुणं गोयमा उभयमवि
(२) से भयवं किमित्थि-संजोग-समायरणे मेहुणे परिवज्जिया, उयाहु णं बहुविहेसुं सचित्ता-चित्त-वत्थु-विसएसुं।
(३) मेहुण-परिणामे तिविहं तिविहेणं मणो-वइ-काय-जोगेणं सव्वहा सव्व-कालं जावज्जीवाए त्ति । गोयमा सव्वहा विवज्जेज्जा॥ Translated Sutra: हे भगवंत ! स्त्री के साथ बातचीत न करना, अंगोपांग न देखना या मैथुन सेवन का त्याग करना ? हे गौतम! दोनों का त्याग करो। हे भगवंत ! क्या स्त्री का समागम करने समान मैथुन का त्याग करना या कईं तरह के सचित्त अचित्त चीज विषयक मैथुन का परिणाम मन, वचन, काया से त्रिविध से सर्वथा यावज्जीवन त्याग करे ? हे गौतम ! उसे सर्व तरीके से त्याग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 412 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं जे णं केई साहू वा साहूणी वा मेहुणमासेवेज्जा से णं वंदेज्जा गोयमा जे णं केई साहू वा साहूणी वा मेहुणं सयमेव अप्पणा सेवेज्ज वा परेहि उवइसेत्तुं सेवावेज्जा वा सेविज्ज-माणं समनुजाणेज्जा वा दिव्वं वा मानुसं वा तिरिक्ख-जोणियं वा जाव णं कर-कम्माइं सचित्ताचित्त-वत्थुविसयं वा विविहज्झवसाएण कारमाकारिमोवगरणेणं मनसा वा वयसा वा काएण वा
(२) से णं समणे वा समणी वा दूरंत-पत-लक्खण अदट्ठव्वे अमग्ग-समायारे महापाव-कम्मे नो णं वंदेज्जा, नो णं वंदावेज्जा नो णं वंदिज्जमाण वा समनुजाणेज्जा तिविहं तिविहेणं जाव णं विसोहिकालं ति।
(३) से भयवं जं वंदेज्जा से किं लभेज्जा
(४) गोयमा Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई साधु – साध्वी मैथुन सेवन करे वो दूसरों के पास वन्दन करवाए क्या ? हे गौतम ! यदि कोई साधु – साध्वी दीव्य, मानव या तिर्यंच संग से यावत् हस्तकर्म आदि सचित्त चीज विषयक दुष्ट अध्यवसाय कर के मन, वचन, काया से खुद मैथुन सेवे, दूसरों को प्रेरणा उपदेश देकर मैथुन सेवन करवाए, सेवन करनेवाले को अच्छा माने, कृत्रिम | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 438 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गोयमा दुविहे पहे अक्खाए सुस्समणे य सुसावए।
महव्वय-धरे पढमे, बीएऽनुव्वय-धारए॥ Translated Sutra: हे गौतम ! मोक्ष मार्ग दो तरह का बताया है। एक उत्तम श्रमण का और दूसरा उत्तम श्रावक का। प्रथम महाव्रतधारी का और दूसरा अणुव्रतधारी का। साधुओं ने त्रिविध त्रिविध से सर्व पाप व्यापार का जीवन पर्यन्त त्याग किया है। मोक्ष के साधनभूत घोर महाव्रत का श्रमण ने स्वीकार किया है। गृहस्थ ने परिमित काल के लिए द्विविध, एकविध | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 440 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहेग-विहं तिविहं वा थूलं सावज्जमुज्झियं।
उद्दिट्ठ-कालियं तु वयं देसेण न संवसे गारत्थीहिं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४३८ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 451 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नारायादीहिं संगामे गोयमा सल्लिए नरे।
सल्लुद्धरणे भवे दुक्खं नानुकंपा विरुज्झए॥ Translated Sutra: हे गौतम! राजादि जब संग्राममें युद्ध करते हैं, तब उसमें कुछ सैनिक घायल होते हैं, तीर शरीर में जाता है तब तीर बाहर नीकालने से या शल्य उद्धार करने से उसे दुःख होता है। लेकिन शल्य उद्धार करने की अनुकंपा में विरोध नहीं माना जाता। शल्य उद्धार करनेवाला अनुकंपा रहित नहीं माना जाता, वैसे संसार समान संग्राम में अंगोपांग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 474 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंभीरस्स महा-मइणो उज्जुयस्स तवो-गुणे।
सुपरिक्खियस्स कालेणं सय-मज्झेगस्स वायणं॥ Translated Sutra: गम्भीरतावाले महा बुद्धिशाली तप के गुण युक्त अच्छी तरह से परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हों, काल ग्रहण विधि की हो उन्हें वाचनाचार्य के पास वाचना ग्रहण करनी चाहिए। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 488 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१०) तत्थ जे ते अपसत्थ-नाण-कुसीले ते एगूणतीसइविहे दट्ठव्वे, तं जहा–
सावज्ज-वाय-विज्जा-मंत-तंत-पउंजण-कुसीले १,
विज्जा-मंत-तंताहिज्जण-कुसीले २,
वत्थु-विज्जा पउंजणाहिज्जण-कुसीले ३-४,
गह-रिक्ख-चार-जोइस -सत्थ-पउंजणाहिज्जण-कुसीले ५-६,
निमित्त-लक्खण-पउंजणाहिज्जण कुसीले ७-८,
सउण-लक्खण-पउंजणाहिज्जण-कुसीले ९-१०,
हत्थि-सिक्खा-पउंजणाहिज्जण-कुसीले ११-१२,
धणुव्वेय-पउंजणाहिज्जण-कुसीले १३-१४,
गंधव्ववेय-पउंजणाहिज्जण-कुसीले १५-१६,
