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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 963 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] माहणकुलसंभूओ आसि विप्पो महायसो ।
जायाई जमजण्णंमि जयघोसे त्ति नामओ ॥ Translated Sutra: ब्राह्मण कुल में उत्पन्न, महान् यशस्वी जयघोष ब्राह्मण था, जो हिंसक यमरूप यज्ञ में अनुरक्त यायाजी था। वह इन्द्रिय – समूह का निग्रह करने वाला, मार्गगामी महामुनि हो गए थे। एक दिन ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाराणसी पहुँच गए। वाराणसी के बाहर मनोरम उद्यान में प्रासुक शय्या और संस्तारक लेकर ठहर गए। सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 966 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अह तेनेव कालेणं पुरीए तत्थ माहणे ।
विजयघोसे त्ति नामेण जण्णं जयइ वेयवी ॥ Translated Sutra: उसी समय पुरी में वेदों का ज्ञाता, विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। एक मास की तपश्चर्या के पारणा के समय भिक्षा के लिए वह जयघोष मुनि विजयघोष के यज्ञ में उपस्थित हुआ। सूत्र – ९६६, ९६७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 978 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अग्गिहोत्तमुहा वेया जण्णट्ठी वेयसा मुहं ।
नक्खत्ताण मुहं चंदो धम्माणं कासवो मुहं ॥ Translated Sutra: जयघोष मुनि – वेदों का मुख अग्नि – होत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र है और धर्मों का मुख काश्यप (ऋषभदेव) है।जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चन्द्र की वन्दना तथा नमस्कार करते हुए स्थित है, वैसे ही भगवान् ऋषभदेव हैं। सूत्र – ९७८, ९७९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 980 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अजाणगा जण्णवाई विज्जामाहणसंपया ।
गूढा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवग्गिणो ॥ Translated Sutra: विद्या ब्राह्मण की सम्पदा है, यज्ञवादी इस से अनभिज्ञ हैं, वे बाहरमें स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे कि अग्नि राख से ढँकी हुई होती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 981 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो लोए बंभणो वुत्तो अग्गी वा महिओ जहा ।
सया कुसलसंदिट्ठं तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जिसे लोकमें कुशलपुरुषोने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 982 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो न सज्जइ आगंतुं पव्वयतो न सोयई ।
रमए अज्जवयणंमि तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो प्रिय स्वजनादि के आने पर आसक्त नहीं होता और जाने पर शोक नहीं करता है। जो आर्य – वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 983 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जायरूवं जहामट्ठं निद्धंतमलपावगं ।
रागद्दोसभयाईयं तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए जातरूप – सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग से, द्वेष से और भय से मुक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 984 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तवस्सियं किसं दंतं अवचियमंससोणियं ।
सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वय बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित हो गया है। जो सुव्रत है, शांत है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 985 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे ।
जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 986 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया ।
मुसं न वयई जो उ तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 987 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं ।
न गेण्हइ अदत्तं जो तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या अधिक अदत्त नहीं लेता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 988 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिव्वमानुसतेरिच्छं जो न सेवइ मेहुणं ।
मनसा कायवक्केणं तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च – सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र – ९८८, ९८९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 990 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अलोलुयं मुहाजीवी अनगारं अकिंचनं ।
असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो रसादि में लोलुप नहीं है, निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, गृह – त्यागी है, अकिंचन है, गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 991 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पसुबंधा सव्ववेया जट्ठं च पावकम्मुणा ।
न तं तायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंति ह ॥ Translated Sutra: उस दुःशील को पशुबंध के हेतु सर्व वेद और पाप – कर्मों से किए गए यज्ञ बचा नहीं सकते, क्योंकि कर्म बलवान् है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 992 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो ।
न मुनी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥ Translated Sutra: केवल सिर मुँडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओम् का जप करने से ब्राह्मण नहीं होता है, अरण्य में रहने से मुनि नहीं होता है, कुश का बना जीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता है। समभाव से श्रमण होता है। ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से मुनि होता है। तप से तपस्वी होता है। कर्म से ब्राह्मण होता है। कर्म | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 995 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए पाउकरे बुद्धे जेहिं होइ सिणायओ ।
सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: अर्हत् ने इन तत्त्वों का प्ररूपण किया है। इनके द्वारा जो साधक स्नातक होता है, सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1086 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥ Translated Sutra: ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग – ये जीव के लक्षण हैं। शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श – ये पुद्गल के लक्षण हैं। एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग – ये पर्यायों के लक्षण हैं। सूत्र – १०८६–१०८८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1089 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव ॥ Translated Sutra: जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व हैं। इन तथ्यस्वरूप भावों के सद्भाव के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। सूत्र – १०८९, १०९० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1091 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निसग्गुवएसरुई आणारुइ सुत्तबीयरुइमेव ।
अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवधम्मरुई ॥ Translated Sutra: सम्यक्त्व के दस प्रकार हैं – निसर्ग – रुचि, उपदेश – रुचि, आज्ञा – रुचि, सूत्र – रुचि, बीज – रुचि, अभिगम – रुचि, विस्तार – रुचि, क्रिया – रुचि, संक्षेप – रुचि और धर्म – रुचि। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1092 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो ॥ Translated Sutra: परोपदेश के बिना स्वयं के ही यथार्थ बोध से अवगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और संवर आदि तत्त्वों की जो रुचि है, वह ‘निसर्ग रुचि’ है। जिन दृष्ट भावों में, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में – ‘यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है’ – ऐसी जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है, वह ‘निसर्गरुचि’ है। सूत्र – १०९२, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1094 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए चेव उ भावे उवइट्ठे जो परेण सद्दहई ।
छउमत्थेण जिनेण व उवएसरुइ त्ति नायव्वो ॥ Translated Sutra: जो अन्य छद्मस्थ अथवा अर्हत् के उपदेश से जीवादि भावों में श्रद्धान् करता है, वह ‘उपदेशरुचि’ जानना | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1166 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मनगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
मनगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ। एगग्गचित्ते णं जीवे मनगुत्ते संजमाराहए भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! मनोगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है। एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ विकल्पों से मन की रक्षा करता है, और संयम का आराधक होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1169 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] मनसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
मनसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च निज्जरेइ। Translated Sutra: | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1170 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वइसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
वइसमाहारणयाए णं वइसाहारणददंसणपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ। Translated Sutra: भन्ते ! वाक् समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वाक् समाधारणा से जीव वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करता है। वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करके सुलभता से बोधि को प्राप्त करता है। बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1171 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कायसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। Translated Sutra: भन्ते ! काय समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काय समाधारणा से जीव चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करता है। चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करके यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करता है। यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करके केवलिसत्क वेदनीय आदि चार कर्मों का क्षय करता है। उसके बाद सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1172 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ। नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरंते संसारकंतारे न विणस्सइ। नाणविनयतवचरित्तजोगे संपाउणइ, ससमयपरसमयसंघायणिज्जे भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! ज्ञान – सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? ज्ञानसम्पन्नता से जीव सब भावों को जानता है। ज्ञान – सम्पन्न जीव चार गतिरूप अन्तों वाले संसार वन में नष्ट नहीं होता है। जिस प्रकार ससूत्र सुई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र जीव भी संसार में विनष्ट नहीं होता। ज्ञान, विनय, तप और चारित्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1174 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दंसणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
दंसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परं न विज्झायइ। परं अविज्झाएमाणे अनुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विरहइ। Translated Sutra: भन्ते ! दर्शन – सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? दर्शन सम्पन्नता से संसार के हेतु मिथ्यात्व का छेदन करता है, उसके बाद सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान – दर्शन से आत्मा को संयोजित कर उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विचरण करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1352 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विरज्जमाणस्स य इंदियत्था सद्दाइया तावइयप्पगारा ।
न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा ॥ Translated Sutra: इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1353 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं ससंकप्पविकप्पनासो संजायई समयमुवट्ठियस्स ।
अत्थे असंकप्पयतो तओ से पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥ Translated Sutra: ‘‘अपने ही संकल्प – विकल्प सब दोषों के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं।’’ – ऐसा जो संकल्प करता है, उसके मन में समता जागृत होती है और उससे उसकी काम – गुणों की तुष्णा क्षीण होती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1355 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वं तओ जाणइ पासए य अमोहणे होइ निरंतराए ।
अनासवे ज्झाणसमाहिजुत्ते आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ॥ Translated Sutra: उसके बाद वह सब जानता है और देखता है, तथा मोह और अन्तराय से रहित होता है। निराश्रव और शुद्ध होता है। ध्यान – समाधि से सम्पन्न होता है। आयुष्य के क्षय होने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1356 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जं बाहई सययं जंतुमेयं ।
दीहामयविप्पमुक्को पसत्थो तो होइ अच्चंतसुही कयत्थो ॥ Translated Sutra: जो जीव को सदैव बाधा देते रहते हैं, उन समस्त दुःखों से तथा दीर्घकालीन कर्मों से मुक्त होता है। तब वह प्रशस्त, अत्यन्त सुखी तथा कृतार्थ होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1358 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आनुपुव्विं जहक्कमं ।
जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवत्तए ॥ Translated Sutra: मैं अनुपूर्वी के क्रमानुसार आठ कर्मों का वर्णन करूँगा, जिनसे बँधा हुआ यह जीव संसार में परिवर्तन करता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1468 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा भवे ।
अरूवी दसहा वुत्ता रूविणो वि चउव्विहा ॥ Translated Sutra: अजीव के दो प्रकार हैं – रूपी और अरूपी। अरूपी दस प्रकार का है, और रूपी चार प्रकार का। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1469 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मत्थिकाए तद्देसे तप्पएसे य आहिए ।
अहम्मे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए ॥ Translated Sutra: धर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश। अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश। आकाशा – स्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश। और एक अद्धा समय ये दस भेद अरूपी अजीव के हैं। सूत्र – १४६९, १४७० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1471 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्माधम्मे य दोवेए लोगमित्ता वियाहिया ।
लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए ॥ Translated Sutra: धर्म और अधर्म लोक – प्रमाण हैं। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल केवल समय – क्षेत्र में नहीं है। धर्म, अधर्म, आकाश – ये तीनों द्रव्य अनादि, अपर्यवसित और सर्वकाल हैं। सूत्र – १४७१, १४७२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1474 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खंधा य खंधदेसा य तप्पएसा तहेव य ।
परमाणुणो य बोद्धव्वा रूविणो य चउव्विहा ॥ Translated Sutra: रूपी द्रव्य के चार भेद हैं – स्कन्ध, स्कन्ध – देश, स्कन्ध – प्रदेश और परमाणु। परमाणुओं के एकत्व होने से स्कन्ध होते हैं। स्कन्ध के पृथक् होने से परमाणु होते हैं। यह द्रव्य की अपेक्षा से है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे स्कन्ध आदि लोक के एक देश से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में भाज्य हैं – यहाँ से आगे स्कन्ध और परमाणु के | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 996 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं गुणसमाउत्ता जे भवंति दिउत्तमा ।
ते समत्था उ उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य ॥ Translated Sutra: इस प्रकार जो गुण – सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 998 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तुट्ठे य विजयघोसे इणमुदाहु कयंजली ।
माहणत्तं जहाभूयं सुट्ठु मे उवदंसियं ॥ Translated Sutra: संतुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़कर कहा – तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदेश दिया है। तुम यज्ञों के यष्टा हो, वेदों को जाननेवाले विद्वान् हो, ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हो, धर्मों के पारगामी हो। अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हो। अतः भिक्षुश्रेष्ठ ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनुग्रह | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 1003 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मट्टियामया ।