पुरिस-इत्थी-लक्खण-पउंजणज्झावण-कुसीले १७-१८,
काम-सत्थ-पउंजणाहिज्जण-कुसीले १९-२०,
कुहुगिंद जाल-सत्थ-पउंजणाहिज्जण-कुसीले २१-२२,
आलेक्ख-विज्जाहिज्जण-कुसीले Translated Sutra: उसमें जो अप्रशस्त ज्ञान कुशील है वो २९ प्रकार के हैं। वो इस तरह – १. सावद्यवाद विषयक मंत्र, तंत्र का प्रयोग करने समान कुशील। २. विद्या – मंत्र – तंत्र पढ़ाना – पढ़ना यानि वस्तुविद्या कुशील। ३. ग्रह – नक्षत्र चार ज्योतिष शास्त्र देखना, कहना, पढ़ाना समान लक्षण कुशील। ४. निमित्त कहना। शरीर के लक्षण देखकर कहना, उसके | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 490 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१४) नो आगमओ य सुपसत्थ-नाण-कुसीले अट्ठहा नेए, तं जहा–अकालेणं सुपसत्थ-नाणाहिज्जणऽज्झावण-कुसीले १,
अविनएणं सुपसत्थणाणाहिज्जण ज्झावण कुसीले २,
अबहुमानेनं सुपसत्थनाणाहिज्जनकुसीले अनोवहाणेणं सुपसत्थ-नाणाहिज्जणऽज्झावण-कुसीले ४, जस्स य सयासे सुपसत्थ-सुत्तत्थोभयमहीयं निण्हवण-सुपसत्थ-नाण-कुसीले ५,
सर-वंजण-हीनक्खरिय-ऽच्चक्खरिया हीयऽज्झावण-सुपसत्थ-नाण -कुसीले ६,
विवरीय-सुत्तत्थोभयाहीयज्झावण-सुपसत्थ-कुसीले ७,
संदिद्ध-सुत्तत्थोभयाहीयज्झावण-सुपसत्थनाण-कुसीले ८, Translated Sutra: नोआगम से सुप्रशस्त ज्ञान कुशील आठ तरह के – अकाल सुप्रशस्त ज्ञान पढ़े, पढ़ाए, अविनय से सुप्रशस्त ज्ञान ग्रहण करे, करवाए, अबहुमान से सुप्रशस्त ज्ञान पठन करे, उपधान किए बिना सुप्रशस्त ज्ञान पढ़ना, पढ़ाना, जिसके पास सुप्रशस्त सूत्र अर्थ पढ़े हो उसे छिपाए, वो स्वर – व्यंजन रहित, कम अक्षर, ज्यादा अक्षरवाले सूत्र पढ़ना, पढ़ाना, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 492 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं जइ एवं ता किं पंच-मंगलस्स णं उवहाणं कायव्वं
(२) गोयमा पढमं नाणं तओ दया, दयाए य सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं अत्तसम-दरिसित्तं
(३) सव्व-जग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं-अत्तसम-दंसणाओ य तेसिं चेव संघट्टण-परियावण-किलावणोद्दावणाइ-दुक्खु-पायण-भय-विवज्जणं,
(४) तओ अणासवो, अणासवाओ य संवुडासवदारत्तं, संवुडासव-दारत्तेणं च दमो पसमो
(५) तओ य सम-सत्तु-मित्त-पक्खया, सम-सत्तु-मित्त-पक्खयाए य अराग-दोसत्तं, तओ य अकोहया अमाणया अमायया अलोभया, अकोह-माण-माया-लोभयाए य अकसायत्तं
(६) तओ य सम्मत्तं, समत्ताओ य जीवाइ-पयत्थ-परिन्नाणं, तओ य सव्वत्थ-अपडिबद्धत्तं, सव्वत्थापडिबद्धत्तेण य अन्नाण-मोह-मिच्छत्तक्खयं
(७) Translated Sutra: हे भगवंत ! यदि ऐसा है तो क्या पंच मंगल के उपधान करने चाहिए ? हे गौतम ! प्रथम ज्ञान और उसके बाद दया यानि संयम यानि ज्ञान से चारित्र – दया पालन होता है। दया से सर्व जगत के सारे जीव – प्राणी – भूत – सत्त्व को अपनी तरह देखनेवाला होता है। जगत के सर्व जीव, प्राणी, भूत सत्त्व को अपनी तरह सुख – दुःख होता है, ऐसा देखनेवाला होने | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 494 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किमेयस्स अचिंत-चिंतामणि-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं गोयमा
(२) इयं एयस्स अचिंत-चिंतामणी-कप्प-भूयस्स णं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स णं सुत्तत्थं-पन्नत्तं
(३) तं जहा–जे णं एस पंचमं-गल-महासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरो ववत्ती तिल-तेल-कमल-मयरंदव्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव,
(४) जहत्थ किरियाणुगय-सब्भूय-गुणुक्कित्तणे, जहिच्छिय-फल-पसाहगे चेव परम-थुइवाए (५) से य परमथुई केसिं कायव्वा सव्व-जगुत्तमाणं।
(६) सव्व-जगुत्तमुत्तमे य जे केई भूए, जे केई भविंसु, जे केई भविस्संति, ते सव्वे चेव अरहंतादओ चेव नो नमन्ने ति।
(७) ते य पंचहा १ अरहंते, २ सिद्धे, ३ आयरिए, Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या यह चिन्तामणी कल्पवृक्ष समान पंच मंगल महाश्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ को प्ररूपे हैं ? हे गौतम ! यह अचिंत्य चिंतामणी कल्पवृक्ष समान मनोवांछित पूर्ण करनेवाला पंचमंगल महा श्रुतस्कंध के सूत्र और अर्थ प्ररूपेल हैं। वो इस प्रकार – जिस कारण के लिए तल में तैल, कमल में मकरन्द, सर्वलोक में पंचास्तिकाय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 495 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नामं पि सयल-कम्मट्ठ-मल-कलंकेहिं विप्पमुक्काणं।
तियसिंद च्चिय-चलणाण जिन-वरिंदाण जो सरइ॥ Translated Sutra: समग्र आठ तरह के कर्म समान मल के कलंक रहित, देव और इन्द्र से पूजित चरणवाले जीनेश्वर भगवंत का केवल नाम स्मरण करनेवाले मन, वचन, काया समान तीन कारण में एकाग्रतावाला, पल – पल में शील और संयम में उद्यम – व्रत नियम में विराधना न करनेवाली आत्मा यकीनन अल्प काल में तुरंत सिद्धि पाती है। सूत्र – ४९५, ४९६ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 501 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खीणट्ठ-कम्म-पाया मुक्का बहु-दुक्ख-गब्भवसहीनं।
पुनरवि अ पत्तकेवल-मनपज्जव-नाण-चरिततनू॥ Translated Sutra: केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और चरम शरीर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया ऐसे जीव भी अरिहंत के अतिशय को देखकर आठ तरह के कर्म का क्षय करनेवाले होते हैं। ज्यादा दुःख और गर्भावास से मुक्त होते हैं, महायोगी होते हैं, विविध दुःख से भरे भवसागर से उद्विग्न बनते हैं। और पलभर में संसार से विरक्त मनवाला बन जाता है। या हे गौतम | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 503 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) अहवा चिट्ठउ ताव सेसवागरणं, गोयमा
(२) एयं चेव धम्मतित्थंकरे त्ति नाम-सन्निहियं पवरक्खरुव्वहणं तेसिमेव सुगहियनाम-धेज्जाणं भुवणेक्क बंधूणं अरहंताणं भगवंताणं जिणवरिंदाणं धम्मतित्थंकराणं छज्जे, न अन्नेसिं,
(३) जओ य नेगजम्मंतरऽब्भत्थ- महोवसम- संवेग- निव्वेयानुकंपा- अत्थित्ताभिवत्तीस- लक्खण-पवर-सम्म-द्दंसणुल्लसंत-विरियानिगूहिय-उग्ग-कट्ठ-घोर-दुक्कर-तव
(४-५) निरंतरज्जिय-उत्तुंग-पुन्न- खंध-समुदय-महपब्भार- संविढत्त- उत्तम-पवर- पवित्त-विस्स-कसिण- बंधु-नाह- सामिसाल- अनंत-काल- वत्त-भव-भाव छिन्न-भिन्न- पावबंधनेक्क-अबिइज्ज -तित्थयर-नामकम्म- गोयनिसिय- सुकंत- दित्त- चारु-रुव- Translated Sutra: देखो सूत्र ५०१ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 518 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एत्थं च गोयमा केई अमुनिय-समय-सब्भावे, ओसन्न-विहारी, नीयवासिणो, अदिट्ठ-परलोग-पच्चवाए, सयंमती, इड्ढि-रस-साय-गारवाइमुच्छिए, राग-दोस-मोहाहंकार-ममीकाराइसु पडिबद्धे,
(२) कसिण संजम-सद्धम्म-परम्मुहे, निद्दय-नित्तिंस-निग्घिण-अकुलण-निक्किवे, पावायर-णेक्क-अभिनिविट्ठ-बुद्धी, एगंतेणं अइचंड-रोद्द-कूराभिग्गहिय-मिच्छ-द्दिट्ठिणो,
(३) कय-सव्व-सावज्ज-जोग-पच्चक्खाणे, विप्पमुक्कासेस-संगारंभ परिग्गहे, तिविहं तिविहेणं पडिवन्न-सामाइए य दव्वत्ताए न भावत्ताए, नाम-मेत्तंमुडे, अनगारे महव्वयधारी समणे वि भवित्ता णं एवं मन्नमाने, सव्वहा उम्मग्गं पवत्तंति,
(४) जहा–किल अम्हे अरहं-ताणं Translated Sutra: हे गौतम ! यहाँ कुछ शास्त्र के परमार्थ को न समजनेवाले अवसन्न शिथिलविहारी, नित्यवासी, परलोक के नुकसान के बारे में न सोचनेवाले, अपनी मति के अनुसार व्यवहार करनेवाले, स्वच्छंद, ऋद्धि, रस, शाता – गारव आदि में आसक्त हुए, राग – द्वेष, मोह – अंधकार – ममत्त्व आदि में अति प्रतिबद्ध रागवाले, समग्र संयम समान सद्धर्म से पराङ्मुख, | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 538 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तव-संजमेण बहु-भव-समज्जियं पाव-कम्म-मल-लेवं।
निद्धोविऊण अइरा अनंत-सोक्खं वए मोक्खं॥ Translated Sutra: इस प्रकार तपसंयम द्वारा कईं भव के उपार्जन किए पापकर्म के मल समान लेप को साफ करके अल्पकाल में अनंत सुखवाला मोक्ष पाता है। समग्र पृथ्वी पट्ट को जिनायतन से शोभायमान करनेवाले दानादिक चार तरह का सुन्दर धर्म सेवन करनेवाला श्रावक ज्यादा से ज्यादा अच्छी गति पाए तो भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं नीकल सकता। लेकिन अच्युत | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 541 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कह तं भन्नउ सोक्खं सुचिरेण वि जत्थ दुक्खमल्लियइ।
जं च मरणावसाणं सुथेव-कालीय-तुच्छं तु॥ Translated Sutra: हे गौतम ! लवसत्तम देव यानि सर्वार्थसिद्ध में रहनेवाले देव भी वहाँ से च्यवकर नीचे आते हैं फिर बाकी के बारे में सोचा जाए तो संसार में कोई शाश्वत या स्थिर स्थान नहीं है। लम्बे काल के बाद जिसमें दुःख मिलनेवाला हो वैसे वर्तमान के सुख को सुख कैसे कहा जाए ? जिसमें अन्त में मौत आनेवाली हो और अल्पकाल का श्रेय वैसे सुख | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 542 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वेण वि कालेणं जं सयल-नरामराण भवइ सुहं।