दो वि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सोतत्थ लग्गई ॥ Translated Sutra: एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके गये। वे दोनों दिवार पर गिरे। जो गीला था, वह वहीं चिपक गया। इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और काम – भोगों में आसक्त है, वे विषयों में चिपक जाते हैं। विरक्त साधु सूखे गोले की भाँति नहीं चिपकते हैं।’’ सूत्र – १००३, १००४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 1005 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं से विजयघोसे जयघोसस्स अंतिए ।
अनगारस्स निक्खंतो धम्मं सोच्चा अनुत्तरं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार विजयघोष, जयघोष अनगार के समीप, अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1007 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सामायारिं पवक्खामि सव्वदुक्खविमोक्खणिं ।
जं चरित्ताण निग्गंथा तिन्ना संसारसागरं ॥ Translated Sutra: सामाचारी सब दुःखों से मुक्त कराने वाली है, जिसका आचरण करके निर्ग्रन्थ संसार सागर को तैर गए हैं। उस सामाचारी का मैं प्रतिपादन करता हूँ – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1008 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पढमा आवस्सिया नाम बिइया य निसीहिया ।
आपुच्छणा य तइया चउत्थी पडिपुच्छणा ॥ Translated Sutra: पहली आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, तीसरी आपृच्छना, चौथी प्रतिपृच्छना, पाँचवी छन्दना, छट्ठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार, आठवीं तथाकार नौवीं अभ्युत्थान और दसवीं उपसंपदा है। इस प्रकार ये दस अंगो वाली साधुओं की सामाचारी प्रतिपादन की गई है। सूत्र – १००८–१०१० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1010 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अब्भुट्ठाणं नवमं, दसमा उवसंपदा ।
एसा दसंगा साहूणं सामायारी पवेइया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १००८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1011 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गमने आवस्सियं कुज्जा ठाणे कुज्जा निसीहियं ।
आपुच्छणा सयंकरणे परकरणे पडिपुच्छणा ॥ Translated Sutra: (१) बाहर निकलते समय ‘‘आवस्सई’’ कहना, ‘आवश्यकी’ सामाचारी है। (२) प्रवेश करते समय ‘’निस्सिहियं’’ कहना ‘नैषेधिकी’ सामाचारी है। (३) अपने कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना, ‘आपृच्छना’ सामाचारी है। (४) दूसरों के कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना ‘प्रतिपृच्छना’ सामाचारी है। (५) पूर्वगृहीत द्रव्यों के लिए आमन्त्रित | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1014 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुव्विल्लंमि चउब्भाए आइच्चंमि समुट्ठिए ।
भंडयं पडिलेहित्ता वंदित्ता य तओ गुरु ॥ Translated Sutra: सूर्योदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में उपकरणों का प्रतिलेखन कर गुरु को वन्दना कर हाथ जोड़कर पूछें कि – अब मुझे क्या करना चाहिए ? भन्ते ! मैं चाहता हूँ, मुझे आप आज स्वाध्याय में नियुक्त करते हैं, अथवा वैयावृत्य मैं। वैयावृत्य में नियुक्त किए जाने पर ग्लानि से रहित होकर सेवा करे। अथवा सभी दुःखों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1017 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो ।
तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिनभागेसु चउसु वि ॥ Translated Sutra: विचक्षण भिक्षु दिन के चार भाग करे। उन चारों भागों में स्वाध्याय आदि गुणों की आराधना करे। प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। सूत्र – १०१७, १०१८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1019 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसाढे मासे दुपया पोसे मासे चउप्पया ।
चित्तासोएसु मासेसु तिपया हवइ पोरिसी ॥ Translated Sutra: आषाढ़ महीने में द्विपदा पौरुषी होती है। पौष महीने में चतुष्पदा और चैत्र एवं आश्वीन महीने में त्रिपदा पौरुषी होती है। सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल की वृद्धि और हानि होती है। आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख के कृष्ण पक्ष में एक – एक अहोरात्रि का क्षय होता है। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1022 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जेट्ठामूले आसाढसावणे छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा ।
अट्ठहिं बीयतियंमी तइए दस अट्ठहिं चउत्थे ॥ Translated Sutra: जेष्ठ, आषाढ़ और श्रावण में छह अंगुल, भाद्रपद, आश्वीन और कार्तिक में आठ अंगुल तथा मृगशिर, पौष और माघ – में दस अंगुल और फाल्गुन, चैत्र, वैसाख में आठ अंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखन का पौरुषी समय होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1023 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो ।
तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसु वि ॥ Translated Sutra: विचक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करे। उन चारों भागों में उत्तर – गुणों की आराधना करे। प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। सूत्र – १०२३, १०२४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२६ सामाचारी |
Hindi | 1025 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जं नेइ जया रत्तिं नक्खत्तं तंमि नहचउब्भाए ।
संपत्ते विरमेज्जा सज्झायं पओसकालम्मि ॥ Translated Sutra: जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है, तब वह ‘प्रदोषकाल’ होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाना चाहिए। वही नक्षत्र जब आकाश के अन्तिम चतुर्थ भाग में आता है, तब उसे ‘वैरात्रिक काल’ समझकर मुनि स्वाध्याय में प्रवृत्त हो। सूत्र – १०२५, १०२६ |