तं न घडइ सयमनुभूयमोक्ख-सोक्खस्सऽनंत-भागे वि॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५४१ | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 543 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संसारिय-सोक्खाणं सुमहंताणं पि गोयमा नेगे।
मज्झे दुक्ख-सहस्से घोर-पयंडेणुभुंजंति॥ Translated Sutra: हे गौतम ! अति महान ऐसे संसार के सुख की भीतर कईं हजार घोर प्रचंड़ दुःख छिपे हैं। लेकिन मंद बुद्धिवाले शाता वेदनीय कर्म के उदय में उसे पहचान नहीं सकता। मणि सुवर्ण के पर्वत में भीतर छिपकर रहे लोह रोड़ा की तरह या वणिक पुत्री की तरह (यह किसी अवसर का पात्र है। वहाँ ऐसा अर्थ नीकल सकता है कि जिस तरह कुलवान, लज्जावाली और | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 546 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कह तं भन्नउ पुन्नं सुचिरेण वि जस्स दीसए अंतं।
जं च विरसावसाणं, जं संसारानुबंधिं च॥ Translated Sutra: दीर्घकाल के बाद भी जिसका अन्त दिखाई न दे उसे पुण्य किस तरह कह सकते हैं। और फिर जिसका अन्त दुःख से होनेवाला हो और जो संसार की परम्परा बढ़ानेवाला हो उसे पुण्य या सुख किस तरह कह सकते हैं? | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 554 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तं बहु-भव-संचिय-तुंग-पाव-कम्मट्ठ-रासि-दहणट्ठं।
लद्धं मानुस-जम्मं विवेगमादीहिं संजुत्तं॥ Translated Sutra: कईं भव में ईकट्ठे किए गए, ऊंचे पहाड़ समान, आठ पापकर्म के ढ़ग को जला देनेवाले विवेक आदि गुण – युक्त मानव जन्म प्राप्त किया। ऐसा उत्तम मानव जन्म पाकर जो कोई आत्महित और श्रुतानुसार आश्रव निरोध नहीं करते और फिर अप्रमत्त होकर अठ्ठारह हजार शीलांग को जो धारण नहीं करते। वो दीर्घकाल तक लगातार घोर दुःखाग्नि के दावानल | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 556 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सो दीहर-अव्वोच्छिन्न-घोर-दुक्खग्गि-दाव-पज्जलिओ।
उव्वेविय संतत्तो, अनंतहुत्तो सुबहुकालं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५५४ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 570 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] होही खणं अप्फालिय-सूसर-गंभीर-दुंदुहि-णिग्घोसा।
जय-सद्द-मुहल-मंगल-कयंजली जह य खीर-सलिलेणं॥ Translated Sutra: पलभर हाथ हिलाना, सुन्दर स्वर में गाना, गम्भीर दुंदुभि का शब्द करते, क्षीर समुद्र में से जैसे शब्द प्रकट हो वैसे जय जय करनेवाले मंगल शब्द मुख से नीकलते थे और जिस तरह दो हाथ जोड़कर अंजलि करते थे, जिस तरह क्षीर सागर के जल से कईं खुशबूदार चीज की खुशबू से सुवासित किए गए सुवर्ण मणिरत्न के बनाए हुए ऊंचे कलश से जन्माभिषेक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 590 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एयं तु जं पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अनंत-गम-पज्जवेहिं सुत्तस्स य पिहब्भूयाहिं निज्जुत्ती-भास-चुण्णीहिं जहेव अनंत-नाण-दंसण-धरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जं तं आसि
(२) अह-न्नया काल-परिहाणि-दोसेणं ताओ निज्जुत्ती-भास चुण्णीओ वोच्छिण्णाओ
(३) इओ य वच्चंतेणं काल समएणं महिड्ढी-पत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुयहरे समुप्पन्ने
(४) तेणे यं पंच-मंगल-महा-सुयक्खंधस्स उद्धारो मूल-सुत्तस्स मज्झे लिहिओ
(५) मूलसुत्तं पुन सुत्तत्ताए गणहरेहिं, अत्थत्ताए अरहंतेहिं, भगवंतेहिं, धम्मतित्थंकरेहिं, तिलोग-महिएहिं, वीर-जिणिंदेहिं, Translated Sutra: यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध नवकार का व्याख्यान महा विस्तार से अनन्तगम और पर्याय सहित सूत्र से भिन्न ऐसे निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि से अनन्त ज्ञान – दर्शन धारण करनेवाले तीर्थंकर ने जिस तरह व्याख्या की थी। उसी तरह संक्षेप से व्याख्यान किया जाता था। लेकिन काल की परिहाणी होने के दोष से वो निर्युक्ति भाष्य, चूर्णिका | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 592 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं एवं जहुत्तविणओवहाणेणं पंचमंगल-महासुयक्खंधमहिज्जित्ताणं पुव्वानु-पुव्वीए, पच्छानुपुव्वीए, अनानुपुव्वीए, सर-वंजन-मत्ता-बिंदु-पयक्खर-विसुद्धं थिर-परिचियं काऊणं महया पबंधेणं सुत्तत्थं च विन्नाय, तओ य णं किम-हिज्जेज्जा
(२) गोयमा इरियावहियं।
(३) से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ, जहा णं पंचमंगल-महासुयक्खंधमहिज्जित्ता णं पुणो इरियावहियं अहीए
(४) गोयमा जे एस आया से णं जया गमणाऽगमणाइ परिणए अनेग-जीव-पाण-भूय-सत्ताणं अणो वउत्त-पमत्ते संघट्टण-अवद्दावण-किलामणं-काऊणं, अणालोइय-अपडिक्कंते चेव असेस-कम्मक्खयट्ठयाए किंचि चिइ-वंदन-सज्झाय -ज्झाणाइसु अभिरमेज्जा, तया Translated Sutra: हे गौतम ! इस प्रकार आगे कहने के अनुसार विनय – उपधान सहित पंचमंगल महा – श्रुतस्कंध (नवकार) को पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी से स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु और पदाक्षर से शुद्ध तरह से पढ़कर उसे दिल में स्थिर और परिचित करके महा विस्तार से सूत्र और अर्थ जानने के बाद क्या पढ़ना चाहिए ? हे गौतम ! उसके बाद | |||||||||
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अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 596 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (३) तओ परम-सद्धा-संवेगपरं नाऊणं आजम्माभिग्गहं च दायव्वं। जहा णं
(४) सहली-कयसुलद्ध-मनुय भव, भो भो देवानुप्पिया
(५) तए अज्जप्पभितीए जावज्जीवं ति-कालियं अनुदिणं अनुत्तावलेगग्गचित्तेणं चेइए वंदेयव्वे।
(६) इणमेव भो मनुयत्ताओ असुइ-असासय-खणभंगुराओ सारं ति।
(७) तत्थ पुव्वण्हे ताव उदग-पाणं न कायव्वं, जाव चेइए साहू य न वंदिए।
(८) तहा मज्झण्हे ताव असण-किरियं न कायव्वं, जाव चेइए न वंदिए।
(९) तहा अवरण्हे चेव तहा कायव्वं, जहा अवंदिएहिं चेइएहिं नो संझायालमइक्कमेज्जा। Translated Sutra: उसके बाद परम श्रद्धा संवेग तत्पर बना जानकर जीवन पर्यन्त के कुछ अभिग्रह देना। जैसे कि हे देवानुप्रिय ! तुने वाकई ऐसा सुन्दर मानवभव पाया उसे सफल किया। तुझे आज से लेकर जावज्जीव हंमेशा तीन काल जल्दबाझी किए बिना शान्त और एकाग्र चित्त से चैत्य का दर्शन, वंदन करना, अशुचि अशाश्वत क्षणभंगुर ऐसी मानवता का यही सार है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 598 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा साहु-साहुणि-समणोवासग-सड्ढिगाऽसेसा-सन्न-साहम्मियजण-चउव्विहेणं पि समण-संघेणं नित्थारग-पारगो भवेज्जा धन्नो संपुन्न-सलक्खणो सि तुमं। ति उच्चारेमाणेणं गंध-मुट्ठीओ घेतव्वाओ।
(२) तओ जग-गुरूणं जिणिंदाणं पूएग-देसाओ गंधड्ढाऽमिलाण-सियमल्लदामं गहाय स-हत्थेणोभय-खं धेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा नीसंदेहमेवं भाणियव्वं, जहा।
(३) भो भो जम्मंतर-संचिय-गुरुय-पुन्न-पब्भार सुलद्ध-सुविढत्त-सुसहल-मनुयजम्मं देवानुप्पिया ठइयं च नरय-तिरिय-गइ-दारं तुज्झं ति।
(४) अबंधगो य अयस-अकित्ती-णीया-गोत्त-कम्म-विसेसाणं तुमं ति, भवंतर-गयस्सा वि उ न दुलहो तुज्झ पंच नमोक्कारो, ।
(५) भावि-जम्मंतरेसु Translated Sutra: और फिर साधु – साध्वी श्रावक – श्राविका समग्र नजदीकी साधर्मिक भाई, चार तरह के श्रमण संघ के विघ्न उपशान्त होते हैं और धर्मकार्य में सफलता पाते हैं। और फिर उस महानुभाव को ऐसा कहना कि वाकई तुम धन्य हो, पुण्यवंत हो, ऐसा बोलते – बोलते वासक्षेप मंत्र करके ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद जगद्गुरु जिनेन्द्र की आगे के स्थान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 599 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किं जहा पंचमंगलं तहा सामाइयाइयमसेसं पि सुय-नाणमहिज्जिणेयव्वं
(२) गोयमा तहा चेव विणओवहाणेण महीएयव्वं, नवरं अहिज्जिणिउकामेहिं अट्ठविहं चेव नाणायरं सव्व-पयत्तेणं कालादी रक्खेज्जा, ।
(३) अन्नहा महया आसायणं ति।
(४) अन्नं च दुवालसंगस्स सुयनाणस्स पढम-चरिमजाम-अहन्निसमज्झयणज्झावणं, पंच-मंगलस्स सोलस द्धजामियं च।
(५) अन्नं च पंच-मंगलं कय-सामाइए इ वा, अकय-समाइए इ वा अहीए, सामाइयमाइयं तु सुयं चत्तारंभपरिग्गहे जावज्जीवं कय-सामाइए अहीज्जिणेइ, न उ णं सारंभ-परिग्गहे अकय-सामाइए।
(६) तहा पंचमंगलस्स आलावगे आलावगे आयंबिलं, तहा सक्कत्थवाइसु वि, दुवालसंगस्स पुन सुय-नाणस्स Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या जिस तरह पंच मंगल उपधान तप करके विधिवत् ग्रहण किया उसी तरह सामायिक आदि समग्र श्रुतज्ञान पढ़ना चाहिए ? हे गौतम ! हा, उसी प्रकार विनय और उपधान तप करने लायक विधि से अध्ययन करना चाहिए। खास करके वो श्रुतज्ञान पढ़ाते वक्त अभिलाषावाले को सर्व कोशीश से आठ तरह के कालादिक आचार का रक्षण करना चाहिए। वरना श्रुतज्ञान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 600 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं सुदुक्करं पंच-मंगल-महासुयक्खंधस्स विणओवहाणं पन्नत्तं, महती य एसा नियंतणा, कहं बालेहिं कज्जइ
(२) गोयमा जे णं केइ न इच्छेज्जा एयं नियंतणं, अविनओवहाणेणं चेव पंचमंगलाइ सुय-नाणमहिज्जिणे अज्झावेइ वा अज्झावयमाणस्स वा अणुन्नं वा पयाइ।
(३) से णं न भवेज्जा पिय-धम्मे, न हवेज्जा दढ-धम्मे, न भवेज्जा भत्ती-जुए, हीले-ज्जा सुत्तं, हीलेज्जा अत्थं, हीलेज्जा सुत्त-त्थ-उभए हीलेज्जा गुरुं।
(४) जे णं हीलेज्जा सुत्तत्थोऽभए जाव णं गुरुं, से णं आसाएज्जा अतीताऽणागय-वट्टमाणे तित्थयरे, आसाएज्जा आयरिय-उवज्झाय-साहुणो
(५) जे णं आसाएज्जा सुय-नाणमरिहंत-सिद्ध-साहू, से तस्स णं सुदीहयालमणंत-संसार-सागरमाहिंडेमाणस्स Translated Sutra: हे भगवंत ! यह पंचमंगल श्रुतस्कंध पढ़ने के लिए विनयोपधान की बड़ी नियंत्रणा – नियम बताए हैं। बच्चे ऐसी महान नियंत्रणा किस तरह कर सकते हैं ? हे गौतम ! जो कोई ईस बताई हुई नियंत्रणा की ईच्छा न करे, अविनय से और उपधान किए बिना यह पंचमंगल आदि श्रुतज्ञान पढ़े – पढ़ाए या उपधान पूर्वक न पढ़े या पढ़ानेवाले को अच्छा माने उसे नवकार | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 603 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं पभूयं कालाइक्कमं एयं,
(२) जइ कदाइ अवंतराले पंचत्तमुवगच्छेज्जा, तओ नमोक्कार विरहिए कहमुत्तिमट्ठं साहेज्जा गोयमा जं समयं चेव सुतोवयारनिमित्तेणं असढ-भावत्ताए जहा-सत्तीए किंचि तव-मारभेज्जा, तं समयमेव तमहीय-सुत्तत्थोभयं दट्ठव्वं।
जओ णं सो तं पंच-नमोक्कारं सुत्तत्थोभयं न अविहीए गेण्हे, किंतु तहा गेण्हे जहा भवंतरेसुं पि न विप्पणस्से, एयज्झवसायत्ताए आराहगो भवेज्जा। Translated Sutra: हे भगवंत ! इस प्रकार करने से, दीर्घकाल बीत जाए और यदि शायद बीच में ही मर जाए तो नवकार रहित वो अंतिम आराधना किस तरह साध सके ? हे गौतम ! जिस वक्त सूत्रोपचार के निमित्त से अशठभाव से यथाशक्ति जो कोई तप की शुरूआत की उसी वक्त उसने उस सूत्र का, अर्थ का और तदुभय का अध्ययन पठन शुरू किया ऐसा समझना। क्योंकि वो आराधक आत्मा उस | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 615 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो वागरे पसत्थं सुयनाणं, जो सुणेइ सुह-भावो।
ठइयासवदारत्तं तक्कालं गोयमा दोण्हं॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६११ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 620 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (२) एएणं अट्ठेणं गोयमा एवं वुच्चइ, जहा णं जावज्जीवं अभिग्गहेणं चाउक्कालियं सज्झायं कायव्वं ति।
(३) तहा य गोयमा जे भिक्खू विहीए सुपसत्थनाणमहिज्जेऊण नाणमयं करेज्जा, से वि नाण-कुसीले।
(४) एवमाइ नाण-कुसीले अनेगहा पन्नविज्जंति। Translated Sutra: हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि – जावज्जीव अभिग्रह सहित चार काल स्वाध्याय करना। और फिर हे गौतम ! जो भिक्षु विधिवत् सुप्रशस्त ज्ञान पढ़कर फिर ज्ञानमद करे वो ज्ञानकुशील कहलाता है। उस तरह ज्ञान कुशील की कईं तरह प्रज्ञापना की जाती है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 645 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहा तव-कुसीले दुविहे नेए– बज्झ-तव-कुसीले, अब्भिंतरतवकुसीले य।
तत्थ जे केई विचित्त-अनसन-ऊनोदरिया-वित्ती-संखेवण-रस-परिच्चाय-कायकिलेस-संलीणयाए त्ति छट्ठाणेसुं न उज्जमेज्जा, से णं बज्झ-तव-कुसीले।
तहा जे केइ विचित्तपच्छित्त-विनय-वेयावच्च-सज्झाय-झाण-उसग्गम्मि चेएसुं छट्ठाणेसुं न उज्जमेज्जा, से णं अब्भिंतर-तव-कुसीले। Translated Sutra: तप कुशील दो तरह के एक बाह्य तप कुशील और दूसरा अभ्यन्तर तप कुशील। उसमें जो कोई मुनि विचित्र इस तरह का दीर्घकाल का उपवासादिक तप, उणोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, काय – क्लेश, अंगोपांग सिकुड़े रखने समान संलीनता। इस छ तरह के बाह्य तप में शक्ति होने के बाद भी जो उद्यम नहीं करते, वो बाह्य तप कुशील कहलाते हैं। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 648 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहा अभिग्गहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ।
तत्थ दव्वे कुम्मासाइयं दव्वं गहेयव्वं, खेत्तओ गामे बहिं वा गामस्स, कालओ पढमपोरिसिमाईसु, भावओ कोहमाइसंपन्नो जं देहि इमं गहिस्सामि। एवं उत्तर-गुणा संखेवओ सम्मत्ता। सम्मत्तो य संखेवेणं चरित्तायारो। तवायारो वि संखेवेणेहंतरगओ।
(१) तहा विरियायारो। एएसु चेव जा अहाणी (२) एएसुं पंचसु आयाराइयारेसुं जं आउट्टियाए दप्पओ पमायओ कप्पेण वा अजयणाए वा जयणाए वा पडिसेवियं, तं तहेवालोइत्ताणं जं मग्ग-विउ-गुरू-उवइसंति तं तहा पायच्छित्तं नाणुचरेइ। एवं अट्ठारसण्हं सीलंग-सहस्साणं जं जत्थ पए पमत्ते भवेज्जा, से णं तेणं तेणं पमाय-दोसेणं कुसीले Translated Sutra: अभिग्रह – द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। उसमें द्रव्य अभिग्रह में ऊंबाले ऊंड़द आदि द्रव्य ग्रहण करना, क्षेत्र से गाँव में या गाँव के बाहर ग्रहण करना, काल से प्रथम आदि पोरिसी में ग्रहण करना, भाव से क्रोधादिक कषायवाला जो मुजे दे वो ग्रहण करूँगा इस प्रकार उत्तरगुण संक्षेप से समास किए। ऐसा करने से चारित्राचार | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 661 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह एवमवरोप्परं संजोज्जेऊण गोयमा कयं देसपरिच्चाय-निच्छयं तेहिं ति। जहा वच्चामो देसंतरं ति। तत्थ णं कयाई पुज्जंति चिर-चिंतिए मणोरहे हवइ य पव्वज्जाए सह संजोगो जइ दिव्वो बहुमन्नेज्जा जाव णं उज्झिऊणं तं कमागयं कुसत्थलं। पडिवन्नं विदेसगमणं। Translated Sutra: इस प्रकार वो आपस में एकमत हुए और वैसे होकर हे गौतम ! उन्होंने देशत्याग करने का तय किया कि – हम किसी अनजान देश में चले जाए। वहाँ जाने के बाद भी दीर्घकाल से चिन्तवन किए मनोरथ पूर्ण न हो तो और देव अनुकूल हो तो दीक्षा अंगीकार करे। उसके बाद कुशस्थल नगर का त्याग करके विदेश गमन करने का तय किया। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 670 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कज्जेण विना अकंडे एस पकुविओ हु ताव संचिट्ठे।
संपइ अणुणिज्जंतो न याणिमो किं च बहु मन्ने॥ Translated Sutra: बिना कारण बिना अवसर पर क्रोधायमान हुए भले अभी वैसे ही रहे, अभी शायद उसे समज न दी जाए तो भी वो बहुमान्य नहीं करेंगे। तो क्या अभी उसे समजाए कि हाल कालक्षेप करे ? काल पसार होगा तो उसे कषाय शान्त होंगे और फिर मेरी बताई सारी बातों का स्वीकार होगा। या तो हाल का यह अवसर ऐसा है कि उसके संशय को दूर कर सकूँगा। जब तक विशेष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 674 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नो देमि तुब्भ दोसं न यावि कालस्स देमि दोसमहं।
जं हिय-बुद्धीए सहोयरा वि भणिया पकुप्पंति॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६७० | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 676 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घन-राग-दोस-कुग्गाह-मोह-मिच्छत्त-खवलिय-मणाणं।
भाइ विसं कालउडं हिओवएसामय पइन्नं ति॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६७० | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 677 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवमायण्णिऊण तओ भणियं सुमइणा। जहा–तुमं चेव सत्थवादी भणसु एयाइं, नवरं न जुत्तमेयं जं साहूणं अवन्नवायं भासिज्जइ।
अन्नं तु–किं न पेच्छसि तुमं एएसिं महानुभागाणं चेट्ठियं छट्ठ-ट्ठम-दसम दुवालस-मास- खमणाईहिं आहा-रग्गहणं गिम्हायावणट्ठाए वीरासण-उक्कुडुयासण-नाणाभिग्गह-धारणेणं च कट्ठ-तवोणुचरणेणं च पसुक्खं मंस-सोणियं ति महाउ-वासगो सि तुमं, महा-भासा-समिती विइया तए, जेणेरिस-गुणोवउत्ताणं पि महानुभागाणं साहूणं कुसीले त्ति नामं संकप्पियंति। तओ भणियं नाइलेणं जहा मा वच्छ तुमं एतेणं परिओसमुवयासु, जहा अहयं आसवारेणं परिमुसिओ।
अकाम-निज्जराए वि किंचि कम्मक्खयं भवइ, किं पुन Translated Sutra: ऐसा सुनकर सुमति ने कहा – तुम ही सत्यवादी हो और इस प्रकार बोल सकते हो। लेकिन साधु के अवर्णवाद बोलना जरा भी उचित नहीं है। वो महानुभाव के दूसरे व्यवहार पर नजर क्यों नहीं करते ? छट्ठ, अट्ठम, चार – पाँच उपवास मासक्षमण आदि तप करके आहार ग्रहण करनेवाले ग्रीष्म काल में आतापना लेते है। और फिर विरासन उत्कटुकासन अलग – अलग | |||||||||
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अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 678 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसुं समुप्पज्जइ गोयमा जे केई घन-राग-दोस-मोह-मिच्छत्तो-दएणं सुववसियं पि परम-हिओवएसं अवमन्नेत्ताणं दुवालसंगं च सुय-नाणमप्पमाणी करीअ अयाणित्ता य समय-सब्भावं अनायारं पसं-सिया णं तमेव उच्छप्पेज्जा जहा सुमइणा उच्छप्पियं। न भवंति एए कुसीले साहुणो, अहा णं एए वि कुसीले ता एत्थं जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं समं पव्वज्जा कायव्वा तहा जारिसो तं निबुद्धीओ तारिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवं उच्चारेमाणेणं से णं गोयमा महंतंपि तवमनुट्ठेमाणे परमाहम्मियासुरेसुं उववज्जेज्जा।
से भयवं परमाहम्मिया सुरदेवाणं उव्वट्टे समाणे से सुमती Translated Sutra: हे भगवन् ! भव्य जीव परमाधार्मिक असुर में पैदा होते हैं क्या ? हे गौतम ! जो किसी सज्जड़ राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के उदय से अच्छी तरह से कहने के बावजूद भी उत्तम हितोपदेश की अवगणना करते हैं। बारह तरह के अंग और श्रुतज्ञान को अप्रमाण करते हैं और शास्त्र के सद्भाव और भेद को नहीं जानते, अनाचार की प्रशंसा करते हैं, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 679 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं तओ वी मए समाणे से सुमती जीवे कहं उववायं लभेज्जा गोयमा तत्थेव पडिसंताव-दायगथले तेणेव कमेणं सत्त भवंतरे तओ वि दुट्ठ साणे, तओ वि कण्हे, तओ वि वाणमंतरे, तओ वि लिंबत्ताए वणस्सईए।
तओ वि मनुएसुं, इत्थि त्ताए, तओ वि छट्ठीए, तओ वि मनुयत्ताए कुट्ठी, तओ वि वाणमंतरे, तओ वि महाकाए जूहाहिवती गए, तओ वि मरिऊणं मेहुणासत्ते अनंत वणप्फतीए, तओ वि अनंत कालाओ मनुएसुं संजाए। तओ वि मनुए महानेमित्ती, तओ वि सत्तमाए, तओ वि महामच्छे चरिमोयहिम्मि, तओ सत्तमाए तओ वि गोणे, तओ वि मनुए, तओ वि विडव कोइलियं, तओ वि जलोयं वि महामच्छे, तओ वि तंदुलमच्छे, तओ वि सत्तमाए तओ वि रासहे, तओ वि साणे, तओ वि किमी, तओ Translated Sutra: हे भगवंत ! वहाँ मरकर उस सुमति का जीव कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! वहीं वो प्रतिसंताप दायक नाम की जगह में, उसी क्रम से साँत भव तक अंड़गोलिक मानव रूप से पैदा होगा। उसके बाद दुष्ट श्वान के भव, उसके बाद काले श्वान में, उसके बाद वाणव्यंतर में, उसके बाद नीम की वनस्पति में, उसके बाद स्त्री – रत्न के रूपमेँ, उसके बाद छट्ठी नारकी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 681 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं तेणं सुमइ जीवेणं तक्कालं समणत्तं अनुपालियं तहा वि एवंविहेहिं नारय तिरिय नरामर विचित्तोवाएहिं एवइयं संसाराहिंडणं गोयमा णं जमागम बाहाए लिंगग्गहणं कीरइ, तं डंभमेव केवलं सुदीह संसार हेऊभूयं। नो णं तं परियायं संजमे लिक्खइ, तेणेव य संजमं दुक्करं मन्ने।
अन्नं च समणत्ताए एसे य पढमे संजम पए जं कुसील संसग्गी णिरिहरणं अहा णं नो निरिहरे, ता संजममेव न ठाएज्जा, ता तेणं सुमइणा तमेवायरियं तमेव पसंसियं तमेव उस्सप्पियं तमेव सलाहियं तमेवाणुट्ठियं ति।
एयं च सुत्तमइक्कमित्ताणं एत्थं पए जहा सुमती तहा अन्नेसिमवि सुंदर विउर सुदंसण सेहरणीलभद्द सभोमे य खग्गधारी तेणग समण Translated Sutra: हे भगवंत ! उस सुमति के जीव ने उस समय श्रमणपन अंगीकार किया तो भी इस तरह के नारक तिर्यंच मानव असुरादिवाली गति में अलग – अलग भव में इतने काल तक संसार भ्रमण क्यों करना पड़ा ? हे गौतम ! जो आगम को बाधा पहुँचे उस तरह के लिंग वेश आदि ग्रहण किए जाए तो वो केवल दिखावा ही है और काफी लम्बे संसार का कारण समान वो माने जाते हैं। उसकी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 693 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किमेस वासेज्जा गोयमा अत्थेगे जे णं वासेज्जा, अत्थेगे जे णं नो वासेज्जा से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा अत्थेगे जे णं वासेज्जा अत्थेगे जे णं नो वासेज्जा।
गोयमा अत्थेगे जे णं आणाए ठिए अत्थेगे जे णं आणा विराहगे। जे णं आणा ठिए से णं सम्मद्दंसण नाण चरित्ताराहगे। जे णं सम्मद्दंसण नाण चरित्ताराहगे से णं गोयमा अच्चंत विऊ सुपवरकम्मुज्जए मोक्खमग्गे। जे य उ णं आणा विराहगे से णं अनंताणुबंधी कोहे, से णं अनंतानुबंधी माने, से णं अनंतानुबंधी कइयवे, से णं अनंताणुबंधी लोभे, जे णं अनंतानुबंधी कोहाइकसाय चउक्के से णं घन राग दोस मोह मिच्छत्त पुंजे।
जे णं घन राग Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या उसमें रहकर इस गुरुवास का सेवन होता है ? हे गौतम ! हा, किसी साधु यकीनन उसमें रहकर गुरुकुल वास सेवन करते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं कि जो वैसे गच्छ में वास न करे। हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि – कोई वास करे और कोई वास नहीं करते ? हे गौतम ! एक आत्मा आज्ञा का आराधक है और एक आज्ञा का विराधक है। जो गुरु |